विष्णु खरे : यह बाहु कुबेर, इंद्रजाल और कैमरे के बली हैं












एस॰एस॰ राजामौली के निर्देशन में तेलगु भाषा में बनी 'बाहुबली' फिल्म को देश की अब तक की सबसे महंगी फिल्म बताया जा रहा है जिसमें दो भाइयों के बीच साम्राज्य पर शासन के लिए युद्ध की गाथा दिखायी गयी है. इसे हिन्दी, मलयाली, अंग्रेजी और फ्रेंच में डब किया गया है. अपार धन और तकनीक के इस्तेमाल के बावजूद क्या यह फ़िल्म वास्तव में ‘एपिक’ है ?

प्रख्यात आलोचक-कवि  विष्णु खरे का आलेख. 


यह बाहु कुबेर, इंद्रजाल और कैमरे के बली हैं             
विष्णु खरे 


र्वे गुणाः कांचनं आश्रयन्ते. अम्बानी की अट्टालिका कितनी भी भद्दी और हास्यास्पद क्यों न हो, उसकी तुलना ताजमहल से की जाएगी. अमीर ज़ादे-ज़ादियाँ भले ही बदशक्ल और कौआ-कंठ हों,उन्हें थर्ड पेज पर कामदेव और लता दीदी का अवतार सिद्ध किया जाएगा, फिल्मों में चांस मिलेगा. पैसे देकर कविता-गल्प,प्रकाशक,पत्रिकाएँ और आलोचक खरीदे जाएँगे. प्रोफ़ेसर,गाइड,एक्सपर्ट के बाज़ार-भाव चुकाओ, हिंदी में फ़स्क्लास एम.ए.पीएच.डी हो जाओ. किसी फिल्म में कुछ सौ करोड़ लगाओ, पहले तो सबकी घिग्घी बंद कर दो, फिर उनसे मुसाहिबी और गुलामी करवा लो. चर्चाधीन दिवंगत कवि मलयज के शब्दों को कुछ बदलें तो ‘’सब गिड़गिड़ा कर ताली बजा देते हैं’’.

राजमौलि की फिल्म मूलतः धनबली है यद्यपि हम हर शुक्रवार को देखते हैं कि कितने ही धनपिशाचों की फ़िल्में फ्लॉप होती हैं. दक्षिण भारतीय सिने-दर्शक तो अपने आराध्यों को लेकर आत्महत्या तक कर लेते हैं लेकिन ’बाहुबली’ जैसी दक्षिणी-तेलुगु फिल्म ने शायद ए.वी.एम. की ‘चंद्रलेखा’ के बाद पहली बार आंध्र के उत्तर में इतनी उत्कंठा, दीवानगी, रोब, आतंक और भयादोहन पैदा किए होंगे. आज माहौल ऐसा कर दिया गया है कि जिस तरह वर्तमान असली बाहुबलियों के बारे में कुछ-भी बोलना जोखिम-भरा है, वैसे ही इस सिनेमाई बाहुबली को लेकर है. इधर कुछ घटनाएँ भी ऐसी हुई हैं कि फिल्म-समीक्षक अपनी बात कहने से डरने लगे हैं हालांकि यह सच है कि कुछ अलग और बहादुर दिखने के लिए ज़बरदस्ती किसी भी चीज़ या व्यक्ति की निंदा भी नहीं करना चाहिए.

‘बाहुबली’ में ‘रामायण’, ’महाभारत’, ’भागवत’, ’प्राचीन बाइबिल’, यूनानी पुराकथाओं, ’टार्ज़न’, ’दि टैन कमान्डमैंट्स’, अंग्रेज़ी ’अवतार’ और अनेक ऐसी मिथकों और नई-पुरानी फिल्मों की प्रेरणाएँ सक्रिय हैं. जिस तरह पश्चिमी पॉप-संगीत में कई गानों से एक-एक पंक्ति लेकर medley नामक  चीज़ बनाई जाती है, ’बाहुबली’ भी एक पंचमेल नेत्रसुख बिरयानी है. यह सिर्फ देखने के लिए बनाई गई है. जिस तरह लोक कथा में मगर की पीठ पर बैठा संकटग्रस्त बन्दर कहता है कि वह अपना कलेजा घर में ही भूल आया है, वैसे ही इस फिल्म को देखते हुए आपको बार-बार कहते रहना पड़ता है कि हाँ, राजमौलि गारु, हम आपकी इस इतनी महँगी फिल्म के लिए अपना दिमाग़ डेरे पर ही छोड़ कर आए हैं.

जैसा कि आजकल अधिकांश ऐसी देसी-फ़िरंगी फिल्मों के साथ है, दस-बीस मिनट के बाद, जब यह साफ़ हो जाता है कि हीरो, उसके सहयोगी और मुरीद और उसकी माशूकाएं कौन हैं, और खलनायकों के पक्ष के भी, तो यह बिलकुल ज़रूरी नहीं रह जाता कि आप कहानी के ब्यौरों और विकास को याद रखने की ज़हमत उठाएँ. फिल्म को सिर्फ दो खेमों में बँटना चाहिए. ज़हन में सिर्फ यह रखें कि नामुमकिन-से-नामुमकिन चीज़ हो सकती है और आपको ढाई घंटे तक उन्हें ध्रुव-सत्य मानना है. कोई भी सवाल उठाया तो समझिए कि आप गए. जैसा सलमान खान की कला के साथ है, यहाँ भी आपको बालिश – मेंटली रिटार्डेड – होना होता है. (लेकिन यह न भूलें कि हाल में सलमान खान ने देश और सिने-जगत के अनेक प्रबुद्ध व्यक्तियों का साथ देते हुए पुणे फिल्म इंस्टिट्यूट में सर्वोच्च पद पर एक नितांत अयोग्य और संदिग्ध हिन्दुत्ववादी अभिनेता की नियुक्ति की सही निंदा की है और मुझे हर्षित, चकित और क़ायल किया है.)

बहरहाल, ‘बाहुबली’ को लेकर  आप यह नहीं पूछ सकते कि यह किस युग की कहानी है जिसमें इक्का-दुक्का रथ हैं, उम्दा से उम्दा तलवारें, भाले, बरछे हैं, वास्तु-कला चार्ल्स कोरिआ, लचिंस (जिसे कुछ जाहिल ‘लुटियंस’ लिखते हैं) और ल कार्बूज़िए से अधिक विकसित है, ढलवाँ सोने की पचास फ़ुट ऊँची मूर्तियाँ बनती हैं, निहत्था साँड-युद्ध है, दो-तीन हाथियों को लोहे के पग-कवच पहनाए जाते हैं, घोड़ों का अकाल है, नावों का नाम नहीं है, पक्षी और जलपाखी नहीं है, नगरों में आम जनता नहीं दीखती, एक रानी है जो मुर्गों के लायक एक दड़बे में अहर्निश क़ैद है, निआग्रा से ऊँचे जलप्रपात के पास खड़े पात्र बूँदों और फुहारों से भीगते नहीं, पत्थर के गोलों से बंधी छोलदारी को फेक कर दुश्मन की फ़ौज को जलाया जाता है, गोलन हाइट्स से अरबी हथियार-व्यापारी एक तलवार बेचने आते हैं, हिन्दू देवी-देवताओं के नाम पर केवल शिव-लिंग और चंडी-काली की पूजा होती है, और नायक का दुस्साहस इतना है कि वह अपनी एवज़ी माँ की सुविधा के लिए उस करीब एक टन वज़न के इकलौते  शिव-लिंग को उखाड़ कर कहीं और स्थापित कर देता है. फिल्म की पार्श्वभूमि में शुद्ध संस्कृत श्लोकों और मूल शिव- तथा दुर्गा-स्तोत्रों का वाचन-गायन भी है.

जिस तरह ‘भाँग की पकौड़ी’ सरीखी  पोर्नोग्राफ़िक नंगी पुस्तकों में होता है कि हर उपलब्ध छिद्र एवं शिश्नाकार  से हर व्यक्ति हर तरह का अजाचारी सम्भोग करता है वैसे ही ऐसी फिल्मों की एक अलग पोर्नोग्राफी होती है – इनमें कभी-भी, किसी के भी साथ कुछ भी संभव-असंभव घट सकता है. इस पट-पोर्नोग्राफी को मदालसा स्त्रियों के मादक, अध उघरे सुख देत शरीर, ऐद्रिक फ़ोटोग्राफ़ी, स्पेशल इफ़ेक्ट्स का इंद्रजाल मिलकर बहुत सुन्दर बना डालते हैं. पोर्नोग्राफी में कोई इमोशन, कोई भावना नहीं होती. उसका लक्ष्य केवल आपके शरीर का यौनोपयोग है. ’’बाहुबली’’ भी आपमें कोई भी मानवीय भावनाएँ नही जगाती. उसका ध्येय और तक़ाज़ा एक ही है – आप उसे ‘’एन्जॉय’’ कर रहें हैं या नहीं. अन्यथा यह एक निरुद्देश्य,self-indulgent फिल्म है.

‘’बाहुबली’’ के उत्तरार्ध में एक लंबा, उलझाऊ फ़्लैशबैक भी है – फिल्म इतिहास का शायद अपने ढंग का पहला, जिसमें एक लम्बे, ऊटपटाँग, ’’सम्पूर्ण’’ युद्ध का अंकन है. उसमें लाखों सैनिक लड़-मर रहे हैं लेकिन पता नहीं कहाँ खड़े हुए राज-परिवार का हर सदस्य सारे ब्यौरे इस तरह देख रहा है जैसे वह संजय है और धृतराष्ट्र सिर्फ़ दर्शक है. राजमौलि को इसमें हर तरह की हिंसा दिखने का औचित्यपूर्ण T20 अवसर मिल सका है. चिअर-गर्ल्स की कमी अखरती है.

इसे लोग ‘महागाथात्मक’, ’महाकाव्यात्मक’ यानी अंग्रेजी में epic फिल्म कह रहे हैं. इंद्रजाल के इस सिने-युग में किसी भी ऐसी महँगी, किन्तु एस.एफ़. लैबोरेटरी में गढ़ी गई फिल्म को आप ‘ईपिक’ फिल्म कह सकते हैं. लेकिन महाकाव्य ‘महाभारत’ में मय दानव ने द्रौपदी के मनोरंजन हेतु दुर्योधन का मखौल उड़ाने के लिए मात्र एक उप-पर्व में आभासी भवन रचा था. मय संसार का पहला काल्पनिक स्पेशल इफेक्ट्स रचयिता और पंडित है. उसकी उस ‘’ऐतिहासिक’’ निर्मिति को भी ‘ईपिक’ नहीं कहा जा सकता. ’’बाहुबली’’ अभी ‘’को वाडिस’’ ’’दि टैन कमान्डमेंट्स’, ’’बिन हूर’’ ‘’दि ईजिप्शियन’’ और ‘’एंटनी एंड क्लेओपेट्रा’’ के स्तर का एपिक नहीं है और ‘’ईवान ह्रोज़्नी’’ से तो  बहुत दूर है.

लेकिन मैं इसकी सख्त सिफारिश करूँगा कि इस फिल्म को एक दफ़ा ज़रूर देखा जाए. एक स्तर तक यह मनोरंजक है. सिनेमा के विद्यार्थी को यह बताती है कि ऐसी फिल्मों के लिए अब इंद्रजाल की तकनीक कितने केन्द्रीय महत्व की हो चुकी है और बंगलूरु,पुणे,चेन्नै तथा हैदराबाद के समसामयिक युवा भारतीय ‘’मय दानव’’ अपने आदिपुरुष से देखते-ही-देखते कितना आगे निकल गए हैं. एम.एम.कीरवाणी के गीत तथा पार्श्वसंगीत बेहतरीन हैं. सेन्तिल है. अवढरदानी शिवजी नायक द्वारा अपने विस्थापित निरादर के बावजूद इससे अरबों का बिज़नेस करवाएँ. यह संसार में झंडे गाड़े. दक्षिणी फिल्मों में एक्टिंग जैसी और जितनी अच्छी होती है, उतनी है, हालाँकि ऐसी फिल्मों में एक्टिंग की पर्वाह कौन करता है और यूँ भी ‘डब्ड’ फिल्मों में अभिनय को अच्छा अभिनय नहीं माना जाता – उसे ऑस्कर नहीं मिलता.

‘’बाहुबली’’ के कुमार की फोटोग्राफी भी विश्व-स्तर की है. पीटर हाइन की मार-धाड़ अच्छी है लेकिन भारतीय नहीं लगती, ’किल बिल’ वगैरह की याद दिलाती एक दृश्य पर मुझे गहरी आपत्ति है, हर भारतीय को होना चाहिए और विदेशियों को तो होगी ही. जब कथित निम्न कुल और वर्ग का बताया गया वफ़ादार बुज़ुर्ग दास-योद्धा कट्टप्पा, जिसे इस फिल्म के सर्वश्रेष्ठ अभिनेता सत्यराज ने जीवंत कर दिया है, बाहुबली को पहचान कर उसका ’चरण’ अपने सर पर कई क्षणों तक रखे रहता है तो यह मुझे हज़ारों वर्षों के अमानवीय मनुवादी दलित-शोषण,  और आत्म-सम्मानहीन भारतीय बहुमत  द्वारा आक्रामक इस्लाम तथा ईसाइयत के बाद आज तक के देशी शासक वर्ग की सैकड़ों वर्षों की गुलामी, को ‘पावन,विशाल-ह्रदय स्वामिभक्ति’ में बदलने जैसा लगा. राजमौलि को इस शर्मनाक सीन को पहली फ़ुर्सत में निकाल देना चाहिए
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(विष्णु खरे का कालम, नवभारत टाइम्स मुंबई में आज प्रकाशित, संपादक और लेखक के प्रति आभार के साथ.अविकल 
vishnukhare@gmail.com 
9833256060

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  1. फिल्म देखते हुए वाकई आपको दिमाग घर रखना पड़ता है। मै फिल्म में काफी हंसा भी। विष्णु सर ने पॉर्नोग्राफ़ी वाली बात ठीक ही कही है। हाँ टाइम काटना हो देख सकते हैं।कोई हर्ज नहीं।

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  2. बहुत सटीक समीक्षा । कल रात ही देखी ये फ़िल्म और वाकई ये एपिक नही है। राजवंशों की पृष्ठभूमि और युद्ध से कोई महाकाव्यात्मक आख्यान नही रचा जा सकता । अच्छी रचना और महान कविता के विषय में कहा जाता है कि वह युग को बदलने का सामर्थ्य रखती है पर इसमें तो वही देखी दिखाई फ़ॉर्मूलेबाज़ी अधिक चुस्त तकनीक के साथ है। हाँ ये तकनीक खींचती है दर्शक को पर कथ्य के स्तर पर क्या हासिल। कभी धर्मवीर याद आती है तो कभी ट्रॉय।

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  3. विष्णु जी का जबाब नहीं .बहूत बेबाकी से उन्होंने महाबली के पीछे के यथार्थ को बताया है .फिल्मे अब फिल्मे नहीं धंधा बन चुकी है .इस धंधे में शातिर लोग शामिल है .अब वे फिल्मे ही श्रेष्ट मानी जाती है जो १०० या २०० करोड़ का मुनाफ़ा कमाए .इस मुनाफे का नेट वर्क ग्लोबल हो चुका है .टी. वी चैनलों में इनका प्रचार प्रोडक्ट की तरह होता है .अब अच्छी फिल्मो के दिन गए ,बुरी फिल्मे हमारी चेतना को दूषित कर रही ,वे ब्रेन वास कर रही है .

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  4. घटिया समीक्षा. विष्णु खरे इस बात का सबूत हैं कि उम्र भी आदमी के दिमाग को कुद बना डालती है.

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  5. bilkul bebak aur sarthak tippani Vishnu Khare dwara..

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  6. ज्यादातर लोग उम्र के साथ dementia के शिकार होते हैं, यह एक स्वाभाविक, प्राकृतिक प्रक्रिया है. न्यूरॉन्स धीरे-धीरे क्षीण होने लगते हैं. पर उन लोगों का क्या किया जाय जिनमे न्यूरॉन्स बनते ही नहीं, neural development ही नहीं होता। वैज्ञानिक उसके बहुत से कारण बताते हैं जिनमे कई सारे genes/गुणसूत्रों के गलत तरीके से बनना या उनमे mutations आदि हैं. पर कुछ लोगों का neuronal डेवलपमेंट हिंदुत्व/इस्लाम वगैरह में अगाध श्रद्धा के कारण भी नहीं हो पाता - इन लोगों का कोई इलाज़ नहीं।

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  7. महेन्द्र के सिंह जी, ये लक्षण सिर्फ धार्मिक श्रद्धा के कारण नही होते बल्कि विचारधारा का कट्टरता में भी यही लक्षण होते हैं. और मैं आपसे सहमत कि धार्मिक कट्टरता के साथ साथ वैचारिक कट्टरता के पीड़ित व्यक्तियों का भी कोई इलाज नहीं हो सकता.

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  8. बौद्धिकता बखान के लिए हम कुछ भी कहें पर सच यही है कि फिल्म झकझोरती है,भारतीय सिनेमा के विगत इतिहास को देखते हुए सन्न करती है,निश्चित रूप से टेन कमानमेंट्स बेन हर और कई फिल्मों की जिनका विष्णु जी ने उल्लेख किया है,की याद दिलाती है लेकिन शर्माने के लिए मजबूर नहीं करती क्योंकि प्रेरित है प्रतिविम्ब नहीं,नक़ल तो बिलकुल नहीं.कट्प्पा या कडप्पा का चरित्र मेस्मेरेजिक है.लेकिन सर पर पैर रखने का दृश्य सचमुच वीभत्स,जुगुप्स,शर्मिंदा करने वाला तथा देखी गयी फिल्म के समूचे प्रभाव को एक झटके में नकारात्मक बना देने वाला है . मुझे हैरानी है किताबों में कार्टूनों पर बवाल मचाने वाले जातीय संगठनों ने अभी तक इसको लेकर कोई विरोध तक क्यों नहीं दर्ज किया .

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  9. No doubts it has great graphics, great cinematography which even Vishnu Khare ji has appreciated. However, this movie does not have soul. Coincidently. only BJP supporters that too upper caste audience has appreciated this movie. I have not come across any thinker or even audience belonging to untouchables (educated ones only, I am not talking about religious masses) class who had appreciated this movie so far.

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  10. एक तरह से अच्छा ही है. यदि फिल्मों से कमा कर अघाए एवं बेशुमार शोहरत पाए हीरो की फ़िल्में ऐसी फिल्मों के आगे न चल पाए तो सारा हीरोगिरी का भूत और गुरूर उतर आएगा!
    एक एक फिल्म में करोड़ों रुपए में इनकी नायिकी क्यों बिकनी चाहिए? श्रम का यह बेहूदा अधिमूल्यांकन तो रुकना ही चाहिए.
    देख नहीं रहे हैं, प्रेस कॉन्फ्रेंस में बजरंगी भाई लेकर आये सलमान खान की फटी जा रही है. बोलते जवाब देते नहीं बन रहा है. फिल्म को टैक्स फ्री करने की मांग कर रहे हैं जनाब. जैसे, भारत की जात-धर्म से गंधाई धरती को पवित्र कर के रख देगी उसकी फिल्म!

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  11. विष्णु जी... आपको जोधा अकबर जरूर बेहतर लगी होगी, फिर बीए पास कौन सी बुरी थी? राम गोपाल वर्मा की आग के तो आप कायल ही होंगे? कोई और फिल्म बताइए, जिसकी कहानी हर कोई जानता हो, फिर भी इतनी भव्य हो कि हर सीन में आश्चर्यचकित करती हो। आप फिल्म के नाम पर क्या चाहते हैं? ज्ञान? अवघड दानी बाबा तो वैसे ही दानी हैं। जो सोने की लंका दान दे सकते हैं, वो कुछ भी कर सकते हैं। फिर भी आपको शायद सलमान खान का 100 लोगों को साथ मारना ज्यादा सटीक लगता हो। कुछ जगिए सर, समालोचना कम मतलब अंट शंट नहीं होता, और आपकी हां में हां मिलाने वाले सिर्फ आपकी ............ सोच का फायदा उठाने की तरफ अग्रसर हैं। ये कदमताल करके नाम कमाना चाहते हैं। पर हकीकत ये है कि आपकी ये समीक्षा निरी बकवास टाइप है।
    आभार
    श्रवण शुक्ल

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  12. विष्णु खरेजी कुछ भी कहें ...अपनी दलीलों से जितने भी सेतु तैयार कर लें ...

    सच तो यही है कि 'बाहुबली ' की भव्यता मन मोहती है...दिल को थामने पर मज़बूर करती है...

    देखने वालों को रोमांच चाहिए ...और भरपूर मनोरंजन चाहिए ...और यह फ़िल्म इस लिहाज़ से कहीं भी निराश नहीं करती ...!

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  13. फ़िल्म बाहुबली का मूल विचार देशज है। पहली बार किसी भारतीय फ़िल्म ने हमारे पंचतंत्र, बेताल, हातिमताई सरीखी दंतकथाओं और सुनी सुनाई दादी नानी की कहानियो से मन में उपजी उन सभी कपोल कल्पनाओ को उसी भव्यतम और विराट स्वरूप का तीखापन लिए हूबहू परदे पर उतारा है जैसा हम अक्सर सोचा करते थे। ऐसी कहानियो को पढ़ते और सुनते समय जिस भव्यता, रोचकता, भयावहता, सौंदर्य और लार्जर देन लाइफ की इमेजिनेसन हम करते है, उसको साक्षात परदे पर देखना ही बाहुबली है। फ़िल्म में जो कुछ अविश्वसनीय सा और दक्षिण भारतीय सिनेमा की मेकिंग के चिर परिचित लार्जर देन लाइफनुमा जैसा घटित होता है वो इसके देशज स्वरूप् और उसी सुनी सुनाई जेहन में बसी किस्सागोई के कारण स्वीकार्य सा लगता है। जब एक किरदार बलशाली भैंसे से लड़ रहा होता है, एक किरदार बड़े शिवलिंग को उठाकर पर्वतो के झरने के नीचे लेकर जाता है, एक किरदार उफनती नदी में बच्चे को बचाने के लिए प्रयासरत है तो कही ना कही दर्शको के जेहन में महाभारत के भीम, वासुदेव और रामायण के बाली जैसे पौराणिक चरित्रो की छवियो को गढ़ने में निर्देशक सफल रहता है। झरने को पार करते समय नायिका, चाँद और अलसुबह के वातावरण का प्रयोग, झरने के ऊपर एक अलग अलहदा खुलने वाला नया संसार, गुफा का शॉर्टकट, नायिका की सफेदी पर नीले रंग की तितलिया, नदी के पास जलपरीनुमा अंदाज़ में नायिका का पानी में हाथ डालना और पानी के अंदर नायक द्वारा उसकी हथेली पर चित्रकारी करना जैसे सीन से निर्देशक ने यूरोपीय लोककथाओ की फंतासी का तड़का भी बड़ी होशियारी से लगाया है। लार्जर देन लाइफ की जो छवियां रजनीकांत और सलमान की चलताऊ फिल्मो और चलताऊ सिचुवशन में जहा बेहद बचकानी लगती है वही बच्चों के ही मूल मनोविज्ञान वाले लोक कथानुमा इस विचार में यही लार्जर देन लाइफ की छवि फ़िल्म की असली जान है।

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  14. सही मायनो में ये पहली ऐसी भारतीय फ़िल्म है जो हॉलीवुड के स्तर के स्पेशल इफेक्ट्स देने में कामयाब रही। फ़िल्म के उस भव्य स्वप्न नगर को रचने और उसका वातावरण तैयार करने में काफी होमवर्क किया गया। हमारे मुख्य सिनेमा में इस तरह की खपत प्रायः नही की जाती है जबकि विदेशी सिनेमा की मेकिंग में कालखंड और उसके वातावरण पर किया गया होमवर्क उनकी रचनात्मकता का जरूरी हिस्सा होता है। बाहुबली के इफेक्ट्स और वातावरण उम्दा होने के बावजूद मौलिक तो बिलकुल भी नही है। जिन स्थितियो में और जिस तरह के इफेक्ट्स दिखाये गए वो हॉलीवुड में कई बार प्रयोग हो चुके है। स्पेशल इफेक्ट्स का मौलिक प्रयोग बाहुबली को और ज्यादा विशेष बनाते पर बावजूद इसके फ़िल्म रोचक किस्सागोई लिए है। फ़िल्म की कसी हुई एडिटिंग आपको एक मिनिट के लिए भी बोझिल नही होने देती। सभी किरदार सधे हुए है और कहानी में बिलकुल पिरोये हुए से नजर आते है। एम एम करीम का म्यूजिक साधारण होने के बावजूद कहानी के प्रवाह को गति देता है। फ़िल्म एकदम से पीक पर पहुच रूक जाती है और साल 2016 में अपनी पूर्णता का फतवा जारी करती है पर तब तक तीन घंटे में ये मसाला फिल्म दर्शको को उसके टिकट से दुगुना मज़ा दे चुकी होती है। हॉल में बजती सीटीयो और तालियों से लगा कि बिना रजनी और खान तिकड़ी के भी दर्शको में उन्माद जगाया जा सकता है।हमारे देश में इतनी कहानिया कहने को और रचने को है फिर भी कहानियो की कमी के नाम पर रीमेक बनाये जा रहे है। विदेशी सिनेमा ने जहा छान छान कर अपनी विरासत में मिली किस्से कहानियो को बार बार अपने सिनेमा में रचा और गूंथा है, अपने इतिहास और इतिहास निर्माताओ को अपने सिनेमा में जिया है वही हमने ऐसा केवल और केवल प्रायोगिक सिनेमा के सगुफे के तौर पर ही किया है। दुखद है कि हमारे ग़ांधी भी हमसे बेहतर हॉलीवुड रचता है। इतनी विशाल संस्कृति और किस्सागोई के देश की कहानिया और चरित्र अब भी परदे पर आने के इंतज़ार में है। भेड़चाल वाला अपना सिनेमा बाहुबली की विराट सफलता के बाद अब इस और भी ध्यान देगा, ऐसी उम्मीद की जा सकती है। मुख्य धारा के निर्देशक जहां विदेशी सिनेमा से प्रेरित होकर पिज़्ज़ा बर्गर नुमा सिनेमा रचने में व्यस्त है तो वही दक्षिण भारतीय सिनेमा का अपना देसी चूल्हा है जिस पर बाहुबली जैसी देशी रसोई तैयार की जाती है और इस देश में देसी स्वाद के चटोकरो की कमी भी नही है। आप मनुहार से परोसेंगे तो लोग भी चटकारे ले ले कर अपने मनोरंजन की भूख को शांत करेंगे। दर्शको की ये आनंददायक तृप्ति ही दक्षिण भारतीय सिनेमा, उसके फिल्मकारों और उसके दर्शको को विशेष बनाती है।

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  15. बाहुबली पर आपकी समीक्षा पढ़ी. बहुत अच्छा लगा. मिलते-जुलते खयाल थे. हालांकि
    एक चीज़ जिसने मुझे काफ़ी परेशान किया उसका ज़िक्र आपकी समीक्षा में न पाकर निराश
    हुआ. अवंतिका को जिस तरह योद्धा से एक डेस्पेरेट युवती में बदल दिया गया. नायक
    के भौंडेपन पर आखिरकार उसका लट्टू हो जाना, नायक द्वारा लिटरली परत दर परत
    उसके कपड़े उतारना तो ठीक है, लेकिन अवंतिका की शख्सियत का इस क़दर बदल जाना कि
    जिस लक्ष्य तक पहुँचने के लिए उसने खुद को तैयार किया था उसी की लगाम उसने
    नायक के हाथों सौंप दी.

    और जिस मुखौटे का सिरा पकड़कर नायक ऊपर पहुंचता है, उस मुखौटे की कोई कहानी ही
    नहीं.

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  16. बिष्णु जी,
    बच्चे को पहले थप्पड़ मार दिया जाये और बाद मई उसे फुसला लिया जाये आपने भी कुछ ऐसा ही किया .आपने पहले तो पहले तो राजामौली की म्हणत पर पानी फेर दिया और बाद मे फिल्म जरूर देखने की अपील कर दी.आपको फिल्म मे कमियां तो निकल दी मगर आपको राजामौली की महनत नहीं दिखी दी.आप बुजुर्ग है और आपने भारतीय सिनेमा का काफी समय देखा होगा .क्या बाहुबली से पहले किसी ने ऐसी कोशिश की.ऐसी फिल्म बनाने की. यदि यही फिल्म फ्लॉप हो जाती तो शायद आप ये ब्लॉग भी न लिख रहे होते.और लोग भूल जाते.राजामौली ने हिम्मत दिखाई और एक भव्य फिल्म बने,आप के साथ समस्या ये है की आप पूंजीवाद के रोग से ग्रसित है.यदि आपको वास्तव मे फिल्म के ऊपर लेख लिखना होता तो आप अम्बानी को बिच मे न लाते.जिन फिल्मो की आप बात कर रहे है उनका बज़ट आपको पता होगा.
    पहले पूर्वाग्रह त्यागिये फिर लिखिए.
    सलमान खान आपको इसलिय अच्छे लगने लगे की उन्होंने तथाकथित हिन्दुबादी व्यक्ति का विरोध किया.आप का पसन्द,नापसंद का तरीका भा गया .आप के विचार से लगता है की आप मार्क्सवादी है,तो क्या आपका विरोध होना चाहिए,हिंद्त्व,इस्लाम ये विचारधाराएँ है तो क्या आपकी पसंद का आधार आदमी की विचारधारा हो गयी आदमी का विरोध उसके व्यक्तित्व केआधार पर होना चाहिए .
    अब बात करें कट्टप्पा की ,जिस द्रश्य की आप उल्लेख कर रहे है जिस युग की ये कहानी है उस युग मे दासप्रथा सामान्य बात है ,आपको इस पर ऐतराज नहीं होना चाहिए ,आपको ऐतराज़ है कोई बात नहीं, पर दूसरों को मत उकसाने का प्रयाश मत करिए.वैसे भी आप वामपंथी है तो आप को कैसे ये फिल्म पसंद आ सकती है.

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  17. समीक्षा की भी समीक्षा पढ़ ली। फ़िल्म देखने का साहस जुटाकर अपनी बुद्धि से सोचना पड़ेगा।वैसे इस बात से इनकार नहीं कि विष्णु जी ने एक तस्वीर खींच दी है।

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