सबद भेद : रीति काल का स्त्री पक्ष : सुजाता







हिंदी साहित्य में ब्रिटिश राज्य की स्थापना से पूर्व ब्रज भाषा में जिस तरह की कविताएँ बनायी जाती थीं, उन्हें आचार्यों ने रीतिकाल कहा है. इसे ‘श्रृंगार’ और ‘प्रेम’ की कविताओं का भी समय समझा जाता है. दरबारी प्रभाव और सामंती रुचियों के लिए इस  काल की पर्याप्त निंदा भी हुई है. कुछ विद्वानों ने इसे पतन काल भी कह डाला है. अब चूंकि यह हिंदी पाठ्यक्रम का हिस्सा है तो गाहे–बगाहे इस पर चर्चा भी होनी है. अभी तक यह चर्चा पुरुषों की नैतिकतावादी दृष्टि के दायरे में ही रही है.

आज जब एक सचेत स्त्री-अध्येता इस काल को देखती है तब उसे एक ‘सांस्कृतिक धक्का’ लगता है कि जैसे किसी ने नायिका से  रीतिक्रिया करते हुए चुपके से उसका एम.एस.एस. बना लिया हो और उसे सार्वजनिक भी कर दिया हो और उसे देखकर राजा-दरबारी आह-वाह कर रहे हों और कवीजी पर मुहरों की बरसा हो रही है.

डॉ. सुजाता के इस आलेख में इस काल को लेकर कुछ नई बातें हैं. पढ़ें  
  

रीतिकाल और रति  का  एम.एम.एस
सुजाता


(एक)
रीतिकाल पर  बात करना हिंदी  साहित्य के इतिहासकार  के लिए आसान  विषय कभी नही रहा. या तो वह रीतिकाल की लानत-मलामत मे व्यस्त हुआ या उसके प्रति एक रक्षात्मक रवैया अपनाता हुआ दिखा. जिस नायिकाभेद, श्रृंगार, रूपकथन ,नखशिख वर्णन के कारण रीतिकाल आमजन से कटा  हुआ प्रतीत होता है उसका एक बना बनाया खाँचा रीतिकाल को परम्परा से ही प्राप्त हुआ था. अत: रीतिकाल को गरियाना भी उतना सरल नही था. ब्रजभाषा अपनी पराकाष्ठा पर थी. कविता का ऐसा मनोहर रूप इससे पहले और बाद में दिखाई  नही देता . आखिर रीतिकाल को साहित्य के इतिहास से गायब  नहीं किया जा  सकता. केवल उसके पाठ के तरीकों को बदला जा  सकता है. किसी एक  पाठ में रीतिकाल को बद्ध कर देना ही उस कविता के साथ सबसे बड़ा अन्याय है. अत: यदि रीतिकाव्य को पूर्व काव्य- परम्परा से विचलन भी मान लें तो भी वह अवश्य ही आंदोलनकारी था जिसका पाठ आज भी हिंदी के आलोचक, साहित्यकारइतिहासकार और पाठक के समक्ष चुनौती बन कर खड़ा है.

(दो)
कोई भी पाठ हो वह स्वयं अर्थ का उत्पादन नही करता बल्कि उसे अर्थ का जामा पाठक पहनाता है. जिस दृष्टि, अभिरुचि या कोण से यह सम्भव होता है वही आस्वाद है.अत: काव्यास्वाद को तय करने का काम कवि का नहीं है. भिखारीदास भी जब कहते हैं

आगे के सुकवि रीझिहैं तो कविताई तो राधिका कन्हाई सुमिरन को बहानौ है.
तो वे दरअसल पाठक को उसके यादृच्छिक आस्वाद की सहूलियत ही दे रहे हैं.1

किसी पाठ के बहुआयामी स्तरों को उजागर करने के लिए यह आवश्यक है कि साहित्यिक पाठ के साथ साहित्येतर पाठ को भी प्रस्तुत किया जाए.यह साहित्यिक पाठ को एकांगी, सीमित या प्रभाववादी होने से बचाता है. यह अंतर्पठनीयता साहित्य के पाठ की संरचना में निहित प्रत्यक्षपरोक्ष संकेतों को पकड़ने में सहायक होती है.2 अत: रीतिकाल का पाठ वैसा नही रह जाता जैसा कि अब तक होता आया है. स्त्री दृष्टि से रीतिकाल को पढना नई अर्थच्छवियों उद्घाटित करने जैसा है. जिस रीतिकाल ने स्त्री को केवल कामिनी रूप में देखा,सामाजिक जीवन से निकालकर उसे अभिसारिका बना दिया उससे आज के स्त्रीविमर्श को आपत्ति हो यह  स्वाभाविक है. स्त्रीविमर्श पितृसत्तात्मक समाज मे स्त्री अस्मिता के हाशियाकरण की प्रक्रिया को समझने का दृढ आधार प्रदान करता है. सामंती समाज मनुष्य की श्रेणी से पददलित करके स्त्री को वस्तु में परिवर्तित कर देता है जो पुरुष के आनंद का  कारण बने. एक दीर्घ सूक्ष्म सामाजिक अनुकूलन की प्रक्रिया द्वारा स्त्री में से ओज और स्वतंत्रता के गुणों का सफाया करके उन अभिलक्षणों को प्रशंसित और पुरस्कृत किया जाता है जो एक बधिया के होते हैं- डरपोकपना, गोलमटोलपन, नज़ाकत, क्लांति और सुकुमारता.3  रीतिकाल का नायिकाभेद और नखशिख वर्णन इसी प्रकार के अभिलक्षणों की प्रशंसा का गान  है. किंतु यहाँ उद्देश्य महज़ आपत्ति दर्ज करना नहीं है वरन यह परखना है कि जो लिख दिया गया है वह  किसके आस्वाद का विषय है और स्त्री का उस आस्वाद में क्या हिस्सा है ?    



(तीन)
किसी रचना का रचनाकाल कुछ भी हो उसका पाठ अपने समय के दबावों के तहत ही किया जा सकता है/जाना चाहिए. पाठक कालिक दृष्टि से साहित्यकार के समय में नहीं बैठा होता. श्रृंगारी कविता का पाठ लेखन इन दोनों प्रक्रियाओं के बीच एक अवश्यंभावी अंतराल है. यह अंतराल सर्वप्रथम तो कालिक है, द्वितीय यह अंतराल सामाजिक तथा ऐतिहासिक दृष्टि का भी है. यह भी महत्वपूर्ण है कि चूँकि साहित्य का पाठक स्पेस की दृष्टि से लेखक से भिन्न स्पेस में अवस्थित होता है अत: वह अनिवार्यत: उन बलाघातों तथा तथ्यों से सहमत नहीं होता जिन्हें साहित्कार ने अपनी रचना के लिए चयनित किया था. काल और स्पेस का यह अंतराल रीतिकालीन कविता के आस्वाद के स्वरूप को अनिवार्यत: प्रभावित करता है.

दरअस्ल,  काव्यास्वाद केवल अनुभूति का विषय नही है,अनुभूति के अतिरिक्त भी उसमें बहुत कुछ शामिल होता है.4 स्वाभाविक है कि आस्वाद को प्रभावित करने वाला एक महत्वपूर्ण आयाम लैंगिक भी है. इस दृष्टि से रीतिकालीन कविता की आस्वाद्यता या पठनीयता का स्त्री कोण बदल जाता है.21 वीं सदी में श्रृंगार काल एक सॉफ़्ट पॉर्न की तरह सामने उपस्थित है. भले ही पुरुष के लिए उसकी आस्वाद्यता मे कुछ विशेष अंतर आया हो लेकिन जो स्त्री रीतिकाल का विषय बना  दी गयी थी वह अपने होश हवास मे आज उसके समक्ष खड़ी है.


(चार)
काव्यशास्त्रीय परम्परा  मे देखें तो साहित्यास्वाद  के लिए साधारणीकरण का होना आवश्यक है. साधारणीकरण क्या है ? रामचंद्र शुक्ल अपने निबंध साधारणीकरण और व्यक्तिवैचित्र्यवाद में लिखते हैं – साधारणीकरण का  अभिप्राय यह है कि पाठक या श्रोता के मन में जो व्यक्ति-विशेष या वस्तु-विशेष आती है,वह जैसे काव्य में वर्णित आश्रय के भाव का अवलम्बन होती है,वैसे ही सब सहृदय पाठकों या श्रोताओं के भाव का आलम्बन हो जाता है.....जैसे,यदि किसी पाठक या श्रोता का किसी सुंदरी से प्रेम है तो श्रृंगार रस की फुटकल उक्तियाँ सुनने के समय रह-रहकर आलम्बन रूप  में उसकी प्रेयसी की मूर्ति ही उसकी कल्पना में आएगी.5इससे सिद्ध हुआ कि साधारणीकरण आलम्बनत्व धर्म का होता है. रीतिकालीन कविता का आलम्बन स्त्री है, ऐसी नायिका, जिसकी कामोत्तेजक गतिविधियाँ और शारीरिक सौंदर्य नायक को आनंद प्रदान कर रही हैं, उसका चित्त हरण कर रही हैं.
कुच गिरि चढि अति थकित है चली डीठि मुँह चाड़.
फिरि ना टरी,परियै रही, गिरी चिबुक की गाड़॥
आलम्बनत्व धर्म के साधारणीकरण से क्या यह रचना स्त्री के लिए उसी प्रकार आस्वाद्य है जैसा कि पुरुष के लिए? क्या वह आनंद का कारण बन कर आनंद प्राप्त कर रही है? समाज से कटी हुई दरबारी कविता में एक आम स्त्री कैसे आस्वाद ग्रहण कर सकती है जब कि स्वयं दरबार का चरित्र पौरुषमय है, सामंती है.6 दरबारों मे संगीतनृत्य के अखाड़े लगा करते थे और कवि अपने आश्रयदाता की रुचि के अनुसार कविता लिखा करता था.7 स्त्री यहाँ कर्ता होकर वस्तु थी. जिसका वस्तुकरण हो गया हो उसकी कैसी अनुभूति ! ये सभी काम-चेष्टाएँ स्त्री की उपभोग्यता में श्रीवृद्धि करने के लिए ही निर्मित प्रदर्शित की गईं हैं. उसके व्यक्तित्व ,प्रेम, विरह,हाव-भाव, लीला-विलास का एक ही उद्देश्य है, उसके आकर्षण को समृद्ध करके अधिक से अधिक उपभोग्य बना देना.8 इस आलम्बन रूपी नायिका के अंगों का वर्णन एक स्वतंत्र विषय हो गया और जाने कितने ग्रंथ केवल नखशिख वर्णन के लिए लिखे गए.9

डॉ. नगेंद्र कहते हैं कि साधारणीकरण कवि की भावनाओं का होता है .10 लक्ष्मण-परशुराम सम्वाद में क्रोध और उपहास दोनों भावों का साधारणीकरण नही हो सकता. कवि की भावनाएँ लक्ष्मण के साथ हैं.अत: सहृदय उसी के साथ स्वयं को एकाकार कर पाएगा. नायिका-भेद, नखशिख वर्णन, रूप कथन की कविता की रचना पुरुष ने पुरुष के आस्वादन के लिए ही की है. इसलिए आनंद में स्त्री का वह हिस्सा गायब है जिसके साथ वह साधारणीकरण कर पाए. वह केवल यौन-वस्तु में बदल जाती है जो दूसरे लैंगिक प्राणियों(पुरुषों) के इस्तेमाल और आस्वादन के लिए है.इस प्रकार निष्क्रियता के रूप में स्त्री की पह्चान करके उसकी लैंगिकता को नकारा भी जाता है और उसका मिथ्या निरुपण भी होता है.11

ऐसा
करके एक अभीष्ट स्त्री रूढ छवि की प्राप्ति होती है,जिसका आकांक्षी पितृसत्तात्मक समाज रहता है. यही कारण है कि  वात्सल्य के आस्वादन  में स्त्री का जितना हिस्सा है उसका शतांश  भी श्रृंगार में नहीं है. जहाँ सम्भव हो सकता था वहाँ उसे अलौकिक और अशरीरी बना दिया गया. आचार्य विश्वनाथप्रसाद मिश्र भारतीय  आलोचना  और साधारणीकरण पर चर्चा करते हुए  कहते  हैं- जो यह समझते हैं कि रस केवल आनंद को ध्यान में रखता है तो वे भ्रम में हैं. रस के आनंद की भूमि लोकभूमि है.12 स्पष्ट है साहित्य की पठनीयता में साहित्येतर विमर्शों की भी अपनी भूमिका होती है. लेकिन आगे वे समझाते हैं कि रस अपने स्वरूप में ही सामाजिकता को ध्यान में रखता है अत: रीतिकालीन काव्य भी समाज-विरोधी नहीं माना जाना चाहिए.जो समाज-विरोधी है वह स्वयमेव रसाभास की कोटि में चला जाता है.  वस्तुत:, आधी आबादी के प्रति उपभोग दृष्टि यदि  समाज-विरोधी नहीं  है तो इसका सीधा अर्थ यही है कि रस और साधारणीकरण की दृष्टि से इस समस्त विवेचन के केंद्र में स्त्री है ही नहीं.यूँ भी लोकभूमि में स्त्री केवल पत्नी या प्रेमिका नहीं है और जीवन का आनंद केवल रति-क्रीड़ाएँ नहीं हैं.

अस्तु, आस्वाद कोई लिंग-निरपेक्ष अवधारणा नहीं है.इसलिए एक स्त्री के लिए आस्वाद का स्वरूप निश्चित रूप से पुरुष से भिन्न होगा. कोई दो  पाठक किसी पाठ से एक अर्थाभिप्राय नही लेते. पाठ  में उपस्थित अवकाशों को हर पाठक अपने तौर पर भरता है.13 यह प्रश्न भी ज़रूरी है कि साहित्य को रचते हुए भी क्या यह जेंडरिंग की प्रक्रिया काम करती है जो काव्यास्वाद के स्वरूप को प्रभावित करती हो? या क्या लेखक भी स्वयं यह तय करता है कि साहित्यास्वाद का क्या स्वरूप होगा? निश्चित रूप से रीतिकाल के आस्वाद  के संबंध में यही होता है क्योंकि रीतिकालीन कविता के काव्यास्वाद के स्वरूप को समझने के लिए जो भी पारम्परिक व्याख्याएँ की गयीं उनका अभिप्रेत पाठक पुरुष ही है. रस को अखण्ड और ब्रह्मानंद स्वरूप मानने वाली पारम्परिक सरणियाँ, जिनका पितृसत्तात्मक समाज के प्रतिनिधियों ने सूत्रपात किया , उनमें सहृदय और साधारणीकरण की व्याख्या पुरुष की दृष्टि से की गईं और आलम्बन रूप  में जो स्त्री उपस्थित है वह आस्वादन की प्रक्रिया में अनुपस्थित है.



(पांच)
इसमें आश्चर्य की  बात नहीं कि रीतिकाल की स्त्री पूरी तरह से पुरुष की निर्मिति है. यौवन मद में मत्त नायिका की स्वच्छंदता अपने आप में पुरुष के लिए आनंद का विषय है.इस स्वच्छंदता की कल्पना का आनंद स्त्री के लिए भ्रम है. दर असल विषय बन जाने में ही एक भ्रम है. विषय बनकर मनुष्य समझता है कि वही कर्ता है. लेकिन होता सिर्फ इतना है कि वह किसी बड़े सिस्टम या किसी बड़े संस्थान का औजार-भर बनता है.14 बिहारी की नायिका भी जब राह में नायक को छ्ल से टकरा कर उकसाना चाहती है तो वह दरअस्ल कर्ता नहीं है.15 स्थितियों को नियंत्रित वह नहीं करती है बल्कि कवि के हाथ में, उस बड़ी पितृसत्तत्मक सामाजिक संरचना का एक पुर्ज़ा भर है जिसमें स्त्री की यौनिकता उसके अपने आनंद का साधन नहीं वरन पुरुष के मनोरंजन का विषय है. रीतिकालीन कविता के आस्वाद्न में स्त्री के लिए यह एक बड़ी बाधा है कि वह स्वयं को वहाँ जिस रूप मे उपस्थित पाती है उसके साथ तादात्म्य स्थापित करना कठिन है. रीतिकालीन कविता की आस्वाद्यता में कठिनाई ही यह है कि वह उस बड़े सिस्टम, जिसे हम समाज कहेंगे, का उत्पाद है जिसकी संरचना में यह निहित था कि साहित्य का पाठक स्त्री नही है.पाठ और पठन की भी एक राजनीति होती है जो अनिवार्यत: सत्ता शक्ति से सम्बद्ध होती है. पितृसत्तात्मक समाज में सत्ता जिसके पास है साहित्य में आस्वादन के लिए वही अभिप्रेत पाठक है.  
स्त्री की यौनिकता उस  जेंडर स्टीरिओटाइप का शिकार रही है जिसके अनुसार स्त्री कामोत्तेजना का विषय तो है लेकिन स्वयं उसकी कामेच्छा स्वतंत्र ना होकर केवल पुरुष के लिए आलम्बन का काम करती है. श्रृंगार की कविता केवल पुरुष के आस्वादन का विषय नहीं होनी चाहिए. वह समान रूप से स्त्री के आस्वाद का विषय भी है और यह कहने की आवश्यकता पड़ना अपने आप में कुछ संकेत करता है. समाज  की ही तरह साहित्य और साहित्यास्वाद की संरचना लैंगिक भेद भाव से मुक्त नही है. सही कटावों और गोलाइयों मे उलझा रीति साहित्य मानव स्त्री की ओर मुखातिब ही नहीं है. वहाँ वह स्त्री है जो इस कदर भरमायी हुई है कि अपनी यौनिकता से ही बेदखल है. कविता चाहे कामिनी की परछाईं मात्र से अंधा होने को लेकर भयभीत हो या कामिनी की ही अलकों, चुम्बनों और वक्ष पर जीवन न्योछावर करके प्रगतिशील का तमगा पाना चाहती हो उसे पढते हुए खुद को ठगा हुआ महसूस होता है. साहित्य, साहित्येतिहास और साहित्यशास्त्र सभी में स्त्री का पक्ष नहीं दिखाई पड़ता.. स्त्री की दृष्टि से रीतिकालीन श्रृंगारी कविता, नखशिख और नायिका भेद ऐसा प्रतीत होता है जैसे रात में रति क्रीड़ा रत स्त्री सुबह उठी तो यह देख कर अवाक रह गई कि उसका एम.एम.एस. बना लिया गया है जो संचार के हर माध्यम पर प्रसारित होकर पुरुष के आनंद का कारण हो गया है.
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संदर्भ
1.हिंदी साहित्य और सम्वेदना का विकास , डॉ रामस्वरूप चतुर्वेदी, पृ.58 ,लोकभारती प्रकाशन
2 आस्वादन के आयाम, डॉ. वीरेंद्र सिंह, .116,बोधि प्रकाशन, जयपुर
3. विद्रोही स्त्री ,जर्मेन ग्रियर , . 16,राजकमल प्रकाशन
4 संरचनावाद, उत्तर संरचनावाद एवम प्राच्य काव्यशास्त्र,गोपीचंद नारंग ,पृ. 213,साहित्य अकादमी,
5.साधारणीकरण एवम व्यक्तिवैचित्र्यवाद,पृ.157 चिंतामणि भाग-1, आचार्य रामचंद्र शुक्ल, हिंदी साहित्य सरोवर,आगरा.
6.रीतिकाव्य की भूमिका , डॉ नगेंद्र , पृ.171 ,नेशनल पब्लिशिंग हाउस.
7 हिंदी साहित्य का  अतीत -2, आचार्य विश्वनाथप्रसाद  मिश्र, पृ. 54, वाणी प्रकाशन
8 रीतिकाव्य की भूमिका , डॉ .नगेंद्र ,पृ. 171 नेशनल पब्लिशिंग हाउस.
9. हिंदी साहित्य का इतिहास, आचार्य रामचंद्र शुक्ल,पृ. 131,नागरी प्रचारिणी सभा ,काशी
10.रीतिकाव्य की भूमिका, डॉ नगेंद्र , नेशनल पब्लिशिंग हाउस
11.विद्रोही स्त्री, जर्मेन ग्रियर ,पृ.16,राजकमल प्रकाशन
12. हिंदी साहित्य का  अतीत -2, आचार्य विश्वनाथप्रसाद  मिश्र, पृ. 7,वाणी प्रकाशन
13. संरचनावाद, उत्तर संरचनावाद एवम प्राच्य काव्यशास्त्र,गोपीचंद नारंग ,पृ. 230,साहित्य अकादमी
14. फूको : ज्ञान और सत्ता का विमर्श,आलोचना  से आगे सुधीश पचौरी ,पृ.113,राधाकृष्ण प्रकाशन
15. बिहारी शती –विद्यावाचस्पति पण्डित विष्णुकांत शुक्ल,निहाल पब्लिकेशंस,दिल्ली
अन्य संदर्भ:
16.रीति –श्रृंगार , डॉ नगेंद्र ,साहित्य सदन , झाँसी
17.स्त्री अधिकारों का  औचित्य साधन, मेरी वोल्सटनक्राफ्ट,राजकमल प्रकाशन
18. इतिहास में स्त्री, सुमन राजे, भारतीय ज्ञानपीठ
19. स्त्री पराधीनता, जॉन स्टुअर्ट मिल, राजकमल प्रकाशन
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डॉ. सुजाता
सहायक प्रोफेसर 
श्यामलाल कॉलेज, शाहदरा/दिल्ली विश्वविद्यालय
दिल्ली.

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  1. आपने विषय पर जम कर लिखा है. एम् एम् एस ..अंत में ऐसी विडंबनापूर्ण व्यंजना पर लेख ख़त्म होता है कि लगा कि अभी तो शुरू हुआ है ..
    आपकी किताब दखल से प्रकाशित हुई है, देर से बधाई दे रही हूँ आपको .

    सुजाता , रस पर इन्हें भी पढ़ा जाना चाहिए . आर. के . सेन , ए. वी. सुब्रमन्यम और राकेश गुप्त .साधारणीकरण ग्रुप साइकोलॉजी को ट्रीट करता है -शुक्ल जी की भाषा में 'लोक मंगलकारी' होना जरुरी है -पर यह मांगल्य भाव किस समूह तक सीमित रहता है ? क्या वह वाकई लोकमंगलकारी है? या birds of a feather flocking together.
    सोचती हूँ क्या किसी भी समूह में बैठकर आप ह्रदय की मुक्तावस्था को पा सकते हैं? रामलीला, नौटंकी, जात्रा, छहू या और भी कोई आर्ट फॉर्म ..आपको रस दशा के उस सोपान तक नहीं ले जा सकती जिसे हम साधारणीकरण कहते हैं. (यह उस समूह में संभव है जो किसी झंडे के नीचे खुद को पाता हो, जिसके उद्देश , प्रयोजन एक हों )
    आप फिल्म, नाटक आदि में भी दृश्यों का हिस्सा अपने ज्ञान-संवेदना के आधार पर व्यक्तिगत रूप से ही होते हो. केवल स्थान और वातावरण के कारण आपको लगता है कि आप सब एक ही दशा में हैं.
    कोई भी दृश्य आपको भाव-जगत या विचार-जगत से मुक्त नहीं करता. आप हमेशा किसी कार्निवाल (मृत्यु- शोक में उत्सव की परम्परा की तरह यदि आप इसे देख रहे हैं) जैसा अनुभव करते हैं कि 'यह जो हमने अभी देखा वैसा कुछ तो हमारे जीवन में कहीं नहीं ! सशक्त कविता या कहानी या कोई अन्य विधा आपके लिए हेट्रोटोपिया रचता है .आपको क्विकजोट बना देता है . रीतिकाल की कविता तो पूरे समाज के लिए ऐसा कुछ रचने में सफल नहीं होती.

    अब यदि श्रृंगार की दृष्टि से साधारणीकरण तलाशने जाएँ -रीतिकालीन कविता में , तो ऐसी स्त्री वहां है ही नहीं जिसके साथ हम स्त्रियाँ खुद को एसोशियेट कर सकें . यदि हम कहते कि सर्कस में ऐसी स्त्रियाँ दिखेंगी जिन्हें देखकर आपको उत्पीडन के सारे औज़ार और हथियारों पर क्रोध आने लगे, या ऐसी स्त्रियाँ देवदासी हो सकती हैं -जिनके लिए आप यकयक उदास हो जाते हैं ..एंड्रू मार्वल की कॉय मिस्ट्रेस जैसी स्त्रियाँ भी यहाँ नहीं हैं ..पुरुष ने अपने कारखाने में अपने लिए इन्हें बनाया है ..

    आपने सही जगह पर ऊँगली रखी है -"इसमें आश्चर्य की बात नहीं कि रीतिकाल की स्त्री पूरी तरह से पुरुष की निर्मिति है. यौवन मद में मत्त नायिकाकी स्वच्छंदता अपने आप में पुरुष के लिए आनंद का विषय है.इस स्वच्छंदता की कल्पना का आनंद स्त्री केलिए भ्रम है. दर असल विषय बन जाने में ही एक भ्रम है. ‘विषय’ बनकर मनुष्य समझता है कि वही ‘कर्ता’ है.लेकिन होता सिर्फ इतना है कि वह किसी बड़े सिस्टम या किसी बड़े संस्थान का औजार-भर बनता है.14 बिहारीकी नायिका भी जब राह में नायक को छ्ल से टकरा कर उकसाना चाहती है तो वह दरअस्ल ‘कर्ता’ नहीं है.15स्थितियों को नियंत्रित वह नहीं करती है बल्कि कवि के हाथ में, उस बड़ी पितृसत्तत्मक सामाजिक संरचना काएक पुर्ज़ा भर है जिसमें स्त्री की यौनिकता उसके अपने आनंद का साधन नहीं वरन पुरुष के मनोरंजन काविषय है. रीतिकालीन कविता के आस्वाद्न में स्त्री के लिए यह एक बड़ी बाधा है कि वह स्वयं को वहाँ जिस रूपमे उपस्थित पाती है उसके साथ तादात्म्य स्थापित करना कठिन है. रीतिकालीन कविता की आस्वाद्यता मेंकठिनाई ही यह है कि वह उस बड़े सिस्टम, जिसे हम समाज कहेंगे, का उत्पाद है जिसकी संरचना में यहनिहित था कि साहित्य का पाठक स्त्री नही है."

    भक्तिकाल को भी समूचा लीजिये -मीरा से भी अधिक जहाँ स्त्रियाँ कुछ सुकून पाएंगी तो वह हैं सूरदास . स्त्री का ममता पक्ष वहां न्याय पाता है. शायद स्त्री भी अपने ममत्व पर ऐसी रचना न कर सके . वहां ममता यातनागृह नहीं लगती कम अज कम .

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  2. राकेश बिहारी24 मई 2015, 8:20:00 pm

    "स्त्री की यौनिकता उस जेंडर स्टीरिओटाइप का शिकार रही है जिसके अनुसार स्त्री कामोत्तेजना का विषय तो है लेकिन स्वयम उसकी कामेच्छा स्वतंत्र ना होकर केवल पुरुष के लिए आलम्बन का काम करती है. श्रृंगार की कविता केवल पुरुष के आस्वादन का विषय नहीं होनी चाहिए. वह समान रूप से स्त्री के आस्वाद का विषय भी है और यह कहने की आवश्यकता पड़ना अपने आप में कुछ संकेत करता है. समाज की ही तरह साहित्य और साहित्यास्वाद की संरचना लैंगिक भेद भाव से मुक्त नही है.सही कटावों और गोलाइयों मे उलझा रीति साहित्य मानव स्त्री की ओर मुखातिब ही नहीं है.वहाँ वह स्त्री है जो इस कदर भरमायी हुई है कि अपनी यौनिकता से ही बेदखल है."

    पूरी तरह सहमत। यौन सम्बन्ध में स्त्री की भूमिका हमेशा से आनंद देने वाली की तरह ही रेखांकित की जाती रही है। यही कारण है कि आधुनिक साहित्य में जब यौनिकता के स्त्री पक्ष पर बात होती है तो पितृसत्ता से अनुकूलित मन विकल हो इस स्त्री अभिव्यकि की भर्त्सना करने लगता है। छूरी और खरबूजे की कहावत को ही अपनी आचार संहिता मानने वाला समाज यौन सम्बन्ध में स्त्री के हिस्से के आनंद की कल्पना तक से विचलित हो जाता है। इस विचलन से उतपन्न खीज कई बार पितृसत्ता से अनुकूलित तथाकथित स्त्रीवादियों के पाठ में भी देखी जा सकती है। रीतिकाल का यह पाठ विमर्श के इस समकाल से टकराता है, यही इसकी विशेषता है।

    एक अच्छे आलेख के लिए सुजाता जी को बधाई और समालोचन का आभार!

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  3. Bahut vicharottejak aur saar garbhit aalekh padhne ko mila . Reetikaleen sahitya mein bhasha ki baarikiyan , vyanjanayen , dhwaniyan ,naad saundarya , chand vidhan s,abhi kuch saraahneey hai par naari ko kewal yaunatmak drishtikon se dekhna khatakta hai . Bechare kavi rajyashray poshit the aur raaniyan unki aashray data nahin thin . Lihaza unhon ne purushon ki yauneccha ko sahlaane mein hi mahaarat haasil ki .Karan chahe jo bhi raha hon , naitikta ki drishti se jo bhi dosh prakat huey hon par is yug ke kaavya mein abhivyanjana ka laalitya adbhut hai .Matiram ka Rasraj aur Bihari ki satsayi , ye do Hindi sahitya ke anmol ratna hain

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  4. Manisha Kulshreshtha24 मई 2015, 8:25:00 pm

    मीराँ ने भी लिखा है, कई जगह सदेह प्रेमासक्ति पर, पर विडंबना यह कि उन्हें संत मीरां की तरह देख उस प्रेम और देह के स्त्री पक्ष को ईश्वर और आत्मा का श्रृंगार घोषित कर दिया। सेज सजावां मंगल गावां.....
    दक्षिण की अक्क महादेवी ने भी। हो सकता है दैहिक भाव पर अन्य कवियत्रियों ने भी रीति और भक्तिकाल में अपना पक्ष रखा हो, उसे दबा दिया गया हो।

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    उत्तर
    1. ललद्यद हुई ं हैँ कश्मीर में । और अनगिनत बौद्ध थेरियां हैं अनाम भी ख्यातनाम भी । मुझे तो सूफियों के स्त्रीवाची स्वर भी ऐसी ही फुसफुसाहटों का काव्यांतरण लगता रहा है ।

      हटाएं
  5. Omparkash 'Hathpasaria'25 मई 2015, 5:57:00 pm

    सुजाता जी के माध्यम से रीतिकाल के नए आयाम को पढ़कर एक नयी दृष्टि का उद्भव प्रकाश में आया है . इस दृष्टि को सभी साहित्य मनीषियों को अपनी आलोचना /रचना में स्थान देकर स्त्री के आस्वादन का हिस्सा निश्चित करना एक परम्परा बनाना होगा . एक नए दृष्टिकोण से रीतिकाल के स्त्री शोषकों का ही सुजाता जी ने यह एक एम्एम्एस बनाया है , इस पर और शोध करके इस पर तो पूरी फिल्म बननी चाहिए , जिससे रीतिकाल के कालखंड में प्रयुक्त की गयी स्त्री के शोषण की कलई खुले अपितु भविष्य में रचे जाने वाले ऐसे साहित्य में स्त्री को केवल वस्तु के रूप प्रयुक्त नहीं किया जाये और यदि किया जाये तो उसके आस्वाद के हिस्से से उसे वंचित करने से पहले सौ बार सोचा जाएँ . सुजाता जी को इस विचारणीय विषय पर अतिशोधपरक और अतिसुंदर लिखने के लिए धन्यवाद........

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  6. लेख तो अच्छा है किंतु रीति की परंपरा को अमरुक- भर्तृहरि जैसे कवियो से जोड कर देखने से समझ मे आएगा कि एक समय स्त्री को अपने प्रणय संबन्धो के निर्णय लेने का स्वतंत्र अधिकार था।- प्रो.राधावल्लभ जी ने सदुक्ति कर्णामृत का काव्यानुवाद किया है वहा भी ऐसे अनेक सन्दर्भ मिलते हैं। यह सच है हमारा मध्यकालीन साहित्य अर्थात दसवी सदी के बाद का समय सामंतो को रिझाने का काल रहा है उनके लिए स्त्री देह ही साधन बनी।उसके अनेक राजनीतिक कारण भी हो सकते हैं।सुजाता जी ने जितना लिखा है ठीक है।

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  7. धन्यवाद और आभार आप सभी का। मूलत: लेख का शीर्षक ही था " शृंगारी कविता का एम.एम.एस. और स्त्री आस्वाद्यता का प्रश्न" । लेख की मूल मंशा भी आस्वाद के लैंगिक स्वरूप पर बात करने की थी। जो सुझाव आए वे सभी महत्वपूर्ण हैं। आगे भी यह शोध जारी रहेगा।

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