मैं कहता आँखिन देखी : प्रो. गिरीश्वर मिश्र










भारत अपनी संस्थाओं को नष्ट करने वाले देश के रूप में जाना जाता है, खासकर शैक्षिक संस्थाएं. विश्व के २०० श्रेष्ठ विश्वविद्यालयों में भी बमुश्किल भारत की एक–दो संस्थाएं अपना स्थान पा पाती हैं. जबकि जिसकी नकल से हमने ये संस्थाएं शुरू की उस देश के आक्सफोर्ड और कैम्ब्रिज पिछले लगभग ३०० सालों से अपनी गुणवत्ता अक्षुण रखे हुए हैं. पूरब के आक्सफोर्ड और कैम्ब्रिज कहे जाने वाले भारत के अनेक विश्वविद्यालयों में शिक्षा और शोध की गुणवत्ता लगातार गिरी है.

महात्मा गांधी अन्तरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय अपनी स्थापना से ही चर्चाओं और विवादों में रहा है, कहना न होगा कि आज भी इसकी कोई पहचान नहीं बन पायी है, ऐसे में इसके कुलपति प्रो. गिरीश्वर मिश्र की ज़िम्मेदारी और बढ़ जाती है. इस विश्वविद्यालय को लेकर उनके सपनों और योजनाओं  पर उनसे लेखक-संपादक राकेश श्रीमाल ने यह ख़ास  बातचीत की है. 


प्रो. गिरीश्वर मिश्र से राकेश श्रीमाल की बातचीत               


महात्मा गांधी अन्तरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय की मूलभूत अवधारणा, इसके संकल्पों और उद्देश्यों के बारे में आप क्या सोचते हैं. क्या ये आपको पर्याप्त, संगत और हासिल किये जा सकने वाले लगते हैं?

किसी देश की भाषा वहां के समाज की स्मृति, अभिव्यक्ति और आचरण को रूपायित करती है. उसे छोड़ या उससे मुक्त होकर ये सभी और उनके साथ-साथ समाज की पहचान (अस्मिता!) भी संशय में पड़ जाती है. भारतीय समाज इस दृष्टि से विकट संकट से जूझ रहा है. यहाँ भाषा और शिक्षा का इतना गहरा अंग्रेजीकरण हुआ कि भारतीयऔर भारतीयताअपने समस्त लक्शानोम के साथ लुप्तप्राय सी अवधारणाएं बनने लगीं. ऐसे में हिन्दी को ले कर गांधी जी के नाम से जोड़ कर अंतर्राष्ट्रीय वि वि की स्थापना एक सुखद आश्चर्य की घटना थी. यह विश्वविद्यालय आम विश्वविद्यालयों से भिन्न भाषा,साहित्य,संस्कृति और आधुनिक सूचना प्रौद्योगिकी के योग से उच्च शिक्षा में नए प्रयोग करने के उद्देश्य से एक तरह के ज्ञान के विकास और उन्नयन के लिए एक हस्तक्षेप के रूप में किया गया था. इन सबके के केंद्र में हिन्दी को रखा गया.

गान्धी जी से जुड़ना और अंतर्राष्ट्रीयता की दिशा इसके आयोजन को  नया अर्थ और चुनौती देते हैं. ये इसे स्वदेशी और स्वराज्यकी अवधारणा के साथ हिन्दी के व्यापक विश्व की ओर भी ध्यान दिलाते हैं जो तमाम भारतवंशियों के साथ एशिया, यूरोप, और अफ्रीका महाद्वीपों के विभिन्न देशों में निर्मित हुआ है. यह वि वि मात्र अकादमिक केंद्र के रूप में ही नहीं बल्कि एक तरह का एक सांस्कृतिक उद्यम या कहें अधिष्ठान की तरह सोचा गया. चूंकि आम वि वि एक बने बनाए ढर्रे पर चलते हैं इस नए उपक्रम की स्वीकृति कठिन थी. कह सकते हैं इस वि वि की संकल्पना देश और उसके मानस को सही अर्थों में स्वायत्त और स्वाधीन करने का पर्याय थी जो पूरे भारतीय समाज के लिए गौरव का विषय है. हिन्दी को लेकर संजीदगी से सोचने की दिशा में यह स्वतन्त्र भारत की एक निहायत दुरुस्त कोशिश थी.

इस तरह की संकल्पना ज्ञान के निर्बंध और अंतरअनुशासनिक विनिमय और सर्जनात्मकता की अपेक्षा करती है. इस तरह की महत्वाकांक्षी संस्था के संयोजन के लिए अपेक्षित भौतिक और शैक्षिक परिवेश, व्यवस्था, तथा अन्य संसाधन बेहद जरूरी होते हैं. पर इनसे भी कहीं अधिक आवश्यक होता है प्राध्यापकों और अध्येताओं में वैचारिक नवोन्मेष के प्रति आकर्षण और दीर्घकालिक सतत प्रतिबद्धता. पर बहुत दिनों तक केन्द्रीय सरकार की उदासीनता के चलते अध्यापकविहीन और सहायक तंत्र के अभाव में यह वि वि कुछ स्वच्छंद रीति से गतिमान रहा. उसमें संस्कृतिधर्मिता और उत्सवप्रियता की प्रमुखता तो थी परन्तु शोध और अध्ययन आनुषांगिक रहा और प्रकाशन और विचार सत्र या संगोष्ठी ही प्रमुख और प्रबल सरोकार बने रहे. आरंभिक दौर कुल मिला कर प्रयोगवादी ही बना रहा और एक तरह की अस्पष्ट व्यवस्था के चलते किंचित अराजक दृष्टि के साथ इसका आरम्भ हुआ और यह तत्व इसके जीवन में गहरे पैठ गया.

विश्वविद्यालय के विद्यापीठों की मूल संकल्पना जब की गयी तब से ले कर जिस तरह इसका विकास हुआ है और प्राध्यापक आए हैं उन सबको देखते हुए यही कहा जा सकता है कि मूल अवधारणा मे  बदलाव आये हैं. वि वि के रूप में जो आज उपस्थित है वह कई तरह के अतिरेकों, आग्रहों और पसंदनापसंद की फलश्रुति हैं. साथ ही वि.वि. से अपेक्षाओं का एक स्वीकृत ढांचा खडा हो चुका है जिसमें छात्रों का प्रवेश और परीक्षा ही मुख्य बन बैठे हैं. जैसा अन्यत्र  हो रहा है आज ज्ञानार्जन और आविष्कार से ध्यान हट रहा है. हिन्दी पढ़ने मात्र के लिए हिन्दीभाषी छात्र अपने स्थानों से हिलना नहीं चाहता और हिलता भी है तो घर के पास ही अनेक वि वि खुल गए हैं जहां हिन्दी का अध्ययन संभव है. अतः छात्र केवल सामान्य पाठ्यक्रम के लिए नहीं वर्धा नहीं आएंगे.

भारत में सरकारी संस्थाओं का जीवन अनेक तत्वों  की सुसंगत मेल  या आर्केस्ट्रेशन  पर निर्भर करता है, कुछ-कुछ जन्म कुण्डली के ग्रह नक्षत्रों की चाल की  तरह. आरम्भ में इस वि वि का दिल्ली में कैम्प कार्यालय था और पांच वर्ष ज्यादातर परिचर्चा, प्रकाशन और विश्वविद्यालय की परियोजना पर ही काम हो सका. अगले पांच वर्ष में वि.वि. का परिसर वर्धा में पहुंचा और पाठ्यक्रम शुरू करने का यत्न आरम्भ हुआ, कुछ अध्यापकों की नियुक्ति हुई. उसके बाद का पांच वर्ष परिसर के निर्माण और अध्यापकों की नियुक्ति पर केन्द्रित रहा. इन सब प्रयासों में देश, काल और पात्रों के बदलाव के साथ वि.वि. की मूल अवधारणा और उसके यथार्थ-रूप में काफी बदलाव हुए. हिन्दी का प्रश्न समाज और संस्कृति के सरोकारों से जुड़ा है. उसके प्रयोग और विकास की सरकारी जिम्मेदारी भी है और बाजार की मांग भी उसे तय करती है. बालीवुड और मीडिया में पैठ और उपस्थिति होने के बावजूद भी अभी हिन्दी गंभीर विचार-विमर्श की और प्रामाणिक सरकारी भाषा का दर्जा नहीं पा सकी है.

हिन्दी की लड़ाई बाक़ी है. यह लड़ाई सिर्फ भाषा की नहीं बल्कि राष्ट्र को समर्थ बनाने की भी है. उसे समर्थ वाणी देने की भी है. इस विकट राष्ट्रीय परिदृश्य में यह वि. वि. आर्थिक, भौतिक और सामाजिक सीमाओं के बावजूद कई दिशाओं में पहल कर रहा है. इसे कुल सत्रह वर्षों का समय मिला है और वि वि जैसी संस्था के बनने और विकसित होने के लिए यह अपर्याप्त है, पर यही कह कर संतोष कर लेना ठीक नहीं है. बहुत कुछ करना शेष है और संभावनाएं अनेक हैं. मूल्यांकन के आधार पर नैक ने इस वि वि को की श्रेणी प्रदान की है जो इस परिसर में आ रहे गुणात्मक बदलाव की ओर संकेत करता है. हमारा यत्न होगा कि हम वि वि के लक्ष्यों के प्रति समर्पित हो कर उत्कृष्टता की ओर आगे बढ़ें.


क्या वि वि की अवधारणा, संकल्पों, उद्देश्यों में आप किसी तरह संशोधन, बदलाव आदि जरूरी महसूस करते हैं ? अगर करते हैं, तो इसकी कितनी आप गुंजाइश आप देखते हैं ?

वि वि की मूल अवधारणा, संकल्प और उद्देश्य वि वि के कार्यकलापों के लिए पृष्ठभूमि सरीखे हैं और बड़े ही व्यापक अर्थ-छटाओं से ओतप्रोत हैं. वि वि कुछ वैधानिक व्यवस्थाओं (जैसे-ऐक्ट, स्टेच्यूट , ऑर्डिनेंस  आदि) के अनुसार चलता है और उन्हें दीर्घकालिक दृष्टि से बनाया जाता है. उनकी सदाशयता असंदिग्ध है और उनमें आवश्यकतानुसार परिवर्तन भी लाया जा सकता है. उनका ठीक तरह से उपयोग करना प्रशासनिक और अकादमिक अनुशासन के लिए आवश्यक है.

स्मरणीय है कि कोई भी गुणवत्ता का कार्य श्रम, निष्ठा और समर्पण की अपेक्षा करता है और ये सभी आज की युगीन सहज प्रवृत्तियों के विपरीत जाते हैं. अतः क्षरण स्वाभाविक परिणाम हो जाता है. यह जीवन के हर क्षेत्र में-प्रशासन, राजनीति, संस्कृति, शिक्षा, व्यापार-व्यवसाय हर क्षेत्र में देखा जा सकता है. अतः आवश्यकता ऎसी कार्य- संस्कृति को स्थापित करने की है जो मूल्य-संवेदना से भावित हो. साथ ही मैं यह भी मानता हूँ कि सर्जनात्मक दृष्टि से अकादमिक प्रयोग का साहस फलदायी होगा. बदलती जरूरतों के मुताबिक़ अध्ययन-अध्यापन के विषय और पद्धति में बदलाव की प्रक्रिया निरन्तर चलने वाली है. तभी श्रेष्ठतर की ओर हम आगे बढ़ सकेंगे. शिक्षा संकाय और प्रबंध संकाय आरम्भ कर हम नई दिशाओं में आगे बढ़ रहे हैं. विज्ञान और तकनीकी के संकाय स्थापित करने का प्रस्ताव तैयार किया जा रहा है. सम्भावनाएं अनेक हैं और वि वि में तत्परता भी दिख रही है. मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि हिन्दी के विकास के लिए बहुमुखी प्रयास अपेक्षित हैं. वि वि को अकादमिक स्वायत्तता प्राप्त है और उसके अंतर्गत अपेक्षित बदलाव की पूरी छूट मिली हुई है.

विश्वविद्यालय को लेकर आपकी अपनी क्या संकल्पना है और इस दिशा में क्या प्रयत्न हो रहे हैं 

यह विश्वविद्यालय हिन्दी जगत, भारत और महात्मा गांधी के महान सपनों से जुडा है. ये तीनों असाधारण रूप से साधारण की श्रेणी में आते हैं. ये सब भारत को एक समर्थ, स्वावलंबी और चारित्रिक गुणों से संपन्न देश के रूप में व्याख्यायित करते हैं. स्वदेशी इनका मूल मंत्र है. स्वभाषा ( निज भाषा) का सम्मान जातीय अस्मिता और स्वाभिमान के लिए ही जरूरी नहीं है वह व्यापक समाज को समृद्ध और सशक्त बनाने की कुंजी भी है. अंग्रेजी के वर्चस्व ने देश में सत्ता, अधिकार और शक्ति का असंतुलित बटवारा कर रखा है जिसमें हिन्दी समेत भारतीय भाषाओं और उनको बोलने वालों को असुविधा की स्थिति में दाल दिया है. इस स्थिति से उबरने और सामाजिक समरसता स्थापित करने के लिए हिन्दी को विचार और ज्ञान की भाषा के रूप में स्थापित करना आवश्यक है. यह वि वि भाषा और ज्ञान के माध्यम दोनों ही दृष्टियों से हिन्दी को समृद्ध करने के लिए प्रतिश्रुत है.  इस लक्ष्य को साथ ले कर एक विश्वस्तरीय उत्कृष्ट अध्ययन केंद्र की स्थापना, जहां से विचार और कर्म की धारा बह सके, यही हमारा लक्ष्य है. मैं इसे एक प्रक्रिया के रूप में देखता हूँ जो निरंतर अग्रोंमुख बदलती रहती है. इसके लिए हम कई उपक्रम कर रहे हैं. उदाहरण के लिए

·      अधिकाँश पाठ्यक्रमों में जीवनानुभव को सम्मिलित किया जा रहा है, स्नातकोत्तर स्तर पर परीक्षा कार्य में सम्बद्ध विषय के शिक्षक को ही दायित्व दिया जा रहा है,
·      छात्रों में अंतरानुशासनिक रूचि जगाने के लिए उनके मुख्य विषय के अतिरिक्त अन्य प्रासंगिक विषय पढ़ने की व्यवस्था अनिवार्य की जा रही है,
·      छात्रों में कौशलों के विकास के लिए पारस्परिक अंतःक्रिया, संगोष्ठी का आयोजन और शोध प्रकाशन  पर बल दिया जा रहा है,
·      बहुवचन’, ‘पुस्तक वार्ताऔर हिन्दीनामक तीन पत्रिकाएँ प्रकाशित हो रही हैं,
·      हिन्दी विश्वश्रृंखला में भारत के बाहर की दुनिया में हिन्दी की उपस्थति पर ग्रन्थ प्रकाशित किये जा रहे हैं,
·      भूतपूर्व छात्रों को अध्ययन मंडल में शामिल कर उनके अनुभवों का लाभ लिया जा रहा है, शोध और तनीकी क्षेत्र में नवाचारों पर बल दिया जा रहा है,
·      वर्धा हिन्दी कोश का संशोधित परिवर्धित नया संस्करण तैयार किया जा रहा है,
·      भोजपुरी-हिन्दी-अंग्रेजी का शब्दकोश तैयार हो रहा है,
·      हिन्दी-स्पैनिश, हिन्दी-फ्रेंच, हिन्दी-जापानी तथा हिन्दी-चीनी भाषाओं के द्विभाषी कोश भी तैयार हो रहे हैं,
·      सभी विभाग ईअध्ययन सामग्री और विषयों से जुड़ा ई-प्रकाशन प्रस्तुत कर रहे हैं,
·      समाज से जुड़ने लिए वि वि निकट के पांच गावों को चुना है और उनकी समस्याओं को समझने और उन्हें दूर करने के लिए आवश्यक उपाय करने में जुट रहा है,
·      परिसर की सृजनात्मक अभिव्यक्ति को प्रोत्साहित करने हेतु निमित्तनामक ई-पत्रिका प्रकाशित की जा रही है
·      वर्धा संस्कार द्वारा रचनाकारों के साथ अंतःक्रिया, साप्ताहिक फिल्म-प्रदर्शन, किए गए हैं . सर्जनात्मक और कलात्मक आयोजनों  की योजना पर कार्य हो रहा है. हिन्दी को भारत की व्यापक सांस्कृतिक यात्रा से जोड़ते हुए एक वार्षिक प्रकाशन ताना बानाके नाम से प्रस्तावित है.
·      आखर अद्यतनआदि द्वारा अनेक कार्यक्रम चल रहे हैं,
·      शिक्षा विभाग से संबर्धननामक ई-शोध पत्रिका प्रकाशित की जा रही है.
·      इलाहाबाद और कोलकाता के केन्द्रों पर विभिन्न पाठ्यक्रमों का विधिवत अध्ययन अध्यापन हो रहा है.
निश्चय ही वि वि परिसर में अकादमिक सक्रियता असंदिग्ध रूप से बढी है. पर यह सब नाकाफी है. अभी बहुत कुछ करना शेष है. यहाँ पर यह उल्लेखनीय है कि वि वि को अंतरराष्ट्रीय का नाम तो दे दिया गया पर इसका चरित्र व्यावहारिक सभी दृष्टियों से देश के अन्य केन्द्रीय विश्वविद्यालयों की ही तरह रखा गया. वहीं अंतरराष्ट्रीय वि वि - दक्षेस (सार्क) वि वि, दिल्लीऔर नालंदा वि वि जो अंतरराष्ट्रीय हैं भिन्न ढंग से पोषित हो रहे हैं. अन्य केन्द्रीय विश्वविद्यालय ,जो सामान्य विषय पढ़ाते हैं उनका कार्य इस वि वि से भिन्न है. दुर्भाग्य से इस वि वि को अनुदान राशि घटा दी  गई और  अपेक्षित पद भी नहीं दिए गए. इस स्थिति के कारण वि वि वित्तीय संकट से जूझ रहा है. आर्थिक संसाधनों की कमी से हम बहुत से वांछित काम नहीं कर पा रहे हैं
     

वर्तमान में हिंदी की राष्ट्रीय और अन्तरराष्ट्रीय स्थिति को आप किस रूप में देखते हैं?

हिन्दी भारत में जन्मी, पली बढी भाषा है और एक बड़े भूभाग के लोगों की सांस्कृतिक चेतना की वाहिका है. उसे जनता ने  भारत की राष्ट्र भाषा का दर्जा दिया है, वह करोड़ों लोगों की मातृभाषा है और उससे भी बड़े जनसमुदाय की सम्पर्क भाषा है. एक दृष्टि से वैश्विक स्तर पर जो स्थिति और हैसियत अँग्रेजी की है, भारत के संदर्भ  में वही स्थिति और हैसियत हिन्दी की है. इसी के चलते हिंदी भारत की राजनीति, वाणिज्य, संचार, लोकप्रिय सिनेमा आदि का माध्यम भी बनी है. सूचना और संचार की क्रांति से उपजे परिवर्तन के इस युग में हिंदी की भूमिका और भी प्रभावी हो रही है. फिर भी हिन्दी की स्थिति संतोषजनक नहीं है. देश में न्यायपालिका, स्वास्थ्य सेवा, सरकारी काम-काज में अंग्रेजी का ही वर्चस्व बना हुआ है. वही प्रामाणिक बनी हुई है और जीवन में आगे बढ़ने के लिए आवश्यक भी. यह स्थिति सामाजिक- आर्थिक भेदभाव को भी बढ़ावा देती है. हिन्दी को शिक्षा में अध्ययन-अध्यापन  के माध्यम के रूप में स्थापित करने के लिए उसे हर तरह से सक्षम बनाना होगा. राज-भाषा के रूप में वह अनुवाद की भाषा बन कर रह गई है और ऐसा अनुवाद जो प्रायः थोपा हुआ या नकली लगता है और जिसे उपयोग में लाने से लोग बचते-बचाते हैं. हिन्दी का अपना संस्कार है और वह रची-बसी है सामान्य जीवन की धड़कनों में. हमें उस हिन्दी को पहचानना होगा और समृद्ध करना होगा. इसी तरह हिन्दी को अन्य  भारतीय  भाषाओं के निकट लाना होगा और उनके साथ संवाद कायम करना होगा. हिन्दी बोलने और लिखने में हमें हीनता की दृष्टि से उबर कर गर्व की अनुभूति करनी चाहिए. आज हिन्दी भारत के अधिकांश क्षेत्रों में बोली और समझी जाती है. इसकी सामर्थ्य में मीडिया की बड़ी महत्वपूर्ण भूमिका है. हिन्दी साहित्य का अनुशीलन और शोध अनेक अवसर प्रस्तुत करता है. तुलनात्मक साहित्य की दृष्टि से अध्ययन की अनेक संभावनाएं हैं जो अलक्षित रही हैं हिन्दी और एनी भाषाओं के बीच अनुवाद द्वारा सेतु का निर्माण भी आवश्यक है.

हिन्दी-अध्ययन में विदेशों में रूचि अनेक कारणों से है. इनमें सांस्कृतिक नैकट्य, राजनैतिक प्रासंगिकता, भारतीय संस्कृति के विविध पक्षों ( जैसे - लोक जीवन, संगीत, नृत्य, अन्य प्रदर्शनकारी कलाएं ) को समझने में अभिरुचि, भाषावैज्ञानिक विश्लेषण और हिन्दी साहित्य का अनुशीलन प्रमुख हैं. विदेशों में विश्वविद्यालयों में शताधिक केन्द्रों पर हिन्दी भाषा और साहित्य का अध्ययन और अनुसंधान किया जा रहा है. भाषा प्रौद्योगिकी और मीडिया  की रुचि भी हिन्दी में बढी है. मारीशस, सूरीनाम, ट्रिनिडाड, दक्षिण अफ्रीका, फिजी और  उत्तरी अमेरिका तथा यूरोप के कई देशों में में हिंदीभाषियों की बड़ी संख्या रहती है. हिन्दी भाषा के दूसरे रूप हैं जिनमें साहित्य भी रचा जा रहा है. प्रवासी भारतीयों पर केन्द्रित अध्ययन भी महत्वपूर्ण है. उसके एक विषय के रूप में हिन्दी के अध्ययन का व्यापक विस्तार है


आजादी के बाद हिन्दी की तमाम महत्वपूर्ण संस्थाएं - नागरी प्रचारिणी सभा, हिंदी साहित्य सम्मेलन, राष्ट्रभाषा प्रचार समिति उत्तरोत्तर निष्क्रिय और अप्रासांगिक होती गयी है. आज देश में कोई ऐसी राष्ट्रीय स्तर की बड़ी संस्था दिखाई नहीं देती जो हिन्दी के बहुस्तरीय कल्याण की दिशा में योजनाबद्ध और व्यापक विज़न के साथ कोई काम कर रही हो. हिंदी के इस संस्थागत पराभव और अवसाद की आप क्या वजहें देखते हैं ?
 
इन सभी संस्थाओं का निर्माण देश को आजादी मिलाने के पहले हुई थी और कई स्वतंत्रता संग्राम से जुड़े थे. तब की परिस्थितियां भिन्न थीं और जरूरतें भिन्न प्रकार की. इन संस्थाएँ ने बड़े देश काल में अपने को पुनर्परिभाषित नहीं किया और उनकी प्रासंगिकता सीमित होती  गई. दूसरी ओर सरकारी तंत्र में राज भाषा विभाग, केन्द्रीय हिन्दी संस्थान  जैसी संस्थाओं की स्थापना हुई.


(राकेश श्रीमाल shubhshubh 2012@gmail.com)
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प्रो. गिरीश्वर मिश्र

प्रो. गिरीश्वर मिश्र दिल्ली विश्वविद्यालय में प्रोफेसर और मनोविज्ञान विभाग के पूर्व प्रमुख और कला संकाय के पूर्व डीन के रूप में कार्यरत रहे हैं. तीन दशकों में फैले अपने अकादमिक कैरियर के दौरान उन्होंने गोरखपुर , इलाहाबाद और भोपाल विश्वविद्यालयों में अध्यापन का कार्य किया है. प्रोफेसर मिश्र के शिक्षण और अनुसंधान के क्षेत्रों में सामाजिक मनोविज्ञान , मानव विकास , संस्कृति और मनोवैज्ञानिक ज्ञान शामिल हैं. उन्होंने मनोविज्ञान के साथ-साथ विभिन्न विषयों पर लगभग 25 से अधिक पुस्तकें लिखी हैं तथा उनका संपादन किया है. वे मनोविज्ञान अकादमी के राष्ट्रीय संयोजक और अध्यक्ष हैं. वे जर्मनी, ब्रिटेन तथा अमेरिका के विभिन्न विश्वविद्यालयों में अतिथि अध्यापक रहे हैं. उनके निर्देशन में 31 शोधार्थियों ने पीएच.डी. उपाधि प्राप्त की है तथा 50 शोधार्थियों को एम.फिल. की उपाधि प्राप्त हुई है. वे साइकोलाजी करिकुलम कमेटी, सीबीएसई, नई दिल्ली तथा नेशनल इंस्टीट्यूट फॉर ओपन स्कूलिंग के अध्यक्ष हैं. पूर्व में वे इंडियन काउंसिल ऑफ फिलोसाफिकल रिसर्च के रिसर्च प्रोजेक्ट कमेटी के सदस्य, भारतीय समाजविज्ञान अनुसंधान परिषद के काउंसिल सदस्य, यूजीसी के सब्जेक्ट पैनल के सदस्य भी रहे हैं.

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  1. अब इस तथ्य के लिए किसी प्रमाण की ज़रुरत नहीं रह गई है कि ज्ञान- विज्ञान की मौलिक सोच केवल अपनी निज भाषा में ही हो सकती है। आज चीन की तथाकथित प्रगति का जो कोरस दिग-दिगंत में व्याप्त है, उसके पीछे चीनी भाषा की शक्ति सबसे प्रमुख कारक है।
    लेकिन यहां भारत में देशज भाषाओं के लिए सबसे ज्यादा हिकारत का भाव है। इसी मनःस्थिति का परिणाम है कि समाज और राज्य की ओर से म.गा.अं.हि.वि. को जिस समर्थन की आवश्यकता है, वह उसे नहीं प्राप्त है। इसके बावजूद यहां हिन्दी भाषा और भारतीय साहित्य के प्रति नवोंमेष के प्रति जो उर्वर माहौल है, वह अप्रतिम है। मानविकी के विषयों से लेकर साहित्य तक के क्षेत्र में यहां जिस तरह के सकारात्मक माहौल को सृजित किया गया है, उसकी भारत के किसी विश्वविद्यालय से तुलना नहीं की जा सकती है। इस समय मानविकी के और खासतौर से साहित्य के प्रति छात्रों, शोधार्थियों का रुझान निरतंर खत्म हो रहा है। ऐसी विपरीत परिस्थितियों में विश्वविद्यालय के कुलपति जिन प्रतिबद्धताओं के साथ काम कर रहे हैं, वे न केवल प्रेरक हैं, बल्कि भविष्यधर्मी सोच को समाहित किए हुए भारतीय राज्य के बारे में नव-निर्माण के विचार को भी सामने लाता है। ऐसी लगन व प्रतिबद्धता के लिए मैं उन्हें सलाम करता हूं। साथ ही हिन्दी भाषा में मानविकी का अध्ययन करने वाले छात्र हमारे स्वप्न को आगे बढ़ाने के लिए प्रतिबद्ध कार्यकर्ता की तरह है।
    जीतेन्द्र गुप्ता

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  2. अच्छा साक्षात्कार. शुरू में आपने सही टिपण्णी की है.

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  3. मुझे इन दिनों समालोचन की पोस्ट का इंतज़ार रहता है। सुबह की चाय और ये पठनीय सामग्री। वाह।

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  4. बेहतरीन इंटरव्यू राकेश श्रीमाल जी को बधाई। प्रोफेसर गिरीश्‍वर मिश्र निश्‍चय ही विश्‍वविद्यालय को बेहतरीन विश्‍वविद्यालय बनाएंगे, इसमें संशय नहीं।

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  5. लेख कहूँ या साक्षात्कार पढ़ा । प्रो गिरीश्वर मिश्र की चिन्ताएँ और संकल्पनाएं इस वि वि के भविष्य के प्रति आश्वस्त करती हैं । पर सरकार द्वारा अनुदान कम करना चिन्ता जगाता है ।

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  6. आपकी बात से असहमत नहीं हुआ जा सकता. प्रो गिरीश्वर मिश्र को मैं अपने विद्यार्थी जीवन से जानता हूँ. बीए की पढाई के दौरान प्रायोगिक मनोविज्ञान पर लिखी पुस्तक भी मैंने पढी है. उनसे बहुत आशाएं हैं.

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  7. उपरोक्त साक्षात्कार से स्पष्ट होता है की प्रोफेसर मिश्र हिंदी भाषा के सक्षम विद्वान है साथ ही एक ऐसा समुचित दृश्टिकोण रखते है जिससे न केवल हिंदी वरन अन्य पाठक्रमों के शिक्षण में मातृभाषा के प्रयोग में रूचि रखते है ,मुझे विश्वास है की उनकी इस पहल से विश्विद्यालय का नया स्वरुप निखरेगा।

    प्रोफेसर
    उदय जैन ,पूर्व कुलपति
    अवधेश प्रताप सिंह विश्विद्यालय रीवा

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