हिंदी साहित्य और पुस्तकों का
संसार विस्तृत और विविध है. हज़ारों की संख्या में प्रकाशक हैं जहाँ से वर्ष भर
लाखों किताबें प्रकाशित होती हैं. उनमें से साहित्य के लिए उल्लेखनीय किताबों की
परख और उनकी विवेचना श्रमसाध्य कार्य है. आलोचक ओम निश्चल इस काम को सतर्कता से अंजाम
देते हैं. पाठकों और रचनाकारों को बेसब्री से इस तरह के आकलन की प्रतीक्षा रहती
हैं. इसमें कथेतर गद्य की भी सुधि ली गयी और वर्ष के महत्वपूर्ण पुरस्कारों का भी
ज़िक्र है. ज़ाहिर है इस एक लेख में वर्ष भर की गतिविधियों को समेटना संभव तो नहीं
है फिर भी एक मुक्कमल परिवेश आपके सामने है. ओम जी को बधाई .
बची हुई है अभी शब्द की महिमा
(हिंदी का पुस्तक-परिदृश्य: 2014)
ओम निश्चल
रणेंद्र ने गायब होता देश के जरिए झारखंड के मुंडा आदिवासियों के अस्तित्व पर आसन्न पूँजीवादी संकटों का
आख्यान रचा है. विकास की तथाकथित आधुनिकता ने धीरे धीरे कैसे आदिवासियों की बेदखली का रास्ता प्रशस्त किया है गायब होता देश इस विडंबना की कहानी कहता है. डायरी के स्थापत्य में रचा यह उपन्यास उत्तर औद्योगिक विकास और पूंजीवादी घरानों के गठजोड़ का प्रत्याख्यान है. गायब होता देश आदिवासियों के इसी विस्थापन और बेदखली का शोकपत्र है जो पहले ही अध्याय के इस निर्वचन से स्पष्ट है:“सरना-वनस्पति जगत गायब हुआ, मरांग-बुरु बोंगा, पहाड़ देवता गायब हुए, गीत गाने वाली, धीमे बहने वाली, सोने की चमक बिखेरने वाली,हीरों से भरी सारी नदियाँ जिनमें ‘इकिर बोंगा’- जल देवता का वास था, गायब हो गई. मुंडाओं की बेटे-बेटियाँ भी गायब होने शुरू हो गये.’सोना लेकन दिसुम’ गायब होने वाले देश में तब्दील हो गया.” ग्लोबल गांव के देवता के बाद रणेंद्र ने फिर अपना रुख आदिवासियों को बेघर किये जाने और उनकी पहचान मिटाने की ओर किया है. जाहिर है कि आदिवासी समाज की बेहतरी के नाम पर उन्हे आधुनिकता की जीवन शैली से जोड़ने की कवायद कहीं न कहीं उनकी जर-जमीन पर कब्जा जमाने की एक पूंजीवादी दुरभिसंधि का ही नतीजा है जिसे झारखंड की प्रशासनिक मशीनरी के ही एक अधिकारी लेखक ने मार्मिकता से उद्घाटित किया है.
साल की शुरुआत में ही आधार प्रकाशन ने युवा लेखकों के कई उपन्यास व कहानी संग्रह प्रकाशित किये. अल्पना मिश्र, कविता (ये दिए रात की जरूरत थे), विमलचंद्र पांडेय, तरुण भटनागर (लौटती नहीं जो हंसी ), जयश्री राय (इक़बाल) के साथ वंदना शुक्ल के ये उपन्यास चर्चा में भी रहे. अल्पना मिश्र के उपन्यास अन्हियारे तलछट में चमका और सामयिक से आये मनीषा कुलश्रेष्ठ के उपन्यास पंचकन्या ने विशेष ख्याति पाई. जनगणना को लेकर लिखा और राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित वीरेंद्र सारंग का उपन्यास हाता रहीम एक मध्यवर्गीय व्यक्ति के सपनों के खंडित होने का इजहार है.
ज्यों ज्यों मोबाइल, टैबलेट और
अन्य आधुनिकतम इलेक्ट्रानिक गजेट्स पर लिखने पढने की सुविधाएं ज्यादा
सुविधानुकूल सिद्ध हो रही हैं,युवाओं का ध्यान किताबों से
हट रहा है. अब ई फार्मेट पर पुस्तकें अपलोड करने का प्रचलन बढ़ा है. कुछ
बेवसाइटों ने इस ओर तेजी से कदम बढ़ाया है तथा मामूली राशि व्यय कर ऐसी पुस्तकें
पढ़ी और डाउनलोड की जा सकती हैं. तथापि इस आशंका के बावजूद कि ऐसे तकनीकी गजेट्स
से पुस्तकों के पठन पाठन पर क्या असर होगा, आज भी
पुस्तक प्रकाशन बदस्तूर चल रहा है क्योंकि जो सुकून सिरहाने पुस्तकें रखने और
उन्हें पढने में है, वह शायद
मोबाइल या टैबलेट पर पुस्तक पढ़ने में नहीं है. लिहाजा आज भी पुस्तक प्रकाशन में
कमी नहीं आई है. लोग पहले पूछते थे क्या साहित्य बचेगा, क्या किताबें बचेंगी. लेकिन हर दौर पहले से बेहतर होता है. कम्प्यूटरीकृत
कंपोजिंग और डिजिटल छपाई ने अक्षर-अक्षर कंपोज करने, गेली
प्रूफ निकालने, फर्मे कसने, संशोधन
की हालत में गेली चालने व डिस्ट्रीब्यूट करने की जिल्लत से उबार दिया है. इसलिए
जितना भी आधुनिक समय आ आए, साहित्य रहेगा, किताबें भी रहेंगी.
गए साल 2014 में हिंदी पुस्तकों का संसार काफी वैविध्यकारी रहा है. कविता, कहानी, उपन्यास, आलोचना, यात्रावृत्त, रिपोर्ताज, संस्मरण और आत्मकथा और कथेतर गद्य
की अन्य अनेक पुस्तकों का प्रकाशन इस साल हुआ है जिसकी सूची ही गिनाई जाए तो कोई
एक हजार से कम नहीं होगी. किन्तु जैसा कि हर वर्ष होता है हजारों पुस्तकों में
से कुछ ही ऐसी होती हैं जो स्तरीय होती हैं और जिनका जीवन सुदीर्घ होता है. याद
आता है कुंवर नारायण जी का एक कथन कि घटिया पुस्तकों
की आबादी खर पतवार की तरह है. किन्तु आज खरपतवार
की आबादी ही ज्यादा बढ़ रही है जिसमें से अच्छी किताबों को खोज निकालना और
विहंगम दृष्टिपात कर उसकी स्तरीयता की पहचान कर पाना सहज नही है. तथापि यहां कुछ
ऐसे प्रकाशनों का उल्लेख किया जा रहा है जिन्हें इस साल की संग्रहणीय पुस्तकों
में परिगणित किया जा सकता है.
कविता का नैरंतर्य
जैसा कि साल 2013 में अनेक
नामचीन कवियों ज्ञानेंद्रपति, मंगलेश डबराल, लीलाधर जगूड़ी, सविता
सिंह, अशोक वाजपेयी, मुकुंद लाठ आदि कई वरिष्ठ कवियों की कृतियां आईं, वर्ष 2014 में कविता का सर्वश्रेष्ठ उपहार दिया केदारनाथ सिंह जी ने: सृष्टि पर पहरा. केदारनाथ सिंह जी ने गीतों से शुरुआत की थी. किन्तु अभी बिल्कुल अभी के बाद उनके कवि जीवन का पहला बड़ा मोड़ था : जमीन पक रही है. उसके बाद उनके कई संग्रह आए. पर दूसरा बड़ा मोड़ था टालस्टाय और साइकिल. सृष्टि पर पहरा उसी परंपरा की बेहतरीन काव्यकृति है. सर्वाधिक खुशी की बात यह कि उन्हें इसी साल भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित भी किया गया. कुंवर नारायण के बाद केदारनाथ सिंह हमारे समय के हिंदी के श्रेष्ठ कवि हैं. केवल इस वजह से नहीं कि उन्हें ज्ञानपीठ पुरस्कार मिला है बल्कि इसलिए कि उनके कविता लिखने का अंदाज बिल्कुल अलग किस्म का है. बात ही बात में एक ऐसे बिन्दु पर आकर उसे छोड़ देना कि लगे बात तो बिल्कुल अलग और नई है.
विष्णु नागर का संग्रह जीवन भी कविता हो सकता है इसी साल अंतिका प्रकाशन से आया. पत्रकारिता या सामाजिक कर्म से जुड़े कवियों के यहां कविता उसी तरह आती है जिस तरह जीवन के जद्दोजेहद के बुनियादी मुद्दे. वह राजनीतिक रूप से जलते समय में निश्चेष्ट पड़ी हुई आंच से राख बनती हुई परिस्थितियों की धूल नहीं बुहारती, बल्कि निनिर्मेष सत्ता और शक्तियों के एक एक पैंतरे को स्कैन कर रही होती है. विष्णु नागर की कविताओं ने यही काम किया है. उनकी कविताओं ने हमेशा विद्रोही लीक अपनाई. 'शुक्रवार' के संपादक के तौर पर इसी निर्भयता और वैचारिक प्रतिबद्धता का उन्होंने अंत तक परिचय दिया और अलग हुए तो अपने लेखकीय मान की रक्षा के लिए ही. जब देश भर में अच्छे दिनों की नाद-अनुनाद चल रहा था, एक राजनीतिज्ञ एक नायक की तरह प्रस्तुत किया जा रहा था, नागर ने देशभक्ति के इस प्रायोजित उन्माद को एक चुनौती के रूप में लिया. अब जब अच्छे दिनों का मुलम्मा उतर रहा है, नागर के इस संग्रह की अनेक कविताएं याद आ रही हैं जो उन्हें धर्मनिरपेक्ष सद्भावी किन्तु निर्भीक कवि के रूप में प्रस्तुत करती हैं. साहित्य भंडार ने इस साल वरिष्ठ कवि ऋतुराज व लीलाधर मंडलोई के संग्रह प्रकाशित किए.
सिंह, अशोक वाजपेयी, मुकुंद लाठ आदि कई वरिष्ठ कवियों की कृतियां आईं, वर्ष 2014 में कविता का सर्वश्रेष्ठ उपहार दिया केदारनाथ सिंह जी ने: सृष्टि पर पहरा. केदारनाथ सिंह जी ने गीतों से शुरुआत की थी. किन्तु अभी बिल्कुल अभी के बाद उनके कवि जीवन का पहला बड़ा मोड़ था : जमीन पक रही है. उसके बाद उनके कई संग्रह आए. पर दूसरा बड़ा मोड़ था टालस्टाय और साइकिल. सृष्टि पर पहरा उसी परंपरा की बेहतरीन काव्यकृति है. सर्वाधिक खुशी की बात यह कि उन्हें इसी साल भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित भी किया गया. कुंवर नारायण के बाद केदारनाथ सिंह हमारे समय के हिंदी के श्रेष्ठ कवि हैं. केवल इस वजह से नहीं कि उन्हें ज्ञानपीठ पुरस्कार मिला है बल्कि इसलिए कि उनके कविता लिखने का अंदाज बिल्कुल अलग किस्म का है. बात ही बात में एक ऐसे बिन्दु पर आकर उसे छोड़ देना कि लगे बात तो बिल्कुल अलग और नई है.
विष्णु नागर का संग्रह जीवन भी कविता हो सकता है इसी साल अंतिका प्रकाशन से आया. पत्रकारिता या सामाजिक कर्म से जुड़े कवियों के यहां कविता उसी तरह आती है जिस तरह जीवन के जद्दोजेहद के बुनियादी मुद्दे. वह राजनीतिक रूप से जलते समय में निश्चेष्ट पड़ी हुई आंच से राख बनती हुई परिस्थितियों की धूल नहीं बुहारती, बल्कि निनिर्मेष सत्ता और शक्तियों के एक एक पैंतरे को स्कैन कर रही होती है. विष्णु नागर की कविताओं ने यही काम किया है. उनकी कविताओं ने हमेशा विद्रोही लीक अपनाई. 'शुक्रवार' के संपादक के तौर पर इसी निर्भयता और वैचारिक प्रतिबद्धता का उन्होंने अंत तक परिचय दिया और अलग हुए तो अपने लेखकीय मान की रक्षा के लिए ही. जब देश भर में अच्छे दिनों की नाद-अनुनाद चल रहा था, एक राजनीतिज्ञ एक नायक की तरह प्रस्तुत किया जा रहा था, नागर ने देशभक्ति के इस प्रायोजित उन्माद को एक चुनौती के रूप में लिया. अब जब अच्छे दिनों का मुलम्मा उतर रहा है, नागर के इस संग्रह की अनेक कविताएं याद आ रही हैं जो उन्हें धर्मनिरपेक्ष सद्भावी किन्तु निर्भीक कवि के रूप में प्रस्तुत करती हैं. साहित्य भंडार ने इस साल वरिष्ठ कवि ऋतुराज व लीलाधर मंडलोई के संग्रह प्रकाशित किए.
ऋतुराज ने महात्मा
गांधी अंतर्राष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय वर्धा के अपने लेखकीय प्रवास में जो
कविताएं लिखीं वे उनके संग्रह फेरे में
समाविष्ट हैं. ऋतुराज की ये कविताएं आजादी के बाद के
भारत में पैदा इजारेदारों, राजनीतिकों तथा छद्म
बुद्धिजीवियों की बढ़ती गयी आबादी पर शोक प्रकट करती हैं. वे इस बात पर हैरानगी
जताते हैं कि एक हरे भरे उपग्रह इस सुंदर और विपुल पृथ्वी पर कैसे लोग काबिज हैं.
किस तरह से ऐसे लोग देने नहीं बल्कि लोगों की रोशनी छीन लेने के हुनर में पांरगत
हैं. नतीजतन राजनीति की विष्ठा में लिथड़े चेहरों पर तो भरपूर रोशनी है पर जनता
के सपनों पर सूर्यग्रहण छाया है. झूठ के विराट उजाले में आखिर कौन सचाई की इबारत
बॉंचे ? यहीं से लीलाधर मंडलोई के
कविता चयन 'हत्यारे उतर चुके हैं
क्षीरसागर में' का प्रकाशन हुआ है. मंडलोई की यों
तो सारी कविताएं आम बोलचाल की भाषा में और नपी तुली शब्दावली में चुटीली और
नुकीली बात कहती हैं किन्तु उनकी कुछ लंबी कविताओं में हत्यारे उतर
चुके हैं क्षीरसागर में शीर्षक कविता बाजारवाद की
विस्फोटक परिणतियों का सबल साक्ष्य है. उत्तर आधुनिकता के चाकचिक्य में हमारा
भविष्य मनुष्य जाति के लिए कितना भयावह है, यह कविता
उसकी एक मामूली-सी झलक भर है. सुदीर्घ कवि जीवन से चुनी ये कविताएं लीलाधर मंडलोई
के विपुल काव्यात्मक संसार का एक बड़ा गवाक्ष हैं.
दीगर विधाओं में लोकप्रिय
लेखकों में दूधनाथ सिंह का संग्रह तुम्हारे लिए राजकमल प्रकाशन से आया तो विश्वनाथ त्रिपाठी का संग्रह प्रेमचंद बिस्कोहर में साहित्य भंडार से.
विश्वनाथ त्रिपाठी की कविताओं में आलोचक की नहीं एक कवि की आत्मा बोलती है. उनकी
कविताएं सघन मानवीय संवेदना से प्रसूत हैं. विश्वनाथ त्रिपाठी की यह खूबी है कि
कहानी हो या कविता, उसके मर्मस्थलों की उनहें खूब
पहचान है और यही उनके आलोचक की सफलता भी है. यों तो वे इस संग्रह में राहुल,त्रिलोचन, रामविलास शर्मा, प्रेमचंद और लेनिन को याद करते हैं पर ऐसी कविताएं भी यहां हैं जिसमें
उनका यह सवाल बींध जाता है: ''मरोड़ी हुई मेरी
भुजाओं/ और मेरी बिटिया की दूब-बाहों के बीच/ अधजली रोटी का यह टुकड़ा कहां से आ
जाता है.'' आलोचक की रुक्षता का आलाप बहुत होता है
पर यहीं उनके एक बरवै में क्या खूब काव्य छटा विराजमान है, जब वे कहते हैं: उड़त पखेरुआ हिए छॉंह परि जाइ/ परितै मनई गूँग बहिर ह्वै
जाय. अवधी की ताकत ने त्रिपाठी को एक कवि की संवेदना से सींचा है पर यह उनका चयन
है कि उन्होंने धीरे धीरे आलोचना की राह अपना ली. यहीं से आई कथाकार शेखर
जोशी की काव्यकृति न रोको उन्हें शुभा कथाकार के काव्य प्रयत्नों का एक विरल उदाहरण है. हालांकि पिछले साल आई
मुकुंद लाठ की काव्यकृति अनकहनी ही रहने दो जिस तरह के चिन्मय संसार में ले जाती है,उतनी शेखर
जोशी की यह कृति नहीं.
वरिष्ठ कवि नंद किशोर आचार्य के अब तक कोई दस से ज्यादा
संग्रह आ चुके हैं. पुन: दो नए संग्रह सूर्य प्रकाशन मंदिर बीकानेर से आए हैं: मृत्यु शर्मिंदा है खुद और मुरझाने को खिलाते हुए. नंद किशोर आचार्य मितभाषिता के कवि हैं. समकालीनता के कोलाहल से दूर चिति
और चित्त की अंतर्दशाओं और प्रकृति के माहात्म्य की छटा उनकी कविताओं में यत्र
तत्र मिलती है. राजस्थान के वरिष्ठ कवियों में ही गोविंद माथुर का संग्रह नमक की तरह उनके पिछले संग्रह बची हुई हँसी की तरह ही उल्लेखनीय है.
कुबेर दत्त कविता में साहसिकता के धनी थे. काल काल आपात से लेकर जीवनपर्यंत और
नवीनतम संग्रह शुचिते तक वे
जनवादी मूल्यों के पक्षधर रहे हैा. दुनिया भर की बेटियों के नाम लिखी कविताओं का
संग्रह शुचिते पढ़ते हुए कवि की यह सीख भूलने वाली नहीं है: ''अमरबेल न बनना/ चलना,अपने बूते चलना/ गिर-गिर
सँभलना..../पकड़ना हाथ कमजोर सुत सुताओं का/ बन जाना अकाट्य हथियार/ डरी डरी माँओं
का......''
दखल प्रकाशन ने इस साल कई महत्वपूर्ण
कविता संग्रह छापे जिनमें दिवंगत वेणु गोपाल का संग्रह और ज्यादा
सपने, मोहन कुमार डेहरिया का संग्रह' इस घर में रहना एक कला है', हरिओम राजौरिया
का नागरिक मत, शिरीष
मौर्य का दंतकथा और अन्य कविताएं, अशोक कुमार पांडेय का प्रलय में लय जितना, व तुषार धवल की ये आवाज़ें कुछ कहती हैं प्रमुख हैं. वेणु गोपाल अपने समय के जुझारू कवि थे. नक्सलवादी आंदोलन के
कुछ अगुवा कवियों में रहे वेणु गोपाल से जुझारु कविता की भूमिका अग्रतर होती है.
मोहन डेहरिया के पास एक अनछुई भाषा है और उसे कह देने की अप्रतिहत कला. अभी अभी आए
उनकी प्रेम कविताओं के संग्रह की याद तरोताजा ही है कि इस घर में रहना एक कला है पुन: उनके अनथक काव्यसंवेदना का उदाहरण बन कर सामने आई हैं. इस संग्रह की सारी कविताएं हमारे समय को बहुत नजदीक से देखने की कोशिश में रची गयी
हैं. तुषार धवल समय की जटिलता को सदैव अपनी काव्यसंवेदना
के केंद्र में रखते आए हैं. उनके कवि-मन पर दार्शनिकता की आभा विराजती है. तुषार धवल अपनी लंबी कविताओं में चाहे वह तनिमा हो,उत्तर प्रेम, ये
आवाजें कुछ कहती हैं या काला राक्षस---इस गाढे सांवले समय को पूरे उत्तरदायित्व
से रचते हुए प्रतीत होते हैं. ये एक बार में खुलने वाली कविताएं नहीं हैं. ये
हमारे जटिल और पेचीदा समय में एक संवेदनशील आदमी का विक्षुब्ध बयान हैं. साहित्य भंडार इलाहाबाद से आए रतीनाथ योगेश्वर के संग्रह थैंक्यू मरजीना और श्रीरंग के संग्रह मीर खां का सजरा ने भी काव्यप्रेमियों का ध्यान आकृष्ट किया है।
वाणी प्रकाशन से आया मदन कश्यप
का संग्रह 'दूर तक चुप्पी' कुछ
छोटी छोटी कविताओं का है. पर चौथे संग्रह तक आकर हम मदन कश्यप के जिस कवि रूप की
अपेक्षा करते हैं, वह संतोष यह संग्रह नहीं देता जब कि कुरुज में उनका कवित्व पहचाना जाता है.
कविता में अपनी पहचान बनाने के लिए प्रयत्नरत शिल्पायन से आई मिथिलेश श्रीवास्तव
की दूसरी काव्यकृति पुतले पर गुस्सा से भी हमें जो अपेक्षा थी वह पूरी होती नहीं दिखती. ऋत्विज प्रकाशन से
आया कोलकाता के कवि नीलकमल का संग्रह यह पेड़ों के
कपड़े बदलने का समय है हमें आश्वस्ति देता है.
नील कमल की कविता में ठहराव है. यों तो अपनी कविता काे पुरुषाार्थ चतुष्टय के
केंद्र में रखना चाहते हैं और भाषा के एकांत में पूरी रात सोने के ख्वाहिशमंद हैं
किन्तु नील कमल कैसे कवि हैं इसके लिए उनके संग्रह से केवल एक कविता का उदाहरण
रखते हुए कहना चाहूँगा जहां वे कविता की अयोध्या की कल्पना करते हुए पूछते हैं
कि कविता की यह अयोध्या जहां मुकुटों का मोल पादुकाओं से हमेशा रहा कमतर क्या
अपना राजसी ठाटबाट छोड़ने के लिए तैयार है. कविता में कुलीनता के विरुद्ध यह कवि
का गंभीर हस्तक्षेप है. जबकि वहीं के विमलेश त्रिपाठी का संग्रह एक देश और मरे हुए लोग जितना शीर्षक से
आतंकित करता है, वैसा निभाव और कथ्य कविताओं में नहीं
है. वे रोमानी मिजाज के कवि हैं अत: एक रोमानी किस्म का रचाव ही उनकी कविताओं में
दिखता है. वे युवा भावुकता और संवेदना को इनकैश करने का जतन खूब करते हैं और
यथासाध्य इसमें वे सफल भी होते हैं.
सुपरिचित कवयित्री इला कुमार का
संग्रह आज पूरे शहर पर पढते
हुए हमें इस बात का संतोष होता है कि वे स्त्री विमर्श के अतिरेकी प्रवाह में न
बह कर जीवन के सहज अनुभव संसार को सामने लाती हैं जो इस संग्रह तक आकर जो पहचान
कविता में उनकी बननी चाहिए थी, वह अभी तक नहीं बन पाई
है. अनामिका सदैव ऐसी कविताएं लिखती आई हैं जिनमें एक खनक होती है वह चाहे सुख की
हो या दुख की. वे कविताओं से वह काम नहीं लेतीं जो स्त्री विमर्श के लिए अपने
बहसतलब निबंधों से लेती हैं. राजकमल प्रकाशन से आई उनकी नवीनतम काव्यकृति टोकरी में दिगन्त--थेरी गाथा:2014 केदारनाथ
सिंह के शब्दों में एक लंबी कविता है जिसमें अनेक
छोटे छोटे दृश्य प्रसंग और थेरियों के रूपक में लिपटी हुई हमारे समय की सामान्य
स्त्रियां आती हैं. 2014 के समय संदर्भ में लिखी गयी इन कविताओं को आज के समय का
एक ज्वलंत स्त्री-पाठ मानना चाहिए.
युवा कवियों के इस साल अनेक
संग्रह आए. पर राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित सर्वेंद्र विक्रम का संग्रह दुख की
बंदिशें उनके पिछले संग्रह की तरह ही नुकीला और
युगीन कथ्य से ओतप्रोत है. ऐसा ही संग्रह है श्रीप्रकाश शुक्ल का ओरहन और अन्य कविताएं, पर इसमें बोली बात वाला
अर्थगौरव नहीं है. यह अवश्य है कि इनमें रेत पर
आकृतियां जैसा अमूर्तन नहीं है, बल्कि यह जीवन के वास्तविक कथ्य से प्रेरित और संवलित है. बोधि प्रकाशन
ने इस साल भी तमाम संग्रहों का प्रकाशन किया है जिनमें
कुछ विशेष रूप से ध्यातव्य हैं जिनमें नीलोत्पल और
शिरीष कुमार मौर्य के कविता संग्रह प्रमुख हैं. राजकमल
प्रकाशन से प्रकाशित भावना शेखर के कविता संग्रह 'सांझ
का नीला किवाड़' ने अपने शीर्षक से ही अपनी ओर ध्यान आकृष्ट किया है.भावना शेखर की कविताओं में स्त्री का
शाश्वत अवसाद नहीं, उसका भीतरी उल्लास दिखता है. वे
कविताओं में नीरभरी दुख की बदली की तरह पेश नहीं आतीं. इस अर्थ में वे कविताओं में
पुरुष का प्रतिलोम खड़ा नहीं करतीं. उसे सहचर की तरह सहेजती हैं. पर वे स्त्री की
विद्रोही, आधुनिक और निर्णायक मति को अनदेखा नहीं करतीं.
उनका यह इंदराज़ कि ''औरत का संविधान बाट जोहता है आज
भी किसी संशोधन की''--संकेतो में वह सब कह देता है जिसे स्त्रीवाद
का परचम लहराने वाली कवयित्रियां भी नहीं कह पातीं. उम्मीद
नहीं छोड़ती कविताएं---हमारे वरिष्ठ कवि केदारनाथ सिंह कह गए हैं. भावना शेखर की
ये कविताएं भी उल्लास और उदासियों के अनेक रंगों के साथ आस्था और उम्मीद का
दामन नहीं छोड़ती:
कंटीले झाड़ से गड़े
लफ्जों के नश्तर
जहां भर के तंजों ने
कोंच कोंच कर पस्त किया हौसलों को
लफ्जों के नश्तर
जहां भर के तंजों ने
कोंच कोंच कर पस्त किया हौसलों को
तुम हार चुकी हो हार चुकी हो
कोशिशें तमाम नाकाम हो चलीं
कोशिशें तमाम नाकाम हो चलीं
तभी शिकस्तों की भीड़ में
हौले से मेरा दामन खींच कर
फुसफुसा कर कहा उम्मीद ने
और एक बार...........और एक बार.
हौले से मेरा दामन खींच कर
फुसफुसा कर कहा उम्मीद ने
और एक बार...........और एक बार.
प्रेम कविताओं के लिए पहचानी
जाने वाली कवयित्री पुष्पिता अवस्थी के संग्रह ' शब्दों में रहती है
वह' में वैश्विक यायावरी और जीवनानुभवों से उपजे
एक नए कविता संसार का उद्घाटन मिलता है. किताबघर प्रकाशन से प्रकाशित इस संग्रह
में वे उन तमाम जगहों,अनुभवों को हमारे समक्ष रखती हैं जो
हमारे अनुभवबोध में बहुत कुछ नया जोड़ते हैं. पुष्पिता
अवस्थी ने इन कविताओं में विदेशी धरती के मानवीय प्रसंगों को पूरी संजीदगी से
समेटा है. यहां अश्वेत शिशु के जन्म पर मॉं का संतोष है तो ‘पेट भरो की भूख’ में दुनिया की अमिट भूख का एक
लोमहर्षक जायज़ा भी. वे जगह ब जगह भारतवंशियों की पीड़ा का आख्यान लिखते हुए यह
भूल नहीं जातीं कि सूरीनाम और हालैंड जैसे देशों का नख-शिख भारतीय मजदूरों ने अपने
श्रम और पसीने से सँवारा है.भारतीय ज्ञानपीठ से इसी साल नवलेखन से पुरस्कृत
अरुणाभ सौरभ का संग्रह दिन बनने के क्रम में
तथा स्वाति मेलकानी का संग्रह जब मैं
जिंदा होती हूँ प्रकाशित हुआ पर युवा लेखकों
के बीच इन संग्रहों की कोई विशेष पहचान न बन सकी. जबकि साहित्य अकादेमी से
प्रकाशित प्रभात के पहले संग्रह 'अपनो में नहीं रह
पाने का गीत’ ने युवा कविता में शायद सबसे विश्वसनीय
ख्याति अर्जित की. मैं पहले भी कह चुका हूँ कि इधर के
कवियों में जिन कवियों ने सर्वाधिक ध्यान खींचा है, जिनकी
भाषा और अतर्वस्तु में संवेदना और मार्मिकता की सबसे अनछुई ताजगी है वह प्रभात और
गीत चतुर्वेदी हैं. संयोग से गीत का कोई संग्रह इस साल नहीं आया. प्रभात और गीत
दोनों कविता में सुबह की मानिंद हैं तरोताजा, धारोष्ण कथ्य
और बिम्बों के कवि.'अपनो में नहीं रह पाने का गीत’ में प्रभात ने ‘शकु्ंतला’ जैसी
हृदय विदारक कविता लिखी है. ‘शकुंतला’ ही
क्यों, समारोह में मिली स्त्रियां, ऊँटगाड़ी में बैठी स्त्रियां सईदन चाची, रुदन,
चारा न था, गोबर की हेल, जीने की जगह, एक सुख था, याद जैसी कविताएं बताती हैं कि पुरुष में भी एक स्त्री का दिल धड़कता है जो
स्त्री होने की पीड़ा को स्त्रियों से ज्यादा महसूस करता है और व्यक्त करता
है. वह स्त्री विमर्श के फैशनवादी लेखन से प्रभावित नहीं है, बल्कि उसकी कविताएं हालात की वेदना से उपजी हैं. वह साफ देख रहा है कि वे
हारी हुई हैं तथा विजय सरीखी तुच्छ लालसाओं पर उन्हें ऐतिहासिक विजय हासिल है.
साहित्य भंडार से आए केशव तिवारी के संग्रह तो काहे का मैं में लोक से लिए गए कथ्य का संसार प्रबल है और अवधी का वाग्विस्फोट अपने काव्यात्मक रूप में यहां खड़ी बोली को जो ताकत देता है वह उनके युवा साथियों में कम दीख पड़ता है. बोधि प्रकाशन से 2014 में प्रकाशित नीलोत्पल के दूसरे संग्रह पृथ्वी को हमने जड़ें दीं में उनका कवि प्रशस्त भंगिमा में नजर आता है. स्थितियों का बयान करने में कुशल नीलोत्पल में स्फीति तो है, पर कहीं-कहीं मर्म छूने वाली पंक्तियॉं लिख जाते हैं: ''मैं कभी नहीं जान पाया/ मां और चक्की किस तरह अलग हैं एक दूसरे से.'' दखल प्रकाशन से आये तुषार धवल की कविताओं का शिल्प अपेक्षाकृत अधिक सधा है. बोधि से ही आया वसुंधरा पांडेय का संग्रह शब्द नदी है कोमल भावनाओं और स्नेहसिक्त कविताओं का संग्रह है. वे छोटी छोटी कविताओं में अत्यंत आत्मीय प्रभाव छोड़ती हैं. अभिधा प्रकाशन मुजफ्फरपुर से केशव शरण की लघु कविताओं का संग्रह दूरी मिट गयी आया है पर वे कविताओं में 'ग्रो' करते नहीं दीखते. साहित्य भंडार इलाहाबाद से आए रतीनाथ योगेश्वर के संग्रह थैंक्यू मरजीना और श्रीरंग के संग्रह मीर खां का सजरा ने भी काव्यप्रेमियों का ध्यान आकृष्ट किया है.
साहित्य भंडार से आए केशव तिवारी के संग्रह तो काहे का मैं में लोक से लिए गए कथ्य का संसार प्रबल है और अवधी का वाग्विस्फोट अपने काव्यात्मक रूप में यहां खड़ी बोली को जो ताकत देता है वह उनके युवा साथियों में कम दीख पड़ता है. बोधि प्रकाशन से 2014 में प्रकाशित नीलोत्पल के दूसरे संग्रह पृथ्वी को हमने जड़ें दीं में उनका कवि प्रशस्त भंगिमा में नजर आता है. स्थितियों का बयान करने में कुशल नीलोत्पल में स्फीति तो है, पर कहीं-कहीं मर्म छूने वाली पंक्तियॉं लिख जाते हैं: ''मैं कभी नहीं जान पाया/ मां और चक्की किस तरह अलग हैं एक दूसरे से.'' दखल प्रकाशन से आये तुषार धवल की कविताओं का शिल्प अपेक्षाकृत अधिक सधा है. बोधि से ही आया वसुंधरा पांडेय का संग्रह शब्द नदी है कोमल भावनाओं और स्नेहसिक्त कविताओं का संग्रह है. वे छोटी छोटी कविताओं में अत्यंत आत्मीय प्रभाव छोड़ती हैं. अभिधा प्रकाशन मुजफ्फरपुर से केशव शरण की लघु कविताओं का संग्रह दूरी मिट गयी आया है पर वे कविताओं में 'ग्रो' करते नहीं दीखते. साहित्य भंडार इलाहाबाद से आए रतीनाथ योगेश्वर के संग्रह थैंक्यू मरजीना और श्रीरंग के संग्रह मीर खां का सजरा ने भी काव्यप्रेमियों का ध्यान आकृष्ट किया है.
साठ के होने वाले स्वप्निल
श्रीवास्तव का संग्रह जब तक है जीवन अनामिका, इलाहाबाद से प्रकाशित हुआ है. अपने
काव्य संयम के लिए जाने जाने वाले स्वप्निल की ये कविताएं अपने समय को पहचानती
हैं. सारस जैसी
कविता में वे अपने सरोकारों का पूरा भाष्य लिख देते हैं:परिंदे बहुत आए और चले
गए/ बहुत सारी तितलियां उड़ती रहीं/ हमारे आसपास/ आखिरकार वे भी अच्छे दिनों की
तरह/ कहीं उड़ गयीं/ उनकेपंख छूट गए हैं डायरी में. ओम भारती का संग्रह इतनी बार कहा है इस साल बिल्कुल अनदेखा चला गया जो उनकी प्रगतिशील सोच और नए बिम्बों से
छन कर आए कथ्य का परिचायक है. यहां उनके रोमैंटिक मिजाज को भी हम उनकी तमाम
कविताओं में लक्षित कर सकते हैं.उनका अंदाजे बयां ध्यातव्य है: वह मेरी आयु का
हरा भू-भाग था नदी के कछार-सा फैला हुआ. नदी से कविताई सीखने का संकल्प इस कवि के
कौल करार में शामिल है. पर यहीं से आया दिनेश कुशवाह का संग्रह ईश्वर के पीछे औसत से आगे हमें नहीं ले
जाता. राजेंद्र नागदेव अरसे से लिख रहे कवि हैं. पर इसी साल आया उनका संग्रह उस रात चॉंद खंडहर में मिला उनकी सुपरिचित
काव्य भंगिमाओं का ही आवर्तन है. इतना लिखने के बावजूद वे कविता की मुख्यधारा से
बाहर के कवि लगते हैं. कविता के ही अनन्य कार्यकर्ता सुधीर रंजन सिंह का काव्यविवेक
उनकी कृति मोक्षधरा में
द्रष्टव्य है गोकि नया साल होने का आया पर संग्रह को वह चर्चा नहीं मिल सकी, जिसकी अपेक्षा थी. बोधि प्रकाशन से छपी अंजू शर्मा के कविता संग्रह कल्पनाओं से परे का समय ने चर्चा तो हासिल
की है.किन्तु उन्हें अपने काव्यप्रयत्नों को सलीके से साधना होगा जिससे कि वे
आगे आने वाले समय की एक प्रासंगिक कवयित्री बन सकें. इसी तरह निशा कुलश्रेष्ठ का
संग्रह गूँजता है मौन स्त्री संवेदना के महीन धागों से बुना गया है. मैं एक स्त्री से शुरू यह
संगह जीवन के जद्दोजहद के बीच एक स्त्री के चित्त को चीन्हता है.
कविता से अधिक
कविता की ऐक्टीविस्ट अंजू शर्मा मैं अहिल्या नहीं बनूंगी व मलाला सिर्फ एक नहीं
है लिख कर अपनी कविता का उन्वान सामने रख देती हैं. वे सतत उस काव्यभाषा के लिए
प्रयत्नरत दिखती हैं जिसके होने से कविता प्रासंगिक होती है. मृदुला शुक्ल भी
अपने संग्रह में स्त्री चेतना को एक नई राह दिखाती हैं. दृढता और जूनून के साथ
कविता में आई मृदुला ने अपने संग्रह में कई अच्छी कविताएं दी हैं. इस वर्ष अरसे से अनुपलब्ध असद जैदी की कविताएं आधार प्रकाशन ने सरे-शाम नाम से एक जिल्द में छापीं तो
निर्मला पुतुल का संग्रह बेघर सपने व उमाशंकर चौधरी का संग्रह वे पूछेंगे तुमसे
डर का रंग भी प्रकाशित हुआ. किताबघर प्रकाशन से
प्रकाशित वरिष्ठ कवि बलदेव वंशी का संग्रह चाक पर
चढी माटी और युवा कवि हेमंत कुकरेती का संग्रह धूप के बीज को बेशक चर्चा नहीं मिल पाई
किन्तु खास तौर पर बलदेव वंशी की ये गैरिकवसना कविताएं उनके उत्तर जीवन की विशेष
उपलब्धि के रूप में गिनी जाएंगी. किताबघर कीमेरे साक्षात्कार और कवि ने कहा सीरीज चर्चित रही है. इस साल मेरे साक्षात्कार सीरीज में मालती जोशी और विद्यासागर नौटियाल के इंटरव्यू जुड़े तो कवि ने कहा सीरीज में अशोक वाजपेयी,
कुंवर नारायण, मलय, नरेश
सक्सेना व केदारनाथ सिंह की कविताएं सामने आईं. साक्षात्कार की एक बेहतरीन किताब उपकथन आधार प्रकाशन से आई जिसमें मंगलेश
डबराल से लिए गए साक्षात्कार संकलित हैा.
गीत-नवगीत के क्षेत्र
में इधर अवरोध सा आया है. कुछ वरिष्ठ कवि फिर भी अपनी टेक पर लिख रहे हैं जैसे
कुमार रवींद्र, अनूप अशेष, बुद्धिनाथ
मिश्र,यश मालवीय व सुधांशु उपाध्याय. अनूप अशेष का संग्रह दिन ज्यों पहाड़ के भारतीय ज्ञानपीठ से
आया है. एक वक्त उनके गीत धर्मयुग जैसी पत्रिकाओं के पन्नों पर छप कर एक नया
रोमानी उन्माद पैदा करते थे पर धीरे धीरे ऐसे जीवंत गीत लिखने वाली पीढी खत्म हो
गयी. कुछ कवि अन्य विधाओं में चले गए. अंजुमन प्रकाशन से यश मालवीय का संग्रह नींद कागज की तरह और पूर्णिमा बर्मन का
संग्रह चोंच में आकाश आया है पर ये संग्रह भी विशेष चर्चा न पा सके. तो क्या गीतों की आभा मंद
पड़ गयी है या अब वैसे सिद्ध गीतकार नहीं रहे? क्योंकि यश
मालवीय या सुधांशु उपाध्याय में ही नवगीत की राह पर चलते जाने का एक अर्जित अभ्यास
तो है पर नयापन उनके गीतों में अब कभी-कभार ही दिखाई देता है. गजलों में देवेंद्र आर्य का मोती मानुष चून और ध्रुव गुप्त का गजल संग्रह मुझमें कुछ
है जो आईना सा है आया है. दोनो उम्दा गजलगो हैं.
देवेंद्र आर्य की गजल का एक शेर है: बताओ देश अपना
महान है कि नहीं/ और इसमें हमारा योगदान है कि नहीं. देश की महानता में इनका योगदान हो न हो, पर
हिंदी गजल को नई भाषा भंगिमा देने में ध्रुव गुप्त, देवेंद्र
आर्य, सुरेंद्र चतुर्वेदी और लक्ष्मीशंकर वाजपेयी जैसे
कवियों का निश्चय ही योगदान है. अरसे से आउट आफ
प्रिंट रही जाने माने ग़ज़लगो एहतराम इस्लाम की
शायरी का कलेक्शन '' है तो है'' पुन: अंजुमन प्रकाशन इलाहाबाद से आया है, यह स्वागतयोग्य
कदम है. सुपरिचित चित्रकार मंजुला चतुर्वेदी की भी एक कृति 'एक कोना राग का' हिंद युग्म नई दिल्ली से प्रकाशित हुई है जिसका हर कोना राग-अनुराग से भीगा है तथा आखिरी कविता खंड तो ललित निबंधकार
विद्यानिवास मिश्र की स्मृति को ही समर्पित है.
उपन्यास और आख्यान
उपन्यासों की दुनिया में इस
साल विशेष गहमागहमी रही. कई अच्छे व संजीदा उपन्यास सामने आए. ज्ञान चतुर्वेदी
का हम न मरब, काशीनाथ सिंह का उपसंहार, नासिरा शर्मा का कागज की नाव, अखिलेश का निर्वासन, रणेंद्र का गायब होता देश व हरि भटनागर का एक थी मैना एक था कुम्हार, उषा प्रियंवदा का
उपन्यास नदी व भगवान
दास मोरवाल का उपन्यास नरक मसीहा इनमें प्रमुखता से उल्लेखनीय हैं.
मृत्यु, बुढ़ापे और मृत्यूपरांत लोकाचार को उद्घाटित करने के लिए यों तो एक संजीदा दृष्टि चाहिए पर ऐसे भी गंभीर विषय को व्यंग्य में निबाहना वह भी पूरी शिद्दत और कहानी की मार्मिकता को ठेस न पहुंचाते हुए, कोई असान काम नहीं है. पर ज्ञान चतुर्वेदी ने इस संभव किया है अपने नवीनतम उपन्यास हम न मरब में. बब्बा की बीमारी, उनका मरना, मां का लकवाग्रस्त होना, बब्बा के पुत्रों को मृत्यूपरांत व्यवहार, तेरहवीं तक की एक एक घटना को ज्ञान चतुर्वेदी ने ऐसे बयान किया है जैसे वे केवल द्रष्टा भर न हों, उसके भोक्ता भी हों और जगह जगह पर बुंदेलखंडी भाषा की बड़ी मीठी छौंक लगाई है कि तबीयत तर हो जाती है. गालियां यहां काशी का अस्सी से भी ज्यादा मिलेंगी पर वे जैसे बोल-बतियाव का हिस्सा लगती हैं. बब्बा का डाक्टर से बतियाने का लहजा पुरलुत्फ है: ‘’ऐसी तैसी भैंचो कैंसर की. हर मरब, मरिहे संसारा. मरता तो शरीर है डाक्टर साब. हम तो आत्मा हैं भैया. कैंसर फैंसर से आत्मा का बाल भी टेढ़ा नहीं होता.‘’ उनका कहा आत्मा में किसी ठक ठक dकी तरह बजता है: जिंदगी सुख के पीछे एक चूतियानंदन वाली दौड़ है. यह कभी खत्म नहीं होती.‘’ खुद ज्ञान चतुर्वेदी उपन्यास के भीतर हास्य व्यंग्य, करुणा, तृष्णा, षडयंत्र, आंसू, हँसी ,रुदन, फुसफुसाहट, रोशनी, अंधकार, प्रहसन,शोकांतिका तथा एब्सर्ड नाटक के युग्म से बनी कुछ अजीब चीज होने की ओर इंगित करते हैं. बब्बा के मरने से बहुत पहले से अम्मा को लकवा के बाद कबाड की तरह अठारह सालों से पौर के अंधेरे उपेक्षित कोने में डाल दिया गया है, जिनकी सांसें चल रही हैं पर जीवन स्थगित है. पर इस स्थगित जीवन के बीच भी ज्ञान जी व्यंग्य का कोना तलाश लेते हैं: ‘’बाप की गांठ में पैसा हो तो वह स्साला ऑटोमेटिक ही आदरणीय हो जाता है.‘’ और जरा बब्बा के एक बेटे की मनोग्रंथि देखिए: नन्ना ने शवयात्रा में चलते हुए ही अपने कुर्ते की जेब टटोली. जी धक्क् रह गया. मुँह फक्क. चेहरा ऐसा निकल आया मानो बाप बिना कुछ भी छोड़े मर गया हो.‘’आदि से अंत तक ज्ञान अपने पूरे लेखकीय, चिकित्सकीय और मानव-मन के गूढ़ और अनुद्घाटित रहस्यों को उधेड़ देने के नैपुण्य के साथ उपन्यास को अंत में एक मार्मिक यथार्थ के मोड़ पर छोड़ देते हैं जहॉं तेरहवीं के निपटने के साथ ही घर में बंटवारे की बात चल रही है और प्रत्याशित मृत्यु की प्रतीक्षा में पड़ी मां अपने लिए गोंगों की कातर और बुदबुदाती आवाज में बब्बा वाला कमरा मांग रही हैं जिन्हें देख किसी ने कहा है, सिर्री हो गयीं हैं ये. बकौल लेखक: इस समझदार दुनिया के पागलपन के बीच आखिर वे कब तक ठीक रह सकती थीं. हम न मरब— बब्बा की वाचाल बतकहियों से जरूर शुरु होता है पर अंत अम्मा के हलक में फँसे इन्हीं शब्दों से होता है जो इसे एक शोकांतिका में बदल देता है.
मृत्यु, बुढ़ापे और मृत्यूपरांत लोकाचार को उद्घाटित करने के लिए यों तो एक संजीदा दृष्टि चाहिए पर ऐसे भी गंभीर विषय को व्यंग्य में निबाहना वह भी पूरी शिद्दत और कहानी की मार्मिकता को ठेस न पहुंचाते हुए, कोई असान काम नहीं है. पर ज्ञान चतुर्वेदी ने इस संभव किया है अपने नवीनतम उपन्यास हम न मरब में. बब्बा की बीमारी, उनका मरना, मां का लकवाग्रस्त होना, बब्बा के पुत्रों को मृत्यूपरांत व्यवहार, तेरहवीं तक की एक एक घटना को ज्ञान चतुर्वेदी ने ऐसे बयान किया है जैसे वे केवल द्रष्टा भर न हों, उसके भोक्ता भी हों और जगह जगह पर बुंदेलखंडी भाषा की बड़ी मीठी छौंक लगाई है कि तबीयत तर हो जाती है. गालियां यहां काशी का अस्सी से भी ज्यादा मिलेंगी पर वे जैसे बोल-बतियाव का हिस्सा लगती हैं. बब्बा का डाक्टर से बतियाने का लहजा पुरलुत्फ है: ‘’ऐसी तैसी भैंचो कैंसर की. हर मरब, मरिहे संसारा. मरता तो शरीर है डाक्टर साब. हम तो आत्मा हैं भैया. कैंसर फैंसर से आत्मा का बाल भी टेढ़ा नहीं होता.‘’ उनका कहा आत्मा में किसी ठक ठक dकी तरह बजता है: जिंदगी सुख के पीछे एक चूतियानंदन वाली दौड़ है. यह कभी खत्म नहीं होती.‘’ खुद ज्ञान चतुर्वेदी उपन्यास के भीतर हास्य व्यंग्य, करुणा, तृष्णा, षडयंत्र, आंसू, हँसी ,रुदन, फुसफुसाहट, रोशनी, अंधकार, प्रहसन,शोकांतिका तथा एब्सर्ड नाटक के युग्म से बनी कुछ अजीब चीज होने की ओर इंगित करते हैं. बब्बा के मरने से बहुत पहले से अम्मा को लकवा के बाद कबाड की तरह अठारह सालों से पौर के अंधेरे उपेक्षित कोने में डाल दिया गया है, जिनकी सांसें चल रही हैं पर जीवन स्थगित है. पर इस स्थगित जीवन के बीच भी ज्ञान जी व्यंग्य का कोना तलाश लेते हैं: ‘’बाप की गांठ में पैसा हो तो वह स्साला ऑटोमेटिक ही आदरणीय हो जाता है.‘’ और जरा बब्बा के एक बेटे की मनोग्रंथि देखिए: नन्ना ने शवयात्रा में चलते हुए ही अपने कुर्ते की जेब टटोली. जी धक्क् रह गया. मुँह फक्क. चेहरा ऐसा निकल आया मानो बाप बिना कुछ भी छोड़े मर गया हो.‘’आदि से अंत तक ज्ञान अपने पूरे लेखकीय, चिकित्सकीय और मानव-मन के गूढ़ और अनुद्घाटित रहस्यों को उधेड़ देने के नैपुण्य के साथ उपन्यास को अंत में एक मार्मिक यथार्थ के मोड़ पर छोड़ देते हैं जहॉं तेरहवीं के निपटने के साथ ही घर में बंटवारे की बात चल रही है और प्रत्याशित मृत्यु की प्रतीक्षा में पड़ी मां अपने लिए गोंगों की कातर और बुदबुदाती आवाज में बब्बा वाला कमरा मांग रही हैं जिन्हें देख किसी ने कहा है, सिर्री हो गयीं हैं ये. बकौल लेखक: इस समझदार दुनिया के पागलपन के बीच आखिर वे कब तक ठीक रह सकती थीं. हम न मरब— बब्बा की वाचाल बतकहियों से जरूर शुरु होता है पर अंत अम्मा के हलक में फँसे इन्हीं शब्दों से होता है जो इसे एक शोकांतिका में बदल देता है.
काशीनाथ सिंह ने उपसंहार में यथार्थ से छलांग लगाकर कृष्ण के अंतिम दिनों की कथा को केंद्र
में रखा तो अखिलेश ने निर्वासन में विस्थापन को केंद्रबिन्दु बनाया. इसे उन्होंने समय समाज और भावनाओं
की बेदखली का आख्यान कहा है. उपन्यास के मुख्य पात्र सूर्यकांत के इर्द गिर्द
घूमते कथाक्रम में अपने पुरखों की तलाश में सूरीनाम से आए प्रवासी अरबपति राम
अंजोर पांडे, पर्यटन विभाग के प्रमुख संपूर्णानंद बृहस्पति
जिनकी वजह से सूर्यकांत ने नौकरी छोड़ने का इरादा बना लिया है, पत्रकार मित्र बहुगुणा एवं सूर्यकांत के चाचा के साथ जगदंबा, नूपुर, कामना, शिब्बू समेत और भी कई पात्र कथा की रोचकता को प्रशस्त करते हैं. कहानी
में सुल्तानपुर, गोसाईगंज यानी पूरब का लोकेल महत्व
का है. यह पूरबी भारत के गांव का एक कच्चा चिट्ठा भी है तथा बदलते हुए समाज का
समाजशास्त्र भी. गांव पर पकड़ अखिलेश की इतनी पुख्ता है जिसकी मिसाल हम उनकी
किताब वह जो यथार्थ था में पहले ही देख चुके हैं.
निर्वासन उसी सैद्धांतिकी का व्यावहारिक प्रतिफलन है. उत्तर औपनिवेशिक समय में
किस तरह भौतिकता और पूंजी के प्रलोभन के चलते हमारे संबंध और भावनाएं निर्मूल्य
हो उठी हैं, पूरा उपन्यास इस बात को किस्सागोई के
अनेक सूत्रों में गूँथता है. महाभारत के नायक कृष्ण का महाभारत के बाद क्या हश्र
होता है, यह हम सब जानते हैं. पुरुष नहीं बलवान है,
समय होत बलवान. भीलन लूटी गोपिका वही अर्जुन वही बान. लोक में
प्रचलित है. पर मिथक को कथानक बनाकर कर कृष्ण के अकेले पड़ते जाने और राज्य में
सूखा, अकाल, भुखमरी, अनाचार, अव्यवस्था की स्थिति में दिनों दिन
अपने अप्रासंगिक होते जाने और युधिष्ठिर की पलायनवादी मनोदशा को उपसंहार में उन्होंने यों रख दिया है
जैसे वाल्मीकि के रामायण के बाद भवभूति ने उत्तर रामचरितम् लिख कर करुणा की
प्रतिष्ठा की. कहते हैं, जो तार से निकली है वो धुन
सबने सुनी है/ जो साज पे गुज़री है वो किस दिल को पता है. महाभारत के कृष्ण को सब
जानते हैं पर सब कुछ खत्म होने के बाद उन पर क्या गुजरी, इसे
महाभारतकार ने नहीं रचा है. कृष्ण का सारा ऐश्वर्य और बुद्धिबल यहां क्षीण नजर
आता है. उनके उपदेश उन्हें खुद ही खोखले नजर आते हैं. काशीनाथ सिंह ने मिथक को
इतिहास और पुराण से निकाल कर आधुनिकता के आईने में रखा है कि लोग देख सकें कि बड़े
से बड़े नायक का क्या अंत होता है.
सामाजिक अधिरचना में सेंध लगाने वाली स्थितियों पर भगवान दास मोरवाल ने कई उपन्यास लिखे हैं. पर इस बार नरक मसीहा में उन्होंने एनजीओ के फैलते कारोबार को लक्ष्य किया है. एनजीओ के फलते फूलते विस्तार पर पत्र पत्रिकाओं में काफी लिखा जा चुका है. देशी विदेशी अनुदान पचाने से लेकर देश में अव्यवस्था फैलाने के लिए वैचारिकी का मुखौटा लगाए एनजीओ की नीयत और नियति का अखबारी खुलासा यों तो होता ही रहता है पर पहली बार हिंदी में मोरवाल ने अपनी समर्थ लेखनी से इस मसीहाई नरक के तमाम पहलुओं को देखा है. हो सकता है कुछ एनजीओ सामाजिक विकास और मानवीय उद्धार की पवित्र इच्छाओं से प्रेरित और नियोजित हों पर अधिकांश एनजीओ कमाई के संसाधन ही बने हुए हैं, समाज जहां तहां अपनी नियति को रो रहा है.
सामाजिक अधिरचना में सेंध लगाने वाली स्थितियों पर भगवान दास मोरवाल ने कई उपन्यास लिखे हैं. पर इस बार नरक मसीहा में उन्होंने एनजीओ के फैलते कारोबार को लक्ष्य किया है. एनजीओ के फलते फूलते विस्तार पर पत्र पत्रिकाओं में काफी लिखा जा चुका है. देशी विदेशी अनुदान पचाने से लेकर देश में अव्यवस्था फैलाने के लिए वैचारिकी का मुखौटा लगाए एनजीओ की नीयत और नियति का अखबारी खुलासा यों तो होता ही रहता है पर पहली बार हिंदी में मोरवाल ने अपनी समर्थ लेखनी से इस मसीहाई नरक के तमाम पहलुओं को देखा है. हो सकता है कुछ एनजीओ सामाजिक विकास और मानवीय उद्धार की पवित्र इच्छाओं से प्रेरित और नियोजित हों पर अधिकांश एनजीओ कमाई के संसाधन ही बने हुए हैं, समाज जहां तहां अपनी नियति को रो रहा है.
रणेंद्र ने गायब होता देश के जरिए झारखंड के मुंडा आदिवासियों के अस्तित्व पर आसन्न पूँजीवादी संकटों का
आख्यान रचा है. विकास की तथाकथित आधुनिकता ने धीरे धीरे कैसे आदिवासियों की बेदखली का रास्ता प्रशस्त किया है गायब होता देश इस विडंबना की कहानी कहता है. डायरी के स्थापत्य में रचा यह उपन्यास उत्तर औद्योगिक विकास और पूंजीवादी घरानों के गठजोड़ का प्रत्याख्यान है. गायब होता देश आदिवासियों के इसी विस्थापन और बेदखली का शोकपत्र है जो पहले ही अध्याय के इस निर्वचन से स्पष्ट है:“सरना-वनस्पति जगत गायब हुआ, मरांग-बुरु बोंगा, पहाड़ देवता गायब हुए, गीत गाने वाली, धीमे बहने वाली, सोने की चमक बिखेरने वाली,हीरों से भरी सारी नदियाँ जिनमें ‘इकिर बोंगा’- जल देवता का वास था, गायब हो गई. मुंडाओं की बेटे-बेटियाँ भी गायब होने शुरू हो गये.’सोना लेकन दिसुम’ गायब होने वाले देश में तब्दील हो गया.” ग्लोबल गांव के देवता के बाद रणेंद्र ने फिर अपना रुख आदिवासियों को बेघर किये जाने और उनकी पहचान मिटाने की ओर किया है. जाहिर है कि आदिवासी समाज की बेहतरी के नाम पर उन्हे आधुनिकता की जीवन शैली से जोड़ने की कवायद कहीं न कहीं उनकी जर-जमीन पर कब्जा जमाने की एक पूंजीवादी दुरभिसंधि का ही नतीजा है जिसे झारखंड की प्रशासनिक मशीनरी के ही एक अधिकारी लेखक ने मार्मिकता से उद्घाटित किया है.
उषा प्रियंवदा का कुछ साल पहले आया भया कबीर
उदास वक्ष कैंसर से ग्रस्त एक युवती की गाथा थी तो नदी एक ऐसे जीवन यथार्थ से हमें रूबरू करती
है जहॉं एक स्त्री आकाशगंगा को अपने जीवन में सुख दुख के अनेक समझौते करने पड़ते
हैं. इस राह में अपनों से धोखे भी मिलते हैं, किन्तु अपनापे
की तलाश में वह हार नहीं मानती. एक नदी की तरह बहती है किसी मंजिल की तलाश में.
प्रवास की दुखद और विडंबनाकारी स्थितियों से रुबरू होते हुए एक बार फिर एक मानवीय
कथ्य को वे इस उपन्यास में मूर्त करती हैं कि इसे पढते हुए शिव बहादुर सिंह
भदौरिया के सुपरिचित गीत की यह पदावली स्मृति में तैर उठती है: मेरी कोशिश है कि नदी का बहना मुझमें हो.
साल की शुरुआत में ही आधार प्रकाशन ने युवा लेखकों के कई उपन्यास व कहानी संग्रह प्रकाशित किये. अल्पना मिश्र, कविता (ये दिए रात की जरूरत थे), विमलचंद्र पांडेय, तरुण भटनागर (लौटती नहीं जो हंसी ), जयश्री राय (इक़बाल) के साथ वंदना शुक्ल के ये उपन्यास चर्चा में भी रहे. अल्पना मिश्र के उपन्यास अन्हियारे तलछट में चमका और सामयिक से आये मनीषा कुलश्रेष्ठ के उपन्यास पंचकन्या ने विशेष ख्याति पाई. जनगणना को लेकर लिखा और राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित वीरेंद्र सारंग का उपन्यास हाता रहीम एक मध्यवर्गीय व्यक्ति के सपनों के खंडित होने का इजहार है.
उपन्यासों की दुनिया में सदैव
क्लासिक कोटि के उपन्यास ही नहीं लिखे जाते, एक धारा लोकप्रिय लेखकों की भी
चलती रहती है. हिंदयुग्म से प्रकाशित आशीष चौधरी का उपन्यास कुल्फी एंड कैपिचिनो कुछ इसी कोटि का है जिसमें युवाओं को आकृष्ट करने वाली प्रेम की ऊष्मा
है. लखनऊ के दिव्यांश पब्लिकेशन्स से प्रकाशित
अमिताभ कुमार की महन्त : द गाडफादर ऐसा ही उपन्यास है जो धर्म और राजनीति के बेशर्म गठजोड़ पर केंद्रित है.
इसका तानाबाना कुछ ऐसा है कि एक बार उठा कर इसे पढे बिना समाप्त नहीं किया जा
सकता. इसी प्रकाशन से लोहिया की जीवनी पर आधारित रोशन प्रेमयोगी का उपन्यास आजादी टूटी फूटी आया है. राजनीति में लोग
लोहिया को भले भूल गए हों, एक लेखक ने यहां उन्हें
सलीके से याद किया है.
मैत्रेयी पुष्पा ग्रामीण परिवेश को उकेरने में एक कामयाब लेखिका मानी जाती हैं . उनके उपन्यासों का लोकेल ज्यादातर कस्बाई और ग्रामीण रहा है. फरिश्ते निकले में वे फिर एक ऐसे ग्रामीण यथार्थ से हमें रूबरू करती हैं जिसे इसकी किरदार बेला बहू ने रोचक और रोमांचक बना दिया है. ऐ मोहब्बत तेरे अंजाम पे रोना आया से लेकर वेला के नायकत्व को स्थापित करने तक मैत्रेयी ने इस किस्सागोई को जिस तरह बुना है वह उनके सुपरिचित डाक्यूमेंटेशन की कला का परिचायक है. यह उनके कथाकार व्यक्तित्व में भले कुछ नायाब न जोड़ता हो पर एक नई स्त्री के अभ्युदय की उनकी आकांक्षा यही अवश्य प्रतिफलित हुई है.
ग्रामीण और कस्बाई यथार्थ का एक पहलू मैत्रेयी पुष्पा के उपन्यासों में मिलता है तो दूसरा पहलू हरेप्रकाश उपाध्याय जैसे लेखक में हम देखते हैं जो बखेड़ापुर में एक ऐसा गांव चित्रित करते हैं जो पूरब की बदलती हुई ग्रामीण पृष्ठभूमि का दस्तावेज बन जाता है. यहां सामाजिक-सांस्कृतिक ताने बाने के फैब्रिक को नष्ट करती राजनीति मिलेगी तो चुनावी रंगमंच पर अपनी नाटकीय अन्विति के साथ नमूदार होते नेता. गँवई जनों की बतकहियों की देशज छौंक तो यहां पग-पग पर मिलेगी ही पर गांव के अपढ या अल्पशिक्षित माने जाने लोग भी राजनीति, शिक्षा, समाज, अर्थशास्त्र, जातीय दंभ में डूबे सामंती चरित्रों और त्रियाचरित्र पढ़ने में कितना घाघ दिखते हैं, यह बखेड़ापुर पढ़ कर जाना जा सकता है.
मैत्रेयी पुष्पा ग्रामीण परिवेश को उकेरने में एक कामयाब लेखिका मानी जाती हैं . उनके उपन्यासों का लोकेल ज्यादातर कस्बाई और ग्रामीण रहा है. फरिश्ते निकले में वे फिर एक ऐसे ग्रामीण यथार्थ से हमें रूबरू करती हैं जिसे इसकी किरदार बेला बहू ने रोचक और रोमांचक बना दिया है. ऐ मोहब्बत तेरे अंजाम पे रोना आया से लेकर वेला के नायकत्व को स्थापित करने तक मैत्रेयी ने इस किस्सागोई को जिस तरह बुना है वह उनके सुपरिचित डाक्यूमेंटेशन की कला का परिचायक है. यह उनके कथाकार व्यक्तित्व में भले कुछ नायाब न जोड़ता हो पर एक नई स्त्री के अभ्युदय की उनकी आकांक्षा यही अवश्य प्रतिफलित हुई है.
ग्रामीण और कस्बाई यथार्थ का एक पहलू मैत्रेयी पुष्पा के उपन्यासों में मिलता है तो दूसरा पहलू हरेप्रकाश उपाध्याय जैसे लेखक में हम देखते हैं जो बखेड़ापुर में एक ऐसा गांव चित्रित करते हैं जो पूरब की बदलती हुई ग्रामीण पृष्ठभूमि का दस्तावेज बन जाता है. यहां सामाजिक-सांस्कृतिक ताने बाने के फैब्रिक को नष्ट करती राजनीति मिलेगी तो चुनावी रंगमंच पर अपनी नाटकीय अन्विति के साथ नमूदार होते नेता. गँवई जनों की बतकहियों की देशज छौंक तो यहां पग-पग पर मिलेगी ही पर गांव के अपढ या अल्पशिक्षित माने जाने लोग भी राजनीति, शिक्षा, समाज, अर्थशास्त्र, जातीय दंभ में डूबे सामंती चरित्रों और त्रियाचरित्र पढ़ने में कितना घाघ दिखते हैं, यह बखेड़ापुर पढ़ कर जाना जा सकता है.
भागलपुर के देवेंद्र सिंह को
लोग उनकी तिरहुतिया और लोककथा की द्रोपदी जैसी कहानियों से जानते
रहे हैं. इस बीच उनके दो उपन्यास भी आए पर इसी साल नई किताब प्रकाशन से आया उनका
आत्मकथात्मक उपन्यास अत्ता-पत्ता किस्सागोई की दृष्टि से बेजोड़ है. अपने आत्म को एक ग्रामीण पृष्ठभूमि
में जिस तरह उन्होने किस्सागोई में बांधा है, वह आदि
से अंत तक सुरुचि जगाए रहता है.
कहानियों का संसार
कहानियों की दुनिया में इस साल
हंगामा कम रहा. युवा कहानीकारों में अनेक उपन्यास की दिशा में चले गए तो कुछ के
कहानी संग्रह आए भी. पर कुछ बड़े लेखकों का दबदबा कहानी में इस बार रहा. जैसे
चित्रा मुद्गल के कहानी संग्रह पेंटिंग अकेली है,
अब्दुल बिस्मिल्लाह के कहानी संग्रह शादी का जोकर, ओम प्रकाश वाल्मीकि के संग्रह छतरी, हृषीकेश सुलभ के संग्रह हलंत व एस आर हरनोट के संग्रह लिटन ब्लाक गिर रहा है इस साल के चर्चित
संग्रहों में गिने जाएंगे. हलंत की सारी कहानियां पढते हुए एक रोमांच जगाती है. द्रुत विलंबित की शुभा, और हवि डार्लिंग की वह और काजर आंजत नयन गए के मोहिली राउत उनके कथा संसार के अविस्मरणीय किरदार हैं. सांस्कृतिक
संस्थानों के क्षरण और मानवीय संबंधों के विडंबनापूर्ण पहलुओं पर कहानियां लिखने
में उन्हें महारत हासिल है. अब तक उपन्यासों के लिए ही जाने पहचाने जाने वाले
अब्दुल बिस्मिल्लाह की कहानियों का संग्रह शादी का
जोकर इस साल के उल्लेखनीय संग्रहों में है जिसमें तीसरी औरत, उनकी बीमारी, खून,
तथा महामारी को पढ कर चकित रह जाना पड़ता है.
लिटन ब्लाक
गिर रहा है की कहानियां हरनोट के कथा सामर्थ्य की
पहचान हैं. इसकी एक कहानी आभी को एक जाने माने कथाकर ने प्रकृति पर लिखी एक लंबी नज्म की संज्ञा दी है. शहर में रतीराम एक साधारण से नागरिक की कथा
है जिसके बहाने बदलाव की गाथा हरनोट ने बयान की है. लिटन ब्लाक का गिरना महज एक
क्रिया भर नहीं है, इसके बहाने गिरती हुई परंपराओं पर एक
गंभीर दृष्टिपात भी लेखक ने किया है. हिमाचली संस्कृति सभ्यता और रहनसहन व
बदलते सोच को हरनोट ने सदैव अपनी किस्सागोई के केंद्र में रखा है, इस संग्रह से भी ऐसा प्रमाणित होता है. इसी तरह ज्योति चावला और योगेंद्र
आहूजा (पांच मिनट और अन्य कहानियां) के कहानी संग्रहों का ग्राफ औसत चर्चा से ऊपर रहा. किताबघर से प्रकाशित
कहानी संग्रह वाया पांडेपुर चौराहा के माध्यम से नीरजा माधव ने भी
कहानी विधा में दस्तक दी है जहां बनारस के आउटस्कर्ट की हलचल को नीरजा ने रोचक किस्सागोई में गूँथा है. यह काशी का अस्सी की लोकप्रियता ही है कि उसके ही एक और लोकेल को कहानीकार ने अपना विषय चुना है. पर दीपक श्रीवास्तव जैसे नए कथाकार ने साहित्य भंडार से प्रकाशित अपने संग्रह सत्ताईस साल की सॉंवली लड़की में कई मार्मिक कहानियां दी हैं. स्वयं शीर्षक कहानी एक अविवाहित लड़की की मानसिक यातना और अंतत: दिलेरी का मार्मिकतापूर्ण आख्यान है. इस एक कहानी पर जाने माने आलोचक विश्वनाथ त्रिपाठी ने एक पूरा लेख ही वसुधा में लिखा. बाद में रमाकांत स्मृति कहानी पुरस्कार से सम्मानित लघुत्तम समापवर्तककहानी को भी ब्यापक चर्चा मिली. आज कहानी लिखने वालों की कमी नहीं है, पर कहानी के ऐसे हुनरमंद कम हैं जिन्हें पढते ही अदब से माथा झुक जाए. दीपक ऐसे ही कथाकारों में हैं. साहित्य भंडार ने 2014 में जो अन्य कहानी संग्रह प्रकाशित किये उनमें उत्सव के रंग-नमिता सिंह, जिसे जहां नहीं होना था- नीलाक्षी सिंह, मधुबन में राधिका-ग़ज़ल जैगम उल्लेखनीय हैं. कहानी संग्रहों में हिंद युग्म से आई दिव्यप्रकाश दुबे की मसाला चाय,किशोर चौधरी की धूप के आईने में तथा अनु सिंह चौधरी ने एक खास पाठकवर्ग की विशेष लोकप्रियता हासिल की.
कहानी विधा में दस्तक दी है जहां बनारस के आउटस्कर्ट की हलचल को नीरजा ने रोचक किस्सागोई में गूँथा है. यह काशी का अस्सी की लोकप्रियता ही है कि उसके ही एक और लोकेल को कहानीकार ने अपना विषय चुना है. पर दीपक श्रीवास्तव जैसे नए कथाकार ने साहित्य भंडार से प्रकाशित अपने संग्रह सत्ताईस साल की सॉंवली लड़की में कई मार्मिक कहानियां दी हैं. स्वयं शीर्षक कहानी एक अविवाहित लड़की की मानसिक यातना और अंतत: दिलेरी का मार्मिकतापूर्ण आख्यान है. इस एक कहानी पर जाने माने आलोचक विश्वनाथ त्रिपाठी ने एक पूरा लेख ही वसुधा में लिखा. बाद में रमाकांत स्मृति कहानी पुरस्कार से सम्मानित लघुत्तम समापवर्तककहानी को भी ब्यापक चर्चा मिली. आज कहानी लिखने वालों की कमी नहीं है, पर कहानी के ऐसे हुनरमंद कम हैं जिन्हें पढते ही अदब से माथा झुक जाए. दीपक ऐसे ही कथाकारों में हैं. साहित्य भंडार ने 2014 में जो अन्य कहानी संग्रह प्रकाशित किये उनमें उत्सव के रंग-नमिता सिंह, जिसे जहां नहीं होना था- नीलाक्षी सिंह, मधुबन में राधिका-ग़ज़ल जैगम उल्लेखनीय हैं. कहानी संग्रहों में हिंद युग्म से आई दिव्यप्रकाश दुबे की मसाला चाय,किशोर चौधरी की धूप के आईने में तथा अनु सिंह चौधरी ने एक खास पाठकवर्ग की विशेष लोकप्रियता हासिल की.
आलोचना: सुस्ती और सख्ती
आलोचना की सुस्ती और सख्ती हर
समय लेखकों के निशाने पर रहती है. वैसे भी इन दिनों आलोचना में स्फुट लेखन
का दौर ज्यादा प्रभावी है, एक विषय को केंद्र में रखकर लेखन की
प्रवृत्तियों के विशेष अध्ययन का दौर निष्प्रभ हुआ है. तथापि साल 2014 में नंद
किशोर नवल ने हिंदी कविता: अभी बिल्कुल अभी जैसी आलोचना कृति हिंदी संसार को दी. प्रभाकर श्रोत्रिय की महत्वपूर्ण
किताब भारत में महाभारत भारतीय ज्ञानपीठ से आई. राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित कुंवर नारायण के काव्य
पर पंकज चतुर्वेदी का शोध ’जीने का उदात्त आशय’ उनकी कविता के निहितार्थ को गंभीरता
से उद्घाटित करता है. राधाकृष्ण प्रकाशन से आया नीलम
सिंह का एक अन्य शोध धूमिल की कविता में विरोध और
संघर्ष एक उपपत्तिपूर्ण अनुशीलन कहा जा सकता है. हरिशंकर परसाई: व्याप्ति और गहराई वेदप्रकाश
की एक अन्य उम्दा शोध कृति है जो परसाई जैसे लेखक को उतनी ही व्याप्ति और
गहराई से पढने समझने का यत्न करती है.
फिर भी आलोचना में हिंदी की
समकालीन कविता पर जो किताब सबसे ज्यादा सलीके से लिखी गयी है वह है विजय कुमार की कविता
के पते-ठिकाने. वाणी प्रकाशन से आई यह किताब वर्तमान
कविता संसार के कथ्य और मार्मिकता का एक विरल आकलन है. इसी तरह भारतीय ज्ञानपीठ
से प्रकाशित अजय तिवारी की कृति शिल्प और समाज सैद्धांतिक बहसों और व्यावहारिक आलोचना का सुघर संतुलन है.अजय तिवारी ने साहित्य में आगत अस्मितावादी विमर्शो, और
मुद्दों के आलोक में सौंदर्य और शिल्प के मानदंडों की
विवेचना की है. उत्तर सोवियत विश्व में पूँजी और साम्राज्यवाद के प्रति खुले और
बेझिझक समर्थन के इस दौर में उन्होंने युवा, दलित, स्त्री, लोक और अल्पसंख्यकों के प्रति
साहित्य और कला रूपों में शिल्प और वस्तु के बनते व
परिवर्तित होते स्वरूप की चर्चा की है.
समकालीनता
और साहित्य तथा स्मृति
में बसा राष्ट्र--दो खंडों में उपनिबद्ध इस पुस्तक की
आंतरिक संरचना में एक ऐसी लय और संहति है जिससे गुज़रते हुए न केवल हिंदी साहित्य
की बल्कि एकध्रुवीय होते विश्व की आंतरिक जटिलताओं का परिचय भी मिल जाता
है. इसी तरह साहित्य भंडार से आई उनकी किताब हिंदी
कविता: आधी शताब्दी भी व्यावहारिक चर्चा का
लोकोपयोग पाठ है. वे कविता को उसकी सामाजिक उपयोगिता के आलोक में रख कर देखने वाले
आलोचक हैं तथा कविता या साहित्य को सदैव उसकी सामाजिक उपयोगिता की कसौटी पर रख कर
देखते रहे हैं. वीरेंद्र यादव की इसी प्रकाशन से आई किताब प्रगतिशीलता के पक्ष में मार्क्सवादी
नज़रिये से समय समय पर पत्र-पत्रिकाओं में लिखी गयी टिप्पणियों का चयन है.'आलोचना के सीमांत’ में एक दौर के आलोचक
धनंजय वर्मा के गंभीर सरोकारों से हम रूबरू होते हैं तो सृजन, समाज और संस्कृति के जरिये उमेश चौहान के आलोचक व्यक्तित्व की एक गंभीर झलक इस कृति में
मिलती है. अखिलेश और शिवमूर्ति की कहानियों में क्रमश: राजनीतिक और स्त्री विमर्श
से लेकर नरेश सक्सेना, रघुवीर सहाय से अदम गोंडवी तक
सृजन की सच्ची इबारतों को उन्होंने अपनी आलोचना में पुनर्प्रतिष्ठा दी है.
सामयिक प्रकाशन से प्रभाकर श्रोत्रिय की किताब साहित्य
के नए प्रश्न व रमेश दवे की किताब आलोचना की उत्तर परंपरा आई है तो हिंदी आलोचना: समकालीन परिदृश्य में कृष्णदत्त
पालीवाल साहित्य के बहसतलब प्रश्नों से रूबरू हुए हैं. अच्छे साहित्य को कसौटी पर परखने वाले आलोचकों की कमी नहीं पर आज की
आलोचना इतनी गतानुगतिक है कि जैसे वह इस संकल्प के साथ आलोचना के महासमर में
प्रवृत्त होती है कि रचना में कोई न कोई खोट निकालनी ही है. इस अर्थ में कवियों
की रसज्ञता उनकी समीक्षा-आलोचना को भी सहृदयसंवेद्य बनाती है तथा अपनी मर्मस्पर्शिता
से रचना को एक नया अर्थ भी प्रदान करती है. ''रुख़'' कुँवर नारायण की ऐसी ही गद्यकृति है जिसमें वे समीक्षा, संस्मरण एवं टिप्पणियों के जरिए लेखकों की शख्सियत और उनके लेखन के
बारे में अपने सकारात्मक रुख़
का इज़हार करते हैं.
कथेतर गद्य
2014 कथेतर गद्य की जिन पुस्तकों
के लिए याद किया जाएगा, उनमें चूडी
बाज़ार में लड़की-कृष्ण कुमार, कवि का गद्य-लीलाधर मंडलोई,दिन-दैन-विश्वनाथ प्रसाद तिवारी, अस्ति और भवति-विश्वनाथ प्रसाद तिवारी, ये शहर लगै मोहे बन- जाबिर हुसैन, सृजन का रसायन-शिवमूर्ति, बुद्ध का कमंडल-लद्दाख- कृष्णा सोबती, मणिकर्णिका-तुलसी राम, महागुरु मुक्तिबोध-कांति कुमार जैन, सात सुरों के बीच- सुनीता बुद्धिराजा और बादलों में बारूद- मधु कांकरिया के लिए याद किया जाएगा. हिंदी सिनेमा के सौ वर्ष पूरे होने
पर जो सबसे बड़ा काम सामने आया वह है सिनेमा के सौ
वर्ष. चार खंडों में सुव्यवस्थित अध्ययन-अनुशीलन में
प्रहलाद अग्रवाल का श्रमसाध्य कौशल बोलता है . इसकी खूबी यह कि इसमें उन्होंने
हिंदी फिल्मों पर विश्वनाथ त्रिपाठी व अनेक सुपरिचित लेखकों से आलेख लिखवाए हैं.
साल के प्रारंभ में शिक्षाविद
कृष्ण कुमार की पुस्तक चूड़ी बाजार में लड़की आई तो यह स्त्री विमर्श में एक नया मोड़ था. ऐसी गंभीर किताबों की
तरफ पाठकीय रुझान का आलम यह कि जनवरी में आये संस्करण के बाद पुन: सितंबर 14 में
दूसरा संस्करण आ गया. शैक्षिक मनोविज्ञान के कुशल अध्येता कृष्ण कुमार ने
फिरोजाबाद के चूड़ी बाजार की चकाचौंध में खो गयी एक ऐसी स्त्री प्रजाति को खोज
निकाला है जो सदियों से मोहक आभूषणों के प्रलोभन और बेड़ियों में जकड़ी रही है. ये
वे औरतें हैं जिन्हें पुरुष ने परंपरा से तैयार सॉंचे में ढाला है और बचपन से ही
उसकी परिणति को अपनी तरह से संस्कारित करने की हिकमत अख्तियार की जाती रही है.
पंडित भीमसेनजोशी, पं.जसराज,
उस्ताद बिस्मिल्लाह खां आदि संगीत की सात दिग्गज शख्सियतों से
बातचीत के आधार पर तैयार की गयी वाणी प्रकाशन से आई सुपरिचित कवयित्री सुनीता
बुद्धिराजा की पुस्तक सात सुरों के बीच उनके सर्जनात्मक कौशल का परिचायक है. सभी विभूतियों के जीवन संसार और गीत
संगीत में गहरे प्रवेश कर लिखे गए प्रोफाइल में जहां उनके संस्मरण और जीवनी का
सुखद संसार खुलता है वहीं बातों ही बातों में इनकी कितनी सूक्ष्म से सूक्ष्म
बातें उद्घाटित होती हैं.सृजन का रसायन में
शिवमूर्ति अपनी किस्सागोई की प्रविधि और कहानियों के चरित्रों पर खुल कर बात करते
हैं. कथाकार राजेंद्र राव की किस्सागोई के मुरीद पाठकों को उनके संस्मरणों की
किताब उस रहगुजर की तलाश है निश्चय ही अपील करेगी. इसमें सोहनलाल द्विवेदी भी मिलेंगे और शिवमूर्ति
के गांव कुरंग का मोहक यात्रा रिपोर्ताज़ भी. कोलकाता की सेक्सवर्करों पर भी उनका
रिपोर्ताज हाटे बाजारे किताब का जीवंत आलेख बन गया है.
दाना पानी लिख कर एक
दौर में लीलाधर मंडलोई ने अपूर्व ख्याति पाई थी. शिल्पायन से प्रकाशित कवि का गद्य इसी आत्मचरित और डायरी लेखन
का अगला पड़ाव है जिसमें उनके कुछ अनुशीलन एवं लालित्यपूर्ण निबंध भी हैं. कई दिवंगत साहित्यकारों के साथ साथ उन्होंने कार निकोबार और मास्को की
यायावरी को स्नेहिल गद्य में दर्ज किया है और सुरैया, मीना
कुमारी व मधुबाला की शख्सियत को भी सलीके से याद किया है. वे यहां शमशेर,केदारनाथ सिंह, कुंवर नारायण व ऋतुराज की
कविताओं पर बात करते हैं तथा शरद दत्त की कुंदनलाल सहगल पर लिखी जीवनी व सत्यजित
रे द्वारा बनाई गयी फिल्म शतरंज के खिलाड़ी पर भी. पर जीवंत हिस्सा उस खतो
किताबत और स्मृति कथा का है जिसके बहाने मंडलोई अपने भीतरी मिजाज का खुल कर
इज़हार करते हैं. ''पीछे मुड़ कर देखता हूँ, कैसा था वह जीवन जिसे जिया नहीं, बल्कि जो बह
गया मेरी मुट्ठियों से, जैसे पानी बह जाता है. मेरे
भीतर बैठा देवता मुझसे मेरी तमाम उम्र का हिसाब मांग रहा है. क्या दूँ ? क्या विचारकों और विचारधाराओं का कूड़ा कर्कट परोस दूँ उसके सामने. नहीं, इस मोड़ पर जो महसूस कर रहा हूँ, वही बताना
चाहिए, उसे.‘’ ---ये शब्द हैं, विश्वनाथ प्रसाद तिवारी जी के.
यह दौर आत्मकथाओं, संस्मरणों और डायरियों का है. लोग लेखकों, कलाकारों, शोहरतयाफ्ता लोगों के आत्मीय जीवन के बारे में अधिक से अधिक जानना चाहते हैं. कवि आलोचक विश्वनाथप्रसाद तिवारी ने यों तो कई विधाओं में लिखा है, उनकी डायरी दिन रैन वाणी प्रकाशन से इसी साल आई है पर आत्मकथा की विधा अधूरी थी. ''अस्ति और भवति'' ने यह कमी पूरी कर दी है. यह आत्मकथा एक सहज भारतीय लेखक की कथा है, जिसमें उनका किसानी और गंवई मन जगह ब जगह बोलता नजर आता है. एक हिंदी लेखक की गरिमा को जीने वाले तिवारी जी कहते हैं, ''आत्मकथा घटनाओं का विवरण ही नहीं, घट का विश्लेषण है कि कितनी मिट्टी है उसमें और कितना जल, कैसी धूप और हवा में पकाया गया है उसे, और किन उंगलियों से कैसे गढ़ा गया है. '' कहना न होगा कि इस आत्मकथा को कहीं से पढ़ना शुरु करें, किस्सागोई के तार कहीं शिथिल नहीं पड़ते जबकि जीवन के ऐश्वर्य का नहीं, लेखकीय जीवन के संघर्ष का वृत्तांत है यह.
यह दौर आत्मकथाओं, संस्मरणों और डायरियों का है. लोग लेखकों, कलाकारों, शोहरतयाफ्ता लोगों के आत्मीय जीवन के बारे में अधिक से अधिक जानना चाहते हैं. कवि आलोचक विश्वनाथप्रसाद तिवारी ने यों तो कई विधाओं में लिखा है, उनकी डायरी दिन रैन वाणी प्रकाशन से इसी साल आई है पर आत्मकथा की विधा अधूरी थी. ''अस्ति और भवति'' ने यह कमी पूरी कर दी है. यह आत्मकथा एक सहज भारतीय लेखक की कथा है, जिसमें उनका किसानी और गंवई मन जगह ब जगह बोलता नजर आता है. एक हिंदी लेखक की गरिमा को जीने वाले तिवारी जी कहते हैं, ''आत्मकथा घटनाओं का विवरण ही नहीं, घट का विश्लेषण है कि कितनी मिट्टी है उसमें और कितना जल, कैसी धूप और हवा में पकाया गया है उसे, और किन उंगलियों से कैसे गढ़ा गया है. '' कहना न होगा कि इस आत्मकथा को कहीं से पढ़ना शुरु करें, किस्सागोई के तार कहीं शिथिल नहीं पड़ते जबकि जीवन के ऐश्वर्य का नहीं, लेखकीय जीवन के संघर्ष का वृत्तांत है यह.
लद्दाख को अनेक लेखकों ने अपने
अपने यात्रावृत्त में शब्दबद्ध किया है. चित्रकारों की तो वह विमुग्धकारी रमणीय
स्थली ही रही है पर कलम कृष्णा सोबती की हो तो लद्दाख के शब्दचित्रों का रंग
कुछ अलग ही दीख पड़ता है. बुद्ध का कमंडल:लद्दाख ऐसी ही पुस्तक है. वर्णन और चित्रों के साथ पुस्तक के प्रस्तुतीकरण में
अपूर्व सजीवता आ गयी है. सोबती ने लद्दाख के लैंडस्केप को एक लेखक ही नहीं, यायावरी में डूबे सौदर्यप्रेमी के रूप में अवलोकित किया है. आत्मकथा
की अपनी पिछली किताब मुर्दहिया की तरह ही तुलसी राम ने मणिकर्णिका में भी अपने मार्मिक गद्यलेखन का परिचय दिया है. यों तो आत्मकथाओं की इस
वक्त धूम है. जो कुछ नहीं लिख रहा है, वह पता चलता है कि
आत्मकथा लिख रहा है. पर आत्मकथा होना किसे कहते हैं, दलित
होकर समाज में जीने का क्या अर्थ है, इस मर्मांतक पाठ को
मुर्दहिया की इस दूसरी किस्त मणिकर्णिका में पढा जा सकता है. यहां बीएचयू और
बनारस के दिनों को तुलसीराम जी ने जिन बारीक से बारीक वृत्तांत से याद किया है वह
उनके स्मृतिवान लेखन का परिणाम है. उनके जीवन को बुद्ध, मार्क्स,
कम्युनिस्ट पार्टी के दफ्तर और मणिकर्णिका ने जो अनुभव दिए,
उसकी एक छवि मणिकर्णिका में विद्यमान है. वे यथार्थ से मुठभेड़ें
करते हुए अपना दुख भूल जाते हैं. वह औरों के दुख में निमज्जित हो उठता है. पिछले
साल मनोहरश्याम जोशी की दो कृतियां आईं. एक उनसे बातचीत की और दूसरी उनके द्वारा
लिखी पुस्तक मास मीडिया और समाज. वे मास मीडिया और धारावाहिकों के लेखन व निर्माण से जुड़े हिंदी के बड़े
लेखकों में थे. यह किताब मीडिया के अध्येताओं के लिए एक मार्गदर्शी पुस्तक हो
सकती है. हिंदयुग्म से प्रकाशित संजय व्यास की पुस्तक टिमटिम रास्तों के अक्स व प्रमोद सिंह की अजाने मेलों में आनलाइन बिक्री के लिहाज से
अहमियत रखती हैं और नए उभरते हुए पाठक संसार की नब्ज भी टटोलती हैं.
प्रसंगत:
इस साल केदारनाथ
सिंह भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित हुए
तो नासिरा शर्मा कथाक्रम
सम्मान से. साहित्य अकादेमी सम्मान इस बार हिंदी में प्रतिष्ठित कवि आलोचक रमेशचंद्र शाह को उनके उपन्यास विनायक पर मिला. उत्तरप्रदेश संस्थान का
भारत भारती सम्मान जाने माने कथाकार दूधनाथ सिंह को मिला. राजकमल प्रकाशन ने अपना कृति सम्मान इस साल जाने माने कथाकार उपन्यासकार अखिलेश को उनके उपन्यास निर्वासन पर दिया. दिल्ली में आयोजित इस समारोह की गरिमा ही कुछ अलग थी और सबसे
अलग था अखिलेश का वक्तव्य जो सादगी के साथ विचलित कर देने वाली भंगिमा में सबसे
हिट रहा. कविता के लिए दिया जाने वाला भारत भूषण पुरस्कार आस्तीक वाजपेयी को मिला तो आलोचना के लिए देवीशंकर
अवस्थी पुरस्कार युवा आलोचक विनोद तिवारी को
प्रदान किया गया. इसी साल आलोचक विश्वनाथ त्रिपाठी को उनकी कृति व्योमकेश दरवेश
के लिए व्यास सम्मान प्रदान किया गया तो साहित्य अकादेमी ने हाल ही में उन्हें भाषा सम्मान से विभूषित किया. भारतीय
ज्ञानपीठ की ओर से नवलेखन पुरस्कार से हरेप्रकाश उपाध्याय को उनके उपन्यास बखेड़ापुर के लिए दिया गया . लमही-संपादक विजय राय द्वारा स्थापित लमही पुरस्कार वर्ष 2013के लिए प्रेमचंद
की रवायत के उर्दू के मशहूर अफसानानिगार तारिक छतारी को अलीगढ़ में प्रदान किया
गया.
अंतत: हर अध्ययन की अपनी
सीमाएं होती हैं, इस आलेख की भी हैं. इस कारण स्मृति में अनुपस्थित कुछ
सार्थक कृतियॉं यहां छूट गयी हो सकती हैं. कुंवर नारायण जी एक शेर अक्सर उद्धृत
किया करते हैं: जरा सा दिल है लेकिन कम नहीं है.
इसी में कौन सा आलम नहीं है. जब हर साल खेप में
पुस्तकें आती हों और ज्यादातर बिना पढ़े बासी पड़ जाती हों, ऐसे में जितना भी सार्थक पढ़ने को मिल सके और स्मृति में धारणयोग्य हो,
वह कम नहीं है.
________________________________________________
यह आकलन पाठकों के लिए बेहद उपयोगी साबित होगा ...कई नयी किताबों की जानकारी मिली ...समालोचन का धन्यवाद और ओम निश्चल सर को इस शोधपरक आलेख की बधाई .....
जवाब देंहटाएंश्रमसाध्य लेख है . विद्यार्थियों के लिए तो बहुत ही उपयोगी . अपने समय की जरुरी पुस्तकों को रेंखांकित करना बेहद जरूरी है . मुश्किल काम है ये . तनी रस्सी पर चलने जैसा . बखूबी किया ओम जी ने . बधाई समालोचन और ओम जी को .
जवाब देंहटाएंइसमें एक महत्त्वपूर्ण कवि स्वप्निल श्रीवास्तव छूट गए हैं या जान-बूझकर छोड़ दिए गए हैं। बकी तो जो है सो है।
जवाब देंहटाएंमैं अपना कथन वापिस लेता हूँ। मैंने लेख ध्यान से नहीं पढ़ा था। स्वप्निल श्रीवास्तव के बारे में ओम जी ने जो लिखा है, वह नीचे उद्धृत कर रहा हूँ :
जवाब देंहटाएंसाठ के होने वाले स्वप्निल श्रीवास्तव का संग्रह जब तक है जीवन अनामिका, इलाहाबाद से प्रकाशित हुआ है. अपने काव्य संयम के लिए जाने जाने वाले स्वप्निल की ये कविताएं अपने समय को पहचानती हैं. सारस जैसी कविता में वे अपने सरोकारों का पूरा भाष्य लिख देते हैं:परिंदे बहुत आए और चले गए/ बहुत सारी तितलियां उड़ती रहीं/ हमारे आसपास/ आखिरकार वे भी अच्छे दिनों की तरह/ कहीं उड़ गयीं/ उनकेपंख छूट गए हैं डायरी में.
महत्वपूर्ण शोधपरक इस आलेख के लेखन और प्रकाशन के लिए ओम निश्चल जी और समालोचन को बहुत बहुत बधाई / मेरे लिए सुखद है कि इस आलेख में मेरे कविता संग्रह '' थैंक्यू मरजीना'' का जिक्र भी किया गया है / कृतज्ञ हूँ
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर और सार्थक आलेख है. ओम सर जी को और समालोचन को साधुवाद.!कई नई पुस्तकों की जानकारी मिली इतनी सारी पुस्तकों के साथ अपने कविता संग्रह '' शब्द नदी है '' का उल्लेख पढ़ा बहुत भला लगा ! ओम सर जी को इस शोधपरक आलेख की बधाई इतनी मेहनत उन्ही के वश की है..!
जवाब देंहटाएंएक बेहद ज्ञानवर्धक लेख जो बीते वर्ष में आई पुस्तकों की जानकारी देता है। मुझे तो काफी पुस्तकों के विषय में पता चला जिनके आगमन की खबर भी नहीं लगी थी बीते साल में। लेकिन देर आये दुरुस्त आये नीति को अपनाते हुए अब इनको बिना वक़्त गवाएं पढ़ूँगा। फिलहाल, इस लेख के लिए तहे दिल से शुक्रिया।
जवाब देंहटाएंपढ़ा .... पुस्तक मेले में जाने से पहले इसे पढ़ना और भी अच्छा लगा | इस लेख का अब मेले में इसका उपयोग किया जाएगा | आभार ....ओम निश्चल जी का |
जवाब देंहटाएंओम जी ने 2014 साल के साहित्य का सम्यक मूल्यांकन किया है.कमसे कम इसी बहाने पाठको को एक जगह मह्त्य्वपूर्ण कृतियों की जानकारी मिल जाती है.महानगरों के साहित्य लोक में प्रकाशनों की सूचना तो मिल जाती है लेकिन मेरे जैसे सूदूर पाठक के लिये थोड़ी कठिनाई जरूर होती है.आपका शुक्रिया..
जवाब देंहटाएंआदरणीय भाई डॉ. ओम निश्चल जी को सालभर की चयनित कृतियों पर इस बहुपक्षीय विवेचना के लिए मैं धन्यवाद और बधाई प्रेषित करता हूँ l
जवाब देंहटाएंBharpoor Jaankaaree Hai .
जवाब देंहटाएंलेख में जिक्र के लिए ओम निश्चल जी का आभार
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