चित्र गूगल से आभार सहित
गंज बासौदा (म.प्र.) के रहने वाले हिंदी के कवि मणि मोहन के कविता संग्रह "शायद" को इस वर्ष के म.प्र. हिंदी साहित्य सम्मेलन के वागीश्वरी पुरस्कार के लिए चुना गया है. समालोचन की ओर से बधाई.
मणि मोहन आकार
में अक्सर छोटी कविताएँ लिखते हैं, पर असर में ये बड़ा काम करती हैं.
सहजता से मर्म को स्पर्श करती हैं और गहनता से संवेदना का विस्तार. मणि मोहन की
कुछ कविताएँ इस अवसर पर खास आपके लिए.
मणि मोहन की कविताएँ
ग्लेशियर
हर नए दुःख के
साथ
हम थोड़ा और करीब
आये
हर नए दुःख के
साथ
सुना एक नया ही
संगीत
अपनी धड़कनों का
हर नए दुःख के
साथ
थोड़ा और बढ़ा
भरोसा
अपने सपनों पर
हर नए दुःख के
साथ
थोड़ा ज्यादा ही
थरथराये होंठ
थोड़ी ज़्यादा
गर्म हुई साँसे
हर नए दुःख के
साथ
पिघलते गए
पुराने दुखों के
ग्लेशियर.
पानी
मीलों दूर से
किसी स्त्री के
सिर पर बैठकर
घर आया
एक घड़ा पानी
....
प्रणाम
इस सफ़र को
इन पैरों को
इनकी थकन को
और अंत में
प्रणाम
इस अमृत को .
दुःख
इस तरह भी
आते हैं दुःख
जीवन में
कभी - कभी
जैसे दाल - चावल
खाते हुए
आ जाता है मुंह
में कंकड़
या
रोटी के किसी
निवाले के साथ
आ जाये मुँह में
बाल
या फिर गिर जाये
दाल - सब्जी में
मच्छर
अब इतनी सी बात
पर
क्या उठाकर फेंक
दें
अन्न से भरी
थाली
क्या इतनी सी
बात पर
देनें लगें
ज़िन्दगी को गाली
.
रूपान्तरण
हरे पत्तों के
बीच से
टूटकर बहुत
ख़ामोशी के साथ
धरती पर गिरा है
एक पीला पत्ता
अभी - अभी एक
दरख़्त से
रहेगा कुछ दिन
और
यह रंग धरती की
गोद में
सुकून के साथ
और फिर मिल
जायेगा
धरती के ही रंग
में
कितनी ख़ामोशी के
साथ
हो रहा है
प्रकृति में
रंगों का यह
रूपान्तरण.
इसलिए
न कर सका प्रेम
या किया भी तो
आधा - अधूरा
इसलिए लिखीं
प्रेम कवितायें
न हो सका अच्छा
पुत्र
या हुआ भी तो
आधा - अधूरा
इसलिए लिखीं
माँ या पिता पर
थोक में कवितायें
न हो सका शामिल
अन्याय के खिलाफ
किसी भी लड़ाई में
या शामिल हुआ भी
तो आधा - अधूरा
इसलिए लिखीं
आग उगलती
कवितायें
न हो सका मनुष्य
या हुआ भी तो
आधा - अधूरा
लिखीं इसलिए
कवितायेँ
बहरहाल
इस तरह भी
गाहे बगाहे
समृद्ध हुआ
हमारा कविता
संसार
पिता के लिए
कहाँ दे पाया
इतना प्यार
अपने बच्चों को
जितना मिला मुझे
अपने पिता से
कहाँ दे पाया
उतनी सुबहें
उतनी शामें
उतना वक्त
जितना मिला मुझे
अपने पिता से
कहाँ दे पाया
उतनी भाषा
उतना मौन...
उतना हौंसला
अपने बच्चों को
जितना मिला मुझे
अपने पिता से
दुःख और अभावों
के दिनों में
देखते ही बनता
था
पिता का अभिनय
कहाँ सीख पाया
उनसे यह कला
अपने बच्चों के
लिए
और हाँ . . . .
कहाँ कर पाया
उतना भरोसा भी
अपने बच्चों पर
जितना भरोसा
पिता करते थे
मुझ पर.
राधे - राधे
पूरे नौ महीने
सजी रहीं शयन
कक्ष में
बाल रूप में
लीला करते
कृष्ण की
तस्वीरें
पूरे नौ महीने
होती रही
प्रतीक्षा
कृष्ण के आने की
फिर एक दिन
तमाम मन्नतों
और प्रार्थनाओं
की
फूट गई हँड़िया -
घर में जन्म हुआ
राधा का
लीला करते कृष्ण
मुस्कराये
आप भी मुस्कराओ
जय बोलो -
एक्स एक्स वंशोम
की जय
एक्स एक्स
क्रोमोसोम की जय
भक्तजनों
अब तो कहना ही
होगा
राधे - राधे
कस्बे का एक दृश्य
जेठ की तपती
दुपहरी में
हेलीपेड पर खड़े
हुए कलक्टर साहब
इंतजार कर रहे
हैं
मुख्यमंत्री जी
का
अपने हाथ में
थाम रखा है
उन्होंने एक
बुके
जिसके फूलों की
ताजगी को लेकर
वे बेहद चिंतित
दिखाई दे रहे हैं
थोड़ी देर पहले
तक
उन्होंने जो
शर्ट इन कर रखी थी
अब वो बाहर आ
चुकी है
अपना पसीना
पोंछते हुए
वे बार बार
आसमान की तरफ देख रहे हैं
संकेत हो चूका
है
मुख्यमंत्री के
उड़नखटोले का
कलक्टर साहब
स्वागत करने के लिए
इतने बेचैन दिख
रहे हैं
कि उनका बस चले
तो संकेत के लिए
छोड़े गए धूंए पर सवार होकर
आसमान में ही
स्वागत कर दें बन्दे का
बहरहाल हम तो
कवि हैं
हर जगह दिख ही
जाती है हमे करुणा
इस वक्त भी
हाथ में बुके
थामें कलक्टर साहब
बहुत परेशान और
निरीह दिखाई पड़ रहे हैं
ठीक उस गरीब
आदमी की तरह
जो हाथ में कागज़
- पत्तर लिए
धूप में खड़े
होकर
उनका इंतजार
करता है
कलेक्ट्रेट में.
____________________
मणि मोहन
02 मई 1967 , सिरोंज (विदिशा) म.
प्र.
अंग्रेजी साहित्य में स्नातकोत्तर और शोध उपाधि
महत्वपूर्ण साहित्यिक पत्र - पत्रिकाओं में कवितायेँ तथा
अनुवाद प्रकाशित.
वर्ष 2003 में म. प्र. साहित्य अकादमी के
सहयोग से कविता संग्रह ' कस्बे का कवि एवं अन्य कवितायेँ ' प्रकाशित, वर्ष 2012 में
रोमेनियन कवि मारिन सोरेसक्यू की कविताओं की अनुवाद पुस्तक 'एक सीढ़ी आकाश के लिए' उद्भावना से प्रकाशित,वर्ष 2013 में अंतिका से
कविता संग्रह "शायद"
प्रकाशित.
सम्प्रति : शा. स्नातकोत्तर महाविद्यालय , गंज बासौदा में अध्यापन
विजयनगर , सेक्टर -
बी , गंज बासौदा म.प्र. 464221
मो. 9425150346/ profmanimohanmehta@gmail.com
प्रणाम
जवाब देंहटाएंइस सफ़र को
इन पैरों को
इनकी थकन को
और अंत में
प्रणाम
इस अमृत को .
कितनी ख़ामोशी के साथ
जवाब देंहटाएंहो रहा है प्रकृति में
रंगों का यह रूपान्तरण.
एल्केमी की तरह . दुःख को छुआ तो जीवन बह चला . आभार इन कविताओं के लिए .
हर नए दुःख के साथ
जवाब देंहटाएंपिघलते गए
पुराने दुखों के ग्लेशियर...
भावप्रवण और ईमानदार कविताएँ..
मणि मोहन जी की कविताये गागर होते हुए भी सागर समान है !जिनमे गहराई के साथ साथ फैलाव भी !में आभार वयक्त करता हूँ समालोचन का जो वजह बानी इन कविताओ से परिचय करवाने के लिए !मणि मोहन जी को बहुत बहुत बधाई !
जवाब देंहटाएंmani mohan ek behatreen kavi v anuvadak hain ..unhe hardik badhayee
जवाब देंहटाएंऔर हाँ . . . .
जवाब देंहटाएंकहाँ कर पाया उतना भरोसा भी
अपने बच्चों पर
जितना भरोसा
पिता करते थे मुझ पर....
बदलते समय में रिश्तों की बदलती बुनावट को अभिव्यक्त करती कविता...
छोटी छोटी अमृत की बूँदें...शुक्रिया.
जवाब देंहटाएंमंद-मंद, छंद-छंद कहती धीर-गंभीर, शालीन-बेहतरीन कविताएँ।
जवाब देंहटाएंसमकालीन कविता की भाषा और शिल्प में चल पड़े तमाम करिश्माई और यशकामी करतबों से सर्वथा मुक्त। लेकिन मर्म को छूने वाली भाव-भंगिमाओं और अर्थ-छटाओं से युक्त।
सच कहूँ तो इस तरह के रूहानी आस्वाद और कपटहीन काया की कविताएँ पढ़ने को कम ही मिलती हैं!
समालोचन और मणि मोहन जी को शुभकामनाएँ।
-राहुल राजेश, अहमदाबाद।
सभी आत्मीय मित्रों का आभार ।सच कहूँ -बहुत ऊर्जा मिली आप सब की प्रतिक्रिया से ।(मणि मोहन )
जवाब देंहटाएंशुक्रिया समालोचन ।
जवाब देंहटाएंशुक्रिया अरुण भाई ।
बहुत असर दार कविता.बधाई हो.
जवाब देंहटाएंदुःख
जवाब देंहटाएंइस तरह भी
आते हैं दुःख जीवन में
कभी - कभी
जैसे दाल - चावल खाते हुए
आ जाता है मुंह में कंकड़
या
रोटी के किसी निवाले के साथ
आ जाये मुँह में बाल
या फिर गिर जाये
दाल - सब्जी में मच्छर
अब इतनी सी बात पर
क्या उठाकर फेंक दें
अन्न से भरी थाली
क्या इतनी सी बात पर
देनें लगें
ज़िन्दगी को गाली .
bahut hi behtreen kavitayen hain dada ki.....
मणि मोहन जी को पहली बार पढ़ा...सभी कविताएं शानदार... पानी और िपता के लिए सबसे ज्यादा अच्छी लगीं... आभार के साथ शुभकामनाएं
जवाब देंहटाएंएक टिप्पणी भेजें
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