आभार के साथ- Alfred Degens |
युवा कथाकार कविता की यह दिलचस्प कहानी पहले तो
आपको पढने के लिए मजबूर करती है फिर रेडियो और एफ. एम. की दुनिया की आवाज़ों के
पीछे की कहानियों से जोड़ देती है. दरअसल यह अपने मूल में प्रेम–कथा है, टीस भरी
सम्पूर्णता के साथ. स्त्री-कथाकार जब किसी कथा को बुनती हैं तब उनमें रिश्तों के
बनते – बिगड़ते घर लगाव के साथ आत्मीय पैटर्न बनाते हैं. यह घर, घर के बाहर भी है.
आवाज़ दे कहां है...
कविता
(एक)
रात जैसे अटक गई थी, किसी पुराने जमाने के रिकार्ड प्लेयर पर अटकी हुई सुई की
तरह... ‘बीती ना बितायी रैना /
बिरहा की जायी रैना / भींगी हुई अंखियों ने लाख बुझाई रैना / बीती ना बिताई
रैना....'
अटकी हुई सुई जैसे एक झटके से आगे खिसकी थी... ‘यारा सीली-सीली बिरहा की रात की जलना / ये भी
कोई जीना है, ये भी कोई मरना /
यारा सीली-सीली...'
रात की चादर तनते-तनते सिकुड़ने लगी थी जैसे बहते-बहते आंसू
अपने आप सूखने लगे हों. जैसे खूब-खूब तन लेने के बाद रबड़ अपनी पुरानी स्थिति में
लौटने लगा हो. काली घनी उदास सी रात, उदासी जितनी ही फीकी पर बेरंग नहीं. आखिर हरेक उदासी का अपना एक रंग तो होता
ही है.
आज शाम से यह उसकी तीसरी सीटिंग थी. पहले मेघा की ड्यूटी,
फिर अपनी और अब देर रात यह नान-स्टाप. बस राहत
थी तो यह कि उसे अब बोलना नहीं था. उसने गाने चुन लिये थे और बेहिचक अपनी यादों
में डूब-उतरा रहा था. उसे हैरत हुई कि वह इस बात से राहत महसूस कर रहा था कि उसे
जुड़ना नहीं था किसी से, बोलना नहीं था
लगातार. कभी यही तो उसका पैशन हुआ करता था. सत्तर फीसदी गाने और ढेर सारे कामर्शियल और सोशल मैसेज के बीच भी वह
कुछ लम्हे ढूढ़ ही लेता था जिसमें अपने मन
की बात कह जाये. और वह बात इतनी लम्बी भी न हो कि किसी को बोर करे और इतनी छोटी और
बेमकसद भी नहीं कि लोग उन्हें सुने और भूल जायें. सिर्फ अपने दिली खुलूस और आवाज़
की दम पर श्रोताओं से उसने एक रिश्ता कायम किया था, एक अलग सा रिश्ता. और इसी के सहारे उसने एक लम्बी दूरी तय
की थी.
सुबह-सुबह वह श्रोताओं को गुड मार्निंग कहता, पसंदीदा म्यूजिक सुनाता, किस्सागोई करता हुआ ट्रैफिक का हाल बताता, रोचक खबरों पर अपनी चुहलबाज टिप्पणियां करता
लोगों के आफिस तक की बेरंग दूरी तय करने में उनकी मदद करता. उसने कभी कोई
स्क्रिप्ट नहीं लिखी. वे सब तो उसके अपने ही थे, उन्हें वह जोड़ लेता अपने सवालों, उम्मीदों और बातों से.
इसी हिम्मत के बल पर तो वह चल पड़ा था तब भी और उसके सामने
बस यही एक डगर दिखी थी, उस तक पहुंचने की.
और गाहे-बगाहे सीधे-सीधे या कि बहाने से वह बजाता रहता था अक्सर 1946 में बनी ‘अनमोल घड़ी' फिल्म का राग
पहाड़ी पर आधारित नूरजहां का वह गीत... ‘आवाज़ दे, कहां है...'
पर वह आवाज़ भी खलाओं में गूंजती और फिर लौट आती
उसी तक, उस सही जगह पर पहुंचे
बगैर.
उसकी सकारात्मक सोच अब निराशा में बदलने लगी थी. धीरे-धीरे
वह भूलने भी लगा था उसे... या कि उसने तय कर लिया था की सब कुछ भूल जाना होगा कि
भूलने के सिवा और कोई दूसरा चारा बचा ही नहीं उसके पास. पर शाम को मेघा वाले
प्रोग्राम में जब वह काल आया, वह बजा रहा था... ‘ज़िंदगी के सफर में गुजर जाते हैं जो मकाम वो फिर नहीं
आते...'
"जो बीत गया उसे वापस बुला लेने की यह ललक क्यों?"
वह चौंका था, शायद बेतरह. और चौंकने के क्रम में सवाल का जवाब दिये बगैर
एक प्रतिप्रश्न कर उठा था - "आप कौन?"
"बस एक श्रोता. क्या फर्क पड़ता है मेरा नाम कुछ
भी हो."
वह अपने पांच साला कैरियर में पहली बार अवाक हुआ था. लाजवाब
उसे वह आवाज़ भी कर गई थी. ढेर सारे प्रश्नों के चक्रव्यूह में घेरती हुई.
"आपने मेरे सवाल का जवाब नहीं दिया? बीते हुये को वापस लौटा लाने की यह ललक क्यूं
है आप में? बीत गया जो वह जैसा था कल था. और ज़िंदगी को जीने के लिये आज
की जमीन की जरूरत होती है. यूं पीछे मुड़-मुड़ कर देखेंगे तो..." वह चुपचाप
सुन रहा था जैसे कोई और भी कहता था उसे...‘वर्तमान को उसकी पूर्णता में जीना सबसे जरूरी है. हर पल को इस शिद्दत से जियो
कि उसमे पूरी ज़िंदगी जी लो. फिर बीत चुके
से कोई शिकायत नहीं होगी और न उसे वापस लाने की ललक.' उसने सहेजा था
खुद को, वह अपनी सीमाओं में बंधा
था. वह कहना तो बहुत कुछ चाहता था पर उसने कहा बस इतना ही वह भी अपने को बटोरते हुये... "गाना?"
" किशोर कुमार का गाया, गोलमाल फिल्म का वह गीत - ‘आनेवाला पल जानेवाला है."
"डेडिकेट करेंगी किसीको...?"
" हां, आपको..." वह आवाज़ खिलखिलाई थी.
उस खिलखिलाहट में भी सम जैसा कुछ था... पर उस सम से भिन्न
भी. वहां एक चहक होती थी, वहां एक ललक होती
थी और यहां तह-तह दबाई गई उदासी.
मेघा ने जाते हुये कहा था उससे ‘यार, प्रोग्राम को
अपने प्रोग्राम की तरह एन्सीएंट हिस्ट्री का कोई चैप्टर मत बना डालना, यही रिक्वेस्ट है तुम से... प्लीज... कुछ
चटकदार-लहकदार नये गाने...' उसके चेहरे की
रेखायें तनी थी और इस उतार-चढ़ाव को भांपते हुये उसने कहा था ‘चलो ठीक है, जैसी तुम्हारी
मर्जी...'
मेघा उसकी दोस्त थी. मेघा उसे अच्छी लगती थी ... पर उस जैसी
नहीं. उस जैसी तो फिर कोई नहीं लगी. और
यहां की ये लड़कियां...उसे बेवकूफ समझती थीं सारी की सारी. और आपस में उसे ‘बाबाआदम' कह के पुकारतीं. मेघा ने ही बताया था उसे. मेघा ही अकेली
कड़ी थी उसके और वहां के माहौल के बीच. वो लड़कियां जब मन होता आतीं, मुस्कुरातीं और कहतीं... ‘सहज, मुझे कुछ जरूरी काम है, मेरा प्रोग्राम
तुम देख लोगे, प्लीज...'
और फिर चल देतीं अपने ब्वाय फ्रेंड के साथ...
और फिर आपस में बतियातीं आज फिर उसे बकरा बनाया.
उसे समझ में आता था सबकुछ. पर काम ले लेता. काम तो आखिर काम
था चाहे जिसके हिस्से का हो. और वह काम करने ही तो आया था यहां... दिन-रात बेशुमार
काम... कि वह सब कुछ भुला सके या कि पहुंच सके उस तक... यह बात उन तितलियों जैसी
लड़कियों की समझ में कहां आती... वे सब लड़कियां जो प्रीति जिंटा और विद्या बालन
की होड़ मे इस फील्ड में आ घुसी थीं और कुछ उसी स्टाईल मे सजती-संवरती और कहती थीं
- हलो ओ ओ ओ दिल्ली... कचर-कचर अंग्रेजी बोलती और अपने अलग-अलग डीयो और परफ्यूम्ज़
की गंध से स्टूडियो में गंधों का कोई काक्टेल
रचती ये लड़कियां जब स्टूडियो से एक साथ निकलतीं तो सब गंध हवा-हवा- हो लेते और
पूरा का पूरा स्टूडियो निचाट हो जाता. ऐसे
में गुलशन अक्सर आता उसके पास और सुना जाता कोई न कोई शेर... ‘ज़मीं भी उनकी ज़मीं की ये नेमते उनकी / ये सब
उन्ही का है - घर भी, ये घर के बन्दे भी/ खुदा से कहिये कभी वो भी अपने
घर आये.' वह जानता था वो बातें
जरूर लड़कियों की कर रहा है पर उसका इशारा
किसी खास की तरफ है. और वह सचमुच उसके लिये दुआएं मांगता, सच्चे मन से. लेकिन उसकी दुआएं तो हमेशा बेअसर ही रहीं.
नेहा प्रोग्राम एक्ज़्क्यूटिव शिवेश के संग-साथ ज़्यादा दिखने लगी थी इन दिनों. वे
साथ-साथ निकलते... कभी-कभी स्टूडियो में साथ-साथ घुसते भी. गुलशन बहुत उदास रहने
लगा था और उस दिन उदासी में ही कहा था उसने...‘सामने आये मेरे, देखा मुझे, बात भी की /
मुस्कुराये भी पुरानी किसी पहचान की खातिर / कल का अखबार था बस देख लिया रख भी
दिया.' उसका मन हुआ था वह मुड़
कर गुलशन को कलेजे से लगा ले. पर उसने हौले से उसकी हथेलियों पर अपनी हथेली भर धर
दी थी.
(दो)
अभी तक सब कुछ हवा में था और हवा में ही उड़ रहा था इधर-उधर,
कहीं से कनफूसियां आती और कहीं तक निकल जाती.
पहले गुलशन-नेहा और अब शिवेश-नेहा. वह सब
कुछ बहुत हल्के में लेता. लेकिन उसे आज समझ में आयी थी, ‘अदब' और ‘मुखातिब' पेश करने वाले और हमेशा हंसते-हंसाते रहने वाले गुलशन की
संजीदगी... लड़कियों का शब्द यदि उधार लें तो ‘एक्स्ट्रीमली सेंसेटिव'. और इस एक्स्ट्रीमली सेंसेटिव शब्द को वो यूं मुंह बिचका कर
इलेबोरेट करतीं जैसे कि कोई बुरी बीमारी हो वह.
पर मेघा ऐसा नहीं
करती थी बिल्कुल. वह अपनी और उसकी दोस्ती को सबसे ऊपर रखती. वह उसकी और गुलशन की
दोस्ती को तबज्जोह देती. वह गुलशन के लिये परेशान रहती थी इनदिनों और उससे बार-बार कहती...‘उसका खयाल रखना.' पर उसे लगता गुलशन का जो होना था हो लिया, संभल भी लेगा वह. खयाल उसे मेघा का रखना होगा. उसने खुद को
टोका था सिर्फ इसलिये कि आज वह भी औरों की तरह अपना प्रोग्राम उसे सौंप कर चलती
बनी थी. नहीं... इसलिये कि आज वह तीसरे
दिन विकास के साथ जा रही थी और विकास... उसका मन डर रहा था. वह खुद को समझाने
केलिये कहता मेघा सब के जैसी नहीं है, भोली है बहुत... पर यही तो उसके डर की वजह भी थी. उसका मन हुआ वह मेघा केलिये
कोई गीत बजाये कि अपनी आवाज़ पहुंचा सके उस तक. विकास की गाड़ी में शायद एफ. एम. चल
रहा हो. मेघा की आदत है यह... मेघा को
पसन्द है यह. लेकिन पल में ही संभल गया था वह. उसे नहीं करना ऐसा कुछ. वह कौन होता
है किसी की जाती ज़िंदगी में दखल देनेवाला.
और सोचने-सोचने में ही शाम बीत गई थी.
अभी ‘नवरंग' फिल्म का यह गीत बज रहा था... ‘आधा है चन्द्रमा रात आधी / रह न जाये तेरी-मेरी
बात आधी / मुलाकात आधी. और सचमुच सबकुछ आधा-अधूरा ही तो रह गया था. एक रात आयी थी उसकी ज़िंदगी में और ज़िंदगी वहीं
अटकी रह गई थी, या कि वह रात. तब
से रातें उसे बहुत परेशान करती हैं और यह मौसम तो उससे भी ज्यादा... सायमा को यह
फगुनाया मौसम बहुत पसन्द था. पत्ते झड़ने लगते, सूखे-पीले नंगे डाल और नंगे-बुचे पेड़ उसे बिल्कुल नहीं
भाते थे और ना ही मौसम का यह रूप. वह वसंत का इन्तजार बहुत बेसब्री से करती. और
जैसे ही कालेज कैम्पस के किसी एक पेड़ में कोई पत्ती अंखुआती वह खुशी से
किलकारियां भर उठती... ‘सहज, चलो दिखाउं तुम्हे...'
‘क्या...?'
‘पीपल के उस पेड़ पर एक नन्हा सा पत्ता उग आया है, लाल- बुराक छुइमुइ सा. बिल्कुल किसी नवजात
बच्चे का सा रंग.' वह इस बात पर सिवाय हंसने के क्या कर सकता था. देखते-देखते
वह पूरा पेड़ पत्तों से सज जाता और सारा वातावरण हरियाली से. सायमा का मन जैसे
किसी अज्ञात खुशियों से भर उठता. उसीने
बताया था उसे पीपल के पत्ते सबसे पहले झड़ते हैं और आते भी सबसे पहले हैं.
और फिर अपने आप उनके दिनों के पांव उगने लगते. सायमा साथ
हुई तो जैसे पंख भी. वे किसी पुराने-धुराने पेड़ के नीचे बैठ जाते, अपनी बातों की गठरियां और सायमा का लंच बाक्स
ले कर. उनका पूरा का पूरा हिन्दी डिपार्टमेंट पुराने पेड़ पौधों से लदा था.
बेतरतीब विशालकाय पेड़. जंगल की तरह चारों तरफ फैले हुये. साइन्स और आट्र्स के
दूसरे डिपार्टमेंट जहां लकदक से लगते वहां
इस विभाग की दीवारों से चटें उतरती रहती. सायमा को उसका यह उजाड़पन ही पसन्द था.
सायमा जितनी सादी थी अपनी सादगी में उतनी ही ज्यादा
सम्पूर्ण भी. रंग उसे जरूर चाहिये थे जीवन में पर आभरण नहीं...
उसे आज भी याद है वह दिन जब नये-नये प्रोफेसर हो कर आये उदय
तिवारी ने क्लास में घुसते ही जैसे सायमा को ही संबोधित किया था ‘भूषण भार संभारि हैं, क्यूं यह तन सुकुमार. सुधे पांव नहीं धर परत, निज सोभा के भार.' और फिर अपनी गलती को सायास घोषित करने के लिये भक्ति काल के
वर्ग में रीति काल पढ़ाने लगे थे.
और तो और सूफी काव्य पढ़ाने वाले बिना दांत-आंत के भूषण
शर्मा भी पद्मावती का नख-शिख वर्णन पढ़ाते हुये सायमा को ही निहारते रहते....‘पद्मावती के कोमल और कृष्ण्वर्णी केश ऐसे हैं
जैसे अष्टकुल के लहराते नाग. उसकी कुंवारी मांग सऐसी है जैसे रात की काली पट्टियों
के बीच दीपक की लम्बी लौ, भौंहें ऐसी सी कि
धनुष जिन्हें देख कर इन्द्राधनुष भी लजाकर
छुप जाये...'
... और धीरे-धीरे यह वर्णन नासिका, अधर दंत, कपोल, ग्रीवा आदि से
होता हुआ नीचे और नीचे उतरता... 'हिया धार कुछ
कंचन लारू / कनक कचोर उठ जन चारू... जुरै जंघ सोभा अति पाये / केला खंभ फेरि जनु
लाये...' दूसरी लड़कियां सकुचा
जातीं... पर सायमा की आंखें नहीं झुकतीं. कभी नहीं... बिल्कुल भी नहीं.
उसे कोफ्त होती थी...‘वह बूढ़ा कैसे देखता है तुम्हे.. जैसे राल टपकती है... और तुम...'
सायमा की आवाज़ की प्रतयन्चा भी उसकी भौंहों की तरह तन
जाती...‘ मैं क्यों नजरें
झुकाऊं... उसकी वह जाने, देखता है तो
देखे... मुझे तो बस पढ़ाई से मतलब है..'
निगाहें दूसरों की भी तनती थी. सीनियर्स, सहपाठी और शिक्षकों तक की. जब भी वे दोनों
साथ-साथ होते. सब चिढ़ते उससे और रश्क भी करते थे. अपने भोलेपन और सहजता के कारण
सब का मन मोह लेनेवाला सहज सायमा के आने के बाद सबका रकीब हो उठा था, सबकी आंखों का किरकिरी.
सायमा सायमन बीच सत्र में ही आई थी. बाद में उसने बताया
था... ‘भाई का यहां नया-नया काम
है और भाभी मां बनने वाली हैं. उनका खयाल
रखनेवाला कोई दूसरा नहीं है. बस पिता हैं जो दिल्ली में अब नौकर-चाकरों पर आश्रित
रह गये हैं...
और फिर होली आई थी. सायमा के उसके जीवन में आने के बाद की
पहली होली. उसने पूछा था...‘ होली खेलती हो
तुम?'
‘हां ... खूब-खूब खेलती हूं. क्यों, नहीं खेलनी चाहिये?' उसने उसेऐसी प्रश्नभरी निगाहों से देखा था कि उसे अपना आप बहुत तुच्छ लगने लगा था. यह कैसा
प्रश्न किया था उसने... सायमा क्या सोच रही होगी उसके बारे में. उसे अपने आप से
दिक हुआ था. उसे पहले ही समझ लेना चाहिये था उसके रंग-बिरंगे कपड़ों,चप्पलों और छातों को देख कर. कहती तो थी वह,
उसे अपनी ज़िंदगी में बेपनाह रंग चाहिये,
सचमुच यह कोई पूछने लायक सवाल तो था नहीं.
अन्तिम गीत हूटर की तरह बजा था, उसके खयालों के पंखों को समेटता हुआ... ‘रात के हमसफर थक के घर को चले / झूमती आ रही
वो सुबह प्यार की.' उसने सोचा वह किस प्यार की सुबह की बात कर रहा है जो शायद
कभी नहीं आनेवाली. उसकी ज़िंदगी में तो
कदापि नहीं. उसने अपना हेडफोन उतारा था. शीशे के पार इशारे में झुके हुये अंगूठे
को उसने अपना अंगूठा उठा कर ठीक है का इशारा किया और टेबल को फिर से जमा कर उठ खड़ा हुआ था. पर इस उठ खड़े होने के साथ घर जाने की कोई
इच्छा या ललक उसके भीतर नहीं जागी, यंत्रवत वह चला
जरूर था. ‘घर' यानि कमरे पर... ‘घर' यानि बुलन्दशहर
भी जहां गये उसे कितने महीने बीत गये थे.
घर आ गया था. उसने दरवाजा खोला और बिछावन पर पर पड़ गया,
जूता उतारे बगैर. बिछावन अभी तक अस्त-व्यस्त
था. कुछ गड़ा था उसे तेजी से. उफ की आवाज़ के साथ वह उठ खड़ा हुआ था. यह ‘रेडियो एंड टी वी एडवरटाइजिंग प्रैक्टिशनर
एसोसिएशन आफ इंडिया' के द्वारा दिये
गये बेस्ट आर जे के अवार्ड में मिला
मोमेन्टो था. आज पूरे सात दिनों के बाद भी वह यूं ही उसके बिछावन पर पड़ा था. क्या
फायदा इन सब बातों और चीजों का... क्या करेगा वह यह सब लेकर. जब सायमा तक उसकी
आवाज़ पहुंचती ही नहीं. जब उसकी कोई खोज-खबर उस तक आती ही नहीं. डर जैसा कुछ उसके
भीतर जागा था उसी क्षण हमेशा की तरह. पर उसने उसे फिर दबाया था. सायमा हार नहीं
सकती ज़िंदगी से, किसी भी हाल में
नहीं... हारने वाली जीव वह थी ही नहीं. जरूर होगी वह कहीं और उसकी आवाज़ भी सुन रही
होगी. पर सुनती तो...रूठी है शायद और उसका
रूठना भी तो जायज है. पिता ठीक कहते थे कोई भी लड़की ऐसे में...
पर मां कहती थी हम दोनों को गैर समझा, पर तुम्हें तो...भरोसा तो उसे होना चाहिये था
तुम पर,... मां की आवाज़ रुंआसी हो
जाती. वह सोचता कभी-कभी मां पिता की बातें क्या उलटी नहीं थी? क्या मां को वह नहीं कहना चाहिये था जो पिता
कहते थे और पिता को मां वाली बात. उसके
मां-बाप अजीब हैं... समय-समाज को देखते हुये तो और भी ज्यादा. उन्हें सायमा और
उसके प्यार से कभी दिक्कत नहीं रही. वे सायमा में हमेशा अपनी बेटी ढूंढ़ते,
गो कि उनकी बेटियां थी पर वे काफी पहले अपने
ससुरालों की हो चुकी थीं. सहज अपनी सबसे छोटी बहन से भी बहुत छोटा था, लगभग नौ साल छोटा. वह सबका लाड़ला था, इसी नाते सायमा भी.
सीनियर एक्जेक्यूटिव दिनेश पंत ने कहा था...‘ सहज की आवाज़ खामोशी की आवाज़ है, भीतर की गहराईयों से आती आवाज़, जो छूती भी उतनी ही अंदर तक है.' सुभाष रावत ने भी कहा था उस अवार्ड फंक्शन के
दिन... ‘सहज की भाषा-शैली लाजवाब
है. उसमें रेडियों की पुरानी परम्पराओं और आधुनिक बदलावों के बीच संतुलन बनाये
रखने लाजवब हुनर है. दर असल वह आधुनिकता और अतीत के बीच एक सेतुबंध रचता है.
श्रोताओं की नब्ज पहचानता है वह.' इतने बड़े-बड़े
शब्द उस बौड़म के लिये... पर सब बेकार. झूठ-झूठ से लगते. बौड़म शब्द ही भला लगता
उसे अपने खातिर, वह भी सायमा के
मुंह से बोला हुआ. अजीब थी न यह बात कि सायमा सायमन उसे इडियट नहीं बौड़म कहती थी.
पर कुछ भी अजीब नहीं लगता था उसमें... और सोचो तो सबकुछ अजीब. यही क्या कम अजीब था
कि सायमा सायमन हिन्दी पढ़ती थी, हिन्दी आनर्स. वह
बिहारी, सूर और तुलसी को ऐसे
इस्तेमाल करती जैसे जन्म से ही उनके बीच पली-बढ़ी और खेली-खाइ हो. भाषा पर इतनी गहरी
पकड़ और वह किंकर्तव्यविमूढ़ सा देखता रहता उसे. पर अब लगता है सिर्फ देख-सुन ही
नहीं वह गुन भी रहा था उसे. तभी तो भाषा
इस कदर संवरी थी उसकी कि लोग आज कायल हो उठते हैं.
(तीन)
गीतों की समझ भी उसे बेतरह थी. जब वह प्रगतीशील दिखने की
कोशिश में साहिर, कैफी और गुलजार को कोट करता वह आनन्द बख्शी के लिये
लड़ती... ‘इतना सादादिल, सादाशब्द जीवन से जुड़ी छोटी-छोटी बातों की परख
करने वाला दूसरा शायर तुम्हें नहीं मिलेगा. दर असल गीतों की शुरुआत भी उन्हीं से
हुई. उनसे पहले के लोग तो नज्म और गज़लों से ही अपना काम चला लेते थे. पांच हजार
गीत लिख जाने की कूवत किस में है और वो भी सब के सब अलग ढंग और ढब के...'
‘जिन गीतों के लिये तुम
जैसे लोग उन्हें कम कर के आंकते हैं, उनमें छिपा प्रयोग उन्हें क्यों नहीं दिखता. इलू-इलू और
जुम्मा-चुम्मा जैसे आमफहम बोलचाल के शब्दों का ऐसा प्रयोग तुमने किसी और के गीतों
में देखा है...?' और फिर उसे
छेड़ने की खातिर अपनी बात में वह एक पूंछ जोड़ देती...‘ओ प्रयोगवाद पढ़ने वाले भोंदू विद्यार्थी'. वह सांस लेने को रुकी थी... ‘और चोली के पीछे..? यह तो एक पहेली गीत है. लोक गीतों में ऐसे पहेली गीतों का प्रचलन
जमाने से रहा है.. ओ रट्टू विद्यार्थी, अमीर खुसरो की पहेलियां-मुकरियां भूल गये क्या - ‘उठा दोनों टांगन बिच डाला / नाप तोल में देखा भाला / मोल
तोल में है वह महंगा / ऐ सखि साजन? ना सखि लहंगा.'
उसका चेहरा उसे लाल लगा. डूबते सूर्य के आलोक
से... गुस्से से... या कि.... पर नहीं, सायमा को ऐसी बातों में शर्म नहीं आती. उसका बोलाना अभी भी जारी था...
तीस मार्च आनन्द बख्शी की बरसी थी. उसे अचानक ही वह
प्रोग्राम दे दिया गया था. उसने अपनी तरफ से कुछ भी नहीं किया था सिवाय सायमा की
बातों और पसन्द को तरतीबवार श्रोताओं के सामने प्रस्तुत करने के. बेस्ट आर जे के
खिताब के लिये उसके नमांकन के साथ उसका यही पीस भेजा गया था.
सहज की हंसी से एकान्त दरका था और सन्नाटा भी. फिर चिहुंक
कर बैठ गया था वह अपनेआप. दीवार घड़ी ने सुबह के चार बजाये थे. नींद आंखों से अभी
भी दूर थी, कोसों दूर. फ्रीज में
सुबह का खाना अब भी पड़ा था पर उसे खाने की इच्छा नहीं हुई. उसने बोतल निकाल कर पानी पीया था गटागट... ठंडी
सी लहर भीतर तक सिहरा गई थी उसे. उसे एक तेज छींक आई थी फिर लगातार कई छींकें.
उसने सोचा था मार्च का यह महीना बड़ा अजीब होता है, बिल्कुल इंसान के स्वभाव की तरह धूपछांही. उसे याद आया था
सायमा उसे कोई ठंडी चीज नहीं खाने देती थी, आइसक्रीम तो बिल्कुल भी नहीं, यह जानते हुये भी कि उसे बहुत पसन्द था. साइनस जो है उसे.
उसका सिर भारी हो रहा था. उसने धीरे से उठ कर रेडियो खोल दिया. वह चौंका था,
गुलशन था दूसरी तरफ. उसे खुशी हुई थी. इस वक्त उसे किसी अपने के साथ
की जरूरत थी.
गुलशन की आवाज़ उसके संग-साथ थी - " आज जिस कदर इंसानी
अहसासात कुचले जा रहे हैं, भाईचारा और
इन्सानियत जैसी भावनाएं पिंजड़े की मैना होती जा रही है, इन्सान इन्सान न हो कर ज्यों रोबोट में तब्दील हो गये हैं ऐसे
में दिलजले अगर जाये तो जाये कहां और सुनायें तो किसे... ‘दोस्त गमख्वारी मे मेरी रूअई फरमायेंगे क्या / जख्म के
बढ़ने तलक नाखून बढ़ आयेंगे क्या / बेनियाजी हद से गुजरी बंदा परवर कब तलक / हम
कहेंगे हाल ए दिल और आप फरमायेंगे क्या.'
गुलशन का दर्द उस तक पहुंच रहा था. उस छोटे से लम्हे में जब
एक पल को उसकी आवाज़ गुम हुई थी उसे लगा जैसे उसने अपने आंसुओं को पोछा होगा.
चित्रा सिंह की खनकती आवाज़ दर्द और शिकायत में डूबी हुई थी... ‘दिल ही तो है न संगोखिश्त दर्द से भर न आये
क्यूं / रोयेंगे हम हजार बार कोई हमें रुलाये क्यूं...' उसे अपना दु:ख इस समय छोटा जान पड़ा था. उसके और सायमा के
प्यार ने एक लम्बा सफर तय किया था... पर गुलशन ने तो... उसे लगा अगर वह स्टूडियो
में रुक गया होता तो गुलशन के साथ तो होता. कितनी बार तो रुक जाता है वह, जब घर आने का मन नहीं होता.
दर्द का सिलसिला और गहराता जा रहा था. धीमे-धीमे पर लगातार
पड़ते हथौड़े की चोट की तरह...‘मेरे हमनफस मेरे
हमनवां मुझे दोस्त बन के दगा न दे / मैं हू दर्द ए गम से चारालब मुझे ज़िंदगी की
दुआ न दे...' बेगम अख्तर की आवाज़ बारिश की तरह हौले-हौले फिजा में बरस
रही थी.
वह गुलशन से बात करना चाहता था. लेकिन वह ‘ऑन एयर' था... फिर बेगम अख्तर की आवाज़ मे मोमिन की लिखी गज़ल - '
वो जो हम में तुम में करार था तुम्हें याद हो
कि न याद हो / वही यानी वादा निबाह का तुम्हें याद हो कि न याद हो...'
गुलशन कह रहा था दूसरी तरफ - " दिल जलाने के सब के
अपने-अपने तरीके होते हैं. लेकिन कुछ ऐसे भी शायर होते हैं जो अपने होने भर से
कहने-सुनने का एक नया सांचा बना डालते हैं. गुलजार उन्हीं में से एक हैं. उनकी
शायरी हमारे अहसासों को छू कर उन्हें बेजान होने से बचाती है. तभी तो छोटी सी कहानी
और बारिशों के पानी से वादी के भर जाने पर मोहित मन जब उदास होता है तो उसके दिन
खाली बरतन हो जाते हैं और रातें अन्धा कुआं. प्रयोगों का एक लम्बा सिलसिला है
गुलजार की शायरी जो टूटन और अलगाव को भी एक नया रुख देती है ...‘हाथ छूटे भी तो रिश्ते नहीं छोड़ा करते / वक्त
की शाख से लम्हे नहीं तोड़ा करते...'
उसे कुछ राहत हुई थी. गुलशन कैसी भी हालत में हो टूट नहीं
सकता. गज़लों का रुख भी बदलने लगा था..‘
तमन्ना फिर मचल जाये अगर तुम मिलने आ जाओ / ये
मौसम ही बदल जाये अगर तुम मिलने आ जाओ...' उसने कयास लगाया था, उम्मीद शायद अब
भी बची है थोड़ी-बहुत. पर यहीं शायद वह गलत
था.
‘अब अगर जाओ तो जाने
के लिये मत आना / सिर्फ अहसान जताने के लिये मत आना...' वह मुस्कुरा उठा था. मोमिन, गालिब और शकील से होती हुई गज़लों की वह रात
गुलजार और जावेद अख्तर तक पहुंच आई थी. उदासी का रंग भी धूसर होने लगा था अपनेआप,
मानो पत्थरों पर सिर पटकती लहरों ने ऊब कर अपनी
दिशा बदल दी हो. गुलशन अलविदा कह चुका था.
न जाने उसे क्यूं लगा कि इस अलविदा कहने में भी आज अलग जैसा कुछ है. उसने फोन
लगाया था गुलशन को. वह फोन लगाता रहा था बार-बार लेकिन फोन लग नहीं रहा था. हार कर
उसने कोशिश छोड़ दी थी.
खूब सोया था वह दिन में. उसने कपड़े भी धोये थे और खाना भी
बनाया था हमेशा के विपरीत. उसका जी कुछ हल्का हुआ था, क्यों वह समझ नहीं पाया था...क्यों यह सोच कर उसे और ज्यादा
परेशानी हुयी थी बाद में. जब वह फोन आया वह सूखे कपड़े तहा कर प्रेस करने के लिये
देने जा रहा था. "गुलशन सीरियस
है...उसने सुसाइड करने की कोशिश की थी... कैलाश हास्पिटल में है वह....उसके मकान
मालिक ने पहुंचाया है उसे..." मेघा विचलित थी.... " यह सब कैसे हो गया
सहज? मैने तुम से कहा भी था.
हम कुछ क्यों नहीं कर पाये उसके लिये." वह शर्मिन्दा था सचमुच. उसे क्यों लगा
था कि ठीक है गुलशन... उसके अलविदा कहने का अन्दाज अब उसे बार-बार चुभ रहा था.
गुलशन जब लड़ रहा था अपने आप से, जब हार कर किसी
नतीजे पर पहुंचा था वह, जब उसने नींद की
गोलियां खाई थी... वह आराम से सो रहा था... कपड़े धो रहा था... सुकून से था. वह
पानी-पानी हुआ जा रहा था... खुद की नजरों में शर्मसार सा...
वह और मेघा जब अस्पताल पहुंचे गुलशन आइ सी यू में था. बाहर
खड़ी पुलिस उसके होश में आने का इन्तजार कर रही थी. उन दोनों को उनके सवालों ने
घेर लिया था... "आप तो जानते होंगे...क्यों किया होगा उसने आखिर ऐसा... आप तो
मित्र हैं उनके..."
"नहीं, हमें कुछ भी नहीं पता..." मेघा ने कड़ाई से प्रतिवाद किया था. पर वे उसकी बात सुन कहां रहे थे. वह अवाक
था...जड़वत. मेघा के बचाव में भी खड़ा नहीं हो पा रहा था वह. यही तो सबसे बड़ी कमी है उसकी. बचाव करना उसे
आया ही नहीं कभी. कायर है वह, अपने लिये ही डरा
सहमा... फिर कोई उसके साथ कैसे आ सकता है... उसकी छाया में कौन खड़ा होगा आखिर....
तभी तो चली गई थी सायमा, बिना उससे कुछ
कहे-सुने. बिना कोई शिकायत किये. शिकायत करने के लिये भी सामने वाले का अपना होना
तो जरूरी होता है न और अपना होने के लिये अपनों के बचाव में खड़े रहना.
वह जैसे दूर खड़ा हो चला था इन सारी स्थितियों से. वह कुछ
भी देख-सुन नहीं रहा था उस दिन की ही तरह... दूर कहीं बहुत्त दूर अतीत से तेज-तेज
बजते ढोल की आवाज़ आ रही थी...वे गा रहे थे चीख-चीख कर...‘भर फागुन बुढ़वा देवर लागे, भर फागुन...' होलिका दहन के लिये चंदा मांगते वे लोग सायमा के पास पहुंचे थे. सायमा ने कहा
था...‘कल ही तो दिया है.'
‘वे दूसरे मुहल्ले वाले होंगे...'
‘इतने अमीर नहीं हैं हम कि बार-बार चन्दा देते फिरे...'
‘चल वे, यह नहीं
देनेवाली.'
दूसरे ने कहा था...‘ इनलोगों को हमारे पर्व-त्योहार से क्या मतलब...?'
‘क्यूं नहीं मतलब? मतलब रखना होगा. यहां रहना है तो हम में से ही एक बन कर रहना होगा... और जब
जितनी बार मांगे देना भी होगा....' सब हंस पड़े थे
ठहाका लगा कर.
सायमा की आंखों में आंसू आ गये थे. वह सब कुछ बर्दाश्त कर
सकता था पर उसके आंसू नहीं. उसने बीच का रास्ता निकाला था...‘सायमा की तरफ से दो सौ रुपये.' सायमा ने प्रतिवाद किया था.
‘नहीं...' उन लोगों के बीच
से बढ़ते हुये एक हाथ को दूसरे ने बरजा था...‘ हम इस से क्यों लें? हमे तो उससे चाहिये...' और एक बार फिर सब हंस पड़े थे जोर से.
सामूहिक अट्टहास कितना वीभत्स होता है, उसी दिन जान पाया था वह. उसने सायमा का हाथ
खींचा था...‘चलो, हम घर चलते हैं...'
‘चले जाओ. पर याद रखना हम अपना हक ले कर ही रहते हैं,
छोड़ते नहीं कभी.'
‘कहो तो होलिका दहन में इन्हें ही होलिका बना दिया जाय,
पवित्र हो कर निकलेंगी... हमारे स्वामी
सहजानन्द के योग्य बन कर भी...' दूसरे का ईशारा
उसकी तरफ था.
‘नहीं यार..पवित्र अग्नि भी दूषित हो जायेगी इससे...इसका
शुद्धीकरण तो हम करेंगे..."
सहज ने अपने पावों की गति तेज कर दी थी... सायमा को लगभग
घसीटते हुये.
दरवाजे पर पहुंच कर उसने कहा था...‘सायमा यह घर बहुत
खुला-खुला नहीं है? कम से कम एक बाड़
तो होनी ही चाहिये थी चारों तरफ... और नहीं तो कोई दूसरा घर.' उसे उम्मीद थी सायमा विरोध करेगी इस बात का. पर
वह चुप रही थी अपने स्वभाव के विपरीत.
(चार)
सबकुछ पूर्ववत था. लेकिन उसके भीतर एक भय था जो हटता ही
नहीं था. वह बार-बार उसके घर जाता और सब कुछ ठीक ठाक देख कर संतुष्ट होना चाहता.
मां की इच्छा थी होली के दिन सायमा उनके घर आये. उसने कहा था वह खुद जा कर ले
आयेगा उसे.
शाम गहरा रही थी. वे दोनों खुश-खुश निकले थे. बीते दिनों की
कोई छाया भी नहीं थी उनके आस-पास... लगभग आधी दूरी वे तय कर चुके थे. आगे का
रास्ता थोड़ा संकरा था, गलीनुमा. एक
दूसरे का हाथ थामे वे बढ़ ही रहे थे कि किसी ने धकेल कर उन्हें अलग कर दिया था. सब
के सब जैसे सायमा पर टूट पड़े थे... उसका अंग-अंग रंगा जा रहा था और वह सहमा सा
गली की दीवार से लगा सुन्न सा देख रहा था सब कुछ... वह सुन रहा था पर जैसे सुन
नहीं रहा था...‘अब रंग में रंग
गई यह हमारे...चाहें तो स्वामी सहजानन्द इसे अपना लें. हमें कोई आपत्ति नहीं.'
और वे चलते बने थे.
गुस्से और नफरत से भरी सायमा ने धीरे-धीरे खुद को संभाला था
और कुछ पल देखती रही थी उसे अपनी निचाट
आंखों से....और वह खड़ा-खड़ा शून्य में
तकता रहा था. और फिर वह चुपचाप चली गई थी... पहले घर और फिर दूसरे दिन शहर
से.
वह बुत बना खड़ा रहा था उस दिन भी और आज भी... तब जबकि मेघा
को मीडियावालों ने भी घेर लिया था. वह मेघा को इस चक्रव्यूह से निकालना चाहता था.
उसने अपनी सारी शक्ति एकत्र की थी...
मेघा चक्रव्यूह से निकली जरूर थी पर इसमें उसका कोई योगदान
नहीं था. वह कोई और थी जो बिजली की तेजी
से आई थी और जिसकी एक कौंध से मेघा के इर्द-गिर्द खड़ी भीड़ बिखर गई थी...‘
दिस इस टू मच. बख्सो इन्हें, ये क्या बतायेंगी. मरीज को होश में आने दो...
सीधे उसी से पूछ लेना... यहां कोई ज़िंदगी से लड़ रहा है और आपको अपने मतलब की पड़ी
है...'
वह आवाज़ सुन कर चौंक पड़ा था और भीड़ को धकेलते हुये घुसा
था उसके भीतर. उसका चेहरा एक बार देख पाये... बस एक बार. पर वह मुड़ी और चल दी थी.
भीड़ में ही किसी ने कहा था ‘सिस्टर स्टेला थी
वह. रोगियों के लिये वरदान जैसी पर नियम की बहुत पाबन्द.'
उसे याद आया उसने पूछा था एक दिन सायमा से ‘तुम क्रिश्चियन्स को नर्सिंग इतना क्यूं पसन्द
है?'
‘क्योंकि यह परोपकार का काम है. दूसरों की खातिर जीने की जिद
हमारे धर्म का मूल है.' वह चुप हो गया
था...
वह उस नर्स के पीछे-पीछे भागा था पर वह कारिडोर में खुलते
ढेर सारे कमरों में से किसी एक में खो गई थी. उसने अपने आप को तसल्ली दी थी... वह
अंग्रेजी बोल रही थी नपी तुली और स्टाइलिश.. पर सायमा तो... भीतर से एक आवाज़ आई
थी... हिन्दी पढ़ती थी तो क्या उसकी परवरिश तो...
गुलशन को तत्काल खून की जरूरत थी. उसका ब्लड ग्रुप ओ
निगेटिव था. और ब्लड बैंक में भी पर्याप्त मात्रा में उस ग्रुप का खून नहीं था.
मेघा वहीं रुक गई थी... पर स्टूडियो से बार-बार फोन आने के कारण उसे लौटना पड़ा
था.
"न हंसना मेरे गम पे इन्साफ करना. जो मैं रो
पड़ूं तो मुझे माफ करना..." उसने प्रोग्राम की शुरुआत ही अनुरोध फिल्म के इस
गीत से की थी...‘जब दर्द नहीं था
सीने में तब खाक मजा था जीने में / अब के शायद हम भी रोये सावन के महीने में /
यारों का गम क्या होता है मालूम न था अनजानों को / साहिल पे खड़े हो कर अक्सर,
देखा हमने तूफानों को / अब के शायद हम भी डूबे
मौजों के सफीने में...'
"नये-पुराने गीत में मैं सहज सारथी यादों की तीर
से बिंधा हुआ, दोस्त के गम से
लबरेज आप सब का स्वागत...माफ कीजियेगा आप सब का साथ चाहता हूं. इस उदास रात में आप
सब ही मेरे हमसफर हैं. रात उदास तब होती है जब कि आपका कोई साथी आप से बिछड़ जाये,
रूठ कर दूर चला जाये. मेरा दोस्त गुलशन अस्पताल में ज़िंदगी और मौत से
जूझ रहा है. वही गुलशन जो अपने साथ गज़लों का एक काफिला लिये चलता है और जिसके आने
से आपकी शामें रौनक भरी हो जाती हैं. आज उसी गुलशन को ओ निगेटिव ब्लड की जरूरत
है.उसी गुलशन की खातिर...
‘आदमी जो कहता है आदमी जो सुनता है / ज़िंदगी भर वो सदायें
पीछा करती हैं / आदमी जो देता है, आदमी जो लेता है
/ ज़िंदगी भर वो दुआयें पीछा करती हैं...'
"आपकी दुआ और आप में ही से किसी का थोड़ा सा खून
शायद मेरे दोस्त की जान बचा सके. आपके खून का थोड़ा सा हिस्सा..." वह रौ में
था, इतना रौ में कि सिवाय
गुलशन के उसे कुछ भी सूझ नहीं रहा था. शीशे के दूसरी तरफ के लोग... सीनियर
प्रोड्यूसर का आ-आ कर केबिन में झांक जाना... ‘आपके सामने मैं न फिर आऊंगा / गीत ही जब न होंगे तो क्या
गाऊंगा / मेरी आवाज़ प्यारी है तो दोस्तो /
यार बच जाये मेरा, दुआ ये करो..'
तभी फोन की घंटी टनटनाई थी. आज के कार्यक्रम
में यह पहला काल था..."सचमुच आपकी आवाज़ में बहुत दम है. आपकी एक पुकार पर
यहां खून देने वालों का तांता लग गया है. आपकी इस गुहार से ओ निगेटिव ब्लड ग्रुप
वाले न जाने कितने और मरीजों का भला हो जायेगा... पर अब बस. इससे ज्यादा ब्लड
कलेक्ट करने का साधन हमारे पास नहीं है." वह हंसी थी...फिर उसने कहा था...
" यह आवाज़ आगे भी जरूरतमन्दों की मदद के लिये उठेगी?"
" कोशिश करूंगा..."
"आमीन."
" आप कौन?"
"उसी अस्पताल की एक नर्स..."
" सायमा...?"
" नहीं, स्टेला." और फोन कट गया था.
उसे हर आवाज़ में सायमा की आवाज़ क्यों सुनाई देने लगी है?...और हर अन्जान चेहरे में... क्या वह...
प्रोग्राम खत्म होते ही वह गुलशन से मिलने के
लिये निकल पड़ा था... मेघा उसका इन्तजार कर रही होगी... उसने खुद को टटोला था...
क्या यह बेचैनी और ललक स्टेला को देख पाने की भी नहीं थी..?
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कविता
15 अगस्त, मुजफ्फरपुर (बिहार)
मेरी नाप के कपड़े, उलटबांसी, नदी जो अब भी बहती है (कहानी संग्रह), मेरा पता कोई और
है, ये दिये रात की ज़रूरत थे (उपन्यास).
मैं हंस नहीं पढ़ता, वह सुबह कभी तो आयेगी (संपादन), जवाब दो विक्रमादित्य (साक्षात्कार),
अब वे वहां नहीं रहते (राजेन्द्र यादव का मोहन राकेश, कमलेश्वर और
नामवर सिंह के साथ पत्र-व्यवहार)
मेरी नाप के कपड़े, कहानी के लिये
अमृत लाल नागर कहानी प्रतियोगिता पुरस्कार
चर्चित कहानी ‘उलटबांसी’ का अंग्रेज़ी अनुवाद जुबान द्वारा प्रकाशित (‘हर पीस ऑफ स्काई’ में शामिल )
कुछ कहानियां अन्य भारतीय भाषाओं में अनूदित
सम्पर्क : एन एच 3 / सी 76, एन टी पी सी, पो. विन्ध्यनगर,
जि. सिंगरौली,486885 (म.प्र.)/07509977020/kavitarakesh@yahoo.co.uk
प्रेम और दर्द की गहन अनुभूतियों से ओत प्रोत एक ह्रदयस्पर्शी कहानी
जवाब देंहटाएंमानवीय संवेदनाओं की मार्मिक कहानी . शुक्रिया समालोचन .
जवाब देंहटाएंपढ़ी.प्रेम की सुंदर बानगी.अच्छी कहानी.
जवाब देंहटाएंबेहद मर्मस्पर्शी ....सुंदर सी कहानी ....वाह दी ..मजा आ गया पढ़कर
जवाब देंहटाएंखूबसूरत, कथा शिल्प सुंदर,बाँध रखती है कहानी आदि से अंत तक
जवाब देंहटाएंयह गज़ब की कहानी है कविता जी। और विशेष यह कि नायक हमारे बुलन्दशहर का है।
जवाब देंहटाएंआप किंतनी सुन्दर कहानियां लिखती हैं वाह।
बहुत सुंदर कहानी कविता। बांध लेने वाला शिल्प, कथ्य और काव्यात्मक भाषा। कुछ जगहों पर मार्मिकता मन छू लेती है मानो कहानी नहीं किसी उदास साज पर बजता मद्धम सा राग।
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