सबद भेद : उत्तर - अशोक : आशुतोष भारद्वाज

फोटो : कविता वाचक्नवी












अशोक वाजपेयी हिंदी आलोचना में अपनी प्रेम कविताओं के कारण चर्चित, प्रशंसित और निंदित रहे हैं. पर बाद की उनकी कविताओं के आयतन में विविध विस्तार दिखते हैं. ‘उत्तर–अशोक’   में कबाड़ी, कुंजड़ा, कुम्हार, लोहार, बढ़ई, मछुआरों के लिए भी जगह बनी है. 

आशुतोष भारद्वाज ने अपने इस असरदार आलेख में रचना और रचनाकार के  द्वंद्व को देखने का सृजनात्मक प्रयत्न किया है जो दरअसल समय और सृजन का भी द्वंद्व है.   


कविता की उड़ान                                      
आशुतोष भारद्वाज


वक्त आ गया है कि मैं
कहीं भी ढेर में से हाथ बढाकर उठाऊं एक मुट्ठी राख
जली हुई हरिजन हड्डियाँ
कोकाकोला की टूटी हुई अधबोतलें
और अपने साल भर के बेटे के पास
ले जाकर
चालू मुहावरे में कहूँ: यह है
मेरा देश ---- संविधान में सना हुआ.
या उस हरी साड़ी में लिपटी
गदगद ब्याहता की ओर
चटखारे भरता हुआ जाऊं
इस कुच्बुज्जे शहर में
और इससे पहले कि वह विचलित हो
उसके हाथों में थमा दूँ
संसद की आज की कार्रवाई की रिपोर्ट

अब वक्त आ गया है
कि अपने घर के कस्बाई उजास को
भूलकर
एक भीड़ जमा कर पूछूँ:
कौन कहता है इस सूअरबाड़े को
अपना घर?
---
वक्त आ गया है कि पूँछ उठाऊं
फिर अपनी कविता की गधापचीसी में ऊँचे से
उसी की गुहार लगाऊं...

(अब वक्त आ गया है, १९७०)

***

यह बिलकुल मुमकिन था
कि अपने को बिना जोखिम में डाले
कर दूँ इनकार
उस चीख से
जैसे आम हड़ताल के दिनों में
मरघिल्ला बाबू छुट्टी की दरख्वास्त भेजकर
बना रहना चाहता है वफादार
दोनों तरफ.

---
थोडा दमखम होता
तो शायद में चाट सकता था
अपनी कुत्ता-जीभ से
उसका गदगदा पका हुआ शरीर.
आखिर मैं अफसर था,
मेरी जेब में रुपिया था, चालाकी थी,
संविधान की गारंटी थी.
मेरी बीवी एकलौते बेटे के साथ बाहर थी
और मेरे चपरासी हड़ताल पर.
चाहत और हिम्मत के बीच
थोडा-सा शर्मनाक फासला था
बल्कि एक लिजलिजी-सी दरार
जिसमें वह लड़की गप्प से बिला गयी.
अब सवाल है कि चीख का क्या हुआ?
क्या होना था? वह सदियों पहले
आदमी की थी
जिसे अपमानित होने पर चीखने की फुरसत थी.

(चीख, १९७१)


*** 

ये कवितायेँ उस कवि की हैं जिसने “सारा जीवन कविता की पांच ही जिल्दें लिखी हैं: प्रेम, मृत्यु, घर, कला, संसार.” ये उसके संचयन तिनका तिनका के “एक पतंग अनंत में” खंड की अंतिम दो कवितायेँ हैं. उसकी स्व-प्रस्तावित जिल्द से भिन्न, लगभग विपरीत. संविधान, संसद इन दो कविताओं के अलावा उसके कवि-कर्म में १९६९ की ‘साक्षात्कार’ कविता के सिवाय शायद कहीं नहीं आते, जहाँ एक व्यक्ति जेब में संविधान का गुटका रख साक्षात्कार देने जाता है.

कविता में “पवित्रता की खोज और रहस्य का पुनर्वास” को अपना मूल सरोकार मानता यह कवि यहाँ कविता को पूँछ उठाकर की गयी गधापचीसी बतला रहा है. पूर्वज और निवास के प्रति अमूमन सम्मानरत दीखते इस कवि के लिए घर यहाँ सूअरबाड़ा है. औदात्यापूर्ण प्रेम को समर्पित उसकी कविता यहाँ अपनी कुत्ता-जीभ से किसी लड़की का गदगदा पका हुआ शरीर चाटना चाहती है. कविता की सीमाओं के प्रति यह आक्रोश, अपनी काव्य-प्रस्तावनाओं का घनघोर अतिक्रमण शायद उसके कवि-संसार में अकेला है. इसीलिए महत्वपूर्ण है. कवि और उसकी जिल्दें उन लम्हों में सर्वाधिक वेध्य होती हैं जब उसकी कविता उनका उल्लंघन करती है. कई मर्तबा शायद ऐसा कवि द्वारा अनुकांक्षित नहीं होता, अधिलंघन कवि का सायास प्रयत्न नहीं होता, कविता खुद कवि से परे चली जाती है. कवि बेखबर या शायद बेबस रहा आता है, अपनी कविता को उन सरहदों के पार जाते देखता है जो उसने अपने लिए अस्प्रश्य निर्धारित की थीं. अगर कला एक स्वायत्त सत्ता है तो कवि की ही नहीं, कविता की भी अपनी स्वतंत्र कामनाएं होती हैं. वह कोई अधीनस्थ वस्तु नहीं, अतिसंवेदनशील मांस-मज्जा लिए एक जीवंत बोध है. वह उस परिंदे की तरह है जिसे कवि अपने पिंजरे में बंद नहीं रख सकता, भले ही वह पिंजरा कितना ही भव्य क्यों न हो, कवि की विराट दृष्टि से निर्मित हुआ हो. अगर उसे अपने लिए वह जगह अपर्याप्त लगी तो नजर हटते ही वह पिंजरे की सलाखों को कुतर फुर्र से उड़ जायेगा.

इसीलिए बड़ी कविता सिर्फ वही नहीं होती जो कवि के घर में संभव हुई हो, कई मर्तबा कविता की उन्मुक्त उड़ान भी अनेक आकाश समेट लेती है --- आखिर उसके पंखों की पहली फड़फड़ाहट कवि के रक्त में ही सनी होती है.

उपरोक्त दो कविताओं की उड़ान लेकिन कैसे संभव हुई थी? सायास या अनायास?  

अगर यह मानें कि यह दोनों कवि के बावजूद घटित हुईं, और इनका डीएनए उसके बाक़ी कृतित्व से नहीं जुड़ता तो कवि की ऑथरशिप का प्रश्न उठता है कि क्या इन दोनों पर उसका रचनात्मक हस्ताक्षर धुंधला है? इसी से सम्बंधित एक प्रश्न यह भी कि जब रचना रचनाकार की मर्यादा चकनाचूर करती है, वह रचना की विजय का क्षण है या रचयिता की? यह स्वच्छंद उड़ान कला-कर्म की आंतरिक शक्ति की वजह से संभव हुई या कलाकार ने खुद को दरकिनार करने का जोखिम उठा वह अवकाश निर्मित किया, जहाँ उसकी कृति उसे ही नकारती एक नवीन निर्मिति कर सके. कवि ने पिंजरा खोला या परिंदा खुद ही फुर्र हो गया? शायद इसका हल रचना में ही निहित है. हर कृति अपनी काया में कुछ ऐसे अदृश्य संकेत-सुराग संजोये रहती है जिनमें यह जवाब उद्घाटित होता है.   



‘चीख’ का नायक अफसर जो अपमानित होने पर चीखने की फुरसत सदियों पहले खो चुका है, अचानक चुप हो जाता है. १९७१ की इस कविता के बाद अगली प्रकाशित कविता सात साल बाद १९७८ में. इस बनवास के बाद कवि अपनी जिल्द पर लौटता है, जहाँ तोतों के अधखाये फल सी पृथ्वी है. संविधान, संसद और आक्रोश कहीं नहीं अब. १९८५ के उपरांत लगातार कवितायेँ, कई कविता संग्रह हैं. एक पतंग अनंत में दूसरा संग्रह है, कवि की उम्र उन्तीस-तीस की थी इन दोनों कविताओं की रचना वक्त, इसके बाद बारह संग्रह और आये, लेकिन ‘कुत्ता-जीभ’ सा कर्कश प्रत्यय और पूँछ उठाकर की गयी गधापचीसी सा आक्रोश फिर नहीं दीखता.
ये दोनों मरियल-मामूली कविता भी नहीं. संविधान यहाँ ऊबती-डूबती सी संज्ञा नहीं बल्कि ऐसा प्रत्यय जिसमें पूरा देश सन गया है. (चालू मुहावरे में कहूँ: यह है

मेरा देश ---- संविधान में सना हुआ). क्या संविधान कीचड़ है? कोई बदबूदार गन्दगी? क्या पूरा देश इस संविधान की दुर्गन्ध में गंधहा रहा है? हालाँकि कविता कवि से स्वतंत्र है, कविता में कवि या उसके जीवन को तलाशने-स्थापित करने का प्रयास कविता को समझने के लिए कोई अनिवार्य अंतर्दृष्टि या सूत्र नहीं देता, लेकिन कवि के सन्दर्भ में यह तथ्य महत्वपूर्ण होगा कि इस कविता की रचना के वक्त कवि एक ऐसे सरकारी कर्म में था जो संविधान का हलफ उठाता है, जहाँ संविधान देश का अंतिम विधान है. देश की समूची व्यवस्था, खुद कवि का प्रशासनिक कर्म उसी संविधान द्वारा निर्धारित होता था. किसी भी कर्मचारी या अधिकारी द्वारा संविधान का अपमान नौकरी के आचरण का घनघोर उल्लंघन माना जाता है. देश और संविधान का इस तरह उल्लेख कविता में ही सही, किसी अधिकारी के आचरण अर्थात उसकी सर्विस रूल्स के प्रतिकूल माना जा सकता है. इसके बावजूद ये कवितायें संभव होती हैं. रचना के वक्त कवि को प्रशासनिक सेवा में आये महज चार-पांच वर्ष ही हुए थे, सरकारी तंत्र से अपेक्षाकृत अनुभवहीन.

शायद इसलिए गौरतलब है कुल्हाड़ी सी धारदार और मारक इन दोनों कविताओं के तुरंत बाद कई वर्षों की काव्य-चुप्पी. इस मौन को अनावृत करना लेकिन आलोचना का नहीं, जीवनी लेखक का ध्येय होगा.

ठीक तीस वर्ष बाद लेकिन, जब कवि साठ वर्ष का हो चुका है, वह सहसा कविता में अपने जिए का बहीखाता रचता है. हलफ, उन्हीं में से एक, मैं अपने गुनाह इत्यादि कवितायेँ एक नयी जिल्द निर्मित करती हैं.

नहीं, मैं उन्हीं में से एक था
सिवाय इसके कि नसैनी से लोग ऊपर चढ़ते हैं
पता नहीं कैसे मैं उससे नीचे तलघर में उतर गया.
---

अपने समय के अत्याचारों में मैं शामिल न हुआ होऊं
लेकिन उनमें से एक भी मेरी वजह से कम खूंखार या
कुछ कमजोर पड़ा हो ऐसा तो नहीं हुआ:
तलघर में सही, मैं उन्हीं में से एक था.


(उन्हीं में से एक, २००१)

***

कविता में कवि के स्व की तलाश अनुपयोगी है. प्रथम पुरुष में लिखी कविता कवि के स्व को इंगित नहीं करती. इसलिए उपरोक्त कविताओं के नायक ‘मैं’ में कवि को चिन्हित करने का प्रयास यहाँ कतई नहीं. यहाँ प्रयोजन महज यह कि कवि सहसा लम्बा बनवास लेता है --- ऐसी कविता के बाद जो अपमानित मनुष्य की चीख की विलुप्त होती जगह को उघाड़ती है --- बनवास के तुरंत बाद प्रेम और ईश्वर की जिल्द पर तो लौटता है लेकिन उम्र के साठवें वर्ष से उसकी कविता निरंतर बीते जीवन का मूल्याङ्कन करती रही है, जहाँ अगर प्रेम और कला की उत्कृष्ट अभिव्यक्ति है तो यह बेधक स्वीकारोक्ति भी

मैं भरसक टुच्चेपन से बचा रहा लेकिन
डाह से नहीं,
मैं लूटपाट से अलग रहा पर
दूसरों को जब-तब बेवजह घायल करने से नहीं
---
पवित्रता की खोज में
मैं कौन-सा कलुष की चपेट से बच पाया?
(मैं अपने गुनाह, २००१)




क्या इसी को थिओडोर अडोर्नो ‘लेट स्टाइल’ कहते थे, जो उन्होंने बीथोवेन के आखिरी वर्षों के संगीत में चिन्हित की थी? वे तत्व जो रचनाकार के आखिरी दौर में उमड़ते हैं. जब पांच-छह दशकों में फैली सर्दियों के नाख़ून और धूप के पंजे उसकी रचनात्मक काया को खरोंच चुके होते हैं, कभी नाजुक रही आई उसकी कवि-त्वचा खुरदुरी हो झुर्रियां हासिल करती है, जो प्रश्न, प्रस्तावनाएँ उसने अनिवार्य मान लीं थीं, उनके विलोम सहसा उसकी कविता में जीवित होते हैं. कविता उन रास्तों से गुजरना चाहती है जिन्हें कवि ने अपने लिए निषेध मान लिया था.

उम्र के उत्तरार्द्ध में अशोक वाजपेयी की कविता अगर अपने किये-जिए का मूल्याङ्कन करती अपराध बोध से रु-ब-रु होती है तो क्या यह उसकी काव्य-जिल्द में एक महत्वपूर्ण और गुणात्मक वृद्धि है? दूसरे, यह क्यों और किस परिणाम के साथ जन्म लेती है? क्या यह सायास है, कवि की प्रस्तावनाओं के विस्तार का एक अनिवार्य पड़ाव, या किन्ही बाहरी प्रत्ययों से निर्धारित?
  
अफ़सोस या पछतावे मनुष्य और उसकी बढती उम्र का स्वभाव है, क्या यह लेकिन उसकी कविता का भी अनिवार्य गुण है? शायद नहीं, अगर होता तो हर उम्रदराज कवि की कविता बहीखाते में तब्दील हो जाती. हर वह कवि जिसने सृष्टि की अगोचर पीड़ा व अवसाद की खोज में जीवन बिताया, अपने अंतिम वर्षों में दृश्य-जगत के दुःख का गीतकार हो जाता.

कविता की यही शक्ति है. वह कवि को स्वर देती है, कवि के मनुष्य को नहीं.
इसलिए यहाँ मानीखेज प्रश्न यह कि इस कविता में पछतावा एक मनुष्य, जो कवि भी है, की चेतना पर उम्र के घिरते दवाबों का सूचक है जो उसकी कविता में लक्षित होते हैं, या एक कवि, जो मनुष्य भी है, और उसकी कविता का स्वाभाविक विकास है?
कुछ अन्य कवितायेँ शायद इस प्रश्न का बेहतर जवाब दे पायें.


मैं सिर्फ अपना रंदा ही नहीं चलाता/या ठोंक पीट ही नहीं करता रहता हूँ/मैं अपना काम करते हुए सोचता भी हूँ/और कभी कभी जब लकड़ी के छल्ले छिल-छिलकर/ जमीन पर गिरते हैं/तो उनमें उलझे हुए कुछ सपने भी देखता हूँ.
अभी परसों ही मुझे रंदा चलाते हुए ख्याल आया कि/ लोगों के बीच जो मनुमुटाव है/ उसे रंदे से छीलकर फैंका नहीं जा सकता है?
ऐसा हो पाता तो शायद यह दुनिया/ किसी नयी बनी मेज की तरह चिकनी और समतल हो जाती.
(बढ़ई, शताब्दी के अंत के कगार पर)

***
जब मैं जाड़ों में करेला/और गर्मियों में फूलगोभी बेचता हूँ तो इस सदी को जी-भर कोसता हूँ कि इसने सब्जियों तक को उनके असली समय से अलग कर दिया है.
यह कैसी सदी है कि जिसमें अब हर मुहल्ला बाज़ार है/ और हर मकान दुकान.
---
कभी कभी मैं सोचता हूँ/ कि बच्चों का यहाँ तक कि पालतू कुत्ते-बिल्लियों का/ सबका अलग-अलग नाम होता है/ पर इन घरेलू सब्जियों का नहीं: क्या इसलिए कि उनका इतिहास नहीं?
---
दाम ज्यादा लगने पर ग्राहक झुंझलाते हैं/ कम होने पर मैं कुढ़ता हूँ   

(कुंजड़ा, शताब्दी के अंत के कगार पर)



यह शताब्दी के अंत की कवितायेँ है. कुल सात संज्ञाओं पर सात लम्बी कवितायेँ: कवि, कबाड़ी, कुंजड़ा, कुम्हार, लोहार, बढ़ई, मछुआरा. ‘कवि’ तो रहा मूल सरोकार, लेकिन कुम्हार, कुंजड़ा जैसे गोचर किरदार और उनके दुःख शायद पहली मर्तबा कवि के सरोकार बने हैं, जिनसे वह शताब्दी के अंत में संबोधित होता है.

इन सात कविताओं तक आते में कवि को लगभग चार दशकों का अनुभव हो चला है शब्द-संधान का. वह शब्द और कविता के साथ पला, युवा हो अब प्रौढ़ हुआ है. इन कविताओं को पढ़ इस कवि की चेतना पर किस किस्म की झुर्रियां दिखलाई देती हैं? क्या यह कवितायेँ उसके बोध का सहज विस्तार हैं? उसकी कविता अपना ताना और बाना बहुत बारीक कातती आई है, आन्तरिकता इसका गुण है. दृश्य सृष्टि की इसे अमूमन दरकार नहीं; अदृश्य का अनुसंधान इसका स्वभाव रहा है. पुरखे, मृत्यु, ईश्वर, कीचड़ सने जूतों से स्वर्ग में प्रवेश इसकी आकांक्षा है.

दाम ज्यादा लगने पर झुंझलाने सा मामूलीपन और रंदे से छील कर लोगों के मनुमुटाव मिटा देने सा यह सतही सपना क्या इस कविता का अनिवार्य मुकाम है? क्या यह वही कवि है जो इस कविता के कुछ ही वर्ष बाद यह उदात्त अभिलाषा कहेगा ---- काल के प्रतिघात के बावजूद/उसका अभिषेक करते हैं --- /समय से घायल हाथों से हम/ जो कालातीत हैं/ उसका अभिषेक करते हैं.
शताब्दी के गीत ने कवि से अपने को लिखवाया, या उस मनुष्य ने, जो कवि भी है, इसे लिखा? संभवतः किसी सामाजिकता से उत्प्रेरित हो?

शब्द अगर अपनी प्रकृति में इल्हाम है, खुद अपने को कवि के माध्यम से कहता है, रचना एक इबादत और कवि एक साधक, तो यह रचना के उथले लम्हे हैं. किसी कृति से गुजरते वक्त उसकी शब्द-काया को छू आप चिन्हित कर सकते हैं कि उसका अपने रचयिता से क्या सम्बन्ध रहा होगा, उसके शब्द किन लम्हों में उतारे होंगे. कुम्हार और कुंजड़ा कवि के इल्हाम नहीं है, कवि के वांग्मय का जैविकीय संविधान इनसे कतई नहीं जुड़ता.


चूँकि यह कविता का अपना मकान नहीं है, यह कवि नहीं, बल्कि उसके मनुष्य की चेतना को कसते दवाबों का सूचक है, जिन्हें वह अपनी कविता में कायान्तरित करना चाहता है लेकिन चूँकि यह उसके कवि की आकांक्षा नहीं इसलिए कविता इसे सिर्फ उथले ढंग से ही थाम पाती है.

शायद यह मनुष्य अपनी कविता की काया में कोई कथित सामाजिक दृष्टि पिरोना चाहता है, कोई ऐसी दृष्टि जो उसके आलोचक, पाठक या समकालीन रचनाकारों के अनुसार उसके पास नहीं है.

लेकिन उसकी कविता इसके लिए तैयार नहीं. वह एक स्वघोषित उत्सवधर्मी और प्रेमरत कवि है, लेकिन यह सतत प्रेम और उत्सवधर्मिता देर सबेर चंद अफ़सोस, किंचित ही सही, हासिल कर लेती है कि सृष्टि का एक विराट अंग उसकी निगाह से वंचित रहा है.

उसके पछतावे निश्चय ही सच्चे हैं. उसकी कवि-निगाह ने अब तलक तोतों से अधखाई पृथ्वी को बखूबी सहेजा है, लेकिन अपने उत्तरार्द्ध में आकर शायद उसे लगता है कि उसकी कविता कुंजड़े और कुम्हार के बगैर सम्पूर्ति प्राप्त नहीं करेगी, वह इन्हें भी आवाज देना चाहता है. लेकिन उसकी कविता की अपनी स्वतंत्र गति, यति व रति है. पिछले चार दशकों से अर्जित जिल्दें यह कविता यूँही नहीं त्यागना चाहती. वह कवि को कोई रियायत नहीं देना चाहती. उसे अपेक्षा है कि कवि ने जिस तरह प्रेम और पुरखों का संधान किया, उनकी संगति में जीवन बिताया, लोहार को भी वह वही सम्मान और समर्पण दे. कवि लेकिन तैयार नहीं है. वह कुम्हार-मोहल्ले और लोहार-गली की ओर उन्मुख तो होता है, उनकी झोंपड़ी के भीतर झांकता भी है, लेकिन संवादरत नहीं होता.

इसीलिए गहन संभावनाओं के बावजूद इन कविताओं में ‘लेट स्टाइल’ किसी शिखर पर नहीं पहुँच पाती. अगर यह पछतावे और अफ़सोस कवि को देर तलक मथते, बढ़ई को उसने अपनी रूह में धारित किया होता तो शायद उसके उत्तरार्द्ध की कविता एक निर्णायक मोड़ ले नए रास्ते पर जा सकती थी, लेकिन यह भाव अस्थायी रहा. उसने पनाह फिर से प्रेम की सृष्टि में हासिल की जहाँ “जब एक गोरा सुडौल नितम्ब मुड़ता है तो देवताओं को हिचकी आती है”.

लेकिन. उपरोक्त कवितायेँ इस कवि की रचना-सृष्टि में भले निचले पाए पर आयें, यह उसकी कला के लिए आश्वस्तिदायक संकेत है. उसकी कला अपने साधक के प्रति कठोर है, किसी अव्याप्त-अपर्याप्त अनुभूति का सम्मान नहीं करती, कवि की जिद तहत उन्हें शब्द तो देती है, लेकिन उन्हें एक शालीन दूरी पर भी हौले से ठहरा देती है. कवि के मुहावरे में, ऐसी कविता को वह कवि के पड़ोस में नहीं बिठाती. इसलिए यह कमजोर कवितायेँ प्रकारांतर से रचना प्रक्रिया को ही प्राण-प्रतिष्ठित करती हैं.
 
यह कविता की कवि और उसके हठ पर विजय भी है, जो जाहिरी तौर पर कवि की ही अस्थियों से निर्मित वज्र से संभव हुई है.

कायनात की हरेक शै में कविता चिन्हित कर लेने वाले एक सजग और चैतन्य कवि को क्या यह अहसास न हुआ होगा कि इन वेध्य लम्हों में खुद उसकी रचना उसे नकार देगी, उससे परे निकल जाएगी?

सात वर्ष लम्बे कवि-मौन की ही तरह यह प्रश्न भी लेकिन आलोचना का कम, जीवनी-लेखक का अधिक है. दोनों ही प्रश्न लेकिन एक दूसरे के पूरक हैं, कवि की बुनियाद और निर्मिति को गहरे से रेखांकित करते हैं. 


(यह आलेख पीयूष दईया द्वारा अशोक वाजपेयी पर सम्पादित एक शीघ्र प्रकाश्य किताब में संग्रहित है)

पत्रकार, कथाकार. युवा आशुतोष भारद्वाज का एक कहानी संग्रह,
कुछ अनुवाद, आलोचनात्मक आलेख आदि प्रकाशित हैं.
इंडियन एक्सप्रेस में छतीसगढ़ के नक्सली इलाके से   रिपोर्टिंग और डायरी प्रकाशित 
कथादेश के विशेषांक “कल्प कल्प का गल्प” का  संपादन 
कृष्ण बलदेव फेलोशिप और पत्रकारिता के लिए रामनाथ गोयनका अवार्ड

ई पता : abharwdaj@gmail.com

आलेख : अज्ञेय और मैं : आशुतोष भारद्वाज

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  1. सराहनीय . निषेध में रहती हैं कविताएँ और कलाएँ . समाज के अवचेतन को खोलती हुई.

    पवित्रता की खोज में
    मैं कौन-सा कलुष की चपेट से बच पाया......

    शुक्रिया समालोचन.

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  2. अच्छा विश्लेषण है..पर कितने भी अच्छे विश्लेषण में आप कवि की उस अवस्था का बस एक अनुमान भर कर सकते हैं जिनमें उसने रचना लिखी...अक्सर यह अनुमान वास्तविकता से काफी दूर होता है. कई बार कवि के वर्तमान के कारण यह अवधारणा बन जाती है कि यदि उसने अपने वर्तमान वातावरण से हटकर कुछ लिखा है तो वह उसकी अनुभूति नहीं वरन शब्द चातुर्य है..अब यदि किसी घटना को देखकर या जीवन के किसी समय में हुए अपने अनुभव को रचनाकार व्यक्त करता है तो वह उथला तो हो सकता है पर वह जेन्युइन नहीं है यह नहीं कहा जा सकता...एक अच्छी रचना और सच्ची रचना में फर्क किया/समझा जाना चाहिए..

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