परिप्रेक्ष्य : विष्णु खरे




लोग थर्रा गए जिस वक़्त मुनादी आयी
आज पैग़ाम नया ज़िल्ले इलाही देंगे.

परवीन शाकिर का यह शेर इधर मुझे बार – बार याद आता है, ख़ासकर जब  विष्णु खरे कुछ कहते हैं.










एक बौखलाए बाबू की मगरमच्छी ब्लर्ब-वेदना                
विष्णु खरे



वो बात उनके फ़साने में जिसका ज़िक्र न था
वो  बात  उन्हीं  को बहुत नागवार गुज़री है
(फैज़ अहमद ‘’फ़ैज़’’ का मशहूर शेर,कुछ ग़ुस्ताख़ तरमीम के साथ)


वि एवं काव्य-सक्रियतावादी मिथिलेश श्रीवास्तव को पिछले तीन दशकों से अधिक से जानता आ रहा हूँ. रघुवीर सहाय की नितांत असामयिक,त्रासद और भारतीय कविता का अकूत नुकसान करनेवाली मृत्यु तक अन्य कुछ तत्कालीन युवा कवियों की तरह मिथिलेश भी उनके नज़दीक़ रहे और उनसे कविता लिखने,पढ़ने और पढ़वाने के उस्तादाना गुर हासिल किए. मिथिलेश श्रीवास्तव के पहले कविता-संग्रह (‘’किसी उम्मीद की तरह’’,1999) की शस्ति (ब्लर्ब) लिखने का फ़ख्र इस लेखक को हासिल है.

लेकिन उसके बाद मिथिलेश, जो ‘’टैंम्परामेंटल’’ और ‘’अन्प्रेडिक्टिबिल’’ भी हैं,एक ऐसी साहित्यिक संस्था के तत्वावधान में सक्रिय हो गए जिसे मैं अब भी संदिग्ध समझता हूँ और दूसरी ओर  ‘लिखावट’ नामक काव्य और विचार की अपनी संस्था के माध्यम से सभी-की कविता के प्रचार-प्रसार में जुटकर करेला और नीम-चढ़ा बन  गए और उनके मुझ सरीखे निराश प्रशंसकों को यह लगा कि वह अपनी कविता को भूल गए हैं. लेकिन पिछले दिनों उनसे संपर्क-सूत्र फिर जुड़े और उन्होंने अपना एकदम ताज़ा और नया संग्रह ‘’पुतले पर गुस्सा’’ मुझे दिया और विरक्त-भाव से कहा कि अच्छा लगे तो विमोचन पर आइए. मैं दूसरे-तीसरे दिन ही देख पाया कि उन्होंने संकलन में छाप दिया है कि ‘’मैं यह संग्रह कवि विष्णु खरे को समर्पित करता हूँ’’. मुझे सपने में भी ऐसी आशंका न थी. होती तो यह समर्पण न जाता.

बहरहाल, क़िस्साकोताह, उनके इस संग्रह ने मुझे उम्मीदों से परे, सकारात्मक अचम्भे में डाल दिया. जिस कवि को मैं लगभग बट्टे-खाते में डाल चुका था उसका कृतित्व मानो शेक्सपियर के किसी नायक-प्रेत की तरह मेरे सामने खड़ा ‘’स्लीप नो मोर’’ कहता हुआ अपना हिसाब माँग रहा था. वह सब कभी बाद में. लेकिन जिस चीज़ ने मुझे बेहद मायूस किया वह थी उसकी शस्ति जो बहुत कल्पनाशून्य तथा लुंज-पुंज थी एवं अल्प-बुद्धि और नासमझी से लिखी गई थी. लेखक थे उमेश ठाकुर जिन्हें यदि हिंदी में जानना ही हो तो वह एक चलताऊ, तीसरे दर्जे के ‘’कवि’’ के रूप में ही संभव है.

इन शब्दों में तो नहीं, लेकिन विमोचन के अवसर पर मैंने उस शस्ति पर अपनी गहरी निराशा व्यक्त की क्योंकि वह किसी भी ऐसे बेहतरीन संग्रह को अपाठ्य-सा दिखाने के लिए काफ़ी है. वैसे भी इस ब्लर्बिये की ऐसी ख्याति नहीं है, हो भी नहीं सकती, कि सजग पाठक ललक कर पढ़ना चाहें कि देखें भाई अपने ठाकुर साहब ने ऐसा क्या लिख डाला है. ’’पुतले पर ग़ुस्सा’’ पर उमेश ठाकुर की शस्ति वैसी ही है जैसे डिप्टी कलक्टरी के इंटरव्यू में किसी अभागे उम्मीदवार के पास अपने गाँव के सदाशयी पटवारी-कोटवार का ‘’टैस्टिमोनियल’’.

स्वाभाविक था कि उमेश ठाकुर, जो विमोचन में मौजूद थे, उठकर अपना और शस्ति का कोई कैफियत देकर बचाव करते. उन्होंने मिथिलेश श्रीवास्तव के हवाले से बताया कि संग्रह की पांडुलिपि कई महीने तक एक नामचीन कवि के पास पड़ी रही जिसने कई वादों के बाद भी ब्लर्ब नहीं लिखी सो नहीं लिखी. तब कवि ने ब्लर्बिये से ही निवेदन किया, जिसने कृपापूर्वक इस गुरुतर भार को स्वीकार कर ही लिया. लेकिन यह भी इशारे हुए कि ठाकुर-शस्ति पर भी क़लम-कैंची चले. लिहाज़ा अंतिम रूप में यदि वह विकलांग लगे तो स्वाभाविक ही है.

आश्चर्य यह है कि इस लेखक की आलोचना के बाद भी न उमेश ठाकुर ने न मिथिलेश श्रीवास्तव ने उस ब्लर्ब को दुबारा पढ़ने की ज़हमत उठाई.निजी बातचीत में मिथिलेश ने बताया कि स्वयं उन्हें उमेश ठाकुर की शस्ति में कतरब्योंत करनी पड़ी थी.यानी इस ब्लर्ब में जो स्नायुदौर्बल्य है उसके लिए वैद्यद्वय नीमहकीम ठाकुर-श्रीवास्तव दोनों उत्तरदायी हैं.

एक लोकप्रिय कहावत है,‘’लौंडों की दोस्ती,जी का जंजाल’’. इसमें आप चाहें तो ‘’लौंडों’’ के स्थान पर किसी भी केन्द्रीय या राज्य सेवा के काडर का नाम रख सकते हैं. उमेश ठाकुर आइ.ए.एस. बताए जाते हैं और किसी मंत्रालय में किसी वरिष्ठ कुर्सी पर हैं. अंग्रेज़ी अखबार, विशेषतः टाइम्स ऑफ़ इंडिया ग्रुप, ऐसे अफसरों को लगातार उद्दंडता और मज़ाहिया बेहुर्मती से ‘’बाबू’’ लिखते हैं,और इनके असोसिएशन कुछ कर नहीं पाते, लेकिन उनके हुज़ूर में बहुसंख्यहुडुकलुल्लू हिंदी लेखकों की, ज्ञानरंजन के शब्दों में, लेंडी तर और जहाँ से मानव की दुम झड़ गई है वहाँ गुदगुदी होती रहती है.

इस प्रकरण से मुझ सरीखे निर्लज्ज कुख्यात  ब्लर्बबाज़ के सामने भी यह होशदिलाऊ,त्रासद तथ्य आता है कि ब्लर्ब के लिखने-छपने के बाद न तो ब्लर्बिया पढ़ता है, न ब्लर्बाकांक्षी लेखक, न कोई प्रबुद्ध पाठक. प्रमाण के लिए यू.के.एस. ठाकुर,आइ.ए.एस. के ब्लर्ब का यह अंश देखें :
’’...(हुसैन के घोड़ों से प्रेरित अपनी कविता में) ‘यह गति मोनालिसा की मुस्कान की तरह रहस्यमयी नहीं है’ जैसी बात कह्कर ( मिथिलेश ) यह अहसास जगाने की कोशिश करते हैं कि पिकासो की चित्रकारी भले ही मोहक हो किन्तु वह गूढ़ता से ग्रस्त है...यहाँ एम.एफ़.हुसैन के घोड़ों की गत्यात्मकता और पिकासो की मोनालिसा की मुस्कान की रहस्यात्मकता की तुलना करने के बहाने वे कविता के विभिन्न स्वरूपों पर भी एक तुलनात्मक निगाह डालने का प्रयास करते हैं.’’

मैं यहाँ बाबू उमेश ठाकुर,आइ.ए.एस. की कविता की समझ,चित्रकला की बारीकियों की समझ की बात नहीं करता.मैं सिर्फ़ यह जानना चाहता हूँ कि जिस आदमी के जनरल नॉलेज का यह हाल है कि उसे पता ही नहीं है कि मोना लीज़ा सरीखी कृति को,जिसे उचित ही अपने ढंग का संसार का महानतम शाहकार माना जाता है,पिकासो ने नहीं बल्कि पिकासो के नगड़दादा लेओनार्दो दा विंची ने बनाया था,उसे आइ.ए.एस. में घुसने किसने दिया ?

सवाल मात्र आइ.ए.एस. का नहीं है और न ठाकुर बाबू की (अ)योग्यता का.यदि मिथिलेश श्रीवास्तव चित्रकला को जानने और इस ब्लर्ब को संशोधित करने का दावा करते हैं तो उनकी निगाह से यह शर्मनाक ग़लती छूटी कैसे ? एक अजीब शक़ होता है कि या तो ठाकुर बाबू ने ‘इन ड्यू कोर्स’ मिथिलेश को ‘एक्सपोज़’ करने के लिए यह ब्लंडर लिखा या मिथिलेश ने उमेश बाबू को ‘पोस्ट फैक्टो’ विवस्त्र करने के लिए उसे जाने दिया.हम यह न भूलें कि बाबू ने Faecesbook (पुरीषंपुस्तक) के अपने ‘’status’’ पर मिथिलेश श्रीवास्तव की एकतरफ़ा निंदा की है.मिथिलेश चुप हैं क्योंकि एक बड़े बाबू के सामने अब गरिमाहीन टेलीफोन डिपार्टमेंट का एक मँझोला अफ़सर और कर भी क्या सकता है.यह कुछ-कुछ ‘’मुग़ले-आज़म’’ में पृथ्वीराज कपूर और दिलीप कुमार के डायलाग की सिचुएशन है.

लेकिन मामला और भी गंभीर है.हिंदी में शस्तियाँ न भी पढ़ी जाएँ,जब ‘पुतले पर ग़ुस्सा’ अन्य देशी-विदेशी भाषाओँ में जाएगी तो वहाँ के हिन्दीप्रेमी,प्राध्यापक और विद्यार्थी क्या कहेंगे ? कुछ  तो अपनी ठेठ भाषा में पूछेंगे कि क्या हिंदी में ऐसे भी चूतिये काम  होते हैं ? कोई दूसरा,कमतर कविता-संग्रह होता तो मैं इतना तूल न देता – हिंदी-संस्कृति आज देश की पतिततम भाषा-संस्कृति है – लेकिन मैं मिथिलेश श्रीवास्तव के इस उत्कृष्ट  संग्रह को इस तरह संदिग्ध या हास्यास्पद होते नहीं देख सकता.


पता नहीं किससे,लेकिन मैं माँग करता हूँ कि हिंदी कविता और साहित्य की जो भी गरिमा शेष है उसके  लिए, मिथिलेश श्रीवास्तव की प्रतिभा,काव्य-सक्रिय छवि और हित-रक्षा के लिए,प्रकाशक की अपनी इज़्ज़त के लिए और स्वयं बाबू उमेश बी.एस. चौहान आइ.ए.एस. की पद-प्रतिष्ठा,जैसी हैं जहाँ हैं, की हिफ़ाज़त  के लिए इस संग्रह को अविलम्ब बाज़ार से वापिस लिया जाए,इसका वर्तमान कवर नष्ट किया जाए और एक सावधानी से संशोधित ब्लर्ब के साथ उसे पुनर्मुद्रित किया जाए. विमोचन के दिन प्रियदर्शन,लीलाधर मंडलोई और रवीन्द्र त्रिपाठी तीनों  ने उम्दा वक्तव्य दिए थे,उनमें से किसी को भी या तो पूरा या उनमें से दो-दो पैरे भी इस काम के लिए लिए जा सकते हैं.इसमें कोई कोताही न हो.
________________________

(२)सदाशयबाबू का पाखण्ड 

vishnukhare@gmail.com

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  1. कहने की शैली बहुत डैमेजिंग है।लेकिन हमें इसके सार को ग्रहण कर थोथे को उड़ा देना चाहिए।

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  2. हाँ, लेकिन पिकासो वाली ग़लती हुई है, तो कवर रिप्रिंट करने की सलाह ग़लत तो नहीं है।

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  3. alochna kee bhasha maryadapurn honee chahiye

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  4. ऐसी बड़ी ग़लती का अविलंब सुधार किया जाना चाहिए...

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  5. लियोनार्डो द विन्ची की जगह पिकासो लिख जाने में मुझसे भयानक गल्ती हुई और इसके लिए भाई मिथिलेश श्रीवास्तव, प्रकाशक ‘शिल्पायन’ और पुस्तक के समस्त सुधी पाठकों से क्षमा माँगता हूँ और विष्णु खरे जी के इस प्रस्ताव का पूरी तरह से समर्थन करता हूँ कि उक्त कविता - संग्रह का ब्लर्ब बदल दिया जाय। पता नहीं मिथिलेश जी ने इस बार विष्णु जी जैसे अनुभवी ब्लर्बकार की सेवाएँ क्यों नहीं लीं और मुझ जैसे अज्ञानी बाबू से, जिसके पास ब्लर्ब लिखने का न कोई अनुभव था न उसके शिल्प का ज्ञान, उससे इसे लिखवा लिया। मैं हिन्दी के सुधी पाठकों से यह वादा करता हूँ कि यह मेरा पहला और आखिरी ब्लर्ब होगा।
    यहाँ इस टिप्पणी के लेखक विष्णु खरे जी जैसे विश्वविख्यात कवि की अतुल्य प्रतिभा (जिसका परिचय उन्होंने उस दिन मिथिलेश श्रीवास्तव की पुस्तक के कार्यक्रम में सृजनधर्मा कवियों की तुलना ‘6 - 6 बच्चे जन्मने वाली सुवरिया’ से करके दिया, जिसे मैं नहीं मानता कि तीसरे दर्ज़े के कवि भी डिज़र्व करते हैं), उनसे प्राप्त निन्दा, उनके द्वारा प्रशासनिक अधिकारियों के बारे में अभिव्यक्त की गई कुंठा आदि का मैं कोई उत्तर देना उचित नहीं समझता, क्योंकि इससे उनके कुत्सित उद्देश्य (यदि इस टिप्पणी के पीछे ऐसा कुछ है तो) की पूर्ति को बढ़ावा ही मिलेगा। जब उन्होंने पूर्व की अपनी एक प्रतिक्रिया में कविश्रेष्ठ गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर को नहीं छोड़ा, तो मुझ जैसे अनाम कुल - शील वाले हिन्दी - जगत के लिए लगभग अपरिचित कवि के लिए वे किस भाषा का इस्तेमाल कर सकते हैं, इसकी बस कल्पना ही की जा सकती है। उन्होंने लिखा था, - “गंभीर मसला यह है कि बांग्ला पाठकों को छोड़कर ठाकुर को अब मेरी ही तरह लगभग न कोई पढ़ता है, न पढ़ना चाहता है। … तथ्य यह है कि ठाकुर का समानधर्मा कवि ख़लील जिब्रान अब भी उनसे हजारों गुना ज्यादा खरीदा - पढ़ा जाता है, जबकि जिब्रान और ठाकुर दोनों को संसार के प्रासंगिक, वास्तविक साहित्य के क्षेत्रों में आज कोई बहुत गंभीरता से नहीं लेता।” अभी इस बारे में फिलहाल इतना ही, क्योंकि इस वक़्त इससे ज्यादा मेरे पास विष्णु खरे जी की टिप्पणी के लिए समय नहीं है। ki imaandar pratikriyaon ko shamil kiya jaaye !!

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  6. शशिभूषण द्विवेदी29 सित॰ 2014, 2:41:00 pm

    मैंने तो सुना है कि पिकासो वाली ग़लती खुद मिथिलेश श्रीवास्तव ने अपने इसी कविता संग्रह की एक कविता में की है. ऐसे में उमेश चौहान की ग़लती से बड़ी ग़लती मिथिलेश श्रीवास्तव की है. ख़ासकर तब जब उन्होंने खुद उस ब्लर्व को एडिट किया था. यह चूक कम, मूर्खता का मामला ज़्यादा लग रहा है. चूक उमेश चौहान से हो सकती है लेकिन इसके बाद ३-४ लोगों ने उसे देखा, ठीक किया होगा जैसा कि खुद मिथिलेश श्रीवास्तव मान रहे हैं कि उन्होने उसमें कतरब्योन्त की. यह कविश्रेष्ठ की सीमा है.

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  7. भाषाई घटियापने की हद है यह. यह आदमी नीचता के उच्चतम स्तर पर पहुँच चुका है और मुझे दुःख है कि अरुण देव जी उसकी इस भाषा को अपने गंभीर माने जाने वाले ब्लॉग पर जगह दे रहे हैं. ज्ञानपीठ के आयोजन में हम सबने देखा कि किस तरह एक अन्य आई एस आफिसर से निगाहें मिलते ही यह उनके साथ बाहर निकल गए थे. जिसका जीवन अवसरवाद का प्रतीक रहा हो, जो दलाली के न्यूनतम स्तर पर उतर कर अर्जुन सिंह पर कविता लिखता हो और बनारस जाकर एक गुंडे के पक्ष में प्रचार करता हो, पत्रकार के रूप में जिसे हमेशा एक ख़ुफ़िया एजेंसी का एजेंट माना जाता रहा हो और जिसकी भाषा सच में उन स्थानों की तरह गंधाती हो जहाँ सूअर रहते हैं, उसे कम से कम पहचान तो जाना ही चाहिए अब. अपने चेले चमचों के डैड दस पेज के ब्लर्ब लिखने वाला यह व्यक्ति इतनी कुंठाओं से भरा हुआ है कि इससे अब कोई उम्मीद करना सही नहीं.

    कविता का कार्यकर्ता जिसे यह बता रहे हैं, उसकी परम आत्ममुग्धताएं देखने की हिम्मत क्यों नहीं होती इनकी? क्यों नहीं दिखता कि हिंदी का यह अकेला आयोजक है जो न केवल हर आयोजन में खुद कवितापाठ करता है बल्कि अपने ही आमंत्रण पत्र में खुद को "वरिष्ठ कवि" लिखता है. ज़ाहिर है अपने चेले चमचों स्वजातीयों की ग़लती इन्हें नहीं दिखती.

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  8. खरेजी दो कौड़ी के सनसनीबाज की तरह व्यवहार कर रहे हैं. क्या यह हिंदी साहित्य का खरेनिर्मित सनसनीकाल माना जाए? आए दिन कहीं न कहीं अपनी कुंठित भाषा से लोगों को विकृत मनोरंजन प्रदान करते रहते हैं. अशोक जी से सहमत इस भाषा को इतने सम्मानित ब्लॉग पर जगह नहीं मिलनी चाहिए. खरेजी का साहित्यिक बहिष्कार किया जाना चाहिए.

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  9. कल समयाभाव के कारण कुछ जरूरी बातें नहीं कह पाया। विष्णु खरे जी की टिप्पणी में बार - बार ठाकुर बाबू का जिक्र आया है। यदि उन्हें यह पता चले कि जिसे वे ठाकुर जाति से संबद्ध कर रहे हैं, वह अपने को मनसा एक अनुसूचित जाति का सदस्य मानता है और उनके हक़ में कविताएँ और लेख लिखता है, तो वे क्या करेंगे? मैं उनकी इस संकुचित सोच और घोर जातिवादी टिप्पणियों की निन्दा करता हूँ। वैसे उनसे किसी सदाशयता की अपेक्षा शायद ही किसी को हो, मुझे तो बिल्कुल भी नहीं, किन्तु मैं उन्हें यह स्पष्ट कर देना चाहता हूँ कि मैं घोर सदाशयतावादी हूँ और मैंने अपना एक कविता-संग्रह ‘जिन्हें डर नहीं लगता’ (2009), किसी ‘विष्णु खरे’ के नाम समर्पित न करके ‘उस बची - खुची सदाशयता को, जिसके सहारे दुनिया टिकी है’ के नाम ही समर्पित किया है।

    शायद विष्णु खरे जी ने पढ़ा नहीं है - ‘to err is human’, या पढ़ा है तो फिर उसका मतलब नहीं समझा है और मोनालिसा की मुस्कान के मर्म को समझने के बजाय उसे रचा किसने यह खोजने की तरह, आज तक अपना सारा समय इसी में जाया किया है कि आखिर इसे कहा तो किसने कहा। खैर जिस दिन वे शब्द - परंपरा में निहित सदाशयता के मर्म को समझ लेंगे, वे इस तरह की अविवेकपूर्ण टिप्पणियाँ करना बंद कर देंगे (अतिरंजक प्रशंसाओं सहित), चाहे वे मेरे जैसे किसी तीसरे दर्ज़े के कवि के बारे में हों या फिर उनके द्वारा चिन्हित किसी पहले या दूसरे दर्ज़े के कवि के बारे में हों। खैर ‘सिद्ध्यसिद्ध्यो: समो भूत्वा’ जैसी मन:स्थिति वाले मेरे जैसे व्यक्ति के लिए विष्णु खरे की यह बात कि मैंने फेसबुक पर उस दिन बौखलाकर कोई टिप्पणी की थी या कोई मगरमच्छी ब्लर्ब - वेदना व्यक्त की थी, मुझे अत्यन्त हास्यास्पद लग रही है और मुझे तुलसीदास जी की इन्हीं पंक्तियों की ओर ध्यान दिलाने की इच्छा हो रही है – “बीरब्रती तुम्ह धीर अछोभा। गारी देत न पावहु सोभा॥”

    जहाँ तक रही आई.ए.एस. की नौकरी और बाबूगीरी की बात तो शायद उन्हें यह पता नहीं है कि नौकरी मैंने हमेशा अपने ठेंगे पर रखकर, हर जगह केवल सच्चे मन से लोगों की और विभाग की सेवा की है। रही बाबूगीरी की बात की बात तो उसके बारे में तो यही कहूँगा बाबुओं के बाबत उनकी धारणा या तो अख़बारी सुर्ख़ियों को पढ़कर या बाबुओं के संसर्ग में बनी होगी, जिनके साथ वे उठे - बैठे होंगे, मेरे साथ तो उनका कभी कोई संपर्क रहा नहीं।

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  10. अंत में नीचे उस फेसबुक कमेन्ट को उद्धृत किया जाना भी जरूरी लग रहा है, जिसने विष्णु खरे जी को इतना विचलित किया है। अब यह समझने की जिम्मेवारी लोगों पर ही छोड़ता हूँ कि मेरी वह फेसबुक टिप्पणी मगरमच्छी ब्लर्ब - वेदना थी या विष्णु खरे जी की यह टिप्पणी मेरे फेसबुक - कमेन्ट की वेदना है।

    “वर्तमान हिन्दी साहित्य की दुनिया के खेल बड़े ही निराले हैं। यहाँ विचारों और सिद्धान्तों का भ्रम - जाल बिछाकर आमजनों के सामने के सामने आदर्श और यथार्थ की बीड़ी सुलगाने वाले बहुत से छद्म चरित्र मिल जाएँगे। यदि कोई इस दुनिया में सहज और सरल भाव के साथ प्रवेश करना चाहता है, तो उसको तोड़ - मरोड़कर बिना किसी दयाभाव के किसी अनजान कब्रगाह में दफ़्न कर दिया जाता है। यहाँ ऐसे नामी कवि - आलोचक हैं जो एक तरफ तो उपेक्षा से त्रस्त होकर किसी युवा प्रकाशक के साहित्यिक शिविर के सार्थक आयोजन को ‘जंगल के नंगे नाच’ की संज्ञा देकर उसकी घोर निन्दा करते हैं, लेकिन मौका मिलते ही उसी प्रकाशक की क़िताब का विमोचन करने और उसके कसीदे पढ़ने भी पहुँच जाते हैं, और वह भी उन्हीं बड़े नामों की निर्लज्ज उपस्थिति में, जिनको उन्होंने सार्वजनिक रूप से जुतिया रखा हो। यहाँ ऐसे कवि भी हैं जो किसी बड़े आलोचक को किसी साहित्यिक पत्रिका के कार्यक्रम में बढ़ - चढ़कर भाग लेते देखकर लाख तरीके से यह पता करने की कोशिश करते हैं कि उसमें वह किस प्रकार की दुरभिसंधि कर रहा है, या अपना कौन सा हित साधने जा रहा है, किन्तु अगले ही दिन उसके साथ अपना स्कोर सीधा रखने के लिए उसे ही अपनी क़िताब के विमोचन के अवसर पर विश्वविख्यात कवि का दर्ज़ा देकर अपना मुख्य अतिथि बना लेते हैं। यहाँ जिस कवि को एक बड़ा साहित्यिक पुरस्कार मिलने पर कोई आलोचक तीखी और अभद्र आलोचना करता है, वह कवि उसी आलोचक को अपनी ‘राइट साइड’ में रखने के लिए अगले ही दिन उसे अपना सबसे बेहतरीन संसर्गी मानता हुआ सफलता की ताबीज़ की तरह अपने गले में लपेट लेता है। यहाँ वही आलोचक सर्वसम्मानित किया जाता है जो अपने बेलगाम आलोचना - कर्म के लिए ऐसे असामाजिक शब्दों का इस्तेमाल करता है जो उसे भीड़ में सबसे अलग और छुट्टा सांड़ की तरह ख़तरनाक बनाकर खड़ा कर दें, मसलन, कवियों के छपास - रोग की निन्दा करने के लिए वह उनके कविता - संग्रहों के छपवाने की तुलना ‘छह - छह बच्चे जन्मने वाली सुवरिया’ से करता है और मंचीय सत्कार के लिए अतिथियों का फूल देकर स्वागत किए जाने की पद्धति को ‘गीतकारों की भोंडी परंपरा’ कहकर निन्दा करता है और परोक्ष रूप से गीत - साहित्य की समृद्ध परंपरा का खुला अपमान करता है। कहने का मतलब यह है कि इस दुनिया में कोई भी कहीं भी खुले दरबार में द्रौपदी का चीर - हरण कर सकता है और उसे इस दुनिया के भीष्म पितामह व गुरुद्रोणगण तनिक भी विचलित हुए बिना सतत रूप से आस्वादित कर सकते हैं। मुझे तो कभी - कभी साहित्य के महाविष्णुओं की इस असहिष्णु दुनिया को दूर से प्रणाम कर लेना ही श्रेयस्कर लगता है, लेकिन फिर वही मजबूरी कि साहित्य और समाज से कटकर भी तो संतुष्ट नहीं हुआ जा सकता, सो झेलते रहो इनको और कहते रहो अपनी भी सीधी सच्ची!”

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  11. ज़रूरत है कि इस बदतमीज़ को भी ठेंगे पर रख दिया जाए. शुरू से ही इस व्यक्ति का मोटो रहा है-सनसनी पैदा करो और चर्चा में रहो. ज़रूरत है ऐसे लोगों को पूरी तरह से इग्नोर करने की. मुझे अफ़सोस है कि अरुण देव जी ने यह घटिया पोस्ट समालोचन पर लगाई है. बनाने में बहुत मेहनत लगती है, मिटाने में बहुत कम. समालोचन को गंभीर विषयों की अपनी खोज और उस पर चर्चाओं का दौर जारी रखना चाहिए न कि खरे जैसे किसी मसखरे की अनाप-शनाप को इस में जगह देकर इसे 'सनसनी' में बदलना चाहिए. जिस घटिया भाषा और कुत्सित मानसिकता का परिचय यहाँ खरे ने दिया है, वह कोई नया तो नहीं है पर उससे पता चलता है कि वह व्यक्ति किस तरह का मनोरोगी है. मिथिलेश श्रीवास्तव ने खरे को अपनी पुस्तक समर्पित किया, इसी से पता चलता है कि वे क्या चाहते होंगे. वे जो चाहते होंगे, वह उन्हें मिल रहा है.

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  12. एक मुद्दत बाद लैपटॉप खोला,बिस्मिल्लाह हुई एक दुर्भाग्यपूर्ण और अशोभन विवाद से. विष्णु खरे ने जो ताज़ा हमला उमेश चौहान पर किया है उसकी भाषा गंभीर रूप से आपत्तिजनक है। बड़े होने का अर्थ यह नहीं होता कि आप हर किसी को उसकी औकात बताते हुए घूमा करें। कविता के जनपद में हर छोटे बड़े मंझोले कद के कवियों को सांस लेने का पूरा हक़ है. मैंने न उमेश चौहान द्वारा लिखा ब्लर्ब पढ़ा है न मिथिलेश का काव्य संग्रह इसलिए उसपर कुछ कह नहीं सकता। हम सब मनुष्य हैं और सबके ज्ञान की सीमायें हैं ,विद्या विनय सिखाती है और असहमति को शालीन भाषा में भी व्यक्त किया जा सकता है. मैं साहित्य में व्यक्तिगत हमले करने का पक्षधर कभी रहा . इससे किसी का कोई भला नहीं होता

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  13. आदमी वास्तव में भीतर से जैसा है ऐसा बाहर दिख जाए तो उसकी ओर से एक उपकार ही समझना चाहिए. वहां अनिष्ट दिशाओं के संकेत मिलते हैं तो पता तो चल जाए कि सम्मान की या आदर्श के दर्शन की ऊर्जा इस जगह जाया करने की कोइ आवश्यकता नहीं....

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  14. पिछले दो तीन वर्षों में मैंने फेसबुक पर स्वनामधन्य साहित्यकारों को विमर्श के नाम पर सिर्फ गाली—गलौज करते देखा है और बेतरह शर्मिंदा हुआ हूं. आज एक बार फिर सही. काश! अरुण देव जी इस बदतमीजी भरे कुंठावमन को जगह देने से बचे होते. जिन्हें चिंता है कि हिंदी पट्टी से बाहर के पाठक हिंदी लेखन के बारे में क्या सोचेंगे, उन्हें यह जान लेना चाहिए कि हिंदी पट्टी के ही पाठक आपको भी एक बदजबान बजरंगी के सिवा कुछ नहीं समझते. यह हमारे आपके विमर्श का स्तर है. चुल्लू भर पानी में डूब मरने वाला.

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