फिल्म– बी.ए पास : सारंग उपाध्याय
महानगरों
के चमकते अंधेरों में बिखरते जीवन की कहानी
_____________अजय बहल की फ़िल्म बी.ए पास जिंदगी में फेल एक ऐसे युवा की फ़िल्म है जिस अंतत: अपनी देह से अपनी आजीविका कमानी है. अंग्रेजी लेखक मोहन सिक्का के कहानी संग्रह ‘डेल्ही नॉयर’ की लघु कथा ‘रेल्वे ऑंटी’ को आधार बनाकार इस फ़िल्म को रचा गया है. इसे ‘ओसिन सिने फेन फेस्टिएवल ऑफ एशिया एंड अरब सिनेमा’ में सर्वेश्रेष्ठन फिल्मर सहित श्रेष्ठ अभिनेता का पुरस्कार भी मिल चुका है. फ़िल्म समीक्षक सारंग उपाध्याय का यह समीक्षात्मक लेख आपके लिए.
रात के अंधेरों से लेकर, सूनी दोपहरों के अकेले घरों में
फोन बजाता “जिगोलो” आधुनिक
भारत के महानगरीय जीवन में घुसपैठ करता, बेहद चौंका देने वाला चरित्र है, जो इस
फिल्म में दिल्ली की प्रतीकात्मक पगडंडी से चलता हुआ, कई महानगरों के राष्ट्रीय
राजमार्गो द्वारा, संभ्रांत, धनी और प्रतिष्ठित घरों में घुसता है. जहॉं जीवन की
ऊब से दैहिक अवसाद में छटपटाती, मनोरंजन तलाशती महिलाऍं, पुरुषों की देह में
सदियों की बगावत झोंकती है. फिल्म “बी.ए पास” महानगरों में पुरुष वेश्यावृत्ति की
त्रासदियों, विडम्बनाओं में फँसे एक युवा की कहानी है.
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निर्माता, निर्देशक अजय बहल की फिल्म “बी.ए पास” बहुत ही कम लोगों को आसानी से देखने को मिली
होगी, स्वयं मुझे भी. इसे देखने का मौका लंबे इंतजार के बाद कल ही मिला. सिनेमा
घरों में यह “चेन्नई एक्सप्रेस” 09अगस्त के आने के कुछ दिन पहले, यानी 02अगस्त को रिलीज हुई थी. जाहिर है
एक्सप्रेस की रफ्तार में और “सत्याग्रह” के बेवजह आंदोलन की आहट में यह दर्शकों की जेब पर एक बोझ थी और उनके “मन” में भी पास नहीं हो पाई. फिर इसके “बोल्ड“ दृश्यों की ठीक-ठाक, औसत अफवाह से भी यह भेदभाव
का शिकार हुई, डिस्ट्रीब्यूशन के स्तर पर भी और दर्शकों की नजरों में भी. यह और
बात है कि दर्शक “ग्रैंड मस्ती” जैसी “हाफ फूहड पॉर्न” फिल्म से छले गए और परिवार के साथ पहॅुंचकर बीच से ही
पछताते हुए घर लौटे.
बहरहाल, बी.ए पास अंग्रेजी लेखक मोहन सिक्का के “कहानी संग्रह” डेल्ही नॉयर की लघु कथा “रेल्वे ऑंटी” पर बनाई गई है. कोलकाता में जन्में मोहन, भारत के कई शहरों में पले और बढे. उनके
पिता की नौकरी रेल्वे में थी. फिलहाल न्यूयॉर्क में रह रहे “कैमिकल इंजीनियर” मोहन रचनात्मक और सृजनशील हैं और उनकी पुरस्कृत सृजन यात्रा अनवरत जारी है.
फिल्म “बीए पास” पर्दे पर उनका पहला दृश्यात्मक परिचय पडाव है. रितेश शाह के स्क्रीन प्ले
ने इसमें कमाल रच दिया है.
यह फिल्म महानगरों की चुँधियाती जिंदगी के नीचे फैले स्याह
अंधेरे का, कसमसाता, बैचेन और रेंगता घिनौना यथार्थ है. भद्र समाज के शिष्ट आचरण की
परतों में ढकी पुरूष वेश्यावृत्ति और उसकी त्रासदियों का कडवा आचमन है. मॉं-बाप
के मरने के बाद मुकेश अभिनेता (शादाब कमाल) दादाजी की पेंशन के भरोसे अपनी भुआ के यहॉं दिल्ली
पहॅुंचता है, और बहनें एक दूसरे शहर के हॉस्टल में. रोजाना रहने और खाने के नाम
पर भुआ के घर में पडते ताने, युवा मन को छेदकर उसकी आत्मा को चीरते हैं, मुकेश घर
के कामकाज कर श्रम का मरहम बनाता है और अपनी आत्मा की दरारों को भरता है. श्रम का
सौंदर्य संतोष से ज्यादा स्वाभिमान को सींचता है, लेकिन बिना पारिश्रमिक का श्रम
दूसरों के लिए मनोरंजन होता है और खुदके लिए गुलामी. अर्थ के अभाव में अहसान तले याचक
हो जाना मुकेश के जीवन की स्वाभाविक वृद्धि को कुंद और मंद कर देता है.
निर्देशक अजय बहल पात्रों के लक्षणों से उनके जीवन
की त्रासदी रचते हैं. मुकेश कॉलेज में अपने अस्तित्व को
बिखरते हुए देखता है- बैग्राउंड में संवाद चलता है, वह कहता है- “इंग्लिश, एकाउंट्स, साइंस हिस्ट्री, कोई एक सब्जेक्ट नसीब में पढना नहीं था, नसीब में था बी.ए पास, सब की खिचडी” यह आवाज उसके बिखरते जीवन की प्रतिध्वनि है. वह कब्रिस्तान के सन्नाटे में आवाज करती हवाओं के बीच, कब्रों पर बैठकर अकेला शतरंज खेलने लगता है. कब्रिस्तान में बैठकर “द मूव्स ऑफ ग्रैंड मास्टर कास्प्रोव” की किताब पढता है. वह मर रहे मन में कब्रिस्तान पर छाई नश्वरता से जीवन के फूल खिलाता है. शतरंज के खेल में जिंदगी की बाजी तलाशता है. वाकई में यह सभी दृश्य निर्देशक की प्रयोगशाला में कला का श्रंगार है.
बिखरते हुए देखता है- बैग्राउंड में संवाद चलता है, वह कहता है- “इंग्लिश, एकाउंट्स, साइंस हिस्ट्री, कोई एक सब्जेक्ट नसीब में पढना नहीं था, नसीब में था बी.ए पास, सब की खिचडी” यह आवाज उसके बिखरते जीवन की प्रतिध्वनि है. वह कब्रिस्तान के सन्नाटे में आवाज करती हवाओं के बीच, कब्रों पर बैठकर अकेला शतरंज खेलने लगता है. कब्रिस्तान में बैठकर “द मूव्स ऑफ ग्रैंड मास्टर कास्प्रोव” की किताब पढता है. वह मर रहे मन में कब्रिस्तान पर छाई नश्वरता से जीवन के फूल खिलाता है. शतरंज के खेल में जिंदगी की बाजी तलाशता है. वाकई में यह सभी दृश्य निर्देशक की प्रयोगशाला में कला का श्रंगार है.
वे यहीं से फिल्म की घटनाओं को चुनना और बुनना शुरू करते
हैं. मुकेश की मुलाकात कब्रिस्तान में मुर्दो के लिए ताबूत बनाने वाले उसके पहले
दोस्त जॉनी से होती है. एक महानगर, जीवन से परे मृत्यु की दरगाहों के बीच, यहीं से
उसका पहला परिचय लेता है. “जॉनी उसके बैग की तलाशी लेता है तो, मुकेश बोलता
है- “तलाशी क्यों ले रहो हो? मैं क्या चोर हूँ.” तब जॉनी बोलता है- “यह दिल्ली है, यहॉं अच्छे टाइम में फ्लैट कटते हैं, बुरे टाइम में जेब कटते
हैं और खराब टाइम में गले.”
भुआ के घर बर्तन मॉंझता, पानी और चाय पिलाता मुकेश, एक दिन वहॉं
आई, उसके फूफा के बॉस की पत्नी और दैहिक असंतोष से कसमसाती स्त्री सारिका खन्ना
(अभिनेत्री शिल्पा शुक्ला) की ऑंखों में सशरीर कैद हो जाता है. वह मुकेश को सेब की पेटी लेने के बहाने उसके
घर बुलाती है. निर्देशक अजय बहल प्रतीकों के माध्यम से दर्शकों को यथार्थ का रहस्यमय
परिचय कराते हैं. सारिका की सास दरवाजे पर खडे, सहमे मुकेश को अपनी बहू के बारे
में परिचय देते हुए कहती है- “यहॉं से चले जाओ, वह डायन है तुम्हे बर्बाद कर
देगी.” यह दृश्य सहज बैठे दर्शक के मन में उथल-पुथल
मचाता है.
महानगरीय सभ्य समाज के भीतर की परतों में बेहद धीमे पॉंव आ
रही विकृति, विद्रूपता और अंधे, दिशाहीन परिवर्तनों को यह फिल्म बहुत ही हौले से
सामने लाती है. यहीं से शुरू होता है, पति से उपेक्षित, उसकी उदासीनता का शिकार,
वैवाहिक जीवन में अविश्वास से घायल व पति के किसी दूसरी स्त्री से लगातार अवैध संबंधों
के कारण ऊपजी, एक स्त्री की भयावह कुंठा का दैहिक अवसाद और उसके प्रति विरोध.
सारिका मुकेश के साथ दैहिक संबंध बनाती है. निर्देशक ने
बेहद बोल्ड दृश्यों को भावनात्मक उत्तेजना के साथ लिपटी एक स्त्री की संवेदना
और एक युवा की लाचारगी के साथ फिल्माया है. हॉं, कुछ दृश्य परिवार के साथ बिल्कुल
भी नहीं देखे जा सकते, किंतु यह निर्देशन की खूबसूरती है कि ऐसे दृश्य, फिल्म की
कहानी में पूरी नजाकत के साथ जुडते जाते हैं और परत-दर-परत दिल्ली के तथाकथित संभ्रात,
प्रशासनिक सेवाओं में लगे और अन्य प्रतिष्ठित तबके के घरों की पिघलती अस्मिता
को बहाते हुए दिखाते हैं.
मुकेश जल्द ही सुनसान घरों में बेवजह बजने वाला सबसे महत्वपूर्ण
नंबर हो जाता है और अकेली नदी की तरह बिछी, बह रही स्त्री के लिए किराये का बॉंध,
जहॉं वेग और बहाव को थामने का अच्छा पैसा मिलता है.
सारिका के साथ दैहिक संबंधों में मुकेश के जीवन को गला रही
आर्थिक विपन्नता और अभाव, कोमलता, सहानुभूति, विद्रोह और आत्मसम्मान के साथ
शामिल होते हैं. यहीं से फिल्म एक ऐसे सफर पर निकल पडती है, जहॉं हमारा समाज एक
अजीब से परिवर्तन के मुहाने पर बैठा मिलता है. एक ऐसी विद्रूपता के साथ जहॉं स्त्री
जीवन का संकोच, लिहाज, आत्मसम्मान,शर्म और स्वयं वह, पता नहीं जीवन के किन
गलियारों में भटकती अपने अस्तित्व की सार्थकता तलाश रही है.
दीप्ती नवल का फिल्म में आना और बिना कुछ किए बस आकर बस
चले जाना, घुप्प अंधेरे में रोशनी की तिली की तरह होता है.
मुकेश पुरुष वेश्यावृत्ति की अंधी गलियों में निकल पडता
है. जहॉं उसे हिकारत दर्शाती भुआ की तुलना में, सम्मान से देह बेचकर अपनी बहनों
को दिल्ली लाकर साथ रहने का विकल्प चमचमाता दिखता है. उसकी बहनें उसके मोबाइल पर
होस्टल के वॉर्डन की अंधेरी दुनिया की भयावह छाया का दहशत भरा प्रतीक है. जहॉं स्त्रियों
की देह किराये पर चलती है, और उनकी मर्जी बेमोल बेच दी जाती है.
पुरुष वेश्यावृत्ति के रास्ते निकल पडा मुकेश जल्द ही इसके
भँवर में डूबने-उतरने लगता है. भुआ के लडके की उपेक्षा उसकी अलमारी में जमा देह
बेचकर जमा किए गए श्रम (पैसे) पर पडती है. अर्थ इस दौर में मनुष्य की चेतना है,
बिना अर्थ के उसकी आत्मा में कोई हरकत नहीं बची. बाह्य और आंतरिक जगत पैसे के
महीन धागे पर भटकती मुक्ति का दर्शन रच रहे हैं. वह पैसे सारिका के घर सुरक्षित
रखने पहॅुंचता है. चमडी और खून के अलावा समय को नोंच कर लाभ पाना, आभासीय दुनिया का
यथार्थ है. पैसे रखने की अंतिम मुलाकात में वासना की डुबकी मुकेश और सारिका दोनों को
उसके पति (अभिनेता राजेश शर्मा) के सामने ले आती है.
सच अपने पैरों खडा होता है, एक भयानक, क्षत-विक्षत, घायल, खीजे
व चिढे हुए चरित्र के साथ, इस दृश्य को निर्देशक अजय बहल ने “सेक्स” से परे मनुष्य के भीतर चल रही दुनिया का दृश्य
बना दिया है. वाकई में यह अद्भत है. मुकेश वहॉं से भाग जाता है. पति की नौकरी पर
बनीं आंच से घबराई भुआ, मुकेश को घर से निकाल देती है. वह बिना पैसों के भटकता,
जॉनी के घर पहॅुंचता है. खीजता, धोखे से लहुलुहान मुकेश का मोबाइल अब अच्छे–खासे,
जाने-पहचाने घरों में रॉंग नंबर बन जाता है, और वह खुद सारिका के घर में घुसने
वाला चोर, क्योंकि दिल्ली में उसका खराब समय शुरू हो जाता है.
उधर, लगातार फोन से दहशत पैदा कर रहीं बहनें दिल्ली की ओर
निकल पडती है. मॉं-बाप की मौत को धोखा मानने वाला मुकेश, बहनों के लिए छत चाहता
है. उसे सारिका से एक और धोखा मिला है. वह बस पैसे चाहता है, कैसे भी? अवैध, अनैतिक और रोजाना, हर क्षण में अलग-अलग बन रहे दैहिक संबंध आत्मा की धवलता में कालिख पोतने की
तरह है. पैसे के लिए “जिगोलो” बना युवा मुकेश “गे” का चोला धारण कर, स्याह रात में फुदकती रोशनियों के बीच, देह और धन का
विनिमय करता है. वह लूट लिया जाता है. इस व्यवस्था में दैहिक संबंधों का अजीब व्यापार
करने वालों से.
लाचारगी की सीलन में लिपटा, थका-हारा मुकेश अपने दोस्त जॉनी
को पैसे लेने के लिए सारिका के यहॉं भेजता है. जॉनी मॉरीशस जाना चाहता है. वह दिल्ली
की दुनिया में अवसर की तलाश का शिकारी है. उसका अवसर उसे मिल गया है. लौटकर वह
अपने धोखे की केंचुली सारिका पर उतारता है. पूरी बारीकी के साथ, मुकेश की दोस्ती
के परे.
व्यवस्था के कई रास्ते जीवन की मानवीय गंध को अजीब से अवसाद
में कैद कर देते हैं और यह गंध सडांध में बदलने लगती है. मुख्य धारा से दूर, आत्मा
को गलाकर उसे गंदी नाली में बहाती.
सारिका से दूसरी मुलाकात फिल्म, निर्देशक और दर्शकों के मन
को टटोलती है, उसे मथती है. दोस्त जॉनी की बातों में आया मुकेश सारिका की सारी
बातों को धोखा समझता है और उसके पति के सामने उसे छुरा घोंपकर भाग जाता है. वह
भागता है, भागता है और केवल भागता है, जो इस दौर के भटकते युवा का प्रतीक है. वह भागकर
उस कमरे में पहॅुंचता है, जहॉं अवसर के शिकार पालते महानगर का एक और शिकारी, शिकार
करके अपनी मंजिल की ओर रवाना हो चुका है.
महानगरीय जीवन की त्रासदी और संताप, घरों में कैद स्त्री
के दैहिक असंतोष, अवसाद में जी रहीं स्त्रियॉं, भटकता युवा, देह में देह के लिए,
पैसों के लालच में बनें, लिपटे लिजलिजे संबंध, इस देश के फैलते बडे शहरों की और व्यवस्था
की अंधी, दहशत भरी भयावह सच्चाई है. जिसका अंत स्टेशन पर भाई का इंतजार करती
बहनों के धुंधले भयाक्रांत भविष्य में और पुलिस से भागते एक युवा का आत्महत्या
के वरण में कहीं दिखाई पडता है.
इस फिल्म के कैमरामैन भी स्वयं अजय बहल ही हैं,
जाहिर है वैसा प्रवाह भी दृश्यों के भीतर दिखाई पडता है. दिल्ली का पहाडगंज और
उसकी गलियॉं डर के साथ मन में कौतुक जगाती है. सारिका खन्ना के रूप में शिल्पा शुक्ला
ने किरदार की चुनौती स्वीकार की है. वे बधाई की पात्र हैं, ऐसे पात्र का चयन करना
कई बार मुश्किल होता है. मुकेश के रूप में शादाब कमाल नये नहीं जान पडते. भुआ, बेटे
के रूप में गीता शर्मा, और उनके बेटे के रूप में अमित शर्मा का अभिनय प्रवाह की
तरह परिचय देता है. जॉनी के रूप में दिब्येंदु भट्टाचार्य यादगार रहेंगे.
मुश्किल से डेढ़ घंटे की यह फिल्म एडल्ट है, इसलिए महानगरों
की तुलना में कस्बों, शहरों के पर्दे पर दर्शकों को सहज निमंत्रण नहीं दे पाई.
बावजूद इसके, विदेशी फिल्म उत्सवों में इसने अपनी उपस्थिति दर्ज कराई है. इसे “ओसिन सिने फेन फेस्टिवल ऑफ एशिया एंड अरब सिनेमा” में सर्वेश्रेष्ठ फिल्म सहित श्रेष्ठ अभिनेता का
पुरस्कार मिल चुका है. फिल्म ने इस दौर की व्यवसायिक मानकों को भी चुनौती दी है
और महज दो करोड में बनने के बाद लागत से दो गुना ज्यादा ही कमा चुकी है.
बहरहाल, इसे एक फिल्म के रूप में तो देखा ही जा सकता है,
साथ ही महानगरीय जीवन और समाज के बदलते चेहरे के रूप में भी. जहॉं घरों में कैद स्त्रियों
की दैहिक कामनाऍं हैं, भटकता अभावग्रस्त युवा है, उसकी अर्थहीन और विवेकहीन मृत्यु
है, जो उसने अपने ही “मैं” के बोझ से दबकर, विद्रूप होते जीवन की गूँजती चीख से मरकर
चुनी है. जो जीवन की रौनक से दूर कब्रिस्तान की खामोशी में चहक रहा है और मृत्यु
की उदासी में उत्सव के क्षण तलाश रहा है.
सारंग उपाध्याय
विभिन्न प्रतिष्ठित पत्र – पत्रिकाओं में संपादन का अनुभवकविताएँ, कहानी और लेख प्रकाशित
फिल्मों में गहरी रूचि और विभिन्न वेबसाइट्स और पोर्टल्स पर फिल्मों पर लगातार लेखन.
sonu.upadhyay@gmail.com
Very well n thoughtfully reviewed..
जवाब देंहटाएंमैंने यह फिल्म देखी थी तो कई उलझनों में सिमटकर रह गया था. यह समीक्षा उन उलझनों से निकालने की दृष्टि से मूल्यवान है. अब दुबारा इस फिल्म को देखना होगा ताकि ठीक से समझ सकूँ.
जवाब देंहटाएंवैसे पहली प्रतिक्रिया यही थी कि यह एक बेहतरीन फिल्म बनी है.
behtreen aaklan
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छा लिखा है सारंग। इस तरह की समीक्षा की बहुत जरूरत है।
जवाब देंहटाएंशायद ही यह फिल्म देखने को मिले.लेकिन बिषय बहुत बोल्ड है.महानगरो की सभ्यता में ये चीजे आम होती जा रही है.इसी बिषय पर बहुत पहले जगदंबा प्रसाद दीषित का उपन्यास ..दो मुर्दो के बीच गुलदस्ता..लिखा गया है.जो उस दुनिया के कठिन और दिलचश्प अनुभव को बयान करता है.बहुत तेजी से यह दुनिया बदल रही है.कहां किसका उपयोग कर लिया जा रहा है.हम इसे अपने सामने देख रहे है..बडे लोगो के दिमाग वेश्यावृति कर रहे है.कोई देह बेच रहा है कोई दिमाग.आप दिल्ली में है आप सब जानते होगे...
जवाब देंहटाएंनिलय सर, बहुत बहुत शुक्रिया, यह आपसे पहली मुलाकात का उत्साह है जो सृजन में तब्दील हो रहा है.. मुंबई कब लौट रहे हैं मिलने की बहुत इच्छा है.
जवाब देंहटाएंसारंग जी, किसी भी व्यस्क फिल्म को लेकर देखने की उत्कंठा के पीछे मुख्य आकर्षण बोल्ड सीन ही होते हैं. ये एक आम भारतीय जिज्ञासा है जो सेक्स में मुक्ति और सेक्स के लए युक्ति तलाशती है. आपकी समीक्षा पढ़कर फिल्म को देखने और आपकी कलम दृष्टि को आजमाने की लालसा जगी है, हालाँकि देह के अपने संदेह होते हैं. एक समय था जब लोग बाज़ार से पैसा कमाकर देह पर खर्च करते थे, पर अब देह ही पैसा कमा रही बाजारू सुख के लिए. जिस्म अब एक उपभोगीय उत्पाद हो गया है, ज़ाहिर है इसमें भी गुणवत्ता तिथि में उपभोग पश्चात उत्पाद बदलने की संभावनाएं हैं....बहुत बढ़िया आकलन है तुम्हारा...संभावनाओं भरा...
जवाब देंहटाएंएक टिप्पणी भेजें
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