सहजि - सहजि गुन रमैं : अनूप सेठी








भवानीप्रसाद मिश्र की एक प्रसिद्ध कविता है 'गीत फरोश', जिसमें किसिम- किसिम के गीतों के बाजारवाद पर मारक चोट है. वरिष्ठ कवि अनूप सेठी ने 'कविओं की बजाजी' शीर्षक से एक लम्बी कविता लिखी है ज़रा मंचीय प्रस्तुतीकरण की शैली में. इसमें समकालीन कविओं का भी ज़िक्र है, ज़ाहिर है समकालीन कविता पर तो लिखा जा सकता है पर कविओं पर लिखना भारी जोखिम का कार्य है. बहरहाल उन्होंने यह खतरा उठाया है वह भी कपड़ा बेचने वाले एक बजाजी के दिलचस्प अंदाज़ में. 






एक पात्रीय काव्य-नाटिका
कवियों की बजाजी                    
अनूप सेठी

यह एक पात्रीय काव्य नाटिका है. गोष्ठी, सभा, सेमिनार, संगोष्ठी से पहले किसी सधे कलाकार द्वारा इसके अभिनटन का विधान है. इससे सभा  गोष्ठी की सफलता असंदिग्ध है. हिंदी कविता की दीर्घायु कामना के हित इसका मंत्राभिषेक किया गया है. अत: यह मंत्रशक्ति स्यूत वाङ्मय है.  अत: यह फलित काव्य है. श्रद्धापूर्वक इसका अभिनटन, वाचन एवं श्रवण श्रेयस्कर है. केवल लुच्चा आलोचक ही इसे हास्य कविता कहेगा. इसमें प्रांजल खड़ी बोली के साथ पंजाबी भाषा का प्रयोग रंग संकेतों के रूप में या भाव संकेतों के रूप में हुआ है. यह प्रयोग यथावत् रहना चाहिए. यह प्रयोग इस मंत्र की अश्व-शक्ति वर्धन का कार्य करता है.  

(बस एं मन्नो भई जिमें खुंदक खा के खोल बैठे आं असीं कवियां दा बजार. अर्ज कीता ऐ.)


ले गया गुलजार
बना के यार ...
जुलाहे के वारिस क्या टापते रह जाएंगे ?

कबीर ने बुनी चदरिया झीनी
बाकी भी हैं लगे बुनाई में
जितनी है आंख में बीनाई

वैसे तो ऐसे भी कहां कम हैं जो
जाएं हरिभजन को और ओटन लगें कपास
बहुतों के यहां होगा सूत न कपास और जुलाहे से लठ्ठम लठ्ठा

(धन्नबाद. अरदास तुसीं सुण लई.
आओ, हुण तुहानू असीं अपणे समान दी बानगी दस दइये.
जरा ध्यान नाल.)

चकाचक लठ्ठा बनाते थे केदारनाथ अग्रवाल
हाथ के सूत की खादी मिलेगी नागार्जुन के ढिग
रेशम के कारीगर थे वात्स्‍यायन
भारती कनुप्रिया को ढूंढते चले गए शहतूत के पेड़ों तले

रॉ सिल्क मिलेगी केदारनाथ सिंह की कविताई में
ढाका की मलमल पानी भरेगी कवियों के कवि शमशेर के आगे

त्रिलोचन ने पत्ता-पत्ता चुना और बटा जीवन पर्यंत
सेल, बग्गड़, मुंज, सण, पटुआ, जूट
तंतु, धागों, डोरियों, सुतली, रस्सियों, रस्सों में कसा अनादि काल से हालिया हाल
अपने हाथ से बुनी खाट पर सपाट
गुंजाए सॉनेट सारे जनपद में 

पट्टेदार सुथन्ना पहन के हरचन्ना मिलता है रघुवीर सहाय के कन्ने

गफ मारकीन के मास्टर हैं विष्णु खरे
तान लो तंबू महायुद्धों में चाहे गिलाफ लिहाफों के

बंद गले का ऊनी कोट बनाते लीलाधर
जो विचार की तरह चला गया था कोई गरम कोट पहन कर
वह विनोद कुमार शुक्ल के यहां का वाकिया है
यह तो जगूड़ी की खड्डी का है तकली से बनी देसी ऊन का मोटा और गदगदा और गर्म

पसीने से छीजी हुई बंडी बुनते हैं मंडलोई

हैरत नहीं गर हाथ में सिलाइयां लेकर आ जाएं वीरेन और ऋतुराज
कात्यायनी कहेंगी रुको रुको ऊन के गोले की गुंझलक को तो सुलझा लेने दो

राजेश जोशी ने हैंडलूम
ज्ञानेंद्रपति ने हैंडप्रिंट
मंगलेश ने वेजिटेबल कलर बिखेरे
करघा करघा करते आ जाएं असद
विजय कुमार के यहां रात पाली में चलती पावर लूम



(बादशाहो, हुण जरा इद्धर ध्यान देयो)

कुंवर जी का सेल्फ डिजाइन
विनोद शुक्ल की छींट महीन

विजेंद्र का जयपुर से भगवत रावत का भोपाल से
कुमार विकल का चंडीगढ़ वेणुगोपाल का हैदराबाद से
सीधा माल आता है हमारे पास
, यह दिल्ली में नहीं मिलता
हमीं हैं होलसेलर


(दसणा साह्डा फर्ज है)
साहब चारखाना है मजबूत
रंग पक्का धो के सिकुड़ेगा नहीं
हां पटने के आलोक धन्वा का एक जमाने में
गोली दागो पोस्टर की नाईं चलता था
सर्दी गर्मी में सिर पर गमछा
अब दिल्ली में बैठ लिए हैं परमानैंट
यहां तो टोप कनटोप घटाटोप सब चल जाता है


(छड्डो जी.
कैंह्दे ने, नां च की रक्खेया ऐ.
तां एह वेखो)

पॉलिएस्टर कॉटन जीन और खाकी
जार्जट फुलालेन शनील के सदके
एक से एक हसीन और महीन कीमियागर हैं
रफ टफ मोटे सोटे भी कम न हैं मालिक

जरा तशरीफ तो रखिए हुजूर
हर जमाने की चीज रखते हैं 

(अरज कीता ऐ )

हम कबीर के वारिस 
बीच बजार सजाकर हाट
किस्म किस्म की लिए बजाजी
खिदमत में बैठे हैं 

अपनी पसंद की चीज हो तो ले के जाना हुजूर
न जमे तो लात जमाना हुजूर
अब यही है दस्तूर
नापसंगी हो जाती है कुसूर
भवानी भाई के जमाने में चल जाता था
घूम घूम कर गीत बिक जाता था
अब घुन्नों का बिकता है
बिका हुआ ही टिकता है
अपना कुछ बाकी बचा ही नहीं
जो है सब सजा दिया है साहब
लेकिन यकीन करें
जैसा चाहिए वैसा मिलेगा साहब

(हुण कुछ जरूरी गल्लां)



चेतावनी
नक्कालों से रहना सावधान
ओरिजनल का ठप्पा देखना मत भूलना
वरना खादी के नाम पर मिल की मिक्स्ड खादी खूब चलती है
रॉ सिल्क केदार ब्रांड है पर एक जमाने में एक साथ कई भाई बुनते थे
विष्णु खरे की मारकीन को ठप्पा देखने के अलावा
धो पछीट सुखा कर परखें
लोकल माल जगह जगह मिलता है



खास फरमाइश पर
हम आपको गिरिजा माथुर दुश्यंत धूमिल सर्वेश्वर के कंबल दे सकते हैं
ठंड में काम आएंगे
पुराने हैं पर चलते हैं
इसलिए दस टका ऊपर से लगता है
पर फिकर नौट
राजकमल चौधरी या विजयदेव साही या रमेशचंद्र शाह
के परने उपरने बोनस में मिलते हैं



कुछ नायाब नमूने सदाबहार
नीर और बदली के सुच्चे काम वाले महादेवी के शॉल
असली पेड़ पत्तों वाले पंत दुशाले
प्रसाद की ऐतिहासिक राजसी धोतियां
निराला के तुलसी और राम रंग पगे अंगरखे

(इन्हां नूं हत्थ न लाणा मैले हो जाणगे)



एक्सक्लूसिव शेल्फ
मुक्तिबोध का स्पैशल कपास, कच्चा सूत, बटे हुए धागे, डोरियां,
सेमल, सन के टुकड़े, झोले, बोरियां,
गमछे, लीरड़े, नेहरू, गांधी मार्क्स के झब्बे और चोगे
यूं समझो कि उस्ताद की हर चीज सजा दी है हमने दिल से



स्पैशल ऑफर
पुराना लठ्ठा खादी सिल्क
लेंगे तो नए जमाने के फैंसी रुमाल बानगी के तौर पर मिलेंगे
(न जी, इन्हां रुमालां दे ब्रांड हाले नईं बणे)
जब भी इन्हें हाथ में लेंगे
ये मेरी पीढ़ी मेरी पीढ़ी का म्यूजिक निकालेंगे



एक और चेतावनी
यह हमारा आईएसओ सर्टिफाइड
हिंदी कविता बजाजी शोरूम है
यहां आने पर आपकी शान बधेगी

यूं हर गली कूचे में कविता कपड़े का ढेर पड़ेया मिलेगा
कई तो पंड बन्ह के गली गली भी घुम्मते हैं
पर देख लीजिए
टेस्ट आपका जोखिम आपका
आगाह करना हमारा फर्ज है
मानना न मानना आपका हक है

अलबत्ता माल हम बिल के साथ देंगे
भूल चूक लेना देना उस पर छपा हुआ है
गारंटी देना हमारी खानदानी खूबी है
आगे मर्जी आपकी
आखिर हर बंदा अपनी मर्जी का मालिक होता है

(हुण अक्खां बंद कर लओ. तिन्न वरी लम्मे लम्मे साह् लओ.
ते सारे लोकी मिल के मेरे नाल एह उवाज कड्डो)
हो...  हो... हो...
(जोर नाल. खाणा नीं खाह्दा है)
हो... हो... हो...
(हां ऐस तरहां)
(धन्नबाद)  

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बी-1404, क्षितिज, ग्रेट ईस्टर्न लिंक्स, 
राम मंदिर रोड, गोरेगांव (प.), मुंबई 400104.
 मोबाइल : 0 98206 96684. 
ईमेल: anupsethi@gmail.com 

अनूप सेठी की कुछ कविताएँ यहाँ देखीं जा सकती हैं 

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  1. bhai arunji .....itihaas rach gayee ye kavita .pl..Anup ji ko mera salaam pahunchaven .arse baad ek aise kavita padhi jisme hamari mitti ki gandh durgandh hai...gard hai....no worlds...great

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  2. बहुत सुन्दर प्रस्तुति!
    वन्देमातरम् !
    गणतन्त्र दिवस की शुभकामनाएँ!

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  3. अनूपजी,तुस्सी तो कमाल कित्ता ए! (पंजाबी नहीं आती,सो भूल-चूक लेनी-देनी)
    बहुत पहले,जगूड़ी जी की एक कविता आई थी जिसमें उनके समकालीन कवियों का ज़िक्र था.

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  4. अरे भाई कमाल का धंधा करते हो , क्या माल , क्या वेरायटी और क्या बेचने का हुनर ! दुकाण में जगा हो तो थोडा सा लेटेस्ट माल और मंगा लो वरना ये यार लोग गली में घुसने नहीं देंगे. नाइंटी का माल , दो हज़ार का माल , दो हज़ार दस का माल . एक पे एक फ्री वाला माल. होशियार कर रिया हूं . बाद में मत कहना

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  5. आपणा ते जी बाग़ बाग़ हो गया .. बोली दी सोंधी सोंधी खुशबू ते मिट्ठी मिट्ठी तासीर ! मुबारकां !

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  6. क्या कहूँ ,कुछ कहा न जाय .......

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  7. anoop ji ki kavitayen dekhta raha hoon..aaj samalochan me unhe padhkar aanad aa gaya..anoop ji ko sadhuad aur arun tumhe badhai

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  8. kavitaon kee bunai me sabhi kvi bun diye .. achha laga..

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  9. बेहद खूबसूरत मौलिक और हमें सजग करती हुई व इतिहास की तरह से दोधारी भी...

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  10. अद्भुत्त, शानदार, कमाल की कविता है। लेकिन दुकान छोटी लगती है। माल कम है। पंजाब के किसी गाँव की दुकान की जगह यह दिल्ली बम्बई का शो रूम होता तो अच्छी सेल होती। विजय कुमार जी ठीक कह रहे हैं, कुछ लेटेस्ट माल भी चाहिए। वैसे आजकल रेडिमेड का फ़ैशन है। मैं मुग्ध हो गया हूँ कविता पढ़कर।

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  11. कमाल की कीमियागरी ...
    हम कबीर के वारिस
    बीच बाजार सजाकर हाट
    किस्म-किस्म की लिए बजाजी
    खिदमत में बैठे हैं ....

    इस अद्भुत खिदमतगारी का लख -लख शुक्रिया ...
    चप्पा -चप्पा चरखा चले ..शुभकामनाओं के साथ

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  12. अरुण जी, आभार. आपने इस कविता को प्रकाशित करने का 'जोखिम' ले ही लिया. जबकि कई ख्‍यात पत्रि‍काओं के संपादकों को इसे छापने में हिचक हुई. कवियों पर कविताएं पहले भी लिखी गई हैं. यह 'कविकुल' पर अलग से अंदाज में है. मित्रों को पसंद आई और उन्‍होंने अपनी राय भी दी, आभारी हूं.

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  13. adbhut aur ekdam alag se vinyas ki cheez hai ye, ispar gahrai se likhna hoga, kai baar padhna hoga doobna hoga

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  14. kabir ke karghe par bhaant bhaant ke vastr, bhaant bhaant ke design. Lochan sukhi or man ki seevanon ko udhedti bunati yeh kavita . kavi Anup or Arun ji, dono ko bahut bahut vadhai.
    Ek sukhad Paath.

    Dr Kailash Ahluwalia
    Chand`igarh

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  15. यह क्या किया अनूपजी ?अपनी कविताई पर ही डामर पोत दिया.यह समय कविता के लिए मजाक का समय नहीं है.
    आग्नेय

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  16. गीतफ़रोश 'मैं' की जिम्‍मेदारी के साथ व्‍यंग्‍य करती है...उसका अनूप जी की इस कविता से उतना साम्‍य नहीं बैठता। हां,ये अलग है, गंभीर रूप से विचारणीय है... मैं देख रहा हूं कि हर जगह खिलंदड़ापन नहीं है- कुछ अंश टीसते भी हैं इसमें। लेकिन कुल मिलाकर एक सम्‍यक प्रभाव नहीं बनता....या शायद मैं देख नहीं पा रहा। यह भी कि निराला महज तुलसी और राम-रंग पगे न थे....उनकी मनुष्‍यता के लिए विराट छटपटाहट यहां तनिक भी व्‍यक्‍त न हो पायी - यह बहस का एक बिंदु हो सकता है, ऐसे और भी हैं....

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  17. मज़ेदार कविता बुनी है, भांति-भांति के धागों से.

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  18. मज्जा आ ग्या जी....खूब जबर्दस्त कवित्ता कित्ति ए अनूप जी ने तो....
    सुनीता

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  19. itni bahter,nai tarah ki kvita ke liye bdhai.is kavita ki behtreen bat yah hai ki anup ji ne kvita me shamil sbhi kviyon ke vicharon, unke mood ko bhi samjha hai. itna hi nhin kavita me unhone kabir se lakar jin ka bhi jiker kiya hai unki kavitaon ki koi na koi khubi bhi samne la di hai. mohan theog .h.p

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  20. Badhiya Bajaaji hai :) Nice idea. Kaafi mercerised hai :) iska ek khaddarpane wala vikalp bhi chahiye :) ekdum "Paash" wale tevar mein. Bada mazaa aayega :) Sirf gauge type ke kaviyo ko unki jagah chhod dijiyega... warna Rishto ke lihaaj mein parde ke kapde ka istemaal zyaada ho jaayega. Great going... Sasneh aur saadar. Anshumali Jha

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  21. कविता में बजाजी अच्छी है, कवि अपने अंदाज़ में कातता - बुनता है. किस्म किस्म की कविताओं में बजाज गुण - दोष देखता परखता है.

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