आधी दुनिया का सवाल कभी उठाया ही नहीं गया. अक्सर अनदेखा किया गया, टाला गया और गलत ज़बाब दिये गए. भारत में आज यह सवाल जरूरी सवाल है. अब और टालमटोल नहीं. स्त्री मुद्दों पर अरसे से लिख रही सुधा सिंह का आलेख जो दिल्ली के जघन्य बलात्कार और हत्या के प्रसंग में आधी दुनिया के सवालों को बड़े परिप्रेक्ष्य में उठाता है और कुछ ठोस सुझाव रखता है.
क्यों मारी जाती हैं अनामिकाएँ
इस जाते हुए साल के अंतिम दो हफ़्तों में पहली बार स्त्री के मुद्दे पर
राष्ट्रीय एकता का प्रदर्शन भारत की जनता ने किया. दिल्ली से लेकर अन्य शहरों और
गांवों तक में इसकी गूंज सुनाई पड़ी. मुद्दा 16 दिसंबर की रात दिल्ली की मुनिरका
बस स्टॉप से एक प्राइवेट बस में सवार होनेवाली लड़की के साथ बर्बर सामूहिक
दुष्कर्म के बाद उसे और उसके दोस्त को घायल करके नग्न अवस्था में नीचे फेंक देने
का है. उस लड़की जिसे हम अनामिका कहेंगे कि मौत हो गई. लेकिन इस घटना के बाद भी
जबकि जनता का सैलाब पूरी दिल्ली समेत अन्य शहरों को आंदोलित किए हुए था, ऐसी और
इससे मिलती-जुलती कई घटनाएं सामने आईं.
इन्हीं धरने-प्रदर्शनों में शामिल हममें से कोई इस तरह के यौन-उत्पीड़न का शिकार
हो रही थी और इन्हीं में शामिल हममें से कोई यौन-उत्पीड़न में भागीदार था. क़ानून
और संस्थाओं का वही मर्दवादी रवैय्या निकल कर आ रहा था. इन सबके बीच कहीं पुलिस,
कहीं परिवार, कहीं समाज, कहीं जाति, कहीं धर्म और अन्य शक्ति के संस्थाओं का वही
रूप निकल कर आ रहा था जिसकी तस्दीक सदियों से हमारा पुंसवादी समाज करता आ रहा है.
अनामिका का दाह-संस्कार 29 दिसंबर 2012 को कर दिया गया. 16 दिसंबर से 30
दिसंबर तक ये घटना मीडिया में प्रमुखता से छाई रही. लोग घरों से निकले. एक बहुत
बड़ा दवाब सरकार पर दिखाई दिया. आज भी लोग जंतर-मंतर और रामलीला मैदान में बैठे
हैं.
मेरा सरोकार इस बात से है कि इस तरह की घटनाएं जिनकी किसी भी सभ्य समाज में
जगह नहीं होनी चाहिए भारत में आम क्यों है? कहाँ है वो लोग जो भारतीय
सभ्यता-संस्कृति-परंपराओं की दुहाई देते हैं, इनके नाम पर स्त्री के
पांवों में बेड़ियाँ डालते हैं, उसके अरमानों का गला घोंट देते हैं, उसकी इच्छाओं को आकार नहीं लेने देते?
आज 31 दिसंबर,2012 को कुरुक्षेत्र में एक इंजीनियरिंग की छात्रा से सामूहिक
दुष्कर्म की ख़बर है तो जयपुर में एक नाबालिग इसी तरह की हिंसा की शिकार हुई है.
तमाम स्रोतों से भर्त्सनाओं के बाबजूद आज फिर एक एम एल ए बनवारीलाल सिंघल (बीजेपी,
राजस्थान)कह रहा है कि लड़कियों पर कपड़ों की पाबंदी की लगा देनी चाहिए.
इसमें यह चीज समझने की है कि हम जिस तरह के समाज में रहते हैं वह भिन्नताओं से
भरा समाज है लेकिन उसकी मानसिकता में भिन्नताओं का नकार शामिल है. उनका मातहतीकरण
शामिल है. उन्हें हजम कर जाना शामिल है. यह भिन्नताओं के साथ सह-अस्तित्व का समाज
नहीं है. जिस वातावरण में घरों में लड़के-लड़कियाँ बडे होते हैं उसमें लड़की के हर
स्तर पर बलात्कार की संस्कार शामिल हैं. यह सब इतना महीन है कि अलग से फ़र्क करके
देखना कई दफे असंभव होता है. वर्तमान सामाजिक ताने-बाने में स्त्री के साथ किया
गया व्यवहार और परंपराएं बहुत स्वाभाविक लगने लगती हैं. इनके बाहर देखना बहुत
मुश्किल होता है. इन सबसे बाहर निकलती औरत अजूबा लगती है.
हम जब पैदा होते हैं तभी विचार लेकर नहीं आते, विचार प्रदत्त नहीं अर्जित होते
हैं और इस अर्जन में कई तरह के अनुभवों को कोडिफिकेशन शामिल है. ये अनुभव सामाजिक
अनुभव होते हैं, इनके कोडिफकेशन के निर्माण और इसके अर्थ के समझने की प्रक्रिया
में हम एक संसार में दाखिल होते हैं जहां इन कोड्स के जरिए एक प्रतिसंसार बनता है,
जिसमें हम अपने अनुभव व्यक्त करते हैं, दर्ज़ करते हैं. इस प्रतिसंसार में स्त्री
का अनुभव उसका अर्थ न के बराबर रजिस्टर होते हैं.
यही कारण है कि स्त्री, एक नागरिक के अधिकार से संपन्न होने के बावजूद सामाजिक
व्यवहार और रवैय्ये में भिन्न क़िस्म का बर्ताव झेलती है और वह स्वयं भी और उसके
साथ, उसके लिए आज मशाल लेकर धरना-प्रदर्शन करनेवाले साथी भी इन व्यवहारों को
परिवार के अंदर सहज मानकर या तो चुप रहता है, हो जाने देता है अथवा कहीं न कहीं
उसमें शामिल होता है.
बहुत दुख के साथ मैं कहूँगी कि मुझे आज अनामिका की मौत के बाद स्त्री के पक्ष
में उठ खड़ा यह आंदोलन चेतना के स्तर पर केवल गहरे दुख-दर्द-पीड़ा और सहानुभूति से
उपजा दिखाई देता है. मेरी नज़र में यह तथाकथित भारतीय नवजागरण का एक तरह काअधूरा
रिवाइवलिज़्म है. खेद के साथ कहना पड़ रहा है कि भारत में स्त्री के हूक़ूक़ की
लड़ाई की कोई सुदीर्घ मजबूत परंपरा नहीं है. हम सियासी तौर पर मिले स्त्री-अधिकारों
को भी सही तरीक़े से लागू करने में असफल रहे हैं. कारण एक है –स्त्री चेतना और
स्त्री-संघर्षों की मज़बूत राजनीतिक उपस्थिति का अभाव. सभी सियासी पार्टियों की
स्त्री-शाखा है. पर उनका काम स्त्री के पक्ष में जागरुकता पैदा करना या उसके हक़ों
के लिए निरंतर संघर्ष करना न होकर अपनी पार्टियों के लिए महिला वोटों का जुगाड़
करना भर है. यह अस्मिता की राजनीति है, अस्मिता का सशक्तिकरण नहीं.
2011 में 7 हजार से ज्यादा बलात्कार के केस दर्ज़ हुए. यह संख्या बाद के
वर्षों में क्रमशः बढ़ी है. बीते साल ढाई लाख के आस-पास यौन-उत्पीड़न के मामले
समाने आए. ध्यान रखा जाना चाहिए कि कोई वारदात आंकड़ों में तब तब्दील होता है जब
उसको किसी सरकारी या क़ानूनी रजिस्टर में लिख दिया जाता है. ऐसे दर्ज हुए अपराधों
से कहीं बड़ी संख्या उन अपराधों की है जो स्त्री के खिलाफ घटित तो हुए हैं पर कहीं
दर्ज नहीं हुए. मां की विवश पीड़ा, पिता-भाई और अन्य रिश्तेदारों की झूठी इज्जत की
आड़ में परे धकेल दिए गए. ये मामले पीड़ित स्त्री की, स्त्री होने की संवेदना को
भी कुंद कर गए ताकि उसे एहसास न हो कि उसके साथ कुछ ग़लत हुआ है. यह सब स्त्रियों
की नियति है, परिवार में ऊँच-नीच घटता रहता है, अब बताओगी तो वैवाहिक जीवन में दरार
पैदा हो जाएगी; कुछ ऐसा ही समझाया जाता है. घर की बात घर में
रह जाती है. घर के अंदर स्त्री, मां और अन्य भूमिकाओं में उन्हीं वर्चस्व के
मूल्यों को स्वीकार कर लेती है जिसका विरोध वह बाहर सड़क पर करना चाहती है.
मेरी एक मित्र ने पूछा कि जब लड़की इस तरह के यौन उत्पीड़न की घटनाएँ अपनी माँ
को बताती है तो माँ क्यों नहीं विश्वास करती? मैं उसे क्या जवाब दूँ कि
माँ क्यों नहीं विश्वास करती? वास्तव में माँ अपनी बेटी की बात पर विश्वास
करना नहीं चाहती, यह अनजान बनकर या लड़की की बात पर अविश्वास करके ही संभव है.
दुखद है कि भारतीय परिवारों में माँ-पिता, विशेषकर माँ की भूमिका विशेष कर्तव्यों
की पूरक के रूप में ही प्रशंसनीय है. वह परिवार के अंदर स्वयं मातहत की भूमिका में
होती है. उसकी राय पति की राय से बनती-बिगड़ती है. उससे अलग व्यक्तित्व की उम्मीद,
स्त्री के पक्ष में खड़ा होने की उम्मीद करना अभी मुश्किल है. जब तक संबंधों की
पवित्रता पर आंच ना आए या कोई क्रूर-हिंसक स्थिति न पैदा हो, आम तौर पर तब तक मां
अपनी बेटी के साथ खड़ी नहीं दिखाई देती.
मैं एक सवाल और रखना चाहती हूँ. इस उद्वेलित माहौल में जितनी घटनाएं मीडिया के
द्वारा सामने लाई जा रही हैं वे सब स्त्री पर यौन-उत्पीड़न के केवल एक पक्ष को
सामने ला रही हैं. सार्वजिनक स्पेश में अनजान लोगों द्वारा हिंसक यौन-उत्पीड़न की
घटनाएं ही खोज-खोजकर सामने लाई जा रही हैं. पर घरों के अंदर, संबंधों के बीच जो
कुत्सित घटनाएं घटती हैं, उन पर बात नहीं हो रही है. कारण कि इसके संदर्भ में
पितृसत्ता का सारा सड़ा-गला ढ़ाँचा हमारे सामने नंगा हो जाएगा. उन सब पर बात करनी
पड़ेगी.
स्त्री के संदर्भ में पितृसत्ता का मोडस-ऑपरेंडी बड़ा महीन तरीक़े से काम करता
है. कई बार इसका प्रदर्शन पिता –भाई-चाचा नहीं करते बल्कि मां-बहन-भाभियां-चाचियाँ
करती हैं और वह समान रूप से क्रूर होता है. यह स्त्री-चेतना के अभाव और
पितृसत्तात्मक मूल्यों का स्त्री द्वारा आत्मसातीकरण से संभव होता है. इस नृशंस
यौनिक हिंसा की घटना के बाद भी जो बयान आ रहे हैं, वे स्त्री की सुरक्षा को लेकर
हैं. पितृसत्ता भी दावा करता है कि स्त्री की सुरक्षा के सर्वाधिक सुरक्षित आजमाए
हुए उपाय उसी के पास हैं. पितृसत्ता का दूसरा एजेंडा है अभिभावकत्व. इसके लिए
सुरक्षा का सवाल, घर के बाहर का सवाल है. घर के अंदर उदार अभिभावकत्व विराजमान है; जिसके दिल में अपनी चिरैया, गौरैय्या, गैय्या, सुगना आदि-आदि के लिए प्यार का
समंदर है. इसी प्यार के नाम पर अभिभावकीय के दायित्व बोध के तहत स्त्री के चयन और
निर्णय की निजी नागरिक स्वतंत्रता का अपहरण किया जाता है. माता-पिता-भाई एक जैसे
चिंतित होते हैं स्त्री के घर से बाहर रहने पर, देर से आने पर. घर से बाहर रहने की उसकी अवधि का अपहरण सुरक्षा की दृष्टि से अत्यंत सहज लगता
है. अभिभावकीय बोध के कारण यह मान लिया जाता है कि एक बालिग लड़की को अपना
हित-अहित नहीं मालूम, वह अपने फैसले नहीं ले सकती, अपने लिए सही-ग़लत का विचार
नहीं कर सकती, अतः उसके पक्ष से उसके जीवन के निर्णायक फैसले लेने का हक़ अभिभावक
को है. स्त्री के प्रति इन पितृसत्तात्मक विचारों का प्रसार अन्य सामाजिक
संस्थानों में सहज ही देखा जा सकता है.
यह पितृसत्तात्मक विचारों का प्रतिफल है कि स्त्री की इज़्ज़्त की बात करते
हुए इस शब्द को उसकी गरिमा और अस्मिता से नहीं जोड़ा जाता बल्कि परिवार, समाज
,जाति, धर्म, नस्ल और राष्ट्र से जोड़ा जाता है. भारतीय स्त्री, यूरोपीय स्त्री,
हिन्दू स्त्री, मुसलमान स्त्री, अरब औरतें जैसे संज्ञावाचक वैशेषिक शब्दों की आड़
में स्त्री की अस्मिता, स्त्री का बोध गौण हो जाता है और भारतीय, यूरोपीय, हिन्दू,
मुसलमान, अरब जैसी संज्ञाएं अपने विशेष संदर्भों के साथ चमकने लगती हैं.
महत्वपूर्ण यह देखना भी है कि आधुनिकता का प्रकल्प, जिसने मुक्तिकामी और
विकासमूलक शक्तियों के साथ हाथ मिलाकर मध्यकालीन व्यवस्था, बोध और संस्थाओं को
ध्वस्त कर अपनी राह बनाई स्त्री के संदर्भ में उसके सबसे बड़े उत्पीड़क-दोहनकर्ता,
पितृसत्ता और पितृसत्तात्मक मूल्यों को क्यों नहीं पछाड़ पाया? सामंती व्यवस्था के ख़ात्मे के साथ पितृसत्ताक मूल्यों को भी धराशायी होना था, पर ऐसा नहीं हो पाया. मोटे तौर पर इसका एक कारण तो विभिन्न समाजों में आधुनिकता
के विकास की विभिन्न विषम स्थितियाँ हैं लेकिन आधुनिक समाजों में भी स्त्री की
स्वायत्ता और मुक्ति की पिछड़ी स्थितियों को देखते हुए इतना सपाट जवाब संभव नहीं
है. अस्मिताओं की मुक्ति के नाम पर स्त्री का वस्तुकरण एक समस्या है.
पूँजीवाद ने जिस जन-संस्कृति को जन-उपभोग के लिए पैदा किया उसमें पुरानी
सभ्यता और संस्कृति के परंपरित रूप अत्यंत फूहड़ नजर आते हैं. इसने एक तरफआभिजात्य
रूपों को पहुँच से बाहर बनाकर और दूसरी तरफ वैश्विक के अंदर स्थानीयता का बोध पैदा
करने के नाम पर लोक-परंपराओं और संस्कृतियों को भदेस ढंग से पुनरुत्पादित किया.
जिसका नमूना ‘जलेबी बाई’, ‘चिकनी चमेली’, ‘हलकट जवानी’, ‘शीला की जवानी’, जैसे सांस्कृतिक उत्पाद
हैं. इसप्रक्रिया में सबसे आसान लक्ष्य स्त्री की छवियों का रूपायन बना.
सांस्कृतिक उत्पादों को तेजी से पैदा करनेवाला सबसे अहम उद्योग आज के दौर में
जन-माध्यम हैं. इसमें टेलीविजन मुख्य है. अपने रोजमर्रा की खपत के लिए तैयार
सांस्कृतिक उत्पादों में यह पूरी तरह पितृसत्तात्मक मूल्यों को पोषित करता है.
न्यूज़-व्यूज और मनोरंजन– इन तमाम प्रस्तुतियों में एक खास तरह का यथा-स्थितिवाद
है जो एकता कपूर के धारावाहिकों से लेकर ‘सनसनी’ जैसे कार्यक्रमों में दिखाई देती है.
जन-माध्यमों की भाषा, इनका नजरिया सब कुछ सामाजिक शक्ति-संतुलन के अनुरूप है.
इसमें स्त्री के संदर्भ में सेक्स के बाजारीकरण ने अपने तरीक़े से योगदान किया है
बल्कि कहें कि स्त्री के एक सामाजिक इकाई के रूप मेंअस्तित्व के लिए, असहिष्णु-आक्रामक
वातावरण का निर्माण किया है. सेक्स और नशे के कारोबार का गहरा संबंध है. समाज में ‘सेक्स’ कोई ऐसी चीज नहीं कि जिस पर बात न होती रही हो
या जिस पर लिखा-रचा-गढ़ा न गया हो!‘सेक्स’ और ‘सेक्सुअलिटी’ हमेशा से ही आकर्षण का
केन्द्र रही है, विशेषकर स्त्री-सेक्सुअलिटी. लेकिन यह हमेशा पॉवर डिस्कोर्स के
अंतर्गत पुरुष के संदर्भ से व्याख्यायित की जाती रही है.
अब तक यह माना जाता रहा कि 'सेक्स' वह है जो पुरुष करते हैं. स्त्री के 'सेक्स' की हमेशा अनदेखी हुई. स्त्री का सेक्स हमेशा
अतिक्रमित करने लायक, आघात पहुँचाकर हासिल करने लायक, जबरिया पहल करने लायक माना
गया. स्त्री के इस संदर्भ में प्रतिरोध को उसका स्वीकार समझा गया. यह नजरिया
यौन-उत्पीड़न के कई मामलों में न्यायधीशों के फैसले तक का हिस्सा बनी. कहीं कहा
गया कि जींस पहनी हुई लडकी से पुरुष कैसे बलात्कार कर सकता है, या जब बलात्कार किया
जा रहा था तो स्त्री चिल्लाई क्यों नहीं? अर्थात् प्रतिरोध नहीं किया, चुप थी, तो यह
यौन-उत्पीड़न स्वीकार था. सामाजिक चेतना में कहीं गहरे पैठा हुआ है कि
सेक्स के मामले में स्त्री का उत्पीड़न करके ही पुरुष को आनंद मिलना संभव है. यह
स्थित कभी संभव ही नहीं हो पाई कि स्त्री के लिए भी पुरुष का दैहिक संसर्ग आनंद की
स्थितियाँ पैदा करनेवाला हो सके, स्त्री के इस संदर्भ में अनुभवों की कोई अहमियत
हो. शायद इसमें पुरुष सेक्स के खारिज किए जाने का गहरा भय शामिल है.
स्त्री के प्रति आक्रामक सामाजिक व्यवहार का एक बड़ा उत्स है- पोर्नोग्राफी.
आज इसका वीडियो-सीडी और फिल्मांकन की दुनिया में बहुत बड़ा अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार
है. पोर्नोग्राफी की भाषा और दृश्य, बर्बर आदिम इच्छाओं का रूपायन होते हैं. इसमें
सभ्यता के विकासक्रम में अर्जित समस्त शिष्ट आचरण ध्वस्त किए जाते हैं. इसमें इस
तरह के दृश्य और भाषिक संयोजन किए जाते हैं जो अलग-अलग मानसिकता वाले लोगों को
संतुष्ट कर सकें.
हमारे सुरुचि और सामाजिक संस्कार को तराशने वाले सूक्ष्म-महीन से लेकर बाजारू,जितने
भी माध्यम हैं- मसलन कविता, गीत, चित्र, जन-माध्यमों की प्रस्तुतियाँ, सभी
स्त्री-यौनिकता के दमन और पुरुष कामुकता के दबंग प्रदर्शन की कसीदाकारी हैं. आर्थिक सुरक्षा से जुड़े पुरुष-प्रयासों को 'सेक्स' कहा गया यह उसके पौरुष के दायरे में शामिल हुआ.किन्तु इसी के लिए किए गए स्त्री
के प्रयास को' सेक्स' नहीं माना गया. अद्भुत विरोधाभास है कि एक तरफ
तो स्त्री को स्त्रियोचित गुणों को धारण कर महान बनने को महिमामंडित किया गया; स्त्रीत्व को बनाए रखने की सलाह दी गई;सुंदर दिखना स्त्री के लिए आवश्यक
अर्हता बना दी गई; कई काम के क्षेत्रों में सुंदर और आकर्षक और
जवान होना-दिखनान केवल स्त्री के लिए आवश्यक है बल्कि उसकी आर्थिक सुरक्षा से भीजुड़ा
हुआ है.वहीं, दूसरी तरफ उसके कपड़ों, सौंदर्य-प्रसाधनों, यौवन तक को उसके प्रति
होने वाले यौनिक अपराधों और हर पल घटित होने वाले आक्रामक व्यवहार के लिए
जिम्मेदार बताया गया! छींटाकशी, यौनिक इशारे, अश्लील हरकतें, घूरती
निगाहें स्त्री के प्रति बहुत आम आक्रामक सामाजिक व्यवहार का हिस्सा हैं! जिन्हें आम तौर पर स्त्रियां नहीं बतातीं. नजरअंदाज करती हैं; पर जो उनके साथ रोज होता है.
पुरुष के आनंद के क्षण को घर या बाहर सृजित करना कभी काम के दायरे में नहीं
आता लेकिन स्त्री पर यौन-उत्पीड़न के लाइसेंस के रूप में उसे जरूर मान लिया जाता
है.
यह समय गहरे आत्म-मंथन और सामाजिक मंथन का है. अब स्त्री के लिए संस्थाओं के
यथा-स्थितिवादी रवैय्ये से काम नहीं चलनेवाला. समाज, परिवार, क़ानून,
शिक्षा-व्यवस्था में आमूल-चूल बदलाव के साथ–साथ स्त्री के प्रति पारिवारिक रवैय्ये
में भी बदलाव की जरूरत है. चूँकि स्त्री बनाने के कारख़ाने का मुख्य कल हमारा
परिवार ही है तो स्त्री के प्रति रवैय्या बदलने की शुरुआत भी वहीं से होनी चाहिए.
परिवार के अंदर स्त्री को लेकर नजरिए में बदलाव सबसे अहम इसलिए हैं कि कई बार
सरकारी सुविधाओं की मौजूदगी भी परिवार की आर्थिक-सामाजिक जरूरतों और पाबंदियों पर
भारी पड़ता है. लड़की को घरेलू कामों में लगा दिया जाता है, उसके खेलने और पढ़ने
के समय को काटकर उस पर घर में छोटे भाई-बहनों के पालन-पोषण की जिम्मेदारी सहजता से
डाल दिया जाता है, इसके अंदर लड़की को भविष्य की घरेलू जिम्मेदारियों के लिए
प्रशिक्षित करने का पवित्र अभिभावकीय उद्देश्य शामिल होता है, कहीं स्कूल-कॉलेज होने पर भी किशोरवय में उसकी
शादी कर दी जाती है क्योंकि यही सामाजिक-जातिगत परंपरा है!
इसके साथ ही स्त्री की शिक्षा और राजनीति में ज़्यादा से ज़्यादा भागीदारी को भी सुनिश्चित किया जाना चाहिए. तैंतीस प्रतिशत क्यों पचास प्रतिशत आरक्षण होना चाहिए, उसमें चाहें तो आरक्षण के भीतर आरक्षण की समाजवादी पार्टी की मांग को शामिल कर लें! अगर वास्तव में हम स्त्री उत्पीड़न की निरंतर बढ़ रही घटनाओं से पीड़ित हैं और सरोकार महसूस करते हैं तो राजनीतिक तौर पर लंबित इस क़दम को शीघ्रताशीघ्र उठाया जाना चाहिए. स्त्री-सशक्तिकरण के लिए परिवार-शिक्षा और राजनीति, ये तीन महत्वपूर्ण क्षेत्र हैं, जिन पर निरंतर काम करने की जरूरत है. इसके साथ ही यौन-उत्पीड़न के ख़िलाफ सख़्त से सख़्त क़ानून बनाने चाहिए. यौन-उत्पीड़न से जुड़ी हत्या में दुर्लभ से दुर्लभतम मामले का प्रावधान कर फाँसी की सजा से भी परहेज नहीं किया जाना चाहिए. अन्य मामलों में भी अत्यंत सख़्त क़ानून बनाएं जाने चाहिए जो स्त्री के प्रति आक्रामक व्यवहार पर रोक लगा सकें.
संचार माध्यम, साहित्य और स्त्री आलोचना पर कई
पुस्तकें प्रकाशित
ज्ञान का स्त्रीवादी पाठ, जनमाध्यम सैद्धांतिकी, स्त्री-कथा, स्वाधीनता संग्राम हिंदी प्रेस
और स्त्री का वैकल्पिक क्षेत्र, साझा
संस्कृतिः भारतीय फासीवाद का स्त्री-प्रत्युत्तर,
स्त्री-काव्यधारा,
भूमंडलीकरण और ग्लोबल मीडिया,
मीडिया प्राच्यवाद और वर्चुअल यथार्थ, मध्यकालीन साहित्य विमर्श आदि
एसोशिएट प्रोफेसर, मीडिया और पत्रकारिता,
हिन्दी विभाग, दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली-7
ई पता : singhsudha.singh66@gmail.com
बेहद सार्थक और सटीक प्रतिक्रिया है।
जवाब देंहटाएंएक बेहद जरूरी आलेख, सामयिक और सटीक, लगभग हर पहलू पर अच्छी जानकारी एवं सुझावों के साथ आई हैं सुधा जी, शुभकामनायें , शुक्रिया अरुणजी
जवाब देंहटाएंजरुरी हस्तक्षेप ..सुधा जी अकेली नहीं हैं,कोई भी स्त्री अकेली नहीं है।
जवाब देंहटाएंपितृसत्ता के मोडस ऑपरेंडी को तोड़ना बेहद जरुरी है। एक विशस सर्कल है -यहाँ तंत्र है, पुरानी व्यवस्थाएं हैं,अनुकूलन है,पृष्ठभूमि में खड़ी एक मानसिकता है,भयानक रूप से दिखाई देता वर्ग विभेद है ..एक साथ कई अस्मिताओं का संघर्ष है जो किसी भी तरह से इस विशाल जन समूह को फोकस नहीं होने देता, इसलिए लगभग सभी आन्दोलन क्षणिक प्रतिक्रिया की तरह आते हैं, कोई कॉन्क्रीट समाधान नहीं निकालता.
सुधा जी आभार ..इस तरह के लेख हमारी ऊर्जा को बनाये रखने में सहायक हैं।
हमारे समय के बहुत ज़रूरी सवालों को समग्रता में समझकर देखने, विश्लेषित करने और आगे की राह दिखाने वाला बहुत ज़रूरी आलेख है। बधाई सुधा जी को।
जवाब देंहटाएंबेहतरीन सामयिक , सार्थक और सटीक आलेख......सुधा जी को बधाई
जवाब देंहटाएंसुधा सिंह जी ने मौजूदा घटना के परिप्रेक्ष्य में स्त्री-उत्पीड़न ओर स्त्री-अस्मिता के सवालों को बहुत गहराई जाकर विश्लेषित किया है। उन्होंने जहां इसे पितृसत्तात्मक मूल्यों और परिवार, जाति, धर्म आदि से जुड़ी अस्मिताओं के जोड़कर देखा है, वहीं आधुनिक जन-संचार की बाजारू मानसिकता, स्त्री के वस्तुकरण और सार्वजनिक जीवन (राजनीति और प्रशासन) में स्त्री के साथ बरते जा रहे भेदभाव, उसके सही प्रतिनिधित्व के अभाव और स्त्री-सशक्तिकरण की अधकचरी व्यवस्थाओं को बेहतर ढंग से व्याख्यायित किया है। अपने आलेख का समाहार करते हुए उन्होंने जिन तीन बुनियादी क्षेत्रों - परिवार, शिक्षा और राजनीति के क्षेत्रों में स्त्री की भूमिका को निर्णायक बनाने पर बल दिया है, वहीं मैं इस बात पर भी बल देना जरूरी समझता हूं कि सार्वजनिक सेवाओं के क्षेत्र में भी स्त्री की भागीदारी को पचास प्रतिशत तक सुनिश्चित किया जाना जरूरी है, ताकि पुरुष सत्ता के वर्चस्व को नियंत्रित किया जा सके। इसके अलावा वर्तमान दुर्भाग्यपूर्ण घटना के विवेचन में उन सार्वजनिक परिवहन व्यवस्था, पुलिस प्रशासन की संवेदनहीनता और राजनीतिक व्यवस्था की अदूरदर्शिता पर और भी बहुत सी बातें हैं, जिन पर बहुत डिटेल्स में जाकर इस समस्या को समझने और उसका स्थाई हल निकालने की जरूरत अपनी जगह अब भी बनी हुई है।
जवाब देंहटाएंलेख बड़ा सारगर्भित ,तथ्यपूर्ण ओर विद्व़त्तापूर्ण है ।इस में व्यक्त विचारों से मैं पूर्णत: सहमत हूँ ।
जवाब देंहटाएंसामाजिक(जिसमे पारिवारिक और आर्थिक दोनों पहलू आते हैं)मानसिक और राजनैतिक सभी पहलुओं से स्त्री की दशा को दिखाता एक महत्वपूर्ण आलेख| मैं यह बात मानते हुए कि सारे विश्व की पुरुष मानसिकता एक हो सकती है, इस बात से सहमत नहीं हूँ कि सारे विश्व की स्त्रियों की दशा एक जैसी है हाँ बात पश्चिमी देश बनाम शेष विश्व कही जा सकती है| पश्चिम में जहाँ स्त्री की असहमति और उसकी रिपोर्ट ही बलात्कार है वहीँ बाकी दुनिया और विशेषकर भारत और अरब में स्त्री इच्छा का कोई महत्त्व ही नहीं है जहाँ शारीरिक और मानसिक उत्पीडन को बहुत सामान्य रूप में लिया जाता हो और उसे नियति मान कर आगे बढ़ जाने के संस्कारों को धीरे-धीरे संस्थागत कर दिया गया हो , बेहतर है की हम इस सच को भी देखते चलें कि कहाँ स्त्रियों की हालत ज्यादा खराब है और कहाँ ज्यादा अच्छी ...ताकि यदि हमारे काम के हों तो हम उन स्त्रियों के अनुभवों से सबक लें सकें जो आज ज्यादा आज़ाद है ज्यादा बेहतर हालात में हैं|
जवाब देंहटाएंबहरहाल एक बहुत गहराई से आधुनिक स्त्री विमर्श के हर पहलू को छूता हुआ सुधा सिंह जी का यह आलेख निश्चित ही समसामयिक है और विषय के समग्र चिंतन की अपेक्षा करता है , इसके लिए समालोचन और सुधा सिंह जी का बहुत बहुत आभार |
वाकई बहुत बारीकी सी सवालों को उठाया गया है और साथ ही संभावित एवं कारगर उपाय क्या होने चाहिए इस ओर भी इशारा किया गया है |
जवाब देंहटाएंस्त्री से जुड़े लगभग हर सवाल पर विमर्श करता हुआ एक पठनीय और हर तरह से उपयोगी लेख !
जवाब देंहटाएंबहुत ही महीन विश्लेषण प्रस्तुत करता सार्थक हस्तक्षेप की तरह लगा यह लेख. मेरा मानना है कि इंडिया गेट और जगह-जगह प्रदर्शन के अलावा इस तरह के लेख और वार्तालाप की अधिकाधिक गुंजाइश पैदा की जाए.क़ानून जब बने तब बने पर हमारी अक्ल पर औरतों को लेकर जो पर्दा पड़ा हुआ है, वह जितना जल्दी उठ जाए, उतना ही अच्छा.बधाई सुधा जी को और समालोचन को!
जवाब देंहटाएंबहुत ही सूक्ष्म पडताल करता सार्थक लेख। इस आंदोलन की खबरों के साथ ऐसी घटनाओं की पुनरावृत्ति की खबरें भी रोज आ रही हैं। समाज, कानून का भय नहीं है, ऐसी मानसिक विकृतियों को। मगर एकजुट संघर्ष समाज की मानसिकता में बदलाव लाता है, सरकार, प्रशासन पर दबाव बनाता है। असल में सकारात्मक सामाजिक परिवर्तन की गति धीमी होती है।
जवाब देंहटाएंएक टिप्पणी भेजें
आप अपनी प्रतिक्रिया devarun72@gmail.com पर सीधे भी भेज सकते हैं.