कथा - गाथा : अपर्णा मनोज




































अपर्णा मनोज की कहानिओं ने इधर अपनी पहचान बनाई है. प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में वह लगातार छप रही हैं. ‘ख़ामोशियों का मुल्क’ में एक ही शहर में, एक ही नदी के साथ रहने वाले दो कौमों की शोक – गाथा है, पढ़ने पर वैसा ही उदास प्रभाव छोड़ जाने वाली. 

ख़ामोशियों का मुल्क                    
अपर्णा मनोज




शहर में अमावस्या आती और अपने पीछे बित्ता-सा अँधेरा छोड़ जाती. पूनम आती और बित्ती-सी हंसी दे जाती, पर कोई सुन नहीं पाता, कि कहीं कोई हँसता है, कि कहीं कोई उससे भी जोर से सिसकियाँ भरता है. दूर-दूर गलियारे में सूरज रोज़ भटकता. रात को नियोन लाइट्स धोखा देतीं. और शहर अपने पेट में हाथ-पैर घुसा दाखिल होता..अपनी तरह देह को पसारता ..अकड़ाता.. कि दूर बहती नदी सिकुड़कर और किनारे लग जाती. नदी की शक्ल हौआ से मिलती थी.. उसकी देह काठ के हिंडोले की तरह कांपती. अर्हर्र..अर्हर्र..हिचकोले खाती और उदास होकर बहती..सूखती..अपनी दुबली देह लिए जित-तित घूमती.उसका आदम कहीं खो गया था.

नदी ने शहर को देखा था.
और शहर ने कई मौसम देखे थे..बेहिसाब आते और बेखबर जाते.

उसके पास बेख्वाबी का शोर था. बड़ी से बड़ी घटना चुपचाप इसमें पैबस्त हो जाती.

शोर में एक नक्शा काले तिल की तरह दिल पर जमा रहता.  इस नक़्शे में न जाने कहाँ-कहाँ से घर उड़-उड़कर आते. ट्रकों में, बसों में उनकी ढीली गन्दी आस्तीनें झूलती रहतीं. कभी वे ट्रेनों के दरमियाँ अपना पिछला शहर तलाश रहे होते. अपने टोलो-मोलों में एक नयी पट्टी बनाते. कहीं से अपने अतीत की मुर्गियां ढूंढ़ लाते. तब कहीं से मटमैली फाख्ताएं नीम अँधेरे इन बस्तियों में आ जातीं. लदे-फदे घरों को कहीं कुछ सालता था..उनका उधड़ा पुश्तैनी ज़ख़्म. फिर भी वे कई दफे बनते और अगले पल उजड़ जाते.


वही बेताब नदी अब भी हुआ करती है शहर में. एक समय था उसे पुलों की जरुरत नहीं थी. वह अपने जानवरों, पखेरुओं और झीम-झाम जंगलों की लोक कथाएँ सुनाती थी.  कहते हैं कि उसके किनारों पर घूमते नरम खरगोश शिकारी कुत्तों तक को हुलकार दिया करते थे.  इसके शफ्फाक पानी के पास ढेर सारी नावें थीं.  हर रंग की. उनमें जीवन भर-भरकर वह बस बहा करती. बच्चों के नन्हे हाथ पूरी की पूरी नदी दूर-दूर तक उछाल देते. घड़ियाल अपनी पीठ पर नौका बैठाये सुनहले किनारे को ले जाते.  बेख़ौफ़ थी नदी.  न उसे आर की चिंता न पार की..अपने समूचे इतिहास के साथ वह खंडहरों को धोती-पोंछती बहती. वह नहीं जानती थी कि उसके सिरहाने बजती महादेव की घंटियाँ किन ख़ास अर्थों में क्वणन - क्वणन किया करतीं हैं. उधर घुमावदार किनारे पर अलग-थलग बैठी मस्ज़िद की नीली मीनारें उसकी छाती के आर-पार अपना सुख-दुःख उंडेल देतीं. वे सुन्दर-सुन्दर आँखों वाले उसके पानी से वुज़ू करते और नदी उस वुज़ू से भीगी-भागी महादेव को दौड़ जाती. महादेव के माथे पर जाकर बरसती. काले महादेव स्तवन से और काले पड़ जाते. वे आदिम काले रंग से पैदा हुए थे. 

कहते हैं कि किसी कृष्ण विवर में ऊर्जाएं सोती-जागती हैं.
इसी काल कोठरी में सात रंग पैदा होते हैं, इसीमें से सूरज अपनी लिपियाँ लिखता धरती का रुख लेता है, तमाम ग्रहों का रुख लेता है.
उसीमें रात गिरती है. सुबह जलती है.

तो महादेव काबा हो जाते और काबे पर कसका खींच नदी खुश-खुश लौट जाती.

दुनिया की गेंद अजीबो-गरीब तरह से कई खिलाड़ियों के हाथ लुढ़कती रही. अब इसमें जीत-हार-हू-हू-धतकार-चीत्कार सब शामिल था. सो नदी भी उस गेंद के साथ पलटियां खा रही थी. नामालूम समय ने नदी से सब छीन लिया. उस पर पुल सज गए. जिन पाटों का नदी को ज्ञान न था अब वे उसे अलग किये दे रहे थे. महादेव इधर छूट गए और अल्लाह उस पार अपनी बस्तियों की फ़िक्र में मशगूल हुए. 


नदी के पास न बनने का सुख बचा..
न उजड़ने की पीड़ा..
उसके पाटों पर घर निशानदेही छोड़ते रहे.
घर लड़ते रहे. घर हँसते रहे.
एक घर वह भी था.
कहीं से उड़ कर आ गया था.

खामोश.

उसपर कोई नेम प्लेट नहीं खुदी थी.
नाम के सुख से वंचित उसकी दीवारें या तो बहुत मुक्त थीं या इतनी सतायी गई कि अपने पीछे छूटी जगह पर छोटे -छोटे दरवाजे तो थे पर सबके - सब भीतर को खुलते थे. बाहर खुलने से भयानक डर भीतर घुस आता था. मैं इसमें दाखिल होना चाहता था.


और एक तीसरे आदमी की तरह इस घर में दाखिल हुआ.
फिर कभी बाहर नहीं निकला.
मुल्के खामोशां ..क्या मेरी महबूबा का घर था यह?
अलबत्ता घर देखकर लगता था जैसे रातों-रात किसी चित्रकार ने इसे रंग डाला हो. छोटा-सा घर. खिड़कियाँ अखरोटी रंग की. मालती की गहराई बेल. छोटा बरामदा. उसके सामने एक बड़ा पेड़..मुझे उसका नाम नहीं पता, लेकिन मेरे लिए वह नख्ले मर्यम था. न जाने कौनसी हज़रत मर्यम इन सूखे दरख्तों के नीचे दर्द से तड़पा करती होंगी कि सूखे खजूर भी हरे हो जाते. खैर, इस घर को भीतर से देखने की इच्छा थी. इससे भी ज्यादा बड़ी इच्छा उनसे मिलने की.

उस दिन उन्होंने मुझे पहली बार देखा था. लॉन मोअर से दूब काट रही थीं. घिर्र-घिर्र की आवाज़ में उनकी शांत आँखें मुझपर टिक गई थीं.पसीने की बूँदें उनके माथे पर छलक आई थीं. पीली दूब जहाँ-तहां बालों में गुत्थम-गुत्था थी. धूप में उनकी आँखें और छोटी हो गई थीं.एकबारगी मुझे लगा कि वह मुझे इशारा कर रही हैं. नहीं, कुछ कह रही हैं. 
मैं पूछ बैठा, " जी...क्या कह रही हैं आप?" 

वह अपने शरीर से दूब झाड़ने लगीं. मैंने शर्मिंदगी महसूस की. अब वह मुस्करा रही थीं. मैंने देखा कि उनके शरीर को एक बड़ी परछाई लील रही है. एक चील ऐन उनके सिर पर मंडरा रही थी. मैं उचक-उचककर चील को उसके आसमान में लौटा देना चाहता था. पर उसके पास बन्दूक की घोड़ेनुमा मुड़ी चोंच थी, हवाओं में धाँय-धाँय करती सब झपट लेना चाहती थी..मैं चील देखता रहा और वे, हलकी भूरी आँखों वाली भीतर चली गईं.
भीतर खुलने वाला द्वार खट से भीतर ही बंद हो गया.
दिन का पर्दा गिर गया.

पड़ौस का सालों से बंद पड़ा घर क्या इन्होंने खरीद लिया है? इस घर को देखने कई खरीदार आये, किन्तु घर बिका नहीं. गौमुखी घर उत्तर को मुंह किये..कहते हैं ऐसे घरों में मौतें बहुत होती हैं या फिर घर की औरत परेशानियों से घिरी रहती है. इसलिए यह बिकता नहीं था. माँ अकसर कहा करतीं कि कोई आये तो यहाँ की वीरानगी दूर हो. उस दिन उन्हें देखकर माँ का चेहरा खिल गया था. पर अगले दिन ही माँ ने घोषणा कर दी थी कि, "इससे तो घर खाली रहता..."और वह चुप हो गई थीं. मैं अचरज से माँ को देख रहा था. ऐसा क्या किया पड़ौसी ने कि माँ इतनी नाराज़ हैं.और पड़ौस मेरी उत्सुकता का केंद्र हो गया. काश उनका नाम ही जान लेता. पर मैंने अपने मन में एक नाम गढ़ लिया था, "चश्मे बद्दूर".. तो वही कहकर मैं उनके बारे में सोचा करता. सुबह का अख़बार उठाते समय उनके घर पर निगाह चली ही जाती. बमुश्किल ही वह बाहर दिखाई देती थीं. कभी-कभी जी करता कि सोसायटी के बच्चों के साथ क्रिकेट खेलते में गेंद उनके घर उछाल दूँ ..फिर अपनी इस बचकानी हसरत पर मुस्करा देता.


फिर कई दिन तक मैं उनके लॉन की दूब बढ़ने का इंतजार करता रहा.पर वह बढ़ नहीं रही थी. उलटे सर्दी में पाला खा गई थी. चौहद्दी पर लगा गुड़हल खूब फूल रहा था..
एक दिन वह फिर दिखाई दीं. मैं पूजा के लिए गुड़हल चुरा रहा था और पकड़ा गया. वह मुझे देखती रहीं. मैंने माफ़ी मांग ली. "माँ पूजा करती हैं न, फूल ..." उनके होंठ हिले. 
क्या बोलीं? इतना धीमा बोलती हैं कि पूरे कान लगाने पर भी कुछ सुन नहीं पड़ता. उन्होंने हाथ हिलाया. मुझे बुला रही थीं. मैं लगभग बाउंड्री वॉल से कूदकर जाने को हुआ. तुरंत अपनी अशिष्टता का बोध हुआ और गेट खोलकर उनके घर को चल दिया. गुड़हल के फूलों से हाथ भरा था और दिल पूरा लाल. उन्होंने मुस्कराकर स्वागत किया.
घर ने मुझे भीतर समेट लिया.

भीतर तो कुछ था नहीं. ज़मीन पर गद्दा पड़ा था. एक तिपाई. दीवारें सपाट. कोई तस्वीर तक नहीं. शो केस पर रखा रेडियो बज रहा था. कोई बहुत पुराना गीत..आवाज़ फटी-फटी,ऊपर से नाक से गीत गाया जा रहा था. मन हुआ रेडियो बंद कर दूँ. मन हुआ और बंद हो भी गया. तो क्या ये मन पढ़ लिया करती हैं! मैं चकित इधर-उधर देख रहा था. वह आयीं..हाथ में स्लेट थी.वहीँ ज़मीन पर बैठ गईं. मेरे लिए मूढ़ा खिसका दिया. थोड़े संकोच के साथ मैं वहां बैठ गया. हमारे दरमियान ख़ामोशी पसर गई. न मैं बोलूं ,न वह. वह फिर उठीं और रेडियो के पास जा पहुँचीं. मैं कुछ जानूं इसके पहले ही रेडियो फिर तेज़ी से बजने लगा. मेरे ठहाके के साथ संवादहीनता खत्म हुई. बाजा बंदकर वह अपनी जगह आयीं और स्लेट पर कुछ लिखने लगीं...

लिखा था-"आपका नाम.."
फिर उन्होंने अपना मुंह खोलकर अंगूठा इस तरह हिलाया कि सब साफ़ हो गया. मैं चश्में बद्दूर को हैरानी से देख रहा था. मन पलभर के लिए बुझ गया. लौटकर स्लेट पर अपना नाम लिखने लगा तो उन्होंने स्लेट छीन ली.
अपने कान खींचकर लिखा- "सुनाई देता है...नाम बताइए..."
"मृत्युंजय.."

उन्होंने लिखा, "मैमूना"...और स्लेट उलट कर रख दी. बच्चों की तरह बत्ती कुतर रही थीं.

मैं चश्मे बद्दूर को देखता रहा. मैं स्लेट को देखता रहा. वहां खल्वत के सिवा और क्या था!मैं इस एकांत में चाक-चाक शब्दों की तरह पड़ा था जिनके पास चाबुक जैसी जुबां होती है और यह चाबुक हर बार खुद के सीने पर चोट करता है.
जेब से निकाल कर सारे गुड़हल मैंने स्लेट पर रख दिए.
समय मुझे वहां रोक नहीं रहा था. लेकिन यह तय था कि समय ने मुझे इस घर में उसी तरह ला छोड़ा था जैसे वक्त एक पंछी को किसी टहनी पर नीड़ में अटका देता है.पंछी की मुक्ति मौसम के पास होती है और मौसम कौन आज़ाद है..समय उसे अपनी घड़ी में तिकतिकाता है.....दुनिया बस उसके काँटों के बीच पैर रखती-बढ़ती है..न एक कदम आगे, न एक कदम पीछे.

मैमूना ने रोका नहीं.
अब कब मिलूँगा उनसे...मैं लौट गया.

उस दिन मेरी उनसे मुलाकात सिन्धी की दूकान पर हुई. इस सिन्धी का भी कोई नाम नहीं था. दूकान पर जरुर कोई नाम लिखा होगा पर सिन्धी के चेहरे पर कुछ ऐसी इबारत थी कि वही उसका इश्तहार करती थी. साइनबोर्ड महज औपचारिकता थी. उन्होंने अपना झोला मुझे थमा दिया. मुझे अच्छा लगा. हम दोनों साथ चल दिए. यहाँ हमारे बीच स्लेट नहीं थी. पर चश्मे बद्दूर की उँगलियों से अर्थ उड़कर मुझ तक आते. यह जानना कठिन था कि उँगलियाँ ओठों के इशारे पर बोलती थीं या उँगलियों के संकेत पर उनके ओंठ थरथराते थे. ज़बरदस्त सामंजस्य था उनमें.चलते-चलते कई बार मैं उनके बहुत करीब हो आता. हलके से उनकी बांहों का स्पर्श पा जाता.रास्ता तो समय से भी छोटा था. जल्दी उनका घर आ गया.

एक बार फिर घर ने मुझे भीतर समेट लिया.
वह स्लेट नहीं ला रहीं थीं. और मैं मैमूना को जानना चाह रहा था. स्लेट के बदले आज वह पुराने अख़बार ले आई थीं. इनका मैं क्या करता. वह मेरी तरफ देखे बिना अखबार पर उँगलियाँ चला रही थीं.फिर उनकी ऊँगली एक जगह आकर ठहर गई.जैसे पत्थर हो गई. जैसे बर्फ हो गई. जैसे वहीँ जम गई. मैंने उँगलियाँ छूकर अपना वहम दूर करना चाहा...नहीं वे सच में बर्फ हो गई थीं. सर्द..ठंडी.उन्होंने उसे सीने में भींच लिया. एक धुंधली तस्वीर थी.बुर्कापोश. केवल हिनाबस्त: पैर दिखाई दे रहे थे.तस्वीर के नीचे उर्दू में लिखा था.

मैंने पूछा,"किसकी तस्वीर है ..?"
उन्होंने मेरी जेब से पैन निकाल लिया.पर उसमें रिफिल नहीं थी. मैं सकुचा गया. वह भीतर चली गईं और स्लेट ले आयीं. यही मैं चाहता भी था.
उन्होंने लिखा- "हबीबा, मेरी बेटी...और यह रफ़ीक."
वह रोने लगीं.मुझे लगा कि मेरे कंधे पर है उनका सिर. उन्हें लगा कि मैंने अपने कंधे ढीले छोड़ दिए ताकि वह सिर टिका सकें.
फिर उन्होंने लिखा-"शहर..माचिस....आग..हरसू आग..तलवारें..पैट्रोल बम.."
वह लिखती गईं, मैं पढ़ता गया..

"हबीबा उसके कंधे पर थी. वह भाग रहा था.वह चीख रहा था.पागल हो गया था वह. नकाबपोश. अच्छा हुआ हबीबा ने उसे नहीं पहचाना.
उस रात सड़कें और काली पड़ गई थीं..घुप अँधेरे में उनके पंजे नुकीले हो आये थे.उनकी पहचानें अपनी शिनाख्त खो चुकी थीं. पहचानें पागल हुई पड़ी थीं. सड़कें नकाबपोश थीं. सड़कें हैवान थीं. वे घरों को निगल रहीं थीं. जो कभी मेलों में फिरकियाँ लिए नाचती थीं, मंडी में हरी-हरी सब्जियां हो जाया करती थीं,मसालों की ख़ुशबू से तर खैरोबरकत से आबाद थीं,अचानक किसी शैतान के वहम का शिकार हो गईं.
वहशी सिफत रात थी वह.
हम दोनों अकेली थीं. पड़ौस की ऊंची मिर्ज़ा दीवारें पुश्तैनी लड़ाइयों से सिलहपोश रही. पर उस रात उस पार की औरतों ने हमें पनाह दी. तीन औरतें वे और दो हम. पाँचों वहशतअंगेज़ सटी-सटी बैठी थीं. कहीं से हलकी सी रौशनी भी घुसती तो हम पाँचों अपने काले बुर्कों में अपना मुंह भींच लेतीं. रौशनी से बचने के लिए आज हमने बुर्के पहने थे.

पर जंगली सड़कों ने हमारे दरवाज़े तोड़ दिए. भारी-भरकम पैरों की आवाजें अँधेरे की पड़ताल करने लगीं.

कई चीखें..
वह हबीबा की थी..
ठन्डे अँधेरे में गरम लावा बहकर मेरे पैरों तक आया...
हिनाबस्त गरम खून ......
मेरी हबीबा का था. हाय! कुछ दिन ही तो बचे थे उसके निकाह में.
वह मुझ पर झपटा और फिर दो कदम पीछे हट गया. नहीं कई कदम पीछे हट गया. पागलों की तरह अँधेरे में हाथ-पैर पटकता.
मैं उसकी छुअन कैसे न पहचानती भला या वो मेरी!
"बलवाइयों में तुम?"
"दुश्मन के घर तू....मिर्ज़ा के घर तू ...तू और हबीबा..वह बुदबुदाया."
हू..हू..हू ...
जंगल में एक भेड़िया रो रहा था.
फिर ज़ालिम सिर पकड़कर धप्प से ज़मीन पर बैठ गया. जोर से चीखा...जैसे जिबह किया जा रहा हो. उठा. हबीबा का सर्द शरीर कंधे पर लादा और मेरा हाथ पकड़ भागता गया.मैं कब अँधेरे में पीछे छूटी..याद नहीं.
मेरे कपड़े तो चील कब के लेकर उड़ चुकी थी..
और वो 

शायद किसी ट्रेन चढ़ा होगा. कोई बस ले गई होगी उसे. उसके कंधे पर हबीबा बैठी होगी...

अखबार कहता है,देखो तो क्या कहता है,"शहर में पागल एक लड़की की लाश लिए घूम रहा है..." 

इसी शहर वह देखा गया था.
चश्मे बद्दूर चुप हो गई. उसने स्लेट पर लिखा सब मिटा दिया..
अब फर्श पर एक गुड़िया ठुमक-ठुमक कर चल रही थी..
ज्यों रूकती तो मैमूना उसमें चाबी भर देती.
वह फिर ठुमकने लगती ..
मैमूना रोती जाती 
गुड़िया ठुमकती जाती...

सिसकते-सिसकते उसने स्लेट पर लिखा ..गुड़िया लाया था, जब हबीबा पांच की थी. और जब कंधे पर ले गया तब...हाथ-पैर में हिना लगी थी..गाढ़ी होकर काली पड़ गई थी.
वही उसकी उम्र ठहरी.
तौबा ! शहर ने उसकी उम्र तक भुला दी.
चश्मे बद्दूर मेरे सीने से लगी थी.
मैं उसकी उम्र सोच रहा था..
अपनी उम्र सोच रहा था.
चालीस पार होगी..
मैं तीस का...
घर मेरे भीतर था....चुप.
और मेरा भीतर ..मुल्के खामोशां.





कविताएँ , कहानियाँ , अनुवाद और संपादन

30/Post a Comment/Comments

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  1. उफ़्फ़....मार्मिक कहानी...एक ही सांस मे पढ़ गयी मैं....एक ही शब्द आपके लिए जो आप ही की कहानी से उधार ले रही हूँ अपर्णा दी..."चश्मे बद्दूर"....
    सुनीता

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  2. मर्म को स्पर्श करती हुई कहानी कब और कैसे आँखों से बह निकलती ......नहीं मालूम ...हाँ! कुछ ऐसा जरूर कहती है जिसे सुनकर अनसुना नहीं किया जा सकता....सशक्त लेखन के लिए अपर्णा दी को बधाई....अरुण देव जी आपके लिए शुभकामनाये....आपने एक बार फिर एक अच्छी कहानी समालोचन के नाम कर दी...

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  3. दंगा ग्रस्त समाज की त्रासदी पर एक असरदार कहानी है ! अपर्णा जी की विशिष्ट शैली में उदासी की गहरी नील लगी सफ़ेद चादर-सी इस कहानी के लिए अरुण जी का आभार !

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  4. सुंदर कहानी है, इसके पोएटिक एलिमेट्स मुझे बेहद प्रभावित करते हैं। बधाई अपर्णा जी।

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  5. बधाई , नवरात्र मंगलमय हो ..

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  6. Aparna दी, रौंगटे खड़े हो गए मेरे, और इतनी मर्मस्पर्शी संवेदनाओं का ताना बना रचा आपने कि अंजाम तक पहुँचते पहुँचते रीढ़ में सिहरन सी महसूस हुई.....कहानियां लिखना जारी रखिये......शुभकामनायें.....शुक्रिया समालोचन, Arun ji........

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  7. वाह चश्‍मेबद्दूर.... बेहद मार्मिक और मन को रुला देने वाली कहानी। दरअसल, जिन हादसों से यह जीवन प्रभावित हुआ है, उसमें पुनर्जीवन और एक गहरी मानवीय आश्‍वस्ति जगाने के लिए इसी भाव और ऐतबार को जगाने वाली कहानियों की जरूरत है। अपर्णा ने उस अतीत के अपने भीतर जी कर यह कहानी रची है। बधाई और हार्दिक शुभकामनाएं।

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  8. बेहद खूबसूरत कहानी...
    लफ्ज़ दर लफ्ज़ एहसासों को पिरोती...
    बधाई अपर्णा जी.
    आभार अरुण जी.
    अनु

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  9. अपर्णा जी जब दर्द की दास्ताँ कहती है तो उनका रचनाकार सौ प्रतिशत बाहर आता है ...चाहे वह कविता हो या कथालेखन |
    एक बेहद मर्मस्पर्शी कहानी के लिये बहुत बहुत बधाई !

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  10. अपर्णा, दंगे जैसे विषय पर कविता की भाषा में लिखना कठिन होता है.कभी कभी लगता है इसके लिए अतियथार्थ अधिक सटीक है.मगर यह प्रयोग भी अच्छा लगा.

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  11. दी, बहुत ही कविताई अंदाज़ में कही है ये कहानी. शब्दों, बिम्बों और विषय में गाढ़ी तारतम्यता. मन को बेध देने वाली कहानी....बहुत बहुत सुन्दर!!!

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  12. 'खामोशियों का मुल्क' गजब की सपाटबयानी से लबरेज कहानी है... मौजू और बयानिया दोनों तरीकों से जेहन में उतरती चली जाती है..
    कहन बहुत कोमल है. इतना कि साँस लेने से भी कहानी पढ़ने में दिक्कत पेश आयी.

    ...प्रांजल धर

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  13. अखरोटी रंग की खिड़कियों से बहती हुई लंबी कविता सा आरंभ, दूर तक कविता ही पढे जाने की निर्मल अनुभूति को बनाए रखता है। हमारे भीतर ब्लेक हॉल है, हम इसमें समय की दी हुई सब चीज़ों को दफ्न किए जाते हैं। कुछ एक लोग इसी घने अँधियारे में शब्दों का कारख़ाना लगा लेते हैं। उसी कारखाने से कवितायें और कहानियाँ आकार लेती रहती हैं। जब भी ऐसा होता होगा, ब्लेक हॉल एक अखरोटी रंग की खिड़की में तब्दील हो जाता होगा।

    दुनिया की गेंद से खेल रहे लोगों के बारे में पढ़ते ही, मैं अचानक किसी कहानीकार के पास आ बैठता हूँ। कविता कहने वाला जाता है। किसलिए? अचानक से बेहद सख्त वाक्यों का संसार उग आता है। क्या पाठक नदी में तैर रहा था और एका-एक किसी पथरीले किनारे लग गया है। या उसकी संवेदनाएं इतनी गहन नहीं है कि वह नदी के मोड़ पर बने हुये भंवर से दुनिया की जटिलता को समझ सके।

    मन तराजू की तरह अनुपात के हिसाब का हिस्सा होने लगता है। वह एक पलड़े में कविता को रखता है और फिर सोचता है कि आगे जहां कथा कोई शक्ल बुनने लगती है, कितती दूर तक जाएगी। हम कई बार खुद के साथ रहते हुये भी उकता जाते हैं। खुद अपनी बात को नया रुख, नयी शक्ल और नए शब्द दे देते हैं। यही मुश्किल है जिसे बेसब्र होना कहते हैं।

    आवाज़ों के संकेतों की दुनिया बेहद मार्मिक है। कविता का लौट आना है। ज़िबह करते करते रुक गए दुनिया के कारीगर का निर्विकार खड़े रहना और मूक पशु का निहत्थे, गीले दर्द से भरे हुये अनिश्चित मृत्यु की प्रतीक्षा करना। इस असंभव अंत पर काल का क्षय कब काम करना शुरू करेगा। चालीस और तीस के बीच के मामूली फासले के दरम्यान खड़े हुये भयानकतम निर्जन का क्या होगा? वे तस्वीरें जो ज़िंदगी की दीवार से बेवक्त उखेड़ दी गई, उनकी जगहों पर उग आए उजाड़ को प्रेम का किस रंग का गारा समतल कर सकेगा। क्या मिटी हुई चीज़ें कभी बन पाती हैं?

    अपर्णा जी, मेरी बहुत सारी बधाई।

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  14. अपर्णा जी,
    कथ्य के बारे मे बताने की जरूरत ही नहीं है कि यह सशक्त है। अपने आपमें सुभाषित और सघन।

    कहानी वहीं से शुरू होती है जहां से आप इसे लिखना शुरू करती हैं। मुझे अचानक से कोई याद दिलाता है कि कहानी अब शुरू हुई। ऐसा होना किसी मधुर प्रवाह के बीच का एक हिचकोला है।

    शब्दों का कारख़ाना से मेरा आशय है कि हर प्राणी के भीतर सुख और दुख की स्मृतियों का छिछला दरिया बहता रहता है किन्तु कुछ लोग इन्हीं अनुभूतियों को रचनात्मक ऊर्जा से मूल्यवान और समाज की धरोहर बना देते हैं। कारख़ाना अनुभूतियों को कथा और कविता में ढालने का....

    खुद के साथ रह कर उकता जाना मेरा अपना अनुभव है। मैं लिखते हुये यकसां रास्ता भूल जाता हूँ। कोई मुझे अपने साथ ले जाता है। आपकी इस बेहद सुंदर कथा को पढ़ते हुये एक बारगी इसी अहसास ने मुझे घेर लिया था। संभव है कि मैं कहानी के पहले पाठ से आए इंप्रेशन में ही उसे गलत समझ बैठा हूँ।

    मिटी हुई चीजों के बनने का प्रश्न, दुनिया के उन स्वयं भू निर्धारकों से हैं, जो छें लेते हैं किसी की सांस, किसी की जिंदगी, किसी के दिन का उजाला। तो मैं पूछता हूँ कि मरम्मत करने से क्या कुछ भी ठीक हो सकता है? अव्वल तो आदम जैसी नाचीज़ के पास मरम्मत का हुनर नहीं है...

    दंगे जैसे विषय पर इस तरह की सॉफ्ट कहानी लिखना, मनुष्य की सघनतम अनुभूति का सर्वोच्च बिम्ब है। इस भाषा और शब्द चयन ने साबित किया है कि बुरे को बुरा कहने के लिए निम्न और अप शब्दों की जरूरत कभी नहीं होनी चाहिए।

    मैं इसे सार्वजनिक कहूँ इसमें मुझे कोई आपत्ति नहीं है। मैं ऐसा इसलिए नहीं करता हूँ कि मैं लेखन की दुनिया के लोगों से दूर हूँ। मैं जहां हूँ वहाँ खुश हूँ। इसलिए मैं इतने प्रेम से बिना किसी आग्रह के इतनी सुंदर कहानी पढ़ कर खुद को सुखी करता हूँ।

    हम सब निरंतर पढ़ते हैं मगर कई बार सुख को भाषा में ढालना सुख की बढ़ोतरी करना होता है। आज मैंने आपको बताया इससे मेरे सुख ने मुझे कहा थेंकयू।

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  15. मैं कहानियां कम पढता हूँ.. धैर्यहीन पाठक हूँ.. कहानियों के फोर्मेट में खूब प्रयोग हो रहे हैं इन दिनों .. किस्सागोई के तरीके में भी बदलाव होता रहा है..

    समानांतर पटरियां .. एक पर कहानी गुजर रही है दूसरे पर कविता.. भाषा से तुरंत पाठक को बाँध लेती है यह कहानी .. शब्द-तिलिस्म जिसमें सम्मोहन है .. बित्ता-सा अँधेरा.. बित्ती-सी हंसी ..

    विषय- सामयिक .. दंगा ग्रस्त समाज पर एक विशेष कोण से संवेदना जगाती हुई.

    मैंने पढ़ा है कि सेवंटीज में जब कविता की भाषा में कहानी लेखन के प्रयास हुए तो समीक्षकों ने स्वीकृति नहीं दी और पाठकों को समझ नहीं आई.. पर अब समय मैच्योर हुआ है.

    अपर्णा जी को साधुवाद ..समालोचन का शुक्रिया :-)

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  16. Aparnaji....sabse pahle mera ....salute swikare pl. fir sorry ki Roman me apne ko bandhna pad raha h....isliye bahut kuch man ka choot raha h. pichle kai barson se m kahaniyan is trh ki samvedna ki padhta aaya hu...amooman khud ko vivas kiya h...unhe padhne ko.
    pr.....Aaj...!
    m stabdh hu. pr khus hu ki meri bhasha me itni gahri ...bheetr tk rengti kahani likhi gayee h.
    filhaal m khud ko samhal nahi pa raha hu...m iske prawah me hu...bahut ufaan pr . is pr likhne ke liye mujh lambaaaa antraal chahiye .
    arse tk m aapko is kahani ke jariye yaad rakhunga . or aage jo kahaniyan padhunga unhe is se paar pana hoga ....tub m unka pathak ban paunga .abhi yahi comment h.kahani meri chetna me .....raat ke soone andhre me ....neend ki deh kutarti rahegi .
    ............meri khamoshi aapke lekhak tk pahunche .

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  17. marmik kahaani ... man bhaari ho gaya padhkar ... badhai Aparna di !!

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  18. कहानी बहुत मार्मिक है... लेकिन इसका रचाव कुछ दिक्‍कत पैदा करता लगता है... संभव है मेरे अपने पाठ की गड़बड़ी हो... प्रेमकथा के शिल्‍प में एक हाहाकारी वृतांत को बयां करना बहुत मुश्किल होता है... इसे पढ़ते हुए दूसरे विश्‍वयुद्ध के दौर में लिखी गईं यूरोपियन प्रेमकथाओं की याद आती रही...

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  19. गजब की कहानी एक सम्मोहक भाषा में...अपर्णा जी की अपनी कहानियों में भी एक शिफ्ट की तरह है.

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  20. कुछ लोग कह रहे हैं कि कहानी एक ही बार में पढ़ ली गयी. पर मैंने प्रयास किया पर अफ़सोस कि अभी भी खतम नहीं कर सका हूँ. मुझे लगता है कि अपर्णा जी की अन्य कहानियों की तरह यह कहानी भी रुक-रुक कर पढ़ने की माँग करती है. भाषा की बनावट और बुनावट से लेकर संवेदना तक, सबको समझने और आत्मसात करने के लिए इसे ठहर-ठहर कर ही पढ़ा जाना चाहिए. पहले कहानी खत्म कर लूँ, फिर कुछ और लिखता हूँ. एक बात और, चेतन भानु जी के कमेंट्स से बिल्कुल ही सहमत नहीं हूँ. एकदम गैरज़रूरी कमेंट है.

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  21. बहुत ख़ास कहानी ...मर्म को छू लेती है ..

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  22. जैसा कि तमाम लोग बता गए हैं ,मार्मिक कहानी है यह जो आरंभ में कविता की तरह है , अच्‍छा लगा ...अपर्णा की कहानी पहली बार पढी है ..एक कहानी 'कल के लिए' में हैं उसे भी पढूंगा ...

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  23. एक अच्छी कहानी है. अच्छा यह लगा कि एक कविताई वाली भाषा और फार्मेट के बावजूद बाज़ दूसरी कहानियों की तरह बिखरी नहीं...बल्कि पाठक को भी अपने साथ एक मकाम तक ले गयी...

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  24. पूरी कहानी को दो बार पढ़ा, धीरे-धीरे, आहिस्ता-आहिस्ता,'यह कहानी पढ़ कर मैं बहुत उदास हूँ'- यह कहना शायद एक लंबी समीक्षा लिखने से ज़्यादा बेहतर होगा. उदास तो कई कहानियाँ पढ़ कर हुआ हूँ पर यह कहानी जिस तरह से धीरे-धीरे उदास करती है, जिस तरह से धीरे-धीरे मर्म को कचोटती है, वह कुछ अलग सा है. अपर्णा जी के पास भाषा और शैली का जो एक शानदार खजाना है उसका नमूना उनकी कविताओं से इतर, उनकी पहली कहानी से ही मिल चुका था. यह कहानी उस खजाने के सही इस्तेमाल का एक और नमूना है. यहाँ एक बात अरुण जी के लिए-'समालोचन' जैसी प्रतिबद्ध और शानदार ई-पत्रिका में वर्तनी की त्रुटियाँ तकलीफ़देह होती हैं और खास तौर से तब और जब किसी रचना के शीर्षक के पहले शब्द में ही यह त्रुटि हो. बहरहाल लेखिका और संपादक, दोनों को कोटिशः बधाई व शुभकामनाएँ!

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  25. आपका इशारा शायद ख़ामोश (खामोश) नुक़्ते से है.ठीक कर दिया है. शुक्रिया.

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  26. kahani ekadhik path ki mang karti hai aur isme kavita wali bhasha ise vishit banati hai. achhi kahani ke liye badhai Aparnha ji

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  27. समालोचन, अरुण जी और सभी मित्रों का शुक्रिया..

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  28. achhi kahani..............kahani nahi yahan to behatareen shabd bolte hain...............ati sundar.............

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  29. बहुत ही मार्मिक कहानी है .....समालोचन और अपर्णा जी को बधाई

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