सहजि सहजि गुन रमै : अनिरुद्ध उमट



















अनिरुद्ध उमट

28 अगस्त 1964, बीकानेर, राजस्थान

प्रकाशन
उपन्यास - अंधेरी खिड़कियां, पीठ पीछे का आंगन
कविता संग्रह - कह गया जो आता हूं अभी
कहानी संग्रह - आहटों के सपने
निबन्ध संग्रह - अन्य का अभिज्ञान

सम्मान-
राजस्थान साहित्य अकादमी द्वारा उपन्यास- अंधेरी खिड़कियां- को रांगेय राघव सम्मा
कृशनबलदेव वैद फेलोशिप
संस्कृति विभाग, भारत सरकार की जूनियर फेलोशिप


रघु राय
अनिरुद्ध उमट मितकथन के कवि हैं. सीधी पंक्तिओं में गहरी बात का असर देखना हो तो ये कविताएँ देखनी चाहिए. जीवन जगत के कई ऐसे प्रसंग हैं जो नजरो के सामने रहते हुए भी ओझल दिखते हैं, कवि अदृश्य को दृश्य करता है अपने को ओट में रखते हुए. कुछ कविताओं में मृत्यु की गिरती हुई राख है जो अंतिम सचकी तरह  है . ये कविताएँ मृत्यु को भी देखती हैं .
  


परेशान मरने तक              

छत पर गिरते तारों की राख से
रहा परेशान
मरने तक

नहीं चाहता था
कहीं बचे रह पाएं
नींद की प्रतीक्षा में भटकते
पैरों के निशान

क्या तारे चमक-चमक राख होते
प्रत्येक मृत्यु की प्रतीक्षा में

क्या निशानी रह जानी
सुराग बचा रह जाना
जरूरी है

यह सुन तारों ने
कुछ ताजा राख
और गिरा दी



उसी रात


बरसों तक न सींचा
कीड़ी नगरा

इतना कि कभी-कभी
खुद को
सींचता-सा लगता

मैं नींद की मौत
नहीं मरना चाहता
किया था आर्तनाद
स्वप्न में खुद को
मरते देख

बिला नागा धर्म यह
घर कर गया
मुझमें

एक ही दिन सींच न पाया

उसी रात स्वप्न में
मुझे सींचने आ गयी
सारी चींटियां
(कीड़ी नगरा- चींटियों की बांबियां)                            



मौत की घड़ी



पिता और पुत्र के मध्य से
वह किसी सांप सी
गुजर जाएगी


दोनों उस गुजर जाने की
लकीर को
सिहरते देखेंगे
एक दूसरे की आंखों में

फिर एक-दूसरे के कंधे पर
सिर रख सो जाएंगे



लगाव


एक कुम्हारिन से
माँ
लगाव हुआ

बनाती नहीं
मिट्टी से बरतन
लेपती रहती मुझ पर

घुमाती रहती
चाक पर

मैं कैसा बना
तू बता

किसी काम का भी रहा

आज तो उसने
खुद को चाक पर चढा लिया
लेप लिया मुझे



अन्त में



होने से
होगी
जिसके भी
कविता

होगा नहीं
वह

कहीं



कभी तुम इतने जीवित


दिन बीते मजाक भूले

बहलाने को लिखी
कविता
गाई लोरी
किया शवासन

स्त्री यूं सोया
कि न सोया
शमसान में यूं रोया
कि न रोया

अभी-अभी तुम्हारे साथ
अभी-अभी मैं नहीं रहा

कभी तुम इतने जीवित
कि तुम ही तुम नहीं

बहुत हुआ मजाक अब
भूले जिसे दिन बीते

लौटना चाहा तो देखा
अपनी राख
हो चुकी
ठंडी बहुत

जिसमें एक दांत
धुंआ रहा.




अपने अंधेरों से हम




घर के हिस्से करते पिता
कागज पर
अपने हिस्से करते

सब को
समान रूप से
वितरण पश्चात
लौटते जब

सरक जाता
किसी ओर
जनम के हिस्से में
तब तक उनके हिस्से का
अंधेरा

बुला भी नहीं पाते
अपने अंधेरों से हम
उन्हें




तुम जाओ



तुम जाओ
करनी है ठंडी
राख
मुझे

रखनी है
पलकों पर

तुम जाओगे नही तो
लौटोगे कैसे

तुम्हें लिखी जाती इबारत
पढोगे कैसे

जरा दूर
जाओ

बाकी है
आंच
अभी
_____________________________________ 

14/Post a Comment/Comments

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  1. अजीब सी बात ये है कि हिन्दी की समकालीन कविता में जिन सीमित आर्थिक-राजनैतिक दुराग्रहों के चलते अनेक विषयों को देशनिकाला सा दिया जा चुका है- अनिरुद्ध उमट की ये कुछ कविताएँ उन्हीं में से कुछ का भाषा में एक पुनर्वास हैं, इस बात की चिंता के बगैर कि कविता के लिए कुछ पिटे-पिटाए अनुभव ही इधर अधिकांश कवियों का सरोकार हैं और उन्हीं को लोग कथित रूप से 'केंद्रीय सरोकार' मानने की ऐतिहासिक भूल भी कर बैठे हैं, अनिरुद्ध उन्हें एक दूसरे आस्वाद की कविता थमाते हुए जैसे यहाँ से शुरू होना चाहते हैं- " हे महाकवियो ! अस्तित्व, आकांक्षा, जीवन-मृत्यु के शाश्वत सवालों को ज़रा यहाँ से भी तो देखें!" पर जहाँ "तारों की गिरती राख" है और "सींचने को आती चींटियाँ" वह कविता भला ठस सौंदर्यबोध वाले ऐसे मामूली पाठक को क्या खाक पसंद आयेगी, जिसकी दुनिया 'तत्काल यहाँ' से शुरू हो कर 'तत्काल अभी' तक खत्म हो जाया करती है! अनगिनत समकालीन मीडियोकर लिक्खाडों के विपरीत अनिरुद्ध ऐसी चलताऊ उक्तियों और सूक्तियों के नकली ग्लूकोज से ताकत नहीं बटोरते जिनका प्रचलन इफरात में सुलभ है, बल्कि मानवीय-अनुभवों के सघन संगुफन को कविता की सूरत तक पहुंचाते अगर वह भिन्न और ताज़ा हैं, और वैसे ही अपनी रचनाओं में दिख भी रहे हैं, तो यह उनकी अपनी कविताई का सामर्थ्य है! अरुण देव जी, आप को धन्यवाद जो आप ने एक बेहतरीन रचना-संसार से 'समालोचन' के पाठक का परिचय करवाया....अनिरुद्ध, ज़रा दूर जाओ कि आंच अभी बाकी है!

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  2. अच्छी कवितायेँ ...सहज शब्दों में गूढार्थ ...|धन्यवाद अरुण जी

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  3. बिल्कुल नए मिजाज की कवितायेँ हैं.....शब्दों को बरतनें एवं अर्थ की चमक में एकदम अलग तथा प्रभावशाली.

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  4. Naye andaaz ki kavitayen,bilkul hatkar. "Pareshan marne tak" bahut hi acchi lagi aur Hemant ji ki zabardast tippani bhi. Samalochan ko dhanyavad, in acchi kavitaon ko hum tak pahunchane ke liye.

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  5. अलग जायके की कविताएँ. शब्दों की मितव्ययिता में संवेदना गहरे तक पहुँचाना इन कविताओं की खासियत है. अरुण आपका आभार और कवि को बधाई..

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  6. सुमन केशरी4 अग॰ 2012, 11:38:00 pm

    बहुत गहरें में भारतीय चित्त की कविताएं...नाविक के तीर सरीखीं....अनिरुद्ध उमट की कविताएं आज के शोर शराबा भरे समय में रचनाशीलता की गंभीरता के प्रति आस्था जगाती हैं...पिछले दिनों मैंने भी उनकी दो कविताएं शेयर की थीं ...कोशिश करती हूँ कि उन्हें आप लोगों के लिए पुनः लगा दूँ... अनिरुद्ध उमट की कवितायेँ बहुत सहजता से कविता की मूल प्रतिज्ञा यानि कि उसमे निहित अर्थ की गहराई और उसके विस्तार की ओर हमारा ध्यान आकर्षित करती हैं. ये कवितायें एक धरातल पर मार्मिक राजनितिक कवितायेँ भी हैं भले ही वे सीधे सीधे इस विषय पर कुछ नहीं कहतीं.
    मन को भिगा देने में सक्षम ये कवितायेँ कहीं न कहीं एक गहरा व्यंग्य भी उत्पन्न करती हैं...ये कवितायेँ इसी दुनिया की कवितायेँ हैं , हमारे बहुत नजदीक की कवितायेँ

    अली मियां

    बिस्मिल्लाह खां जब बजा रहे थे शहनाई
    तुम बाहर खड़े थे

    अजहरुद्दीन ने जब लगाया पहला शतक
    तब बिजली नहीं थी तुम्हारे घर में

    जब बरसों का लापता बेटा
    लौटा घर
    तब तुम अल्लाह रक्खा के तबले तैयार करने में थे मशगूल

    बीबी का इन्तकाल जब हुआ
    जुम्मे की नमाज में खोये थे तुम

    हाकिम साहब जब ताकीद कर रहे थे
    घर से बाहर न जाने की
    तब तुम ढूँढ रहे थे हबीब पेंटर का कैसेट

    नींद जब दगा देने की धमकी दे रही थी
    उस वक़्त तुम घोड़े बेच कर सो रहे थे

    कह गया जो आता हूँ अभी
    अभी आयेंगे वे
    ज़रा पान की दूकान पर गए हैं

    राह देखती खाली कुर्सी

    कितनी चीजें हैं
    इस घर में
    आत्माएं उनकी रोती उस क्षण को

    कह गया जो आता हूँ अभी..

    प्यास
    आँगन में एक कुआँ
    जिसका जल
    हर प्यास में ऊपर उठ आता

    एक दिन
    घर का दरवाजा खुला देख
    बाहर को गया

    तो बरसों लौटा नहीं

    एक एक कर सभी
    उतरे कुएं में
    बनाने भीतर ही दवाजा
    किसी की भी आवाज
    नहीं सुनाई दी फिर कभी

    एक दिन भूला भटका जल
    लौट आया
    और कुएं में लगा झाँकने
    पीछे से दीवारों ने उसकी गर्दन
    धर दबोची

    सभी घरो के दरवाजे बंद थे...

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  7. अनिरुद्ध की कविता .....बार बार पढ़े ...ऐसा नहीं है की एक बार पढने से आपको वो कविता न लगे ..या न समझ आये बल्कि एन कविताओ की खूबी यही है की एक बार पढने पैर ये बार बार पढ़ी जाने की जरुरत खड़ी करती है ...एन वक़्त पर जीने के लिए धकियाता वक़्त कभी रूक कर कुछ सोचने समझने का वक़्त नहीं देता बस हमेशा उहा पूह में-- न जीते हुए -- जब हम जी रहे होते है तब ये कवितायेँ आपको सहलाती है आपको जीने के लिए जरुरी सोच देती है /एक ऐसी ज़मीन आपके सामने बिछाती है जो आपके जीवन को बहुत गहरा और बहुत सुकून देना वाला फूल खिलाती है ..अनिरुद्ध बहुत सम्ब्वेदन शील रचनाकार है ..उनसे बहुत उम्मीद है ...और वो वो एन कविताओं से उस उम्मीद को रोशन करने में सफल हुए है .......धन्यवाद आप सब को जो इस पत्रिका को चलाते है ..आपने हीरा ढूंढ़ सामने रुखा है ..वाकई !!!

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  8. शिरीष कुमार मौर्य6 अग॰ 2012, 10:33:00 pm

    मैं ख़ुद आजकल जूझ रहा हूं उमट जी के संग्रह से...बेचैन हूं... उनके अवसादों से घिरा .....किसी की कविताएं जब परेशानी में डाल दें तो....वो बहुत निकट और ख़ास होती जाती हैं।

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  9. इन कविताओं में चुप्पी बहुत है
    चुपी दुश्वार और गहन भी ...कई बार अबूझ !
    अनिरुद्ध जहाँ जहाँ अपने शब्दों को चुप्पी ओढ़ाते हैं
    वहां मुझे बहुत सारी कीड़ियों की पदचाप सुनायी देती है, कोई शालीन अनुशासन
    क्या ये इसलिए की अनिरुद्ध इंटरफेथ के दखलंदाज़ हैं , कागज़ कलम और कैनवस में अपने फेथ ढूँढने वाले ?
    और जहाँ जहाँ उनके शब्द बोलते हैं सोना तोलने वाले तराजू की मानिंद
    हलके हलके हिलते हैं! सोना, उसके आभूषण तुल जाते हैं !
    काफी अरसे के बाद ऐसी कवितायों से मुखातिब हुआ जो अस्थिर कर गयीं
    और उस अस्थिरता में मेरी अपनी अजनबियत पर कुछ फाहे गिरे , आराम मिला
    बेआरामी भी ! वैसी वैसी, जैसी स्वप्न में खुद को मरा देखने के बाद उठने पर हुआ करती है !
    कुम्हारिन के चाक पर खुद घूमने में चक्कर तो आयेंगे ही पर अंतत: कुछ घढा हुआ, बना हुआ ही नमूदार होगा !
    रिल्के की "नायीन्थ ऐलेजी' में भी दरियाए नील के किनारे का वो कुम्हार कुछ कुछ ऐसा करते हुए देवदूत को हैरान करता है!
    शुक्रिया बहुत बहुत शुक्रिया अनिरुद्ध उम्मट, और आपको भी तो, अरुण जी !
    (एक ही बार पढ़ने से "बूझ" में नहीं नहीं आ पायीं मेरी, बार बार पढ़ना पड़ा) !

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  10. Manisha Kulshreshtha7 अग॰ 2012, 7:47:00 pm

    अनिरुद्ध इसी मूक उपस्थिति के कवि हैं.

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  11. इन छोटी छोटी नज्मों में गज़ब का पैनापन है ....उमट जी से जान पहचान कुल चार दिन ही पुरानी है ......ऐसी कवितायेँ बेहद आकर्षित करती हैं ...उमट जी का संग्रह मंगाता हूँ ...कवि को हार्दिक शुभकामनाएं ....अरुण जी ...बेहद आभार ...

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  12. बेहद गहन अर्थों को समेटे हर कविता एक कहानी बयां कर रही है………इतने बेहतरीन कवि से परिचित कराने के लिये हार्दिक आभार्।

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  13. बस कुछ ही रेखाओं से विस्तृत कैनवस में बृहत्तर संवेदनाओं के गूढ़ चित्र जैसी ये कविताएं कि सहृदय पाठक ठिठक कर बार-बार अवगाहन करे और हर बार शब्दों के अंतराल में कुछ नए अर्थों को पा लेने की उदासी और खुशी से एक साथ दो-चार होता रहे. कवि उमत जी को बधाई और अरुण जी को धन्यवाद।

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