मति का धीर : हरिशंकर परसाई























हरिशंकर परसाई
22 अगस्त 1924, (जमानी, होशंगाबाद¸ मध्य प्रदेश)
10 अगस्त 1995

व्यंग्य संग्रह : तब की बात और थी, भूत के पाँव पीछे, बेईमानी की परत, पगडंडियों का जमाना, सदाचार का ताबीज, वैष्णव की फिसलन, विकलांग श्रद्धा का दौर, माटी कहे कुम्हार से, शिकायत मुझे भी है, और अंत में, हम इक उम्र से वाकिफ हैं, अपनी अपनी बीमारी, प्रेमचंद के फटे जूते, काग भगोड़ा, आवारा भीड़ के खतरे, ऐसा भी सोचा जाता है, पगडंडियों का जमाना, तुलसीदास चंदन घिसैं

कहानी संग्रह : जैसे उसके दिन फिरे, दो नाकवाले लोग, हँसते हैं रोते हैं, भोलाराम का जीव

उपन्यास : तट की खोज, रानी नागफनी की कहानी, ज्वाला और जल

संस्मरण : तिरछी रेखाएँ

संपादन :  वसुधा (साहित्यिक पत्रिका) के संस्थापक-संपादक 

सम्मान : साहित्य अकादमी पुरस्कार, शिक्षा सम्मान (मध्य प्रदेश शासन), शरद जोशी सम्मान

हरिशंकर परसाई हिंदी के अन्यतम व्यंग्यकार हैं. उनका व्यंग्य-बोध न उथला है न कर्कश. उनमें हावी होने वाली आक्रामकता नहीं है. कबीर की तरह तिलमिला देने वाली ईमानदारी है. स्वतंत्र भारत के मध्यवर्ग की आचरणगत विद्रूपता और विवशता पर उनके पास एक समझ भरा पाठ है. व्यापक सामाजिक सरोकारों के साथ उनके लेखन में अध्यवसाय की गहराई और बोधि कथाओं की तरह मानवीय संदेश हैं. 
आज उनके जन्म दिन पर विचारक आलोचक प्रो. पुरुषोत्तम अग्रवाल का आलेख. यह आलेख व्यंग्यकार के मन्तव्य और उसकी मंशा का गहराई से जाकर विवेचन करता है, किंचित निर्ममता से. यह प्रशस्ति लेख नहीं है, इसकी प्रकृति मूल्यांकनपरक है. यह जितना हरिशंकर परसाई पर है उतना ही एक रचनाकार के सरोकार और उसके आत्मसंघर्ष पर भी.साथ ही हरिशंकर परसाई के तीन व्यंग्य भी आप पढ़ सकेंगे.  
    



                                                

धन्य और धिक्कार की शक्तियों के बारे में ...                              
पुरुषोत्तम अग्रवाल




:      :


परसाई जी का एक संकलन प्रकाशित हुआ, ऐसा भी सोचा जाता है. वाणी प्रकाशन से. इसके पहले पृष्‍ठ पर लेखक की ओर से चार वाक्‍य हैं: ये निबंध मैंने पिछले चार सालों में लिखे हैं.  इनमें विषय की विविधता है. सामाजिक, धार्मिक, सांस्‍कृतिक, राजनैतिक विषयों पर मेरे अनुभव और चिन्‍तन इन निबंधों में हैं. इससे अधिक कुछ नहीं कहना. जहॉं बात खुद ही बोलती हो, वहॉं अधिक कुछ कहने की ज़रूरत ही क्‍या? और इस संकलन में बात जो बोल रही है, उसका महत्‍व इस बात में है कि इन निबंधों के जरिए हम एक प्रतिबद्ध लेखक के आत्‍म संघर्ष के साथ संवाद कर सकते हैं. इन निबंधों में परसाई जी की चेतना अपने नैतिक सरोकारों में अडिग रहती हुई भी अपने राजनैतिक और वैचारिक आग्रहों की नये सिरे से पड़ताल करती है. इन निबंधों में कई स्‍थापनाएँ हैं, जो शुद्ध गोत्र मार्क्‍सवादियों को आज भी खटकेंगी- दस बरस पहले तो कुफ्र ही लगतीं. धार्मिक अंधविश्‍वासों का विरोध जारी रखते हुए भी इन निबंधों में विज्ञान को धर्म का विकल्‍प नहीं माना जा रहा है. विज्ञान ही सत्‍य के बोध का एकमात्र वाहक है - इस तानाशाह दृष्‍टि के स्‍थान पर हम परसाई जी के इन निबंधों में मनुष्‍य की समग्र चेतना में विज्ञान के साथ धर्म की अहमियत की भी स्‍वीकृति का भाव पाते हैं. विज्ञान स्‍वयमेव नैतिक है, और जीवन के अन्‍य आयामों की जांच के प्रतिमानों का "वैज्ञानिक" होना पर्याप्‍त है, इस जड़ीभूत मान्‍यता के स्‍थान पर इस पुस्‍तक में हम पढ़ते हैं,


धर्म की साधना और विज्ञान की खोज का एक ही उद्देश्‍य है- मनुष्‍य का उदात्‍तीकरण, उसकी ऊर्ध्‍वगति, मनुष्‍य का मंगल ....जब धर्म मनुष्‍य के मंगल के ऊँचे पद से गिराया जाता है तब उसके नाम से निहित स्‍वार्थ अधर्मी दंगा कराकर मनुष्‍यों की हत्‍या कराते हैं. और जब विज्ञान को उसके ऊँचे लक्ष्‍य से स्‍वार्थी साम्राज्‍यवादी उतारते हैं तो हिरोशिमा और नागासाकी पर अणु बम गिरते हैं और लाखों मनुष्‍य मारे जाते हैं. वह मनुष्‍य ही है जो धर्म और विज्ञान का सही या गलत प्रयोग करता है. वरना धर्म पोथी में है और विज्ञान प्रयोगशाला  में. ईश्‍वर को रामकृष्‍ण परमहंस ने सार्वभौमिक सत्‍य, विवेक और प्रेम माना है." (पृ. 74)

मतलब यह कि अपनी अंतर्निहित उच्‍चता का दावा विज्ञान, तार्किकता के आधार पर करे, या धर्म दैवीयता के आधार पर- ऐसे दावों की परख कर प्रतिमान तो वास्‍तविक मानवीय व्‍यवहार ही   है. मनुष्‍य की ऊर्ध्‍वगति के प्रसंग में किसकी क्‍या भूमिका है- इसी से मालूम पड़ेगा कि उसकी नैतिक महत्‍ता कितनी कम या ज्‍यादा है. मनुष्‍य की ऊर्ध्‍वगति, उसके मंगल की समस्‍याओं का वास्‍तविक संदर्भ है: समाज का शक्‍ति विमर्श. इस विमर्श के विभिन्‍न समाजों में विभिन्‍न रूप हैं और भूमिकाओं की प्रगतिशीलता या दुर्गतिशीलता का निर्धारण इस शक्‍ति विमर्श के प्रसंग में पक्षधरता से ही होता है. न तो धर्म अनिवार्यत: प्रतिक्रियावादी है, न विज्ञान स्‍वभावत: प्रगतिशील. ऐसे सुविधाजनक विभाजनों की सीमाएँ भयावह रूप से उजागर हो चुकी हैं और वास्‍तविकता, परसाई जी के शब्‍दों में यह है कि,

विज्ञान ने बहुत से भय भी दूर कर दिए हैं, हालांकि नये भय भी पैदा कर दिए हैं. विज्ञान तटस्‍थ होता है. उसके सवालों का, चुनौतियों का जवाब धर्म को देना होगा. मगर विज्ञान का उपयोग जो लोग करते हैं, उनमें वह गुण होना चाहिए, जिसे धर्म देता है. वह आध्‍यात्‍मिकता (स्‍पिरिचुअलिज्‍म) अन्‍तत: मानवतावाद . वरना विज्ञान विनाशकारी भी हो जाता है." (पृ. 77)
     
मार्क्‍सवादी लेखक द्वारा विज्ञानवाद का ऐसा साहसिक नकार महत्‍वपूर्ण है, इससे भी अधिक महत्‍वपूर्ण है, उस सामाजिक राजनैतिक विमर्श का नकार जो समाज के बदलाव या पुनर्निर्माण के प्रसंग में राज्‍यसत्‍ता के सवालों के घेरे से बाहर निकलना ही नहीं चाहता. मुख्‍य या एकमात्र समस्‍या अर्थतंत्र और राज्‍यसत्‍ता की ही है, बाकी दिशाओं में किए गये प्रयत्‍न केवल सुधारवाद हैं, ऐसे प्रयत्‍नों का कोई खास अर्थ कम से कम क्रांतिकारियों के लिए नहीं है-इस "प्रगतिशील" अंधविश्‍वास से परसाई जी को लगातार उलझन होती थी. बहुत पहले से वे ट्रेड यूनियनों की इस बात के लिए आलोचना करते आ रहे थे कि उनके एजेंडा पर श्रमिक वर्ग की सामाजिक चेतना के विकास को जरूरी प्राथमिकता नहीं मिलती. जात-पॉंत से लेकर सांप्रदायिकता तक के सवालों पर लोक शिक्षण ट्रेड यूनियन और कम्‍यूनिस्‍ट पार्टी का काम क्‍यों नहीं है- यह बात परसाई जी को कभी समझ नहीं आई.
     
अर्थतंत्र, विज्ञान और राज्‍यसत्‍ता पर आत्‍यंतिक निर्भरता आधुनिक दृष्‍टिकोण की बुनियादी समस्‍या के ही विविध पहलू हैं. मार्क्‍स के चिंतन का असली दार्शनिक महत्‍व इस 'आधुनिक' चिंतन में एकायामीपन का ऐसा विकल्‍प प्रस्‍तुत करने में ही निहित था, जिसमें उस मूल तर्क को समझने की कोशिश की गयी थी जो विभिन्‍न संरचनाओं के बीच अंतस्‍सूत्र का काम करता है. इस विकल्‍प का उचित विकास सामाजिक शक्‍तिविमर्श में निहित वर्चस्‍व और प्रतिरोध की प्रक्रियाओं को समझने की ओर होना चाहिए था. दुर्भाग्‍य से, मार्क्‍सवाद ने आधुनिकतावाद के मूल तर्क को आत्‍मसात कर लिया और मार्क्‍सवादी राजनीति राज्‍यसत्‍ता के तर्क से टकराने तक सीमित होकर रह गयी. यह इस राज्‍यसत्‍तापरक मार्क्‍सवाद का स्‍वाभाविक नतीजा ही है कि सांस्‍कृतिक सवालों पर संगठित मार्क्‍सवाद का रवैया आमतौर से लीपापोती करने का होता है. मामला चाहे मुक्‍तिबोध की पुस्‍तक पर प्रतिबंध का हो, चाहे सहमत की 'हम सब अयोध्‍या' प्रदर्शनी का. यह बात अभी तक संगठित मार्क्‍सवाद की वैचारिकता में स्‍थित नहीं हुई है कि तथाकथित सांस्‍कृतिक सवाल असल में सामाजिक सता विमर्श के सवाल हैं. याने तथाकथित राजनैतिक सवालों से कहीं ज्‍यादा गहरे अर्थ में सत्‍ता के राजनीति के सवाल.
     
ऐसे सवालों पर कम्‍युनिस्‍ट पार्टी की लापरवाही ने मुक्‍तिबोध को बहुत गहरे में व्‍यथित किया था. परसाई जी के चालीस साल के लेखन में जो व्‍यथा व्‍याप्‍त है उसका भी एक ज़रूरी पहलू समाज-संस्‍कृति की राजनीति और उसके प्रति संगठित मार्क्‍सवाद की उपेक्षा से जुड़ता है. आज वाम हलकों में सांप्रदायिकता को फासीवाद कहना आम है, और यह भी कृपापूर्वक मान लिया गया है कि अल्‍पसंख्‍यक सांप्रदायिकता के खतरे की उपेक्षा अंतत: बहुसंख्‍यक सांप्रदायिकता को भी बढ़ावा देती है लेकिन दसेक बरस पहले तक सांप्रदायिकता को फासीवाद कहने में काफी मीन मेख निभा ली जाती थी. अकाली दल और मुस्‍लिम लीग के साथ मिल कर आंदोलन चलने और सरकार बनाने की सफाई यह कह कर दी जाती थी कि इस तरह इन पार्टियों के मास बेस को वैज्ञानिक विचारधारा की ओर खींचा जा सकेगा. ऐसे दौर में हम लोगों ने 1983 में जिज्ञासा का पहला अंक निकाला था . परसाई जी बहुत उत्‍साहित थे इसके प्रति. उन्‍होंने पत्र लिखा-
     
आपका पत्र और फोल्‍डर मिला. जो आप लोगों की चिंता है वही मेरी. मैं पिछले तीस सालों से इसी काम में लगा रहा हूँ. मगर हमारे बुद्धिजीवी और राजनेता लगातार illusions  में जानबूझ कर रहे. सही नाम नहीं दिये. फासिज्‍म को, जो संगठित और क्रियाशील है, महज सांप्रदायिक प्रवृत्‍ति कहते रहे. मेरा ख्‍याल है कि बुद्धिजीवियों से boldly कहना चाहिए कि सही बात यह है. आप ध्‍यान दें. वे शायद ध्‍यान न दें पर हमें कहना बन्‍द नहीं करना चाहिए.

'
जिज्ञासा' निकालिये . मेरे द्वारा जो करणीय हो बताइये.'
     
परसाई जी को "करणीय" तो हम क्‍या बताते, हॉं, इतना संतोष जरूर महसूस कर सकते हैं कि  “boldly” कहना बंद नहीं किया- 'जिज्ञासा' का प्रकाशन जारी न रख पाने के बावजूद.

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नितांत निर्वैयक्‍तिक ढंग से परसाई जी के बारे में लिख पाना मेरे लिए मुश्‍किल ही है. सन् चौहत्‍तर में, ग्‍वालियर के लक्ष्‍मीबाई कॉलेज के छात्र संघ ने उन्‍हें बुलाया था. उनका भाषण सुनने का वह मेरे लिए पहला और आखिरी मौका था. मैं तब तक हिन्‍द पॉकेट बुक से प्रकाशित 'उल्‍टी सीधी' पढ़ कर अभिभूत हो चुका था और अपने "राष्‍ट्रवादी" बुजुर्गों, रिश्‍तेदारों का धिक्‍कार भी झेल चुका था, ऐसी बेहूदा किताबें पढ़ने के लिए. अपने भाषण में परसाई जी ने क्रांति के लिए उत्‍सुक नौजवानों को अपनी प्रसिद्ध सलाह दी थी, 'इस कॉलेज के लड़के, लड़कियॉं आपस में विवाह कर लें तो बड़ा परिवर्तनकारी काम हो जाएगा.' जितनी प्रसिद्ध सलाह थी, उतनी ही अपेक्षित श्रोताओं की प्रतिक्रिया भी...'हि हि...खी...खी....' लेकिन यह विचित्र लेखक था, ऊँची-ऊँची बातें करने की बजाय सीधी (या (उल्‍टी-सीधी' ?) बात कर रहा था, सीधे शब्‍दों में. समाज को बदलना है तो शुरुआत खुद से करो.
     
और जिस बदलाव की शुरुआत खुद से होनी हो, वह काफी गड़बड़ बदलाव होता है. ऐसे बदलाव की बातें समझ तो बढ़ाती हैं, सपने तो दिखाती हैं, लेकिन खुद को परेशान करने की कीमत पर.
     
परसाई जी के लेखन को पढ़ने में कठिनाई यही है. वह लेखन पाठक को खुद को परेशान करता है.
     
'ऐसा भी सोचा जाता है' में एक निबन्‍ध है, 'जरूरत है सामाजिक आन्‍दोलनों की. इसके ये दो पैराग्राफ पढ़ें :
     
समाज में धन्‍य और धिक्‍कार की शक्‍तियाँ होती हैं. ये सामाजिक सदाचरण बनाये रखती हैं. मैंने पिछले कुछ सालों से समाज को इन शक्‍तियों को खाते देखा है. या गलत जगह प्रयोग करते देखा है. जो चालीस साल पहले धिक्‍कार पाते थे, वे धन्‍य पाने लगे हैं और जिन्‍हें धन्‍य मिलता था, वे अपमानित पीड़ित और अवहेलित हैं. सामाजिक शक्तियां तटस्‍थ भी हो गई हैं. चालीस साल पहले जो घूसखोर बदनाम हो गया, वह सिर उठाकर नहीं चलता था. वह समाज से धिक्‍कार पाता था. आज वह सफल आदमी माना जाता है. वह ऊंचा सिर करके चलता है. लोग उसकी हवेली दिखाकर तारीफ करते हैं- बड़ा चतुर है यह आदमी. क्‍या हवेली तानी है. लाखों बैंक में हैं. एक हमारे बेटे हैं. दस साल नौकरी करते हो गए. सूखी तनखा घर लाते हैं. बिल्‍कुल बुद्धू हैं."

सदियों के अनुभव, विवेक, प्रज्ञा और संवेदना से जो जीवन मूल्‍य हमने विकसित किये थे, उन्‍हें आजादी मिलते ही चालीस सालों में नष्‍ट कर लिया.  अब सरकार और संगठन प्राचीन शिल्‍प और चित्र ले जाकर विदेशों में दिखाते हैं कि इतनी महान और समृद्ध हमारी संस्‍कृति है. कोई पूछे कि अब आप कैसे हैं ? सौंदर्य रचना संस्‍कृति का अंग है. पर आप तो कुरूपता की रचना कर रहे हैं.” (पृ. 26-27)

     
परसाई जी आजीवन 'धन्‍य' और 'धिक्‍कार' का विवेक जगाए रखने की कोशिश करते रहे, कुरूपता की रचना का जो अनुष्‍ठान उन्‍होंने अपनी आंखों देखा, उसकी परतों को उघाड़ने की कोशिश करते रहे. जाहिर है कि ऐसी किसी भी कोशिश के लिए एक वैचारिक फ्रेमवर्क की जरूरत होती ही है, जिसमें लेखक यथार्थ के अपने अनुभवों को संवेदना के रूप में ढालता है. जब लेखकीय सरोकारों और लेखक द्वारा अपनाये गये वैचारिक फ्रेमवर्क के बीच अंतर्विरोध उत्‍पन्‍न होने लगे तो गहरे तनाव की स्थिति बनती है. किसी लेखक के मूल्‍यांकन का एक जरूरी प्रतिमान यह भी है कि उसकी रचनाशीलता इस तनाव से किस तरह जूझती है. इस कोण से देखने पर वह सीमा उजागर होती है, जो परसाई जी ने स्‍वयं अपनी रचनात्‍मकता पर आरोपित कर ली थी. उन्‍होंने कई जगह अपने नैतिक सरोकारों पर भाकपा के वैचारिक फ्रेमवर्क को हावी होने दिया, परिणामस्‍वरूप उनकी संवेदना पर डॉग्‍मैटिक वैल्‍यू जजमेंट हावी हो गये. जयप्रकाश जी के संपूर्ण क्रांति आंदोलन की अंदरूनी सीमाओं और उससे जुड़े तत्‍वों की आलोचना और बात है, स्‍वयं जयप्रकाश जी को हास्‍यास्‍पद रूप में प्रस्‍तुत करना और बात. राजनीतिक टिप्‍पणीकार और सर्जनात्‍मक लेखक में फर्क यही है कि राजनीतिक टिप्‍पणीकार घटनाओं के विवरण से तुरंत आकलन पर पहुंचना चाहता है, जबकि सर्जनात्‍मक लेखक अपने प्रतिपक्ष पर भी मूल्‍य निर्णय देने की हड़बड़ी नहीं करता. मूल्‍य निर्णय वह देता अवश्‍य है, लेकिन सारी जटिलता को गहराई से परख कर, राजनीतिक पार्टियों की तात्‍कालिक राजनैतिक मांगों से निर्लिप्‍त रह कर. लेखक की राजनैतिक चेतना और पार्टियों की राजनैतिक मांग के बीच का फर्क स्‍वाभाविक तो है ही, लेखक के कोण से वह सर्जनात्‍मकता की शर्त भी है.

पार्टी की समझदारी इस बात में है कि वह लेखक की राजनैतिक चेतना के अपने स्‍वरूप और आग्रह का सम्‍मान करे. दुर्भाग्‍य से कई बार ऐसा होता है कि पार्टी लाइन को लागू करने का उत्‍साह पार्टी से कहीं ज्‍यादा लेखक लोग ही दिखाने लगते हैं. आजादी के तुरंत बाद रामविलास जी की आलोचना जिस तीक्ष्‍ण वेधी उत्‍साह से साहित्‍य में पार्टी लाइन लागू कर रही थी, उससे पार्टी को क्‍या लाभ हुआ, पता नहीं, हां , साहित्‍य में बहुत सारे जरूरी सवालों का परिप्रेक्ष्‍य जरूर लंबे अरसे के लिए विकृत हो गया. निकट अतीत से ही याद करें तो अफगानिस्‍तान में रूसी फौजों की उपस्थिति की बाबा नागार्जुन ने जो आलोचना की, उससे क्रुद्ध होकर बाबा को घेरने का जो अभियान चलाया गया,  उसका मूल तर्क यही तो था कि "पार्टी कैन डू नो रांग. चिढ़ाने की गरज से नहीं, बात को समझने की गरज से कहा जा सकता है कि अफगानिस्‍तान के सवाल पर नागार्जुन का रूख बुनियादी नैतिक संवेदना का था. इस नैतिक संवेदना को "पॉलिटिकल करेक्‍टनेस की कसौटी पर कसना उल्‍टी गंगा बहाना है- असल में पॉलिटिकल करेक्‍टनेस की किसी समय प्रचलित अवधारणाओं को नैतिक संवेदना की कसौटी पर परखा जाना चाहिए और साहित्‍य ऐसी संवेदना की अभिव्‍यक्ति के प्रामाणिक रूपों में से एक है. राजनीति के पीछे चलने वाली सच्‍चाई नहीं, उसके आगे मशाल दिखाती सच्‍चाई.

     
वैचारिक फ्रेम वर्क के प्रति आत्‍यंतिक प्रतिबद्धता ने परसाई जी के लेखन में समस्‍याएं जरूर पैदा कीं लेकिन इन समस्‍याओं से उत्‍पन्‍न बेचैनी उनके सर्जनात्‍मक मानस में कहीं न कहीं बनी रही. 'ऐसा भी सोचा जाता है' के निबंधों में वह बेचैनी सतह पर आ गयी है. जाति, धर्म, सामाजिक आंदोलन, अस्मिताओं के तनाव इन सवालों पर देश के वामपंथी पुनर्विचार के लिए विवश हुए हैं. विवश होकर विचार या पुनर्विचार करना स्‍वाभाविक ही है, बशर्ते कि विचार की प्रक्रिया में निश्‍चंदला हो, पांचवें सवार का वस्‍त्र धारण करने की चतुराई नहीं. परसाई जी के इन निबंधों की विशेषता उनके निश्‍छल आत्‍मसंघर्ष में ही है. वे खुद को 'सदा सही ठहराने की कोशिश नहीं करते. वे अपने स्‍वीकृत विचार की सीमाओं के अहसास से कतराने की कोशिश नहीं करते. इसीलिए उनके आत्‍मसंघर्ष का साक्ष्‍य देते इन निबंधों में न आत्‍मदया है, न आत्‍म विज्ञापन. ये निबंध एक वामपंथी बौद्धिक द्वारा अपने वैचारिक उपकरणों की पुन: पड़ताल का साक्ष्‍य देते हैं- और साथ ही बुनियादी नैतिक सरोकारों की निरंतरता का.

     
परसाई जी के नैतिक सरोकारों को यदि एक शब्‍दसूत्र में व्‍यंजित करना हो तो कहना चाहिए: सक्रिय संवेदना. इसीलिए उनके व्‍यंग्‍य के सबसे ज्‍यादा शिकार बने हैं मध्‍यवर्ग की कायरता को व्‍यंजित करता 'बेचारा भला आदमी' और अवसरवादिता का देहधारी रूप 'भैय्या सांब.' एक की सारी संवेदना सिर्फ आत्‍मोन्‍मुखी है और दूसरे की सारी सक्रियता भी. दूसरी ओर परसाई जी के लेखन में कुछ लोग लगातार सराहना भी पाते हैं. वह लड़की जो पांच 'दीवानों' की कुटिलता के आगे न रोती है, न बिध जाती है, बल्कि उन्‍हें मूर्ख बनाते हुए अपना सही जीवन साथी चुन लेती है. वह छात्र जो शोषक गुरू के सामने तन कर खड़ा होता है. 'धन्‍य' और 'धिक्‍कार' की शक्तियों का जो विवेक परसाई जी के मानस में स्‍पष्‍ट है, वह अपने पात्रों के प्रति उनके रवैये में बिना लाग  लपेट के स्‍पष्‍ट होता है. जो रचनात्‍मक आत्‍मसंघर्ष उनके बाद के निबंधों में है, उसका सुर शुरू में कुछ मद्धम ही रहा, वरना परसाई जी की विवेक दृष्‍टि का रचनात्‍मक प्रतिफलन और भी मार्मिक होता.
     
बहरहाल, परसाई जी के लेखन ने उन्‍हें भी प्रभावित किया है, (और ऐसे लोग लाखों  की तादाद में हैं) जो उनके वैचारिक फ्रेम वर्क से काफी दूर हैं. ऐसा क्‍यों ? उन की कला का सधाव सीखने योग्‍य है . बतरस के लहजे में शुरूआत, तीखी उक्‍तियॉ और पैनी नज़र इन उपकरणों के जरिए परसाई विलक्षण प्रभाव छोड़ते हैं. इस विलक्षणता का अत्‍यंत मार्मिक दृष्‍टांत है: इंस्‍पेक्‍टर मातादीन चॉद पर. इस फंटासी का पाठक अनेक हास्‍यजनक स्‍थितियों और विसंगतियों से गुजरता हुआ जहॉं पहॅूंचता है, वहॉं बचता है सिर्फ आंतक; जिसे हम स्‍वाभाविक मानने के आदी हो गये हैं, उस वास्‍तविकता के आतंक को हमारे सामने लाता यह शब्‍द चित्र 

कोई आदमी किसी मरते हुए आदमी के पास नहीं जाता, इस डर से कि वह कत्‍ल के मामले में फँसा दिया जायेगा. बेटा बीमार बाप की सेवा नहीं करता. वह डरता है बाप मर गया तो कहीं उस पर हत्‍या का आरोप न लगा दिया जाए. घर जलते रहते हैं और कोई बुझाने नहीं जाता  डरताई है कि कहीं उस पर आग लगाने का जुर्म कायम न कर दिया जाये. बच्‍चे नदी में डूबते रहते हैं और कोई उन्‍हें नहीं बचाता.  इस डर से कि उस पर बच्‍चों को डुबाने का आरोप न लग जाए. सारे मानवीय संबंध समाप्‍त हो रहे हैं.

कितनी डरावनी स्‍थिति है. यह कहानी फंटासी में रची गयी है, लेकिन जो स्‍थिति यहॉं बयान की गयी है. वह फंटासी कहाँ है ? वह तो हमारे रोजमर्रा के जीवन का एक पहलू है- डरावना, अमानवीय. इसलिए और भी डरावना कि 'हमें' इसमें अस्‍वाभाविक सा कुछ लगना ही बंद हो गया है. ऐसी कुछ संवेदना को झकझोरना ही परसाई की सक्रिय संवेदना का लक्ष्‍य है.

विडंबना यह है कि यथार्थ का डरावनापन कई बार लेखकों के लिए सुलभ युक्‍ति, बल्‍कि एक तरह के पोस्‍चर में बदल जाता है. यथार्थ के सिर्फ अशुभ पहलू पर जमी निगाह को आलोचनात्‍मक होने का आत्‍मतोष भी आसानी से सिद्ध हो जाता है.  व्‍यंग्‍य की विधा हो तो यथार्थ के प्रति लेखकीय रवैये का सिनिकल हो जाना बहुत संभव होता है, जैसा कि राग दरबारी में हुआ है. परसाई जी के समग्र लेखन को यदि एक रचना की तरह पढ़ें तो दिखता है कि सिनिसिज्‍म के प्रति उनमें एक तरह का चौकन्‍नापन है. वे सजग हैं कि, मनुष्‍य के पतन की जितनी गहराई है, उससे अधिक ऊँचाई मनुष्‍यता के उत्‍थान की है .”  (फिर उसी नर्मदा मैया की जय)

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परसाई जी को अहसास है कि आदमी ऑटोमैटम (मशीन) नहीं है, वह सिर्फ तर्क से नहीं समझा जा सकता.  इस अहसास की निष्‍पत्‍तियॉं उनके लेखन में अधिकांश जगहों पर मुखर नहीं हैं, यह बात और है. शायद वैचारिक फ्रेमवर्क की बाधा का एक और रूप लेकिन इस लेख – ‘फिर उसी नर्मदा मैया की जय’- में परसाई भी स्‍पष्‍टतया कहते हैं, “आदमी कब लकड़बग्‍घा हो जाए, कब करुणा सागर  ठिकाना नहीं है.
     
यह बहुत ही रोचक है कि नयी कहानी के दौर में, जबकि परसाई के लेखन की आवाज एकदम अलग सुनी जा सकती थी, नहीं सुनी गयी.  डॉ. नामवर सिंह ने स्‍वीकार किया है,

उस समय परसाई जी की इन कहानियों (भोलाराम का जीव’, ‘भूत के पॉंव पीछे’ ‘जैसे उनके दिन फिरे’) की ओर ध्‍यान जाना चाहिए था.... वो दरअसल यशपाल की व्‍यंग्‍य करने वाली कहानियों की परंपरा में, लेकिन किसी सपाट फार्मूले के मुताबिक लिखी गयी कहानियाँ वो नहीं थीं.... उनकी रचना धर्मिता की अच्‍छी तरह जॉंच की जानी चाहिए कि आखिर वह कौन सी चीज रही है जो परसाई जी को कहानियों की दुनिया से निबंधों की ओर ले गयी. (साम्‍य परसाई  अंक, जुलाई 1990, पृ0 296).

नयी कहानी के दौर के अन्‍य लेखकों से तुलना करते हुए श्रीलाल शुक्‍ल आत्‍मकथ्‍य से परसाई जी की विरक्‍ति को रेखांकित करते हैं, उनका कहना है मुझे नहीं मालूम कि बोलने के मामले में वे मेरी तरह हैं या अज्ञेय की तरह, हंसते अश्‍क की तरह हैं या कुँअर नारायण की तरह, रहन-सहन, खान-पान में मण्‍टो या निराला के नजदीक हैं या पन्‍त और बच्‍चन के.  मेरा इन मामलों में अनजान होना ही इस बात की दलील है कि परसाई का कोई निजी जन-सम्‍पर्क एवं सूचना प्रसारण विभाग नहीं है और है भी तो वह बहुत नामाकूल है . (ऑखन देखी  सं. कमला प्रसाद, 1981 पृ. 425)

परसाई पर आलोचना का ध्‍यान न जाना परसाई  के नामाकूल जनसंपर्क विभाग की वजह से भी हो सकता है, लेकिन समस्‍या का गहनतर पहलू भी है. नयी कहानी के दौर में कहानी के मूल्‍यांकन के प्रतिमान कविता से उधार लिए जा रहे थे, जबकि परसाई की रचनाशीलता का स्‍वभाव दूसरा था.  कविता लिखी जाती है, उसमें सजग आयास अंतर्निहित है. गद्य मुख्‍यत: बोलने के लिए है.  मोलियर के नाटक के पात्र जोर्दां महाशय बेचारे यह जान कर चकित हो जाते हैं कि वे जीवन भर गद्य ही बोलते रहे हैं.  परसाई की कहानियॉं और निबंध इसी जीवन भर बोले जाने वाले भाषा रूप का सर्जनात्‍मक विस्‍तार है. कविता के प्रतिमानों को कहानी पर लागू करने की पद्धति अपनाने पर यह स्‍वाभाविक ही था कि बतरस की अनायासता का विस्‍तार करने वाली और घटना को केवल दृष्‍टांत की तरह बरतने वाली रचनात्‍मकता आलोचना को उत्‍तेजित न कर पाए. 

परसाई की कहानियॉं और निबंध हमें याद दिलाते हैं कि सर्जनात्‍मकता के कविता परक सायासता और वैशिष्‍ट्य के सिवाय अन्‍य रूप भी हो सकते हैं.   सायासता के मुहावरे में बोलचाल की शब्‍दावली को लाना एक उपलब्‍धि है, लेकिन सहज, स्‍वाभाविक बोलचाल के गद्य को सर्जनात्‍मक लेखन में बदल देना यह गद्य के अपने क्षेत्र की उपलब्‍धि है.  इसका मूल्‍यांकन उधार के प्रतिमानों पर नहीं किया जा सकता.  इसके लिए गद्य के अपने स्‍वभाव के प्रति संवेदनशील प्रतिमान चाहिए.

परसाई के गद्य की विशेषता को व्‍यक्‍त करने के लिए शब्‍द तलाशते मन में कवि भवानी प्रसाद मिश्र की पंक्‍ति कौंधती है, “ जैसा हम बोलते हैं, वैसा तू लिख. फिर भी हमसे अलग तू दिख . सचमुच, क्‍या परसाई ऐन वैसा ही नहीं लिखते, जैसा हम बोलते हैं. और इसी तरह लिखे गये से हमको गुजारते हुए परसाई उन्‍हीं शब्‍दों, उन्‍हीं विन्‍यासों में एक अलग तरह का अवकाश रच देते हैं, जहाँ हम न केवल सच्‍चाइयों को बल्‍कि उन सच्‍चाइयों को गढ़ने वाली भाषा को सर्वथा अनपेक्षित तेवरों के साथ देख पाते है: 

सिर्फ़ यह नहीं है कि ईसा अपना सलीब खुद ढो रहा है या सूली पर टँगा है. ईसा को अपने पाँवों पर अपने हाथों से कील ठोंकने को मजबूर किया जा रहा है और वह कह रहा है-  पिता इन्‍हें हरगीज़ माफ़ मत करना, क्‍योंकि ये साले जानते हैं, ये क्‍या कर रहे हैं.”  (न्‍याय का दरवाजा)
     
जैसे मेरी आपकी बातचीत का कोई टुकड़ा उठा लिया गया है. लेकिन एक भयानक अर्थ का दरवाज़ा खोलने के उस टुकड़े का ऐसा उपयोग हमारे बोलने जैसा लिखने वाले लेखक को अलग दिखा देता है. परसाई जी का लेखन सहज गद्य के सर्जनात्‍मक विस्‍तार का विलक्षण उदाहरण है. उनके यहाँ आयास दिखता ही नहीं, इतनी सहज है उनकी   अभिव्‍यक्‍ति. इसलिए यदि 'सेल्‍फ कांशस लेखन के दौर में उन पर ध्‍यान नहीं गया तो ताज्‍जुब की कोई बात नहीं . सहज को स्‍वभाव का हिस्‍सा बनाना बड़ी कठिन साधना की माँग करता है. परसाई का लेखन उस 'सहज साधना' को चीन्‍हने का लेखन है.
     
सहजता के ही फलस्‍वरूप परसाई का लेखन संवादधर्मी लेखन है. सामाजिक -  राजनैतिक समस्‍याओं पर एकदम खरी बात करने के बावजूद परसाई अपने पाठक को चिढ़ाते प्रतीत नहीं होते. चिढ़ाने और संवाद स्‍थापित करने का फ़र्क परसाई के मानस को बखूबी मालूम है. (काश, राजेन्‍द्र यादव भी 'हंस' के संपादकीय लिखते समय इस फ़र्क को याद रखते! काश, मैं स्‍वयं इस फ़र्क को हमेशा याद रख पाऊॅं !) यह संवाद धर्मिता की वह लक्ष्‍य है, जिस के कारण परसाई जी न केवल कहानी की विधा से निबन्‍ध की ओर जाते हैं, बल्‍कि आगे चलकर उनकी रचनाएं कहानी और निबन्‍ध के पारंपरिक फ़र्क से आगे बढ़ जाती है. कहानी सरीखे चित्रण से आरंभ कर लेखक पाठक से सीधा संवाद करने लगता है या निबन्‍ध - सरीखे बयान से आरंभ कहानी का ताना- बाना गूँथने लगता है. सहमति, असहमति अपनी जगह लेकिन परसाई जी के लिए लेखन का लक्ष्‍य है:  ज्‍यादा से ज्‍यादा  लोगों के साथ संवाद (कई बार उपदेश भी) इस लक्ष्‍य की साधना ही महत्‍वपूर्ण है, विधाओं की शास्‍त्रीय शुद्धता नहीं.
     
'धन्‍य' और 'धिक्‍कार' की शक्‍तियों की परसाई जी की अपनी समझ है, दो टूक और बे झिझका सर्जनात्‍मकता साधने का कोई अलग आयास नहीं है, कोई दावा नहीं है, लेकिन "जीवन भर बोले जाने वाले गद्य की अपनी ज़िजीविषा में परसाई जी की गहरी आस्‍था है. इसी कारण वे इस गद्य का सर्जनात्‍मक विस्‍तार अपने लेखन में करते हैं- कविता के सामने किसी तरह की हीनता ग्रंथि महसूस किए बग़ैर . वे न तो गद्य में कविता की नकल करते हैं, और न कविता को कोसकर कहानी की टोपी में पंख लगाते हैं.



 (वसुधा के जून १९९८ में प्रकाशित आलेख का  संशोधित रूप)
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व्यंग्य रचनाएँ

बदचलन

एक बाड़ा था. बाड़े में तेरह किराएदार रहते थे. मकान मालिक चौधरी साहब पास ही एक बँगले में रहते थे.
एक नए किराएदार आए. वे डिप्टी कलेक्टर थे. उनके आते ही उनका इतिहास भी मुहल्ले में आ गया था. वे इसके पहले ग्वालियर में थे. वहाँ दफ्तर की लेडी टाइपिस्ट को लेकर कुछ मामला हुआ था. वे साल भर सस्पैंड रहे थे. यह मामला अखबार में भी छपा था. मामला रफा-दफा हो गया और उनका तबादला इस शहर में हो गया.
डिप्टी साहब के इस मकान में आने के पहले ही उनके विभाग का एक आदमी मुहल्ले में आकर कह गया था कि यह बहुत बदचलनचरित्रहीन आदमी है. जहाँ रहावहीं इसने बदमाशी की. यह बात सारे तेरह किराएदारों में फैल गई.
किरदार आपस में कहते - यह शरीफ आदमियों का मोहल्ला है. यहाँ ऐसा आदमी रहने आ रहा है. चौधरी साहब ने इस आदमी को मकान देकर अच्छा नहीं किया.
कोई कहते - बहू-बेटियाँ सबके घर में हैं. यहाँ ऐसा दुराचारी आदमी रहने आ रहा है. भला शरीफ आदमी यहाँ कैसे रहेंगे.
डिप्टी साहब को मालूम था कि मेरे बारे में खबर इधर पहुँच चुकी है. वे यह भी जानते थे कि यहाँ सब लोग मुझसे नफरत करते हैं. मुझे बदमाश मानते हैं. वे इस माहौल में अड़चन महसूस करते थे. वे हीनता की भावना से ग्रस्त थे. नीचा सिर किए आते-जाते थे. किसी से उनकी दुआ-सलाम नहीं होती थी.
इधर मुहल्ले के लोग आपस में कहते थे - शरीफों के मुहल्ले में यह बदचलन आ बसा है.
डिप्टी साहब का सिर्फ मुझसे बोलचाल का संबंध स्थापित हो गया था. मेरा परिवार नहीं था. मैं अकेला रहता था. डिप्टी साहब कभी-कभी मेरे पास आकर बैठ जाते. वे अकेले रहते थे. परिवार नहीं लाए थे.
एक दिन उन्होंने मुझसे कहा - ये जो मिस्टर दास हैंये रेलवे के दूसरे पुल के पास एक औरत के पास जाते हैं. बहुत बदचलन औरत है.
दूसरे दिन मैंने देखाउनकी गर्दन थोड़ी सी उठी है.
मुहल्ले के लोग आपस में कहते थे - शरीफों के मुहल्ले में यह बदचलन आ गया.
दो-तीन दिन बाद डिप्टी साहब ने मुझसे कहा - ये जो मिसेज चोपड़ा हैंइनका इतिहास आपको मालूम हैजानते हैं इनकी शादी कैसे हुईतीन आदमी इनसे फँसे थे. इनका पेट फूल गया. बाकी दो शादीशुदा थे. चोपड़ा को इनसे शादी करनी पड़ी.


दूसरे दिन डिप्टी साहब का सिर थोड़ा और ऊँचा हो गया.
मुहल्ले वाले अभी भी कह रहे थे - शरीफों के मुहल्ले में कैसा बदचलन आदमी आ बसा.
तीन-चार दिन बाद फिर डिप्टी साहब ने कहा - श्रीवास्तव साहब की लड़की बहुत बिगड़ गई है. ग्रीन होटल में पकड़ी गई थी एक आदमी के साथ.
डिप्टी साहब का सिर और ऊँचा हुआ.
मुहल्ले वाले अभी भी कह रहे थे - शरीफों के मुहल्ले में यह कहाँ का बदचलन आ गया.
तीन-चार दिन बाद डिप्टी साहब ने कहा - ये जो पांडे साहब हैंअपने बड़े भाई की बीवी से फँसे हैं. सिविल लाइंस में रहता है इनका बड़ा भाई.

डिप्टी साहब का सिर और ऊँचा हो गया था.
मुहल्ले के लोग अभी भी कहते थे - शरीफों के मुहल्ले में यह बदचलन कहाँ से आ गया.
डिप्टी साहब ने मुहल्ले में लगभग हर एक के बारे में कुछ पता लगा लिया था. मैं नहीं कह सकता कि यह सब सच था या उनका गढ़ा हुआ. आदमी वे उस्ताद थे. ऊँचे कलाकार. हर बार जब वे किसी की बदचलनी की खबर देतेउनका सिर और ऊँचा हो जाता.
अब डिप्टी साहब का सिर पूरा तन गया था. चाल में अकड़ आ गई थी. लोगों से दुआ सलाम होने लगी थी. कुछ बात भी कर लेते थे.
एक दिन मैंने कहा - बीवी-बच्चों को ले आइए न. अकेले तो तकलीफ होती होगी.
डिप्टी साहब ने कहा - अरे साहबशरीफों के मुहल्ले में मकान मिले तभी तो लाऊँगा बीवी-बच्चों को.



अश्लील

शहर में ऐसा शोर था कि अश्‍लील साहित्‍य का बहुत प्रचार हो रहा है. अखबारों में समाचार और नागरिकों के पत्र छपते कि सड़कों के किनारे खुलेआम अश्‍लील पुस्‍तकें बिक रही हैं.
दस-बारह उत्‍साही समाज-सुधारक युवकों ने टोली बनाई और तय किया कि जहाँ भी मिलेगा हम ऐसे साहित्‍य को छीन लेंगे और उसकी सार्वजनिक होली जलाएँगे.
उन्‍होंने एक दुकान पर छापा मारकर बीच-पच्‍चीस अश्‍लील पुस्‍तकें हाथों में कीं. हरके के पास दो या तीन किताबें थीं. मुखिया ने कहा - आज तो देर हो गई. कल शाम को अखबार में सूचना देकर परसों किसी सार्वजनिक स्‍थान में इन्‍हें जलाएँगे. प्रचार करने से दूसरे लोगों पर भी असर पड़ेगा. कल शाम को सब मेरे घर पर मिलो. पुस्‍तकें में इकट्ठी अभी घर नहीं ले जा सकता. बीस-पच्‍चीस हैं. पिताजी और चाचाजी हैं. देख लेंगे तो आफत हो जाएगी. ये दो-तीन किताबें तुम लोग छिपाकर घर ले जाओ. कल शाम को ले आना.
दूसरे दिन शाम को सब मिले पर किताबें कोई नहीं लाया था. मुखिया ने कहा - किताबें दो तो मैं इस बोरे में छिपाकर रख दूँ. फिर कल जलाने की जगह बोरा ले चलेंगे.
किताब कोई लाया नहीं था.
एक ने कहा - कल नहींपरसों जलाना. पढ़ तो लें.
दूसरे ने कहा - अभी हम पढ़ रहे हैं. किताबों को दो-तीन बाद जला देना. अब तो किताबें जब्‍त ही कर लीं.
उस दिन जलाने का कार्यक्रम नहीं बन सका. तीसरे दिन फिर किताबें लेकर मिलने का तय हुआ.
तीसरे दिन भी कोई किताबें नहीं लाया.
एक ने कहा - अरे यारफादर के हाथ किताबें पड़ गईं. वे पढ़ रहे हैं.
दसरे ने कहा - अंकिल पढ़ लेंतब ले आऊँगा.
तीसरे ने कहा - भाभी उठाकर ले गई. बोली की दो-तीन दिनों में पढ़कर वापस कर दूँगी.
चौथे ने कहा - अरेपड़ोस की चाची मेरी गैरहाजिर में उठा ले गईं. पढ़ लें तो दो-तीन दिन में जला देंगे.
अश्‍लील पुस्‍तकें कभी नहीं जलाई गईं. वे अब अधिक व्‍यवस्थित ढंग से पढ़ी जा रही हैं.


आवारा भीड़ के खतरे


एक अंतरंग गोष्ठी सी हो रही थी युवा असंतोष पर. इलाहाबाद के लक्ष्मीकांत वर्मा ने बताया- पिछली दीपावली पर एक साड़ी की दुकान पर काँच के केस में सुंदर साड़ी से सजी एक सुंदर मॉडल खड़ी थी. एक युवक ने एकाएक पत्थर उठाकर उस पर दे मारा. काँच टूट गया. आसपास के लोगों ने पूछा कि तुमने ऐसा क्यों कियाउसने तमतमाए चेहरे से जवाब दिया- हरामजादी बहुत खूबसूरत है.


हम 4-5 लेखक चर्चा करते रहे कि लड़के के इस कृत्य का क्या कारण हैक्या अर्थ हैयह कैसी मानसिकता हैयह मानसिकता क्यों बनीबीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध में ये सवाल दुनिया भर में युवाओं के बारे में उठ रहे हैं - पश्चिम से संपन्न देशों में भी और तीसरी दुनिया के गरीब देशों में भी. अमेरिका से आवारा हिप्पी और हरे राम और हरे कृष्ण’ गाते अपनी व्यवस्था से असंतुष्ट युवा भारत आते हैं और भारत का युवा लालायित रहता है कि चाहे चपरासी का नाम मिलेअमेरिका में रहूँ. स्टेट्स’ जाना यानि चौबीस घंटे गंगा नहाना है. ये अपवाद हैं. भीड़-की-भीड़ उन युवकों की है जो हताशबेकार और क्रुद्ध हैं. संपन्न पश्चिम के युवकों के व्यवहार के कारण भिन्न हैं. सवाल है -उस युवक ने सुंदर मॉडल पर पत्थर क्यों फेंकाहरामजादी बहुत खूबसूरत है - यह उस गुस्से का कारण क्योंवाहकितनी सुंदर है - ऐसा इस तरह के युवक क्यों नहीं कहते?


युवक साधारण कुरता पाजामा पहिने था. चेहरा बुझा था जिसकी राख में चिंगारी निकली थी पत्थर फेंकते वक्त. शिक्षित था. बेकार था. नौकरी के लिए भटकता रहा था. धंधा कोई नहीं. घर की हालत खराब. घर में अपमानबाहर अवहेलना. वह आत्म ग्लानि से क्षुब्ध. घुटन और गुस्सा एक नकारात्क भावना. सबसे शिकायत. ऐसी मानसिकता में सुंदरता देखकर चिढ़ होती है. खिले फूल बुरे लगते हैं. किसी के अच्छे घर से घृणा होती है. सुंदर कार पर थूकने का मन होता है. मीठा गाना सुनकर तकलीफ होती है. अच्छे कपड़े पहिने खुशहाल साथियों से विरक्ति होती है. जिस भी चीज सेखुशीसुंदरतासंपन्नतासफलताप्रतिष्ठा का बोध होता हैउस पर गुस्सा आता है.


बूढ़े-सयाने स्कूल का लड़का अब मिडिल स्कूल में होता है तभी से शिकायत होने लगती है. वे कहते हैं - ये लड़के कैसे हो गएहमारे जमाने में ऐसा नहीं था. हम पितागुरुसमाज के आदरणीयों की बात सिर झुकाकर मानते थे. अब ये लड़के बहस करते हैं. किसी को नहीं मानते. मैं याद करता हूँ कि जब मैं छात्र थातब मुझे पिता की बात गलत तो लगती थीपर मैं प्रतिवाद नहीं करता था. गुरु का भी प्रतिवाद नहीं करता था. समाज के नेताओं का भी नहीं. मगर तब हम छात्रों को जो किशोरावस्था में थेजानकारी ही क्या थीहमारे कस्बे में कुल दस-बारह अखबार आते थे. रेडियो नहीं. स्वतंत्रता संग्राम का जमाना था. सब नेता हमारे हीरो थे - स्थानीय भी और जवाहर लाल नेहरू भी. हम पितागुरुसमाज के नेता आदि की कमजोरियाँ नहीं जानते थे. मुझे बाद में समझ में आया कि मेरे पिता कोयले के भट्टों पर काम करने वाले गोंडों का शोषण करते थे. पर अब मेरा ग्यारह साल का नाती पाँचवी कक्षा का छात्र है. वह सवेरे अखबार पढ़ता हैटेलीवीजन देखता हैरेडियो सुनता है. वह तमाम नेताओं की पोलें जानता है. देवीलाल और ओमप्रकाश चौटाला की आलोचना करता है. घर में उससे कुछ ऐसा करने को कहो तो वह प्रतिरोध करता है. मेरी बात भी तो सुनो. दिन भर पढ़कर आया हूँ. अब फिर कहते ही कि पढ़ने बैठ जाऊँ.


थोड़ी देर खेलूँगा तो पढ़ाई भी नहीं होगी. हमारी पुस्तक में लिखा है. वह जानता है घर में बड़े कब-कब झूठ बोलते हैं.


ऊँची पढ़ाईवाले विश्वविद्यालय के छात्र सवेरे अखबार पढ़ते हैंतो तमाम राजनीति और समाज के नेताओं के भ्रष्टाचारपतनशीलता के किस्से पढ़ते हैं. अखबार देश को चलानेवालों और समाज के नियामकों के छलकपटप्रपंचदुराचार की खबरों से भरे रहते हैं. धर्माचार्यों की चरित्रहीनता उजागर होती है. यही नेता अपने हर भाषण हर उपदेश में छात्रों से कहते हैं- युवकोंतुम्हें देश का निर्माण करना है (क्योंकि हमने नाश कर दिया है) तुम्हें चरित्रवान बनना है (क्योंकि हम तो चरित्रहीन हैं) शिक्षा का उद्देश्य पैसा कमाना नहीं हैनैतिक चरित्र को ग्रहण करना है - (हमने शिक्षा और अशिक्षा से पैसा कमाना और अनैतिक होना सीखा) इन नेताओं पर छात्रों-युवकों की आस्था कैसे जमेछात्र अपने प्रोफेसरों के बारे सब जानते हैं. उनका ऊँचा वेतन लेना और पढ़ाना नहीं. उनकी गुटबंदीएक-दूसरे की टाँग खींचनानीच कृत्यद्वेषवश छात्रों को फेल करनापक्षपातछात्रों का गुटबंदी में उपयोग. छात्रों से कुछ नहीं छिपा रहता अब. वे घरेलू मामले जानते हैं. ऐसे गुरुओं पर छात्र कैसे आस्था जमाएँ. ये गुरु कहते हैं छात्रों को क्रांति करना है. वे क्रांति करने लगेतो पहले अपने गुरुओं को साफ करेंगे. अधिकतर छात्र अपने गुरु से नफरत करते हैं.


बड़े लड़के अपने पिता को भी जानते हैं. वे देखते हैं कि पिता का वेतन तो सात हजार हैपर घर का ठाठ आठ हजार रुपयों का है. मेरा बाप घूस खाता है. मुझे ईमानदारी के उपदेश देता है. हमारे समय के लड़के-लड़कियों के लिए सूचना और जानकारी के इतने माध्यम खुले हैंकि वे सब क्षेत्रों में अपने बड़ों के बारे में सबकुछ जानते हैं. इसलिए युवाओं से ही नहीं बच्चों तक से पहले की तरह की अंध भक्ति और अंध आज्ञाकारिता की आशा नहीं की जा सकती. हमारे यहाँ ज्ञानी ने बहुत पहले कहा था - प्राप्तेषु षोडसे वर्षे पुत्र मित्र समाचरेत. उनसे बात की जा सकती हैउन्हें समझाया जा सकता है. कल परसों मेरा बारह साल का नाती बाहर खेल रहा था. उसकी परीक्षा हो चुकी है और एक लंबी छुट्टी है. उससे घर आने के लिए उसके चाचा ने दो-तीन बार कहा. डाँटा. वह आ गया और रोते हुए चिल्लाया हम क्या करेंऐसी तैसी सरकार की जिसने छुट्टी कर दी. छुट्टी काटना उसकी समस्या है. वह कुछ तो करेगा ही. दबाओगे तो विद्रोह कर देगा. जब बच्चे का यह हाल है तो किशोरों और तरुणों की प्रतिक्रियाएँ क्या होंगी.


युवक-युवतियों के सामने आस्था का संकट है. सब बड़े उनके सामने नंगे हैं. आदर्शोंसिद्धांतोंनैतिकताओं की धज्जियाँ उड़ते वे देखते हैं. वे धूर्तताअनैतिकताबेईमानीनीचता को अपने सामने सफल एवं सार्थक होते देखते हैं. मूल्यों का संकट भी उनके सामने है. सब तरफ मूल्यहीनता उन्हें दिखती है. बाजार से लेकर धर्मस्थल तक. वे किस पर आस्था जमाएँ और किस के पदचिह्नों पर चलेंकिन मूल्यों को मानें?


यूरोप में दूसरे महायुद्ध के दौरान जो पीढ़ी पैदा हुई उसे लास्ट जनरेशन’ (खोई हुई पीढ़ी) का कहा जाता है. युद्ध के दौरान अभावभुखमरीशिक्षा चिकित्सा की ठीक व्यवस्था नहीं. युद्ध में सब बड़े लगे हैंतो बच्चों की परवाह करनेवाले नहीं. बच्चों के बाप और बड़े भाई युद्ध में मारे गए. घर कासंपत्ति कारोजगार का नाश हुआ. जीवन मूल्यों का नाश हुआ. ऐसे में बिना उचित शिक्षासंस्कारभोजन कपड़े के विनाश और मूल्यहीनता के बीज जो पीढ़ी बनकर जवान हुईतो खोई हुई पीढ़ी इसके पास निराशाअंधकारअसुरक्षाअभावमूल्यहीनता के सिवाय कुछ नहीं था. विश्वास टूट गए थे. यह पीढ़ी निराशविध्वंसवादीअराजकउपद्रवीनकारवादी हुई. अंग्रेज लेखक जार्ज ओसबर्न ने इस क्रुद्ध पीढ़ी पर नाटक लिखा था जो बहुत पढ़ा गया और उस पर फिल्म भी बनी. नाटक का नाम लुक बैक इन एंगर’. मगर यह सिलसिला यूरोप के फिर से व्यवस्थित और संपन्न होने पर भी चलता रहा. कुछ युवक समाज के ड्राप आउट’ हुए. वीट जनरेशन’ हुई. औद्योगीकरण के बाद यूरोप में काफी प्रतिशत बेकारी है. ब्रिटेन में अठारह प्रतिशत बेकारी है. अमेरिका ने युद्ध नहीं भोगा. मगर व्यवस्था से असंतोष वहाँ पैदा हो हुआ. अमेरिका में भी लगभग बीस प्रतिशत बेकारी है. वहाँ एक ओर बेकारी से पीड़ित युवक हैतो दूसरी ओर अतिशय संपन्नता से पीड़ित युवक भी. जैसे यूरोप में वैसे ही अमेरिकी युवकोंयुवतियों का असंतोषविद्रोहनशेबाजीयौन स्वच्छंदता और विध्वंसवादिता में प्रगट हुआ. जहाँ तक नशीली वस्तुओं के सेवन के सवाल हैयह पश्चिम में तो है हीभारत में भी खूब है. दिल्ली विश्वविद्यालय के पर्यवेक्षण के अनुसार दो साल पहले सत्तावन फीसदी छात्र नशे के आदी बन गए थे. दिल्ली तो महानगर है. छोटे शहरों मेंकस्बों में नशे आ गए हैं. किसी-किसी पान की दुकान में नशा हर जगह मिल जाता है. स्मैक’ और पॉट’ टॉफी की तरह उपलब्ध हैं.


छात्रों-युवकों को क्रांति कीसामाजिक परिवर्तन की शक्ति मानते हैं. सही मानते हैं. अगर छात्रों युवकों में विचार होदिशा हो संगठन हो और सकारात्मक उत्साह हो. वे अपने से ऊपर की पीढ़ी की बुराइयों को समझें तो उन्हीं बुराइयों के उत्तराधिकारी न बनेउनमें अपनी ओर से दूसरी बुराइयाँ मिलाकर पतन की परंपरा को आगे न बढ़ाएँ. सिर्फ आक्रोश तो आत्मक्षय करता है. एक हर्बर्ट मार्क्यूस चिंतक हो गए हैंजो सदी के छठवें दशक में बहुत लोकप्रिय हो गए थे. वे स्टूडेंट पावर’ में विश्वास करते थे. मानते हैं कि छात्र क्रांति कर सकते हैं. वैसे सही बात यह है कि अकेले छात्र क्रांति नहीं कर सकते. उन्हें समाज के दूसरे वर्गों को शिक्षित करके चेतनाशील बनाकर संघर्ष में साथ लाना होगा. लक्ष्य निर्धारित करना होगा. आखिर क्या बदलना है यह तो तय हो. अमेरिका में हर्बर्ट मार्क्यूस से प्रेरणा पाकर छात्रों ने नाटक ही किए. हो ची मिन्ह और चे गुएवारा के बड़े-बड़े चित्र लेकर जुलूस निकालना और भद्दी ,भौंड़ीअश्लील हरकतें करना. अमेरिकी विश्विद्यालय की पत्रिकाओं में बेहद फूहड़ अश्लील चित्र और लेख कहानी. फ्रांस के छात्र अधिक गंभीर शिक्षित थे. राष्ट्रपति द गाल के समय छात्रों ने सोरोबोन विश्वविद्यायल में आंदोलन किया. लेखक ज्याँ पाल सार्त्र ने उनका समर्थन किया. उनका नेता कोहने बेंडी प्रबुद्ध और गंभीर युवक था. उनके लिए राजनैतिक क्रांति करना संभव नहीं था. फ्रांस के श्रमिक संगठनों ने उनका साथ नहीं दिया. पर उनकी माँगें ठोस थी जैसे शिक्षा पद्धति में आमूल परिवर्तन. अपने यहाँ जैसी नकल करने की छूट की क्रांतिकारी माँग उनकी नहीं थी. पाकिस्तान में भी एक छात्र नेता तारिक अली ने क्रांति की धूम मचाई. फिर वह लंदन चला गया.


युवकों का यह तर्क सही नहीं है कि जब सभी पतित हैंतो हम क्यों नहीं हों. सब दलदल में फँसे हैंतो जो नए लोग हैंउन्हें उन लोगों को वहाँ से निकालना चाहिए. यह नहीं कि वे भी उसी दलदल में फँस जाएँ. दुनिया में जो क्रांतियाँ हुई हैंसामाजिक परिवर्तन हुए हैंउनमें युवकों की बड़ी भूमिका रही है. मगर जो पीढ़ी ऊपर की पीढ़ी की पतनशीलता अपना ले क्योंकि वह सुविधा की है और उसमें सुख है तो वह पीढ़ी कोई परिवर्तन नहीं कर सकती. ऐसे युवक हैंजो क्रांतिकारिता का नाटक बहुत करते हैंपर दहेज भरपूर ले लेते हैं. कारण बताते हैं - मैं तो दहेज को ठोकर मारता हूँ. पर पिताजी के सामने झुकना पड़ा. यदि युवकों के पास दिशा होसंकल्पशीलता होसंगठित संघर्ष हो तो वह परिवर्तन ला सकते हैं. पर मैं देख रहा हूँ एक नई पीढ़ी अपने से ऊपर की पीढ़ी से अधिक जड़ और दकियानूसी हो गई है. यह शायद हताशा से उत्पन्न भाग्यवाद के कारण हुआ है. अपने पिता से तत्ववादीबुनियादपरस्त (फंडामेंटलिस्ट) लड़का है.


दिशाहीनबेकारहताशनकारवादीविध्वंसवादी बेकार युवकों की यह भीड़ खतरनाक होती है. इसका प्रयोग महत्वाकांक्षी खतरनाक विचारधारावाले व्यक्ति और समूह कर सकते हैं. इस भीड़ का उपयोग नेपोलियनहिटलर और मुसोलिनी ने किया था. यह भीड़ धार्मिक उन्मादियों के पीछे चलने लगती है. यह भीड़ किसी भी ऐसे संगठन के साथ हो सकती है जो उनमें उन्माद और तनाव पैदा कर दे. फिर इस भीड़ से विध्वंसक काम कराए जा सकते हैं. यह भीड़ फासिस्टों का हथियार बन सकती है. हमारे देश में यह भीड़ बढ़ रही है. इसका उपयोग भी हो रहा है. आगे इस भीड़ का उपयोग सारे राष्ट्रीय और मानव मूल्यों के विनाश के लिएलोकतंत्र के नाश के लिए करवाया जा सकता है. 
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purushottam53@gmail.com

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  1. purushottam ji ka yah alekh parsai ji ke nibandho ki mukammal nishkarsh deti huyee samalochna hai, parsai ji ke vyangy ki to khub charcha huyee, par yah paksh unka puri tarah anavrit nahin hai. nibandho me ve ek alag tarah ke chintak ke rup me hamare samne ate hen, apne bane banaye khancho ko chirte huye ve bhartiya parampara ke marxwadi malum padte hen, jo ab tak , nibandhon se purv, meri samajh me aise nahi the...

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  2. बहुत मन से लिखा गया आत्मीयतापूर्ण, मूल्यांकनपरक-संस्मरणात्मक आलेख. पुरुषोत्तम ने कई बिंदुओं को बड़े सलीक़े से उभरा है, और तत्कालीन साहित्यिक-सांस्कृतिक परिदृश्य में परसाई होने के मायनों को रेखांकित किया है. मेरे लिए तो परसाईजी का साहित्यिक महत्त्व होने के साथ-साथ उनकी वे अमूल्य स्मृतियां भी बड़ी पूंजी हैं जो 1977 में सफ़दरजंग अस्पताल में उनके भरती रहने के दौरान, प्रति दिन के मिलने और काफ़ी वक़्त साथ बिताने से निर्मित-संचित हुई थी. इससे एक बरस पहले सतना प्रगतिशील लेखक सम्मेलन में उनसे मिलना, और निकट से जानना इस सम्बन्ध की शुरुआत थी. पुरुषोत्तम को बधाई, और परसाईजी को प्रणाम.

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  3. मैं सोचता हूँ कि लेखन में निजी अनुभव अथवा निजी तल्खी का प्रयोग तब तक अपेक्षित प्रभाव नहीं छोड़ता जबतक उसे वास्तविकता के चाक पर घुमाया न गया हो. वास्तविक विडम्बनाओं से आर पार होता एक लेखक पहले तो अपने अन्दर एक आक्रोश को जन्म लेता देखता है और जब इस आक्रोश को वह समाधिस्थ होने के स्तर तक साध लेता है तब एक व्यंग्य रचना का जन्म होता है. परसाई जी सधे जाने और साधने के अप्रतिम उदाहरण हैं. आत्मालोचना का इतना बढ़िया इस्तेमाल उन्होंने अपने कुछ निबंधों में किया है कि मैंने तो उन रचनाओं को व्यंग्य का मानक ही स्वीकार कर लिया है और हमेशा व्यंग्य पढता हूँ तो जांच करता हूँ कि परसाई जी वाले मजे की मात्रा अथवा वह उद्भूत जेहनी बेचैनी कुछ अंशों में ही मुझे मिली कि नहीं..

    अभी परसाई जी पर पुरुषोत्तम अग्रवाल जी को पढना बढ़िया अनुभवदायी रहा. मेरे लिए यह पोस्ट, कोर्स की पाठ्य-सामग्री के रूप में उपस्थित हुई है जिसे अभी दो तीन चार बार और पढूंगा. मुझे हमेशा से पाठ्य पुस्तक में मौजूद साहित्य को काबिल आलोचकों की टिप्पणी के साथ पढना अच्छा लगता रहा है और इस रूप में यह आलेख अपने आप में अद्वितीय है.. परसाई जी पर केन्द्रित इस आलेख को पढना न सिर्फ परसाई जी को अलग रौशनी में समझने सरीखा है बल्कि एक संस्मरण यात्रा के रूप में पुरुषोत्तम जी को भी और गुनने का मौका मिला है.

    शुक्रिया पुरुषोत्तम सर, हमारे समय में आपकी जरुरी उपस्थिति के लिए.. शुक्रिया समालोचन इतना बढ़िया फीड उपलब्ध कराने के लिए.

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  4. Manisha Kulshreshtha22 अग॰ 2012, 4:07:00 pm

    परसाई जी को इस तरह विश्लेषित कौन कर सकता है! 'जैसा हम बोलते हैं, वैसा तू लिख, फिर भी सबसे अलग दिख' भवानी प्रसाद मिश्र की यह पंक्ति न केवल आपने परसाईं जी के सन्दर्भ में सटीक तौर पर रखी है बल्कि क्या यह पंक्ति आप पर भी खरी नहीं उतरती. गर्व होता है सच्च !

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  5. बहुत ही अच्छा लेख ..परसाई जी के बारे बहुत सी नयी बातों पर यह लेख विस्तारपूर्वक रोशनी डालता है ,उनके व्यक्तित्व और रचना संसार को नए अलोक में देखने का यह प्रयास निस्संदेह मूल्यवान है .........कहने को यह सस्मरण यात्रा है लेकिन इसकी शाखें साहित्य से सम्बंधित सभी विधाओ को छु लेती हैं .....अरसे पहले विश्वनाथ जी की पुस्तक परसाईजी जी पर आई थी ......बाद में कमलाजी की सम्पादित पुस्तक ......और अब अग्रवाल जी का यह लेख ...........बहुत अच्छा और प्रखर वैचारिक आग्रहों को सजोंता और संभालता हुआ लेख ............एक बड़े व्यंगकार पर एक काबिल और योग्य आलोचक के इस सार्थक प्रयास के लिए समालोचन को अशेष बधाइयाँ

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  6. maine tho unse khoob baten ki haon ....khoob suna hai,unke khoob photo shout kiye hain....mere anubhav unhei padhne k baad bahut alag tareh ke hain .....ve jin kagzon per likhte thye unmai se bahut se bekaar ho jatye thye .....unhee ko jala
    ker ..uskee aanc per jo dal pakai jaati thee ..vo jaisee bhee pakti thee gher ke sab vahee khatey thye...maine aise he tamaam vakayon ko sun samajh ker ...nuhai padha hai.....ab soc raha hun kuch likh bhee jYE ....JALD KARUNGA Y KAAM

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  7. i've taken the printout of all the articles by Purushottam si from this blog ...every lines is worth cherishing ..thanks for posting and keep posting Arun ji

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  8. maine apne aalekh me Parsaai ji ko aadunik kabeer ke roop me yaad kiya tha. nishchit hi aaj ke vyang me vo dhaar nahi....Naman...

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  9. निश्चित रूप से परसाई जी की अगणित पंक्तियाँ हैं जो मर्मस्पर्शी हैं बड़ी सरल और सीधी बातें हृदय में गंभीर प्रहार करती हैं। जबलपुर से होशंगाबाद परसाई जी का मुख्य कार्यक्षेत्र रहा है।

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  10. गहन अंतर्दृष्टिपूर्ण आलेख!

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