बात - बेबात : कमलानाथ



















कमलानाथ

1946
पेशे से इंजीनियर  तथा सिविल इंजीनियरिंग के प्रोफेसर हैं,
भारत सरकार के उद्यम एन.एच.पी.सी. में मुख्य अभियंता एवं जलविज्ञान विभागाध्यक्ष, और अंतर्राष्ट्रीय सिंचाई आयोग (आई.सी.आई.डी.) के सचिव के पदों पर रह चुके हैं.
कहानियां और व्यंग्य  मधुमती, साप्ताहिक हिंदुस्तान, धर्मयुग, वातायन, राजस्थान पत्रिका, लहर, जलसा आदि में  
वेदों, उपनिषदों आदि में जल, पर्यावरण, परिस्थिति विज्ञान सम्बन्धी उनके हिंदी और अंग्रेज़ी में लेख पत्रिकाओं, अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलनों व विश्वकोशों में छपे और चर्चित  
जलविद्युत अभियांत्रिकी पर उनकी पुस्तक देश विदेश में बहुचर्चित है तथा उनके अनेक तकनीकी लेख आदि विभिन्न राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय पत्रिकाओं व सम्मेलनों में प्रकाशित  
1976-77 में कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय में जल-प्रबंधन में फ़ोर्ड फ़ाउन्डेशन फ़ैलो 
विश्व खाद्य सुरक्षा और जल अभियांत्रिकी में उनके योगदान के लिए कई अंतर्राष्ट्रीय सम्मान 
वर्तमान में कमलानाथ जलविज्ञान व जलविद्युत अभियांत्रिकी में सलाहकार
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इस व्यंग्य का आधार शब्दों का मकड़जाल है, जिसमें अक्सर अर्थ ही गुम हो जाता है. एक स्वनाम धन्य साहित्यकार से जब व्यंग्यकार  मिलता है और उसके वाग्जाल में घिर जाता है तब इस आडम्बर का प्रतिउत्तर नकवी साहब अपनी उर्दू की महीन कताई से देते हैं. मैं यह सोच कर हैरान हूँ कि कमलानाथ के पास इस तरह की भाषा किस तरह आई होगी. आप भी देखिए. 




व्यंग्य

साहित्य के नक्कारखाने                     


कमलानाथ

नक़वी साहब कई दिनों से कह रहे थे कि हम जल्दी ही किसी दिन उस शख़्सियत से मिलें जिनका नाम विकास विमल है और जो कुछ समय से हमारे शहर में आ बसे हैं. ‘विमल’ शायद उनका उपनाम है. नक़वी साहब को ही उनके किसी मित्र ने बतलाया था कि ये सज्जन एक बहुत अच्छे साहित्यकार हैं जो न केवल लेख, कहानियां और कविताएं लिखते हैं बल्कि आधुनिक विश्व साहित्य और उसकी बदलती दिशा और दशा पर अच्छा अधिकार रखते हैं. यहाँ तक कि दर्शन पर भी उनकी मज़बूत पकड़ है. कई संस्थाओं द्वारा वे सम्मानित किये जाचुके हैं और उनकी कई पुस्तकें भी प्रकाशित चुकी हैं. ज़ाहिर है, ऐसे व्यक्ति से मिलने की उत्सुकता हो उठती है.

प्रोफ़ेसर सईद नक़वी मेरे मित्र हैं जो न केवल एक अच्छे शायर हैं, वरन् निहायत ही नफ़ीस और अदबदां इंसान भी हैं. वे गंभीर प्रकृति के और विद्वान क़ि‍स्म के व्यक्ति हैं और उर्दू, फ़ारसी में बहुत अच्छा और हिंदी साहित्य में काफ़ी कुछ दख़ल रखते हैं. शहर के बौद्धिक वर्ग में उनका अच्छा सम्मान और प्रभाव है. उनके मित्र ने साहित्य चर्चा के लिए विकास विमल जी के घर पर ही हमारी ‘गोष्ठी’ रखवा दी, लिहाज़ा नक़वी साहब और मैं विकास विमल जी के यहाँ पहुंचे.

पहली ही मुलाक़ात में विकास विमल जी ने निहायत ही बेतक्क़लुफ़ी, पर गर्मजोशी से हमारा स्वागत किया – ‘आइये, आइये साहेबान. कई दिनों से आपकी प्रतीक्षा थी. हम आज निश्चिन्तता से साहित्य चर्चा कर सकते हैं, आप जब तक चाहें. वैसे मैं विकास विमल हूँ. यानी हूँ तो क्या, विकास मेरे परिवार ने मेरा नाम निश्चित किया और ‘विमल’ मैंने बाद में उसमें जोड़ दिया. फ़िलहाल आप मुझे विकास या विमल, किसी भी नाम से पुकार सकते हैं ’.
मैंने अपना परिचय कराया – ‘मैं प्रद्युम्न चितले’.
नक़वी साहब ने कहा – ‘मैं सईद नक़वी’.

विमल जी बोले – ‘बस, बस. आप लोगों के और अधिक परिचय की आवश्यकता नहीं है, आपका नाम ही आपका परिचय है. वास्तव में काफ़ी दिनों से आप दोनों के साथ मैं साहित्य चर्चा करना चाहता था और यह सौभाग्य आज मिला है’.

‘धन्यवाद- शुक्रिया’ – लगभग एक साथ ही मैं और नक़वी साहब बोल उठे.
‘इसकी कोई आवश्यकता नहीं महानुभाव. इन असहिष्णुताजन्य कुंठाओं के बीच एक साहित्यकार ही तो होता है जो स्वनिर्मित बिम्बों के माध्यम से मिथकीय आख्यानों के परे बहु-आयामी अहंकारों के दंश को अकेला झेलता हुआ इस कल्पप्लावित समाज में जीता है’.
नक़वी साहब और मैंने एक दूसरे को एक क्षण के लिए देखा.
नक़वी साहब ने कहा – ‘आपकी ज़र्रानवाज़ी है जनाब’.
मैंने संकोच, आश्चर्य और विनय से सिर्फ़ थोड़ी गर्दन झुका दी.

‘आप मुझसे सहमत होंगे, चूँकि हम पहली बार मिल रहे हैं, हमारा बहुत सा बहुमूल्य समय तो व्यर्थ के वार्तालाप और औपचारिकताओं में ही नष्ट हो जायेगा. इस संकोच और प्रावरोध से तुरंत मुक्ति पाने की औषधि मालूम है क्या है?’

‘आप ही सुझाएँ’- मैंने कहा.
‘आइये’. विमल जी हमें अंदर वाले एक कमरे में ले गये जहाँ कुछ भरी हुई देशी विदेशी शराब की बोतलें रखी थीं. वहीँ कुछ नमकीन की प्लेटें, बर्फ़, पानी वगैरह भी.

‘आप समझ ही गए होंगे, वह औषधि है - दो दो पैग तुरंत, औपचारिकता का अंत’. अपनी ही तुकबंदी पर विमल जी खुश हुए और हमसे बिना पूछे पैग बनाने लगे.

नक़वी साहब थोड़े सकपकाए. उन्होंने पहले कभी शराब नहीं पी थी और वे उसे हराम समझते थे. मैंने भी पहले तो उन्हें कुछ कुछ रोकने की कोशिश करते हुए टालमटोल की, पर ज़्यादा देर तक उनसे बहस नहीं कर सका. बहरहाल, नक़वी साहब ने उन्हें उस समय मना लिया कि उनके धर्मानुसार उन्हें इस बाबत माफ किया जा सकता था. लिहाज़ा अपने खुद के लिए और मेरे लिए विमल जी ने दो बड़े पैग बना लिए. हम लोग फिर ड्राइंगरूम में लौट आये सारे साज़ो-सामान के साथ.

उनके ड्राइंगरूम में कई मैमेंटोज़, स्मृतिचिन्ह रखे थे जो विभिन्न संस्थाओं ने उनके सम्मान में और उनकी साहित्य सेवा और उत्कृष्ट लेखन के लिए उन्हें भेंट किये थे. कुछ गोटे लगे नारियल भी सजे हुए रखे थे, जैसे चांदी के हों. मैंने बड़े ध्यान से सभी स्मृतिचिन्हों पर उत्कीर्ण संस्थाओं के नाम पढ़े. मैं वास्तव में दुर्भाग्यशाली हूँ कि उनमें से किसी भी विलक्षण संस्था का नाम मैंने पहले कभी नहीं पढ़ा या सुना था. शर्म से फिर मैंने उन महान संस्थाओं के स्थान के बारे में जानने की कोशिश की जहां ये संस्थाएं स्थित थीं. उनमें लिखा था- लाल्यावास, नीलसोट, मेहसानाबाद आदि. पर इनकी भौगोलिक स्थिति भी मेरी अज्ञानता के कारण पता न लग सकी. शायद ये कोई छोटे गाँव या कस्बे थे. पर फिर मैने सोचा, आखिर भारत की आत्मा तो गाँव में ही निवास करती है. अपने अल्पज्ञान से शर्मिंदा होता हुआ और विमल जी को प्रसन्न करने गरज़ से मैं उस शैल्फ़ की तरफ़ गया जहाँ उनकी कई पुस्तकें रखी थीं. अपनी साहित्य में रुचि का प्रदर्शन करते हुए मैंने एक एक किताब को पलट कर देखना शुरू किया, खासतौर से यह जानने के लिए कि कौन कौन से जानेमाने प्रकाशकों ने उनकी पुस्तकें प्रकाशित की हैं. मेरे दुर्भाग्य से मुझे किसी प्रकाशक का नाम दिखाई नहीं दिया. हर पुस्तक विमल जी ने किसी प्रिंटर द्वारा अपने ही ‘प्रकाशन’ से छपवाई थी, ज़ाहिर है खुद के ही खर्चे से.

नक़वी साहब भी इस बीच उनके प्रकाशित ‘ग्रन्थ’ देख चुके थे और उनको सम्मानित करने वाली विभिन्न प्रसिद्ध संस्थाओं द्वारा प्रदत्त स्मृतिचिन्हों और दीवार पर टंगे मंढ़े हुए सम्मानपत्रों को भी.
मैंने विमल जी को बधाई देते हुए कहा- ‘विमलजी, वास्तव में आपका साहित्य सर्जन अत्यंत प्रशंसनीय है. इतने अद्भुत साहित्य का बाज़ार में अब तक उपलब्ध न होना और प्रकाश में न आना साहित्य प्रेमियों और पाठकों का कितना बड़ा नुकसान है. आपकी कई पुस्तकें तो कई वर्षों पुरानी हैं. अपनी इन पुस्तकों की समीक्षाएँ कहीं प्रकाशित कीजिये न’.

‘चितले जी आप बखूबी जानते हैं, विश्वसनीय साहित्य की वस्तुस्थिति इस कोलाहलयुक्त और तथाकथित साहित्य के नक्कारखाने में एक तूती से अधिक कुछ भी नहीं है. अज्ञानता और अंधकार भरे साहित्य-जलधि में यदि आप मेरे लेखन का कोई मोती डाल भी दें, तो वो कहाँ विलुप्त हो जायेगा, हमें ज्ञात भी नहीं होगा. पर्वतों की श्रृंखलाओं से निसृत झरनों के पानी में चाहे आप व्हिस्की का कॉर्क डालें या कैक्टस का कांटा, दोनों से बनी वृत्ताकार आकृति का विश्लेषण आप न्यूटन के गति-सिद्धांतों की समालोचना के अनुरूप ही करेंगे न’.

मैंने देखा विमल जी अपना ग्लास खाली भी कर चुके थे और मुझे आग्रह कर रहे थे कि मैं थोड़ी जल्दी करूं ताकि वे दूसरा पैग बना सकें. विमलजी के बृहद् वैचारिक कैनवास पर मुझे अनेक संभावनाएं नज़र आने लगीं. उनकी विश्लेषण की क्षमता निश्चित रूप से किसी से भी ज़्यादा ही थी. मैंने भी विमलजी के आग्रह को नहीं टाला, और वे शीघ्र ही हमारे लिए दूसरा उतना ही बड़ा पैग बना लाए. नक़वी साहब हमें भौंचक्के से देख रहे थे और अपने संतरे के जूस का लुत्फ़ उठा रहे थे.
मैंने फिर पूछा - ‘क्या आपने अपनी कोई भी पुस्तक समीक्षा के लिए कभी नहीं भेजी?’

‘भेजी थी एक प्रतिष्ठित पत्रिका को. आपको यह जान कर अत्यंत प्रसन्नता होगी कि उन्होंने वह पुस्तक समीक्षा के लिए सहर्ष स्वीकार करली. किन्तु जैसे मैंने कहा, बौद्धिक शून्यावस्था का प्रसार इतना सघन रूप से व्याप्त है कि हर व्यक्ति, संस्था, पत्रिका, समालोचक और समीक्षक जिसे हम साहित्यिक या स्तरीय मानते हैं, उसमें आकंठ डूबा है. अज्ञानता की उसी अवस्था में उस समीक्षक ने मेरी पुस्तक की जो छीछालेदर की और उसमें लिखी प्रत्येक पंक्ति का जो अनादर किया, आप समझ सकते हैं, मुझ जैसे साहित्यकर्मी और कवि के हृदय की क्या दुर्गति हुई होगी. उसने तो यहाँ तक लिख कर छाप दिया कि मुझे इस विषय का कोई ज्ञान ही नहीं है. मैं कह सकता हूँ कि भले ही मुझे लेटिन, ग्रीक, फ़ारसी आदि भाषाएँ न आती हों, पर उनकी पुस्तकों को मैं एक नितांत नया निर्वचन, एक समग्र नूतन अर्थ प्रदान कर सकता हूँ, जो भाषा का कोई भी तथाकथित जानकार नहीं देसकता. यही तो एक सहृदय कवि और एक कल्पनाशील साहित्यकार की विशेषता होती है. भला बताइये यदि किसी विषय को आप एक नया मुहावरा, एक नई दृष्टि, एक नया सोच, एक नया अर्थ, एक नई व्याख्या, एक सर्वथा ही नवीन आयाम दे रहे हैं तो उसमे विषय या भाषा का ज्ञान कहाँ से बीच में आगया? अब आप ही कहिये, उस समीक्षक की बुद्धि या उसके ज्ञान पर दया न करूँ तो क्या करूं?’ – विमलजी के मुंह से बरबस ही निकल पड़ा.

मन ही मन हँसते हुए मैंने उनके स्वर में स्वर मिलाया – ‘हाँ, वास्तव में यह तो सरासर आपत्तिजनक है’.

विमलजी फिर बोले –‘चितले जी, मैंने अपनी पहली पुस्तक जिसे मैंने वर्षों के शोध और श्रम से लिखा था और जिसमें हमारे महानतम पुरातन ग्रंथों- यानी वेदों और उपनिषदों को मैंने एक पूर्णतः नई वैज्ञानिक दृष्टि दी थी, एक प्रतिष्ठित प्रकाशन को भेजा. पर जैसा मैंने कहा, अब ज्ञान, विवेक, समझ, बुद्धि.. ये सारे शब्द सम्पूर्णतः खोखले और निरर्थक हो चुके हैं. उस प्रकाशन संस्था ने अपने तथाकथित नियम के अनुसार छापने से पहले मेरी पुस्तक की पांडुलिपि को आकलन के लिए अपने किसी तथाकथित संस्कृतज्ञ संपादक या समीक्षक के पास भेज दी. शब्दों के पारंपरिक  या शब्दकोशों में दिए अर्थ के अलावा इन तथाकथित विद्वानों को कुछ नया आता भी तो नहीं है.  इसीलिए उस मंदबुद्धि संपादक को निश्चित ही उसमें लिखे किसी भी अर्थ या व्याख्या को समझने में कठिनाई हुई होगी और उसने अपनी मूर्खतापूर्ण समीक्षा दे दी होगी, जिसके आधार पर उस तथाकथित प्रकाशक ने मेरी पाण्डुलिपि शुभकामनाओं सहित लौटा दी. अब आप ही सोचिये, जब नूतन ज्ञान इतनी दुर्लभ वस्तु बन जाये तो कितनी पीड़ा होती है. जिस भारत में ऋषियों ने वेदों, उपनिषदों आदि का संकलन-सर्जन किया, जिसमें अज्ञेय जी, दिनकर जी जैसे चिन्तक, साहित्यकार हुए, उसी भारत की यह दुर्दशा कि मेरे जैसे वास्तविक साहित्य सर्जन में और कृत्रिम, दूषित साहित्य में, जिसके रचयिता आजकल हर पत्रिका में छाये रहते हैं, जिनकी पुस्तकें और उनकी समीक्षाएं तथाकथित प्रतिष्ठित प्रकाशनगृहों द्वारा यूं ही छाप दी जाती हैं, कोई अंतर ही नहीं समझ सकता. दोनों को आप एक ही तराज़ू से कैसे तोल सकते हैं?’

नक़वी साहब बीच में ही बोले – ‘तो विमलजी, आप दूसरे किसी प्रकाशक को अपना कोई अन्य ग्रन्थ भेज देते’.

विमलजी ने तुरंत कहा –‘नहीं साहब, उसका भी कोई अर्थ नहीं होता. मुझे आजकल के सभी प्रकाशकों, समीक्षकों, साहित्यकारों के ज्ञान का अंदाज़ा पूरी तरह है. क्या आप नहीं सोचते मेरी दूसरी पुस्तक का भी वही हश्र होता? इसीलिए मैंने सोचा उन लोगों के ज्ञान का और अधिक उपहास कराना उचित नहीं. तभी से मैंने एक बहुत अच्छा मुद्रक ढूंढ लिया है जिसकी अच्छी नई प्रेस है और जो मेरी विद्वत्तापूर्ण पुस्तकें सहर्ष छाप देता है. अब कहिये क्या यह श्रेयस्कर विकल्प नहीं है? आप ही देखिये, मैं कितनी पुस्तकें प्रकाशित कर सका हूँ इस तरह’.

मैंने सुझाव दिया- ‘पर विमलजी, आप अपने शोधपूर्ण लेखों को तो पत्रिकाओं में छपवा सकते हैं, ताकि आपके इस विशद ज्ञान और आपकी रिसर्च से सभी लाभान्वित हो सकें’.

‘नहीं चितले जी. आपको मालूम ही है आजकल साहित्य और शोधों की चोरी किस स्तर तक होरही है. यदि मेरी रिसर्च को किसी दूसरे ने किसी दूसरी तरह प्रस्तुत करके चुरा लिया तो? ये मेरी वास्तविक आशंका है जिसके कारण ऐसे लेख मैं लिखता तो बड़े स्तर पर हूँ, पर कहीं भी छपवाता नहीं. और फिर पूरी सम्भावना है कि ज्ञान के अभाव में इन तथाकथित स्तरीय पत्रिकाओं को कुछ समझ में भी तो नहीं आयेगा मैंने क्या लिखा है’ – विमलजी ने तर्क दिया और पूरा ग्लास खाली कर दिया.

वे फिर बोले -  ‘पर यह केवल मेरी ही वेदना नहीं है. हमारी इस कोलोनी में रहने वाले मेरे कुछ अन्य साहित्यप्रेमी पड़ौसियों की भी है, जिनके साथ भी पहले कुछ ऐसा ही घट चुका है. साहित्यशास्त्रीय रचनाधर्मिता के लिए चाहिए प्रेरणा और उत्साहवर्धन, न कि छिद्रान्वेषण. अब हमने एक अत्यंत सक्रिय साहित्य मित्र-मंडल बना लिया है और हर शाम मिल कर हम एक दूसरे की प्रशंसा करके उत्साहवर्धन करते हैं, उच्चस्तरीय साहित्य चर्चा करते हैं और एक दूसरे की उत्कृष्ट रचनाओं का रसास्वादन करते हैं ’.

मुझ पर धीरे धीरे पहले ही ग्लास का असर होने लगा था और अब दूसरा ग्लास भी ख़त्म होने को था. मैंने सोचा साहित्य चर्चा फिर कभी, फिलहाल समय से घर लौटना ही बेहतर होगा. पर इस बीच विमलजी फिर से अंदर गए और दो ग्लास और बना लाए.
मैंने नक़वी साहब से मुख़ातिब होकर निकल चलने की गरज़ से कहा- ‘विमलजी सचमुच एक उत्कृष्ट साहित्यकार हैं. क्या हम अभी चलें और यहाँ दुबारा फिर कभी आयें साहित्य चर्चा के लिए?’
विमल जी ने टोका –

‘नहीं साहब, ये क्या कह रहे हैं? चर्चा तो अपने सम्पूर्ण सौंदर्य और चरम की ओर अब अग्रसर होगी. देखिये चितले जी, संवित्ति शाश्वत होती है और विश्वसनीयता का अंकुर अंतर्द्वंद्व की सम्प्रेषणीयता को वस्तुस्थिति का बोध करा देता है. इसीलिए चैतन्यता का दंडविधान विध्वंसक प्रवृत्तियों की चित्रात्मकता के अनुरूप होता है’.

विमलजी ने मेरी ओर तीसरा ग्लास खिसका दिया. उनके ज्ञान का असर मुझ पर भी होने लगा था.
मैंने ग्लास से दो घूँट लिए और कहा- ‘विमलजी, आप सही कह रहे हैं, किन्तु चिंतन की उद्घोषणा संक्रामकता का उद्धरण नहीं बन सकती. पुरातत्त्वान्वेषण की वास्तव में यही अग्निपरीक्षा है’.

विमलजी ने स्वीकृति दी- ‘हाँ, यही कारण कि विद्वत्तासूचक संक्रमण की वामपंथी विचारधारा, अनपेक्षित गुरिल्ला-युद्ध की प्रयोगात्मक प्रश्नावली बन जाती है. आप ही कहिये, क्या स्थितियों का ध्रुवीकरण संस्कृति के समीकरण के अनुरूप समालोचना का आत्मबोध नहीं कराता?’
मैंने कहा- ‘निश्चित ही कराता है विमलजी. वास्तव में भारशून्य अवस्था का बंजड़पन सभी उधेड़बुनी कल्पनाओं के किनारों पर छितरी घास का सौंदर्य ही है’.
विमलजी ने मेरी बात का समर्थन करते हुए कहा –

जी हाँ, वास्तविकता का साम्राज्य विज्ञान-उद्भूत बौद्धिकता का पर्याय तो है ही, उन सभी मिथक-कथाओं की विच्छिन्नता की अनासक्तता और अनुभूति भी है. तभी तो पुनर्गठन की राजनीति विस्मरण की पराकाष्ठा बन जाती है और सौंदर्य का सर्वेक्षण आदर्शहीनता का परिहास हो उठता है’.

इधर नक़वी साहब भी विमलजी के ज्ञान से प्रभावित होते दिखाई दिए.
मैंने कहा – ‘विमलजी, आपका साहित्य सर्जन निर्विवाद रूप से दर्शन के उन सारे सूत्रों का विश्लेषणात्मक अध्ययन है जिनके आधार पर आपकी शब्दावली और पुस्तकों का आकलन हो जाता है’.
विमलजी ने प्रसन्नता जताई- ‘हाँ चितले जी. प्रत्यभिज्ञादर्शन का प्रमाण प्रमेयात्मक हो सकता है, किन्तु त्रिवृत्करणवाद का वैशिष्ट्य और विकीर्णन का तुरीयातीत स्वरूप, अविनाभाव का सम्बन्ध नहीं बतलाता. तभी तो स्वतः संक्षुब्ध वस्तुनिष्ठता एक तरह से अभिभव का आधाराधेय भाव दर्शाती है’.
मैंने स्वीकारा –

हाँ मित्र, आपका सर्वज्ञत्व निश्चित ही आद्यस्पन्दता की उद्भिज्जता का द्योतक है’.
विमलजी बीच में ही बोल उठे –

पर चितले जी, मेरे सम्मान का विकीर्णन वास्तव में वस्तुनिष्ठता की वैश्विकता और पारिप्रेक्ष्य संतुलन होगा. परिवर्त्य अंतरंगता ही संतुष्टि का भूमंडलीकरण है. कटिबद्धता की संरचना का समाजार्थिक सन्दर्भ वस्तुतः मनोविश्लेषणात्मक लेखन का निकायबद्ध रूप ही है. प्रशासनिक संरचनाओं को सोद्देश्य विमर्शों के अनुरूप ही अवधारणाओं के विद्रोह के रूप में देखना होगा. शाश्वत सत्य की शिल्प-परंपरा वास्तव में अभिव्यक्ति की अरुणिमा ही है. जुगुप्सित चिंतन का तथ्य सत्यापन की स्पष्टता की संभावनाओं को नहीं नकारता, किन्तु लब्धप्रतिष्ठ वैयक्तिक ऊर्जा लिंगमूलक सूक्ष्मतर आभ्यंतरिक मनोभावनाओं का प्रदर्श होती है. इसीलिए विप्रयोगात्मक भावानुवाद प्रत्यक्ष सम्वेदनाओं का प्रतिरूप नहीं बन पाता, क्योंकि चिन्तनात्मक संश्लिष्टता उन सभी कालगत व्यापकताओं की क्षुद्रवृत्त आवृत्ति ही है. विश्वानुभूति सम्प्रसूत है बुद्धि की प्रामाणिकता और संज्ञानधारा से. यही उसका दिक्कालातीत स्वरूप है और प्रतिचैतन्य की स्वरूपभूता प्रकृति है. यही मेरा फ़लसफ़ा है, यही मेरे साहित्य का दर्शनतत्व है ’.

विमल जी का थोड़ा ध्यान हटते ही धीरे से  मैंने नक़वी साहब से कहा –

नक़वी साहब, विमलजी की   अनुभूति विस्मयजनक भावसमाधि का कपालविच्छिन्नक ध्वन्यात्मक स्वरूप धारण करती जा रही है. उनकी यह अनुपमेय चिंतन पद्धति और उनके साहित्य का दर्शनतत्व अब गूढ़तम मस्तिष्कभेदक अभिव्यक्ति और विषय विस्तार के जटिलतम विस्फोट होने की ओर बढ़ रहे  हैं’.

नक़वी साहब ने जैसे मेरी बात को सुनी-अनसुनी कर दी. वे उठ कर कुछ इधर उधर टहलने लग गए. उन्होंने विमलजी से टॉयलेट  का रास्ता पूछा और अंदर चले गए.
इस बीच विमलजी और मैं  फिर पूरी तरह ‘साहित्य चर्चा’ में निमग्न हो गए. काफ़ी देर बाद नक़वी साहब भी बाहर आये.

विमलजी ने नक़वी साहब को संबोधित करते हुए कहा –

‘नक़वी साहब, आप ही बतलाइए क्या युगचेतना, कालतत्व में परिच्छेदक-परिच्छिन्न भाव का संज्ञान नहीं कराती? विज्ञानघनसत्तामय भग्न विश्व की द्रव्यभूता महाशक्ति क्या आक्रामकता की संप्रेषणीय महत्ता का बिम्ब नहीं है? प्रवृत्ति निमित्तोपपादकत्व क्या समग्र अर्थभूता मर्यादा में समाहित नहीं है? क्या क्रम-विन्यास का अधिष्ठान, दर्शन की मान्यताओं को खंडित नहीं करता? यही परमवैविध्य अभिव्यक्ति का चिद् रूप होकर भी क्या विवर्तवाद की विमर्श प्रक्रिया नहीं है? बोलिए, बोलिए’.

नक़वी साहब ने विमलजी को और मुझे थोड़ा घूरा. फिर विमलजी की तरफ़ दृष्टिपात किया. अचानक उसके बाद बोल पड़े-

‘आप मुनासिब फ़र्मा रहे हैं विमलजी. बेशक आप इल्मे अदब और इल्मे अरूज़ हैं और यही इल्मीयत आपकी बेसाख्त़गी से ताबिशे आफ़्ताब की मानिंद आपके बूत-ए-ख़ाक से टपक रही है. आप लोगों की गुफ़्तो शनीद कुछ हद तक मुश्फ़िक़ाना तो है और इससे आलीज़र्फ़ बेशक इत्तिफ़ाक़ रखें, मगर अफ़ाज़िल नहीं रख सकते. इस आलमे फ़ानी में हम कभी गुनाहे सग़ीर, कभी गुनाहे कबीर में मशगूल रहते हैं, मगर हमें किसी तग़ाफ़ुल आश्ना का तजाहुल बनना नाग़वार गुज़रता है. क्यूं? आप तबालुदो तनासिल में शरीक़ होते हैं, मगर रंगीनिये तकल्लुम से बाबस्ता नहीं जो सुब्हे अलस्त तक से बयां है. क्यूं? माफ़ कीजिये, क्या आप निहायत ही बूदमे बेदाल हैं? या ये  बेख़्वाहिशी का आलम है? जिस तरह हाज़िरीने मज्लिस आपके मानिन्द लोगों की गुल अफ़्शानी करते हैं, उसी तरह मुख़्तलिफ़ तल्ख़ियां क्यूं नहीं उल्फ़तों का सुकूं बनतीं और कमसिन सी बेतक़ल्लुफ़ी का इज़हार क्यूं नहीं करतीं? अभी हमें तहज़ीबों की मौत के बियावानों से मुक़द्दर में बंद उन सुर्ख़िए लबों और ज़ुल्फ़े पुरशिकन को आज़ाद कराना है. मैं फिर आपसे पूछता हूँ – ग़र सलीबों की कशमकश  फ़रिश्तों की बेगानगी नहीं तो महफ़िलों की तनहाइयाँ रूह के हुनर का शीशा क्यूं हैं? फ़िज़ाओं का दीदार, रूबाइयों की ख़ुशबू के मानिन्द है, फिर फ़िशारे ज़ओफ़ में गुलख़न की नुमूद क्यूं? यह दुनिया बाज़ीचा-ए-अत्फ़ाल नहीं है मगर फिर भी शब-ओ-रोज़ ज़ओमे-जुनूं सज़ा-ए-कमाले सुख़न क्यूं है? बेनियाज़ी ख़जालत का सबब बन जाती है जिसे कोई बेहरम ही ख़ामा ख़ूँचकाँ होकर समझ सकता है. विकास विमलजी, बेशक आपका फ़लसफ़ा बेहतरीन है, क़ाबिले तारीफ़ है और आपकी शोख़ि-ए-तहरीर, ग़ालिबन सरहदे इदराक़, या यूं कहें, फ़ित्ना-ए-महशर है’.

अबकी बार मैंने और विमलजी ने एक दूसरे की तरफ़ देखा. हम तुरंत ही अंदर कमरे की तरफ़ दौड़े. देखा, वहाँ एक दूसरी खाली बोतल भी लुढ़की पड़ी थी.
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8263, बी/XI, नेल्सन मंडेला मार्ग
वसंत कुंज, नई दिल्ली-110 070
ई-मेल: er.kamlanath@gmail.com

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  1. विकाश विमल, प्रोफ़ेसर नकवी साब और चितले ,इन तीनो का चरित्र चित्रण ज़बदस्त किया गया है !हिंदी और उर्दू दोनों भाषाये यहाँ अपने पूरे शबाब पर है !और जिसतरह का माहोल और शब्दों को रचा गया है ,वो यकीन दिलाने कामयाब है के तीनो शख्स वाकई में जिवंत है ,काल्पनिक नहीं है ! कमल नाथ जी को बधाई !!

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  2. बहुत ही उम्दा व्यंग्य पढ़कर बड़ा आनंद आया पर हा कमलनाथ जी को मैंने आज पहली बार ही पढ़ा, मिलना-जुलना तो कई बार श्री कलानाथ शास्त्री जी के यहाँ हुआ पर यह जानकारी नहीं थी की कमलनाथजी भी इतना शानदार लिखते है. बहुत आभार अरुण देव जी, आपका की अपने इन्हें हमें उपलब्ध करवाया.

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  3. आज का दिन एक सार्थक दिन इसलिए भी हुआ कि समालोचन के पटल पर एक समर्थ रचनाकार की बरसों बाद अरुण जी के कुशल संपादन में यों वापसी हुई. मुझे याद पड़ता है उनकी कई रचनाएँ' लहर','अणिमा'और दूसरी जगहों में भी और यहाँ-वहाँ बरसों पहले छपी थीं, पर शायद 'अन्य'वैज्ञानिक व्यस्तताओं के चलते उनका छपने के प्रति भाव विरल हो गया हो, पर अब विदेश-प्रवास के दौरान वह जिस तेजस्विता से मुखर हैं, हिन्दी में कुछ नए स्वाद की वजह से वह कई नयी भंगिमाओं के अपने सतत प्रवाह में पाठक को बांधे रखेंगे, ये सहज उम्मीद केवल इस बेहद मारक व्यंग्य से! कहना न होगा कि ऐसे कई विमल जी हमारे परिदृश्य में आसपास ही सक्रिय हैं जिनका जवाब उस जगह सिर्फ नकवी साहब ही हो सकते थे....अरुण बाबू- आप अपने साहित्य-घर में इनसे बराबर लिखवाइए....

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  4. बढ़िया व्यंग्य है. पाठकों की एकाग्रता की पूरी परीक्षा भी ले रहा है. विमल साब, नकवी और चितले को लेकर पाठक की आलोच्य दृष्टि सजग हो जाती है ..कि भई अब तीन तिलंगे आगे कौनसी दार्शनिक मुद्रा में भाषा का कौनसा दर्शन आपके सामने लुढकाने वाले हैं...
    लेखक=पुरस्कार:: प्रकाशक के समीकरण भी आह-वाह..
    कमलनाथ जी को बधाई! समालोचन आभार..

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  5. vyangya tabdeele nafoos hay.iska nimbozan bhi kabile shakoof aur nusrate laam haay.kamlanathji aap adbi nuaal ke fareekh hay . badhaii

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  6. Vardan Singh Hada ·16 अग॰ 2012, 2:13:00 pm

    सच ,वाकई शब्दों का सघन मकडजाल .......स्वनामधन्य साहित्यकारों पर तीखा तंज़ , लेखक श्री कमलनाथ जी की सुन्दर रचना पढवाने के लिए आपको भी बहुत धन्यवाद

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  7. kamlanathji ka vyaangya aaftaab nurul ki bevast vazzoodagi hay.tasleeme shaan ki rubziyat aur falsafa ki teergi ka nirfa bhi.adbi maakooliyat aajkal isi zannat ki mahffuzi ki subz hokar bhi baleekha hay.kalanathji aap ilm ke shujat me benoori ka doshfarmaan jagate rahiye.kai naqvi aapke ke gird e labz hay
    vasudhakar goswami

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  8. नकवी साहब! बाशुऊर गनियः बर्के-नाज़ में अगरचे इक्तिसाबे ज़र पे उतारू हो तो अमुर्गां का नाम होगा- बाराने–रहमत!

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  9. हज़रात वसुधाकर जी और हेमंत जी,
    नक़वी साहब को आपके फ़िश्त-ए-ज़ख़्ला इतने पसंद आये कि उन्होंने अपने पसंदीदा शायर नक़व्वुल साहेवी की एक गज़ल आपके लिए मुझे भेजी है. आपकी शान में ये पेश है -

    ख़ुश्क़ ज़ाचीज़ों की फ़ुर्क़त तश्ने ज़ोफ़ुर इन्क़सिर,
    बज़्मे-तर्फ़िल हुर्ज़मुर्ग़िल का मुफ़स्सर बामज़ा !

    गुफ़्तगू का ज़र्क़ेनूरुल तश्नियाँ बेसाख़्ता
    जज़्ब-ख़ुश्ती सर्तियाज़ा गुर्को-फ़ाज़िल बांफ़ज़ा !

    नर्शि-ए-वाइज़ मखूंचन सर्दिये इज़हार का
    हर्बुख़ासिल तश्नो-लुज़्बा ख़ामख़ाँज़िल फ़ाँबज़ा !

    खूंचा-ओ-जिफ़लिस ‘नक़व्वुल’,फ़िर्क़िये दीदार का
    जो भी आया ग़ुब्तजोशिफ़ फ़र्क़ेमुफ़्तिल जाँखज़ा !

    - नक़व्वुल साहेवी

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  10. इसका एक नायाब शेर आपसे
    छूट गया है-याद दिला दूँ
    आईने का नज़ीब के जानिब खुला
    बदशममूर
    ख्वाब में कौन हलक को नाबूद करता है।
    सलाम

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