(मनोज मोहन और रणेन्द्र) |
‘ग्लोबल गाँव के देवता’, ‘गायब होता देश’ और ‘गूँगी रुलाई का कोरस’ जैसे उपन्यासों के लेखक रणेन्द्र को इस वर्ष श्रीलाल शुक्ल इफको सम्मान से सम्मानित किया गया है. इस अवसर पर लेखक-पत्रकार मनोज मोहन ने उनसे उनकी शब्द-यात्रा, आदिवासी जीवन और दर्शन पर यह गम्भीर बातचीत की है, भारत में आदिवासियों की दशा-दिशा के सन्दर्भ में यह संवाद सबल और अचूक ढंग से अपनी बात रखता है, इस समाज को लेकर जो धारणाएं निर्मित की गयीं हैं उसका यह प्रभावशाली प्रतिपक्ष भी निर्मित करता है.
प्रस्तुत है.
रणेन्द्र से मनोज मोहन की बातचीत
1.
श्रीलाल शुक्ल इफको सम्मान मिलने पर आपकी प्रतिक्रिया.
2011 से जो सम्मानित साहित्यकारों की सूची है वो बहुत ही वरिष्ठ लोगों
की सूची है. कई लोग ऐसे हैं, जिनको पढ़कर हम सब बड़े हुए हैं. उस सूची में संजीव जी जैसे मेरे आदर्श
उपन्यासकार हैं, जिनकी रचनाओं से हम सब वैचारिक आँच को महसूस करते रहे हैं. थोड़ी देर
के लिए विश्वास ही नहीं हुआ पहली बार की कि मैं भी उस सूची में हूँ. फिर एक अजब सी
खुशी हुई कि यह सम्मान मेरे हिस्से कैसे आया जबकि हमारे समय में मेरे साथ ही कई
पीढ़ियाँ लिख रही हैं, और भी कई वरिष्ठ साहित्यकार भी हैं. चयनकर्ताओं के प्रति मन में आभार
महसूस हुआ. और फिर यह भी लगा कि जिस समुदाय की वंचना और वेदना की बात मैं करता रहा
हूँ, एक तरह से इस माध्यम से उस वेदना को महसूस किया गया. रूमझुम असुर, लालदेव असुर योगेश्वर असुर, अनिल असुर आदि मित्रों एवं बाबा स्व.
रामदयाल मुण्डा, बहन दयामनी बारला आदि के प्रति भी कृतज्ञता बोध जगा. जिनके कारण इस
संसार से सुपरिचित हो सका. जिन्होंने अपने हृदय को खोलकर मुझे अपने अन्तर्जगत में
आवाजाही की अनुमति दी.
2.
कुछ अपनी प्रारंभिक शिक्षा-दीक्षा के बारे में बताइये.
पिताजी शत्रुघ्न प्रसाद, सोहसराय (नालन्दा) के डिग्री कॉलेज में हिन्दी के
प्राध्यापक-विभागाध्यक्ष थे. प्रारम्भिक पढ़ाई-लिखाई वहीं उसी छोटे से कस्बे में
हुई. मैंने विज्ञान से स्नातक किया था. पिताजी का दबाव था इंजीनियर बनने का.
इंजीनियर मैं नहीं बना, फिर प्रशासनिक सेवा में आया.
3.
आपने भी कविताएँ लिखी हैं. मैं उतना नहीं पढ़ा, लेकिन जितना पढ़ पाया उसमें आदिवासी
नहीं हैं. खासतौर पर प्रारंभिक दौर में.
मेरे जीवन का प्रारम्भिक दौर तो बिहार में ही बीता. मेरे जन्म और पढ़ाई
का क्षेत्र तो मध्य बिहार का था. सत्तर के दशक में वहाँ निजी सेनाओं के नरसंहारों
के रक्तिम पद-चिह्न छाये हुए थे. उनके प्रतिकार में मेरी कविताएँ अपनी पगडंडी तलाश
रहीं थीं. फिर रामजन्म भूमि आन्दोलन परिदृश्य पर उभरने लगा था. उसके प्रतिकार में भी मेरी कविताएँ खड़ी
हो रहीं थीं. इस इलाके झारखंड में आया तो यहाँ की कविताएँ आने लगीं. मेरी कविताओं
का जो संग्रह है- ‘थोड़ा सा स्त्री होना चाहता हूँ’ उसमें आदिवासी जीवन-वंचन-प्रतिकार और
सांस्कृतिक-सौन्दर्य की तो कई कविताएँ हैं.
4.
यह महज संयोग है कि इस सम्मान से नवाजे गये सभी साहित्यकारों का
लिखना-पढ़ना इक्कीसवीं शताब्दी से पहले से है. जबकि आपका अधिकांश लेखन इक्कीसवीं
शताब्दी का है. इफको ने इस बार गाँव के घेरे में आदिवासियों को भी रखकर एक सुखद
बदलाव किया है, आप क्या कहना चाहेंगे.
‘किसान’ शब्दावली की परिधि में आदिवासी समाज
को सम्मिलित न करने की जो दृष्टि रही है, वह दोषपूर्ण थी. अगर आप अपने को कथित मुख्यधारा या वर्चस्ववादी समाज
के प्रतिनिधि मानते हैं, और आदिवासी समुदायों को एक अन्यता (अदरनेस) के भाव से देखते हैं तो यह
दृष्टि-दोष है जो सुनियोजित ढ़ंग से आदिवासी समाज के इतिहास, दर्शन, चिन्तन और संस्कृति की नितान्त
उपेक्षा से पैदा हुई है. अगर इस पुरस्कार के चयनकर्ताओं द्वारा आदिवासी समाज को
पूरे देश के किसान समाज से जोड़कर देखा गया तो माना जाए कि उस ऐतिहासिक उपेक्षा के अध्याय
के अन्त की शुरूआत हो रही है. इसे हम जैसे लोगों के लेखन की थोड़ी-सी सफलता भी मानी
जा सकती है.
1765 में दीवानी के बाद ईस्ट इंडिया कंपनी ने पूरे बंगाल को मालगुजारी
वसूली का प्रयोगशाला बनाकर छोड़ दिया. रॉबर्ट क्लाइव कुछ और प्रयोग कर रहे थे, वारेन हेस्टिंग्स कुछ और कर रहे थे.
वारेन हेस्टिंग्स के बाद भी कई प्रयोग हुए- दसवर्षीय प्रयोग, इजारेदारी के प्रयोग. फिर कार्नवालिस
आते हैं और फिर उन्होंने स्थायी बंदोबस्ती दी. पूरा इलाका उससे तबाह और उद्वेलित
हुआ था, लेकिन सबसे पहले जिन्होंने आवाज उठायी थी 1767 में, वे हमारे यहाँ के जंगलमहल के आदिवासी
थे. वे किसान ही तो थे. अतः आदिवासियों को किसानों से अलग देखने का जो नजरिया
दोषपूर्ण रहा है.
5.
आदिवासियों को लेकर बांग्ला में महाश्वेता देवी ने काफी लिखा है, हिंदी में आदिवासियों को लेकर
राजेंद्र अवस्थी ने भी साहित्यिक रचनायें दी हैं,आप इन सबसे अपने को कहाँ अलग रखते हैं
या जोड़ते हैं?
राजेंद्र अवस्थी से लेकर श्रीप्रकाश मिश्र तक हिंदी के उपन्यासकारों
की एक धारा रही है. हमारे यहाँ योगेंद्र सिन्हा भी रहे हैं जो वन विभाग के पदाधिकारी
थे, उन्होंने भी आदिवासियों को लेकर कई उपन्यास लिखें हैं. लेकिन यह वही
धारा है जो ‘अन्य’ के भाव से, एक द्रष्टा भाव से आदिवासी समाज को देख रही है. मानो आदिवासी समाज ‘हम भारत के लोग’ में शामिल नहीं हो. ‘हम’ का हिस्सा ही नहीं है. मैं उस धारा के
साथ अपना जुड़ाव महसूस नहीं करता हूँ.
महाश्वेता देवी इस मामले में भिन्न हैं हिंदी के साहित्यकारों से. एक
तो वे केवल लिख नहीं रही थीं. हमारे बगल में ही पुरुलिया है. पुरुलिया में जो शबर
आजकल पीवीटीजी कहे जाते हैं जो अत्यंत कमजोर जनजाति है जो 1871 से 1952 ई. तक
अपराधी जनजाति के तौर पर दर्ज थीं. अभी मैंने कहा कि आंतरिक उपनिवेशवाद है, तो औपनिवेशिक नीतियों की छाया कितनी
लंबी होती है, उस परंपरा (लिगेसी) को हमारा शासकवर्ग कितना लंबा खिंचता है या उससे
अलग हटने की कोशिश ही नहीं कर रहा है कि सन् साठ के दशक में अब एक ‘हैबिट्यूअल ऑफेन्डर्स ऐक्ट’ (आदतन अपराधी
कानून) आ गया और शबर, लोधा, बंजारा, साँसी, जैसी घुमन्तू और अत्यन्त कमजोर जनजातियों के लिए आजादी आने के बाद भी
कुछ नहीं बदला. जब कोई भी अपराध होता है तो उठाकर ले आइये शबर लोगों को और उसे
मारिये और मारकर कबूल करवाइये. यही बात अल्मा कबूतरी में कह रही हैं
मैत्रेयी पुष्पा.
कबूतरा जनजाति की भी दिक्कत वही थी. लेकिन महाश्वेता लेखन तक रुकती
नहीं है बज़फ्ता सड़क पर उतरती हैं, आंदोलन करती हैं और अंततः खड़िया शबर, लोधा आदि के प्रति परिवेश को धारणाओं
को बदलने को मजबूर करती है. सरकार की भी और समाज की भी. वे हर साल जबतक वह जीवित
थीं पुरूलिया में एक मेला लगता था, केवल मेला नहीं होता था बल्कि एक त्यौहार-उत्सव जैसा था.
कृपाशंकर चौबे ने बड़ा चित्रात्मक संस्मरण लिखा है कि कपड़ों का, अनाज का कई स्तरों पर कलकत्ता में
संग्रहण होकर ट्रकों में लदकर आता था. तो यह जुड़ाव था उनका. और ‘जंगल के दावेदार’ ने न केवल महाश्वेता देवी को बल्कि
बिरसा भगवान की अखिल भारतीय लोकप्रियता में बड़ी भूमिका निभाई. ठीक है कुमार सुरेश
सिंह का जो इतिहास लेखन का काम है, वह काफी महत्वपूर्ण है. लेकिन उस लोकप्रियता को बढ़ाने में ‘जंगल के दावेदार’ ने भी भूमिका निभाई है. और उसने भगवान
बिरसा मुण्डा के ऐतिहासिक महत्व को स्थापित करने में मील के पत्थर जैसी भूमिका
निभाई. महाश्वेता की जो कहानियाँ हैं जिनमें द्रौपदी, बीज, स्तनदायिनी जैसी चिरस्मरणीय कहानियाँ
जो हर टिप्पणी से परे हैं.
‘हजार चौरासी की माँ’ में बसन्त के ब्रजनाद की एक-एक
नाद-गर्जन-विलाप-विषाद हम महसूस कर सकते हैं. ‘स्तनदायिनी’ पर गायत्री चक्रवर्ती स्पीवाक की
सबाल्टर्न परिप्रेक्ष्य में लिखी विस्तृत समीक्षा कितनी चर्चित हुई थी, इस तथ्य से हम सुपरिचित है. इस प्रकार
महाश्वेता देवी जो हैं पुरुलिया के शबर से लेकर और यूरोपीय बौद्धिक जगत में
गायत्री चक्रवर्ती स्पीवाक तक उनका फैलाव है. इस विस्तार की कल्पना कीजिए.
हमारे यहाँ का सबसे ज्यादा सामंती या सबसे ज्यादा उत्पीड़क क्षेत्र पलामू
का था. उनका 1963 से 1975 तक पलामू में हर साल नियमित आना, ठहरना और देखना और ‘बंधुआ मजदूरी’ के खिलाफ संघर्ष करना. उनके यहाँ
एक्टिविज्म और राइटिंग का अद्भुत फ्युजन था, एक सम्मिश्रण था, उससे जो व्यक्तित्व बना था, उसका नाम महाश्वेता है. महाश्वेता
देवी ने अकेले इतना लिख दिया है, लगभग सौ पुस्तकें.
मुझे नहीं लगता कि हिंदी के किसी उपन्यासकार ने आदिवासी समाज पर इतना
लिखा है. उनकी जितनी भी सराहना की जाए, प्रेरित हुआ जाए कम ही होगा. महाश्वेता देवी की धारा को मैं अपना
मानता हूँ. अल्मा कबूतरी में जो मैत्रेयी पुष्पा हैं वहाँ से भी जुड़ाव महसूस करता
हूँ. मनमोहन पाठक की ‘गगन घटा घहरानी’ है, उससे भी मैं जुड़ाव महसूस करता हूँ. संजीव जी की ‘धार’, ‘पाँव तले की दूब’, ‘सावधान! नीचे आग
है’, जंगल जहाँ से शुरू होता है’ मुझे अभिप्रेरित करने वाली रचनाएँ हैं.
6.
लोग कहते हैं कि आजादी के आंदोलन में आदिवासियों की समस्या को तरजीह
नहीं दी गयी है, आपके लिखे दोनों प्रारंभिक उपन्यास में सदियों से प्रताड़ित आदिवासियों
की जगह इधर के दौर में तीव्र औद्योगिकीकरण की गति के शिकार आदिवासी हैं.
जो उपनिवेशवादी या आन्तरिक उपनिवेशवादी जो वर्चस्वशाली ताकतें होती
हैं, उनका कब्जा जो होता है केवल भौतिक संसाधनों पर नहीं होता है. संस्कृति
के क्षेत्र में भी उनका कब्जा होता है. अफ्रीकी मुक्ति योद्धा, दार्शनिक, लेखक न्गुगी वान थ्योंगो हैं या
फ्रैंज फैनन हैं, इन लोगों ने इन तथ्यों पर गौर किया है. और आदिवासी समाज के साथ जो
कथित मुख्यधारा का समाज है, उसका जो व्यवहार है, वो यही है. वह उसकी इतिहास की अनदेखी करता है, वह इनकी संस्कृति की अनदेखी करता है.
वह आदिवासी समाज को मात्र एंथ्रोपोलॅजी के नजरिये से देखने की लगातार कोशिश करता
है. और दिक्कत यह है कि एंथ्रोपोलॅजी जो है, ठीक है कि वो मानविकी कि एक बड़ा
हिस्सा है. लेकिन लगता है कि साम्राज्यवादी शक्तियाँ एक हथियार के तौर पर भी
इस्तेमाल कर रही थीं. उसका सबसे बड़ा सबूत यह है कि जिस नस्ल के सिद्धान्त पर
नृशास्त्र खड़ा है वह सिद्धान्त ही अवैज्ञानिक है. छद्म विज्ञान है एक ‘फेक साइंस’. जब वैज्ञानिक तथ्य यह है कि सारे
मानव सामान्यता होमोसैपियन्स हैं जिनका मूल स्थान अफ्रीका हैं, सत्तर हजार साल
पहले वहाँ से चले थे. दस हजार, पंद्रह हजार और बारह हजार साल में हमारी बसावटें और हमारी भाषा
अलग-अलग हुई हैं.
उस छद्म विज्ञान के नस्लीय सिद्धांत के आधार पर भाषा-परिवार भी गढ़ा
गया है. फिर समाज विज्ञान की बहुत सारी शाखाएं उसी नस्लवाद के सिद्धांत पर चलती है.
यह जो दृष्टि है कि विज्ञान होमोसेपियंस मानता रहे, विज्ञान सबका रूट अफ्रीका कहता रहे, लेकिन लोगों को आर्य, द्रविड़ और निग्रोयाड में बाँटकर देखने
का जो नजरिया विकसित हो गया है उसे नहीं बदलेंगे. इस छद्म अवधारणा को ब्रिटिश
साम्राज्यवादियों ने आगे बढ़ाया. आन्तरिक उपनिवेशवादी भी उसे ही आगे बढ़ा रहे हैं.
नस्ल के इस छद्म विज्ञान ने किस तरह हमारा मनोविज्ञान बनाया कि हम अपने ही समाज के
लोगों को, अपने देश के लोगों को ‘अन्य’ मानने लगे.
‘लेसर देन ह्यूमन’ एक किताब है डेविड लिविंगस्टन स्मिथ
की, उनका कहना यह है कि हम सब लोग इथोसेंट्रिक होते हैं. अपने ही समुदाय
के लोगों को पूर्ण मानव मानते हैं अन्य लोगों को सब-ह्यूमन या अवमानव या कमतर
इन्सान मानते हैं. ताकि उनके विरूद्ध हिंसा के क्रम में कोई ग्लानि या अपराध-बोध
नहीं हो, जैसे दास-व्यापार के अबाध संचालन के लिए छद्म वैज्ञानिक सिद्धान्त गढ़ा
गया कि जो अफ्रीका के जो लोग हैं वो डार्विन के विकासवाद के सिद्धांत में मनुष्य
और चिम्पैंजी के बीच की कड़ी है. वे अभी पूर्ण मानव है ही नहीं है. अतः वे
प्राकृतिक रूप से दास बनाने योग्य है.
हमारे वरिष्ठ मित्रों ने बताया कि वे जब सत्तर के दशक में मेडिकल
कॉलेज में गए थे तो बज़फ्ता पुराने जर्नल में यह आलेख हुआ करते थे कि कैसे अफ्रीका
के लोगों के जबड़े का बनावट, खोपड़ी की बनावट आदि चिंपैंजी से मिलती-जुलती है. जब वह इंसान ही नहीं
है तो व्यापार में क्या दिक्कत है. और उसी ढंग से उन्होंने ‘नस्ल’ का छद्म सिद्धांत दिया. साम्राज्यवादी
यूरोप तो यह मानता था कि पूरे एशिया और अफ्रीका, अमेरिका और लैटिन अमेरिका के लोग जिन
पर हम शासन कर रहे हैं, ये व्हाइट मैन बर्डन हैं, जंगली और असभ्य (uncivilized) हैं. तो औपनिवेशिक शोषण के अपराध को
ढ़कने के लिए उन्होंने मनवा लिया कि उपनिवेशों की पूरी आबादी निम्नतर नस्ल के लोग
हैं, जिनको सभ्य करने की जिम्मेदारी गोरे लोगों पर हैं और वो आंतरिक
उपनिवेशवाद या उस परंपरा (लिगैसी) को आगे बढ़ाने वाले लोग, उस नस्ल के सिद्धांत से आगे जाने के
लिए तैयार ही नहीं हैं.
आदिवासियों को एक अलग नस्ल का, एक अन्य मानकर देखने का नजरिया जिसको
एंथ्रोपोलॅजी ने बढ़ावा दिया- यह इतना घातक और कितना गलत है. आप उनके इतिहास की
अनदेखी करते रहे. उनकी संस्कृति को संस्कृति मानने के लिए तैयार ही नहीं हैं. क्या
है यह? और क्यों है?
चूँकि वर्ण व्यवस्था वाले समाज से वह समतावादी, श्रम रस में डूबा समाज इतना भिन्न है
कि आप उन्हें स्वीकार करने को ही तैयार नहीं है. संस्कृति चूँकि इतिहास की पैदाइश
होती है, जैसे पौधे से फूल निकलता है, उसी तरह इतिहास से संस्कृति निकलती है. तो आप उसके इतिहास को स्वीकार
करने के लिये तैयार नहीं हैं. आपके इतिहास की किसी किताब में उनके राजवंशों का
उल्लेख नहीं है. उन्होंने आपके यहाँ लंबे समय तक शासन किया.
पूरे बिहार में पालवंश के पतन के बाद सोननदी के किनारे खैरवार समुदाय
का और लगभग पूरे बिहार में चेरों समुदाय का शासन रहा है. कुमार सुरेश सिंह ने इस
पर बड़ा लेख लिखा है कि कैसे चंपारण में भी, सारण में भी, मुज़फ़्फ़रपुर में भी उनके किले पाए गए.
चार राजवंश चेरों का एक साथ शासन कर रहा था. और सबसे बड़ा राजवंश भोजपुर में था.
उज्जैनिया राजपूत जब आए चौदहवीं शताब्दी में तो चौदहवीं से सोलहवीं शताब्दी में दो
सौ साल लगा चेरों को वहाँ से पीछे हटाने में. वे सफल तब हुए जब मुगल सेना उनके
पीछे खड़ी हो गई. और यहाँ तो पलामू में 1857 तक चेरो राजवंश का शासन रहा. लेकिन
इतिहास की किताब में चेरो राजवंश का जिक्र क्यों नहीं है, खैरवारों का जिक्र क्यों नहीं है? छोड़ दीजिए गुप्तकाल से लेकर ब्रिटिश
काल तक राजगोंड लोगों ने आंध्रप्रदेश और महाराष्ट्र के बड़े हिस्से से लेकर पूरे
छत्तीसगढ़ और मध्यप्रदेश के हिस्से पर शासन किया.
इलाहाबाद का जो समुद्रगुप्त का जो शिलालेख है उसमें आटविक राज्य के
तौर पर आदिवासी राजाओं का आप उल्लेख कर रहे हैं. और इतना लंबा शासन काल गुप्तकाल
से लेकर ब्रिटिश काल तक, और इतना संपन्न. सोचिए कि वहाँ गढ़ा के जो राजा हैं, संग्राम शाह, उनके पुत्र दलपत शाह से चन्देल
क्षत्रिय वंश की राजकुमारी दुर्गावती की शादी होती है. संग्रामशाह का जो शासन काल
है सोने, चाँदी और तांबे की तीन तरह के सिक्के उनके यहाँ चल रहे हैं. और उस समय
जो दिल्ली का सल्तनत है, उसकी भी औकात नहीं है कि सोने का सिक्का चला सके. चूंकि व्यापार की
बहुलता उनकी सम्पन्नता का कारण है. उसी ढंग से उड़ीसा का जो इलाका है- उड़ीसा से
लेकर आंध्रप्रदेश तक फैला हुआ वहाँ नल, तुंग और भंज- तीन जनजातियों के राजवंशों ने शासन किया. मयूरभंज- उन्हीं
भंज लोगों के नाम पर है. और जो नल-दमयंती वाले नल है जो महाभारत में दिखाए जाते
हैं, निषादराज हैं, दमयन्ती क्षत्रिय कन्या है, यह कथा, एक मिथक के रूप में वहाँ आती है. किन्तु यथार्थ में नल शासकों की
संपन्नता के कारण गंगा-यमुना दोआब क्षेत्रों के क्षत्रिय राजकुमारियों की उनके
वहाँ शादी हुई. वहाँ हो सकता है कि मिथक के तौर पर दूसरी बात को कहने की कोशिश कर
रहे हों, यहाँ लेकिन यह एक ऐतिहासिक सच्चाई है लेकिन महाभारत में इस यथार्थ का
मिथकीकरण है.
यथार्थ में इतिहास में कहीं पन्ने पर न नल है, न तुंग है, न असम के अहोम हैं, न वहाँ महाराष्ट्र के लोग जो आदिवासी
शासक हैं वो हैं. ये आप इतिहास की अनदेखी जानबूझकर कर रहे हैं तो क्या मानकर चल
रहे हैं कि इनके संसाधनों की लूट मुझे करनी है तो उनको पूरा इंसान ही नहीं मानना
है.
7.
आप प्रशासनिक सेवा से जुड़े रहे हैं, तब भी आपने आदिवासियों को लेकर इतना
काम किया है, कहा जा सकता है कि आपने आदिवासियों को लेकर चल रहे सामाजिक-राजनीतिक
आंदोलनों को अपने ढंग से समर्थन ही दिया है.
मेरा पहला जो पद-स्थापन हुआ उस दौरान मैंने गाँव में रहने का अभ्यास
डाला. जिसकी परिणति के तौर पर यह किताब ‘ग्लोबल गाँव का देवता’ है.
पंद्रह-पंद्रह दिन तक असुर लोगों के यहाँ जाकर ठहरता था. ऐसा कुछ नहीं था, वहाँ कठिनाई हुई हो. उस नब्बे के दशक
में भी असुर समुदाय में संस्कृत में ऑनर्स मित्र थे, हाईस्कूल के हेडमास्टर थे, इंटर पास लोग थे, तो आत्मीयता विकसित होने में कोई
कठिनाई नहीं हुई. एक रूढ़ छवि गढ़ कर रखी गई है कि आदिवासी ऐसे हैं, वैसे हैं. लेकिन
वहाँ एक छोटा-मोटा पढ़ा-लिखा मध्यवर्ग है.
अब ब्रिटिश पीरियड में जयपाल सिंह मुण्डा का ही उदाहरण ले लें- मरंङ
गोमके जयपाल सिंह मुण्डा, खूँटी के एक छोटे से गाँव के थे, वहाँ उनके प्रतिभा से फादर प्रभावित
होते हैं, उनको ब्रिटेन पढ़ने के लिए भेजते हैं और ऑक्सफार्ड विश्वविद्यालय से वे
पीएचडी तक की डिग्री लेते हैं, आईसीएस करते हैं. ट्रेनिंग इसलिए छोड़ते हैं कि ओलंपिक में उनको हॉकी
की कप्तानी करनी है. फिर वहाँ से लौटकर आते हैं तो बीकानेर प्रिंसली स्टेट के
विदेश सचिव बने, घाना अफ्रीका के प्रिंस ऑफ वेल्स कॉलेज में प्रोफेसर बनते हैं.
राजकुमार कॉलेज, रायपुर के प्रिंसिपल बनते हैं. वह आदिवासी महासभा और संविधान सभा के
भी सदस्य बनाए जाते हैं. उसी ढंग से बाबा कार्तिक उराँव हैं ब्रिटेन में
न्युक्लियर फिजिक्स में काम कर रहे थे. वहाँ नेहरू जी की उनसे भेंट होती है तो
उनके आग्रह पर वे भारत लौटकर आते हैं.
डॉ॰ रामदयाल मुंडा, मिनिसोटा युनिवर्सिटी, अमेरिका में एंथ्रोपोलॅजी पढ़ा रहे हैं. यह जो देखने का नजरिया है
दिल्ली और पटना को लोगों का कि ये लोग अनपढ़ और पिछड़े हुए लोग हैं यह पूर्वाग्रह
कैसे टूटेगा? यहाँ आदिवासी समुदाय के बहुत से विद्वान बहुश्रुत है. एक ही व्यक्ति
राजनीतिज्ञ भी है, एंथ्रोपोलॅजिस्ट भी है, कविता-कहानी भी लिख रहा है. वहीं डॉ॰ रामदयाल मुंडा आदिवासी दर्शन आदि
धर्म की बात कर रहे हैं. किन्तु दिल्ली-पटना-इलाहाबाद-बनारस इनको स्वीकार करने को
तैयार ही नहीं है. अभी भी वह आदिवासी समाज को मानवशास्त्रीय नजर से ही देख रहा है.
दिक्कत तो यही है.
हाँ! तो मैं कह रहा था कि उसने मुझे सुअवसर प्रदान किया. खास कर के
प्रखंड में जब मेरी पोस्टिंग हुई, उसने अवसर प्रदान किया. किताबों के माध्यम से मैं उनके पास नहीं गया.
मैंने एक मित्र की तरह समाज के हिस्से से ही आत्मीयता के साथ जुड़ने की कोशिश की है.
तो वह जो संबंध स्थापित हुआ वह आजतक कायम है. उसने मेरी रचनाओं को जन्म दिया. और
लिखने का वह काम इसलिए हुआ कि दस-दस साल तक मेरी पोस्टिंग एटीआई में थी, प्रशासनिक प्रशिक्षण संस्थान में 2005
से 2015 तक मेरी पोस्टिंग वहीं थी और वहाँ केवल पढ़ना और पढ़ाना था. कोई और काम तो
था नहीं तो वहाँ लिखने का काम हुआ. फिर 2018 से मैं जनजातीय शोध संस्थान में हूँ.
डॉ. वी. एस. गुहा, डॉ. नर्मदेश्वर प्रसाद, डॉ. सच्चिदानंद, डॉ. एस.पी. गुप्ता, श्री के.बी. सक्सेना जैसे उसके निदेशक रहे हैं. मेरा सौभाग्य है कि
ऐसे संस्थानों में मेरी पोस्टिंग होती रही है, जहाँ पढ़ने-सीखने का और आदिवासी समाज
को ज्यादा बेहतर ढंग से समझने का अवसर मुझे मिलता रहा है. इस कारण से भी लेखन संभव
हो सका.
8.
प्रतीकात्मकता की बात करें तो ‘ग्लोबल गाँव का देवता’ 2009 में
है, वह किताब जिस समय आई थी, उस समय लोग आदिवासियों को ग्लोबल फ्रेम मे रखकर नहीं देख रहे थे.
कथित मुख्यधारा की असुर समुदाय के प्रति विकृत पौराणिक दृष्टि रही है.
आदिवासियों के बारे में जो अन्य वाला बोध था और वही बोध काम कर रहा था. और, उनके भीतर से कोई आवाज आ रही है, वो भारतीय (हिंदी) समाज नहीं महसूस कर
रहा था. दूसरी बात जो मैंने महसूस किया कि रेड इंडियन के संबंध में जो अमेरिका में
हुआ, 14 करोड़ से 14 हजार पर ले आए. अगर वैदिक ऋचाएँ ये कहती हैं कि सुर और
असुर एक ही हैं और केवल भौतिक संसाधनों के उपयोग के कारण अलग-अलग हुए. और, जिस अंगिरा ऋषि के बारे में जिन्होंने
अग्नि का आविष्कार किया और जिन्होंने धातुओं की खोज की और समाज दो धाराओं में बँट
गया अग्नि-धातु का आविष्कार करने वाले शत्रु मान लिये गए उसके कारण से असुर कहलाये.
मुझे लगा कि वैदिक काल से ही यह देशज वैज्ञानिक-तकनीकी समाज पीछे ठेला जाता रहा.
आज एकदम पृथ्वी के अंतिम छोर पर मतलब पहाड़-पठार के ऊपर पाट क्षेत्र पर पहुँच गए, जहाँ बॉक्साइट के खनन परिसर हैं. और
पिछले चार दशकों से जिस तरह से लूट है बॉक्साइट की, वहाँ से वे उजड़ेंगे. तो जो युद्ध
इंद्र ने प्रारंभ किया था उस जन विनाश वाले युद्ध का अंत कॉरपोरेट ‘ग्लोबल देवता‘ करने वाले हैं. व्यक्ति के तौर पर
बचेंगे वो, लेकिन वे समुदाय के तौर पर खत्म हो जायेंगे. यह सब होता दिख रहा है.
यह कोई कपोल-कल्पना नहीं है और न अतिभावुकतापूर्ण है.
जब यह पहली बार ‘नया ज्ञानोदय’ में आया था, ‘लालचंद असुर और
ग्लोबल गाँव के देवता उसका शीर्षक था.
उपन्यास के तौर पर आया तो आदरणीय मैनेजर पांडेय ने कहा कि इतना बड़ा नाम अपने आप
में ठीक नहीं होगा. फिर सारी कहानी खुल जाती है उस नाम से. ‘ग्लोबल गाँव का
देवता’ ही रखो फिर मैंने वही नाम रखा.
9.
उसके बाद 2014 में गायब होता देश‘ आया. उपन्यास के शीर्षक और ‘सोना देकन दिसुम‘ का प्रयोग उसे तत्कालीन समय के
प्रतीकात्मक ध्वनि के करीब कर देता है !
यह उपन्यास रियल एस्टेट पर केंद्रित है. 2008 के महामंदी का भी अपने
देश में देखिए कि रियल एस्टेट पर कोई असर नहीं पड़ा. चाहे नोयडा हो या एनसीआर में
हो या हमारे यहाँ झारखंड में ही रियल एस्टेट पर कोई फर्क ही नहीं पड़ा. हमारे यहाँ
खासियत है कि राँची, ईस्ट इंडिया कम्पनी के कैप्टन विल्किन्सन के नाम पर किशुनपुर कहलाता
था. उस समय से ही आदिवासी गाँव की लूट शुरू हो गई थी. वो आदिवासी गाँव और टोले की
शहर के अंदर लूट आज भी बदस्तूर जारी है. रात ही रात में आदिवासी टोले गायब हो जा
रहे हैं. ये देखा है मैंने अपनी आँखों से. उसका पूरा एक सिस्टम है, तंत्र है. सबलोग उससे जुड़े हुए हैं.
ग़ायब होता देश में मैंने इस
बात पर खुलकर चर्चा की है कि सबलोग मिले हुए हैं उसमें. जमीन वापसी के लिए अलग
कोर्ट होगा- स्पेशल रेगुलेशन ऐक्ट तबतक नहीं आया था, तब भी सिविल कोर्ट वही काम कर रहा था.
आदिवासियों को क्षतिपूर्ति (कंपनसेशन) दे दिया जाये लेकिन चूंकि किसी अग्रवाल साहब
ने इस पर भवन बना लिया है तो उसे कैसे हटाया जाएगा? या तो फिर इतना लाख रुपया ये सोमरा
मुंडा जी उनकी चुका दें. सोमरा मुंडा जी वह रुपया चुकाने में सक्षम नहीं हैं. वह
जान रहा था कि चुका नहीं पाएंगे फिर कंपनसेशन दे दिया जाय.
ठीक है कि छोटानागपुर टीनेंसी ऐक्ट की धाराओं का उल्लंघन करते हुए
मकान-अपार्टमेन्ट्स बन गये हैं. अब बन गये हैं तो एक ही रास्ता है कि या तो उस भवन
को मुंडा जी खरीद लें या वे कंपनसेशन ले लें. यह काम सिविल कोर्ट कर रहा था. बाद
में स्पेशल रेगुलेशन ऐक्ट यानि एसआरए कोर्ट आया उसने भी वही काम किया. तो
बाहुबलियों, पूँजीपतियों और राजस्व के अधिकारियों, पुलिस पदाधिकारियों और राजनीतिज्ञों
का एक पूरा तंत्र मानकर चल रहा है कि ये छोटे-गरीब लोग हैं, इनको यहाँ राजधानी शहर में रहने की
क्या जरूरत है. ये तो सब-ह्यूमन हैं, इनको तो यहाँ से जाना चाहिए. इनको राजधानी में रहने का हक ही नहीं है.
माफिया जो हमारे यहाँ आदिवासियों की जमीन-लूट रहा है वही सच्चाई, वही माफियागिरी हरियाणा और दूसरे
इलाके में छोटे किसानों के विरूद्ध सक्रिय है. वहाँ बड़े किसान रियल एस्टेट के दलाल
बनकर छोटे किसानों की जमीनें लुटवा रहे हैं. हमारे यहाँ भी आदिवासियों के जमीन की
सुरक्षा के लिए जो ऐक्ट बना हुआ था और हमारे यहाँ जो भी राजस्व के अलग कानून है वो
एक तरह से स्याही से लिखे हुए हैं नहीं.
1908 में छोटानागपुर टीनेंसी ऐक्ट आता है तो उसके पहले बज़फ्ता 1900
में ही बिरसा और उनके मित्रों की शहादत हो चुकी होती है. और, उसके अपराध बोध को दूर करने के लिए जो
ब्रिटिश हुकूमत ने वो ऐक्ट बनाया. जिस लड़ाई को सरदारी आंदोलन ने शुरू किया था 1858
में, उसमें सरदारी आंदोलन आता है, आदिवासियों को देखने का नजरिया जो है वो सबार्ल्टन हिस्ट्री वाले हों
या अन्य हिस्ट्री वाले केवल उनको विद्रोही के तौर पर देखने का है.
लेकिन 1858 से लेकर बिरसा के आने तक (1894)- चालीस-पैंतालीस साल तक
शांतिपूर्ण ढंग से मुंडा सरदारों ने जो आंदोलन चलाया, आवेदन दिए, कचहरियों में गए. पहले तो ईसाई बने वो.
ईसाई बनने से हो सकता है कि जमीन की वापसी हमारी हो जाये, वह नहीं हो सकी. फिर कचहरी गए, आवेदन दिया महारानी विक्टोरिया तक. और
केस लड़ा हाईकोर्ट कलकत्ता तक. नया गाँव
बसाने के प्रमाण के रूप में गाँव के सीमाने पर ‘पत्थलगड़ी’ करते थे. पत्थरों को अपना
स्वामित्व प्रमाणित करने ढोकर कलकत्ता लेकर गए वो भी पैदल. यह सारा वर्णन ‘गायब
होता देश’ उपन्यास में आया है. सोचिए! और गजेटियर कह रहा है उस समय का कि एक
लाख रुपया वहाँ से बाबुओं और वकीलों ने वसूला उनसे. थोड़ा-थोड़ा करके, तब भी केस हारे ये लोग. अगर
शांतिपूर्ण आंदोलन सफल हो गया होता तो फिर बिरसा की शहादत नहीं होती. उन सारे
आंदोलन और शहादत से ये छोटानागपुर टीनेंसी ऐक्ट निकला, जिसका भू-माफिया प्रतिदिन मजाक उड़ा
रहे हैं, खिल्ली उड़ा रहे हैं, धज्जियाँ उड़ा रहे हैं.
संथाल परगना टीनेंसी ऐक्ट जो है वो संताल हूल (1855-56) की लड़ाई-युद्ध
शहादतों के बाद फिर वहाँ मार्शल लॉ लागू किया गया, उसके बाद जंगल और गाँव जलाए गए. उसके
अपराध बोध को दबाने के लिए संथाल परगना टीनेंसी ऐक्ट लाया गया. कोल्हान के लिए
विल्किंसन रूल आया. जो यहाँ जमीन को सुरक्षित रखने का कानून हैं. वो हमारे
पूर्वजों के खून से लिखे गए हैं. लेकिन जो लोग आते हैं बाबू और साहब बनकर के, वो चूंकि आप इतिहास में जाना नहीं
चाहते, आप उनकी संस्कृति को मानने के लिए तैयार नहीं हैं, उनकी उपलब्धि को मानने के लिए तैयार
नहीं हैं तो उनके लिए सबकुछ बिकाऊ है.
10.
इस उपन्यास का नायक किशन विद्रोही है.
नायक तो नहीं है, उसके नज़रिये से देखने की कोशिश की गई है. यह उपन्यास जब लिखा गया था, उस समय या अभी भी राँची में जो जमीन
के दलाल हैं बिचौलिए हैं, उनके बीच में प्रतिस्पर्धा में भी हत्याएँ हुआ करती हैं. हत्याओं का
बड़ा प्रतिशत इस तरह की हत्याओं का होता है. उस समय (2007-2008 में) एक पत्रकार की
हत्या हुई थी और कई तरह की बातें अफवाह के रूप में सुनी गईं थीं उसके संदर्भ में.
वास्तव में भू-माफ़िया ने ही यह हत्या की थी. उस समय बहुत छाया रहा था यह मुद्दा.
कहीं से मुझे भी भूमि लूट की अपनी बात शुरू करनी थी तो मैंने उसी के चरित्र से बात
शुरू की. वैसे डॉ० रामदयाल मुंडा भी वहाँ हैं, दयामणि बारला भी है उसमें चरित्रों के
रूप में. उस वक्त आदिवासी समाज के जो लोग हैं जो लड़ाई लड़ रहे थे, अलग-अलग ढंग से- वो
सबलोग हैं वहाँ.
11.
आपने कहानियां भी लिखी हैं, ‘छप्पन छुरी बहत्तर पेंच’ संग्रह का नाम है. यह नाम कुछ अलग-सा है.
कहानियों पर थोड़ा प्रकाश डालें.
वह ज्यादा व्यक्तिवादी, ज्यादा उपभोक्तावादी, ज्यादा से ज्यादा कमाई और भोग में डूबा हुआ है दूसरी ओर धर्म-संस्कृति
की झंडेबरदारी भी कर रहा है. आपको उपभोक्तावाद भी पसंद आ रहा है और आप भारतीय
संस्कृति का झंडा भी उठा रहे हैं. अजब तरह का अन्तर-विरोध है. अगर आप संस्कृति को
ठीक से समझेंगे तो आपको मालूम होगा कि आपकी संस्कृति के जो मूल तत्त्व है वो सिर्फ
अभी आदिवासी संस्कृति में ही बचे हुए हैं. तब आप हो सकता है थोड़ा जुड़ाव आदिवासी
समाज से महसूस कर सके. यथार्थ यह है कि आप आधा तीतर आधा बटेर हैं. आप तो केवल वोट
की राजनीति के लिए संस्कृति शब्द का जुमला की तरह इस्तेमाल करते हैं. लेकिन अर्थनीति
वही है जो आजादी के पहले थी, आजादी के बाद थी. जैसे-जैसे पूंजीवाद का रूप बदलता जा रहा है
वैसे-वैसे ही आप उसी पूंजीवाद को स्वीकार करते जा रहे हैं.
जो आदिवासी समाज है अगर आप नजदीक से देखिएगा तो जो बातें आपके वाङमयों
में कही गयी हैं भारतीयता के वह मूल तत्वों को आदिवासी समाज में बचाकर रखा है. आप
आर्थिकी या दार्शनिक दृष्टि से इनकी जीवन-दृष्टि को देखें तो न्यूनतम में अधिकतम
संतुष्टि का भाव यहाँ दिखेगा. जो भी है कम ही है, लेकिन वो उसमें संतुष्ट हैं, परम् संतुष्ट हैं, प्रसन्न हैं. एक साधारण आदिवासी जिस
तरह का जीवन जीता है न! उसकी कल्पना भी नहीं कर सकता है उपभोक्तावादी समाज में
धँसा हुआ मध्यवर्ग.
तीन-चार बातें बताता हूँ उनकी जीवन दृष्टि की- एक तो मैंने कहा कि न्यूनतम में अधिकतम और
उसमें संतुष्टि की कल्पना. दूसरा उनका प्रकृति से जो लगाव है- फैशनवाला नहीं- केवल
तुलसी में रोज-रोज पानी डालने का और उसके प्रतीक को न समझने वाला नहीं है. प्रकृति
और आदिवासी समाज का जो संबंध है उसको दार्शनिक स्तर पर समझने की कृपा कीजिए आप.
जितने संस्थागत धर्म हैं- ईसाईयत हो, इस्लाम हो हिंदू हो-उसमें पदानुक्रम
बना हुआ है. वनस्पति जगत है, जीवजगत है. जीवजगत में भी छोटे से जीवों से लेकर बड़े
जीव तक, फिर इंसान है-इंसान के बाद देवदूत है- देवदूत के बाद ईश्वर-अल्लाह-गॉड
है. एक पदानुक्रम है उनमें. आपके यहाँ हिन्दू धर्म में चौरासी लाख योनि है. चौरासी
लाख योनि के बाद इंसान. फिर वर्ण का निर्धारण पूर्व जन्म के कृत्यों के आधार पर
ब्राह्मणों की आपने सेवा की है कि नहीं, गौ की सेवा की है कि नहीं, तब आपको उच्च वर्णों में यहाँ स्थान मिलेगा. लेकिन कहीं-न-कहीं इस
पदानुक्रम में श्रेष्ठता बोध और दूसरों को कमतर-निम्नतर समझने का बोध है. इस दर्शन
के पदानुक्रम को जीवन में भी लागू करते हैं हर जगह. अब श्रेष्ठता बोध के लिए माना
जाता है कि मानव में चूंकि चिन्तन प्रणाली है, वह सोच सकता है इसलिए वह श्रेष्ठतम
प्राणी है. ईश्वर की सबसे श्रेष्ठतम रचना है. यहाँ दर्शन के स्तर पर आदिवासी समाज
मानता है कि सृष्टि में जो जीवजगत है, जो वनस्पति जगत है- उसी तरह एक इकाई के तौर पर इंसान है. इंसान कोई
बेहतर या श्रेष्ठतर, कोई वर्चस्वशाली प्राणी नहीं है. अब कैसे नहीं है- उसकी वैज्ञानिकता
देखिए.
जगदीशचंद्र बसु ने बताया था कि वनस्पतियों में संवेदनशीलता होती है
लेकिन अभी एक किताब आई है―हिडेन लाइफ ऑफ ट्रीज, वो कह रहा है वैज्ञानिकता के साथ कि जो इंटरनेट हम प्रयोग कर रहे हैं-
डब्ल्यूडब्ल्यूडब्ल्यू- वर्ल्ड वाइड वेव(www) का- ये 1969 से शुरू होती है, 89-90 से हमलोगों ने उपयोग करना शुरू
किया है. सूचनाओं का आदान-प्रदान हम इंटरनेट के माध्यम से कर रहे हैं. उस पुस्तक
में बताया जा रहा है कि जंगलों में पेड़ों के बीच में वुड वाइड वेव है. वहाँ भी
डब्ल्यूडब्ल्यूडब्ल्यू है. जड़ों से फंगस का केबल है जो मिट्टी के अन्दर पूरे जंगल
के जड़ों को जोड़कर रखता है. और पेड़ सिर्फ सूचनाओं के संप्रेषण नहीं करते हैं. अगर
कोई पेड़ सूख रहा है, पौष्टिकता भी न्युट्रेंट्स भी भेजते हैं उसको वो. कम्युनिकेशन के अन्य
तरीके के बारे में यह पुस्तक बताता है. हमारा इंटरनेट अभी भी सिर्फ सूचनाओं का
संप्रेषण कर रहा है. खाद्यान्न आप नहीं भेज सकते हैं, किन्तु वृक्ष सूचनाओं के सम्प्रेषण के
साथ-साथ पोषक तत्व भी भेज रहा है. पशुओं के कम्युनिकेशन पर कई किताबें आ गई हैं.
प्रकृति के साथ, आदिवासी समाज का जुड़ाव इतना गहरा है कि वे अपने गोत्र को किसी
काल्पनिक ऋषियों से नहीं जोड़ते हैं, वो समूचे जीव जगत-वनस्पति जगत से अपने को जोड़ते हैं. वहाँ अगर लकड़ा
टाइटल है तो बाघ से अपने गोत्र को जोड़े हुए है, धान टाइटल है तो गोत्र को धान से जोड़े
हुए हैं. तो ये उनका लगाव है प्रकृति के साथ. आपके यहाँ दीपावली मनाई जाती है- वे
सोहराई मनाते हैं. आपके यहाँ वो धान आ रहा है, धान को धन और धन से आपने उसका रूप बना
दिया लक्ष्मी का, और लक्ष्मी की पूजा करने लगे. भूल गये कि लक्ष्मी क्यों है, लक्ष्मी प्रतीक किस चीज की है.
सोहराई जो मनाते हैं- तो वो देखिए कितनी बड़ी हृदय के आयतन की विशालता
है कि वे कृतज्ञता ज्ञापन करते हैं घर के उन पशुओं के प्रति जिनके परिश्रम से धान
घर आया है. वहाँ बैलों को, सारे गायों को और सारे पशुओं को सजाया जाता है, नहलाया जाता है. घर की गृहिणियाँ उनको
पैर छूकर प्रणाम करती हैं जो प्रसाद बनता है उनके लिए वही घर के लोग भी ग्रहण करते
हैं. पूरी दुनिया के किसी भी संस्कृति में पशु जगत को अपने परिवार का हिस्सा मानने
वालों का उदाहरण नहीं मिलता, और आप उस समुदाय को पिछड़ा मान रहे हैं.
तीसरी, उनकी कोशिश यह है कि हम प्रकृति से, जंगलों से उतना ही लें जितना कि इससे
बेहतर हम अगली पीढ़ी को दे सकें. और हम लोगों ने क्या किया-हमलोग जिन नदियों में
नहा रहे थे वो बच्चों को नदियों में नहाने को नहीं दे सकते. तो पानी हमलोगों ने
प्रदूषित कर दिया. अब हमलोग हवा को प्रदूषित कर रहे हैं. मोबाइल साइज के
ऑक्सीजन-सिलिण्डर की परिकल्पना गायब होता देश में है, वह पारदर्शी पाइप नाक से जुड़ा हुआ
होगा. जिसको पॉकेट में रखेंगे और नाक में पारदर्शी पाइप लगाकर रखेंगे और उसी पर हम
गर्व महसूस करेंगे.
चौथी उनकी खासियत है सांस्कृतिक जीवन की कोई भी पूजा- सरहुल हो, करमा हो, उनके यहाँ जो मंत्र है या गीत हैं वे
समस्त गाँव, समस्त पशुजगत, समस्त प्रकृति की खुशी-प्रसन्नता-सुख-स्वास्थ्य की बात करते हैं. ये
बड़ा अद्भुत है. कोई भी प्रार्थना व्यक्तिवादी है नहीं, ‘मैं’ वहाँ है ही
नहीं. जब भी बात करेंगे वे हम की बात करेंगे और ‘हम’ में उनका पशुधन भी शामिल रहता है, वनस्पतियाँ भी उस ‘हम’ में शामिल रहती हैं. ऐसी उच्च कोटि की
संस्कृति है. उसको हिंदू बनाने, ईसाई बनाने का क्या मतलब है.
यानी उसके दर्शन को समझने की कोशिश नहीं कर रहे हैं. चूंकि जनगणना में
1952 के बाद आपने कॉलम ही देना छोड़ दिया आदिवासियों के लिए. हमलोगों ने फरवरी में
आदिवासी दर्शन पर एक राष्ट्रीय सेमिनार किया और दुनिया भर से आए लोग उसमें. और
ट्राइबल फिलोसोफी पर पहली बार बात हुई. आदिवासी दर्शन के मूलतत्त्व तो एक ही है-
प्रकृति है और परम सत्ता है. नाम कुछ भी रखिए उसका. सिङ्बोगा कहिए, धरमे, ठाकुर जऊ कहिए, नॉर्थ ईस्ट में कुछ और कहेंगे. गोंड ‘बड़ा देव’ कहेंगे लेकिन है वही प्रकृति और परम
सत्ता.
जहाँ से आपका सांख्य दर्शन निकल रहा है. जिस पर आपको गर्व है. लेकिन
जो जी रहा है उस दर्शन को, उससे आपको दिक्कत है. आप उसको अपने समाज का हिस्सा मानने के लिए तैयार
नहीं है. तो वो जो तीन दिन का हमारा अंतर्राष्ट्रीय सेमिनार था. ये सरना धर्म कोड
या आदि धर्म का कोड शामिल हो जनगणना के कॉलम में- उसकी सैद्धांतिकी या आधार तैयार
कर रहे थे हम उस सेमिनार से.
12.
झारखंड एनसाइक्लोपीडिया के चार खंड का
आपने संपादन किया है, उसके बारे में भी बतायें..
वास्तव में उस समय जब मैं 1999 से 2004 तक मैं झारखंड राज्य खादी
ग्रामोद्योग आयोग के क्षेत्रीय कार्यालय था, जिसका मैं पूरे राज्य का प्रभारी था.
पूरे राज्य को देखने की जिम्मेदारी थी. घूमता था जहाँ-जहाँ उनके उत्पादन क्षेत्र
थे. उनके उत्पादन केंद्र एकदम साहेबगंज से लेकर उधर गढ़वा तक था. हर व्यक्ति की
अपनी-अपनी रुचियाँ होती है. मैं जिस शहर में जाता था वहाँ के जो पढ़ने-लिखने वाले
विद्वतजन होते थे, उनके पास जाकर बैठता था. उम्र में बड़े हों, अपने विषय के विशेषज्ञ हों चाहे
वासुदेव बेसरा हों, श्यामाचरण तुबिद हों- ऐसे अलग-अलग क्षेत्र के अलग-अलग विद्वान लोग थे.
हर विषय के विशेषज्ञ लोग थे. रामदयाल मुंडा अगर मानवशास्त्र, मुंडा भाषा, संस्कृत आदि विषयों के विशेषज्ञ थे तो
श्यामचरण तुबिद ‘हो’ भाषा एवं संस्कृति के.
वासुदेव बेसरा, दुमका में अधिवक्ता हुआ करते थे और वे संथाली भाषा और संथाल समाज के
बड़े विद्वान थे और चूँकि वामपंथी थे तो चीजों के देखने का नजरिया भिन्न था उनका.
डॉ. डोमन साहू समीर देवघर में, संथाली भाषा के सबसे बड़े विद्वान- इनलोगों के पास बैठा करता था. जहाँ
भी गया तो ऑफिस का काम निपटा कर शाम या सवेरे बुजुर्गों के पास बैठकर कुछ सीखने का, कुछ समझने की कोशिश करता था. वहाँ से फिर
मन में यह आया इन लोगों की बातों को संग्रहित किया जाये. और, यह व्यक्तिगत उपक्रम था. यह चार खंडों
में हमलोगों ने संयोजित किया. शोधकर्ताओं के लिए या झारखंड को समझने के लिए सारे
तथ्य एक जगह उपलब्ध हो गये. हमलोग इसके आँकड़ों को अद्यतन करने में लगे हैं, तो यह बड़ा काम हुआ जो शोधकर्ताओं के लिए बड़ा उपयोगी है.
13.
आपका तीसरा उपन्यास ‘गूँगी रुलाई का कोरस’ लॉकडाउन की वजह से
सहज उपलब्ध नहीं है. उस उपन्यास के बारे में कुछ कहें.
क्षितिज पर छाई जो वर्चस्वशाली सत्ता है वह दसो दिशाओं में सक्रिय है.
सांस्कृतिक मोर्चे पर यह सत्ता ब्राह्मणवादी संरचना को बनाए रखने के लिए अपनी
प्रच्छन्न-प्रकट नीतियों को लागू करने के लिए अपनी पूरी क्षमता, अपने पूरे सामर्थ्य का उपयोग करती
रहती है. हर बार हर युग में. जैसे प्राचीन काल में कभी आदिवासी गणराज्यों को
बिखेरने के, उजाड़ने की. फिर उसी ढंग से ये संस्कृति को, इतिहास का उत्पाद नहीं मानते हुए उसको
रिड्यूस करना चाहती है धर्म में. धर्म में भी एक खास धर्म में. वो धर्म के बाहर के
लोग को बहिष्कृत करना चाहती है. उसके लिए तरह-तरह के प्रपंच, तरह-तरह के जुमलेबाजी, तरह-तरह की योजनाएँ संचालित की जा रही
हैं. जिनके कारण हमारा समय रक्तपिपासु उन्मादी-सा हो गया है. मैंने इस उपन्यास की
अवधारणा संस्कृति, के व्यापक स्वरूप से ग्रहण की है. हमारे पूर्वजों की जो सम्यक कृतियाँ
जिन्होंने सभ्यता को आगे बढाने में भूमिका निभाई, वो सारा कुछ संस्कृति का हिस्सा है.
और हिंदुस्तान के बाहर हिंदुस्तान की संस्कृति की पहचान अगर पुख्ता मुकम्मल होती
है वह शास्त्रीय संगीत से होती है. और शास्त्रीय संगीत का जो विकास का इतिहास है
वहाँ से आप मुसलमानों को बाहर कर ही नहीं सकते. अगर अलाउद्दीन खिलजी के समय
देवगिरी से गोपाल नायक आ रहे हैं जो हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत के उस समय के
सबसे बड़े गुरु हैं. दस हजार शिष्य जिनके पालकी ढोते हैं. उनकी भेंट जब होती है
अमीर खुसरो से तो यह हिंदुस्तान की पवित्र
नदियों में ईरान के इत्र का मिलना होता है. वहाँ से जो शुरू होती है शास्त्रीय
संगीत की धारा- वो मुगलों के यहाँ अकबर के दरबार में तानसेन के पास जवान होती है
ध्रुपद और फिर वह जाती है वहाँ मोहम्मद साहब रंगीले के दरबार में. नियामत खाँ के
साथ वो आती है ख़्याल गायकी. ख़्याल गायकी सिर्फ आती नहीं है उसका दस्तावेजीकरण भी
मोहम्मद साहब रंगीले के दरबार में होता है.
मुगलों के सत्ता के पराभव के बाद अवध बनता है केंद्र, और वहाँ ठुमरी-वाजिद अली शाह और केवल
ठुमरी नहीं, वो कत्थक में भी कृष्ण सब कुछ आते हैं. ठुमरी पूरी जवान होती है वहाँ.
फिर जैसे ही ये सारे बादशाहत जमींदारी खत्म होती है, घरानें आते हैं. जो ध्रुपद जो मुख्य
रूप से मन्दिरों का गायन था वो दो-तीन सौ सालों तक गायब हो गया था, उस ध्रुपद को पुनर्जन्म कौन दे रहा
है- डागर बंधु दे रहे हैं. केवल पुनर्जीवन ही नहीं दे रहे हैं जाके बज़फ्ता पेरिस
में ध्रुपद एकेडमी की स्थापना करते हैं. पूरे दुनिया में ध्रुपद का डंका बजता है.
वीणा को फिर से पुनर्जीवन डागर बंधु देते हैं. बड़े गुलाम अली खाँ साहब जब गाते थे ‘हरि ओम तत्सत’ - तो लोग रोने लग
जाते थे. तो यही हिंदुस्तानी संगीत की परम्परा जहाँ न आप हिंदू है और न मुसलमान
हैं, सब भूल कर केवल संगीत को ही इबादत के तौर पर देख रहें हमारे ये पूर्वज.
जो राग-रागिनियाँ विकसित हुईं, आप पाकिस्तान चले जाएँ, बांग्लादेश चले जाएँ कोई फर्क नहीं पड़ रहा है सीमाओं का. अगर वो राग
गाया जाएगा तो उसी तरह गाया जाएगा जो हिंदुस्तान में गाया जा रहा है या बांगलादेश
में गाया जा रहा है तो ऐसी है इस हिन्दुस्तानी मौसीकी की पाक दुनिया जिसे सीमाओं
से अलगाया नहीं जा सकता.
हमारे यहाँ मैहर में बड़ो बाबा अलाउद्दीन ख़ाँ- जिनकी बेटी अन्नपूर्णा, दामाद रविशंकर थे. उसी ढंग का एक
परिवार मेरे इस नए उपन्यास में. बड़ो नानू महताबुद्दीन खाँ साहब, उनके बेटे हैं नानू अय्यूब खाँ, उनकी बेटी हैं अम्मू रागेश्वरी देवी
और उनकी भी बेटी हैं- शबनम खान जैसे उनके दामाद भी कई घरानों से. कनफट्टा योगी के
परिवार से एक दामाद अब्बू खुर्शीद जोगी आए हैं. तो इस उपन्यास का नायक कमल कबीर
बाउल समाज से आया है. और अब कनफट्टा योगी के इतिहास को जानिए कि गोरखनाथ के यहाँ
जो दलित समाज के लोग हों, मुसलमान समाज के लोग हों- कोई भी हो योगी होते थे और गेरुआ वस्त्र पहन
एकतारा बजाते हुए भर्तृहरि गाते थे, भिक्षा माँगते थे.
लेकिन पिछले तीस-चालीस सालों में, बीस सालों में जो चीज मुगलों के समय नहीं खत्म हुई ब्रिटिश काल में खत्म नहीं
हुई. वो इधर आकर खत्म हो गई. कि तुम क्यों पहनते हो गेरुआ तुम अगर मुसलमान हो. और
मुसलमान मस्जिद में कह रहा है कि तुम नमाज पढ़ने आए हो तो गेरुआ क्यों पहन रहे हो.
लेकिन बाउल अभी तक बचे हुए हैं. लालन फकीर से लेकर अभी तक वो जाति और धर्म के बंधन
से लगभग आजाद हैं और कृष्ण भक्ति के वैष्णव गीत भी गा सकते हैं. सहजिया बौद्ध
वैष्णव और सूफी की त्रिवेणी हम बाउलों में देख सकते हैं. यह जो समावेशीकरण है
दरअसल यही हिन्दुस्तानियत है, भारतीयता है, भारतीय संस्कृति का मूल तत्व है.
लेकिन इस मॉब लिंचिंग के इस उम्मादी-रक्तपिपासु समय में यह बड़ा नानू
का परिवार फँस गया है. और एक-एक करके सब मारे जा रहे हैं. पहले नानू, अय्यूब खाँ की हत्या होती है. फिर
अब्बू खुर्शीद शाह योगी साहब. फिर कमल के पिता मदन बाउल और अन्त में कमल भी. तो
यहाँ रुलाई है और कई लोगों की रुलाई है इसलिए कोरस है. लेकिन जो समय है वो इस अथाह
दुःख-विषाद को प्रकट होने से भी रोक रहा है इसलिए यह गूँगी रुलाई का कोरस है.
14.
इसके बाद आप क्या लिखने को सोच रहे हैं ?
यह बात तो नहीं बतानी चाहिए (हँसते हुए).' ग्लोबल गाँव के देवता 'की समीक्षा के क्रम में समुदाय के दानवीकरण की बात करते हैं- मैनेजर पांडेय सर. 9/11 के बाद समुदायों के दानवीकरण की प्रक्रिया बहुत ही गतिशील हो गयी है. इस्लामीफोबिया उसी प्रक्रिया का एक हिस्सा है. एडवर्ड सईद इस बात को बहुत पहले से कह रहे हैं कि युरोप जो है वो इस्लाम का एक स्टिरियोटाइपिंग कर रहा है. एक ‘अन्य’ (अदर) के तौर पर उसको ढाल रहा है.
तो आठवीं से बारहवीं शताब्दी के बीच वो जो अब्बासी खलीफाओं का समय है वो विज्ञान के अद्भुत विकास का भी समय है. पुनर्जागरण के बाद दार्शनिक देआर्त यह स्वीकार करते हैं कि हमारा जो अतीत है अंधकारपूर्ण है, अतीत से कुछ लेना-देना ही नहीं है, वे इसलिए अतीत को अस्वीकार करते हैं कि अगर वो अतीत को स्वीकार करेंगे तो यूनान की जो उपलब्धियाँ हैं, रोम की जो उपलब्धियाँ हैं, जो सीधे नहीं आती हैं उनके पास, वो पहले जाती हैं अब्बासी खलीफाओं के समय में अरबी में अनूदित होकर, उसके बाद विज्ञान वहाँ विकसित होता है, वैज्ञानिक उपलब्धियाँ हासिल होती हैं. तब वह लैटिन में अनूदित होती है. अगर आप स्वीकार करते कि अतीत से भी हमने ग्रहण किया है- ग्रीस से और रोमन से तो आपको अरबों की भी उपलब्धियों को स्वीकार करनी पड़ेगी.
और वह जो अब्बासी खलीफाओं का जो समय था जो अनुवाद का आंदोलन था और पुस्तकालयों का आंदोलन था. वहाँ जो राजधानी में आपकी हैसियत आपकी लाइब्रेरी से बनती थी. आपके घर में कितनी बड़ी लाइब्रेरी है वो दरबार में आपका हैसियत तय करता था. फिर अनुवाद के आन्दोलन के क्रम में हिंदुस्तान की भी उपलब्धियों के अनुवाद और चीन के भी विज्ञान के किताबों के अनुवाद अरबी होते हैं. वो सारे अनुवाद हुए और अनुवादों के आधार पर अरब जगत ने वैज्ञानिक गणतीय उपलब्धियों को काफी आगे बढ़ाया गया.
लेकिन स्टीरियो-टाइपिंग की जड़ें इतनी गहरी हैं, पूर्वाग्रह इतना गहरा है कि हमारे दिमाग में जैसे ही मुसलमान की बात आती है तो एक अनपढ़, अधपढ़ या दाढ़ी बढाए कट्टर व्यक्ति उभरता है. तो जैसे इस बार संगीत थीम था मेरे उपन्यास का, चित्र-संगीत में जो योगदान है मुस्लिम समुदाय का. उनका जो बड़प्पन है- बिस्मिल्ला खाँ साहब को अमेरिका में कहा गया कि बस जाइए तो वे बोले हमारी गंगा को ले आइए, हमारे विश्वनाथ जी को ले आइए. पक्का महल और वो माहौल ले आइए तब हम यहाँ बसते हैं. ये दुलार है उनका हिन्दुस्तानी तहजीब के प्रति जिसको भूल जाते हैं हम मुसलमानों के संदर्भ में.
पुनर्जागरण-ज्ञानोदय के बाद विज्ञान का जो विकसित रूप दिख रहा है उसमें अरब साम्राज्य के वैज्ञानिकों, विद्धानों-बहुश्रुतों की बड़ी भूमिका रही है. जिसे अब यूरोप का वैज्ञानिक-जगत भी धीरे-धीरे स्वीकारने लगा है. एक छुपाई गई सच्चाई, दबाये गए तथ्यों को इस्लामीफोबिया की स्टीरियोटाइपिंग के प्रतिकार में नई रचना में लाने का इरादा है.
manojmohan2828@gmail.com
ज्ञानवर्धक. आदिवासी समाज का सच.
जवाब देंहटाएंप्रिय भाई और उपन्यासकार रणेन्द्र जी के उपन्यासों के नाम या शीर्षक 'ग' व्यंजन अक्षर से आरंभ होते हैं | इसके पीछे महज संयोग है कि कोई सोच ? मेरी जिज्ञासा है |
जवाब देंहटाएंबहुत विस्तार लिए और जिज्ञासापूर्ण बातचीत। रणेन्द्र जी ने महत्वपूर्ण बातें कही हैं।उन्हें श्रीलाल शुक्ल इफको सम्मान के लिए हार्दिक बधाई।मनोज मोहन जी ने प्रासंगिक प्रश्नों से बातचीत को गहराई प्रदान की।समालोचन का शुक्रिया।
जवाब देंहटाएं-- यादवेन्द्र
साझा किया है। मुझे यह साक्षात्कार बहुत उपयोगी लगा।
जवाब देंहटाएंइंटरव्यू की शक्ल में एक दमदार और बेबाक बौद्धिक हस्तक्षेप। यह रचनाकारों के साथ सहृदय पाठकों को भी उनकी बौद्धिक जि़म्मेदारियों की याद दिलाता है। मध्यवर्गीय जीवन और संसार की पूर्वानुमेय दुनिया के बरक्स एक ज़्यादा जिंदा दुनिया का घोषणापत्र। रणेंद्र जी ने जो कहा है वह उनकी गहरी संवेदना व ग़ैर-रूमानी प्रतिबद्धता का मुज़ाहिरा कराता है।
जवाब देंहटाएंआमतौर पर शहरी और संभ्रांत बौद्धिकता आदिवासी समाज में अपने खंडित और दोहराव से भरे जीवन का सार्थक विलोम ढूंढती रहती है। यह एक ऐसी रूमानियत है जो एक-दो शोधपत्रों, किताबों तथा दो चार ‘विजिटों’ के बाद ख़त्म हो जाती है।
लेकिन, रणेंद्र के इंटरव्यू से एक सतत लगाव, जुड़ाव और आदिवासी जीवन में आए बाहरी व अंदरूनी बदलावों का बड़ा स्थापत्य उभरता है।
साथ ही उन्होंने महाश्वेता देवी के लेखन को जिस तरह लोकेट किया है, वह― संक्षेप में कहें तो एक महत्वपूर्ण अंतर्दृष्टि है।
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