सबद भेद : चंद्रकुँवर बर्त्वाल






चंद्रकुंवर बर्त्वाल 

२० अगस्त१९१९ रुद्रप्रयाग (उत्तराखंड)   
१४ सितम्बर१९४७पंवालियारुद्रप्रयाग. 

पुस्तकें :
१. नंदिनी (खंड काव्य) १९४६
२. विराट हृदय  (खंड काव्य) १९५०
३. पयस्विनी : १९५१
४. गीत माधवी : १९५१
५. जीतू : १९५२
६- प्रणयिनी : १९५२
७. कंकड़-पत्थर : १९५०
८. काफल पाक्कू  : १९५२ 
(इन सभी किताबों के  कवर में  'शम्भू प्रसाद बहगुणाका नाम  मिलता है किन्तु इनमें चंद्रकुंवर की कवितायेँ संकलित हैं.)

९. चंद्रकुंवर बर्त्वाल की कवितायेँ : उमाशंकर सतीश १९८१सरस्वती प्रेस इलाहाबाद.
१०. भारतीय साहित्य के निर्माता : चंद्रकुंवर बर्त्वाल  संपादक : उमाशंकर सतीश १९९९ प्रकाशक : साहित्य अकादमी 
११. चंद्रकुंवर बर्त्वाल का कविता संसार : संपादक : उमाशंकर सतीश२००४ : चंद्रकुंवर बर्त्वाल शोध संस्थानदेहरादून 
  १२. इतने फूल खिले : चंद्रकुंवर बर्त्वाल : संपादक : शेखर पाठक१९९७ पहाड़नैनीताल     



चंद्रकुंवर बर्त्वाल बतौर कवि छायावाद के वैभव काल में समाने आते हैं. उनकी कविताओं में जहां छायावाद की समृद्धि है वहीं छायावाद को अतिक्रमित करने की संभावना भी. वहां अंचल विशेष की पहचान है और रंगत भी. आज हम चंद्रकुंवर बर्त्वाल  को भूल गए हैं. प्रसिद्ध कथाकार और समीक्षक बटरोही के इस अन्वेषण मूलक आलेख में  कवि का व्यक्तित्व और उसका रचनाकर्म आलोकित हो उठा है.




अब छाया  में गुंजन होगा, वन में फूल खिलेंगे        
(चंद्रकुँवर बर्त्वाल की कविताएँ )

बटरोही


समुद्र सतह से १९०० मीटर की ऊँचाई पर उत्तराखंड के रुद्रप्रयाग जिले का एक खूबसूरत पहाड़ी कस्बा है: नागनाथ पोखरी. उत्तराखंड के मशहूर पाँच प्रयागों (रुद्रप्रयाग, देवप्रयाग, विष्णुप्रयाग, कर्णप्रयाग और ब्रह्मप्रयाग) में से एक रुद्रप्रयाग के मजबूत कंधे की तरह स्थित नागनाथ गाँव कैलाश पर्वत के पृथ्वी पर पड़ने वाले प्रतिबिंब की तरह अनुभव होता है. शायद यही कारण है कि वहाँ के लोकजीवन में आज भी तमाम स्थानीय देवी-देवताओं के रूप में शिव (रुद्र) की उपस्थिति साफ महसूस की जा सकती है. यह स्थान गढ़वाल की सबसे खूबसूरत जगहों में से एक है. साढ़े सत्तासी वर्ग किलोमीटर के पहाड़ी बुग्याल में फैली हुई विश्वविख्यात फूलों की घाटीअपने अप्रतिम प्राकृतिक सौंदर्य के साथ इसी क्षेत्र में स्थित है. फरवरी से अगस्त तक इस घाटी में अस्सी से अधिक प्रजातियों के फूलों के सैकड़ों रंग अनायास बिखरे रहते हैं, मानो धरती का सर्वोत्तम सौंदर्य हिमालय की गोद में सिमट आया हो.

उन्नीसवीं सदी के आखिरी वर्षों में ब्रिटिश हुकूमत ने गढ़वाल में जिन शुरूआती तीन ऐंग्लो इंडियन मिडिल स्कूलों की स्थापना की, उनमें से एक नागनाथ में भी खुला. इस स्कूल के पहले प्रधानाचार्य बने उस वक्त गढ़वाल के गिने-चुने शिक्षित लोगों में से एक भूपाल सिंह बर्त्वाल, जो उस इलाके के अत्यंत लोकप्रिय थोकदार (जमींदारका पहाड़ी संबोधन) थे. गढ़वाली समाज में मिथक बन चुके वीर माधोसिंह भंडारी की नवीं पीढ़ी में जन्मीं जानकी देवी भूपाल सिंह बर्त्वाल की पत्नी थीं, जिनके घर में २१ अगस्त १९१९ को एक शिशु का जन्म हुआ, जिसे नाम दिया गया, ‘कुँवर’, और बाद में जो हिंदी कविता के क्षेत्र में धूमकेतु की तरह चंद्रकुँवर बर्त्वाल बनकर आया और इस दुनिया में २८ वर्ष, २४ दिन बिताकर १४ सितंबर, १९४७ को अपने ही स्रोत फूलों की घाटीमें विलीन हो गया. चंद्रकुँवर ने स्वयं लिखा है:

अपने उद्गम को लौट रही अब बहना छोड़ नदी मेरी
छोटे-से अणु में डूब रही अब जीवन की पृथ्वी मेरी
आँखों में सुख से पिघल-पिघल ओंठों में स्मिति भरता-भरता
मेरा जीवन धीरे-धीरे इस सुंदर घाटी में मरता

चंद्रकुँवर बर्त्वाल की ही धरती के उनके उत्तराधिकारी कवि मंगलेश डबराल ने उनकी इस अभिव्यक्ति के बारे में लिखा है, ‘‘कई वर्ष पहले पढ़ी हुई चंद्रकुँवर बर्त्वाल की ये पंक्तियाँ आज भी विचलित कर देती हैं. किसी नदी के अपने स्रोत की ओर, अपने जन्म की ओर लौटने का बिंब शायद किसी और कविता में नहीं मिलता.... यह छायावाद का भी परिचित बिंब नहीं है. मेरा जीवन धीरे-धीरे इस सुंदर घाटी में मरता में हरे-नीले पहाड़ों के नीचे किसी सुरम्य सुंदरघाटी में मृत्यु की कल्पना कितनी भीषण और फिर भी किस कदर मृत्यु भय से मुक्त है.

हिंदी कविता में यह एक अलग-सी घटना है कि १४- १५ वर्ष की कच्ची उम्र में प्रौढ़ कविता से आरंभ करने वाला यह कवि अपने बचपन के वर्तमान के साथ अपने परिवेश की स्मृतियों को जोड़ता हुआ उसे अपने विशाल देश की जातीय स्मृति का अनिवार्य हिस्सा बना देता है. उनकी हस्तलिखित डायरी के अनुसार २० जुलाई, १९३५ (उम्र १५ वर्ष ११ माह) को अपनी डायरी में उन्होंने रसिक उपनाम से एक लंबी कविता लिखी: काफल पाक्कू जो यों तो छायावादी भाषा और बिंबों की ही कविता है, मगर उसकी भंगिमा उन्हें अपने समकालीनों से अलग करती दिखाई देती है:

‘‘काफल पाक्कू’’
(एक गढ़वाली पक्षी)

सखि, वह मेरे देश का वासी-
छा जाती वसंत जाने से है जब एक उदासी
फूली मधु पीती धरती जब हो जाती है प्यासी
गंध अंध के अलि होकर म्लान
गाते प्रिय समाधि पर गान....

जैसे उन्हें पहले से मालूम था कि उनके पास जिंदगी के गिने-चुने वर्ष हैं, इसलिए उन्हें हिंदी की मुख्यधारा के साहित्य के साथ अपने अपरिचित परिवेश और उसकी जातीय स्मृतियों को तेजी से जोड़ना है. इसीलिए उनकी आरंभिक कविताओं में भी अपने प्रौढ़ समकालीनों के समान भाषा और बिंबों का इस्तेमाल दिखाई देता है.

आरंभिक शिक्षा नागनाथ पोखरी से लेने के बाद कुँवर सिंह बर्त्वाल ने ७ जुलाई, १९३५ को देहरादून में इंटर की कक्षा में प्रवेश लिया जहाँ उनका संपर्क हिंदी के अध्यापक गयाप्रसाद शुक्ल और एक अन्य विद्वान् सतीशचंद्र भट्टाचार्य से हुआ और इन दोनों की प्रेरणा से उनके मन में साहित्य-रचना के प्रति अनुराग जागा. १९३७ में वह बीए की पढ़ाई के लिए प्रयाग विश्वविद्यालय गए जहाँ से उन्होंने १९३९ में द्वितीय श्रेणी में परीक्षा पास की. उसी साल वह प्राचीन भारतीय इतिहास में एमए करने लिए लखनऊ चले गए, मगर कुछ दिनों बाद ही बीमार पड़ गए. प्रयाग और लखनऊ में उनका संपर्क हिंदी के दिग्गज कवि निराला और कथाकार यशपाल के साथ हुआ, आपस में मैत्री हुई और उनके उस कालजयी साहित्य का लेखन आरंभ हुआ, जिसने हिंदी लेखन में भाषा, विषयवस्तु, बिंब और प्रतीकों का एक नया मिजाज जोड़ा. यह दौर  हिंदी कविता में छायावाद का उत्कर्ष काल था और प्रगतिवादी कविता की जमीन तैयार हो रही थी.

काश्मीर और उज्जैन की तरह गढ़वाल क्षेत्र के लोग भी मानते हैं कि कालिदास का जन्म उत्तराखंड में हुआ था. शायद इसीलिए कालिदास को उन्होंने बार-बार याद किया है, कभी कविताओं के जरिए और कभी अपने परिजन के रूप में. उन्हें अपनी श्रद्धा अर्पित करते हुए चंद्रकुँवर बर्त्वाल ने अपनी कविता कालिदास के प्रति में लिखा:

कालिदास,
ओ कालिदास!
यदि तुम मेरे साथ न होते
तो जाने क्या होता.
तुमने आँखें दीं मुझको
मैं देखता था प्रकृति को
हृदय से प्रेम करता था उसे.
पर मेरा सुख मेरे भीतर
कुम्हला जाता था.

तुमने मेरे सुमनों को गंध देकर
अचानक खिला दिया है.
हे मलय पवन, हे कालिदास,
मैं तुम्हारा अनुचर
एक छोटा-सा फूल हूँ
मौका मिला जिसको
तुम्हारे हाथों खिलने का.

अपने छोटे-से जीवन में चंद्रकुँवर ने कालिदास को बार-बार याद किया है, कविताओं में भी और डायरी के पन्नों में भी. यह कविता चंद्रकुँवर ने उन्नीस वर्ष की उम्र में १९३८ में लिखी थी.  

८ अप्रेल, १९३८, डायरी

‘‘कालिदास, ओ कालिदास, यदि तुम मेरे साथ न होते तो न जाने क्या होता ? मैं तुम्हारे रहस्य-संकेतों को ठीक-ठाक नहीं समझ पाया हूँ. लेकिन मेरे लिए प्रकृति की छवि खुल गई है. तुमने मुझे आँखें दीं, मैं प्रकृति को देखता था, उसे हृदय से प्रेम करता था, लेकिन मेरा सुख मेरे ही भीतर कुम्हला जाता था. तुमने मेरे फूलों को गंध देकर अचानक खिला दिया. हे मलय पवन, मैं तुम्हारा अनुचर एक छोटा-सा फूल हूँ जिसको तुम्हारे हाथों खिलने का मौका मिला है.... पूर्व जन्म की बातें यदि मुझे याद रह पातीं, यदि मैं भी तुम्हारे साथ वहाँ होता.’’

६ मई, १९३८ डायरी

“दिन में रघुवंशका पंद्रहवाँ सर्ग पढ़ा शाम को नदी के किनारे जब मेरा साथी पानी में अपना जाल फैला रहा था, मैं डूबते हुए सूर्य की चंपक कलियों की हँसी में परित्यक्ता सीता की वेदना म्लान मुख छवि देख रहा था. परित्यक्ता तपस्विनी सीता की वेदना भारतवर्ष के पुराणों में सदैव ही अंकित रहेगी. मैं जब-जब सीता की वियोग-कथा पढ़ता हूँ मेरी आँखों में आँसू आ जाते हैं. मुझे राम पर दया है. राम विवश थे.... यदि मैं संस्कृत काल में होता तो उत्त्र रामचरित लिखता...

४ अक्टूबर, १९३८, डायरी

“दिन में रघुवंशका पंद्रहवाँ सर्ग पढ़ा शाम को नदी के किनारे जब मेरा साथी पानी में अपना जाल फैला रहा था, मैं डूबते हुए सूर्य की चंपक कलियों की हँसी में परित्यक्ता सीता की वेदना म्लान मुख छवि देख रहा था. परित्यक्ता तपस्विनी सीता की वेदना भारतवर्ष के पुराणों में सदैव ही अंकित रहेगी. मैं जब-जब सीता की वियोग-कथा पढ़ता हूँ मेरी आँखों में आँसू आ जाते हैं. मुझे राम पर दया है. राम विवश थे.... यदि मैं संस्कृत काल में होता तो उत्त्र रामचरित लिखता...बाहर आज चाँदनी नीले आसमान पर चमक रही है. बादल कभी उसके चारों ओर तैरने लगते हैं, उसकी गालों पर लाज की लाली छा जाती है. कभी उसको अपने अपने हाथें पर थाम लेते हैं और कभी सहसा उड़कर दूर देश चले जाते हैं, चाँदनी अकेली रह जाती है. आज मुझे ध्यान आया, मैं किसी विशेष कवि को उसकी भाषा या देश के कारण नापसंद करता हूँ. कवि मनुष्य है, उसने मनुष्य के हृदय का संगीत गाया, उसे तो किसी से द्वेष नहीं था, यदि उसे द्वेष होता तो तो वह भला गा पाता ? तो फिर मैं अपने हृदय को इतने संकुचित लोहे के संदूक में क्यों बंद कर रहा हूँ ? मुझे तो विशाल होना चाहिए:
प्रतिप्रदेश की मुखराधारा
मिले हृदय में मेरे
पर मुखरित हों मेरी लहरें
अपने ही गीतों से...’’

११ नवंबर १९३८, डायरी

‘‘आज प्रिय कालिदास की बात करता रह गया. कालिदास! आह कालिदास कहाँ है? मैं कालिदास की संगीत लहरी सुनता हूँ, कालिदास की आवाज सुनता हूँ, अपने पास ही सुनता हूँ लेकिन कालिदास कहाँ है ? मैं कालिदास का रूप जानता हूँ, कालिदास को लाखों आदमियों के बीच पहचान सकता हूँ, लेकिन कालिदास कहाँ है?....
‘‘न जाने आज कितने युग बीत गए, कितने मनुष्य ने आधी रात में कालिदास की आवाज सुनकर, पहचान कर पुकारा होगा - कविवर, कहाँ हो! न जाने कितनों ने कालिदास के रूप की जीवन भर खोज की होगी - वे कहाँ हैं ? कालिदास प्रेमी कहाँ हैं ?... मैं आज अपनी नाव सूखे समुद्र में छोड़ रहा हूँ जिसमें सब डूब जाते हैं... कालिदास से प्रार्थना करता हूँ, मुझे दिखाई दे....

इसी के कुछ दिनों बाद उन्होंने अपनी डायरी में किन्नर कवि शीर्षक से एक सूची दी है, जिसमें ये कवि शामिल हैं:
1.    कालिदास
2.    कबीरदास
3.    विद्यापति
4.    नंददास
5.    नरोत्तमदास
6.    रसखान
7.    घनानंद
8.    चंद्रकुँवर

क्या चंद्रकुँवर जानते थे कि वह इस धरती पर कालिदास की परंपरा में अपना योगदान देने और उनके अधूरे रह गए कामों को पूरा करने के लिए पैदा हुए थे! क्या वह जानते थे कि उन्हें बहुत छोटा-सा जीवन मिला है, जिसमें उन्हें बहुत सारे काम एक साथ करने हैं! शायद इसीलिए वह बार-बार मृत्यु को गले लगाने की बातें करते हुए अपने लिए लंबी नहीं, उपलब्धिपूर्ण उम्र की कामना करते हुए दिखाई देते हैं:

मैं न चाहता युग-युग तक
पृथ्वी पर जीना
पर उतना जी लूँ
जितना जीना सुंदर हो!
मैं न चाहता जीवन भर
मधुरस ही पीना
पर उतना पी लूँ
जिससे मधुमय अंतर हो
मानव हूँ मैं सदा मुझे
सुख मिल न सकेगा
पर मेरा दुख भी
हे प्रभु कटने वाला हो
और मरण जब आवे
तब मेरी आँखों में
मेरे ओठों में उजियाला हो.

या फिर अपनी एक और कविता पतझड़ देख अरे मत रोओ, वह वसंत के लिए मरामें वह कहते हैं:
मैं मर जाऊंगा, पर मेरे जीवन का आनंद नहीं
झर जाएंगे पत्र कुसुम तरु पर मधु प्राण वसंत नहीं
सच है घन तम में खो जाते स्रोत सुनहले दिन के,
पर प्राची से झरने वाली आशा का तो अंत नहीं.

बर्त्वाल ने जिन दिनों कविताएँ लिखनी शुरू कीं, वह छायावाद का उत्कर्ष काल था और प्रगतिवाद, प्रयोगवाद के लिए भूमिका तैयार की जा रही थी. यद्यपि वह छायावाद की चतुष्टयी - प्रसाद, पंत, निराला और महादेवी से क्रमशः ३०, २१, १९ और १२ वर्ष छोटे थे, फिर भी आज अगर वे जीवित होते तो क्या उन्हें छायावादी संस्कारों का ही कवि माना जाता या उससे हटकर किसी दूसरी काव्यधारा का ? वह छायावाद के गर्भ में पैदा हुए थे, मगर मानो वह पहले से ही जानते थे कि छायावादी कवियों ने खुद ही अपनी कविता के ऊपर वैचारिक धुंधलके का जो आवरण डाल दिया है, उसे उन्हें ही हटाने की कोशिश करनी है. एक और अंतर, जो चंद्रकुँवर को अपने समकालीनों से अलग करता है, वह है, स्वच्छंदतावाद का एकदम नया चेहरा. उनके कुछ आलोचकों ने स्वीकार किया है कि उन्हें कालिदास और भवभूति का सौंदर्यबोध और करुणा मिली थी तो घनानंद की पीर तथा प्रसाद और निराला की विराट चेतना को उन्होंने आत्मसात किया था. इसके बावजूद, प्रसाद के आँसूमें दुर्दिन की पीड़ा मेघाच्छन्न गगन की तरह धूमिल है तो चंद्रकुँवर की प्रेम कविताओं में वह निर्झरिणी की तरह बहती है... एक उमंग और उम्मीद-भरी आकांक्षा के साथ! वहाँ प्रसाद की तरह जीवन की गोधूली में कौतूहल से तुम आएकी तरह रहस्य का आवरण नहीं, जीवन का उन्मुक्त प्रवाह है जो दूसरे छायावादी कवियों में बहुत कम देखने को मिलता है:

अब छाया में गुंजन होगा, वन में फूल खिलेंगे;
दिशा-दिशा से अब सौरभ के धूमिल मेघ उठेंगे!
जीवित होंगे वन निद्रा से निद्रित शैल जगेंगे;
अब तरुओं में मधु से भीगे कोमल पंख उगेंगे!

यह अनायास नहीं है कि प्रकृति जिस प्रकार अपनी गोद में सुंदर-विविध वनस्पतियों-पुष्पों को जन्म देकर अपने सौंदर्यबोध का विस्तार करती है, उसी प्रकार वह अपने ही बीच से पवित्र-सुवासित ध्वनियों को जन्म देकर ऋचाओं, संहिताओं और दैवी ध्वनियों को जन्म देती है. प्रवहमान समय के साथ-साथ मनुष्य की इच्छाएँ-अपेक्षाएँ बदलती है, जिनसे प्रकृति के नए पाठ, नए प्रतीक, बिंब और नई काव्यभाषा का आवरण खुलता है. यही तो वह रहस्य है, जो अनादि काल से बह रही कविता की गंगा को एक नया संदर्भ और नया नाद देती है:

मेघ कुंज में खेल रही है
एक ज्योति की काल नागिनी.

बार-बार डसती बादल को
      ज्योतित करती अंधकार को
अशनि तीक्ष्ण उद्दीप्त फणों से
      वह प्रकाश की काल नागिनी.

झरता है बादल झर झर झर
      दंशन से क्षत विक्षत होकर
छिन्न भिन्न कर अंध पुंज को
      बरसाती है ज्योति नागिनी.

जीवन के घन अंधकार को
      छिन्न भिन्न कर दीप्त हासिनी
मेघ पुंज में खेल रही है
      एक ज्योति की काल नागिनी.
                              (चंद्र कुँवर बर्त्वाल: काल नागिनी’)

अपने गाँव में पैदा होने वाले रैमासी के जंगली फूल को याद करके चंद्रकुँवर एक ओर संसार के सबसे ऊँचे शिखर पर रहने वाले अपने लोकदेवता और महाकाल शिव के आवास कैलाश पर्वत का स्मरण करते हैं तो दूसरी ओर चारों ओर फैली हुई हिममय कठोर धरती पर साथ-साथ उगने वाले रैमासी के फूल और उस हाड़-मांस के पुतले अपने परिजन को याद करते हैं, जिनके जीवन की सार्थकता सिर्फ देवताके चरणों में समर्पित होना है. एक (रैमासी) का जन्म कठोर शिलाओं के मध्य होता है (कुटज की तरह) तो दूसरे (पहाड़ी मनुष्य) के भाग्य में है घराट (पनचक्की) के दो पाटों के बीच पिसते हुए अनाज को निहारते हुए सारा जीवन व्यतीत कर देना. दोनों ही के समर्पण से सिर्फ समर्पणकर्ता को मिलता है सेवा और भक्ति-भाव का प्रसाद. उन दोनों को नहीं मालूम कि देवता उन्हें कृपा के अतिरिक्त भी कुछ दे सकता है. अपने लिए जीवनी-शक्ति तो उन्हें स्वयं ही अर्जित करनी है. अट्ठाईस साल की उम्र में हमारे संसार से कूच कर जाने वाले इस किशोरकवि की ये दो कविताएँ एक साथ पढ़ेंगे तो पहाड़ का पहाड़’-सा जीवन मानो पूरी तरह मूर्तिमान हो जाता है, जहाँ मनुष्य तो मनुष्य, देवता भी भक्त को सिर्फ इस्तेमाल करते दिखाई देते हैं, जो उनका दानतो लेते हैं, उन्हें देने की हैसियत नहीं रखते!

कविता: एक: रैमासी
कैलासों पर उगते ऊपर
      रैमासी के दिव्य फूल!
माँ गिरिजा दिन भर चुन
      जिनसे भरती अपना दुकूल!
मेरी आँखों में आए वे
      रैमासी के दिव्य फूल!
मैं भूल गया इस पृथ्वी को
      मैं अपने को ही भूल गया
पावनी सुधा के स्रोतों से
      उठते हैं जिनके दिव्य मूल!
मेरी आँखों में आए वे
      रैमासी के दिव्य फूल!
मैंने देखा थे महादेव
      बैठे हिमगिरि पर दूर्वा पर!
डमरू को पलकों में रखकर
      था गड़ा पास में ही त्रिशूल!
सहसा आई गिरिजा, बोलीं -
      मैं लाई नाथ अमूल्य भेंट
हँसकर देखे शंकर ने
      रैमासी के दिव्य फूल!

कविता: दो: घराट’ (पनचक्की)

एक झोपड़ी के भीतर रक्खे दो पत्थर
जिनमें एक धरातल को दृढ़भाव से जकड़
मौन पड़ा है एक शिला-सा जिस पर चढ़कर
सिंह ताकता रहता वन्यजीव को निश्चल
और दूसरा पड़ा अचल उसकी छाती पर.

वज्र कठिन कुंडली मारकर सोया अजगर-सा
जिसके ठीक मध्य में निष्ठुर मृत्यु नयन-सा
खुला हुआ है एक छेद भयंकर गह्वर-सा
उन दोनों के बीच पड़ा अदृश्य अँधेरा
पिचक भरा है छोटी-सी मक्खी का सिस्सा

वे दोनों पत्थर चुपचाप प्रतीक्षा करते
अंधकार में बैठ किसी आने वाले की
आया एक आदमी, कंधे पर थैले में
बाँध करोड़ों गेहूँ - खोला उसने पानी
लगा घूमने ऊपर का पत्थर गर्जन कर

नीचे के पत्थर के ऊपर और छेद से
गिरने लगे हजारों गेहूँ उस ज्वाला में
मचा हुआ है हाहाकार घूमते पत्थर
उनके भीतर से छितर रही है बाहर
श्वेत हँसी मरघट की-सी.

चंद्रकुँवर की डायरी से पता चलता है कि १९-२० साल की उम्र में उन्होंने अपने लेखकीय जीवन का मानो मसौदा तैयार कर लिया था. किस दिन कौन-सी किताब पढ़ी और किस प्रकार की रचना लिखने की इच्छा उनके मन में पैदा हुई, इसका विवरण उन्होंने दर्ज किया है. उदाहरण के लिए ७ जनवरी, 1938 १९३८ को उन्होंने महाभारतका ३० वाँ अध्याय पढ़ा, ८ जुलाई को कामायनीऔर रवींद्र प्रवाहिनीपढ़े. ५ मई, १९३८  को उत्तर रामचरितका सीता परित्यागपढ़ा तो उन्हों लिखा, ‘‘रघुवंशऔर कालिदास की कविता में मैं अपनी मनसी बोली सुनता हूँ. मैं जीवन भर कालिदास का नियमित पान करूंगा. कालिदास की कविता की चाँदनी खिली रहे, मैं जीवन भर उसका चकोर रहूंगा.’’ २२ मई, १९३८  को कुमारसंभवपढ़ने के बाद उन्होंने लिखा, ‘‘मैं केवल कवि बनना चाहता हूँ.’’ २३  मई को एक किताब What’s Art का जिक्र करते हुए उन्होंने डायरी में लिखा है, ‘‘बड़ी भावपूर्ण किताब है लेकिन मैं तो कला का जन्म दो बातों से मानता हूँ 1. Self denial आत्मकल्याण. दूसरों को हँसाने वाला अपने-आप बहुत कम हँसता है. .2. Sincerity, Truth सत्य प्रेम से उत्पन्न कला है. इसके बाद देसी-विदेश लेखेों की एक लंबी सूची प्रस्तुत की गई है: Shakespear, Wordsworth, Tennyson, Goette, Heine, Shelly, Keats, Dockons, Hardy, Thakery, Victor Hugo, Dostovsky, Tolstoy, Montaigue, Hazlitt, Lamber, Stevenson, Gardiner, कालिदास, पंचतंत्र, बाणभट्ट और भवभूति पढ़े.

यह बात हैरान करने वाली तो है ही कि चंद्रकुँवर जैसे बड़े रचनाकार की चर्चा हिंदी के इतिहासकारों ने क्यों नहीं की. रामचंद्र शुक्ल ने उन पर एक लाइन लिखी हैं और कुछ इतिहासकारों ने उनका नामोल्लेख कर लेने से अपना दायित्व पूरा समझ लिया है. ऐसा तो नहीं लगता कि उनके मन में अपने समय के चर्चाकारों को लेकर कोई असंतोष या क्रोध हो! फिर भी बुधवार, ५ अक्टूबर, १९३८  को उन्होंने डायरी में लिखा, ‘‘... लेकिन इतना उदास मैं क्यों हूँ. क्यों बार-बार जी चाहता है कि आत्महत्या कर लूँ, इस दुनिया को चुपचाप छोड़ दूँ. क्या मैं जीवन से डरता हूँ ?क्या मैं कायर हूँ?  मेरे ही अकेले ऐसे विचार नहीं हैं.

मृत्यु पर आत्मीय ढंग से और विस्तार से लिखने वाले चंद्रकुँवर बर्त्वाल हिंदी के पहले कवि हैं. मंगलेश मानते हैं, ‘‘कहते हैं, बड़े कवियों का दर्जा इस बात से भी तय होता है कि उनमें जीवन और मृत्यु के बारे में कितने गहरे, व्यापक, समग्र और सार्थक वक्तव्य मिलते हैं, वे इनके जैविक-तात्विक बिंदुओं के बीच अस्तित्व और अनस्तित्व के बीच किस और कितनी जगह और कितनी तरह के संबंधों को देख पाते हैं.’’ मंगलेश ने कहा हैं कि चंद्रकुँवर की कविताएँ निराला की तरह जीवन और मरण के बीच अनोखी आवाजाही करती हैं. वे एक कविता में बह रही मृत्यु के सागर में जीवन की छोटी-सी तरणीकहते हैं मगर उन्हें यह भी विश्वास है कि मैं मर जाऊंगा पर मेरे जीवन का आनंद नहीं/झर जाएंगे पत्र-कुसुम, पर मधुप्राण वसंत नहीं.

चंद्रकुँवर की एक अलग पहचान है, अपने परिवेश की स्थानिकता को उसके सहज-कलात्मक ढंग से प्रस्तुत करना. उत्तराखंड से उभरे पहले कवि सुमित्रानंदन पंत में पहाड़ लगभग गायब है, अगर है भी तो बहुत स्थूल बिंबों के रूप में. चंद्रकुँवर के यहाँ चाहे उनका अपना गाँव हो या, व्यापक पहाड़, सभी जगह पर्वतीय परिवेश की अंतरंगता विद्यमान है. अपने गाँव पँवालिया के बारे में वह लिखते हैं:
कोलाहल से दूर शांत नीरव शैलों पर
मेरा गृह है जहाँ बच्चियों सी हँस-हँस कर
नाच-नाच बहती हैं छोटी-छोटी नदियाँ जिन्हें देखकर

इस कविता की सापेक्षिकता में पंत की अल्मोड़े का वसंत को देखें तो वह कितनी मशीनी-सी अभिव्यक्ति लगती है. या, अपने पैतृक गाँव नागनाथके ये बिंब, हिंदी कविता को एकअलग छवि नहीं देतेः
ये बाँज पुराने पर्वत से/ यह हिम से ठंडा पानी
ये फूल लाल संध्या से/ इनकी यह डाल पुरानी.
इस खग का स्नेह काफलों से/ इसकी यह कूक पुरानी
पीले फूलों में काँप रही/ पर्वत की जीर्ण जवानी.
इस महापुरातन नगरी में/ महाचकित है यह परदेसी
अनमोल कूक, ण्ँपती झुरमुट/ गुँजार अनमोल पुरानी.

स्थानिकता का यह सौंदर्य चंद्रकुँवर की कविताओं में एक और रूप में पहली बार सामने आया है, वह है पहाड़ों की प्रकृति को वहाँ के मानव-जीवन की सापेक्षिकता में देखना. उनकी कविताएँ घराटऔर रैमासीका ऊपर उल्लेख किया गया है; पहाड़ों के आम जन-जीवन से जुड़े उपेक्षित पहलू हैं, जिन्हें उन्होंने मनुष्य के समान गरिमा प्रदान की. भोटिया कुत्ता’, ‘कफ्फू’, ‘कंकड़ पत्थर’, ‘घन’, ‘सूने शिखर’, ‘जीतू’ ‘चूहा-बिल्ली’, ‘ग्रहण’, ‘मैकोले के खिलौनेआदि ऐसी ही कविताएँ हैं. इन विषयों को दूसरे कवियों के द्वारा भी चुना गया है, मगर कवि की आँख जिस तरह विषय के भीतर से उभर कर सामने आई है, वह उनके समकालीनों और उनसे पूर्व के कवियों में तो कहीं नहीं दिखाई देती. उनकी कविता कंकड़ पत्थरपढ़ें:

ये मोती नहीं हैं सुघर/ ये न फूल पल्लव सुंदर
ये राहों में पड़े हुए/ धूल भरे कंकड़-पत्थर!
राजाओं उमरावों के/ पाँवों से है घृणा इन्हें
मजदूरों के पाँवों को/ धरते ये अपने सिर पर!
भूल से इन्हें छू लें यदि/ कभी किसी राजा के पाँव
तो ये उसके तलुवे काट/ कर दें उसे खून से तर!
देख उन्हें डरते हैं हाँ/ सेठानी जी के चप्पल
देख इन्हें रोने लगते/ नई मोटरों के टायर!
किंतु माँग कर खाने वाली /भिखारिणी के पाँवा में
बन जाते ये जैसे हों/ मखमल की कोई चादर!

मगर साधारण में असाधारण नहीं, बल्कि असामान्य में भी सामान्य और उपेक्षित को जिस तरह उन्होंने पेश किया है, इस प्रकार के बिंब भी उनमें एकदम नए हैं. सूर्य, आकाश और तारों को हलवाहा, खेत और बीजकणों के रूप में प्रस्तुत करती उनकी कविता ज्योतिधानउस दौर में अन्यत्र कहाँ मिलती हैः

सूरज ने सोने का हल ले/ चीरा नीलम का आसमान
किरणों ने हँस कोमल असंख्य/ बोये प्रकाश के पीत गान
वे उगे गगन में पल भर में/ पक कर फैले इस धरणी पर
गिरि सरिता, वन-वन में छाए/ वे नभ के गीत पीत सुंदर
उनके रस को पीकर ही तो/ आता है जगत्प्राण में बल
बढ़ते हैं धरणी के शिशु तरु/ होते सुरसीले पक कर फल
सोने का हल लेकर सूरज/ करता विदीर्ण प्रति दिवस गगन
प्रतिदिन बोती है ज्योतिधान/ भू की रक्षा के लिए किरण.

सामाजिक विसंगतियों को विस्तार से, पूरे क्षोभ के साथ व्यक्त करते रहने के बावजूद चंद्रकुँवर बर्त्वाल में हमेशा आशा और विन्यास का स्वर मौजूद रहा है, जैसे उनकी कविता निद्रित शैल जगेंगे में:

अब छाया में गुंजन होगा, वन में फूल खिलेंगे,
दिशा-दिशा से अब सौरभ के धूमिल मेघ उठेंगे.
अब रसाल की मंजरियों पर पिक के गीत झरेंगे
अब नवीन किसलय मारुत में मर्मर मधुर करेंगे.
जीवित होंगे वन निद्रा से निद्रित शैल जगेंगे
अब तरुओं में मधु से भीगे कोमल पंख उगेंगे.
पद पद पर फैली दूर्वा पर हरियाली जागेगी
बीती हिम रितु अब जीवन में प्रिय मधु रितु आवेगी.
रोएगी रवि के चुंबन से अब सानंद हिमानी
फूट उठेगी अब गिरि-गिरि के उर से उन्मद वाणी.
हिम का हास उड़ेगा धूमिल सुर सरि की लहरों पर
लहरें घूम घूम नाचेंगी सागर के द्वारों पर.
तुम आओगी इस जीवन में कहता मुझसे कोई
खिलने को है व्याकुल होता इन प्राणों में कोई.

अंत में मनुष्य के एक अछूते पक्ष को छूती यह अविस्मरणीय कविता मानव’:

कहीं शांति से मुझे न रहने देगा मानव!
दूर वनों में सरिताओं के शीश तटों पर
सूनी छायाओं के नीचे लेट मनोहर
विहगों के स्वर मुझे न सुनने देगा मानव!
यौवन के प्रभात में पुष्पों के उपवन में
खड़ी किसी मृदु मुखी मृगी के प्रिय चिंतन में
मुझे नयन भर खड़ा न रहने देगा मानव!
शोषित-पीडि़त अत्याचार सहस्त्र सहन कर
च्ला जा रहा अविराम विजय के पथ पर
अकर्मण्यता मुझे न सहने देगा मानव!
बज्रों की, भूकंपों की, उल्कापातों की
रौद्र शक्तियों से कठोर रण कर पग पग पर
मुझे शांति से कहीं न रहने देगा मानव!
ऐसे समय घाटियों में लेटे जीवन की
अकर्मण्यता मुझे न सहने देगा मानव!

चंद्रकुँवर बत्वाल की कविताएँ १९३३ - ३४  यानी १४ -१५  वर्ष की उम्र में प्रकाशित होने लगी थीं और १९३९  में यानी २०  वर्ष की उम्र में अस्वस्थता के कारण लखनऊ विश्वविद्यालय से एम. ए. की पढ़ाई छोड़कर वे अपने पहाड़ के घर लौटे थे. उन्हें यक्ष्मा हो गया था, जो उस वक्त एक असाध्य रोग था. रोगी के साथ इतना अमानवीय व्यवहार किया जाता था कि आदमी में जीने की इच्छा ही खत्म हो जाती थी. उसे सब लोगों से काटकर गोशाला में रखा जाता था. जीवन के अंतिम तीन वर्ष चंद्रकुँवर ने भी अपने गाँव पँवालिया के ऐसे ही एक गोठ में बिताए. इस रूप में उन्हें लेखन के लिए कुल मिलाकर दस-बारह वर्षों से अधिक की अवधि नहीं मिली. इतने कम समय में इतना महत्वपूर्ण लेखन उन्होंने हिंदी को दिया, उसे यदि हिंदी के पाठकवर्ग तक आज तक नहीं पहुँचाया जा सका है, तो इसे हमारा ही दुर्भाग्य कहा जाएगा.

पाठकों तक चंद्रकुँवर को न पहुँच पाने के पीछे कुछ सीमा तक स्थानीय और क्षेत्रीय भावुकता भी जिम्मेदार है. १९४७ में उनकी मृत्यु के बाद उनका साहित्य उनके एक सहपाठी शंभुप्रसाद बहुगुणा के पास रहा, जिन्होंने उनके साहित्य को अनमोल वस्तु की तरह अपने कब्जे में रखा और उसे सार्वजनिक करने के बजाय स्वयं ही उसे संकलित कर प्रकाशित करते रहे. जाहिर है कि ये किताबें कुछ मित्रों तक भले ही पहुँची हों, साहित्य के गंभीर अध्येताओं तक नहीं पहुँच पाईं. चंद्रकुँवर इस रूप में एक क्षेत्रीय प्रतिभा की तरह प्रोजेक्ट होते रहे. एक अन्य बात, जिसने उनके बारे में अस्पष्टता पैदा करने में मदद की, वह यह थी कि उनके प्रथम संकलनकर्ता शंभुप्रसाद बहुगुणा पुस्तक के कवर पर चंद्रकुँवर बर्त्वाल के साथ अपना नाम मुद्रित करते थे, जिससे यह स्पष्ट नहीं हो पाता था कि इन कविताओं के रचयिता कौन हैं!

चंद्रकुँवर बत्वाल पर पहली बार ध्यान आकर्षित किया प्रसिद्ध कलाकार-समालोचक श्रीपत राय ने, जिनके प्रयत्नों से १९८१ में सरस्वती प्रेस से उमाशंकर सतीश के संपादन में चंद्रकुँवर बर्त्वाल का कविता संसार नाम से उनकी कुछ चुनिंदा कविताओं का संकलन प्रकाशित हुआ.  इसके बाद छिटपुट तौर पर कुछ चर्चाएँ होती रहीं, मगर तब भी कोई उल्लेखनीय चर्चा नहीं हुईं. उत्तराखंड के विश्वविद्यालयों - गढ़वाल और कुमाऊँ ने इनकी कुछ कविताओं को पाठफयक्रम में जरूर स्थान दिया, लेकिन उससे भी सही पाठकों तक वह नहीं पहुँच पाए. १९९७  में पहाड़संपादक शेखर पाठक ने एक अत्यंत कलात्मक संकलन इतने फूल खिले नाम से निकाला, जिसे प्रसिद्ध कवि-अनुवादक अशोक पांडे के हस्तलेख में तैयार किया गया था. इसका दूसरा संस्करण भी प्रकाशित हो चुका है, संकलित के दूसरे संस्करण में मंगलेश डबराल की भूमिका ने लोगों का ध्यान आकर्षित किया है, लेकिन अभी चंद्रकुँवर का आधे से अधिक कविता-संसार उजागर होना है. इस बीच चंद्रकुँवर के भतीजे डा योगंबर सिंह बर्त्वाल ने चंद्रकुँवर की एक हस्तलिखित डायरी प्रकाशित की है और उनके नाम से गढ़वाल विश्वविद्यालय में एक सृजन पीठ स्थापित करने के लिए प्रयत्न किया है, जिससे निश्चय ही उनके बारे में और अधिक जानने को मिला है. तो भी उनके साहित्य का सही ढंग से प्रकाशन होना बहुत आवश्यक है, जिससे कि वह स्थानीय लोगों के कब्जे से मुक्त होकर हिंदी के व्यापक संसार तक पहुँच सकें. किताबों का आकर्षक प्रस्तुतीकरण और उसकी मार्केटिंग भी आवश्यक है. जिस दिन सचमुच वह हिंदी की व्यापक दुनिया में प्रवेश करेंगे, संभव है तब हमें हिंदी कविता का चेहरा पहले की अपेक्षा कहीं अधिक समृद्ध दिखाई देगा. इस संदर्भ में हिंदी पाठक वर्ग की पहल आवश्यक है.

इसी वर्ष चंद्रकुँवर बर्त्वाल शोध संस्थान के सचिव डा. योगंबर सिंह बर्त्वाल ने चंद्रकुँवर की १ से १९३९ तक की डायरी को उनकी हस्तलिपि के साथ पहली बार प्रकाशित किया है, जिससे न केवल उनकी काव्य-प्रतिभा के अनेक अनुद्घाटित पक्ष उजागर हुए हैं, हिंदी कविता के छायावाद एवं प्रगतिवाद के संधिस्थल की कविता को नए ढंग से समझने की दृष्टि प्राप्त होती है. चंद्रकुँवर बर्त्वाल का जीवन दर्शन नामक यह पुस्तक चंद्रकुँवर शोध संस्थान, बी-२५, ज्याति विहार, देहरादून से प्रकाशित हुई है.


__________________________

लक्ष्मण सिंह बिष्ट बटरोही
मो. 9412084322
email:  batrohi@gmail.com

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  1. चंद्रकुंवर जी की काव्य यात्रा , उनके जीवन और लोक संस्कृति से जोड़ता आलेख . उपयोगी सामग्री उपलब्ध कराने के लिए समालोचन को शुभकामनाएँ . कबीर के दोहों में चक्की को पाते हैं , पर यहाँ घराट कविता में दो पाटों का बिम्ब अनूठा है .
    अच्छा लगा कुंवर जी को इस माध्यम से पढ़ना.

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  2. हिन्‍दी साहित्‍य के इतिहास का ओझल किन्‍तु चमकदार पृष्‍ठ :: बटरोही जी के इस श्रमसाध्‍य आलेख से छायावाद युग के कवि‍ चंद्रकुंवर बर्त्वाल की जो काव्‍य-काठी उभर रही है, वह सुखद आश्‍चर्य से समृद्ध कर रही है। नियति से मिले अत्‍यल्‍प आयु-अवसर में ही चंद्रकुंवर बर्त्वाल का जो काव्‍य-प्रयास साकार हुआ है वह भारतेन्‍दु बाबू जैसी प्रतिभा का अहसास-स्‍मरण जगाने वाला है। चंद्रकुंवर जी की डायरी में व्‍यक्‍त उनका व्‍यक्तित्‍व तो और भी विरल है। उनकी मनोरचना सचमुच बेजोड़ रही। महत्‍वपूर्ण कार्य सम्‍पन्‍न करने के लिए बंधुवर बटरोही को बधाई और इसे यहां सुलभ कराने के लिए ' समालोचन ' का आभार..

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  3. कई लोगों से अपने परिवेश में थोड़ी बहुत जानकारी मेरे हिस्से आती रही है, इतनी सामग्री उनके बारे में पहली बार पढने को मिली. शुक्रिया ! मेरी जानकारी में उनका नाम चन्द्रकुवंर बड़थ्वाल (जो इनके गाँव के लोग लिखते हैं) होना चाहिए..

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  4. बर्त्वाल/बर्थवाल/बड़थ्वाल वैसे रोचक है, हिंदी की शुद्दता के चलते कैसे उच्चारण भी बदला होगा. संभव है उन्होंने अपना नाम बर्त्वाल ही लिखा हो.., वैसे कोशिश करने पर जो गढ़वाली भाषा का उच्चारण है, और आधे थ को खा जाने वाला बोलने का तरीका उसके साथ हिंदी में वैसे ही लिखना कठिन है..

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    1. मेम ये राजपूत वंशज है तो ठाकुर या थोकदार से ताल्लुक रखते है इसलिए ये बर्त्वाल ही लिखते हैं ।बड़थ्वाल पौड़ी में पंडितों की जाती है।

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  5. प्रकृति के अद्भुत चितेरे चंद्रकुंवर बर्त्वाल के बहुरंगी रचनात्मक कैनवस की ओर ध्यान आकर्षित करने के लिए भाई बटरोही का आभार।
    मुझे 8 मई 2010 को बर्त्वाल जी के गांव नागनाथ-पोखरी के उन हरे-भरे बांज, बुरुंश और काफलों के पेड़ों को देखने और उस शीतल हवा में सांस लेने का सौभाग्य मिला था। उसी अवसर पर ‘पहाड़’ से प्रो. शेखर पाठक द्वारा प्रकाशित बर्त्वाल जी की पुस्तक ‘कितने फूल खिले’ का लोकार्पण हुआ था। तभी वे पंक्तियां पढ़ी थीं...‘आशा और निराशा सब कुछ। खो मैं जग में घूम रहा/ अब पग-पग पर मिलते मुझको/क्यों ये इतने फूल खिले! (चंद्रकुंवर बर्त्वाल)

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  6. आपका यह आलेख अति उत्तम है. मेरा आज का दिन सार्थक हो गया. हार्दिक बधाई !
    -- सुभाष लखेड़ा

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  7. बहुत अच्छा प्रयास है । हिंदी में आपसी गुटरगूँ से अधिक इस तरह के शोधपरक लेखन की बेहद जरूरत है । बहुत लोग हैं जो इस काम में जुटे हैं, लेकिन उत्तेजक समकालीन बहस-मुबाहिसों में उन्हें उचित स्थान और सम्मान नहीं मिल पाता ।
    बटरोही जी को साधुवाद कि वे यह काम कर रहे हैं ।
    और अरुण जी, आपको तो क्या कहूँ, मैं तो आपको एक अच्छा कवि ही मानने लगा था लेकिन आप तो अपने साहित्यिक विजन से बार-बार चौंकाते हैं...आभार

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  8. बटरोहीजी ने वाकई अपने इस आत्‍मीय आलेख के माध्‍यम से हिन्‍दी के ऐसे प्रतिभाशाली कवि से रूबरू करवाया, जिसने अपनी 24 वर्ष की छोटी-सी आयु में विलक्षण प्रतिभा का परिचय दिया। उनके आलेख से कवि की मूल कविताओं और उनके लेखन के विविध पक्षों से परिचित होने की जिज्ञासा और बढ़ी है, हमारी साहित्यिक विरासत के ऐसे दुर्लभ रत्‍नों से परिचित कराने के लिए बटरोही का हृदय से आभार। 'समालोचन' ने इसे प्रस्‍तुत कर सराहनीय काम किया है।

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  9. बहुत स्ंदर आलेख ... एक महान कवि, जो साहित्य के पन्नों में कहीं खो गया , उनके बारे में इतनी उपयोगी और समीक्षात्मक जानकारी , वह भी कविताओं के साथ साझा करने के लिए आपका बहुत धन्यवाद ....

    जवाब देंहटाएं
  10. बहुत अच्छा प्रयास है । हिंदी में आपसी गुटरगूँ से अधिक इस तरह के शोधपरक लेखन की बेहद जरूरत है । बहुत लोग हैं जो इस काम में जुटे हैं, लेकिन उत्तेजक समकालीन बहस-मुबाहिसों में उन्हें उचित स्थान और सम्मान नहीं मिल पाता ।
    बटरोही जी को साधुवाद कि वे यह काम कर रहे हैं ।
    और अरुण जी, आपको तो क्या कहूँ, मैं तो आपको एक अच्छा कवि ही मानने लगा था लेकिन आप तो अपने साहित्यिक विजन से बार-बार चौंकाते हैं...आभार

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  11. ‎' मचा हुआ है हाहाकार घूमते पत्थर / और उनके भीतर से छितर रही बाहर /श्वेत हँसी मरघट की सी , ' घराट ' से बर्त्वाल जी की ये पंक्तियाँ प्रभावित कर गयीं |इतने सुन्दर ज्ञानोपयोगी लेख के लिए लेखक को बधाई और समालोचन को धन्यवाद |

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  12. अरुण जी ...... शब्दों में इतना सामर्थ्य नहीं कि मेरा आभार उठा सकें !......
    इस आलेख का जो भावात्मक मूल्य मेरे लिए है.... उसे समझाना इतना आसान कहाँ ?

    एक ऐसे विलक्षण कवि....जो मेरी ही माटी के जाए थे...जिनका मुझे कभी पता ही न लगता , जो इस आलेख को आप समालोचन में स्थान न देते !
    और कितने आश्चर्य की बात कि इतनी प्रतिभा ...इतना संज्ञान .....ऐसा वृहद् अध्ययन ... दार्शनिक चिंतन .... और ऐसे परिवेश में !
    सचमुच अद्भुत !

    कितना संवेदनशील ह्रदय होगा वो जो परित्यक्ता तापिस्विनी सीता की वेदना की कल्पना मात्र से रो पड़ता हो ......जो कालिदास से संवाद करता हो ...... जो 'घराट' के दो पाटों के बीच पिसती कठोर पर्वतीय जीवन की त्रासदी को अपने अन्दर जीता हो ....
    और फिर भी ' आपुन ईजा के पिछौड़े' की तरह अपनी आशा ....अपनी आस्था का आँचल नहीं छोड़ता हो !....
    तभी ना वो कह पाया....

    मैं मर जाऊँगा , पर मेरे जीवन का आनंद नहीं ,
    झर जायेंगे पत्र कुसुम तरु पर मधु प्राण वसंत नहीं ,
    सच है घन तम में खो जाते स्रोत सुनहले दिन के ,
    पर प्राची से झरने वाली आशा का तो अंत नहीं ."

    पर्वतीय जीवन में यक्ष्मा की बहुत सी कथाएँ सुनी हैं....और कैसा अमावीय व्यवहार होता था रोगियों के साथ !
    सोच के भी सिहर जाती हूँ कि 'गोठ' ( पर्वतीय घरों का Ground Floor ...जहां गायें { गोरु } रखीं जातीं थीं ) में कैसे तो रहे होंगे वो.....कितना संत्रास ...कितनी पीड़ा हुई होगी !

    बटरोही जी का अनंत आभार जो उन्होंने इतनी आत्मीय दृष्टि से उनके जीवन का अध्ययन किया .... अपने इस शोधपूर्ण लेख से उनकी स्मृति को पुनर्जीवित किया....और उनका श्रेय उन्हें दिलाया !
    इस आलेख में 'काफ़ल' का ज़िक्र हुआ है...
    काफ़ल जैसा मुझे पता है...एक खट्टा-मीठा फल होता है जो चैत के महीने में लगता है...
    इसे लेकर एक बहुत लोकप्रिय कुमाऊँनी गीत भी है...
    "बेडू पाको बारा मासा
    नरैणा काफ़ल पाको चैता मेरी छैला ...."

    'काफ़ल पाक्कु ' किसी पक्षी का नाम है ...ऐसा तो पहले कभी नहीं सुना !

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  13. Laxman Singh Bisht Batrohi26 अप्रैल 2012, 6:37:00 pm

    अर्चना जी, आपकी प्रतिक्रिया को पढ़कर बहुत अच्छा लगा, अपना परिश्रम सार्थक लगा. लगता है, आपने 'काफलपाक्कु' कथा नहीं सुनी है. कुमाऊँ और गढ़वाल, दोनों अंचलों में यह लोक कथा खूब लोकप्रिय है. अब वो नानी-दादियाँ कहाँ रहीं. काफल लाल रंग का खट्टा मीठा फल है, लेकिन 'काफलपाक्कु' एक पक्षी. कथा इस प्रकार है : एक बार किसी औरत ने जंगल से काफल तोड़कर टोकरी में घर के आँगन में रख दिए. उसके बाद काफल से भरी टोकरी की रखवाली के लिए अपनी बेटी को बैठा कर जंगल चली गयी. शाम को जब माँ लौटकर आई तो तब तक धूप में सूखकर काफल आधे से कम हो गए थे. माँ ने समझा कि काफल बेटी खा गयी है, गुस्से में उसने उसे इतना मारा कि उसने प्राण त्याग दिए. सुबह माँ ने देखा कि रात भर की ओस में भीगकर काफल पहले जितने हो गए. पश्चाताप में डूबी हुई वह सिर पीट रही थी कि उसने देखा, उसकी बेटी पक्षी के रूप में पेड़ पर गा रही थी, 'काफल पाक्को, मैल नि चाक्खो' (काफल पक गए हैं, मैंने नहीं चखे) कहते हैं, शोक में माँ के भी प्राण-पखेरू उड़ गए.

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  14. Laxman Singh Bisht Batrohi26 अप्रैल 2012, 6:51:00 pm

    आप सभी लोगों का आभार कि आपने इतने ध्यान और आत्मीयता के साथ लेख को पढ़ा और प्रतिक्रिया दी. अपर्णा जी, कर्ण सिंह चौहान, नन्द भारद्वाज, प्रतिभा अधिकारी, रश्मि भारद्वाज,सुदेश प्रकाश, मेवाड़ी जी, लखेड़ा जी,श्याम बिहारी श्यामल और उन दर्जनों लेखकों-पाठकों का आभार, जिन्होंने इसे पसंद किया. प्रभात रंजन जी ने मेरे उठने से पहले ही अपनी प्रतिक्रिया दर्ज कर दी थी और आँख खुलते ही श्यामल जी ने ही फोन पर मुझे इसके प्रकाशन की सूचना दी. अंत में स्वप्नदर्शी जी की टिप्पणी पर एक बात कहनी है. 'बर्त्वाल', 'बड़थ्वाल' और 'बर्थवाल' अलग अलग जाति नाम हैं. हिंदी के पहले डी. लिट. पीताम्बर दत्त बड़थ्वाल का नाम सब जानते ही हैं. एक अंतर यह भी है की 'बर्त्वाल' जाति से क्षत्रिय होते हैं और

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  15. बटरोही जी का अतिशय धन्‍यवाद और आभार कि उन्‍होंने इतना महत्‍वपूर्ण लेख लिखकर एक महान कवि के इतने विविध रचना संसार से रूबरू कराया। मुझे कुंवर जैसे लेखकों के बारे में या उनका लिखा पढ़कर हमेशा लगता है कि हिंदी आलोचना कितनी दरिद्र रही है। बनी-बनाई लीक पर चलने वाली हमारी आलोचना ने ऐसे महत्‍वपूर्ण रचनाकारों को छोड़ ही दिया जो हिंदी का एक मुकम्मिल चेहरा बनाते हैं। छायावादी कुहासे में भी एक कवि उजाले के गीत गा रहा था और भविष्‍य की प्रगतिशील जनवादी कविता की नींव मजबूत कर रहा था, लेकिन उस पर ध्‍यान नहीं गया... अक्‍सर ऐसे मामलों में लेखक की रचनाओं पर कुंडली मारकर बैठ जाने वाले मित्र-परिजन भी बहुत दोषी होते हैं, जो लेखक की रचनाओं को अपनी निजी संपत्ति मानकर दबाये रहते हैं।

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  16. सुबह सरसरी नज़र से पढ़ा, अब शाम को फुर्सत हुयी तो फिर ज्यादा ध्यान से पढ़ा. बटरोही जी को बहुत धन्यवाद, इस अनूठे और श्रमसाध्य लेख के लिए. ये भी आज ही पता चला कि मात्र २८ वर्ष की आयु में इनका देहांत हो गया था, और एक आशा का भी संचार हुआ कि लम्बे समय तक अँधेरे में रहने के बाद भी लिखे शब्द बचे रहते हैं. पहले जो थोड़ा बहुत चंद्र्कुवर जी के बारे में पढ़ा-सुना था, उसे एक सन्दर्भ मिला. सरनेम के को लेकर जो दुविधा थी वो भी दूर हुयी. अरुण जी को बहुत धन्यवाद इस लेख को उपलब्ध करवाने के लिए.

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  17. बटरोहीजी चंद्कुंवर जी पर यह आलेख संग्रहणीय है। मैंने छात्र जीवन में इस कवि को पढ़ा था। दुख होता था कि अपनी कविता में मौत से साक्षात्कार करने वाले और उसका स्वागत करने वाले इस कवि के बारे में इतनी अज्ञानता क्यों है। वे प्रकृति के चितेरे थे। मैं उनके गांव भी गया हूं। कुछ समय पूर्व मसूरी और देहरादून में उनकी कविताओं पर नृत्य नाटिका होने लगी तो कुछ अच्छा लगा कि अब उन्हें याद तो किया जाने लगा है। कम से कम शुरू में उत्तराखंड में उनकी काव्य रचनाएं स्कूल कालेज में पढ़ाई जानी चाहिए।

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  18. प्रेमचंद गाँधी, स्वप्नदर्शी और वेदविलास उनियाल ने बहुत गहरे जाकर चंद्रकुंवर के मर्म को समझा है. मैं समझता हूँ, प्रकृति को जीवन का मूल्य स्वीकार करने वाले ऐसे व्यक्ति को, जो रचना की आकांक्षा रखता हो, शुरू करने से पहले एक बार चंद्रकुंवर बर्त्वाल को अवश्य पढना चाहिए.

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  19. "ऐसे कितने ही धुर वीरान प्रदेशों में
    निरंतर लिखी जा रही होगी
    कविता खत्म नहीं होती ,
    दोस्त .......
    संचित होती रहती है वह तो
    जैसे बरफ
    विशाल हिमनदों में
    शिखरों की ओट में
    जहाँ कोई नहीं पहुँच पाता
    सिवा कुछ दुस्साहसी कवियों के
    सूरज भी नहीं ......"

    हमेशा की तरह महत्वपूर्ण पोस्ट . डॉ. रमेश कुंतल मेघ ने एक बार मेरी कविताओं की आँचलिकता पर टिप्पणी करते हुए चन्द्र कुँवर बर्त्वाल का ज़िक़्र किया था . तब से इस कम ज्ञात कवि के बारे खोज खोज कर पढने का प्रयास करता हूँ . लेकिन इतनी विस्तृत , मौलिक और ज़रूरी जानकारी एक जगह पर पहली बार पढ़ने को मिली है . तृप्त हो गया हूँ. अब इस शोध के प्रकाश मे उन की कविताएं पढ़ने का अलग ही आनन्द आएगा .
    हिमाचल मे हम अक्सर बहस करते हैं कि उत्तराँचल से इतनी जिओ-पॉलिटिकल और सोशो-एकोनॉमिक साम्य होते हुए भी हम हिमाचली कला संस्कृति के क्षेत्र मे क्यॉ पिछड़े हुए हैं ? बहुत अटकले लगती हैं . रोचक और हास्यास्पद भी . लेकिन यहाँ पता चलता है कि वहाँ सुमित्रा नन्दन पंत के बाद एक दम मंगलेश डबराल और वीरेन डंगवाल नही पैदा हो गए हैं . बीच की कुछ महत्व पूर्ण कड़ियाँ हम से छूट रही हैं और वहाँ के साहित्यकारों ने इन छूटी कड़ियों को बहुत गम्भीरता और सद्भावना के साथ पिरोया है , उस मे ठोस परिश्रम किया है . तभी वहाँ संस्कृति कर्म एक जनान्दोलन की तरह विकसित होता गया है ...और फलस्वरूप श्रेष्ठ साहित्य वहाँ से निकल कर के आ रहा है . इस प्रेरक और सार्थक पोस्ट के लिए अरुण जी का आभार . और अपनी इस प्रतिबद्धता के लिए समूचे उत्तराखण्ड को बधाई !

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  20. बहुत मेहनत और जिम्मेदारी से लिखा गया यह महत्वपूर्ण आलेख है। आभासीय दुनिया में लखे जा रहे साहित्य के इतिहास का ही नहीं अपितु जमीनी दुनिया के साक्षात कागज पर छपे इ्तिहास को भी प्रभावित करते इस आलेख के लिए लेखक बटरोही जी और ब्लाग के माडरेटर दोनों का आभार एवं शुभकामनाएं।

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  21. बेनामी2 मई 2012, 8:02:00 am

    Respected 'Batrohi' Ji
    Your research on Great Poet Chandr Kunwar bartwal is appreicable and congratulations for such hard work and studies.
    You have been kind enough to leave intellectual language that common man can understand about the works of great poet Chandra Kunwar bartwal
    Bhishma Kukreti

    जवाब देंहटाएं
  22. बेनामी4 मई 2012, 6:55:00 am

    dhanyavad batrohi ji.

    chandra kunwar par shodhpurn lekh ke liye. kavi ke acharaht rahjane par chinta ko aap jaise varist sahityakar dwara prakat kiya gaya.chandrakunwar abhi tak uprkchhit ha.wastav me yah achhi sthiti nahi ha. mujhe lagta ha ki ab ham khud chandrakunwar ka sahi mulyankan karne ma samarth ha. bas pahal ki jarurat ha.dhanyavad. nk hatwal

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  23. पूरा लेख पढ़ा.. एक ऐसे कवि से परिचय हुआ जिन्होंने जीवन की छोटी सी अवधि में अप्रतिम रचनाएँ की.. आभार अरुण जी.. बटरोही जी का शोध प्रशंसनीय है.. शुक्रिया..

    जवाब देंहटाएं
  24. डॉ.राजीव जोशी बागेश्वर10 सित॰ 2017, 9:25:00 pm

    आदरणीय बटरोही जी प्रणाम
    चन्द्रकुँवर बर्त्वाल पर आपका यह आलेख निश्चित ही संग्रहणीय है। मात्र 28 वर्ष की आयु में हिंदी साहित्य की अतुल्य सेवा करने वाले कवि को आपके इस लेख पर टिप्पणी के माध्यम से नमन करता हूँ। आपको भी इस जानकारी को सर्वजनिक करने के लिए आभार।

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  25. अच्छी सामग्री मिली पढ़ने को। इसके लेखक बटरोही जी को धन्यवाद।

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  26. बटरोही जी प्रणाम व धन्यवाद ।।आप के इस लेखन के लिए शब्द से आभार व्यक्त करना मुश्किल है ।बहुत अतुलनीय कार्य किया है ।

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  27. आप के लेख ने हृदय को छू लिया, एक अल्पआयु
    में जिसने हिंदी साहित्य को हतना बड़ा उपहार दिया ,उसका उपकार भुलाया न जा सकेगा।
    "थे जले दो दीप क्षण भर,फिर न जलने को कभी.."

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  28. महान अल्पजीवी साहित्यकार को कोटि नमन

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