सहजि सहजि गुन रमैं :: लीना मल्होत्रा राव






मैं क्यों लिखती हूँ :

मैंने बहुत पहले लिखना शुरू किया जब मैं १६ वर्ष की थी, मेरी दीदी आकाशवाणी  के लिए नाटक लिखती थीं और मैं उनकी स्क्रिप्ट्स पढ़ा करती थी. मेरे पिताजी दिन में १८ घंटे या तो काम करते थे या पढ़ते रहते  थे. हमारे घर पर फर्नीचर से अधिक किताबें थी. मेरे भाई  रूसी साहित्य के प्रेमी थे, तो इस परिवेश में लिखना पढना जीवन में स्वतः ही हवा धूप पानी जैसी जीवन की आवश्यकताओं की तरह शामिल हो गया.

हिंदी साहित्य कभी कोर्स में नही पढ़ा इसलिए मैं इसकी बारीकियों से परिचित नही हूँ. लेकिन अपने मन से लगभग सभी प्रमुख साहित्यकारों को पढ़ा है. कॉलेज में मैं धर्मयुग और कादम्बिनी और हँस पढ़ा करती थी. डा धर्मवीर भारती की कनुप्रिया मुझे पूरी याद थी मोहन राकेश का आषाढ़ का एक दिन मेरा प्रिय नाटक था मैंने कई कई बार इसे पढ़ा इसका मंचन देखा.  केदार जी, शमशेर जी, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, मंगलेश डबराल जीअनामिका जी , कात्यायनीजी,  न जाने कितने ही नाम है, जिन्हें पढ़ पढ़ कर मैंने सीखा है.

मैं कवितायेँ लिखती थी और शीशे के सामने खड़े होकर खुद को सुनाती थी. मैं रंगमंच से भी जुडी. फिल्म्स भी लिख. लेकिन मुझे जो संतोष कविता लिख कर मिला वह किसी अन्य विधा ने नही दिया. जब मैं फेस बुक पर आई तो मेरे सामने मानो साहित्यकारों का एक पूरा संसार ही खुल गया. शुरू में संकोच करते हुए अपनी एक दो रचनाये शेयर की, प्रोत्साहन मिला और इस तरह मैंने छपना शुरू किया. कविता लिखते समय जो सुखद अनुभूति होती है वह कविता के छपने से बड़ी होती है. 

कविताओं में 'मैं'  'मेरा' सर्वनाम का बहुतायत में प्रयोग हुआ है लेकिन वह 'मैं' लीना नही बल्कि वह पीड़ा है जो किसी अन्य की भी हो सकती है लेकिन जिसे मैंने अपने भीतर महसूस किया और शब्द दिए   मेरी यात्रा का ज़रूरी सामान एक स्त्री के वजूद का सामान है जो उसे उसके कर्तव्यों प्रेम और संवेदनाओ से इतर उसे अपने प्रति निष्ठा की याद दिलाता है..वह निष्ठा एक स्त्री होने की नही एक व्यक्ति होने की है.  जीवन एक यात्रा है और इस यात्रा को पूरा करने के लिए विचार, आदर्श और प्रेरणाऐं और इनसे उपजा अनुभव ही  इन कविताओं की सामग्री है.

मुझे जीवन से प्रेम है और स्‍वाभाविक है कि इनकी मौजूदगी मेरी रचनाओं में हो.  कविता कोई शब्दों का जमावड़ा नही है. कविता जीवन में बिखरे मूर्त और अमूर्त को परिभाषित करती है. जब आप कोई बात को पूरी तरह शब्दों में नही कह पाए तो आप कविता में कह सकते हैं क्योंकि कविता मौन का भी सम्प्रेषण करती है. कोई भी जीवित व्यक्ति कविता से दूर नही है, हाँ शायद वह उससे रु-ब- रु नही हो पाया, जिस दिन वह कविता से   मिलेगा उसे पहचान लेगा. क्योंकि कविता जीवन में बहती है. मेरी कविता मैंने अपनी काम करने वाली बाई को भी सुनाई है वह भी सुनकर रोने लगी, तो कविता से सम्बंधित  होने के लिए आपको कोई साहित्यिक व्यक्ति होना ज़रूरी नही है. कविता तो सबके जीवन में है.. 

मैं स्त्रीवादी स्वरों में अधिक बात नही करती क्योंकि स्त्री को स्वरों से नही मन से स्वतंत्र होना होगा, एक नारे  से अधिक कारगर होगा मुक्ति की राह में उठा हुआ कदम, तोडना बहुत सरल है लेकिन अपने अस्तित्व को बचाने के लिए एक परिवार को तोड़ देना अनादर की भाषा बोलना,  मैं इनसे सहमत नही हूँ. .हमें संतुलन साधना होगा क्योंकि परिवार और इस समाज को बचाए रखने की बड़ी ज़िम्मेदारी हम पर है. हम संक्रमण काल में जी रहे हैं इसलिए हमारी लड़ाई बहुत लम्बी और कठिन है हमें इसे हथियारों से नही समझ और बूझ से लड़ना होगा..सिर्फ  अपने अस्तित्व को स्वीकारने की सकारात्मक सोच से ही कई समस्याए हल हो जायेंगी. 



 G.Mezzogiorno as Fermina Daza in Love in the Time of Cholera movie 


 बीत जाने के बाद

आज तुम लौट आये हो
मेरे हाथों में कोई कंपन नही
न ही दृष्टि में नमी
दिल की धड़कन भी अलसाई सी यंत्रवत बज रही है

साफ़ साफ़ देख पा रही हूँ तुम्हे
वैसे नही
जैसे मैं देखना चाहती हूँ बल्कि वैसे जैसे कि तुम हो

सोच रही हूँ की ऐसा क्या था तुममे जो
मैं दांव पर लगा देती अपना जीवन
कैसे एक चित्र में जड़ हो गई थी मैं तुम्हारे साथ
जिसके फ्रेम में समय नही घुस सकता था
प्यार खुशबू का एक पुल बन गया था
जिस पर मैं तुम्हारे साथ एक अनंत यात्रा पर निकल चुकी थी

अब आये हो तो
बेवकूफ शब्द खोखले से बज रहे हैं
होठो की मुस्कान समझदारियों की भाप बनकर उड़ने  को है
रुको
एक कप चाय  पीकर जाना
अभी भी चाय में खौलता है पानी का पागलपन
नहीं यह प्रेम का नहीं आंच का दोष है
तब भी उसी का दोष था

आहा ! मुझे तुमसे नही
उन दिनों से प्रेम था
बहने  से प्रेम था उड़ने से प्रेम था डूब जाने से प्रेम था
नहीं स्वीकारना नहीं चाहती थी
तुम न आते तो क्या ही अच्छा था.




कभी चीनी कभी नमक

बहुत दिन हुए
जब हमने एक दूसरे को जाना ही था
और शुरू ही हुआ था हमारा रिश्ता
हमारे बीच एक सच रहता था

जनसँख्या के माल्थस के सिद्धांत की चर्चा करते हुए
हम एक दूसरे  की आँखों में देखते थे
और तब सच
जिसकी इस सिद्धांत के बीच कतई ज़रूरत नही थी
एक खुरपी की तरह खोदता रहता ज़मींन
जिसकी मुलायम मिटटी में हम धंसते रहते गहरे
अपने रिश्ते की जड़ों को पाताल तक ले जाते हुए

फिर
सच एक प्रयोग था
जिसमे हमें अपनी ईमानदारी सिद्ध करनी थी
बताना था एक दूसरे को
कि कितनी गलतियाँ हम माफ कर सकते हैं
और कितने महान हो सकते हैं
हम  समझाते रहते एक दूसरे को
कि रिश्ता सिर्फ सच की बुनियाद पर ही टिका है
और इसके सरकते ही भरभरा कर गिर पड़ेगी ये इमारत

कुछ दिन बाद जब बासी हो गई जिंदगी
बिजली के बिल से उबाऊ दिन और  रिश्ते
तब बहाने
एक ताजगी से भरे चन्दन लेप की तरह छाने लगे
जिसके लबादे तले सच अपनी ऊब की झुर्रियों को लेकर
दम साधे पड़ा रहा बरसों
एक स्थगित होते मुकदमे की तरह
इसी इंतज़ार में की अंतिम  निर्णय से पहले समझौता हो ही जाएगा

बूढ़े हो गये फिर दिन
और हम तुम,
हमारा  रिश्ता और सच

सच के नीचे छिपा सच छिल छिल कर बाहर आया
तीखे व्यंग्य, ताने, तर्क और जिरह
और तमाम वो घटनाएं जिसका ज़िक्र हमे अधिक से अधिक आहत  कर सकता था
हमने उकेरी
सुबह का अखबार शाम तक साथ साथ पढ़ते
बातें की
अहसान जताए 
इस तरह सच ने साथ निभाया आखिर तक
कभी चीनी
कभी नमक
तो कभी मिर्ची बनकर.




लाल बत्ती वाला लड़का

आपने मुझे देखा होगा..
लाल बत्ती पर
दौड कर आता हूँ
वह दौड मेरे आधे पेट से भर पेट खाने की दौड होती है
इसी लिए तुम्हारी कोई मुस्तैदी काम नही आती और
तुम्हारे शीशा चढा लेने से पहले ही मैं अपना हाथ खिडकी में फंसा देता हूँ
एक बार तो मेरा हाथ उस मशीन से बंद होने वाली खिडकी के बीच दब गया था
और मुझे बहुत जोर का दर्द हुआ था..
वह दर्द तो कुछ देर बाद खत्म हो गया था लेकिन उस  आदमी की गालियाँ
मेरे सपनो की दीवारों पर उलटी लटकी हुई चमगादड़ की तरह चिपक गई थी.


बदले में उसकी कार को खुरच के मैं जो भागा
फिर तो मैंने अपनी २० फुट ऊंचे फ्लाई ओवर के नीचे मले हुए
अपने कोने वाले घर के पास आकर ही दम लिया
इस कोने को मल लेने के लिए भी एक पूरा युद्ध लड़ा गया था
उस युद्ध के समय का  फैसला माँ ने ही किया था
जब मेरा बाप आधी बोतल पी कर टुन्न तो हो गया था पर लुड़का नही था 
वही उसे भड़काने का उचित समय था
क्योंकि उसकी रूह उस अद्धे में अटकी थी
उस समय वह  किसी की हत्या तक कर डालता
पीछे उसे उंगल देती माँ थी और तीसरी पंक्ति में  हम १० भाई बहनों की फ़ौज
और आखिर हमने अपनी गठरी जमा ली थी
अब उस गठरी पर मजाल है कोई आँख भी टिकाये
हमारी गठरी में कुछ चमकीले कपडे भी रहते हैं
और कुछ दो या तीन नम्बर बड़े या छोटे जूते
एक आध नम्बर की  ऐडजस्टमेंट तो कभी पैर तो कभी जूता मोड़ कर हो ही जाती है
लेकिन बड़े वाले जूते तो रात को सोते हुए पहनने के काम ही आते हैं..
और चमकदार कपड़ों का तो क्या कहना
लम्बाई कभी कभार ठीक आ भी जाए
पर चौड़ाई !
उसमे हम दो भाई बहन तो आराम से घुस सकते हैं..
चौड़ाई का ये अंतर तो हमेशा ही बना रहेगा..
एक आध पुरानी छेदों वाली चादर भी ज़रूर होती है
हाँ एक बार माँ को एक कार वाली में एक गठरी दे गई थी उसमे सलवारे ही सलवारे थी
उन सर्दियों हमारी ठंड बहुत भली कटी
एक टांग हम भाई बहन नीचे बिछा लेते
दूसरी ओढ़ लेते
नये कम्बल तो बापू की बोतल खरीदने के काम ही आते हैं.
तब माँ कहती है मरेगा तभी चैन आएगा

और
उस समय मैं सोचने लगता हूँ
कि बाप के मरने के बाद
मेरे रोज़ के कमाए हुए १० तो कभी १५ रूपये बच जायेंगे
जिन्हें वह घुड़क कर रोज़ मुझसे छीन लेता है

उससे मैं एक दिन
मैं गरम जलेबी खाऊंगा
अपने साईज के कपडे खरीद के पहनूंगा
और एक बोतल पानी भी खरीद के पीयूँगा

शहर आने से पहले जो पानी मैं गाँव में पीता था
उसमे कई बार कीड़े आते थे
तब माँ कहती  दांतों की छलनी से छान कर पानी पी जा
और कीड़े थूक कर फेंक दे
फिर आश्वासन भी देती बस कुछ रोज़ में  शहर चलेंगे
शहर में साफ़ पानी मिलेगा
अब यहाँ शहर चले आये दिन भर चौराहे पर भीख मांगो
मिन्नत मुथाजी करके
सुलभ शौचालय का पानी पीयो
इससे तो गाँव का पानी बेहतर था बेशक उसमे कीड़े थे
पर  उसे थूकने में अपनी बेहतरी का अहसास तो था
भूख तो वहां भी ऐसी ही थी यहाँ भी ऐसी ही है
जब माँ से इस बारे में कहता हूँ
तो वो हंस कर कहती है
तू बड़ा भी तो हो गया है अब तेरी भूख  पहले जित्ति थोड़ी रही .




सीमा पार चारपाइयाँ

वो बड़े आँगन वाले घर के बाहर ही छूट गई चारपाईयां
जिन्हें याद कर कर के माँ इतने बरस रोई
याद करती थी वो शहर के क़ाज़ी को रुलाईयों के घूँट पी पी कर
जिसने दंगाइयों के सामने बाजू खोल कह दिया था
उस शहर की पहली लाश वही बनेगा

ज़हर की शीशियों को मुठियों में भींचे 
अपने  बारह बरस के हाथो में
हज़ारो साल पुरानी अस्मत को बचा ले आई थी वह
उन कटते हुए काफिलों के बीच से
मौत को चकमा देकर.

गर्वीली मुस्कान से बताती थीं जब
तब
एक ठिठका हुआ दुःख आधी सदी से वही बिछी चारपाइयों पर थक कर करवट  बदल लेता
जिसकी लहरे समय को साथ बहा लिए चली आती हमारे घर
जिसमे गोते लगाती माँ बताती आगे की कथा
कहा था उन्होंने अपनी माँ से
"ए मंजिया ते अन्दर रख दो" (ये चारपाइयां तो अंदर रख दो)
कांप गये थे नानी के हवेली को ताला लगाते हाथ

कहा था नानी ने
"नी झाल्लिये हुन ऐत्थे थोड़ी आना ए" (पागल! अब यहाँ थोड़ी आयेंगे)
मुठ्ठी भर गई थी माँ के दिल में
पूछती रही थी क्यों लगाया ताला फिर
अनुत्तरित ही रहा वह प्रश्न
चारपाईया टिकी हैं वहीँ जहाँ थी..
रहेंगी वहीँ हमेशा हमेशा
कुछ चीज़े अपनी जगह कभी नही बदलती

सरल प्रश्नों  के सरल उत्तरों के भीतर
सदियों तक गूंजते रहे तार सप्तक में दर्द के विकृत स्वर .




क्रांति चुपचाप

वह जो टूटता हुआ तारा है न
वह एक क्रांति करते हुए शहीद हुआ है
उन सब आकाश गंगाओं के खिलाफ
जो अपनी रफ़्तार की मदहोशी में गुम हो चुकी हैं
और उन  तारों के विरूद्ध जो  अपनी  तयशुदा कुर्सियों पर बैठ गये हैं तन कर
उन सब आँखों के खिलाफ जो आसमान में तारे देखना भूल गई  हैं
और उस प्रदूषण के खिलाफ जो एक गहरा घना सितम बन कर अन्तरिक्ष  में बरामद हो रहा है
और जिसके कारागार आसमानों में बनाए जाने की योजनाये फलित हो रही हैं.

वह जानता था सुने नही जायेंगे उसके नारे
लेकिन उसमे चमक थी फ़ना होकर खो जाने से पहले एक बार चुंधिया देने की आँखों को
उसने फैला दी है  रौशनी
ताकि अंधेरों में  छिपा कर रखा हुआ सत्य  उजागर हो जाए
सच की  रौशनी में भटकते मुसाफिर  ढून्ढ पाए अपने खोये हुए रास्ते

एक आम आदमी की तरह था उस तारो भरे जहान में वह टूटता हुआ सितारा
जिसके पास
दुनिया को जला देने जितनी आग न सही
लेकिन
उजाला फ़ैलाने को पर्याप्त चिंगारी ज़रूर थी.


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लीना की कुछ और कविताएँ यहाँ पढ़ी जा सकती हैं.
लीना का कविता संग्रह, मेरी यात्रा का जरूरी सामान बोधि प्रकाशन से (२०१२) आया है.
leena3malhotra@gmail.com


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  1. लीना जी की कविताएं एक गहराई तक जाकर असर करती हैं। 'लाल बत्ती वाला लड़का' एक बड़ी ही जीवंत कविता है। बधाई हो लीना जी को और धन्यवाद इस प्रस्तुति के लिए।

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  2. लीना जी की कविताएं मर्मस्पर्शी हैँ।लाल बत्ती वाला लडका बहुत अच्छी लगी।इस प्रस्तुति के लिए लीना जी को बहुत धन्यवाद।

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  3. लीना ने बहुत जल्दी समकालीन कविता-परिदृश्य में अपना ऐसा मुक़ाम बना लिया है जो बहुतों के लिए इर्ष्या का सबब भी बन सकता है. भाषा-मुहावरे और बिंबों की ताज़गी हौले से पाठक को अपनी गिरफ़्त में ले लेती है. साक्षात्कार-अंश, जो यहां एक तरह से कवि-आत्म-वक्तव्य बन गया है, काफ़ी रोचक है. कवि बनने के आकांक्षी लोग इसे ध्यान से पढ़ें तो इसे बेहद "काम का" पाएंगे अपनी रचनात्मक तैयारी के लिहाज़ से. लीना को पढ़ना एक बेहद सुखद अनुभव होता है, मेरे लिए. लीना ने जो बेंच-मार्क क़ायम किया है, उसे तोड़ कर आगे बढ़ें वह, और साल खत्म होने तक फिर नया बेंच-मार्क क़ायम करें, यह शुभकामना एवं बधाई. आभार, अरुण.

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  4. लीना जी ने कम समय में ही हिंदी कविता के क्षेत्र में एक महत्वपूर्ण स्थान हासिल कर लिया है. मेरे लिए यह गर्व की बात है कि उनकी साहित्य यात्रा के इस आरंभिक सोपान पर ही मुझे उनको सुनने, पढ़ने और पढ़वाने का सुवसर मिला है / मिलता रहा है. 'मेरी यात्रा का ज़रुरी सामन' के लोकार्पण का भी एक हिस्सा बनने का सुअवसर मुझे मिला. उनकी कविताएँ और उनका स्नेह दोनों मन के कहीं बहुत अंदर उतरते हैं. उनकी कविताओं को लेकर अक्सर ही लीना जी और मेरे बीच बात-चीत चलती रहती है. इसलिए उनकी कविताओं पर मैं अधिक नहीं लिख रहा हूँ. यहाँ बस इतना ही लिखना है कि मुझे उनकी कविताओं और उनकी दोस्ती दोनों पर गर्व है. उनको बहुत बहुत शुभकामनाएँ. अरुण देव जी का आभार!

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  5. लीना जी की तीनों कविताएं एक से बढ़कर एक है... किसी एक को बेहतर बताना दूसरे के साथ नाइंसाफी होगी. ये कविताएं क्रांति चुपचाचाप की तरह दिल में धीरे से घुसपैठ करती हैं और फिर बाहर नहीं निकलतीं...

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  6. लीना को अच्छी ऒर मार्मिक कविताओं के लिए बधाई । बहुत गहराई तक बेचॆन करती हॆं कुछ कविताएं । स्त्रीवादी लेखन को लेकर इनके विचार भी बहुर सहज, संतुलित ऒर उचित हॆं । शुभकामनाएं। -दिविक रमेश

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  7. आजकल लीना मल्होत्रा राव का संग्रह 'मेरी यात्रा का ज्ररूरी सामान' पढ़ रहा हूँ। हिन्दी के समकालीन काव्य परिदृश्य पर उनकी कवितायें अपने सचमुच 'होने' का अहसास कराती हैं। उनकी कविताओं में बेहद साधारण चीजों की असाधारण उपस्थिति है। उनका यह मानना कि 'कविता कोई शब्दों का जमावड़ा नहीं है' बिल्कुल सही बात है। भाव , विचार, उपस्थित्यों , अनुपस्थितियों और आगत की आहट को बरतने का उनका तरीका मुग्ध करने से अधिक दग्ध करता है। लीना जी को बधाई और अरुण जी के प्रति आभार।

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  8. मैं सिवाय इसके कुछ नहीं कहूँगा कि लीना की कवितायेँ मुझे पसंद हैं.लीना भारी-भरकम शब्दों का प्रयोग नहीं करतीं, चौंकाने की कोशिश नहीं करतीं. वे सीधे यथार्थ को उकेरती हैं और यह उनकी कविताओं में साफ़ देखा जा सकता है.

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  9. लीना की कविताएँ गहन संवेदनाओं और अनुभूतियों का कलात्मक विस्तार हैं ..उन्हें पढ़ना हमेशा सुखद लगा . लीना को बहुत देर से जाना पर जब जाना तो एक आत्मीय कवि और संवेदनशील मानव रूप में और उसी की उत्कृष्ट बुनावट उनकी कविताओं में सहज रूप से गुम्फित होती है ...कविता यहाँ शब्दों के अंतराल में बहती है ..शब्दों के अंतराल में कविता का बहना क्या है , ये सबसे पहले अरुण और फिर लीना की कविताओं से जाना . लीना से बहुत सीखा और कभी-कभी खुद लिखते में लगा कि इन पर इन दो कवियों की छाया है ... पर ये छाया ही आगे के रास्ते तय करना सिखाएगी , इसलिए कभी इससे परहेज़ नहीं हुआ .. आज मौका है कि अपने प्रिय इन दोनों कवियों का हृदय से आभार प्रकट करें ...
    और श्रोतिया जी , यदि सूरज, चाँद सितारों से इंसान ईर्ष्या करेगा तो फिर वह कृत्रिम रौशनी भी नहीं बना सकेगा ..

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  10. यह महज संयोग ही है कि मैंने लीना के संग्रह "मेरी यात्रा का जरुरी सामान" अभी अभी पढकर खत्म किया है ..|वे हमारे समय की एक महत्वपूर्ण युवा कवयित्री हैं ...|उनके संग्रह को पढते हुए मैंने यह महसूस किया कि एक स्त्री का मन इस पुरुष बर्चस्व वाले समाज के मनोविज्ञान को किस संजीदगी से देखता-समझता है ..|और फिर उस समझ को किस तरह से कविता में पिरोता है ...|उनकी कविताये इस बर्चस्व वाले समाज के सामने जहाँ अनेकानेक प्रश्न खड़ी करती चलती हैं ,वही वे उसे सही मायने में जनतांत्रिक बनने के विकल्प भी सुझाती है ..|और हां ...उनकी निगाह सिर्फ स्त्री के सवालो पर ही सीमित नहीं रह जाती वरन वह अपने समय और समाज के सारे महत्वपूर्ण सवालों की पड़ताल करती है ...मुझे उम्मीद है कि लीना का यह संग्रह काफी चर्चित होगा और कविता के परिदृश्य को महत्वपूर्ण तरीके से समृद्ध करेगा...उन्हें हमारी बधाई ....

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  11. हिंदी युवा कविता में इधर जो नाम तेजी से उभरे हैं उनमें से एक प्रमुख नाम है लीना मल्होत्रा राव। यह नाम आज की हिंदी युवा कविता का एक चिर-परिचित नाम हो चुका है। इसमें कोई संदेह नहीं कि अपनी कविताओं के कहन और कथन के बल पर उन्होंने एक अलग पहचान बनाई है। हिंदी साहित्य के तमाम ब्लागों से लेकर प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में उनकी कविताएं लगातार छप रही हैं और भरपूर सराही जा रही हैं। जिसकी वह हकदार भी है।
    लीना को स्त्री मन के प्रेम-ममत्व-विद्रोह-छटपटाहट की बहुत गहरी पकड़ है। वह नारी मन को परत दर परत खोल कर पाठक के सामने रख देती हैं। इनमें औरत के सपने भी हैं और यथार्थ भी। उसके दुःख-दर्द-बेचैनी और खुशी-उत्साह-उमंग भी। इनकी कविताओं में प्रेम की प्रवणता और सात्विकता दोनों हैं। जो इस बात की वकालत करती हैं कि सच्चे प्रेम की पहचान उसके अशरीरी होने पर ही होती है। उसके बाद उसमें किसी तरह का परदा नहीं रह जाता है और न किसी तरह की औपचारिकता। बस वहाँ तो केवल प्रेम होता है जो शब्दों में नहीं बल्कि पात्रों की चेष्टाओं और कृत्यों में व्यक्त होता है। इस तरह अपनी कविताओं में प्रेम की प्रगाढ़ता ,वास्तविकता और उसके गणित को बहुत सुंदर तरीके से परिभाषित करती है। लीना की कविता में स्त्री-पुरुष दोनों के भीतर को टटोलने की अच्छी कोशिश है।
    उनकी कविता में स्त्री की स्वतंत्र अस्मिता तथा पुरुष वर्चस्ववाद की आलोचना के स्वर भी सुने जा सकते हैं। उन्होंने स्त्री के शोषण-उत्पीड़न-अन्याय-अत्याचार के बारे में तो कविताएं लिखी ही हैं साथ ही समानता-स्वतंत्रता की माँग भी इनकी कविताओं में मुखरता से अभिव्यक्त हुई है। लीना में पुरूष प्रधान समाज और उसकी सामंती मर्यादाओं के विरुद्ध असहमति व्यक्त करने तथा उनका तिरस्कार करने का साहस और विवेक दोनों है। वह पितृसत्तात्मक समाज के हर छल-छद्म और बहुरूपियेपन को अच्छी तरह जानती और समझती हंै। वह स्त्री अस्मिता को लेकर कविता और जीवन दोनों में सचेत हैं । कहीं किसी तरह का समझौता करना उनकी प्रकृति में शामिल नहीं है। अच्छी बात यह है कि वे स्त्री प्रश्नों तक ही सीमित न होकर जीवन के अन्य संवेदनशील विषयों को भी अपनी कविता की अंतर्वस्तु बनाती हैं। उनकी कविताओं को चूल्हे-चैके तक सीमित कविता नहीं कहा जा सकता है। यहाँ प्रकाशित उनकी ताजातरीन कविताएं इस बात का प्रमाण हैं।
    उनकी कविताओं में कथ्य और कहन दोनों स्तरों पर नयापन और ताजगी दिखाई देती है। कल्पनाशीलता उनकी सबसे बड़ी ताकत है। अपनी अद्भुत कल्पनाशीलता के चलते वह मिथकोें ,प्रतीको ,बिंबों का बेहतरीन प्रयोग करते हुए कथ्य को जीवंत कर देती हैं। वह काव्य के इन औजारों का प्रयोग चमत्कार पैदा करने के लिए नहीं बल्कि अंतर्वस्तु को और अधिक प्रभावशाली बनाने के लिए करती हैं जो एक अच्छी बात है। जिसके चलते उनकी भाषा में एक चमक तो पैदा होती है पर वह चैंधियायती नहीं है। भाषा में बनावटीपन नहीं है। वह कविता का एक अलग मुहावरा रचती हैं। उनकी कविताओं में एक रवानगी है,जिनकी संप्रेषणीयता कहीं भी बाधित नहीं होती है। इसके चलते लीना की कविताओं को पढ़ना कहीं भी ऊब नहीं पैदा करता है। आशा है वे अपनी खासियत को बनाए रखेंगी और शब्दों की जादूगरी दिखाने के खेल से अपने आप को बचाए रखेंगी।

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  12. क्‍या बात है। बहुत बढिया कविताऐं । इसमें लक्षणा का अतिउत्‍तम प्रयोग हुआ है। वैसे भी आपकी कविताओं के बिम्‍ब इतने ताजे ,नये और अदभुत होते हैं जो विचारों को झकझोर देते हैं। आपकी बिम्‍बरचना गजब की है। आपको बधाई।

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  13. अपनी संवेदनशीलता और भावप्रवणता के चलते बहुत अल्‍प समय में ही सुश्री लीना जी ने हिन्‍दी काव्‍य जगत में अपना विशेष स्‍थान बनाया है। उनके प्रथम काव्‍य संग्रह '' मेरी यात्रा का जरुरी सामान '' की कविताओं को पढ्ते हुए यह अहसास लगातार और गाढा होता जाता है कि कैसे एक सिद्धहस्‍त रचनाकार बिल्‍कुल बोलचाल की भाषा का प्रयोग करते हुए और रोजमर्रा की खॉटी समस्‍याओं को ही विषयवस्‍तु बनाते हुए मन को झकझोरने वाली कविताओं का स़जन कर देता है। सुश्री लीना के इस संग्रह की प्रत्‍येक कविता को पढते हुए पाठक को अपने आप से युद्ध करना पड्ता है क्‍योंकि ये कविताऐं उसे उसकी ही उलझनों से रुबरु कराती हैं। सुश्री लीना जी के उज्‍ज्‍वल भविष्‍य की मंगल कामनाओं के साथ यह अनुरोध भी कि शीघ्र ही उनका अगला काव्‍य संग्रह भी पढने को मिले।

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  14. बहुत कुछ कहा जा चुका है लीना जी की कविताओं पर ! मुझे लीना की कविताओं में यथार्थ को परखने की ईमानदारी ने हमेशा प्रभावित किया है ! प्रस्तुत कविताओं के लिए लीना जी को बधाई और अरुणदेव जी का आभार !

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  15. Leena ji writes with a marked difference you can feel it and get lost in her craft. While tracking her poems from so many resources I have to end up with saying it all beggars description. May God bless her with renewd strength to create. Her poetic genius is certain to escalate. Wishing her all the best and VERY BIG CONGRATS ....

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  16. लीनाजी ने अपनी कविताओं के माध्यम से समाज के लगभग सभी लोगों को आकर्षित किया है!! चाहे वह साहित्यिकार सुधिजन हों, रचनाकार हों, एक आम पाठक हों, या फिर चाहे वह एक साधारण सी काम करने वाली बाई ही क्यों न हो... ! सभी को कहीं न कहीं उनकी कवितायेँ छू जाती हैं! मन को विवश होकर अपने भावों को हठात ही इन शब्दों द्वारा व्यक्त करना पड़ता है.."वाह क्या लिखती हैं"...! इनकी कवितायेँ प्रत्येक से वार्तालाप करते प्रतीत होती हैं..! कथ्य, कथन, बिम्बों की पकड़, शिल्प, और इमानदार अभिव्यक्तियाँ इनकी कविताओं की विशेषता हैं!! भविष्य में भी इनसे बहुत उमीदें हैं..! लीनाजी को हार्दिक बधाई और अरुणदेव जी का हार्दिक आभार!

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  17. लीना जी की काव्‍य यात्रा दिनोंदिन उत्‍कर्ष की ओर जा रही है, यह देखकर बेहद सुखद अहसास होता है। इन नई कविताओं ने जता दिया है कि भाषा, संवेदना और शिल्‍प की दृष्टि से उनके पास एक बड़ा संसार है, जो निरंतर सामने आ रहा है। बिना किसी वाग्‍जाल के वे सच्‍चे मन से लिखती हैं, इसीलिये पाठक को तुरंत आकर्षित करती हैं और संवेदना के नये धरातल पर ले जाती हैं। ... यहां प्रस्‍तुत उनके आत्‍मकथ्‍य ने साफ तौर पर बता दिया है कि वे कितनी तैयारी के साथ सर्जना कर रही हैं। मेरी हार्दिक शुभकामनाएं और समालोचन का आभार।

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  18. लीना जी की कविताएँ पढना अपने आप में एक अद्भुत सुखद अनुभूति है ..... जैसा सहज , सरल उनका व्यक्तित्व है ...वैसी ही सहजता और समर्पण भाव उनकी लेखन शैली में भी झलकता है ... आपको बहुत बहुत शुभकामनायें !!!

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  19. leena ji ki kavitayen har stri ke antarman ki peeda ki sundar abhivyakti hain...minankshi jijivisha

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