मीनाक्षी स्वामी के उपन्यास भूभल को साहित्य अकादमी,
मध्यप्रदेश द्वारा बालकृष्ण शर्मा ‘नवीन’ पुरस्कार के लिए चुना गया है.
बधाई और आप
सबके लिए उनकी एक कहानी- मीडीया ट्रायल
इस कहानी में एक महिला न्यायाधीश
को अपने चपरासी के खिलाफ बलात्कार का केस दर्ज़ कराना पड़ता है और इस प्रक्रिया में भारतीय न्याय-व्यवस्था की संवेदनहीनता और उसका तंत्र सामने आता है और संचार माध्यम की
अपनी विद्रूपता भी.
मीडीया ट्रायल
मीनाक्षी स्वामी
हुआ
यूं कि शहर में अपने बंगले में अकेली रहने वाली पैंतीस वर्षीया अविवाहित महिला
न्यायाधीश से उनके सर्वेंट क्वार्टर में रहने वाले अशोक नाम के चपरासी ने बलात्कार
की कोशिश की. रात को खाना बनाने के बाद वह पीछे वाले दरवाजे की चिटकनी खुली छोड़
आया था. और आधी रात के बाद जब लाईट गई हुई थी, उसने अपने
इस मकसद को अंजाम देना चाहा. मगर वह सफल हो पाता इसके पहले ही लाइट आ गई और मैडम
ने उसे पहचान लिया. वह घबराकर भागा. मैडम भी गुस्से में उसके पीछे भागी. मगर अपने
क्वार्टर में घुसकर उसने दरवाजा लगा लिया. मैडम क्रोध में भरकर देर तक दरवाजा
पीटती रही. पड़ौस के सर्वेंट क्वार्टर का माली और उसकी पत्नी उन्हें दरवाजा पीटते
देखकर पूछ रहे थे कि क्या हुआ ? पर वे कुछ न बोली. बाद में रात की पुलिस की गश्त की गाड़ी
निकली और माजरा देखकर रूक गई. पुलिस ने दरवाजा तोड़कर आरोपी अशोक को नशे की हालत
में गिरफ्तार कर लिया. मामला वी.आई.पी. महिला का होने से पुलिस ने उसे संगीन बनाने
के लिए आरोपी अशोक से बलात्कार का गुनाह लिखित में कबूल करने का दबाव डाला. अशोक
ने गुनाह कबूल भी कर लिया.
बस
यही घटना हर पल नेशनल न्यूज़ चैनल के तेज तर्रार संवाददाता अनिल छाबड़ा के हाथ लग
गई और उसके जरा देर बाद टी.वी. पर अनिल छाबड़ा प्रस्तुत कर रहा था अपनी
एक्सक्लूजि़व रिपोर्ट –
‘‘मध्यप्रदेश
की एक महिला न्यायाधीश, कल रात अपने ही बंगले में बलात्कार की शिकार हो गई. बलात्कारी और कोई नहीं, उनके ही बंगले के सर्वेंट क्वार्टर में रहने वाला उन्हीं की
कोर्ट का चपरासी था. बलात्कारी ने अपना गुनाह कबूल कर लिया है. और यह न्यूज सबसे
पहले आप देख रहे हैं-आपके अपने हर पल नेशनल न्यूज़ चैनल पर. तो देखते रहिए. बाकी
की विस्तृत खबर और खबर पर चर्चा आज रात ठीक नौ बजे हमारे विशेष टाक शो में. दिनभर
में टुकड़ों-टुकड़ों में, दर्शकों तक मुख्य खबर के अलावा यह खबर भी पहुंच गई थी कि
देर रात जब जज साहिबा, अशोक के घर का दरवाजा बजा रही थी, तब पड़ौस के
बुजुर्ग माली और उसकी पत्नी ने उन्हें देखा था. उन्होंने कारण पूछा तो मैडम ने
नहीं बताया पर गश्त लगाने वाले सिपाहियों ने पूछा तो बताया. आरोपी चपरासी को
गिरफ्तार कर लिया है. उसने अपना अपराध कबूल करते हुए यह भी कबूला कि वह शराब के
नशे में ऐसा कर बैठा. दीवाली बाद मैडम की शादी होने वाली है यानी अभी वे कुंवारी
हैं..या..थीं..अविवाहित हैं. यह भी कि कुछ वकील लोग मैडम के पीछे पड़े हैं, वे उन्हें
यहां से हटाना चाहते हैं. बलात्कार की पुष्टि नहीं हो पाई है. पुलिस अभी जांच कर
रही है. जैसे-जैसे खबर मिलती जा रही थी, वे बताते जा रहे थे. आगे मिलने वाली खबर को भी बताने का
दावा कर रहे थे.
रात
को नौ बजे इसी खबर के आधार पर एक टाक शो था.
और रात
नौ बजे....
दिन
भर टुकड़ों में आई इन खबरों को एक बार फिर दर्शकों के लिए एक कड़ी में प्रस्तुत
किया - अनिल छाबड़ा ने. फिर विश्लेषण के लिए उसने सुप्रीम कोर्ट की मशहूर महिला
एडवोकेट नीनादेवी से सम्पर्क किया. नीनादेवी का कहना था -‘‘आरोपी ने न्यायाधीश ही
नहीं पूरी न्यायपालिका को आहत किया है, उसे सजा मिलना ही चाहिए.’’
‘‘आपको
क्या लगता है नीनादेवी, जिस तरह से मामला दर्ज हुआ है. क्या अपराधी को सजा मिल
पाएगी?’’अनिल
छाबड़ा ने फिर पूछा.
‘‘हां
जरूर. उसने अपराध कबूल कर ही लिया है. सजा तो होगी ही.’’ नीनादेवी ने बताया.
‘‘कितने
साल की सजा हो सकती है?’’ अनिल छाबड़ा ने फिर सवाल दागा.
‘‘सात
साल की सजा का प्रावधान है.’’
‘‘धन्यवाद
नीनादेवी. और अब हमारे दर्शकों के लिए बता दें, हमारे
मुम्बई स्टुडियो में मौजूद हैं फौजदारी मामलों के मशहूर एडवोकेट राधारमण तिवारी.’’
मुम्बई स्टुडियो से उनका सम्पर्क जुड़ गया था और बातचीत शुरू हो गई.
‘‘मिस्टर
तिवारी, अभी-अभी
सुप्रीम कोर्ट एडवोकेट नीनीदेवी ने बताया कि बलात्कार के अपराधी को सात साल की सजा
होगी. आपको क्या लगता है? उसने अपराध भी कबूल कर लिया है.’’
‘‘देखिए
मिस्टर छाबड़ा ऐसा है कि पुलिस तो दबाव डालकर अपराध कबूल करवा लेती है. यदि कोर्ट
में भी वह अपराध कबूल ले तो भी प्रूव तो करना पड़ेगा, पर मेडिकल
रिपोर्ट में तो कुछ आया नहीं है.’’
‘‘वकील
साहब, हमने
सुना है कि जजमेंट में हालातों पर भी ध्यान दिया जाता हैं.’’ उनकी बात अनसुनी कर
अनिल छाबड़ा ने अपनी बात कही.
‘‘हां, हालात तो
विक्टिम, मेरा मतलब है पीडि़त के खिलाफ जा रहे हैं. पड़ौस के माली और
उसकी पत्नी के बयान हैं कि रात को वो उस चपरासी के घर का दरवाजा बजा रही थी, उसे आवाज दे
रही थी. फिर पुलिस वालों ने गश्त के दौरान यह सब देख लिया तो आरोप लगाने लगी. सीधा-सीधा मामला है सहमति का. आखिर वो ही तो अपने चपरासी के क्वार्टर का दरवाजा
बजाती मिली ना!’’
‘‘धन्यवाद
तिवारीजी.’’ तिवारीजी से विदा लेकर अनिल छाबड़ा फिर दर्शकों से रूबरू था -‘‘तो
तिवारीजी की एनालिसिस ने तो मामले का रुख ही मोड़ दिया है. उनका मानना है कि मामला
सहमति का है. यही जानने के लिए हम, चलते हैं हमारे भोपाल स्टुडियो में. मध्यप्रदेश के पूर्व
डायरेक्टर जनरल पुलिस श्री अतुल कुमार शर्मा के पास. हां तो डी.जी.पी. साहब, एडवोकेट
तिवारी साहब ने तो इसे सीधा-सीधा सहमति का मामला बताया है. पुलिस के विभिन्न पदों
का आपका लम्बा अनुभव क्या कहता है?’’
‘‘असल में सहमति के मामलों में जब महिलाएं, लड़कियां
पकड़ी जाती हैं तो खुद को निर्दोष बताने के लिए पुरूष पर बलात्कार का आरोप लगा
देती हैं. मेरा तो यही अनुभव रहा हैं.’’
‘‘‘‘तो
इस मामले में भी सहमति हो सकती है?’’ अनिल ने सीधा प्रश्न पूछा.
‘‘हां
हां बिल्कुल हो सकती है.’’ पूर्व डी.जी.पी. ने कहा.
और
अनिल छाबड़ा अपने दर्शकों को ब्रेक में छोड़कर, बताकर गए कि
ब्रेक के बाद वे रेप के मामलों की जांच में शुरूआती स्तर से जुड़े रहने वाले पुलिस
कर्मी से बातचीत करने वाले हैं.
पीडित
महिला न्यायाधीश कंचन उपाध्याय भी इस कार्यक्रम को देख रही थी. और इसे देखकर उसके
दिल-दिमाग और आत्मा तक पर हथौड़े पर रहे थे फिर भी वह देख रही थी.
और
अपने घर में मणि भी देख रहा था, मणि याने मणिकांत चौधरी, कंचन का
मंगेतर.
और
ब्रेक के बाद....
ब्रेक
के बाद पूर्व ए.एस.आई. वीरेन्द्रसिंह स्टुडियो में ही मौजूद थे. उनसे बातचीत का
सिलसिला आगे बढ़ाते हुए अनिल छाबड़ा ने पूछा -‘‘अभी-अभी डी.जी.पी. साहब ने कहा कि
बलात्कार के अधिकतर मामले सहमति के होते हैं. आप तो किसी भी जांच में जड़ से जुड़े
रहते हैं. सबूत कुछ भी कहें, आप तो सच्चाई जानते हैं. आपका क्या अनुभव रहा है ?‘‘
‘‘सर, मुझे तो
लगता है कि बलात्कार तो हो ही नहीं सकता है. यह तो संभव ही नहीं है जब तक कि किसी
महिला की सहमति नहीं हो.’’
‘‘क्या
बात करते हैं?’’
‘जी
सर. मेरा तो यही अनुभव रहा है. आप कहें तो मैं प्रूव भी कर सकता हूं.’’
‘‘प्रूव
कर सकते हैं?’’ अनिल छाबड़ा ने हैरानी जताई.
‘‘हां
अभी, यहीं. देखिए ये एक्ज़ाम्पल.’’ कहते हुए वीरेन्द्रसिंह
ने जेब से सुई-धागा निकाला.
धागा
अनिल छाबड़ा को दिया और सुई अपने हाथ में रखी.
‘‘लीजिए
यह धागा, जरा सुई में तो डालिए.’’
अनिल
छाबड़ा वीरेन्द्रसिंह के हाथ की सुई में धागा डालने की कोशिश करने लगा. जैसे ही
सुई में धागा जाने को होता, वीरेन्द्र सुई को हिला देता.
यह
सीन क्लोज़अप में दिखाया जा रहा था.
‘‘नहीं
होता यह तो.’’ हारकर अनिल छाबड़ा ने धागा रख दिया.
‘‘देखा
ना! जब तक मेरी सहमति और सहयोग नहीं होगा, तब तक आप सुई में धागा नहीं डाल सकते ना! वैसे ही जब तक औरत
की रजामंदी न हो तब तक कोई आदमी बलात्कार कर ही नहीं सकता है, है ना !’’
अपनी बात को सफलतापूर्वक प्रस्तुत करने का दर्प वीरेन्द्रसिंह के चेहरे पर था.
‘‘तो
इसका मतलब आज मध्यप्रदेश की लेडी जज की तरफ से बलात्कार का जो मामला पुलिस में
रजिस्टर कराया गया है, वह झूठा है?’’
‘‘अब
इस बारे में, मैं क्या कह सकता हूं.’’
अनिल
फिर दर्शकों से रूबरू था -‘‘हम फिर चलते हैं हमारे दिल्ली स्टुडियो में. वहां
मौजूद हैं राष्ट्रीय महिला आयोग की पूर्व सदस्य श्रीमती शालिनी देवी.‘‘ और फिर
शालिनी देवी से सम्पर्क जुड़ते ही -‘‘शालिनी देवी, रेप के
केसेस में जांच के शुरूआती स्तर से जुड़े रहने वाले हमारे अतिथि वीरेन्द्रसिंह जी
का मानना है कि स्त्री की सहमति के बिना बलात्कार हो ही नहीं सकते. उन्होंने
एक्जाम्पल भी दिया है. आपका क्या विचार है ?’’
‘‘यह
तो बिल्कुल गैर जिम्मेदारीपूर्ण बात है. इतनी सारी कानूनी धाराएं बनी हैं. यही
बलात्कार जैसी दुर्घटनाएं होने का सबसे बड़ा सबूत है.’’ शालिनी देवी ने अपना विरोध
दर्ज किया.
‘‘और
आज जो केस रजिस्टर हुआ है लेडी जज के साथ रेप का, उसके बारे में
आपका क्या कहना है?’’ अनिल छाबड़ा ने तीखे तेवर में सवाल किया.
‘‘मामला
रजिस्टर हुआ है. पुलिस अपना काम कर रही है. मामला कोर्ट में भी जाएगा, तब जो भी
फैसला होगा सबके सामने आएगा. इनीशियल स्टेज पर जो मामला है उसके बारे में मैं क्या
कह सकती हूँ.’’
‘‘और
अब हम बात करते हैं लोकप्रिय, मशहूर और प्रोग्रेसिव सोशल मेगज़ीन नीलगगन के संपादक मिस्टर
रामरतन अरोराजी से. एक लेडी जज के साथ रेप की रिपोर्ट रजिस्टर हुई है आज, मध्यप्रदेश
में....... उनके ही प्यून ने इसे अंजाम दिया है. आप क्या कहते हैं?’’
‘अच्छा!’’
अरोराजी चकित हुए फिर सोच विचार कर बोले -‘‘मेरे ख्याल से रेप या तो टीन एजर
लड़कियों के होते हैं, जो अपने बाय फ्रेंडस के साथ, घरवालों की
परमीशन के बिना इधर-उधर घूमती रहती है और एंटी सोशल एलीमेंट्स की पकड़ में आ जाती
हैं या फिर होते हैं लोअर क्लास में. लेडी जज के साथ रेप बात जरा गले कम उतरती है
मे बी पासिबल एंटरटेनमेंट का मामला हो शायद. अब वो अकेले रहती थी, नीड होगी
उनकी भी.’’
कंचन
के मन में आया टी.वी. फोड़ दे.
फिर
अनिल छाबड़ा मनोचिकित्सक डाक्टर नागपाल से बात करने लगा -‘‘डाक्टर नागपाल, आपके पास भी
रेप के केसेस आते हैं?’’
हां
अनिल, हमारे
पास पुलिस से कहीं ज्यादा केस आते हैं रेप के. लड़कियां आती हैं, आफ्टर रेप
ट्रीटमेंट के लिए.‘‘
‘लड़के, मेरा मतलब
है....पुरूष भी आते हैं ?’’
‘‘नहीं, बिल्कुल
नहीं जबकि जरूरत तो उन्हें ही है.’’
‘‘उन्हें ? किस तरह?’’ अनिल छाबड़ा आश्चर्य
से बोला
‘‘एक्चुअल
में एक तो ब्लड में टेस्टोस्टीरोन की क्वांटिटी बढ़ने से आदमी कामवासना में अंधा
हो जाता है. इसे मेडीसिन से, सर्जरी से ठीक किया जा सकता है.’’
‘और
ये जो मध्यप्रदेश की लेडी जज का मामला है. इसके बारे में क्या कहते हैं आप?’’
‘‘ये
तो मुझे लगता है अकेली लेडी, आसान शिकार, फिर प्यून का घर में रेगुलर आना-जाना, अट्रेक्ट
होना और आवेग में आकर, मौका पाते ही शिकार कर लेना यही लग रहा है मुझे तो. और जहां
तक लेडी की पोजीशन का सवाल है रेप की साइकोलाजी किसी लेडी का स्टेट्स तो देखती
नहीं, वे
तो इसे केवल न्यूड वुमन और सबजेक्ट आफ यूज़ मानते हैं.’’
‘‘तो
इसका मतलब आप मानते हैं कि बलात्कार होते हैं.’’
‘‘आफकोर्स
मेरे पास इतनी लड़कियां आती हैं, शिकार होकर. उनके केसेस सहमति के नहीं होते.’’
‘‘मगर
सोसायटी में कुछ लोगों का मानना है कि रेप होते ही नहीं है.’’
‘‘सो
अनिल मैं सोचता हूं कि उन सभी लोगों को ट्रीटमेंट की जरूरत है.’’
जवाब
में अनिल ने ठहाका लगाया.
इसके
बाद वह हर पल न्यूज़ चैनल के स्टुडियो में मौजूद समाजशास्त्र के प्रोफेसर डाक्टर
संजय चौबे से बात करने लगा -‘‘सर, आप तो बुद्धिजीवी हैं, समाजशास्त्री
हैं, समाज
की नब्ज पहचानते हैं. आखिर बलात्कार क्यों होते हैं?’’
‘‘अच्छा.
आजकल बलात्कार होते हैं क्या ? लड़कियां तो यूं ही आसानी से मिल जाती हैं सोसाइटी में फिर
भला बलात्कार की क्या जरूरत पड़ सकती है?’’
इस
सवाल का जवाब मांगा अनिल छाबड़ा ने स्टुडियो में मौजूद पत्रकार शाश्वत से -‘‘और अब
हमारे स्टुडियो में दर्शकों से रूबरू हैं युवा पत्रकार शाश्वत. हां तो शाश्वत अभी
- अभी ख्यात समाजशास्त्री डाक्टर चौबे ने कहा कि बदले हुए समाज में बलात्कार की
जरूरत ही खतम हो गई है. आप सहमत हैं डाक्टर चौबे से ?’’
‘हंड्रेंड
परसेंट सहमत हूं. लड़कियों का क्या ? छोटे - मोटे लालच दो कि फिसल जाएंगी. आदमी के पास कार, बंगला, स्टेट्स
देखेंगी कि गले पड़ जाएंगी. तब भला
बलात्कार की जरूरत ही क्या ?’’ शाश्वत ने कहा.
‘लेकिन
आज हम यहां लेडी जज रेप केस पर चर्चा के लिए इकट्ठे हुए हैं. ये केस तो बिल्कुल
अलग है. यहां तो लेडी के पास कार, बंगला, स्टेट्स सब कुछ है और रेपिस्ट है इसका प्यून. तब आप क्या
कहेंगे ?’’
‘‘हूं
वेल सो अनिल ये हाईक्लास लेडीज़ तो शिकार करती हैं अपने सबआर्डीनेट्स का. ये केस
तो बिल्कुल इसी तरह का है. क्लीयर भी हो चुका है. पुलिस के पास गवाह भी हैं. वो
मैम तो अपने प्यून को काल कर रही थी, अब. वो उनके ग्रिप में नहीं आ रहा होगा तो रेप, लेट अस सी
आप भी यहीं हैं और हम भी. ये तो टाक शो है.’’ डाक्टर चौबे ने कहा.
शो
खतम हुआ. अनिल छाबड़ा ने सबसे विदा ली. सच ही तो कहा था डाक्टर चैबे ने, यह टाक शो
ही तो था. थोड़ी सी टाक करनी थी बस. और इस थोड़ी सी टाक से चैनल की टी.आर.पी.
आसमान को छूने लगी थी.
टाक
शो देखकर दहल गई, कंचन. उसे लगा, उसे निर्वस्त्र कर घुमाया जा रहा था. पूरे देश के
जाने-अनजाने लोगों के सामने अपना ही बलात्कार टेलीविज़न पर होते देख रही थी वह.
कैसी-कैसी बातें खुले आम होती रही, उसके लिए और उसके बहाने औरों के लिए. इस पर कोई रोक नहीं.
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता..? कंचन के दिमाग पर हथोड़े पड़ रहे थे.
‘किसी
के आत्म सम्मान पर चोट पहुंचे तो?’
‘तो
कोर्ट में मानहानि का दावा लगाओ.’ उसके दिमाग में देर तक ‘मेडम प्यून को बुला रही थी’, ‘बलात्कार
की जरूरत ही क्या है?’, ‘औरत के सहयोग के बिना कुछ नहीं हो सकता’ जैसे वाक्य
कुलबुलाते रहे, पत्थरों से पड़ते रहे.
उसकी आत्मा करूण विलाप कर रही थी, सुनने वाला कोई नहीं था. रेप हुआ नहीं और ढोल पीट दिया. मेरा नाम नहीं लिया तो क्या! समझने वाले तो समझ ही गए होगें. मेडीकल रिपोर्ट को
इग्नोर कर दिया, टी.आर.पी. बढ़ाने के लिए. मन में आया चैनल के सी.ई.ओ. को
फोन करे मगर सोचती रही, आवेश में आकर कोई कदम नहीं उठाना चाहती थी. और अब तो सब देख
ही चुके, सोच ही चुके जो सोचना था. मणि...कहीं मणि भी तो यही सब नहीं
सोच रहा मेरे बारे में ? आखिर वह भी तो पुरुष ही है . मगर नहीं, वह ऐसा नहीं
सोच सकता....इतना गिरा हुआ तो वह बिल्कुल नहीं. पर...इतनी देर से खबर चल रही है, न तो उसका
फोन आया न वो खुद. फिर उसे याद आया फोन तो सुबह से ही आफ कर रखा है मैनें. उसने
फोन उठाया, आन करने के लिए, कभी मणि का फोन आए, पर उसके
सवाल का जवाब नहीं दे पाउंगी, सोचकर फोन वैसे ही रहने दिया.
तभी
दरवाजे की घंटी बजी. कंचन ने आई होल से देखा ‘ओह मणि !’ उसके पैरों तले जमीन खिसक
गई ,मन
किया दरवाजा न खोले, कहीं भाग जाएया छुप जाए. "मगर मैं अपराधी तो
नहीं". फिर भारी मन से दरवाजा खोला, खोलने के दो पल जैसे युग बन गए. मणि ने भीतर आते ही उसे गले
से लगाया और पीठ थपकाई. इस स्पर्श से उसे एहसास हुआ कि मणि उसके साथ है. राहत के
बावजूद सशंकित मन से पूछा ‘‘तुमने आज टी.वी. नहीं...देखा...टाक...शो...?’’
‘‘देखा
तभी तो आया.’’
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मीनाक्षी स्वामी
जयपुर-राजस्थान
मुस्लिम महिलाओं की बदलती हुई स्थिति पर शोध कार्य
उपन्यास, कहानी और वैचारिक लेखन
लगभग ४० किताबें प्रकाशित
उपन्यास ‘भूभल’ को साहित्य अकादमी, मध्यप्रदेश द्वारा बालकृष्ण शर्मा ‘नवीन’ पुरस्कार के लिए चुना गया है
विभिन्न मंत्रालयों, मध्यप्रदेश व उत्तरप्रदेश सरकार द्वारा दो दर्जन से अधिक राष्ट्रीय पुरस्कार, इनमें भारतेन्दु हरिश्चंद्र पुरस्कार, पं. गोविन्द वल्लभ पंत पुरस्कार, डा. भीमराव अम्बेडर पुरस्कार, पं. मोतीलाल नेहरु पुरस्कार आदि
समाजशास्त्र का अध्यापन
email - minakshiswami@hotmail.com
ये कहानी है हमारी व्यावसायिक मानसिकता की...संवेदनहीनता की....जीवन मूल्यों के क्षरण की ......
जवाब देंहटाएंऔर औरत के लिए ......जो सिरजती है ...पोसती है....जो त्याग है...तपस्या है ; केवल एक घनीभूत पीड़ा की !
यहाँ आ कर निःशब्द हूँ !
मिनाक्षी जी को उनके उपन्यास भूभल पर अकादमी पुरस्कार के लिए हार्दिक शुभकामनाएँ और बधाई !
जवाब देंहटाएंकहानी पढ़ी . अच्छी लगी . एक तरह हमारी लचर और संवेदनहीन व्यवस्था की गाथा -कथा है , दूसरी ओर प्रेम तथा आस्था के स्पर्श से रोमांचित करती हुई जीवन मूल्यों को स्थापित करती आख्यायिका ..
अरुण का शुक्रिया और मिनाक्षी जी को बधाई ..
कहानी बहुत अच्छी लगी। मीनाक्षी जी को हार्दिक शुभकामनाएं और बधाई!
जवाब देंहटाएंमीनाक्षी जी की यह कहानी बहुत विचलित करती है और मर्दवादी मानसिकता के सारे रेशे खोल कर रख देती है। दुर्भाग्य से यही नियति हो गई है हमारे समाज की, जहां एक स्त्री न्यायाधीश तक को न्याय के लिये इस कदर बुरी हालत सु गुजरना पड़ता है। अंत ही इस कहानी को मजबूती देता है।
जवाब देंहटाएंबुद्धिजीवियों के दिमागी दिवालियापन, आज कि 'केजुअल' होती जाती संस्कृति का खूब पर्दाफास कर रही है यह सबल कहानी.
जवाब देंहटाएंमैं इस कहानी को पढते हुए बार -बार यही कामना कर रहा था कि इसका अंत जरुर सकारात्मक होना चाहिए ..|यह हमारे समाज का एक बड़ा स्याह चेहरा है , हमें हर संभव तरीके से इसे बदलने की कोशिश करनी ही चाहिए ...|कहानियो के साथ-साथ जीवन में भी ...|बधाई आपको ...कहानी के साथ -साथ , मूल्यों को बचाने के लिए भी ..|
जवाब देंहटाएंमीनाक्षी , बहुत ही कटु सत्य को प्रस्तुत करने वाली कहानी।मुझे कहानी का अंत बहुत अच्छा लगा क्योकि संवेदनहीनता के रोरव अंधकार में मणि के कहे वाक्य "देखा तभी तो आया" मानवता की भैरवी छेडते है।
जवाब देंहटाएंमैं इस कहानी को समाज का सच्चा चेहरा मानती हूँ.. ऐसी कहानियां समाज का चेहरा बदल सकती हैं..मैं आभारी हूँ की आपने ये कहानी शेयर की.. शुक्रिया..
जवाब देंहटाएंकहानी स्त्री के प्रति समूचे समाज की बीमार मानसिकता को बहुत ही सूक्ष्म विश्लेषण और गहराई के साथ सामने लाती है। कहीं भी अतिरंजना नहीं है। एक कडवा सच है जिसे देखते सुनते हम इतने आदी हो चुके हैं कि एसी हकीकतों से न तो विचलित होते हैं और न ही विरोध के बारे में सोच पाते हैं। संचार माध्यम अपनी व्यवसायिक मानसिकता के चलते जो भी हमारे सामने रखते हैं आंख मूंदकर उसे सच मान लेते हैं। हमारा विवेक, हमारी तर्क शक्ति जाने कहां गुम हो जाती है या हम गहराई से सोचना ही नहीं चाहते हैं।
जवाब देंहटाएंयह कहानी समाज का वह चेहरा सामने लाती है जिसमें हम सभी किसी न किसी रुप में शामिल होते हैं।
न्याय व्यवस्था की पहली कडी पुलिस का ए.एस. आई., तथाकथित समाजशास्त्री और लोकप्रिय प्रोग्रेसिव मेगजीन के सम्पादक यदि इस तरह की प्रतिक्रिया देंगे तो समाज का सोच कौन बदलेगा?
कहानी बहुत कुछ सोचने को विवश कर देती है। मन मस्तिष्क पर गहरा प्रभाव छोडती है।
साथ ही कहानी का सकारात्मक अंत, मनोचिकित्सक डाक्टर नागपाल का सुलझा हुआ सोच और मणि जैसे पात्र की मौजूदगी यह भी दर्शाती है कि अंधेरा कितना भी गहरा हो टिमटिमाता दिया, अंधेरे से लडने में कामयाब है।
बेहद सशक्त और प्रभावशाली कहानी के लिये कथा गाथा जैसी सशक्त पत्रिका का आभार और संवेदनशील कथाकार मीनाक्षी जी को बधाई।
कहानी के साथ मध्यप्रदेश साहित्य अकादमी के पुरस्कार के लिये।
ओह.... यही तो नारी जीवन की विडंबना है.. और पुरुष के मानसिक दिवालियेपन की पराकाष्ठा... जहाँ नारी अस्मिता से ज़्यादा महत्वपूर्ण हो जाता है टी आर पी का बढ़ना...! कहानी चिंतित कर देती है..! बधाई लेखिका को... आभार अरुणजी!
जवाब देंहटाएंमीनाक्षी, उत्तर उदारीकरण युग की यही प्रकृति है. दृश्य समाचार मीडिया के अनगिनित चैनल हैं. इन्होने समाचार को भी बाजार में बिकने वाली वस्तु बना दिया है. यह समाचार को यथावत नहीं दिखाते. समाचार को अपने नजरिये से दिखाते हैं. यह चैनल निष्पक्ष हो कर "न्यूज़" नहीं दिखाते, अपने स्वामी के व्यवसायिक हितों के प्रतिबद्ध हो कर "व्यूज़" बेचते हैं. तुमने इस लघुकथा के माध्यम से उनकी इस मानसिकता पर करारा
जवाब देंहटाएंप्रहार किया है. साधुवाद !
ये कहानी है बदलते परिवेश की, संवेदनशून्यता की, जीवनमूल्यों तक के बाजारीकरण की भी. स्त्री अस्मिता का मजाक बनाती व्यवस्था के कतिपय ठेकेदारों की मानसिकता पर करार झापड़ है . साधुवाद मीनाक्षी जी
जवाब देंहटाएंये कहानी है हमारी विकृत सोच की . टिप्पणी करते वक़्त हम नाले में से पंच परमेश्वर बनते हैं - लिज्बिजाते कीड़े मकोड़ों सी बात करते हैं ! दुखद हादसे से परे क्या क्या नहीं कहते
जवाब देंहटाएंतिल का ताड़ बना ...किसी के आत्मसम्मान का बलत्कार करना ...उनकी सजा सबसे पहले तैय होनी चाहिए .... !!
जवाब देंहटाएंबात का बतंगड़ मीडिया ही बनाता है
जवाब देंहटाएंमीडिया चाहे तोः
पेट्रोल के दाम कम हो जाए
खाने-पीने की वस्तुएँ सस्ती हो जाए
अपराध खत्म हो जाए
सरकारें गिर जाए
पर.............
वो नहीं चाहती??
क्यों कि
मीडिया को पैसा जनता नही विज्ञापन वाले देते हैं
और विज्ञापन नहीं तो चैनल बन्द
bahut bahut badahai.
जवाब देंहटाएंसमाज में इस तरह कि मानसिकता के प्रबुद्ध लोगों पर प्रहार हुए कहानी, शव्दों औरभावों की अभिव्यक्ति चित्रात्मक है,पढ़ते हुए चेहरे अपने आप गढ़ते चले जाते हैं,बधाई
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