मति का धीर : नागार्जुन



















अपने दुःख को देखा सब के ऊपर छाया,
आह पी गया, हंसी व्यंग्य की ऊपर आई
............................................त्रिलोचन 

कवि आलोचक नंद भारद्वाज ने इस लेख में नागार्जन के व्यक्तित्व, रचनाधर्मिता और लोक भाषाओं से उनके लगाव को आत्मीयता और सहजता से देखा परखा है, गहरी अंतर्दृष्टि के साथ.


    नागार्जुन की याद  
नंद भारद्वाज

भी हिन्‍दी प्रेमियों की तरह मैं इसे एक सुखद संयोग ही मानता हूं कि नागार्जुन, केदारनाथ   अग्रवाल, शमशेर और अज्ञेय जैसे हिन्‍दी के महत्‍वपूर्ण कवियों का यह जन्‍म-शताब्‍दी वर्ष है. इस शताब्‍दी वर्ष में जहां इन कवियों पर मीडिया और साहित्‍य प्रतिष्‍ठानों ने विशेष आयोजन किये हैं, वहीं पत्र-पत्रिकाओं ने इन कवियों पर केन्द्रित विशेषांक भी प्रकाशित किये हैं और इस तरह सभी के साहित्यिक अवदान पर विचार-विवेचन और मूल्‍यांकन का बेहतर माहौल बना है. संयोग से इस प्रयत्‍न में नागार्जुन जैसे गंवई फक्‍कड़ कवि पर पत्रिकाएं और संस्‍थान पहली बार इतने उत्‍साही और संजीदा नजर आए, अन्‍यथा छठे और सातवें दशक तक तो यह हाल था कि  उनकी काव्‍य-कृतियों के प्रकाशन के प्रति हिन्‍दी के बड़े प्रकाशक में बहुत कम दिलचस्‍पी दीख पड़ती थी, जबकि आज उन्‍हें प्रकाशित करने की होड़-सी मची है. इसके विपरीत अज्ञेय जैसे अभिजनप्रिय लेखक के सामने यह संकट शायद ही कभी रहा हो. आज यह देखकर सुखद आश्‍चर्य होता है कि केदारनाथ अग्रवाल और नागार्जुन की सभी अप्रकाशित कृतियां ही नहीं, उनकी समग्ररचनावलियां तक प्रकाशित होकर आ गई हैं.

नागार्जुन को लेकर शुद्ध साहित्‍यवादियों और सत्‍ता-प्रतिष्‍ठानों का जो भी अटपटा रवैया रहा हो, साहित्‍य की प्रगतिशील धारा और आम हिन्‍दी जन-समाज के बीच उनकी लोकप्रियता में कभी कोई कमी-कमजोरी नहीं देखी गई. वे अपने समानधर्मा साहित्‍याकरों और नयी पीढ़ी के रचनाकारों के बीच सर्वाधिक पसंद‍ किये जाने वाले जनकवि के रूप में मुखर रहे. अपनी पीढ़ी के उन तमाम लोगों की तरह मैं भी उनकी कविताओं और कथा साहित्‍य का गहरा मुरीद रहा हूं – यहां तक कि उनके व्‍यक्तिगत सान्निध्‍य में आने का सौभाग्‍य भी बराबर मिलता रहा और समकालीन कविता संबंधी अपने आलोचनात्‍मक निबन्‍धों में प्रसंगानुरूप उन पर लिखता भी रहा, इसके बावजूद उनके काव्‍य-कर्म पर समग्र रूप से विचार-विवेचन के लिए मैं अब भी अपने को तैयारी की प्रक्रिया में ही पाता हूं. इधर उनके जन्‍म-शती वर्ष में उन पर केन्द्रित आयोजनों में उन पर दिये गये वक्‍तव्‍यों और पत्रिकाओं के विशेषांकों की सामग्री से गुजरते हुए मैं बराबर असमंजस में स्थिति में रहा हूं – मैंने देखा है कि कुछ साहित्‍य-वक्‍ता नागार्जुन से अपनी निकटता बयान करते हुए अपने साथ उनके संक्षिप्‍त प्रवास काफी बढ़ा-चढ़ाकर व्‍यक्‍त करने में गर्व अनुभव करते हैं और इस झौंक में वे बाबा की निजी जीवन-शैली के किस्‍से बयान करते हुए उनके बारे में यह सब बताने में बड़ा रस लेने लगते हैं कि बाबा कर्इ-कई दिन तक नहाते नहीं थे, कि मैले-कुचैले कपड़ों में मस्‍त रहते थे, कि कहीं कुछ भी खा लेने में कोई परहेज नहीं करते थे – मुझे बाबा की जीवन-शैली पर इस तरह की टिप्‍पणियां हमेशा अनावश्‍यक और अतिरंजनापूर्ण लगती रही हैं. बेशक वे किसी तरह की नफासत या औपचारिकता बरतने के आदी नहीं थे, लेकिन अपनी इस जीवन-शैली पर अनावश्‍यक टिप्‍पणियां करने वालों को वे कभी पसंद भी नहीं करते थे. ऐसे लोगों से बाबा बहुत जल्‍द ही किनारा कर लेते थे और फिर कभी पलटकर उस ओर नहीं जाते थे.

बाबा नागार्जुन के साहित्यिक अवदान का विवेचन-मूल्‍यांकन करने वाले वरिष्‍ठ आलोचकों तक में मैंने एक अजब प्रवृत्ति देखी है कि वे बाबा की कविताओं का मूल्‍यांकन करते हुए अक्‍सर उनकी किसी पूर्ववर्ती या समकालीन कवि से तुलना अवश्‍य करते हैं और फिर यह साबित करने का प्रयास करते हैं कि बाबा की कविता उनसे इस माने में सवाई है. वह उनसे बेहतर या कमतर है या नहीं यह बहस-तलब मसला हो सकता है, बाबा या किसी भी रचनाकार के साहित्यिक अवदान को रेखांकित करने के लिए यह तरीका अपनाया जाना आखिर क्‍यों जरूरी है? बेशक वे कबीर, तुलसी, विद्यापति और निराला की परम्‍परा के श्रेष्‍ठ कवि हों, लेकिन वे कहां इनसे आगे या पीछे रह जाते हैं, याकि उसी दौर के अन्‍य कवि कहीं उनके आसंग-पासंग नहीं दीखते, तो इस तरह का विवेचन मुझे अक्‍सर आत्‍मपरक और एकांगी सा लगने लगता है. इस प्रवृत्ति से हिन्‍दी के बहुत कम आलोचक अपने को बचा पाए हैं, और यह बात मुझे उनके वस्‍तनिष्‍ठ मूल्‍यांकन में एक बडी बाधा लगती रही है. मैं अक्‍सर विचार करने लगता हूं कि क्‍या इस विवेचन-पद्धति से अपने को बचाकर उनके रचना-कर्म पर मैं कोई भिन्‍न और सार्थक बात कहने की अवस्‍था में अभी हूं?

नागार्जुन के कवि-कर्म का कोई अछूता या अनदेखा पहलू ढूंढकर उस पर अपना आलोचकीय विवेचन प्रस्‍तुत करने का फिलहाल मेरा कोई इरादा नहीं है, लेकिन संयोग से उनके रचनाशीलता व्‍यक्तित्‍व का एक ऐसा पहलू मेरी नजर में जरूर बचा हुआ है, जिस पर कम बात हुई है और जो हमारी अपनी लोकभाषाई रचनाशीलता से गहरा ताल्‍लुक रखता है. मैं पिछले चार दशक से हिन्‍दी और राजस्‍थानी भाषा में एक-साथ लिखता-पढ़ता रहा हूं और अपने प्रारंभिक दिनों में लोकभाषा के इसी मसले पर बाबा से हुई चर्चा और उनके अकुंठ स्‍नेह को कभी भूला नहीं हूं, जो अपने स्नात्‍कोत्‍तर अध्‍ययन के दौरान जयपुर में बाबा से हमें प्राप्‍त हुआ. इस बात को मैं जरा आलोचकीय विवेचन से हटकर बाबा के साथ अलग-अलग समय में हुए उन अनौपचारिक संवादों से जोड़कर कहना चाहूंगा, जो जयपुर, जोधपुर, म‍थुरा, उदयपुर,‍ दिल्‍ली आदि के प्रवास-काल में उनसे हुई मुलाकातो में संभव हुए.

बाबा नागार्जुन से मेरी पहली मुलाकात अपने स्‍नात्‍कोत्‍तर हिन्‍दी के अध्‍ययन के दौरान    सन् 1970 में जयपुर में हुई थी. वे और राष्‍ट्रकवि रामधारीसिंह दिनकर राजस्‍थान विश्‍व-विद्यालय के बुलावे पर जयपुर आए थे – दिनकरजी जहां अपनी ख्‍याति के अनुरूप राजकीय अतिथिगृह में रुके थे वहीं बाबा ने अपने मन-मौजी स्‍वभाव के अनुरूप हमारे शिक्षक साहित्‍यकार डॉ विश्‍वंभरनाथ उपाध्‍याय के निवास पर डेरा जमाया था. उन दिनों अपने शिक्षक के घर बिना कोई पूर्व सूचना दिये पहुंच जाने में हमें कभी संकोच नहीं होता था, और उनका सहज-स्‍नेह भी हमें यथावत मिलता था. जब हमें इस बात की खबर लगी कि बाबा वहीं रुके हैं, तो उनका सामीप्‍य पाने हम वहीं जा पहुंच गये. वे लॉन में शाम के ठंडे पहर में खटिया पर पालथी मारे बैठे कुछ लोगों से बतिया रहे थे. हम तीन-चार सहपाठी उन्‍हीं के पास रखी सरकंडे की गोल मुढियाओं पर जाकर बैठ गये और बिना कुछ बोले बाबा के बतरस का आनंद बटोरते रहे. थोड़ी देर में उन लोगों के चले जाने पर बाबा हमारी ओर मुखातिब हुए और पूछ लिया कि हममें कविता कौन लिखता है, तो साथियों ने मुझे आगे कर दिया. बाबा के कहने पर मैंने एक हिन्‍दी में और एक हल्‍के-से संकोच के साथ राजस्थानी में कविता प्रस्‍तुत कर दी. बाबा सुनकर थोड़े गंभीर हुए और बोले कि उन्‍हें बेशक पूरी समझ में न आई हो, लेकिन राजस्‍थानी कविता की सहज गति उन्‍हें हिन्‍दी कविता से बेहतर लगी. मुझे सुनकर बेहद अच्‍छा लगा कि मैं जिस कविता को सुनाने में संकोच कर रहा था, बाबा को वह अच्‍छी लगी है. मेरे लिए उनकी यह पहली सराहना गहरा मायना रखती थी.

उसी शाम को जयपुर के रवीन्‍द्र सभागार में आयोजित काव्‍य-संध्‍या में जहां बाबा नागार्जुन ने अपनी ऐतिहासिक  ‘मंत्र कविता’ पूरे नाटकीय अंदाज में सुनाई वहीं दिनकरजी ने भी उतनी ही उर्जा से ‘तान तान फन ब्‍याल मैं तुझपर बांसुरी बजाउं’ जैसी ओजस्‍वी कविता प्रस्‍तुत की. इन दोनों कवियों का वैसा अद्भुत काव्‍य-पाठ उनके रूबरू बैठकर सुनने का यह हमारा पहला ही अवसर था, जो आज भी मेरी स्‍मृति में यथावत अंकित है.

इसी जयपुर प्रवास में कुछ अरसे बाद बाबा की अगली यात्रा में एक और काव्‍य-गोष्‍ठी में मेरे सहपाठी कवि-मित्र तेजसिंह जोधा ने बाबा और मुद्राराक्षस की मौजूदगी में अपनी ताजा लंबी कविता ‘कठैई कीं व्‍हेगो है’ जब प्रस्‍तुत की तो ये दोनों ही वरिष्‍ठ कवि उसे मंत्र-मुग्‍ध होकर सुनते रहे और कविता पूरी होने पर तेजसिेंह को उनसे जैसी सराहना मिली, कल्‍पनातीत थी. तब बाबा ने रीझकर कहा था कि ऐसी सच्‍ची और असरदार कविता मातृभाषा में ही संभव है, बाद में मुद्राराक्षस ने तेजसिंह जोधा की उसी राजस्‍थानी कविता का हवाला देते हुए ‘धर्मयुग’ में नयी रचनाशीलता पर बहुत सारगर्भित टिप्‍पणी की थी. बाबा की उस सराहना के बाद राजस्‍थानी में रचनाशील बने रहने का जो आत्‍मविश्‍वास हमें हासिल हुआ, वह आज भी यथावत बना हुआ है और मैं मानता हूं कि उसमें बाबा नागार्जुन की बहुत महत्‍वपूर्ण भूमिका रही है.

यह बात हमें बाद में जाकर समझ आई कि खुद बाबा लोकभाषा मैथिली के एक समर्थ कवि हैं – बल्कि अपनी हिन्‍दी कविताओं में भी वे लोकभाषा और लोक-संवेदन के इतने करीब हैं कि उन्‍हें लोक से अलग करके देखा ही नहीं जा सकता.

बाबा से जयपुर में हुई उन दो मुलाकातो के बाद जोधपुर, उदयपुर, मथुरा, दिल्‍ली आदि शहरों में रहते हुए बाबा से जितनी बार भी मुलाकात हुई और इस बीच जितना उन्‍हें पढ़ा-समझा, उससे उनके प्रति एक गहरी आत्‍मीयता स्‍वत ही विकसित होती चली गई – वे अपनी जीवन- शैली में जितने सहज-सरल और बेबनाव वाले व्‍यक्ति थे, उतने ही सहज-सरल और बनावरहित वे हमें अपनी कविताओं में भी दीखते रहे.

यह मैंने बाद को जाना कि कवि नागार्जुन का रचनाकाल (सन् 1927 से 1997) और रचना-संसार जितना विपुल, व्‍यापक और वैविध्‍यपूर्ण (बकौल नामवरसिंह ‘विषम’ भी) रहा है, उतना उनके समकालीन हिन्‍दी कवियों में निराला या बाबू केदारनाथ अग्रवाल के अलावा शायद ही किसी कवि का रहा हो, बल्कि किन्‍ही अर्थों में वे निराला और केदारनाथ की सर्जना के भी पार जाते दीखते हैं. वे न केवल हिन्‍दी के प्रतिष्ठित कवि रहे, बल्कि मैथिली में तो वे आधुनिक कविता के जनक माने जाते हैं, संस्‍कृत में लिखी उनकी कविताएं इस अर्थ में विशेष महत्‍व रखती हैं कि उन्‍होंने वहां भी उसी राजनैतिक चेतना और नये काव्‍य-शिल्‍प के साथ काव्‍य-रचना की. वे जितने हिन्‍दी, मैथिली और संस्‍कृत के कवि थे, उतने ही अधिकार से वे बांग्‍ला भाषा में भी काव्‍य-रचना करते रहे. आज संयोग से उनकी ये सारी कविताएं उनकी रचनावली में एक साथ उपलब्‍ध हैं और यह जानना वाकई दिलचस्‍प है कि कैसे कोई कवि अपने जीवनकाल में चार भाषाओं में उसी  ऊर्जा और अधिकार से इस तरह रचनाशील बना रह सकता है.




ई पता : nandbhardwaj@gmail.com
    

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  1. जनकवि नागार्जुन पर एक आत्मीय लेख .. नन्द सर को बधाई ! अरुण जी का आभार ..

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  2. अच्‍छा निबंध है। आभार नंद जी और आपके प्रति भी।

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  3. वे अपनी जीवन- शैली में जितने सहज-सरल और बेबनाव वाले व्‍यक्ति थे, उतने ही सहज-सरल और बनावरहित वे हमें अपनी कविताओं में भी दीखते रहे.................बाबा नागार्जुन के जीवन पर बहुत ही उत्कृष्ट लेख पढने को मिला, नन्द जी बधाई और अरुणजी का आभार.....

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  4. बहुत सुंदर और उपयोगी जानकारी भरा लेख।

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  5. बड़ा ही सारगर्भित आलेख, कई महत्वपूर्ण बिन्दु जानने को मिले।

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  6. नंद जी का केदारनाथ अग्रवाल पर लिखा लेख पढा था. शानदार लेख था. यह लेख भी उसी कोटि का है. कोटिशः बधाई व आभार दोनों, दोनों(नंद जी और अरुण जी)को इस शानदार लेख को पढवाने के लिए.

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  7. बिना किसी बनावट के अपने अनुभवों को बांटना और बाबा नागार्जुन के जीवन के कई पहलुओं को प्रकाशित करना नन्द जी की ही लेखनी कर सकती है.. उनकी कविताओ की तरह लेख में भी सहजता और आत्मीयता बनी हुई है ..

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  8. Baba Naagarjun par aik shandar aur sarthak aalekh padhakar malamal huaa.Atdarth Nanadji ko hardik badhai...Arun ka sajha karne ke liye aabhar sweekar.

    Meethesh Nirmohi,Jodhpur[Rajasthan].

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  9. बाबा अपने धनबाद यात्रा में मेरी एक कविता पर लिखे थे "डियर अरुण राय तुम्हारी यह कविता मुझे उद्वेलित कर रही है. मैं चाहता हूँ कि तुम अपनी सुविधानुसार एक सप्ताह मेरे साथ रहो." वह कभी हो ना सका... बाबा सहज सरल थे.. उस एक दिन में जाना.. अब भी बाबा अंकित हैं मन के पटल पर...

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  10. Baba Naagarjun par aik shandar aur sarthak aalekh padhakar malamal huaa.Atdarth Nanadji ko hardik badhai...Arun ka sajha karne ke liye aabhar sweekar.

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  11. Badhaee ho Nand ji , Aapne Baba ko jaise saamane laaker khada kar diya ! bahut sunder aur sarthak aalekh hai yah .dil se mubarakbaad !

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  12. jankavi baba naagarjun par lekh likh kar aapane mithila ke mati ko aur sugandhit kar diya.aapane baba naagarjun ke jeevan ke kayi pahluwo ko bilkul hi saral sahaj shabdo me ujaagar kiya hai.unake vyaktitwa aur kritivame bahut samanata thi.unaki rachanaye samaj ke yatharth ko darshati hai .aapane apane lekh se kavi jagat ke bhismpitamah se ru-b-ru karaye.achhe lekh ke liye nandji aapako hardik badhai.sayog ke liye arun ji ko abhinandan ...namskar sir

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  13. Baba ke sansmarano ke sath yeh samiksha hriday ko bhi sparsh karti ha...
    itne achhe lekhan ke liye badhai....

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  14. आत्मीय आलेख... कई पहलुओं से परिचित कराता हुआ!
    आभार!

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  15. पहली बात की मैथिली मे नागार्जुन नाम का कोइ साहित्यकार नहीं हुआ और दूसरी बात की आधुनिक मैथिली कविता के दावेदार भी बहुत है। नंद जी आप बड़ी सरलता के साथ कैसे मैथिली साहित्य मे घुस गये। कृप्या वही लिखे जिसके बारे मे पता हो। धन्यवाद।

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  16. दादा भवानी प्रसाद मिश्र की पंक्तियां बाबा पर सटीक बैठ्ती हैं,"जैसा तू दिखता है,वैसा तू लिख
    जैसा तू लिखता है,वैसा तू दिख"
    नन्दजी बहुत बधाई अच्छे लेख के लिये।

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  17. नागार्जुन अकाल को प्राकृतिक अभिशाप के रूप में काम , मानवीय अभिशाप के रूप में ज़्यादा देखते हैं। कथन के आलोक में नागार्जुन के काव्य पर चर्चा करें

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