सहजि सहजि गुन रमैं : लीना मल्होत्रा राव

















लीना मल्होत्रा राव :
जन्म : ३ अक्टूबर १९६८, गुडगाँव 


कविताएँ, लेख पत्र- पत्रिकाओं में प्रकाशित
नाट्य लेखन, रंगमंच अभिनय, फिल्मों और धारावाहिकों के लिए स्क्रिप्ट लेखन
विजय तेंदुलकर, लेख टंडन, नरेश मल्होत्रा. सचिन भौमिक, सुभाष घई के साथ  काम किया है 
अपनी फ़िल्म सिस्टर्स के निर्माण और निर्देशन में व्यस्त


दिल्ली में सरकारी नौकरी 
ई पता :  leena3malhotra@gmail.com



लीना की कविताएँ समय और स्त्री के सच पर किसी गद्यात्मक टिप्पणी की तरह अनावृत्त नहीं होती. उनके पास कहन की जो प्रविधि है वह अनुभूति को उसकी सांद्रता में व्यक्त करती है, कुछ इस तरह की उसका असर गहरे जाता है. मिथक इन कविताओं में कायान्तरण करते हैं और अर्थ का दूर तक विस्तार भी करते हैं. लीना के पास एक हठीला प्रेम है, चोटिल पर अविजित, जो अंततः अंतिम शरणस्थली की तरह हर जगह उपस्थित है. ये कविताएँ हिंदी कविता के परिचित परिसर से भी बाहर जाती हैं, ‘शब्द के बेलगाम घोड़े पर सवार’.   

 





















मकबूल फिदा  हुसैन 
चाँद पर निर्वासन 

मोहनजोदड़ो के सार्वजानिक स्नानागार में एक स्त्री स्नान कर रही है 
प्रसव के बाद का प्रथम  स्नान 
सीढ़ियों पर बैठ कर देख रहे हैं ईसा, मुहम्मद, कृष्ण,  मूसा और ३३ करोड़ देवी देवता 
उसका चेहरा दुर्गा से मिलता है 
कोख मरियम से 
उसके चेहरे का नूर जिब्राइल  जैसा है 
उसने  जन्म दिया है  एक बच्चे को 
जिसका चेहरा एडम जैसा, आँखे आदम जैसी, और हाथ मनु जैसे हैं 
यह तुम्हारा पुनर्जन्म है  हुसैन 
तुम आँखों में अनगिनत रंग लिए उतरे हो  इस धरती पर
इस बार  निर्वासित कर दिए जाने के लिए 
चाँद पर 

तुम वहां जी लोगे 
क्योंकि  रंग ही तो  तुम्हारी आक्सीजन है 
और तुम अपने रंगों का निर्माण खुद कर सकते हो 
वहां बैठे तुम कैसे भी चित्र बना सकते हो 

वहां की बर्फ के नीचे दबे हैं अभी देश काल और धर्म

रस्सी का एक सिरा ईश्वर  के हाथ में है हुसैन
और  दूसरा धरती पर गिरता है
अभी चाँद ईश्वर कि पहुँच  से मुक्त है
और अभी तक धर्मनिरपेक्ष है 

वह ढीठौला 
ईद में शामिल, दीवाली में नदारद
वह मनचला करवा चौथ पर उतरता है हर स्त्री इंतज़ार में
सुंदरियों पर उसकी  आसक्ति तुम्हारी ईर्ष्या  का कारण न बन जाए कहीं ...

हुसैन
चाँद पर बैठी बुढ़िया ने इतना कपडा कात दिया है 
कि  कबीर  जुलाहा 
बनायेगा उससे कपडा तुम्हारे कैनवास के लिए
और धरती की इस दीर्घा से हम देखेंगे तुम्हारा सबसे शानदार चित्र 
और तुम तो जानते हो चाँद को देखना सिर्फ हमारी मजबूरी नही चाहत भी है. 

तुम्हारा चाँद पर निर्वासन
शुभ हो !
मंगल हो!

साक्षात्कार

शब्द के बेलगाम  घोड़े पर सवार
हर सितारे को एक टापू की तरह टापते हुए मै
घूम आई हूँ इस विस्तार में
जहाँ  पदार्थ सिर्फ ध्वनि मात्र थे
और पकड़ के लटक जाने का कोई साधन नही था
एक चिर निद्रा में डूबे स्वप्न की तरह स्वीकृत
तर्कहीन, कारणहीन ध्वनि
जो डूबी भी थी तिरती भी थी
अंतस में थी बाहर भी

इस पूरे
तारामंडल ग्रहमंडल सूर्यलोक और अन्तरिक्ष में
जिसे न सिर्फ सुना जा सकता है
बल्कि देखा जा सकता है
असंख्य असंख्य आँखों से
और पकड़ में नहीं आती थी
अनियंत्रित, अनतिक्र्मित और पीत-वर्णी  अनहुई आवाज़

क्या वह ध्वनि  मै ही थी ?

और वह शब्द का घोडा तरल हवा सा
जो अंधड़ था या ज्वार
जो बहता भी था उड़ता भी था
चक्र भी था सैलाब भी

और यह आकाश जो खाली न था रीता न था
फक्कड़ न था
था ओजस्वी पावन
तारों का पिता
उड़ते थे तारे आकाश सब मिलजुल कर
वह दृश्य दृष्टा और दृशेय मै ही थी....!!!

भयानक था...
परीक्षा का समय
आनंद से पहले की घडी
क्या वह मै ही थी
इस उजियारे अँधेरे जगत में फैली
एक   कविता  ...
क्या वह शब्द मै ही थी.

मुक्ति 

तुम्हारी नजर जब अपनी आँखे छोड़ के मेरी आँखों तक पहुँचती है
तो रास्ते का कोई अवरोध उसे रोक नहीं पाता
बिना व्यवधान कूद लगाती है मेरी आँखों में और
हिमालय की चोटी की स्लाईड  से फिसलते हुए
गिरती है सीधा मेरे दिल पर.
तभी एक ध्यान घटित होता है
एक निर्दोष  झूम उठती है
आवारा आत्मा सिर झुकाए शामिल होती है इन नर्तकों की टोली में
कुछ संभावित ध्वनियाँ बिना जन्म  लिए
इस सृष्टि में फैले  नाद में घुल मिल जाती  हैं
और मै उड़ने लगती हूँ मुक्त होकर.

आज मैं संहारक हूँ.

कि  आज मेरे पास मत आना 
मैं  प्रचंड वायु 
आज तूफ़ान  में तब्दील हो रही हूँ..
निकल जाना चाहती हूँ
आज दंडकारन्य  के घने जंगलों में
कुछ नए पत्तों की  तलाश में जिनसे सहला सकूँ  अपनी देह
जो मेरे झंझावत  में फंस कर निरीह होकर उड़े मेरी ही गति से 

अपनी सारी इच्छाएं जिन्हें जलाकर धुएं में  उड़ा देती थी मैं 
आज बहुत वेग में उड़ा ले चली हैं मुझे  
समय की परिधि से परे 
मनु की नौका की पाल मैंने खोल दी है  
और जोड़ो में बचाए उसके बीजो को नष्ट कर दिया है मैंने 
मनु मै आज  उसी  मछली की  ताकत हूँ  जिसके सींग से बाँधी थी नौका तूने
तेरे  चुने  शेष बचे एक बीज को अस्वीकार करती हूँ मैं 
जाओ आविष्कार करो नए विकल्पों का नए बीजो का 

मेरी इन्द्रियों को थामे हुए सातो घोड़े बेलगाम हो गये हैं 
और मैं अनथक भागती हूँ 
अपने दुस्साहस  के पहिये पर 
किसी ऐसे पहाड़  से टकराने के लिए जिसे चूर करके मैं अपने सौन्दर्य  की  नई परिभाषाये गढ़ लूं 
या जो थाम सके  मुझे
ओ सामान्य पुरुष ! तू हट जाना मेरे रास्ते में मत आना !

मैं एक कुलटा हवा भागती फिर रही हूँ चक्रवात सी 
सब रौंद  कर बढती हूँ आगे 
तेरी चौखट 
तेरी बेड़ियाँ 
तेरे बंद कमरे
बुझा दी है सुलगन अग्नि कुण्ड की
उड़ा के ले चली हूँ राख   
आज मैं संहारक  हूँ 

ओ मेरे हत्यारे

ओ मेरे हत्यारे-
मेरी हत्या के बाद भी 
जबकि मर जाना चाहिए था मुझे
निर्लिप्त हो जाना चाहिए था मेरी देह को
उखड जाना चाहिए था मेरी साँसों को 
शेष हो जाना चाहिए था मेरी भावनाओं  को 
मेरे मन का लाक्षाग्रह धू धू करके जलता रहा 
मेरी उत्तप्त, देह संताप के अनगिनत युग जी गई 

क्योंकि धडकनों के ठीक नीचे वह पल धडकता रहा
प्रेम का 
जो जी चुकी हूँ मैं
वही एक पल 
जिसने जीवन को खाली कर दिया 

समझ लो तुम 

नैतिकता अनैतिकता से नही
विस्फोटक  प्रश्नों
न ही तर्कों वितर्को से 
तुमसे भी नहीं 

डरता है प्रेम
अपने ही होने से ...


वह बस एक ही पल का चमत्कार था
जब पृथ्वी पागल होकर दौड़ पड़ी थी अपनी कक्षा में
और तारे उद्दीप्त होकर चमकने लगे थे 
करोड़ो साल पहले ...
और जल रहीं है उनकी आत्माए
उसी प्रेम के इकलौते क्षण की स्मृति  में टंगी हुई आसमान में

और शून्य बजता है सांय सांय.

 





















मकबूल फिदा हुसैन 

एक माँ की प्रार्थना

प्यार होगा तो दर्द भी होगा
सफ़र होगा
तो होंगी रुकावटें भी
साथी होगा तो यादें होंगी
कुछ मधुर तो कुछ कडवी बाते भी होंगी
उड़ान होगी तो थकान होगी
सपने होंगे तो सच से दूरियां होंगी ;

मेरी बेटी
तुम्हारे नए सफ़र के शुरुआत में
क्या शिक्षा दूं तुम्हें --

प्यार मत करना - दर्द मिलेगा ,
सफ़र मत करना - कांटे होंगे ,
साथी मत चुनना - कडवी यादे दुःख देंगी
उड़ान मत भरना - थक जाओगी
इस दर्द से कांटो से आसुओं से भीगे रास्ते मत चुनना ,
मेरे ये डर कहीं तुम्हारे संकल्प को छोटा न कर दें
इसलिए
प्रार्थना में मैंने आखें मूँद ली है
और उन तैंतीस करोड़ देवी देवताओं का आह्वान किया है -

हे बाधाओं के देवता -
मैं तुम्हे बता दूं
कि वह बहुत से खेल इसलिए नहीं खेलती के हारने से डरती है
तुम ध्यान रखना कि
कोई बाधा इतनी बड़ी न हो
जो उसके जीतने के हौसले को पस्त कर दे
तुम उसे सिर्फ इतनी ही मुसीबतें देना
जिन्हें पार करके
वह विजयी महसूस करे
और
उसकी यह उपलब्धि
उसके सफ़र में एक नया उत्साह भर दे.

हे सपनो के देवता -
वह बहुत महंगे सपने देखती है
उसके सपनो में तुम सच्चाई का रंग
भरते रहना
ताकि
जब वह अपने सपनो कि नींद से जगे तो
सच उसे सपने जैसा ही लगे.

हे सच्चाई के देवता -
हर सच का कड़वा होना ज़रूरी नहीं है
इसलिए मेरी प्रार्थना स्वीकार करना
उसके जीवन के सच में
कडवाहट मत घोलना.

हे प्रेम के देवता -
मै तुम्हे आगाह कर दूं
कि
वह तुम्हारे साधारण साधकों कि तरह नहीं है
जो लफ्जों के आदान प्रदान के प्रेम से संतुष्ट हो जाए
वह असाधारण प्रतिभाओं कि स्वामिनी है
वह जिसे चाहेगी टूट कर चाहेगी ;
और समय का मापदंड उसके प्रेम की कसौटी कभी नहीं हो सकता
पल दो पल में
वह पूरी उम्र जीने की क्षमता रखती है
और
चार कदम का साथ काफी है
उसकी तमाम उम्र के सफ़र के लिए ;
इसलिए
उसके लिए
अपने लोक के
सबसे असाधारण प्रेमी को बचा कर रखना
जो लफ़्ज़ों में नहीं
बल्कि अपनी नज़रों से लग्न मन्त्र कहने की क्षमता रखता हो
और
जो उसके टूट के चाहने के लायक हो;

हे जल के स्वामी -
उसके भीतर एक विरहिणी छिपी सो रही है
जब रिक्तता उसके जीवन को घेर ले
और
वह अभिशप्त प्रेमी जिसे उसे धोखा देने का श्राप मिला है
जब उसे अकेला छोड़ दे
उस घडी
तुम अपने जल का सारा प्रवाह मोड़ लेना
वर्ना तुम्हारा क्षीर सागर
उसके आंसुओं में बह जाएगा
और तुम खाली पड़े रहोगे -
बाद में मत कहना कि मैंने तुम्हे बताया नहीं

हे दंड के अधिपति -
तुम्हे शायद
कई कई बार
उसके लिए निर्णय लेना पड़े I
क्योंकि वह काफी बार गलती करती है
लेकिन मै तुम्हे चेता दूं कि बहुत कठोर मत बने रहना
क्योंकि तुम्हारा कोई भी कठोर दंड
उसके लिए एक चुनौती ही बन जायेगा
तुम्हारे दंड कि सार्थकता
अगर इसी में है
कि
उसे
उसकी गलती का अहसास हो तो
तो थोड़े कोमल बने रहना
एक मौन दृष्टि
और
एक पल का विराम काफी है
उसे उसकी गलती का बोध कराने के लिए I

हे घृणा के देवता -
तुम तो छूट जाना
पीछे रह जाना
इस सफ़र में उसके साथ मत जाना
मै नहीं चाहती
कि किसी से बदला लेने कि खातिर
वह
अपने जीवन के कीमती वर्ष नष्ट कर दे

हे जगत कि अधिष्ठानी माता
तुम्हारी ज़रुरत मुझे उस समय पड़ेगी
जब वह थकने लगे
और उसे लगने लगे कि यह रास्ता अब कभी ख़त्म नहीं होगा
उसके क़दम जब वापसी की राह पर मुड जाएँ
और वह थक कर लौट आना चाहे
उस समय
तुम अपनी जादुई शक्तियों से
दिशाओं को विपरीत कर देना
और
अपने सारे जगत की चिंता फ़िक्र छोड़कर
मेरा रूप धारण कर लेना
और उसे अपने आँचल में दुबका कर
उसकी सारी थकान सोख लेना
और बस इतना ही नहीं
उसकी पूरी कहानी सुनना
चाहे वह कितनी ही लम्बी क्यों न हो
और हाँ !
उसकी गलतियों पर मुस्कुराना
मत वरना वह बुरा माँ जायेगी
और
तुम्हे
कुछ नहीं बताएगी
जब उसकी आँखों में तुम्हे एक आकाश दिखने लगे
और होंठ मौन धारण कर लें
और उसकी एकाग्रता उसे एकाकी कर दे
तब तुम समझ जाना
कि
वह लक्ष्य में तल्लीन होकर चलने के लिए तत्पर है
तब
तुम चुप चाप चली आना
मै जानती हूँ कि वह
अब
तब तक चलेगी जब तक उसकी मंजिल उसे मिल नहीं जाती

जाओ बेटी
अब तुम अपना सफ़र प्रारंभ कर सकती हो
तुम्हारी
यात्रा शुभ हो
मंगलमय हो.

:::::
   

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  1. सुंदर कविताएं.


    आलोक
    www.raviwar.com

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  2. kavita me painting ya painting se kavita ,rachnatmakta ke virudh khade khatre ki aahato ke saath hi uski akchyaseelta ke liye patibadh aur aasvast man , aadim mithko ka paryog kavita ki samvedna ko shasvat moolya pardan karte hai.

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  3. कि आज मेरे पास मत आना
    मैं प्रचंड वायु
    आज तूफ़ान में तब्दील हो रही हूँ..
    निकल जाना चाहती हूँ
    आज दंडकारन्य के घने जंगलों में
    durlabh kavita hai yah...

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  4. सभी कवितायें एक से बढकर एक
    अनुपम ...
    "चाँद पर निर्वासन","एक माँ की प्रार्थना"और"आज मैं संहारक हूँ"विशेष पसंद आयी ..
    आप की लेखनी यूँ ही अबाध गति से हमें उर्जस्वित करती रहे यही कामना
    आभार लीना जी और अरुण सर का ..

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  5. लीना जी बहुत सुन्दर भावप्रधान कवितायेँ | समालोचन में छापने के लिये हार्दिक बधाई |

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  6. "तुम्हारे नए सफ़र के शुरुआत में /क्या शिक्षा दूं तुम्हें --/प्यार मत करना - दर्द मिलेगा ,/सफ़र मत करना - कांटे होंगे ,/साथी मत चुनना - कडवी यादे दुःख देंगी /उड़ान मत भरना - थक जाओगी /इस दर्द से कांटो से आसुओं से भीगे रास्ते मत चुनना ,/मेरे ये डर कहीं तुम्हारे संकल्प को छोटा न कर दें /इसलिए /प्रार्थना में मैंने आखें मूँद ली है" कैसी घनी पीडा से आकार लिया होगा इन पंक्तियों ने - लीना की इन कविताओं में स्‍त्री का संघर्ष और उसकी मानवीय चिन्‍ताएं मूर्त होकर सामने आती हैं। बल्कि वे हर उस अन्‍याय को लक्षित करती हैं, जो हमारे समय को बेहद निर्मम बनाए दे रहा है। ये कविताएं एक गहरा अवसाद और असर छोड़ जाती हैं। इस रचनात्‍मक ऊर्जा को उसकी मुक्ति का आकाश मिले, यही दुआ करता हूं।

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  7. लीना , तुमसे फ़ोन पर सारी कविताएँ सुनीं . अपनी सारी ऊर्जा जुटाकर लिखने बैठे हैं ...
    अभी भी तुम्हारे शब्द गूँज रहे हैं .. एक-एक शब्द .. उनमें समायी कविता .. सान्द्र संवेदनाएं , आर्द्र से शब्द .. कहीं मौन ध्वनियाँ ... कहीं उद्दात मुखर संगीत ..
    कहीं विचारों में घूमती एक रमणीक छवि .. दूर -दूर तक कम्पित होता निनाद ...
    इन्हें फिर-फिर पढ़ने का मन है ...लौट कर आयेंगे इस वनस्थली में ..

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  8. सुधा अरोड़ा21 अग॰ 2011, 8:03:00 pm

    कविता है कि एक भिगो देने वाली प्रार्थना . बेटी के नाम -- एक माँ की इतनी बेहतरीन कविता मुझे नहीं याद आता कि पहले कभी पढ़ी हो ! नायाब कविता !
    हुसैन का चाँद पर निर्वासन भी !
    ऐसी अद्भुत कवितायेँ पढ़वाने के लिए हार्दिक आभार !

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  9. चार कदम का साथ काफी है
    उसकी तमाम उम्र के सफ़र के लिए ;
    इसलिए
    उसके लिए
    अपने लोक के
    सबसे असाधारण प्रेमी को बचा कर रखना................ itni sunar aviwekti ke liye aapko badhi लीना .

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  10. ek maan ki prarthna...bahut acchi lagi..kavita vahi jo smrti me kahin tang jaye...

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  11. इन कविताओं में लीना जी ने कथ्य के निरूपण के लिए जिस भाषा, रूपक, बिम्ब और विशेषणों का संधान किया है और जिस तरह किया है, उसने कविताओं के समूचे संवेदन तंत्र को घनी और अभिभूत कर देने वाली भूमिका प्रदान की है | स्थूल दृश्यात्मकता के आसपास टहलती हुई उनकी मर्मभेदी प्रज्ञा दृश्य और दृश्य के अंतर्जगत को गूँथती, मथती और भेदती है |

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  12. लीना जी को बधाई...उनमें बहुत संभावनाएं दिखाई देती हैं..

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  13. विमलेश त्रिपाठी21 अग॰ 2011, 8:10:00 pm

    लीना जी की कविताएं लगातार पढ़ता रहा हूं... उनकी कविताओं में जो संवेदनशीलता है वह बार-बार आकर्षित करती है, साथ ही उनकी कविताएं सधी हुई लगती हैं... लीना जी को अरूण जी ने अपने ब्लॉग पर जगह दी इसके लिए उनको साधुवाद...कवयित्री को धेर सारी बधाई.यां -शुभकामनाएं

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  14. समझ नहीं पा रही क्या कहूँ....बस आपकी कविताओं के घेरे में घूम रही हूँ तब से.... हर पंक्ति मुझसे बात कर रही है.... आपको सुनने की चाह जाग्रत हो गयी है... सुनायें ना बधाई आपको और ढेर सारा प्यार .... लीना.....

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  15. कविता वो जो करे असर, मजबूर करे रफ़्तार भरी जिन्दगी में ठिठक कर रुकने के लिए, और मनन के लिए, वो बात इन कविताओं में है.
    Sabhajeet

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  16. kavi Leena Malhotra ki upasthiti samkaleen Kavita mai prabhavshali dang se darj ho rahi hai.unka kathya,shilp aur samvedan kisi tay shuda khanche mai nahi vyaap raha..in kavitaon mai vo kabhi mujhe mahan Kaviyatri LALDYAD aur kabhi Marina tswetaya ke samvedan ke pas jati huwi dikhti hain..shubh kamnayen..

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  17. गज़ब कर दिया है !
    गज़ब !
    शब्दकोष ख़ाली हैं..!
    जो भरा था वो मैंने लीना जी को समर्पित कर दिया.

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  18. कविताएं जैसे किसी दूसरी ही दुनिया में ले जाती हैं... बिम्ब,शिल्प,कथ्य... हर स्तर पर दिल के बहुत करीब लगी.लीना जी को बधाई.और अरुण जी का शुक्रिया कि इन बेहतरीन कविताओ को हम तक लाये.

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  19. हे सच्चाई के देवता -
    हर सच का कड़वा होना ज़रूरी नहीं है
    इसलिए मेरी प्रार्थना स्वीकार करना
    उसके जीवन के सच में
    कडवाहट मत घोलना. Leena Malhotra Rao ek mahan kavi hain. inki tulana vishv ke bade kaviyon Marinatsyevena aur Emily Dikinnsan se kee jane yogy hain. Hindi bhasha ko Is kavi ke uday ne naya andaaz diya hai.
    Anupam

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  20. ‎Leena Malhotra Rao, aapke liye ek sandesh message box mein hai , use blog par aur yahaan share kar rahe hain::
    Thanks Aparna Ji for sharing those wonderful poems.. Somehow I m not able to comment there due to net problem I reckon ! Would like to thank u once again ..really, I m overwhelmed.
    regards
    baabusha

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  21. समालोचन मेँ प्रकाशित आपकी रचनाएँ काफी सशक्त हैँ,नये शब्दोँ के प्रयोग कविता मेँ प्राण का संचार करते हैँ।अनुभूति की धारा काफी तीव्र है।अर्थ के विस्तार का क्या कहना...,यदि सही ढंग से नहीँ पढ़ा जाय तो अर्थ..फिसल जाते हैँ।सच है आपने शब्द के बेलगाम घोड़े पर सवार होकर अर्थपूर्ण यात्रा की है।आप उड़ान भरेँ , और भरेँ...लेकिन बेलगाम घोड़े पर अंकुश जरुरी है।शून्य का बजना पसंद आया।बेटी के लिए मंगल कामना ,माँ न करे तो फिर कौन करे।अंत मेँ,अच्छी कविताओँ के लिए आपको एवं समालोचन को धन्यवाद।

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  22. समालोचन पर आपकी कविताओं से गुजरा. भावों के गहरे समंदर में देर तक डूबने जैसा लगा. उससे उबरा तो दुष्यंत की ये पंक्तियाँ बरबस ही मन में आ गयीं -- ''...एक जंगल है तेरी आँखों में, मैं जहां राह भूल जाता हूँ .''
    लीना जी, आपकी एकाध कविताएँ इस बेहद स्वार्थी, मौकापरस्त और पाषाण ह्रदय हो चुके काल खंड से पाठक को चुराकर सीधे मोहन-जो-दड़ो और शायद उससे भी और पहले के पाषाण काल तक ले जाती हैं.यह कल्पना सिहरन सी पैदा करती है कि एक स्त्री सभ्यता के जिस महिमामय खंड में सद्द्यःप्रसूता होकर स्नान कर रही है वहां ईसा-मूसा-मुहम्मद और कृष्ण (?) उसे देख रहे हैं. निश्चय ही वे सब बालक होंगे जिन्हें पास बैठकर एक माँ अपने काम निबटा रही है. क्या लक्षणा है इस कविता में !
    ख़ुद को तलाशती और ख़ुद को जीती-भोगती कविताएँ भी हैं तो स्त्री होने कि प्रकृति और बेबसी भी झलकती है कविताओं में.
    पढ़ते हुए लगा ,जैसे शहर की भीड़-भाड़ से निकल कर अचानक किसी नदी की कल-कल के पास आ गया हूँ.

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  23. लीना मल्होत्राजी की कविता पढ़ते हुए आप अपने समय से निक्ल कही सुदूर समय मैं पहुँचते है जहा आप अपने काल को बिसर उस काल का अद्भुत संगीत सुनते है जो किसी नैसगिक झरने सा प्रवाहित होता है /यदा कदा लीना जी को पढने का मौका और समालोचन मैं पढ़ी उनकी कवितायेँ आश्वस्त करती है की हिंदी कविता अपने आधुनिकतम दौर मैं किसतरह आपको अपनी काव्यात्मकता से अवाक् करने मैं सक्षम है ...पौरोनिक काल के सन्दर्भ और उन प्रतिमानों को अधुभुत काल्पनिक व् घोर ऐतिहासिक काल को झोड़ कर लीना जी कविता आज के विसंगत काल मैं पिस रहे मनुष्य को नयी ताक़त देती है ..नए रास्तो को इंगित करती है ...जहा कही वो काव्य को छोड़ अपने अतिरेक प्रेम के कारण अपने आने वाले कल को कुछ कहने की चेष्टा करती है वहा भी वे संयमित रहने मैं अभी तक तो सफल रही है मगर ये झोखिम उनकी कविता का साथ यू ही कब तक देता रहेगा ये उनके नियंतरण मैं है .....आज का दौर बीत गए कल से बहुत अलग व् बढ़ते असमंजस के बीच अपनी खोयी हुई अस्मिताको तलाश कर उसे पुनर्स्थापित करने का दौर है और ये कलाकार के लिए सबसे कठिन समस्या है ...कवि कलाकार कब इन विउसंगत जीवन की कठोरता के सामने घुटने टेक अपने काव्य को समत कर उप्देसतामक हो जाये और उन मुद्दो से वो अपने को अलग कर अगर काव्य करे तो उस काव्य का अस्तित्व वर्तमान काल मैं क्या रह जाए...इन सब विसंगतियों व् खतरों को दरकिनार कर लीना जी बहुत खूब लिख गयी है और समालोचन ने उनकी कविताओं को अपने यहाँ जगह देकर वाकई अपने होने को पुनः प्रमाणित किया है .....बधाई ..
    "निकल जाना चाहती हूँ
    आज दंडकारन्य के घने जंगलों में
    कुछ नए पत्तों की तलाश में जिनसे सहला सकूँ अपनी देह
    जो मेरे झंझावत में फंस कर निरीह होकर उड़े मेरी ही गति से ..".......लीना जी का यू अपनी अस्मिता के लिए प्रयासरत होकर सर्जन करना मुझे बहुत प्रभावित कर गया ...................

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  24. chand par nirvasan.....kavita kaee martaba padh chuka hun......kavita ki bhasha rochak hai......ek kalpana se kavita shuru hoti hai.....husain ke janam ke gawah....sirf iss,muhammad,krishan aur musa hi nahin hain.....balki 33 crore devi dev...ta bhi hain......aur phir husain ka chehra.......na jaane kis kis ke asar se puta hua hai.........yani ki sabhi ishwar yadi ve un roopon mein maujood hain to husain ko apna aashirvaad de rahe hain........achanak.....kavita husain ke chaand par nirvasan ki baat karti hai.....aur tark deti hai ki chaand dharm nirpeksh hai.....ishwar ki pahunch se bahar hai.......wahan hussain apne man ke rang bhar sakte hain.....kya dharamnirpekshakta ke maayne dharam ki gair-maujudgi hai....ya phir ishwar ki gair-maujudgi.....kavita mein yahi par kami hai.....leena ji yadi aapke bataye sabhi ishwar vakai mein hain...tab bhi ve kisi rachnakaar ke liye koi badi pareshaani nahin hain.....khud husain ne....ishwar ko aur uski bartiye jan manas mein basi chavi ko samjhne mein kafi kaam kiya....husain ka nirvasan ishwar ke vajood ya uski gair maujdgi ki vajah se nahin hua....balki ishwar ki sankirn interpretation karne walon ki vajah se mila hai......aur chand par husain kya karega....sachcha rachnakar saans lete samaj ki dein hota hai na ki kisi nirjan aur eikant ki.....husain ko husain .....bartiye samaj ki vibhidhta ne banaya hai....uski is samaj ko samajhne ki gahri lalak aur bhtar tak doobh jaane ki lalsa ne......hamare desh ki.....khoobiyon aur kamjorion ko kala mein pakad kar hi husain ...husain bane....unhe leena ji kisi nirvasan ki jarrorat nahin......ye nirvasan to kattarpanthiyon ke nirvasan se bhi bhayanak hai.....jab ek rachankaar/kalkaar ko uski parivesh se kaat kar aisi jagah bhej diya jaye jahan jeeta jagta samaj na ho.....ummeed hai ki husain bhi aise kisi nirvasan se khush nahin hote.....woh to qatar mein rah kar bhi aakhiri saans tak apni dharti ke liye chah pale rahe......

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  25. आभार मित्रो और सुधिजनो - आपकी इतनी सराहना और प्रोत्साहन का. अरुण जी आपने मुझे समालोचन में छपने का गौरव प्रदान करके मेरा मान बढ़ाया मै आपको ह्रदय से धन्यवाद देती हूँ. अपर्णाजी aapka स्नेह इन कविताओ के साथ मुझे मिला वह मेरी असल पूँजी है. - लीना मल्होत्रा

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  26. Adbhut. pratyek kavita alag-alag tatha naveenta liye huye hai. kavitaon ki sabse badi khaasiyat hai jeevan me uthne waale behad samvedansheel prashno ke saahsik or unka ek yatharth chitran jo ki mann ko bechain karta hai.. or mann inhe padhkar ek doosri hi duniya ka anubhav karta hai.. in kavitaon me jeevan saans leta anubhoot hota hai. ek aas ke panchhi ke pankho ki phadphdahat ko suna ja sakta hai. ummeed ki is mashaal ko leenaji ne jalaya hai.. sabhiko dua karni chaahiye, ye mashaal khoob roshan ho..nirantar jalti rahe..

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  27. in panktiyon se purnta sahmat:
    लीना की कविताएँ समय और स्त्री के सच पर किसी गद्यात्मक टिप्पणी की तरह अनावृत्त नहीं होती. उनके पास कहन की जो प्रविधि है वह अनुभूति को उसकी सांद्रता में व्यक्त करती है, कुछ इस तरह की उसका असर गहरे जाता है. मिथक इन कविताओं में कायान्तरण करते हैं और अर्थ का दूर तक विस्तार भी करते हैं. लीना के पास एक हठीला प्रेम है, चोटिल पर अविजित, जो अंततः अंतिम शरणस्थली की तरह हर जगह उपस्थित है. ये कविताएँ हिंदी कविता के परिचित परिसर से भी बाहर जाती हैं, ‘शब्द के बेलगाम घोड़े पर सवार’.

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  28. सुन्दर संवेदना के भावप्रवण हस्ताक्षर हैं आपकी कवितायेँ ! बधाई लीना जी ! 'समालोचन ' द्वारा इस प्रस्तुति के लिए अरुणदेव जी का धन्यवाद !

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  29. prem ki saghanta hai in kavitaon main . kalpana sheelata adabhut. thoda bhavukata se bachane ki aavashyakata hai. bhavishya ke prati aasha jagati hain.

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  30. अरुण जी का उदबोधन खरा है.
    लीना जी की कविताएं पढने का सुख है. वे कई आयामी और अर्थवान है.

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  31. लीना जी की कविताओं से सम्पर्क बहुत पुराना नहीं है परन्तु कुछ माह पूर्व जब उनकी कविताओं से पहला साक्षात्कार हुआ, तभी मैंने उन्हें समकालीन कविता का एक सशक्त हस्ताक्षर मान लिया था. मेरे इस 'मान लेने' को हिंदी कविता के आलोचक और समकालीन कवि कितना महत्त्व देते हैं, मुझे उससे कोई लेना-देना नहीं है. यह विशुद्ध रूप से कविता के एक पाठक का अपना 'मान लेना' है.

    समालोचन पर उनकी कविताएँ कुछ रोज़ पूर्व देखी थीं, लेकिन व्यस्तता के कारण न तो पढ़ सका और न अपनी राय दे सका. आज ज्यों-ज्यों कविताओं का पाठ करता गया, अभिभूत से अभिभूततम की ओर बढ़ता गया. मुग्ध हुआ, लुब्ध हुआ, कहीं-कहीं छुब्ध हुआ और लीना जी के शब्द-प्रयोगों के आकर्षक प्रभावों से अपने को बचाते हुए कविता के भाव-पक्ष पर अपना ध्यान आरोपित करने का प्रयास किया. परंतु अंत में, मैंने महसूस किया कि कविता के कला-पक्ष और भाव-पक्ष को अलग-अलग करके देख पाना, कम से कम मेरे बस का तो नहीं है और मुझे पूर्ण विश्वास है कि अन्य पाठकों को भी ये समस्या हुई होगी. दोनों पक्ष इतने सशक्त हैं और आपस में इतने घुले-मिले हैं कि पाठक को केवल आकर्षित भर नहीं करते, बल्कि पाठक पर एक मोहक आक्रमण करते हैं, बिल्कुल सम्मोहन की तरह.

    लीना अपनी कविताओं में दिखावे के लिए 'लीन' नहीं होती हैं बल्कि कुछ इस तरह से लीन होती हैं कि दीन-दुनिया की खबर भी रखती हैं. "चाँद पर निर्वासन" और "एक माँ की प्रार्थना" कविताओं के भाव-शिल्प के अंतर से इस बात की पुष्टि होती है."एक माँ की प्रार्थना" सचमुच एक माँ की प्रार्थना है, दुनिया के सभी तरह के व्यापारों से अलग, सभी तरह की विचारधाराओं से अलग, सभी राजनैतिक, धार्मिक, सांस्कृतिक, सामाजिक मूल्यबोधों और नियमों से अलग केवल और केवल एक माँ की चिंता, उसके भाव और उसका ममत्व झलकता है इस कविता में, जो इस संसार की सबसे मौलिक, सबसे शुद्ध और सबसे सच्ची चीज़ों में से एक है परंतु "चाँद पर निर्वासन"....अद्भुत, अति सुंदर, अति-व्यस्थित, अति-आकर्षक रचना. शुरुआत से ही बाँध लेती है और अंत के बाद भी मुक्त नहीं करती, शायद इस संसार से निर्वासन के बाद भी मुक्त न करे :-). "मोहनजोदड़ो के सार्वजानिक स्नानागार में एक स्त्री स्नान कर रही है/प्रसव के बाद का प्रथम स्नान/सीढ़ियों पर बैठ कर देख रहे हैं ईसा, मुहम्मद, कृष्ण, मूसा और ३३ करोड़ देवी देवता/उसका चेहरा दुर्गा से मिलता है/कोख मरियम से/उसके चेहरे का नूर जिब्राइल जैसा है/उसने जन्म दिया है एक बच्चे को/जिसका चेहरा एडम जैसा, आँखे आदम जैसी, और हाथ मनु जैसे हैं/यह तुम्हारा पुनर्जन्म है हुसैन"...सुंदर...सुंदरतम...सत्यम...शिवम...सुंदरम.

    अन्य कविताएँ भी बेजोड़ हैं. अंत में कहना चाहता हूँ कि "जाओ लीना/अपने सफ़र पर आगे बढ़ो/ कविता के सफर में/तुम्हारी/यात्रा शुभ हो/मंगलमय हो."

    अरुण जी, आपकी नज़र ऐसी कविताओं के लिए हमेशा पारखी बनी रहे.

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  32. "AIK MAAN KEE PRARTHANA"Kathya,bhasha evam shilp kee drishti se man-mastishak ko mathdene valee aik adbhut kavya - rachana hai.Shesh kavitaon men mithakon ka pryog karte huye bhee aapne apne samay ko bakhuubee racha hai.Hridaya kee atal gahraeyon se badhai.
    -MEETHESH NIRMOHI,JODHPUR[RAJASTHAN].

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  33. हुसैन पर मैंने लीना जी से बेहतर कोई कविता नहीं पढी, ये अद्भुत हैं और हुसैन के मिथक को एक काव्‍यात्‍मक किंवदंती में बदलती हुईं। और मां की प्रार्थना में तो लीना जी ने कमाल किया है, इधर मेरी जानकारी में किसी मां ने आनी बेटी के लिए ऐसी विलक्षण कविता नहीं लिखी है। लीना जी को बहुत बहुत बधाई और शुभकामनाएं।

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  34. आज में संहारक हूँ ..गज़ब कविता है लीना बधाई आपको ..अरुण जी आभार आपका

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  35. बहुत दिनों बाद अच्छी कविताएं पढ़ीं !आत्मा तृप्त हो गई !

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  36. एक युवा कवि पर इतने उन्मुक्त और अकुंठ भाव से अपनी राय देने के लिए सभी प्रशंसा के पात्र हैं....आशा है हिंदी कविता का यह नया स्वर उत्तरोत्तर नयी उचाईयां प्राप्त करता जायेगा...इन कविताओं के बीच का सृजनात्मक ज्वार नयी उर्जा के साथ खुद को और चीज़ों को पहचानने और परिभाषित करने में लगा है...!...आने वाले समय में उसकी कविताओं पर बराबर निगाह रखने की जरूरत होगी...शुभकामनायें....!

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