कथा - गाथा :रिज़वानुल हक़

भारत सरकार ने ३० जून के बाद चवन्नी और उससे कम मूल्य के पैसों को बंद करने का निर्णय लिया है.

उर्दू के चर्चित युवा कहानीकार रिज़वानुल हक़ की यह नई कहानी चवन्नी के आस पास घूमती तो है पर यह छोटा सा सिक्का देखते देखते पुरानी पीढ़ी के रूपक में बदल जाता है. हाँ वही पुरानी पीढ़ी जो धीरे धीरे मंच से नेपथ्य में पहुँचती है और फिर भरे-पूरे घर में अदृश्य हो जाती है. तालिब चवन्नी के बहाने अपने वजूद के संघर्ष में मुब्तिला हैं. यह कहानी कुछ इस तरह बुनी गई है कि दिल में एक ज़बरदस्त हूक पैदा करती है. खासकर तालिब के ख्वाबों और बहम से गुजरते हुए. एक बूढ़े आदमी के एकांत का हौलनाक और जज्बाती मंजर सामने आता है.


Eastman Johnson


       चवन्नी            


दोपहर में सोते सोते अचानक तालिब की आँख खुली तो उन पर देर तक उस ख़्वाब का असर बाक़ी रहा जो उन्होंने सोते में देखा था. उस ख़्वाब में उनके माज़ी के कई हसीन दरीचे खुल गए थे. जब इस ख़्वाब का असर कम हुआ तो वह अपनी पुरानी चीज़ों में कुछ तलाश करने लगे. आज बरसों बाद उन्होंने अलमारी के उस खाने को खोला था. इसमें उनकी कई यादगार चीज़ें, जैसे तालीमी डिग्रियाँ, दोस्तों के दिए हुए कुछ तोहफ़े, मरहूम बीवी की कुछ तस्वीरें और एक माशूका के चन्द ख़त वगै़रह थे. बड़ी देर तक वह इन्हीं चीज़ों को देखते रहे. अचानक उन्हें अलमारी में चार आने का एक सिक्का पड़ा मिल गया, उन्होंने उसे उठाकर अपनी जेब में रख लिया. इसके बाद एक फिर वह उन्हीं चीज़ों में गुम हो गए. कुछ देर बाद उनके पोते लतीफ़ ने आकर कहा.

‘‘दादा जी मुझे पैसे दे दीजिए, मैं चाकलेट लूँगा.’’
उन्होंने दो रुपये निकाल कर उसे दिए और वह रुपये लेकर जाने लगा कि अचानक उन्हें चार आने का वह सिक्का भी याद आ गया और वह उसे निकाल कर बोले.
‘‘बेटे लतीफ़, लो यह भी रख लो.’’
लतीफ़ ने पहले तो हाथ बढ़ाकर सिक्का ले लिया. लेकिन जब उसने देखा वह सिक्का चार आने का है तो वापस करते हुए बोला.

‘‘दादाजी! इसका क्या करूँ? अब चवन्नी का कुछ नहीं मिलता, इसे तो आप ही रख लीजिए.’’
यह कह कर वह सिक्का उनके हाथ में दे कर बाहर चला गया. तालिब साहब हैरान खड़े कभी चवन्नी और कभी अपने पोते को देखते रह गए. फिर उन्होंने सिक्के को अपनी जेब मे वापस रख लिया.
तालिब साहब चार आने के बारे में सोचने लगे, उन्हें महसूस हुआ लतीफ़ ने जिस तरह चार आने लेने से इन्कार किया है, यह बदतमीज़ी में शुमार किया जाएगा. नहीं तो चार आने अभी इतने भी गए गुज़रे नहीं हुए हैं कि इन बच्चों के भी किसी लायक़ न हों. कुछ देर और सोचने पर उन्हें महसूस हुआ कि यह चार आने अपने पास रखना ठीक नहीं है और वह उसे ख़र्च करने की ग़रज़ से घर से बाहर निकल पड़े.

बाहर निकल कर सब से पहले उन्होंने फल ख़रीदे जो दस रुपये के हुए. जेब से पैसे निकाले तो चार आने का वह सिक्का भी निकल आया जिसे बड़ी बेदिली से उन्होंने जेब में वापस रखा. इसके बाद एक छोटे से होटल में जाकर चाए पी. जिसके तीन रुपये हुए. वहाँ भी बात नहीं बनी. थोड़ी दूर चलने पर एक पान की दुकान नज़र आई, उन्होंने सोचा चलो पान खता हूँ, मुमकिन है अब पान एक रुपये पच्चीस पैसे का हो गया होगा तो चवन्नी दे दूँगा. पान खाने के बाद जब उन्होंने क़ीमत पूछी तो उसने दो रुपये बताई. तालिब साहब ने पैसे निकाले तो चार आने का वह सिक्का फिर निकल आया और उन्होंने झुंझला कर उसे जेब में फिर वापस रख लिया. पान खाने के बाद उन्हें याद आया कि एक सिगरेट एक रुपये पच्चीस पैसे की मिलती है, इसलिए दुकानदार से सिगरेट देने को कहा और एक रुपये पच्चीस पैसे निकाल कर उसे देने लगे तो दुकानदार ने कहा.

‘‘दो रुपये हुए साहब.’’

यह सुनते ही उन्हें लगा जैसे चवन्नी का वह सिक्का बिच्छू बन कर डसने जा रहा हो. उन्होंने उसे हाथ से झटक दिया. और दो रुपये दुकानदार को दे दिए. इसके बाद कुछ सोचकर चार आने के उस सिक्के को फिर तलाश करके जेब में रख लिया और घर वापस आ गए. अगले कई दिनों तक वह चवन्नी ख़र्च करने के इरादे से घर से निकलते, लेकिन नाकाम होकर लौट आते. चार आने का वह सिक्का उन्हें हर वक़्त बेचैन किए रहता और घर में बैठने न देता. उन्हें कुछ ऐसा महसूस हो रहा था जैसे उस चवन्नी में कोई प्रेतआत्मा आ गई हो. इसलिए वह सोच रहे थे इसे जल्द से जल्द ख़र्च करना डालने में ही भलाई है. वह घर से न जाने क्या क्या योजनाएं बना कर चलते कि उस काम में ख़र्च कर दूंगा और अगर उसमें न भी ख़र्च हो सका तो फलां काम में तो ज़रूर ही ख़र्च हो जाएगर. लेकिन उस चवन्नी को ख़र्च करने की कोशिश में उन्होंने न जाने कितने रुपये ख़र्च कर दिए.

एक दिन वह बहुत उदास बैठे चार आने के बारे में सोच रहे थे कि अचानक उन्हें ख़्याल आया, मैं पिछले कई दिन से इतना परेशान हूँ, लेकिन मेरे बेटे या बहू ने मेरी ख़ैरियत तक नहीं पूछी और अब तो लतीफ़ भी मुझमे कोई दिलचस्पी नहीं लेता. अब बेटा तिजारत के सिलसिले में भी मुझसे कोई मशविरा नहीं लेता. सब कुछ अपनी मर्जी से करता है. क्या उसके दिल में मेरी अहमियत नहीं रही? क्या मैं किसी काम का नही रहा? और शायद उन पर बोझ भी. यह सोच सोच कर उनका दिल घबराने लगा. जब उनकी परेशानी ज़्यादा बढ़ने लगी तो उन्होंने उस तरफ़ से अपना ध्यान हटाने के लिए लतीफ़ को पुकारा.

‘‘बेटा लतीफ़!’’
लतीफ़ बाहर से दौड़ता हुआ अन्दर आया.
‘‘जी दादा जी.’’
‘‘क्या कर रहे थे?’’
‘‘बाहर खेल रहा था.’’
‘‘चलो मैं भी तुम्हारे साथ खेलता हूँ.’’
‘‘हा हा .... हा हा .... ही ही ....’’

लतीफ़ ने बहुत तेज़ क़हक़हा लगाया. तालिब साहब हैरान व परेशान हो गए कि इसमें इतनी तेज़ हँसने की क्या बात है. आखि़रकार उनसे रहा न गया और उन्होंने पूछा.
‘‘क्या हुआ इतनी तेज़ हँस क्यों रहे हो?’’
‘‘आप मेरे साथ कैसे खेल सकते हैं? मैं इतनी तेज़ दौड़ता हूँ और आप इतनी धीरे धीरे चलते हैं.’’
यह कह कर लतीफ़ तेज़ी से दौड़ता हुआ चला गया.
‘‘माफ़ करना बेटा, मुझे याद नहीं रहा था कि अब मैं तुम्हारे साथ खेलने के लायक़ नहीं रहा! अच्छा जाओ तुम अपने दोस्तों के साथ खेली.’’
लेकिन लतीफ़ उनके कुछ कहने से पहले वहाँ से जा चुका था. इस वाक्ये के बाद वह और भी बेचैन रहने लगे.

रात में उन्हें ख़्याल आया कि बहुत दिनों से बेटी से कोई बातचीत नहीं हुई है. शायद उससे बात करने से कुछ बेचैनी कम हो. यह सोचकर वह बाहर पी. सी. ओ. पर अपनी बेटी से बात करने चले गए. उन्होंने रास्ते में सोचा कुछ दिन के लिए उसे घर बुला लेता हूँ, तबीयत बहल जाएगी. फ़ोन पर उनकी बेटी ने अपने बच्चों की पढ़ाई की वजह से घर न आ सकने की मजबूरी बताई. फ़ोन करने के बाद जब उन्होंने बिल देखा तो तीस रुपये चैबीस पैसे हुआ था. उन्होंने तीस रुपये निकाले और जल्दी से वह चवन्नी भी देने लगे तो पी. सी. ओ. वाले ने कहा.

‘‘इसे रहने दीजिए इसकी कोई ज़रूरत नहीं है.’’
‘‘रहने क्यों दें? जब पूरे पैसे हैं तो क्यों न दूँ?’’
‘‘अब फ़ालतू चीज़ों को, जिनकी कोई अहमियत न हो उसे अपने पास रख कर कोई अपना बोझ क्यों बढ़ाए. अब इसे कौन पूछता है?’’

‘‘तुमने मुझे समझ क्या रखा है? मेरे बच्चे हैं, बहू है, पोता है, नवासे हैं. मेरा अपना बनाया हुआ घर है, कारोबार है, मैं किसी पर बोझ नहीं हूँ. मैं ने जि़न्दगी में बहुत कमाया है और अब अपना कारोबार बेटे को सौंप दिया है तो इसका मतलब यह तो नहीं हो जाता है कि मैं फ़ालतू चीज़ हो गया हूँ’’

‘‘आप भी बात का बतंगड़ बना रहे हैं, मैं ने फ़ालतू चीज़ आप को नहीं चवन्नी को कहा था.’’
इस तरह तालिब साहब फिर वापस घर चल दिए और वह चवन्नी उन्हीं के पास रह गई. रास्ते भर वह बड़बड़ाते रहे.

‘‘हुँह चवन्नी को कहा है, जैसे मैं कुछ समझता ही नहीं. झूठे कहीं के, मेरा क्या है? कुछ दिन की जि़न्दगी और है, किसी न किसी तरह गुज़र ही जाएगी. अल्लाह ने चाहा तो मुझसे भी बुरा हाल होगा इन हरामज़ादों का.’’
रात में उन्हे देर तक नींद न आ सकी, करवटें बदलते रहे और सोचते रहे अपने माज़ी के बारे में, जवानी की शुरुआत में .... जब गाँव में उनकी ज़मीनदारी चलती थी. ज़मीनदारी खत्म होने पर उन्होंने शहर में आकर अपना कारोबार शुरू किया था.

‘‘साहब यू खेत जोत डाली तो चवन्नी का काम होय जई.’’
‘‘अबे लक्खू जानता है चार आने में एक बार के खाने का एक हफ़्ते का ग़ल्ला मिलता है. और तू बस एक दिन में चवन्नी का काम कर लेना चाहता है. तू अपना काम कर और यह हिसाब किताब मुझ पर छोड़. जब चार आने पूरे हो जाएंगे तो दे दूँगा.’’
 ...... पास वाले क़स्बे की ख़ानम बाई की क्या धूम थी. उसके मुजरे की दूर दूर तक शोहरत थी. स्कूल से जब मैं पहली बार मुजरा सुनने गया था तो चार आने ही दिए थे.

वह भी क्या ज़माना था, क्या शान थी मेरी भी और चवन्नी की भी. जिधर से गुज़रता था लोग झुक झुक कर सलाम करते थे. लेकिन अब न कोई मुझे पूछता है और न चवन्नी को. या अल्लाह तू क्यों मुझे ऐसी जि़ल्लत भरी जि़न्दगी जीने पर मजबूर कर रहा है. इससे तो अच्छा था मुझे मौत ही आ जाती. यह जि़न्दगी भी कोई जि़न्दगी है. और सरकार को क्या हो गया है. जब चार आने की कोई चीज़ मिलती ही नहीं तो उसे जारी क्यों रखे है. बन्द क्यों नहीं कर देती? वह ज़रूर मुझे चिढ़ाने के लिए ही अब चवन्नी चला रही है.
चवन्नी की सही सूरते-हाल क्या है? यह जानने के लिए वह एक दिन रिजर्व बैंक पहुँच गए और वहाँ के एक बड़े बाबू से मिले.

‘‘अब चवन्नी चलती है या नहीं.’’
‘‘कभी आस्मान की तरफ़ ग़ौर से देख है.’’
‘‘हाँ देखा है.’’
‘‘कैसा दिखता है.’’
‘‘नीला, ज़मीन को चारों तरफ़ से ढके हुए.’’
‘‘शायद आपको मालूम नहीं, आस्मान जैसी किसी चीज़ का कोई वजूद नहीं होता और न उसका कोई रंग होता है. सिर्फ़ एक शुन्य होता है.’’
‘‘वह तो मुझे मालूम है.’’
‘‘इसी तरह बहुत सी चीज़ें महसूस होती हैं, दिखाई भी देती हैं, लेकिन होती नहीं हैं.’’
‘‘जैसे?’’
‘‘कभी आईने में अपना चेहरा देखा है?’’
‘‘क्या मतलब? आप कहना क्या चाहते हैं?’’
‘‘बात बहुत साफ़ है. आईना देखने वाले को लगता है कि वह उस आईने में मौजूद है. लेकिन दर हक़ीक़त आईने में वह होता नहीं है. इसलिए आँखों देखी पर कभी एतबार न करें, समझ गए.?’’
तालिब साहब ने जब कोई जवाब नहीं दिया तो उसने फिर पूछा.
‘‘कभी रेलगाड़ी से सफ़र किया है?’’
‘‘हाँ किया है.’’
‘‘खिड़की से बाहर पेड़ों को तेज़ रफ़्तार से भागते हुए देखा है?’’
‘‘हाँ देखा है.’’
‘‘वह भी भागते नहीं हैं, जमे खडे़ होते हैं. समझ गए या और समझाऊँ? गरमियों में किसी रेगिस्तान में गए हैं?’’
‘‘बस .... बस बाबा बस, समझ गया.’’
‘‘फिर आप तशरीफ़ ले जा सकते हैं, मैं आपकी तरह बेकार नहीं हूँ, मेरे पास बहुत काम हैं.’’

मजबूर और शर्मिन्दा होकर तालिब वहाँ से वापस घर चले आए. वह एक सीधे सादे सवाल को लेकर वहाँ गए थे, लेकिन उस बाबू ने उसका जवाब देने की बजाए ऐसा समझाया कि वह कई और सवालो में मुबतला हो गए. इस सबका अन्जाम यह हुआ कि वह हर चीज़ को शक की निगाहों से देखने लगे. वह कुछ भी देखते तो सोचते पता नहीं यह चीज़ हक़ीक़त में है भी या सिर्फ़ उसके होने का वहम है. कहते हैं यह ज़मीन घूम रही है इसलिए इस पर मौजूद हर चीज़ घूम रही होगी. फिर यह ज़मीन और सारी चीजे़ं ठहरी हुई क्यों हैं? मालूम नहीं यह घर, यह कमरा, यह सारे सामान इन सबकी सच्चाई क्या है? ख़ुद मैं भी हूँ या नहीं हूँ. कहीं मैं भी तो भागते हुए पेड़ों की तरह, आईने के अक्स की तरह और नीले आस्मान की तरह ही तो नहीं हूँ? अब इसका फै़सला कैसे हो? मैं ख़ुद इसका फै़सला कर नहीं सकता और दूसरों का वैसे भी क्या एतबार? अगर दूसरे लोग क़ाबिले-एतबार हों भी तो इस बात का क्या एतबार कि उनकी आँखें धोका नहीं खा रही हैं? उस बाबू ने कहा था कि आँखों देखी पर एतबार न करना. बात तो ठीक ही कह रहा था लेकिन फिर किसका एतबार करें?
वह इन्हीं ख़्यालों में गुम थे कि अन्दर से बहू की आवाज़ आई.

‘‘पापा! खाना लाई हूँ.’’
लेकिन उन्होंने उसकी आवाज़ पर कोई ध्यान नहीं दिया. कोई जवाब न पाकर वह कमरे में आ गई. उन्हें सर पकड़ कर बैठे देख कर बोली.

‘‘क्या हुआ पापा? क्या सर में दर्द है, तेल लगा दूँ?’’
‘‘तुम ..... कौन हो तुम? क्या चाहती हो?’’
‘‘पापा मैं हूँ, इधर देखिए, मुझे नहीं पहचाना? मैं आपकी बहू, भूक नहीं लगी? खाना लगा दूँ.’’
‘‘वह तो मैं देख रहा हूँ लेकिन देखी हुई बातों पर मुझे यक़ीन नहीं.’’
‘‘पापा यह क्या कह रहे हैं आप? अगर अपनी आँखों देखी पर यक़ीन नहीं, तो फिर किस पर यक़ीन है?’’

‘‘मुझे किसी पर यक़ीन नहीं है, यह सब फ़रेब है, माया है. लकिन यह याद रखना मैं अभी जिन्दा हूँ. रुको मैं अभी तुम्हें अपने होने का सुबूत दिए देता हूँ.’’

यह कह कर वह कमरे का सामान उठाकर फेंकने लगे. पानी से भरा ग्लास फेंक दिया, अपने कपड़े फाड़ डाले. शीशे की कुछ किरचियाँ उनके पैर से टकराईं जिससे उनके पैर से ख़ून बहने लगा. उसके बाद बोले.

‘‘देखो, अगर मैं यहाँ मौजूद न होता तो यह सब कैसे करता?‘‘

बहू ने घबराकर अपने शौहर को फ़ोन कर दिया, थोड़ी देर में तालिब साहब का बेटा आ गया. उसने उन्हें अस्पताल ले जाकर भर्ती करा दिया. वहाँ उनकी पूरी जाँच हुई, कोई ख़ास बीमारी न निकली. डाक्टर ने बताया इनकी सही देख भाल की ज़रूरत है. सही वक़्त पर खाना और सोना होना चाहिए. जहाँ तक मुमकिन हो उनको तनहा मत छोडि़ए. शाम को वह वापस घर आ गए.

डाक्टर ने नींद की गोलियाँ भी दे दी थीं. इसलिए वह शाम को ही सो गए और रात भर सोते रहे. सुबह जब वह नींद से जागे तो सोते सोते इतना थक चुके थे कि कुछ देर तक जागने के बाद भी उनके पूरे जिस्म में कहीं जुंबिश न हो सकी. रात भर वह अजीब अजीब से ख़्वाब देखते रहे थे. इसलिए दिमाग़ भी सही से काम नहीं कर रहा था. उन्हें न वक़्त का सही एहसास था न मक़ाम का. वह आँखें बन्द किए नीम ख़्वाबी की कैफि़यत में मुबतला रहे. इतने में उन्हें अपने पैर पर कुछ रेंगता हुआ महसूस हुआ, जब ग़ौर किया तो महसूस हुआ कि चींटियाँ रेंग रही हैं. वह पैर के उस हिस्से की तरफ़ जा रही थीं जहाँ उन्हें चोट लगी थी. उनके दिमाग़ में अचानक सवाल उभरा, कहीं मैं मर तो नहीं चुका, जो चींटियाँ अपना हिस्सा लेने आ गई हों. वरना चींटियाँ जि़न्दों को तो ऐसे नहीं चाटती हैं.
मैं इस वक़्त पता नहीं कहाँ हूँ? क़ब्र में हूँ या ऐसे ही कहीं पडा़ सड़ रहा हूँ? लेकिन मैं सोच कैसे रहा हूँ? तो क्या अभी रूह जिस्म में है? या मरने के बाद भी इन्सानी रूह जि़न्दों की तरह सोच सकता है, क्या मैं ख़ुदा के सामने पेश किया जा चुका हूँ और जन्नत या जहन्नम में हूँ?
वह अभी इसी फि़क्र में गुम थे कि उनकी बहू ने आकर कहा.

‘‘पापा चाए लाई हूँ.’’
‘‘कौन हो तुम? ...... मैं जन्नत में हूँ या जहन्नम में?’’

यह सुनते ही बहू घबरा गई, उसके हाथ से चाए की प्याली छुट गई और थोड़ी सी चाए तालिब साहब के ऊपर भी गिर गई. गर्म गर्म चाए गिरते ही उनकी ख़्वाबीदा कैफि़यत टूट गई और वह एकदम से घबरा कर उठ बैठे. जब थोड़ी देर में उनकी तबीयत मामूल पर आई तो बड़े अफ़सोस के साथ बोले.
‘‘अरे बेटी तुम हो, माफ़ करना मैं एक ख़ौफ़नाक ख़्वाब देख रहा था. क्या बात है बेटी? आज बहुत जल्दी चाय लेकर आ गयीं?’’
‘‘जल्दी कहाँ, वक़्त से ही तो आई हूँ. वह चाय तो गिर गई मैं दूसरी चाय लेकर आती हूँ.’’
उसके जाते ही वह उस ख़्वाब के बारे में सोचने लगे और फिर उन पर एक अजीब सी बेचैनी तारी होने लगी. थोड़ी देर में बहू चाय लेकर आ गयी.

‘‘चाय लीजिए पापा, आपकी दवाई भी लाई हूँ, बिस्कुट खाकर दवाई खा लीजिए, जल्दी ठीक हो जाएंगे.’’
‘‘मैं नहीं मानता. तुम कैसे साबित कर सकती हो कि यह दवा ही है, मैं तुम लोगों को ख़ूब समझता हूँ. यह मत समझना कि मैं किसी काम के लायक़ नहीं रहा. मैं अभी सब कुछ कर सकता हूँ. यह घर मेरा है, बिज़नेस मेरा है, याद रखना! सच्चाई सिर्फ़ वही नहीं होती है जो दिखाई देती है.’’
इतने में उनका बेटा भी आ गया, उसे देखते ही वह गरज पड़े.

‘‘तुमने मुझे समझ क्या रखा है? आईने का दर्पण? मृग मरीचिका या नीला आसमान? मैं हक़ीक़त हूँ! हक़ीक़त. मैं कुछ भी कर सकता हूँ. यह घर मेरा है, मैं तुम्हें अपने घर से निकाल दूँगा. तुम सबने मुझे मुर्दा समझ लिया है. मेरी बेटी ने तो मुझे शादी होते ही भुला दिया. उसने कब से मेरी ख़ैरियत तक नहीं मालूम की, जैसे मैं मर चुका हूँ.’’
यह कह कर वह फूट फूट कर रोने लगे. थोड़ी देर तक रो लेने के बाद उनके दिल का ग़ुबार कम हुआ तो उनकी तबीयत कुछ ठीक हुई. कुछ देर बाद उनकी बेटी भी आ गई जिससे दिल और भी हल्का हो गया. दोपहर में तालिब साहब ने अपनी बहू को पुकारा.

‘‘बहू ज़रा यहाँ आइए.’’
‘‘जी! पापा जी.’’
‘‘मैं जब कल बीमार हुआ था ...... मेरी जेब में एक चवन्नी थी, वह कहाँ है?’’
‘‘हाँ ..... हाँ मेरे पास है. क्या पैसों की ज़रूरत है पापा? कितने पैसे चाहिए?’’
‘‘नहीं ..... मुझे बस वही चवन्नी चाहिए. तुम कौन बड़ी आयीं मुझे पैसे देने वाली.’’
‘‘वह तो मैंने कहीं रख दी, ढूढ़नी पड़ेगी, चवन्नी ही तो थी, इसलिए मैंने ज़्यादा ध्यान नहीं दिया.’’
‘‘तो ढूढ़ो! मुझे वह चवन्नी अभी चाहिए, जाओ अभी ढूँढ़ के लाओ.’’
शाम को वह बैठे हुए थे कि उनकी बहू ने आकर कहा.
‘‘पापा आप के लिए चाए लाई हूँ और आप की चवन्नी भी मिल गयी.’’
‘‘कहाँ है? लाओ देखूँ, जल्दी लाओ. बहुत अच्छा हुआ, ठीक है अब तुम जाओ.’’
बहू के जाते ही वह बेतहाशा चवन्नी को चूमने लगे और उससे बोले.
‘‘कहाँ खो गए थे मेरे दोस्त? एक तुम ही तो हो जो मेरा दर्द समझते हो. अगर तुम भी चले गए तो मैं कैसे जि़न्दा रहूँगा?’’

रात में वह ठीक से सो न सके. सुबह वह आम तौर पर बिस्तर पर पड़े रहते थे. अख़बार बहुत सुबह आ जाता था लेकिन वह उसे उठाने कभी न जाते थे. उस सुबह वह अख़बार वाले की राह तकते रहे. जैसे ही अख़बार आया उन्होंने लपक कर उसे उठा लिया. पहले पेज पर बाक्स में एक छोटी सी लेकिन बड़ी सुरखी के साथ ख़बर थी.

‘‘हुकूमत ने चवन्नी बन्द करने का फ़ैसला कर लिया.’’

                







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  1. लाजवाब कहानी...एक सांस में इसे पढ़ गया और आखिर में आँखों की कोरें गीली हो गयी...रिजवान साहब की इस बेहतरीन कहानी के लिए जितनी तारीफ़ की जाए कम होगी...

    नीरज

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  2. बहुत सुंदर कहानी है। आज के संदर्भ में। भाई ऐसी कहानियां कभी कभी पढने को मिलती हैं। शुभकामनाएं।

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  3. Bahut shaandaar aur marmsparshi kahani hai.'Chavanni' ke faalatupan ke saath naayak kis tarah apne aapko identify kar letaa hai, yah badaaa svaabhaavik hai aur karunaa jaagrit karane wala bhi. taalib ne jis tarah 'irony' ko ubhaaraa hai, vah adbhut hai. 'Chavanni' kharch karane ke chakkar mein kitanaa zyaadaa kharch kar chukane ke baad jo avasaad unhein gras ketaa hai uska chitran bemisaal hai. Taalib ko mubarakbaad, aur Arun Dev ko dhanyavaad.

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  4. बहुत ही मार्मिक कहानी है...अचानक जैसे हम कहानी के पात्र भी होजाते हैं और उसे बाहर खड़े भी महसूस कर रहे होते हैं... ..

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  5. naye mijaz ki kahani hai. andaje bayan kya khub hai.

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  6. tamam doston ka shukriya, jinhone kahani padhi aur jo apni masroofiyat ki wajah se abhi nahin padh saken hain lekin jald hi padhane wale hain. Main apne navjavan kahani karon (jinhone abhi kahani likhani shuru ki hai) se khas taur se kahoonga ki wo yah kahani padhe, shayad is kahani ko padh kar kuch seekhne ko mile.

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  7. Rizvan Bhai,
    MAine aapki kahani 'Chavanni' padhi, thodi der se. Kya shandar kahani hai,sach men. Main ek baar men puri kahani padh gya aur aakhir men to main dambakhud rah gya. Lazwab kahani hai. Yah aapki pichli kahani ke banisbat mujhe zyada pasand aayi. Bahut bahut mubarak ho. Aisi kahaniya likhte rahen.

    Dilli kab aa rahe hain??

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  8. जानदार शानदार खनकती हुई कहानी ..मेरे हाथों में चवन्नी महसूस कर रहा हूँ ...

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