निलय उपाध्याय :२८- जनवरी,१९६३, आरा (बिहार)
कवि - लेखक
अकेला घर हुसैन का (१९९४), कटौती (२००१) : कविता संग्रह
अभियान (२००५) : उपन्यास
निराला सम्मान.
मुंबई में रहते हैं. पटकथा लेखन.
ई-पता: nilayupadhayay@gmail.com
निलय उपाध्याय की कविताओं में गाँव अलंकरण नहीं है. वहां आपको सजावट के देशज उपकरण न मिलेंगे. ये कविताएँ दूर से समाज के इस मटमैले यथार्थ को नहीं देखती, ये तो यहीं से फूटती हैं, इसी गोबर-सानी के बीच, और फैल जाती हैं छानी-मचान पर अयास, लौकी की लतर की तरह.
बाहर – भीतर के अप्रवास से जूझती इन कविताओं में असलियत का वह गहरा दर्द है जो हलक में कुछ इस तरह रुद्ध जाता है कि बेस्वाद हो जाता है ‘कचहरी का मीठा रसगुल्ला’ भी.
वह
जो पचास पैसों में मांग रहा है आधी कप चाय
साठ की जगह तीस भी मिले तो खटेगा दिन भर
उसकी बगल में खड़े तीन खाना लेकर आए है, वे फिजूल की
चाय में एक रूपया गंवाना नहीं चाहते, उधर दातून बेचने वाले से पूछ रहा है एक
कितना बच जाता है दिन भर बेचने के बाद
बेटे को भी कल से ले आएगा
सोचता हुआ टहलता है एक, मैट्रिक पास कर कौन सा तीर
मार लिया उसने, जो मारेगा उसका बेटा, लाट मिल जाय
और जुगाड़ हो जाय रूपयों का तो कोने में खड़े दस
पकड़ लेंगे सोमवार को पंजाब मेल
अगर वहां खड़ा होता
तो उसे ही ले जाते ठेकेदार के आदमी , कमीशन थोड़ा
कड़ा है तो क्या हुआ-रोजी तो होती उसके पास
सस्ते मकान का किराया पूछता है, खोजता है कोढ़
कालोनी में जगह, बीबी और दो बच्चें का
खर्च क्या पता, कब क्या हो जाय
नाक में कील की तरह चुभती है
गांव में सांस
आरा स्टेशन के चैक पर
एक से एक सौ गांव के राजमिस्त्री, बढ़ई और मजूर
सायकिल का पैंडल मारते, पैदल, जमा होते है रोज सुबह
फांकते है पोटली में बंधा भूजा, एक कप चाय में हाफ कर पीते है
देखते है हर आने-जाने वालों को ललक भरी निगाह से
मानों कह रहे हो- पूरा आठ घंटा खटेंगे हजूर
डेढ़ दिन काम एक दिन में करेंगे
कुछ कम भी
दीजिएगा तो चल जाएगा काम
ये वरूण के बेटे हैं
इनकी हथेलयां हल की मूठ पर नहीं है
इनके खुर्पी की धार पर नहीं चढ़ती कोई घास
इनके हंसिए के दांत और पकी फसलों के बीच कोई रिश्ता नहीं
बदलती हुई दुनिया के छल-छद्म से अनजान, रोज ही
आ जाते हैं आरा स्टेशन के चैक पर
इनके प्लास्टिक की चप्पलों और सायकिल के टायरों से रोज ही
उड़ती है सड़क पर धूल
किसी को नहीं दिखाई देता उनका चेहरा,
किसी को भी नहीं सुनाई देती उनकी चीख
वे तलाश रहे है रोपने के लिए पांव के तलवों भर जगह
और सांस भर
हवा, जिन्दा रहने के लिए
अरे हाँ
मैं यह तो बताना भूल ही गया कि
अकलू चाचा और लालसा लोहार कल से नहीं आएँगे यहां
छह दिनों तक खाली पड़े हाथों ने खोज लिया है रास्ता
जूता के लिए
चमड़ा काटने वाले अकलू चाचा के सधे हाथ
अब गांव मे दारू चुआते हैं
और लालसा की भट्ठी में पकता है पाइप गन का लोहा.
खेती नहीं करने वाला किसान
खेती नहीं करने से चलता है अब
खेती करने वालों का काम
खेती नहीं करने वाला किसान
सबसे पहले उखाड़ता है, दरवाजे पर धंसा खूंटा
तोड़ता है नाद और बैल बेचकर चुकाता है महाजन का कर्ज
खेत को पट्टे पर लगाते, अनाज खरीदते वह जोड़ लेता है
साल भर के खर्च का हिसाब
इस तरह उसके रक्त से निकलती है
जाने कब से घात लगाकर बैठी हताशा
मुर्गे की पहली बांग के साथ
वह जागता है और बैलों की जगह सायकिल निकालता है
पोछता है हैंडल , कैरियर में टिफिन दबा ट्यूब की हवा का
अनुमान करता है और निकल जाता है
शहर ले जाने वाली सड़क पर
सड़क के
दोनों और पसरे खेत उसे नहीं दीखते
उसे नहीं दिखाई देते फसलों पर टंगे ओस-कण
उसे नहीं सुनाई देती चिड़ियों की आवाज,
उसे सनाई देती है
देर से पहुचने पर मालिक की डांट
काम से हटा देने का धमकी
कान पर
वह कसकर लपेटता है गुलबंद
फेफड़े की पूरी ताकत से मारता पैडल ,
समय से पहले पहुचता है और जीवन का मोल देकर
छुपा लेना चाहता है यह राज कि डूब गई है
डूब गई है
सदियों के तट पर बंधी उसकी नाव
कि खेती नहीं करने से चलता है
खेती करने वालों का काम.
बेदखल
मैं एक किसान हूँ
अपनी रोजी नहीं कमा सकता गांव मे
मेरा हॅसुआ , मेरी खुर्पी
मेरी कुदाल और मेरी, जरूरत नहीं रही
अंगरेजी जाने वगैर संभव नहीं होगा अब
खेत में उतरना
संसद भवन और विधान सभा में
मुझ पर ब्यंग कसते है
हंसते है
मेरे चुन हुए प्रतिनिधि
मैं जानता हूँ
बेदखल किए जाने के बाद
चैड़े डील और उॅची सिंग वाले हमारे बैल
सबसे पहले कसाइयों द्वारा खरीदे गए
कोई कसाई
कोई कसाई कर रहा है
मेरी बेदखली का इंतजार
घर के छप्पर पर
मैंने तो चढ़ाई थी लौकी की लतर-
यह क्या फल रहा है
मैंने तो डाला था अदहन में चावल-
यह क्या पक रहा है
हमने तो उड़ाए थे आसमान में कबूतर -
ये कौन छा रहे है
मुझे कहां जाना है-
किस दिशा में
बरगद की छांव के मेरे दिन गए
नदी की धार के मेरे दिन गए
मां के आंचल सी छांव और दुलार के मेरे दिन गए
सरसो के फूलों और तारों से भरा आसमान मेरा नहीं रहा
धूप से
मेरी मुलाकात होगी धमन भट्ठियों में
और हवा से कोलतार की सड़कों पर
और मेरा गांव ?
मेरा गांव बसेगा
दिल्ली मुबंई जैसे महानगरों की
कीचड़- पट्टी में .
थोड़ा सा
रूको
एक पल के लिए रूक जाओ सूर्य
क्या तुम लौटा सकते हो ,
मेरे रक्त में थोड़ी सी रोशनी
थोडा सा घूप
रूको...
तुम भी रूको पृथ्वी
क्या तुम दे सकती हो उघार,
मेरी त्वचा के लिए थोड़ा सा किरासन
यहां ठंढ बहुत है
उफान पर है पतझर ,
सूखे कीचड़ की
पपड़ी सी उघड़ रही है चमड़ी ,
सारा कुछ ठंढा और जग गया है,
मेरी इतनी सी मदद करोगे
वर्फ हो चुकी है मेरे भीतर की हलचल
बोलों-
दे सकोगे इस वक्त मुझे
थोड़ा सा किरासन, थोड़ी सी धूप
तुम ही कहो
जहां ऐसी हो ठंढ की मार
कि काटे न कटे प्याज,
मुश्किल हो निचोड़ पाना नीबू ,
कहो-किसे दूँ आवाज
कैसे बचा लूँ उम्मीद का यह सिरा
थोड़ा सा
किरासन दो मेरी त्वचा के लिए
मेरे रक्त के लिए थोड़ी सी धूप
जो पहुंचा सके मुझे
इस ठंढ भरे समय मे
नए पड़ाव तक
ओ मेरे भीतर उगने वाले
सूर्य
ओ मेरे चुल्हे पर
रोटियों सी गोल होकर फूलने वाली पृथ्वी .
बहुत अच्छी कविताएं.. गांव के यथार्थ को रेशा-रेशा समझने वाली ये कविताएं बेहद मार्मिक बन पडी हैं... निलय के यहां गांव की एक-एक चीज बोलती बतियाती है और उसके बीच एक किसान का लड़का जो हर चीज को संजीदे से अपनी कविताओं में पकड़ता है...बधाई....
जवाब देंहटाएंअरुण जी....बेहद ब्यां करने वाली इन कविताओं से संवाद कराने के लिये आपका धन्यवाद...आरा के सूखे खेत, बेरोजगार हाथ और भूखे पेट..जैसे भारत भर की कहानी इण्डिया से कह रहे हों..और जिस जुंबा में ये बोल रहे है..आवाज़ लगा रहे हैं..हाहा कार मचा रहे हैं..उस भाषा को कोई जानता ही नहीं है..दिल्ली आते आते उनके संवाद किसी गाडी के सायलेंसर पर चिपके धुँए की गाद भर बन के रह जाते हैं..
जवाब देंहटाएंबेहद प्रभावशाली कवितायें हैं..आंख के साथ साथ सांस भी थम गयी थी..कुछ देर के लिये. सादर
सभी कविताएँ बहुत मार्मिक और मिट्टी की गंध से भरी हुई है। निलय जी को बधाई और अरुण भाई का आभार।
जवाब देंहटाएंनिलय उपाध्याय के इस कविता को हम तक सामने लाने के लिए अरूण देव को धन्यवाद ।निलय की कविता की भट्टी में ही एक साथ चाय,दारू व पाइप गन मिल सकता है ।निलय ही अपने हिस्से का 'थोडा सा' धूप व रोशनी साधिकार सूर्य व धरती से मॉग सकते हैं ।
जवाब देंहटाएंनिलय की कविताओं ने मुझे हमेशा रोका है। हाथ पकड़ कर पास बिठाया है। मैं उनको पढ़ कर कुछ न कुछ जरूर पाता हूँ। कटौती और अकेलाघर हुसैन का मेरे पसंद के संग्रह हैं...मेरा कविता संग्रह हम जो नदियों का संगम हैं और निलय जी की किताब कटौती एक साथ लोकार्पित हुए थे....आपको इन कविताओं की प्रस्तुति के लिए धन्यवाद....बस एक बात कि ऐसा क्यों लग रहा है कि ये कविताएँ पढ़ी हैं...
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी कविताएँ... कुछ कविताएँ पहले पढ़ चुका हूँ... मजदूर तो शायद इंदिया टूडे के वार्षिकांक में आई थी... उस समय आरा सहीत हर जगह चर्चा हुई थी इस कविता का....
जवाब देंहटाएंअरुणजी,कवितायेँ पढते वक़्त गोर्की कि वो पंक्तियाँ याद आ गईं , जो उन्होंने ‘’मेरा बचपन’’के दूसरे परिच्छेद में लिखी थीं ‘’मैं अपनी नहीं ,उस दमघोंट और भयानक वातावरण की कहानी कहने जा रहा हूँ,जिसमे साधारण रुसी अपना जीवन बिताता था,और बिता रहा था ....कहीं कहीं प्रेमचंद का पात्र ‘’गोबर’’भी कौंधता रहा ...!धन्यवाद .....निलय जी कि कविताओं के लिए !
जवाब देंहटाएंसभी कविताएँ.... एक से बढ़कर एक।
जवाब देंहटाएंनिलयजी उन चंद समकालीन कवियों में है जिन्हें पढ़ना मुझे पसंद है. मजदूर और किसानों के दुःख दर्द की ये कविताएं बहत ही उम्दा हैं.
जवाब देंहटाएंNilay ji!
जवाब देंहटाएंaapki kavitaayein intnee prerna de jaati hain ki mat poonchhiye! maine apne kisorvay me aapko padha tha pahli baar!
aag paida karne ki aakhiri koshish thee shaayad!
aur tab se aapka kaayal hun!
aaj aapko yahaan paakar nihaal ho gaya!
:)
चलो वीर
चलो चलते हैं,
चलते हैं उस ठावं
छोड़ अपना
गाँव,
अपना घर
अपने खेत
तीन साल की बेटी
खांसती बीवी
अँधा बूढ़ा बाप
सब छोड़!
छोड़ के चल
गाँव की तलैय्या
सोती हुयी डहर
पसरा हुआ बाग़
सब छोड़!
चल वीर
चलते हैं
शहर...
तोड़ते हैं अपने
बदन
अपनी उम्मीदों के साथ,
चलते हैं
भूखी आँतों का
राग सुनने
सुलगती दुपहरियों पर
प्यास भुनने,
चल
कुछ तिजोरियों को
जरूरत है
हमारे खून की !!
*amit anand
थोड़ा सा नहीं...बहुत सा...बहुत सा है यह...बहुत सा दरक गया है मेरे भीतर इन कविताओं को पढ़ने के बाद......निलय जी मेरे फ़ेवरेट हुए जाते हैं...बस एक बात का अफसोस है कि बहुत देर से पहुंची मैं यहाँ तक ....
जवाब देंहटाएंसुनीता
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