सबद - भेद : अपने साक्षात्कारों में नागार्जुन : श्रीधरम









‘जनता मुझसे पूछ रही है क्या बतलाऊँ,
जनकवि हूँ मैं साफ़ कहूँगा क्यों हकलाऊँ.'

हिंदी, मैथिली, संस्कृत, और बांग्ला में रचने वाले जन कवि नागार्जुन (३० जून १९११-५ नवंबर १९९८) की आज पुण्यतिथि है.  रचनाकार अपने समय और समाज के साथ किस तरह खड़ा होता है यह देखना हो तो नागार्जुन को पढना चाहिए. चाहे साम्राज्यवाद हो, वैचारिक अधिनायकवाद हो, या तानाशाही वह सत्ता के ख़िलाफ खड़े रहे.
नागार्जुन सतत विपक्ष के कवि हैं.


उनके  साक्षात्कारों पर आधारित इस आलेख में युवा रचनाकार श्रीधरम ने नागर्जुन को मूर्त कर दिया है. अपने पूरे धज और त्वरा के साथ वह यहाँ उपस्थित हैं. 


हमने तो रगड़ा है, इनको भी, उनको भी                          
(अपने साक्षात्कारों में नागार्जुन)
श्रीधरम


नागार्जुन की रचनात्मक ताकत उनके व्यक्तित्व के दोटूकपन से आती है. वे हिंदी के उन बिरले रचनाकारों में से हैं जिनके व्यक्तित्व और कृतित्व में कोई फांक नजर नहीं आता. अमूमन अपने साक्षात्कार में रचनाकार लाभ-हानि को ध्यान में रखकर जवाब देता है पर नागार्जुन इसके अपवाद हैं. वे जितनी प्रखरता से दूसरों पर टिप्पणी करते हैं उतनी ही तटस्थता से अपने अंतर्विरोधों पर भी बात करते हैं. यही कारण है कि नागार्जुन से साक्षात्कार लेने वाला कभी उन पर हावी नहीं हो सकता या उनको अपने प्रश्नों के घेरे में उलझा सकता. वे अपनी रचनाओं में जितनी प्रखरता से सांप्रदायिक राजनीति पर प्रहार करते हैं उतनी ही तीक्ष्णता से कम्युनिष्ट चीन की भी. वे जयप्रकाश के साथ भी होते हैं और विरोध में भी जाते हैं और मंडल कमीशन लागू होने के बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह के लिए चुनाव प्रचार भी करते हैं. नागार्जुन के साक्षात्कारों की पुस्तक के संपादक और बाबा के ज्येष्ठ पुत्र शोभाकांत ने ठीक ही लिखा है कि
जिस तरह नागार्जुन अपनी रचनाओं में साफ दिख जाते हैं, उसी तरह वे अपने साक्षात्कारों में भी. ...यह तो संभव ही नहीं कि उनके मुंह से आप अपने मतलब की बात निकलवा लें. वे वही कुछ कहेंगे जो उनको कहना है या जिसे वे ठीक समझते हैं.”1
खुद नागार्जुन ने इंटरव्यू के संदर्भ में कहा है,
लोग इंटरव्यू में हवाई बातें या बड़ी-बड़ी बातें पूछते हैं. मेरी रुचि छोटी-छोटी बातों में भी है. जब मैं देखता हूं कि रिक्शाचालक की बनियान फटी हुई है तो मुझे अजीब लगता है. सोचता हूं कि चालीस वर्षों की आजादी से इन्हें क्या मिला? संगीत-समारोह के लिए जो शामियाने गाड़े जाते हैं, उसके खूंटे ठोकने वाले मजदूर क्या कभी संगीत समझ पाएंगे?
नागार्जुन की दृष्टि को आज के पूंजीवादी माहौल में स्वयं समझने और दूसरों को भी समझाने की जरूरत है और इस संदर्भ में उनके साक्षात्कार हमारे लिए मददगार सिद्ध हो सकते हैं.

अमूमन अपने साक्षात्कार में लेखक-कवि अपने लिए ‘नास्टेल्जिक’ होता है. वह अपने अभाव का रोना रोता है और अपने महान संघर्ष का बखान करता है. पर नागार्जुन अपने जीवन अनुभवों के तटस्थ भोक्ता बनकर परत दर परत खोलते चले जाते हैं. क्योंकि नागार्जुन में बुद्धिजीवीपन का आडंबर नहीं है. कृष्णा सोबती के शब्दों में कहें तो “नागार्जुन विशिष्ट महफिलों का चेहरा नहीं है, वह भीड़ का चेहरा है, और भीड़ में ही उभरता-चमकता है.“2 यही कारण है कि नागार्जुन किसी पार्टी के चाकर बनकर नहीं रह सकते “सर्वहारा से हमारी सहानुभूति स्पष्ट है; हमारे लेखन का मंतव्य स्पष्ट है. तमगा-बिल्ला, वह सब हमें अभीष्ट नहीं”3 लेखक अपनी रचना के साथ अपने व्यक्तिगत जीवन को जोड़ने  से बचता है, खासकर प्रेम और अवैध संबंधों के संदर्भ में. लेकिन नागार्जुन इस बात को स्वीकारने में जरा भी नहीं हिचकिचाते कि ‘रतिनाथ की चाची’ बालक नागार्जुन की चाची है और पिता ने उनकी मां को बहुत सताया इसीलिए वह अपने व्यवहार और लेखन से अपने पिता को सताएंगे. मनोहर श्याम जोशी से वह कहते हैं
“वितृष्णा होती थी हमको, समझ गए न? चाची हमारी माता के लिए दो पैसा की दवा नहीं करने देती थीं. हमको बराबर लगा कि पिता चाची के इशारे पर माता की उपेक्षा करते हैं.“ 

वे अपने पिता को ‘रसिकबाज’ और ‘विधवाओं के शिकारी’ कहने से भी नहीं हिचकते हैं.
बुद्धिजीवियों द्वारा नागार्जुन पर पाला बदलने का आरोप लगता रहा. उन्हें अंतर्विरोधों से ग्रस्त कहा गया पर उन्होंने कभी दूसरों की नहीं सुनी सिर्फ अपने मन की सुनी. एक प्रश्न के उत्तर में वे कहते हैं
“जी हां! मैं अंतर्विरोधों से ग्रस्त रहूंगा और हर भला आदमी अपने अंतर्विरोधों से ग्रस्त रहता है. साथ ही मैं यह भी मानता हूं कि अंतर्विरोधों पर हावी होकर आगे की राह निकालना भी अनिवार्य है.”  

1962 में चीन के आक्रमण के बाद नागार्जुन ने कई वाम विरोधी कविताएं लिखी थीं जिसके करण वामपंथी बुद्धिजीवियों के एक बड़े वर्ग ने उनके विरोध में मोर्चा खोल दिया और उन्हें अमेरिका का दलाल, सिरफिरा न जाने क्या-क्या नहीं साबित करने की कोशिश की थी. पर नागार्जुन तमाम आलोचनाओं से परे अपनी बात पर अडिग़ रहे. 1968 में दिए एक इंटरव्यू में वे कहते हैं,
“मुझे प्रगतिशील समझो, कम्युनिस्ट नहीं... यदि कहीं तुम्हें वचन में यांत्रिकता दिखाई पड़े और आचरण अंतर्विरोधों से गुंथे हुए नजर आए तो मेरे बारे में नए सिरे से सोचना.”

दरअसल नागार्जुन की दृष्टि को समझने के लिए जिस तटस्थ ईमानदारी की जरूरत थी वह बहुत कम लोगों में थी. आग उगलने वाले साथीविभिन्न अकादेमियों और विश्व-विद्यालयों की खोह में बैठकर अपने गाल चिकनेकरते रहे. नागार्जुन जिस प्रकार सच को सच और झूठ को झूठ कहने का साहस कर रहे थे उसे पचाना बहुतों के लिए मुश्किल था. नंदकिशोर नवल और खगेंद्र ठाकुर से एक बातचीत में वह स्पष्ट स्वीकारते हैं कि
“जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में चलने वाले आंदोलन के वर्ग-चरित्र को मैं अंध कांग्रेस विरोध के प्रभाव में रहने के कारण नहीं समझ पाया. संपूर्ण क्रांतिकी असलियत मैंने जेल में समझी.”
वे आगे यहां तक कहते हैं कि
अब मुझे लगता है कि मैं वेश्याओं और भड़ुओं की गली से लौट आया हूं.”4
अगर नागार्जुन चाहते तो कुछ दिन चुप रहकर जनता पार्टी के शासन में राज्यसभा के सदस्य बन सकते थे लेकिन नागार्जुन को भला कौन सा लोभ डिगा सकता है. उन्होंने जनता पार्टी के शासन में चंद्रशेखर द्वारा दिए गए राज्यसभा के प्रस्ताव को ठुकराने में देरी नहीं की. क्यों?
“इसलिए कि हमने जे.पी. की संपूर्ण क्रांति को ‘भ्रांति विलास’ कहा. उस वक्त हमसे कई लोगों ने कहा कि बाबा कुछ दिन मौन रहो! लेकिन हम विनोबा थोड़े हैं. हमने कहा चुप रहेंगे तो दिमाग में जाने कितना धुआं भर जाएगा. और इसीलिए हमने साफ-साफ कहाहम उन मसखरों के बीच बैठकर अपना उपहास कराना नहीं चाहते, इसीलिए....”
कर्ण सिंह चौहान, वाचस्पति और मंगलेश डबराल को 1986 में दिए अपने एक साक्षात्कार में वह इसी बात को और स्पष्ट करते हुए कहते हैं,
‘‘जब जेल से छूटकर आए तो हमने जयप्रकाश के खिलाफ वक्तव्य दिया. बड़ा हल्ला हुआ. जे.पी. ने अपना आदमी भेजा कि आप सिर्फ दो लाइन का वक्तव्य दे दें कि आपके नाम से जो कुछ छप रहा है, वह आपका नहीं. हमने कहा कि यह छिनाली राजनीति वाले करते हैं.
हम साहित्य वाले राजनीति से ऊपर हैं. हमसे कहा गया कि अरे, चार-छह-आठ महीने बाद इलेक्शन होने वाला है, आप तो पार्लियामेंट के मेंबर हो जाएंगे. हमने कहा कि यह सब तो होगा लेकिन हमारे दिमाग में दस मन गोबर इकट्ठा हो जाएगा. और जब हम छूटे तो सी.पी.आई. में हमारी खोज हुई कि अब इनका मोहभंग हुआ है तो इनका इलेक्शन में इस्तेमाल करें. हम चुपचाप दिल्ली में आकर बैठ गए. न इनके हाथ खेलना है न उनके हाथ.”5  

स्पष्ट है कि नागार्जुन किसी के हाथ खेलने वाले नहीं थे बल्कि सभी को रगडने वाले रचनाकार थे, तभी उन्होंने कविता लिखी थी – ‘हमने तो रगड़ा है, इनको भी, उनको भी.’

नागार्जुन की आस्था मार्क्सवाद में थी, पर वे जड़ीभूत सिद्धांत के विरोधी थे. वे स्पष्ट कहते हैं कि “मैं स्थानीय घटनाओं से निर्लिप्त होकर मार्क्सवादी नहीं रहना चाहता.” यही कारण है कि वह माओ के प्रशंसक रहते हुए भी उसकी साम्राज्यवादी नीति का विरोध करते हैं, उन्हीं के शब्दों में 1962 में माओ-त्से-तुंग को घरेलू संबंधों के चलते गाली दी, पर बापपन से इनकार नहीं किया. बाप रंडीबाज हो जाए तो क्या कहा जाएगा उसे? नागार्जुन इस मायने में प्रेमचंद के सच्चे वारिस हैं कि साहित्यकारों को हमेशा मशाल लेकर राजनीति के आगे चलना चाहिए न कि उसका पिछलग्गू होना चाहिए. इस संदर्भ में वह लेनिन और गोर्की का उदाहरण देते हैं, 1917 की क्रांति में गोर्की खिलाफ थे, पर लेनिन ने उन्हें दुश्मन घोषित नहीं किया. अपने यहां स्थिति और है.’’ दरअसल नागार्जुन अपने अंतर्विरोधों से सीख लेकर आगे की राह बनाते हैं. जो सिद्धांत द्वंद्व पर टिका है उसे जड़ीभूत बना दिया गया और उसका प्रतिफल हम भारतीय कम्यूनिस्ट पार्टियों की वर्तमान स्थिति में देख सकते हैं. अगर वे नागार्जुन की बातों को अपना लें तो उन्हें आज भी संजीवनी मिल सकती है. आलोचक डॉ. बच्चन सिंह द्वारा पूछे गए वाम विरोध के सवाल पर वे अपनी बेवाक राय प्रकट करते हैं
“अंतर्विरोध किसमें नहीं होते? केवल जड़ जीवों में नहीं दिखाई देते. हर सोचने-विचारने वाला आदमी अपने को बदलता रहता है. हारिल की तरह किसी जड़ीभूत सिद्धांत की लकड़ी पकड़ने वाले लोग सुखी रहते हैं. मैं वैसा सुखी अब नहीं हूं.” 

असल में नागार्जुन छद्म और जड़ मार्क्सवाद के विरोधी थे. और ऐसा इसीलिए हैं क्योंकि वे इस जनवादी दर्शन में सर्वहारा की मुक्ति का स्वप्न देखते थे, जबकि सच यही है कि छद्मवादी हर जगह सफलता और सम्मृद्धि को प्राप्त करते हैं.

नागार्जुन इन चीजों से निर्लिप्त थे और सच्चे अर्थों में प्रगतिवादी भी, इसीलिए यह बात वे बड़े दुख और आक्रोश के साथ कहते हैं कि
“मार्क्सवादी होने का दावा करने वाले लोग कितने मार्क्सवादी हैं इसे मुझसे बेहतर कोई नहीं जानता. घर में कुछ, मंच पर कुछ, चौका की बात और, चौकी की बात और. अगर थोड़े-से लोग भी जाति-पांति, भाई-बिरादरीवाद से ऊपर उठ जाते तो देश का भारी कल्याण होता... मैं ऐसा लकीर का फकीर नहीं हूं कि पार्टी की नीतियों से हर क्षण-पल निर्देशित होता रहूं. ...मैं धृतराष्ट्र की तरह अंधा नहीं हूं और न ही पातिव्रत्य के नाम पर गांधारी की तरह आंख पर पट्टी बांधने का कायल हूं. जो जन-जन में ऊर्जा भर दे, मैं उद्गाता हूं उस रवि का.”

नागार्जुन का स्पष्ट मानना है कि कोई कॉमरेड मात्र बन जाने से ही प्रगतिशील, आधुनिक और सच्चा जनता का सेवक नहीं हो सकता जब तक कि वह अपने आचरण से इसे सिद्ध न करे. अगर ब्राह्मणवादी कर्मकांड त्याज्य है तो मार्क्सवादी कर्मकांड भी

“चंदन लगाने वाला भी हमारे लिए प्रगतिशील हो सकता है, अगर वह संघर्ष का समर्थन करता है और कोई कॉमरेड घर का मालिक हो और छोटे भाई या बेटे के लिए दहेज मांगे तो हम वहां उसके नंबर काट लेंगे और उस पंडित को नंबर ज्यादा देंगे जो चंदन-चुटिया के बावजूद दहेज नहीं मांग रहा है.” 

समकालीन भारतीय साहित्य के अक्तूबर-दिसंबर, 1995 में छपे अपने एक और इंटरव्यू में वह कहते हैं

“ऐसे मित्र भी हैं जो बाहर में तो प्रगतिशील हैं, लेकिन घर में मैली जनेऊ पहनते हैं : देह पर गंगाजल छिडक़ते हैं.” 

1968 में विमल हर्ष तथा विद्याधर शुक्ल से बातचीत के क्रम में वह कहते हैं, ‘‘मैं कभी-कभी अपने अंदर-ही-अंदर चकित और विस्मित होता हूं कि वामपंथी विचारों से लैस जिस लडक़े ने मुझे गत वर्ष कितना अभिभूत कर दिया था, वही बीस हजार रुपए दहेज में गिनवाकर एक प्रतिष्ठित भू-स्वामी की लडक़ी का दूल्हा बन गया.”

जो लोग सत्तर के दशक में नागार्जुन पर हर तरह से प्रहार कर रहे थे उनमें से कितने लोग अपनी रचनाओं और वक्तव्यों के लिए जेल गए और सत्ता द्वारा प्रताडि़त किए या फिर जेल गए भी तो लौटकर कितने सत्ता-विरोधी रह पाए यह शोध का विषय है. पर नागार्जुन अंत-अंत तक अपने स्टैंड पार कायम रहे. 1997 में सापेक्ष के संपादक महावीर अग्रवाल को दिए एक साक्षात्कार में वह इसी बात को दुहराते हैं

‘‘मार्क्सवाद में हमारी आस्था तब भी थी और आज भी है. हमें कठमुल्लापन पसंद नहीं है. ये वामपंथी नेता चाहते हैं कि हम उनके निर्देशों के अनुसार चलें. हम किसी के गुलाम नहीं हैं. सच बात तो यह है कि हमें किसी का नियंत्रण स्वीकार नहीं. हमें अपने विवेक पर पूरा भरोसा है.”6  

स्पष्ट है कि नागार्जुन साहित्य को राजनीति से हमेशा ऊपर देखते थे, इसका प्रमाण है उनकी राजनीतिक कविताएं. उन्होंने पुष्ट मात्रा में राजनीतिक कविताएं लिखीं पर न कभी उन्होंने उन कविताओं के राजनीतिक फायदे लिए और न ही राजनीति के शिकार हुए. इस संदर्भ में सुभाष चंद्र यादव से एक बातचीत में उनकी टिप्पणी गौरतलब है, ‘‘राजनीतिक कविता ऐसी हो, जिससे खुद को संतुष्टि मिले. पार्टी वालों की तरह यह नहीं कि फायदा उठा लिया और छोड़ दिया, जैसे गन्ना खाकर सिट्ठी फेंक देते हैं. समझदार आदमी इससे निराश नहीं होता.”

नागार्जुन का मानना था कि जब तक बहुसंख्यक दलित-पिछड़ी जातियां समाज और राजनीति की मुख्यधारा में शामिल नहीं होंगी तब तक असली साम्यवाद इस देश में नहीं आ सकता. वह वामपंथ का भविष्य भी दलित नेतृत्व में देखते थे. 1979 में विजय बहादुर सिंह से उन्होंने कहा, हम तो इस प्रतीक्षा में हैं कि कोई ऐसी पार्टी निकले जो इन तमाम वामपंथियों से अलग हो और जिसका नेतृत्व शोषित वर्ग से उभरे.”7  साथ ही वे दलित होने और दलित चेतना से लैस होने को भी विलगाते हैं. कर्पूरी ठाकुर और जगजीवन राम के नेतृत्व के सवाल पर वह स्पष्ट करते हैं, “नहीं भाई! गरीब ब्राह्मण भी हो सकता है. विधवा हो. जन्म से सिर्फ रविदास कुल का न हो. रैदास हो भी. जगजीवन राम हरिजनों के नेता बनते हैं. नेता तो अंबेडकर थे. इनका चूतियापा लोग कैसे बर्दास्त करते हैं. (हम तो साहब साठ पार कर गए हैं, गाली भी बक सकते हैं).’’

वामपंथी पार्टियों की असफलता के पीछे भी नागार्जुन ने इस बड़ी भूल को रेखांकित किया है. उनका स्पष्ट मानना है कि जब तक वामपंथी पार्टियों के ऊंचे पदों पर ऊंची जातियों के लोग बैठे रहेंगे तब तक इस देश से सामंतवादी व्यवस्था नहीं हटेगीयह बहुत बड़ी बीमारी है. वामपंथी पार्टियां भी इसकी शिकार हैं. सभी ऊंचे पदों पर ब्राह्मण बैठे हैं. या तो छोटे-छोटे टुकड़ों में कभी भारत बंटे और गृहयुद्ध में ये चीजें जल जाएं.” दिनमान के 15 मार्च, 1988 अंक में महेश दर्पण को दिए एक साक्षात्कार में उन्होंने भारतीय जातिवादी व्यवस्था की तुलना दक्षिण अफ्रीका की नस्लभेदी व्यवस्था से की है उन्हीं के शब्दों में, “मुझे तो (बहुत ही गुस्से में) यह कहना पड़ता है कि हमारे देश में भी दक्षिण अफ्रीका वाला वातावरण मौजूद है. हमारे प्रशासकों में भी अनेकानेक बोथा मौजूद हैं. दलित जातियों के प्रति हमारा जो आचरण है वह क्या है...?

फिर भी नागार्जुन निराशावादी नहीं हैं. उन्हें विश्वास है कि भविष्य में नई पीढ़ी इन बुराइयों के खिलाफ मोर्चा लेगी. कृष्णा सोबती से बातचीत में वे कहते हैं

“इतिहास साक्षी है कि हमारे समाज में वर्णवाद, जातिवाद संप्रदाय और वर्ग की गंदी नालियां बराबर बहती रही हैं. ...ब्राह्मण अब्राह्मण, सवर्ण-अछूत जैसे पचड़ों ने ही एक सेहतमंद व्यापक भारतीय दृष्टि को पनपने नहीं दिया. अपनी नई पीढ़ी से हम यह उम्मीद करते हैं कि वह डटकर इन बुराइयों से लड़ेगी.”

दलित और स्त्री को नागार्जुन समान रूप से शोषित मानते हैं. उनकी स्त्री संवेदना को इस बात से समझा जा सकता है कि उन्होंने अपने प्रारंभिक मैथिली गद्य-एवं पद्य लेखन स्त्री समस्या पर केंद्रित की. हिंदी में उन्होंने रतिनाथ की चाची, नई पौध, कुंभीपाक, उग्रतारा जैसे उपन्यास स्त्री-समस्या पर लिखे. एक साक्षात्कार में उन्होंने एक बार स्त्री के रूप में जन्म लेने की कामना की है

“अगर विधाता हो तो सात या नौ वर्ष के लिए मांग लेंगे कि हमको स्त्री बनाओ. मुझे लगता है कि सबसे बड़ी हरिजन जो हैं, वो महिलाएं हैं, इनका दलितपना कब समाप्त होगा, ये हमको नजर नहीं आ रहा है.”8  

इसी प्रकार विजय बहादुर सिंह से एक साक्षात्कार (1986) में नागार्जुन ने स्त्री बनकर अवैध गर्भ धारण करने की कामना की है. उन्हीं के शब्दों में

“हमने अपनी भाभी से एक बार कहा, पांच साल के लिए मैं महिला होना चाहता हूं... पहला काम तो मैं यह करूंगा कि मैं मां बनूंगा, तो मातृत्व के जो आंसू होते हैं न, वो मरदों के रुलाई के जो विषाक्त आंसू होते हैं, उससे अलग होते हैं, मैं निकट से उसका अनुभव करूंगा. दूसरी बात यह कि मुझे-जो मेरा पति है, मारता-पीटता रहेगा... फिर छोड़ देगा (चुनौतीपूर्ण अंदाज और आवाज में) तो मेरी तृष्णाएं हैं कि मैं अवैध-रूप से गर्भ धारण करूं और फिर हमारे घर में कोई ऐसा निकले - कहे कि नहीं - अवैध नहीं, यह वैध है.” 

अपनी मृत्यु से कुछ दिन पूर्व तारानंद वियोगी से बातचीत के क्रम में भी वे विवाह संस्था के बदले अविवाहित मातृत्व की वकालत करते हैं, “अविवाहित मातृत्व को पकडि़ए इसे अपना समर्थन दीजिए. इस पर लिखिए. इसे लोकप्रिय बनाने का अभियान चलाइए.”9  प्रश्नकर्ता द्वारा इसके खतरे की ओर इशारा करने पर वे उत्तेजित हो जाते हैं

“अविवाहित मातृत्व के खतरे हैं, ...लेकिन यह भी तो देखिए विवाहित मातृत्व से कम खतरे हैं या ज्यादा. मुझे तो लगता है कि कम खतरे. ...वैवाहिक व्यवस्था आपको सुरक्षित और गैर खतरनाक क्यों लगती है? इसीलिए न कि आपने इसे स्वीकार कर लिया है और बंधन में बंध गए हैं.” 

स्पष्ट है कि नागार्जुन की रचनाओं में जो स्त्री-जीवन आया है वह उनके विचार से संपृक्त है.

नागार्जुन लेखन को बहुत जोखिम-भरा कर्ममानते हैं. उनका मानना है कि “कविता की महत्ता मानवीय सरोकार के संदर्भ में ही मूल्यवान होती है.” पर उनकी बड़ी चिंता है कि ‘‘सुविधा का लोभ संघर्ष की चेतना को सुला देता है. जनता के हित की बात करने वाले लेखक का चरित्र भी गिरगिट की तरह रंग बदलने वाले नेता जैसा होता जा रहा है.’’ नागार्जुन के लिए “भूख कविता का स्थायी भाव है. और जब तक यह है, तब तक मुंह कैसे फेरा जा सकता है (1979).” 

वे आम जनता के कवि हैं और उनकी दृष्टि में “आम जनता से मेरा मतलब बौद्धिक स्तर पर दर्जा चार तक पढ़ी हुई जनता से है. आर्थिक स्तर पर जो दो जून की रोटी खा लेती हो, उसके लिए किया गया कवि-कर्म.” वे कविता में कथ्य और कथन-पद्धति दोनों को महत्त्वपूर्ण मानते हैं. वे मानते हैं कि उन्होंने फार्म के प्रति जागरूकता तुलसीदास से सीखी है पर कथ्य का चयन कबीर से. इसीलिए वे स्पष्ट रूप से घोषणा करते हैं

“भारतेंदु के बाद हिंदी कविता को जनता के बीच खड़ी करने की कोशिश मैंने की.10  अगले पचास वर्षों बाद जब हिंदी कविता की जीवंतता के प्रमाण खोजे जाएंगे तो हमारी वे पंक्तियां उद्धृत की जाएंगी जो चलताऊ ढंग से आंदोलनों को लक्ष्य करके लिखी गई हैं.”11
(नागार्जुन, यूआर अनंतमूर्ति और भीष्म साहनी। (Express photo by Ravi Batra)

राधामोहन गोकुल जी तथा निराला को अपना प्रिय लेखक मानने वाले नागार्जुन की चिंता यह भी है कि प्रतीकों के चयन में प्रगतिशील कवि सिकुड़ते जा रहे हैं.उनकी चिंता कवि-सम्मेलनों के गिरते हुए स्तरों को लेकर है. 1997 में महावीर अग्रवाल से बातचीत के क्रम में इस संदर्भ में जो उनकी टिप्पणी है वह आज के चारणवादी माहौल में बिलकुल सटीक बैठती है जहां मंचीय तुक्काड़ कवि ही हिंदी साहित्य के प्रतिनिधि कवि माने जाने लगे हैं. 

“चुटकुलेबाजी और फूहड़ता ने मंचों पर पैर जमा लिए हैं. चार-छह कविताओं के सैट में कवि पूरे हिंदुस्तान के मंचों पर घूमता रहता है. अब स्थिति यह है कि अच्छे कवि कवि सम्मेलनमें जम नहीं सकते. तुक्कड़ और नकलची कवियों ने कविता और कवि सम्मेलन दोनों की प्रतिष्ठा कम की है. ...जरूरत है जनता साहित्य सुने और कवि-सम्मेलन कविता के संस्कार विकसित करे. अब तो अच्छे कवि, कवि सम्मेलनों में जाते ही नहीं, उन्हें जाना चाहिए. जनता के बीच भी उसका स्तर, उसकी समझ और उसके काव्य स्तर को परिमार्जित करने का दायित्व सभी का है.”

आलोचकों ने कई बार नागार्जुन के उपन्यास को उनका तात्कालिक लेखन या आर्थिक उपार्जन हेतु किया गया लेखन कहकर दरकिनार करने के अथक प्रयास किए. ये अलग बात है कि उनके उपन्यासों पर अब आलोचकों की कलम भी चलने लगी है. नागार्जुन अपने औपन्यासिक पात्रों से किस प्रकार संपृक्त थे वह उनके साक्षात्कारों के एक-दो प्रसंगों से समझा जा सकता है.

सारिका, जुलाई, 1972 में छपे एक साक्षात्कार में शलभ श्रीराम सिंह द्वारा यह पूछे जाने पर कि आपका बलचनमा इन दिनों कहां है? क्या कर रहा है?’ उनका मार्मिक जवाब भारतीय वामपंथी राजनीति के पतनगाथा का प्रमाण है. वे कहते हैं

“सुना है, कई वर्षों तक इस बीच वह ग्राम पंचायत का मुखिया रहा है. मार्क्सवादियों और नक्सलियों को गाली देता है और केंद्रीय सरकार की मौजूदा नीतियों का शतमुख समर्थन देता है. उसका लडक़ा औसत खेतिहर है. लेकिन बालचंद की तीसरी पीढ़ी ने वर्ग-संघर्ष की अगली कड़ी थाम ली है.”
वह रोते हुए अपने इस पात्र के चारित्रिक क्षरण पर कहते हैं, ‘‘यह पात्र बहुत मार्मिक है, शलभ! उसकी यह परिणति... (बाबा फिर रोने लगते हैं) पिछले बीस वर्षों के अंदर भारतीय वामपंथी राजनीति में इतनी तेजी से मिलावट आई! राजनीति में पुरानी पीढ़ी कितनी पंगु हो गई है, बलचनमा उसी का नमूना है.”उपन्यास : कथा बीजशीर्षक से विजय बहादुर सिंह द्वारा लिया गया साक्षात्कार इस संदर्भ में महत्त्वपूर्ण है जिसमें नागार्जुन ने अपने औपन्यासिक पात्रों और उनके विकास पर विस्तार से चर्चा की है. उपन्यास में यथार्थ और कल्पना के संबंध पर वह कहते हैं,
‘‘हमें लगता है कि यथार्थ भी कल्पना के परिपाक की प्रक्रिया में ढलता हुआ आगे बढ़ता है, यानी कल्पना भी यथार्थ में अनुस्यूत होती है और कल्पना और यथार्थ का जो चोली-दामन का रिश्ता है वह असल कला की उत्पत्ति है, चाहे गद्य में हो या पद्य में.’’12

नागार्जुन मानते हैं कि पुरस्कार की राजनीति में फंसकर रचनाकार समाप्त हो जाता है, “जब माइंड पुरस्कार ओरिएंटेड हो जाएगा तो साहित्य का मूल बिंदु छूट जाएगा.” उनके अनुसार राजनीतिक ताकत जिसके हाथ में है, वह साहित्य को बंधुआ गुलाम मानता है. नागार्जुन ने इंदिरा गांधी के विरोध में दर्जनों कविताएं लिखीं. लेकिन 18 मई, 1983 को उन्होंने उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान का 15 हजार राशि का पुरस्कार इंदिरा गांधी के हाथों लिया जिसकी काफी आलोचना भी हुई. 18 मई, 1983 को अजय सिंह से बातचीत में उन्होंने कहा कि
“पुरस्कार पाने के बाद मैं चारण बन जाऊं और मेरी कविता की धारा या दिशा बदल जाए, तब तो जरूर खतरा है. इंदिरा गांधी सरकार पर, जन-विरोधी सत्ता पर चोट करते हुए मैंने बराबर कविताएं लिखी हैं और आगे भी लिखता रहूंगा. उसमें कोई परिवर्तन नहीं.”

नागार्जुन आलोचना की उपेक्षा से दुखी अवश्य थे पर हताश नहीं, “हम आलोचकों को अब पढ़ते नहीं हैं. यह सब हिंदी के अध्यापक करते हैं उनका काम है साजिश करना हम इन अध्यापकों से परिचालित नहीं हैं. मान्यता दें या न दें क्या फर्क पड़ता, क्योंकि जनता जनार्दन हमें मान्यता देती है.”13 साहित्य में पनप रहे मठवाद पर नागार्जुन ने जमकर प्रहार किया है. वे स्पष्ट कहते हैं कि “साहित्यिक महंतों की छाया में युवा साहित्यकारों की पीढ़ी छोटी बहुओं की भांति घुट रही है. ...हम घुटे हुए पुराने पापी साहित्य का राज-मार्ग (जनपथ भी कह लीजिए) न केवल छेके हुए हैं, उसे हग-हगकर खराब कर रहे हैं.”14

स्कूलों और विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रम निर्माण में जो राजनीति की जाती है उससे हम भलीभांति परिचित हैं. पाठ्यक्रम में उन्हीं साहित्यकारों की रचनाएं शामिल की जाती हैं जिनकी पहुंच हो अथवा उस सरकार के मतानुकूल हो. विरोध और विद्रोह की चेतना संपन्न रचनाएं जितनी असुविधाजनक अंगे्रजों के लिए थीं उतनी ही हमारी सरकारों के लिए भी हैं. नागार्जुन ने 1986 में दिए एक इंटरव्यू में ठीक ही कहा है कि “हमारे यहां संपूर्ण भारतीय साहित्य में खीरपंथ चल गया है. जो खीर खाते हैं, वे प्रामाणिक विद्वान माने जाते हैं. एक साहब को मैंने चिट्ठी लिखी थी कि हमारी जो प्राथमिक शिक्षा है उसके पाठ्यक्रम में अंडा-मीट वगैरह का समावेश होना चाहिए.” फिर भी नागार्जुन का मानना है कि जो रचना स्लेबस में शामिल हो जाती है वह सुहागिन हो जाती है, अर्थात् आर्थिक साधन बन जाती है. लेकिन विश्वविद्यालयों में तिकड़म से जिस प्रकार का माहौल बनता जा रहा है नागार्जुन उस पर भी बेबाक टिप्पणी करते हैं. डॉ. बच्चन सिंह से बातचीत में वे कहते हैं, “आप दिल्ली जा रहे हैं. कोई मौखिकी होगी, सेमिनार होगा, सरकारी कमेटी की बैठक होगी या दूतावासों का बुलावा होगा या विदेश यात्रा का तिकड़म.” आगे वे कहते हैं, “पहले अपने गिरेबां में झांककर देखें कि आप खुद क्या हैं? कुछ रटंत नुस्खों के आधार पर आप जनता को डराते रहते हैं. मुक्तिबोध ने ऐसे ही लोगों को ब्रह्मराक्षस कहा है.”

नागार्जुन के मित्रों की संख्या बहुत बड़ी थी, वे युवा-वर्ग से बहुत जल्दी घुलमिल जाते थे. अपने जिन मित्रों के घर वे जाते थे, उनके घर के सदस्य पहली भेंट में ही उनके प्रशंसक बन जाते थे और बदले में उन्हें स्वादिष्ट खाना मिल जाता. केदारनाथ अग्रवाल, शमशेर बहादुर सिंह, त्रिलोचन, जैसे समकालीन मित्रों से उनकी दोस्ती जगजाहिर है. अपने मित्रों पर वह कितना अधिकार समझते थे वह शमशेर के प्रति उनकी इस उक्ति से समझी जा सकती है, “मित्रों की कई श्रेणियां होती हैं. ...हम ऐसे लोगों में हैं कि आप पीठ खुजलाते हो तो हम उघाडक़र देखेंगे कि कहीं घाव तो नहीं. हम तथाकथित भद्र मित्र नहीं हैं. ...हमारे लिए तुम्हारा जीवन ज्यादा मूल्यवान है, तुम्हारी भद्रता का कोई मूल्य नहीं.” लेकिन नागार्जुन कभी भी मित्रता की बेदी पर सत्यकी बलि नहीं चढ़ाते- “रामविलास डिप्लोमेट हैं. आलोचक हैं तो डिप्लोमेट भी हैं. पर केदार कवि हैं, केवल.” वह अज्ञेय की कविता के आलोचक हैं माजो माजो और माजोलेकिन वह प्रशंसा भी करते हैं, अज्ञेय का सटायर जो है, बहुत सूक्ष्म होता था.”

अदम्य जिजीविषा के रचनाकार नागार्जुन जीवन के अंत-अंत तक सक्रिय रहे, साथ ही अपनी हस्तक्षेपी भूमिका पर कायम भी. वे कभी जीवन से निराश नहीं हुए. अनवर जमाल द्वारा बनाई गई फिल्म में उन्होंने कहा है, कि लोग बुढ़ापा का रोना रोते रहते हैं. लेकिन मैं ऐसा नहीं मानता हूं.” 1995 में सुभाष चंद्र यादव ने उनसे पूछा बाबा मृत्यु से डर लगता है.उन्होंने कहा, “नहीं, बिल्कुल नहीं. जैसे लोग कहते हैं वो यमराज आया!मुझसे तो यमराज दस कदम दूर ही रहता है.”15

नि:संदेह बाबा के साक्षात्कारों से गुजरने का अर्थ एक पूरी सदी के इतिहास से गुजरना है. सत्य की आंच से गुजरना है. अदम्य जिजीविषा से भरे जीवन और संघर्ष के खुरदरेपन को अपने भीतर महसूस करने जैसा है. राजनीति को कविता की आंच से तपाने वाले कवि के भीतर झाँकने जैसा है.  और सबसे बढक़र अपने प्यारे बाबा की दाढ़ी सहलाते हुए उनकी घुच्ची आंखोंमें झांकने जैसा है. सच में बाबा आज के माहौल में आपकी  बहुत याद आती है .   
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संदर्भ:
१. मेरे साक्षात्कार : नागार्जुन, संपादक-शोभाकांत, किताबघर प्रकाशन, सं.-1994 की भूमिका
२.        मेरे साक्षात्कार, पृ. 134
३.        मेरे साक्षात्कार, पृ. 182
४.        मेरे साक्षात्कार, पृ. 99
५.        जनसत्ता, 20 जून, 1986
६.        सापेक्ष, 1997
७.   नागार्जुन और उनका रचना संसार, विजय बहादुर सिंह, संभावना प्रकाशन, हापुड़, 1982, पृ. 95
८.        मेरे साक्षात्कार, उपरोक्त, पृ.-237
९.        तुमि चिर सारथि : तारानंद वियोगी, पहल पुस्तिका, अप्रैल-मई 2006, पृ. 76
१०.       सापेक्ष-34, नागार्जुन अंक, 279
११.       मेरे साक्षात्कार, उपरोक्त, पृ. 119
१२.       उपरोक्त, पृ. 103
१३.       उपरोक्त, पृ. 51
१४.       उपरोक्त, 79
१५.       उपरोक्त, 40

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श्री धरम 
जे एन यू से पीएच.डी.
कई कहानियां एवं वैचारिक-आलोचनात्मक लेख प्रतिष्ठित पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित चर्चित.
'कथादेश', 'बया', 'अंतिका' (मैथिली) आदि पत्र- पत्रिकाओं से संबद्ध रहे.
पुस्तकें: 'स्त्री: संघर्ष और सृजन', 'स्त्री स्वाधीनता के प्रश्न और नागार्जुन के उपन्यास'.
सम्पादित पुस्तकें: ' चंद्रेश्वर कर्ण रचनावली' (पांच खंड), 'तुलसी राम: कृतित्व एवं व्यक्तित्व',
हिंदी- मैथिली दोनों भाषाओं के कई महत्वपूर्ण चयनित संकलनों में कुछ कहानियां संकलित.
कुछ कहानियां अन्य   भारतीय भाषाओं में भी अनूदित-प्रकाशित.

संप्रति: ए आर एस डी कालेज (दिल्ली विश्वविद्यालय) में अध्यापन
संपर्क :
बी-277-ए,
वसंतकुंज एन्क्लेव नई दिल्ली-110070.

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  1. राहुल द्विवेदी5 नव॰ 2017, 2:08:00 pm

    बाबा को श्रद्धांजलि। सचमुच जो बेबाकीपन नागार्जुन के यहाँ मिलता है शायद कहीं नही । यही कारण है कि मार्क्सवादी होने के बावजूद इसमे व्याप्त कुपथ का पुरजोर विरोध करते हैं ---
    बाबा कहते हैं कि..
    “मार्क्सवादी होने का दावा करने वाले लोग कितने मार्क्सवादी हैं इसे मुझसे बेहतर कोई नहीं जानता. घर में कुछ, मंच पर कुछ, चौका की बात और, चौकी की बात और. अगर थोड़े-से लोग भी जाति-पांति, भाई-बिरादरीवाद से ऊपर उठ जाते तो देश का भारी कल्याण होता... मैं ऐसा लकीर का फकीर नहीं हूं कि पार्टी की नीतियों से हर क्षण-पल निर्देशित होता रहूं. ...मैं धृतराष्ट्र की तरह अंधा नहीं हूं और न ही पातिव्रत्य के नाम पर गांधारी की तरह आंख पर पट्टी बांधने का कायल हूं. जो जन-जन में ऊर्जा भर दे, मैं उद्गाता हूं उस रवि का.”

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  2. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (06-11-2017) को
    "बाबा नागार्जुन की पुण्यतिथि पर" (चर्चा अंक 2780)
    पर भी होगी।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  3. सुनते हैं नागार्जुन मंचों पर 'मादरे वतन की बेटी है' वाली कविता सुनाते थे। वे भी मंचों के लिए कुछ कविताएं छांट कर रखते थे। उनमें से एक यह कविता भी होती थी। वैसे,वे मंच के मिजाज के अनुसार कविता लिखने में माहिर थै। उन्‍हानें तो अपने समय में मंच का मुकाबला कर लिया मगर बाद के कवि अपनी महानता की उंचाई से नीचे उतर कर जनता से तालमेल बिठाने को तैयार न हुए। इसलिए,मंच को तो हाथ से जाना ही था।

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  4. नागार्जुन बाबा ने बहुत पहले इसकी झलक देख ली थी,अब तो स्थिति भयावह है हिंदी में भी उर्दू में भी । मुशायरों के कवि और साहित्य के कवि अब बिल्कुल अलग अलग हो चुके हैं । उर्दू में देखिए तो बहुत दिनों से बशीर बद्र और वसीम बरेलवी के दो दो खेमे हैं । बशीर बद्र पूर्ण रूप से मुशायरे के शायर माने जाते हैं जबकि वसीम साहब साहित्य और मुशायरे में सामंजस्य बिठाए हुए प्रतीत होते हैं ।

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  5. कवि का जीवन जीना और कविता करना दो अलग अलग बातें हैं। वीरगाथा काल के राजश्रयी कविगण कविता को आनंद की वस्तु मानते रहे हैं। श्रमजीवी कवियों ने कविता को समाज सुधार का हथियार बनाया। नानक, कबीर, रविदास, सेन, नामदेव आदि का नाम लिया जा सकता है। आधुनिक युग के कवियों का आजादी के आंदोलन में महत्वपूर्ण योगदान रहा है। आजादी मिल जाने के बाद कवियों का रुझान आजादी को संरक्षित करने ओर कम राजनैतिक दलों में सेट होने की ओर अधिक हो गया।
    मंचीय कविता के क्षेत्र में ऐसे लोगों का बाहुल्य रहा है जिनका पैत्रिक पेश उपदेश देना अथवा पुरोहिताई था। इस वर्ग के कवियों का विश्वास है कि कविता सरस्वती देवी लिखवाती है। इस विश्वास के प्रभाव में धार्मिक लेखन राजनैतिक आंदोलनों के बल देते रहते है।
    शिक्षा के प्रचार से अन्य वर्ग के लोगों ने भी कविता की ताकत को पहचाना है। कविता में आम जनता से संवाद करने की विलक्षण शक्ति है। सामाजिक न्याय और मानवीय मूल्यों के प्रति कविता के माध्यम से जन जागरण किया जा सकता है ।

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  6. काव्य मन्चों का आयोजन अब समाज सुधारक युगप्रबोधक लोग नहीं कराते धार्मिक अन्धविश्वासी और राजनैतिक दल कराते हैं और वह कवियों को अपने समर्थन में माहौल बनाने के लिए धन लगाते हैं क्षुद्र वृत्ति के कवि धन के लालच में उनकी बान्छा पूर्ण करते हैं, कविता का न उन्हें ज्ञान हैं न ध्यान ।

    नंगई लुच्चई लफंगई दारू की दरकार।
    कवि सम्मेलन में सुनो गुण्डों की जयकार।

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  7. जिसकी कथनी व करनी में फर्क न हो वही साहित्यकार जनता पर प्रभाव डालने में सक्षम होता है. कबीर हो या बाबा नागार्जुन.

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  8. नागार्जुन के साहित्यिक व्यक्तित्त्व का पारदर्शी चित्रण | मैंने अपने फेसबुक के एक पोस्ट में इस आलेख का ज़िक्र किया है | मुझे ५० से ७० तक के दशकों में पटना में नागार्जुन जी के बहुत निकट संपर्क में रहने का मौका मिला | उनके साहित्य का समालोचन परम्परागत प्रतिमानों से नहीं किया जा सकता | वे एक युगांतरकारी जनकवि थे - ऐसे कवि-साहित्यकार जिनका लेखन इस लिए विशिष्ट है कि वह परंपरागत समालोचन से ऊपर है | वे एक विलक्षण व्यक्ति थे जिसकी कल्पना केवल उनके लेखन को पढ़कर ठीक-ठीक नहीं की जा सकती | उनको जिन लोगों ने देखा-सुना है वे इस बात की तैद कर सकते हैं | मेरा यह परम सौभाग्य था कि मुझे उनका इतना स्नेह मिला - और अपनी इन आँखों से मैंने उस विरल व्यक्ति को देखा | मैं अपने ब्लॉग पर भी उनके कुछ संस्मरण लिखना चाहता हूँ| उनकी स्मृति को बार-बार नमन|

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  9. सार्थक चयन, योग्य उपस्थापन । बधाई

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