मति का धीर : कुँवर नारायण : प्रचण्ड प्रवीर
























“कुछ इस तरह भी पढ़ी जा सकती है
एक जीवन – दृष्टि
कि उसमें विनम्र अभिलाषाएं हों
बर्बर महत्वाकांक्षाएँ नहीं”

बीसवीं सदी के हिंदी के अग्र-गण्य कवि कुँवर नारायण (19-सितम्बर-1927 : 15–नवम्बर–2017) की अनुपस्थिति ने साहित्य और कला की दुनिया को मायूस कर दिया है. बर्बर महत्वाकांक्षाओं के इस दौर में ऐसी विनम्र अभिलाषा विरल है. उन्हीं के शब्दों में –
“तपश्चर्या नहीं
सम्पन्न दिनचर्या हो
जीवन की पूजा का अर्थ”

सम्पन्न दिनचर्या के कवि कुँवर नारायण को दिल से याद कर रहे हैं युवा लेखक – अध्येता प्रचण्ड प्रवीर.  




अंतिम वक्तव्य                     

प्रचण्ड प्रवीर



कुंवर जी नहीं रहे.

मृत्यु इस पृथ्वी पर
जीव का अंतिम वक्तव्य नहीं है
किसी अन्य मिथक में प्रवेश करती
स्मृतियों अनुमानों और प्रमाणों का
लेखागार हैं हमारे जीवाश्म.


एक लम्बा और समृद्ध जीवन जीने के उपरांत उन्होंने जो समाज को दिया है, वह अमूल्य है. निजी सम्बन्ध न होने से और कुछ अनभिज्ञता से मैं उनके समृद्ध जीवन का अनुमान करता हूँ, जो कि निश्चय ही आर्थिक अर्थ में न हो कर उनके वैचारिक और कवित्व प्रतिभा से है.

कुंवर जी पर लिखना और वह भी जल्दी में लिखना, मैं इसका अधिकारी नहीं हूँ. पहला कारण तो यह है कि समग्रता में मैंने उनका अध्ययन नहीं किया है. किंतु मैंने उनकी जितनी भी कविताएँ पढ़ी है, उसके कारण उनके प्रति मेरा सम्मान कहीं गहरा है. 


दूसरा कारण यह है कि मेरी कविता की समझ कुछ कम है. बहुधा कविताएँ मुझे आकर्षित नहीं करती और अनगिन कवियों और उनकी असंख्य छंद रहित कविताओं और उसके विमर्शो से बच कर चलना ही श्रेष्ठ मार्ग लगता है. इसके लिए मैं समकालीन कवियों व उनकी कृतियों को नहीं वरन खुद को अयोग्य मानता हूँ, क्योंकि महाकवि भवभूति ने ‘मालतीमाधव’ में स्पष्ट कहा है –

ये नाम केचिदिह न प्रथयन्त्यवज्ञांजानन्ति ते किमपि तान् प्रति नैष यत्नः।
उत्पत्स्यते तु मम कोऽपि समानधर्माकालो ह्मयं निरवधिः विपुला च पृथ्वी।।



जो मेरे कृति का नाम नहीं लेते या उसमें दोष देख कर अवज्ञा करते हैं, उन्हें जानना चाहिए कि यह प्रयत्न उनके लिए नहीं है. कोई मेरे जैसा समानधर्मा तो होगा (जो मुझे समझ सकेगा) क्योंकि पृथ्वी विपुल है और काल अंतहीन है.


बहरहाल कुंवर जी के बारे में कुछ आलोचकों का कहना है कि वह मध्यमवर्गीय जीवन का प्रतिनिधित्व करते थे, संभवतया इसलिए भी बहुत से पाठकों को वह सहजता से पसंद आते रहे. इस अर्थ में उनके प्रशंसक उनके समानधर्मा थे. 



सवाल यह उठता है कि हम अपने परिवेश को छोड़ कर कहाँ जाएँ? हमारी परिस्थितियाँ हमारी भावयत्री प्रतिभा को संपुष्ट करती है. फिर भी कुंवर जी की कविताओं के साथ तादात्म्य होना इस अर्थ में अनोखा है, क्योंकि वे आजादी के बाद के सभी कवियों में मुझे सबसे अधिक प्रभावित करते हैं. इसी नाते में मैं यह बड़ी जल्दी में लिख देना चाहता हूँ कि वह मुझे क्यों पसंद आते हैं. बरबस उनकी यह पंक्तियाँ ठिठका देती हैं - 



जल्दी में

प्रियजन

मैं बहुत जल्दी में लिख रहा हूं
क्योंकि मैं बहुत जल्दी में हूं लिखने की
जिसे आप भी अगर
समझने की उतनी ही बड़ी जल्दी में नहीं हैं
तो जल्दी समझ नहीं पायेंगे
कि मैं क्यों जल्दी में हूं.
जल्दी का जमाना है
सब जल्दी में हैं
कोई कहीं पहुंचने की जल्दी में
तो कोई कहीं लौटने की …
हर बड़ी जल्दी को
और बड़ी जल्दी में बदलने की
लाखों जल्दबाज मशीनों का
हम रोज आविष्कार कर रहे हैं
ताकि दिन दूनी रात चौगुनी बढ़ती हुई
हमारी जल्दियां हमें जल्दी से जल्दी
किसी ऐसी जगह पर पहुंचा दें
जहां हम हर घड़ी
जल्दी से जल्दी पहुंचने की जल्दी में हैं .
मगर….कहां ?
यह सवाल हमें चौंकाता है
यह अचानक सवाल इस जल्दी के जमाने में
हमें पुराने जमाने की याद दिलाता है.
किसी जल्दबाज आदमी की सोचिए
जब वह बहुत तेजी से चला जा रहा हो
-
एक व्यापार की तरह-
उसे बीच में ही रोक कर पूछिए,
            ‘
क्या होगा अगर तुम
           
रोक दिये गये इसी तरह
            
बीच ही में एक दिन
            
अचानक….?’
वह रुकना नहीं चाहेगा
इस अचानक बाधा पर उसकी झुंझलाहट
आपको चकित कर देगी.

उसे जब भी धैर्य से सोचने पर बाध्य किया जायेगा
वह अधैर्य से बड़बड़ायेगा.
अचानक’ को ‘जल्दी’ का दुश्मन मान
रोके जाने से घबड़ायेगा. यद्यपि
आपको आश्चर्य होगा
कि इस तरह रोके जाने के खिलाफ
उसके पास कोई तैयारी नहीं….


हमारे आरामतलब समाज में इस कविता का जो विपरीत अर्थ निकाला जा सकता है उसकी कल्पना की जा सकती है. उसमें जाने के बजाय हम इस विचार पर कर सकते हैं कि ‘गति’ की स्तुति ने हमें क्या दिया है? हम वस्तुत: क्या चाहते थे और क्या हासिल हुआ है? हासिल होना क्या हमारे प्रयत्न से सम्बन्धित है? यदि है तो उसमें जल्दी करने की कितनी भूमिका रही. आशा के विपरीत होने और न होने के बीच हम अपने स्वभाव में ‘जल्दी से’ कर देने के प्रभाव का कितना समावेश कर चुके हैं, तथापि उसके क्या नुकसान हैं.



यह कविता किसे अच्छी लगेगी? उसे शायद अच्छी न लगे जो पहले से ही व्यवस्थित हो. जो इस तरह की जल्दी में न हो. शायद उसे भी जिसे किसी और के जल्दी से होने वाले नुकसान से कोई सहानुभूति न हो. जिसे अपने स्वभावगत दोषों में चिंतन करना भी श्रेयस्कर न लगे. पर कविता इस तरह के विचार-विमर्श से कहीं पहले एक सदाशयता पूर्वक सम्बन्ध स्थापित कर लेती है. जो विचार-विमर्श हम दर्शन में कर सकते हैं, वह कविता में भी कर सकते हैं. दार्शनिक चर्चा शुष्क होती हैं और वहीं कविताओं में रस की आशा की जाती है.



कमरे में धूप
हवा और दरवाज़ों में बहस होती रही,
दीवारें सुनती रहीं.
धूप चुपचाप एक कुरसी पर बैठी
किरणों के ऊन का स्वेटर बुनती रही.
सहसा किसी बात पर बिगड़ कर
हवा ने दरवाज़े को तड़ से
एक थप्पड़ जड़ दिया !
खिड़कियाँ गरज उठीं,
अख़बार उठ कर खड़ा हो गया
,
किताबें मुँह बाये देखती रहीं
,
पानी से भरी सुराही फर्श पर टूट पड़ी
,
मेज़ के हाथ से क़लम छूट पड़ी.
धूप उठी और बिना कुछ कहे
कमरे से बाहर चली गई.
शाम को लौटी तो देखा
एक कुहराम के बाद घर में ख़ामोशी थी.
अँगड़ाई लेकर पलँग पर पड़ गई
,
पड़े-पड़े कुछ सोचती रही
,
सोचते-सोचते न जाने कब सो गई
,
आँख खुली तो देखा सुबह हो गई.

हमारे काव्यशास्त्रों में कविता का एक लक्ष्य ‘कान्तासम्मित उपदेश’ माना जाता है. वह बात जिसे आपकी प्रियतमा आपको समझाए और आप बुरा न माने. (तीन प्रकार के उपदेश इस तरह से हैं – ‘प्रभुसम्मित’,‘सुहृत् सम्मित’ और ‘कान्तासम्मित’ हैं.) उपरोक्त कविता बिना कुछ कहे एक जीवंत दृश्य चित्रित करती है. कमरे की धूप का मानवीकरण क्यों प्रिय है, यह कहना कठिन है. क्या इसलिए कि हम सबने अपने घरों में ऐसा कुहराम और उसके बाद की ख़ामोशी देखी या फिर इसलिए कि कमरे की धूप के लिए चाहे-अनचाहे हम तरसते रहे?

हम कवि को या सिनेमा को या चित्रकार को एकांगी हो कर कभी नहीं देखते. देख भी नहीं पाते. परिचय की गांठ लगने पर, धीरे-धीरे हमारा मूल्यांकन बदलने लगता है. कभी वह प्रिय न रह कर अप्रिय हो जाते हैं, कभी हमारे आत्मीय बन जाते हैं. इन अर्थों में कुंवर जी हमारे दयालु पितामह की तरह लगते हैं. उनकी नसीहतें भी बुरी नहीं लगती, क्योंकि उन्होंने हमें शायद टॉफियाँ ही खिलायीं, मिठाइयाँ ही दीं और हमेशा सर्वप्रशंसित ‘अजातशत्रु’ बने रहे.


बात सीधी थी पर
बात सीधी थी पर एक बार
भाषा के चक्कर में
ज़रा टेढ़ी फँस गई .
उसे पाने की कोशिश में
भाषा को उलटा पलटा
तोड़ा मरोड़ा
घुमाया फिराया
कि बात या तो बने
या फिर भाषा से बाहर आये-
लेकिन इससे भाषा के साथ साथ
बात और भी पेचीदा होती चली गई .
सारी मुश्किल को धैर्य से समझे बिना
मैं पेंच को खोलने के बजाय
उसे बेतरह कसता चला जा रहा था
क्यों कि इस करतब पर मुझे
साफ़ सुनायी दे रही थी
तमाशाबीनों की शाबाशी और वाह वाह .
आख़िरकार वही हुआ जिसका मुझे डर था –
ज़ोर ज़बरदस्ती से
बात की चूड़ी मर गई
और वह भाषा में बेकार घूमने लगी .
हार कर मैंने उसे कील की तरह
उसी जगह ठोंक दिया .
ऊपर से ठीकठाक
पर अन्दर से
न तो उसमें कसाव था
न ताक़त .
बात ने, जो एक शरारती बच्चे की तरह
मुझसे खेल रही थी
,
मुझे पसीना पोंछती देख कर पूछा –
क्या तुमने भाषा को
सहूलियत से बरतना कभी नहीं सीखा
?”


यह विचारणीय है कि हममें कितनी हिंसा भरी है. किसी के खिलाफ बुरा सोचना, बुरा बोलना, बुरा चाहना – हम इनसे अछूते नहीं है. सोशल मीडिया इसका ज्वलंत प्रमाण हैं. किन्तु इस हिंसा का उद्गम क्या है? मैं दावा करता हूँ इसका उद्गम हमारी शिक्षा व्यवस्था में कूट-कूट कर भरा है. विद्यालयों में और परीक्षाओं में हम ऐसे ही प्रश्न पूछते हैं और ऐसे ही पेश आते हैं कि परीक्षार्थी सर्वज्ञ हैं. हालांकि भले ही ध्येय उनको सुशिक्षित करना हो, परंतु छात्रों में अपराधबोध भर देना ही शिक्षण प्रणाली का पहला पहचानने योग्य अवगुण है. इसी अपराधबोध से भय, फिर उसके बदले प्रतिहिंसा उत्पन्न होती है. वहीं मन, वचन और कर्म में दिखेंगी. यही कारण है कि हम विमर्शों में कील ठोकते रहे हैं और उसमें न कोई कसाव होता है न ताक़त.

इतना कुछ था दुनिया में

लड़ने झगड़ने को
पर ऐसा मन मिला
कि ज़रा-से प्यार में डूबा रहा
और जीवन बीत गया

कभी-कभी कोई कविता गहरे चोट करती है. संगीत और कला से तृप्ति तो बहुत स्वीकृत है. रागी मन जो ज़रा से प्यार में डूबने को तैयार रहे और जीवन के बीतने पर तृप्त रहे, जो लड़ने-झगड़ने की व्यर्थता बतलाए, मुझे लगता है कि कुंवर जी की कविताओं पर विष्णु खरे जी की समीक्षा - ब्रह्मांड और धरती के अनन्‍त वैविध्‍य को लेकर कुछ अहसास कुंवर नारायण में दिखाई पड़ता है, लेकिन वह रोमांचक, औत्‍सुक्‍यपूर्ण, चिंतनशील(स्‍पेकुलेटिव) या अपनी प्रतिबद्धता में ठोस कम, ‘हिंदू’ आध्‍यात्मिक अधिक लगता है. – को  एक नये संदर्भ में देखने की आवश्यकता है. जहाँ तक मेरी समझ है, विष्णु जी कुंवर नारायण को इन्हीं अर्थों में आध्यात्मिक कह रहे हैं.

शैव दर्शन के तत्त्व चिंतन में ‘राग’, ‘कला’, ‘काल’, ‘नियति’ और ‘विद्या’ माया के कुंचक शक्तियाँ मानी जाती हैं. मेरे हिसाब से ‘अनालिटिक फिलॉसफी’ या ‘कन्टिनेन्टल फिलॉसफी’ में इनकी कोई जगह नहीं है. न तो वह नियति मानते हैं, न ही राग या विद्या की हिन्दू अर्थों में देखते हैं. जिन्हें ‘हिन्दू’ शब्द से धर्मनिरपेक्षता का ख़तरा है, वे ग़ैर अब्राहमिक और ग़ैर वस्तुवादी शब्दयुग्मों का प्रयोग कर सकते हैं.

जैसा कि मैंने ऊपर इशारा किया है कि कविता के विचार विमर्श का कोई स्वतंत्र विधान बनाने से रसास्वादन पर कोई फर्क नहीं पड़ेगा, किन्तु सत्य की खोज में काव्य के विचार दर्शन के चिंताओं से बाहर नहीं हैं. बिना दार्शनिक संगति के कोई कवि श्रेष्ठ नहीं हो सकता. मैं यह कहना चाहूँगा कि यदि बिना ऐसी संगति के वह कवि होने का दावा करता है तो वह झूठा है या दोयम दर्जे का है. दार्शनिक अवधारणा और संगतियाँ जीवन पर्यन्त बनती हैं और सँवरती हैं. कालिदास की श्रेष्ठता उनकी राजनीति, व्याकरण, दर्शन आदि पर होने के साथ है. वहीं भारवि ‘किरातार्जुनीयम्’ में व्याकरण और छंद ले कर रचना पर हावी हो जाते हैं. भारवि की प्रतिभा राजनीति और वीर-रस के चित्रण में मुखर होती है, वहीं कालिदास जीवन के हर आयामों पर दृष्टि रखते हैं. यही कारण है कि अनुवाद के उपरांत भी वह छुपा हुआ सत्य हमें प्रेरित करता है. वह सत्य जो कई आयामों में है.

कुंवर जी ‘कठोपनिषद’ के संदर्भ में ‘वाजश्रवा के बहाने’ में लिखते हैं

पिता से गले मिलते

आश्वस्त होता नचिकेता कि
उनका संसार अभी जीवित है.

उसे अच्छे लगते वे घर
जिनमें एक आंगन हो
वे दीवारें अच्छी लगतीं
जिन पर गुदे हों
किसी बच्चे की तुतलाते हस्ताक्षर,
यह अनुभूति अच्छी लगती
कि मां केवल एक शब्द नहीं,
एक सम्पूर्ण भाषा है,

अच्छा लगता
बार-बार कहीं दूर से लौटना
अपनों के पास,

उसकी इच्छा होती
कि यात्राओं के लिए
असंख्य जगहें और अनन्त समय हो
और लौटने के लिए
हर समय हर जगह अपना एक घर


वह सत्य है – आत्मविश्रांति. चित्त चंचल होने के बाद कहीं से भी वापस लौट कर विश्राम करना चाहता है. वह विश्राम भी अपने आप में – वह अपना कहाँ है – अपने घर में – माँ-पिता के पास. वे घर जिनमें एक आंगन हो, वे दीवारें जिनमें बच्चों के हस्ताक्षर हो. मैं कठोपनिषद का संदर्भ याद दिलाना चाहूँगा कि नचिकेता को यह सब तब अच्छा लग रहा है जब वह यमराज के पास से वापस लौट कर आता है.

यमराज यानी मृत्यु!

दुनिया की चिन्ता
छोटी सी दुनिया
बड़े-बड़े इलाके
हर इलाके के
बड़े-बड़े लड़ाके
हर लड़ाके की
बड़ी-बड़ी बन्दूकें
हर बन्दूक के बड़े-बड़े धड़ाके
सबको दुनिया की चिन्ता
सबसे दुनिया को चिन्ता .


छोटे में बड़े का समाना कैसे होता है? देखो तो यह धरती कितनी विशाल नजर आती है. कभी-कभी यात्राओं में अनुभव होता है कि यह दुनिया कितनी छोटी है. हमारा जीवन कितना छोटा है. मीर तक़ी मीर के शब्दों में - हस्ती अपनी हबाब की सी है, ये सारी नुमाइश सराब की सी है.  फिर भी हम कितनी गम्भीरता से चीजों को लेते हैं कि बन्दूकें थाम लेते हैं. जैसे ही हमने ही इस धरती के इतिहास, भूगोल और भविष्य का ठेका ले रखा है. जैसे हम सच में बहुत कुछ बन्दूक के दम पर बदल लेंगे.शायद इसलिए क्रांतिकारी विचारधारा के लिए कुंवर जी की प्रतिबद्धता कम ठोस और अधिक आध्यात्मिक लगती है.

बौद्धों की दृष्टि से देखें तो सारा इतिहास केवल अनुमान है. सारा जीवन क्षणिक है. लेकिन हमारी चिन्ताएँ वास्तविक है. किन अर्थों में? हमारी स्वयं की मूर्खता और समुदाय का सर्वनाश के आसन्न खतरों से.


दुनिया के घटनाक्रम की चिन्ता से पहले अपने और अपने घर की चिन्ता कर लें. अधिकांश क्रांतिकारी निजी जीवन में क्रूर और पाखण्डी होते हैं. उनके पारिवारिक जीवन जटिल और निंदनीय आचरणों की गाथा होते हैं. वे भूल जाते हैं कि मनुष्य होने की पहले शर्त प्रेम है. जब प्रेम हमें शब्दों में, लय में, गीत में, रूप में, रंग में, काम में अर्थों में मिलता है तो हम आसानी से पहचानते हैं. यह विडम्बना है कि यही प्रेम जब चिन्ता में, खयाल रखने में उभर कर आता है तो हमें बंधन लगता है. हम उसे अनावश्यक समझ कर दूर भागते हैं. यही न पहचानना, हमारे समाज की दिशा-दशा तय करता है.


क्या फिर वही होगा

जिसका हमें डर है ?
क्या वह नहीं होगा
जिसकी हमें आशा थी?

क्या हम उसी तरह बिकते रहेंगे
बाजारों में
अपनी मूर्खताओं के गुलाम?

क्या वे खरीद ले जायेंगे
हमारे बच्चों को दूर देशों में
अपना भविष्य बनवाने के लिए ?

क्या वे फिर हमसे उसी तरह
लूट ले जायेंगे हमारा सोना
हमें दिखाकर कांच के चमकते टुकडे?

और हम क्या इसी तरह
पीढी-दर-पीढी
उन्हें गर्व से दिखाते रहेंगे
अपनी प्राचीनताओं के खण्डहर
अपने मंदिर मस्जिद गुरुद्वारे?


क्या वजह होती है कि अपना देश और अपनी भाषा, अपने पर्व-त्योहार और अपनी पकवान छोड़ कर दूर देशों में हमेशा के लिये बस जाते हैं? ग़ुलामी के बाद भीषण दरिद्रता से निकल आया भारतीय समाज मानसिक रूप से अभी भी भीषण दरिद्र ही है. वरना क्या कारण है कि आइ.आइ.टी. से पढ़े तथाकथित होनहार लड़कों को टेक्नोलॉजी के बजाय आइ.आइ.एम. के बाजारू कोर्स कर के साबुन-तेल बेचने में ज्यादा रुचि है? क्या कारण है कि हम में से कई मौका मिलते ही अमरीका में बस जाने को लालायित हैं? क्या कारण है कि हमारे प्राचीनताओं के तो खण्डहर भी हैं, आधुनिकता के नाम पर हम फिसड्डी हैं. भारत में बीसवीं सदी में बना कोई स्थापत्य, कोई मूर्ति, कोई विश्वविद्यालय, वैश्विक स्तर पर कुछ भी नहीं है. और क्यों होगा, जब हमने व्यवस्था ही दोयम दर्जे की स्थापित की है.

मेरे हिसाब से इन सब का कारण आत्महीनता का दंश और स्वाभिमान की कमी है.


अजीब वक्त है

अजीब वक्त है -

बिना लड़े ही एक देश- का देश
स्वीकार करता चला जाता
अपनी ही तुच्छताओं के अधीनता !

कुछ तो फर्क बचता
धर्मयुद्ध और कीट युद्ध में -
कोई तो हार जीत के नियमों में
स्वाभिमान के अर्थ को फिर से ईजाद करता.


इसी संदर्भ में भारवि के ‘किरातार्जुनीयम्’ के दो श्लोक को उद्धृत करना श्रेयस्कर है :-

ज्वलितं न हिरण्यरेतसं चयमास्कन्दति भस्मनां जन:।
अभिभूतिभयादसूनत: सुखमुञ्झन्ति न धाम मानिन: ।। २.२०।।




सम्मान सभी प्रकार से रक्षणीय है. इसकी रक्षा सर्वोपरि है. इसकी रक्षा हेतु स्वाभिमानी पुरुष सुखपूर्वक अपने प्राणों का भी परित्याग कर देते हैं पर तिरस्कारयुक्त जीवन नहीं जीते. जलती अग्नि पर कोई पैर रखने का साहस नहीं करता, वहीं उष्णा रहित भस्म को सभी पाँव से कुचल देते हैं. इसी तरह तेजस्वी व्यक्तियों को कोई भी अभिभूत करने की कामना नहीं करता.

किमपेक्ष्य फलं पयोधरान् ध्वनत: प्रार्थयेत मृगाधिप:।
प्रकृति: खलु सा महीयस: सहे नान्यसमुन्नतिं यथा ।।२.२१।।



स्वाभिमानी पुरुष दूसरों की समुन्नति को भी नहीं सहन करते. यथा जलद का गर्जन सिंह के लिए असह्य होता है और प्रतिक्रिया के रूप में स्वयं गर्जन करके वह अपने तेज को प्रकट करता है.


इसी निर्लज्ज समय में कुंवर जी की अंतिम यात्रा में कम भीड़ की अशोभनीय अफवाह उड़ायी गयी. उसी समय कुछ हिन्दी लेखक-पाठक चिल्ला रहे थे कि हिन्दी का अंतिम कवि चला गया. कविता ख़त्म हो गयी. मैं समझता हूँ कि कुंवर जी उन नासमझ रुदालियों को इन्हीं पंक्तियों से समझाते –


एक बार ख़बर उड़ी
कि कविता अब कविता नहीं रही
और यूँ फैली
कि कविता अब नहीं रही !

यक़ीन करनेवालों ने यक़ीन कर लिया
कि कविता मर गई,
लेकिन शक़ करने वालों ने शक़ किया
कि ऐसा हो ही नहीं सकता
और इस तरह बच गई कविता की जान

ऐसा पहली बार नहीं हुआ
कि यक़ीनों की जल्दबाज़ी से
महज़ एक शक़ ने बचा लिया हो
किसी बेगुनाह को.



स्वाध्यायी के लिये यह काम शेष बच जाता है कि कुंवर जी की रचनाओं का सम्यक अध्ययन करे. उनमें वह सत्य ढूँढे जो मानव को मानवीय और करुणामय बनाते हैं. जो जीवन के वृहद अर्थों में आनन्द और कर्तव्य को अंतर्दृष्टि के अर्थों में समाहित करते हैं. जो सुबह की पहली कोमल किरण की तरह हमारे पितामह के दुलार की याद दिलाते हैं.

सज्जन कवि कुंवर जी को असंख्य पाठकों की ओर से अश्रुपूरित श्रद्धांजलि.

__________
 
प्रचण्ड प्रवीर बिहार के मुंगेर जिले में ​​जन्मे और पले बढ़े हैं . इन्होंने सन् २००५ में भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान दिल्ली से रासायनिक अभियांत्रिकी में प्रौद्योगिकी स्नातक की उपाधि ग्रहण की . सन् २०१० में प्रकाशित इनके पहले उपन्यास अल्पाहारी गृहत्यागी: आई आई टी से पहले ने कई युवा हिन्दी लेखकों को प्रेरित किया . सिनेमा अध्ययन और ​हिन्दी के वरिष्ठ आलोचकों ने सन् २०१६ में प्रकाशित इनकी कथेतर पुस्तकअभिनव सिनेमा: रस सिद्धांत के आलोक में विश्व सिनेमा का परिचय कीनई अध्ययन-दिशा देने के लिए प्रशंसा की . सन् २०१६ में ही इनका पहला कथा संग्रह जाना नहीं दिल से दूर प्रकाशित हुआजिसे हिन्दी कहानी-कला में एक नये चरण को प्रारम्भ करने का श्रेय दिया जाता है . इनका पहला अंग्रेजी कहानी संग्रह भूतनाथ मीट्स भैरवी सन् २०१७ में प्रकाशित हुआ .
prachand@gmail.com

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  1. Adbhut kavi they Kunwar ji. Hamaari vinamra shraddhanjali!
    Prachand ji ka aabhar unse itne behtareen dhang se parichay karaane ke liye!

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  2. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (18-11-2017) को "नागफनी के फूल" (चर्चा अंक 2791) पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  3. ज़ोर ज़बरदस्ती से
    बात की चूड़ी मर गई
    और वह भाषा में बेकार घूमने लगी .
    हार कर मैंने उसे कील की तरह
    उसी जगह ठोंक दिया .
    ऊपर से ठीकठाक
    पर अन्दर से
    न तो उसमें कसाव था
    न ताक़त .

    ये पंक्तियाँ , यह डिक्शन, यह भाषा -- सप्तक के कवि की ही हो सकती है । हिंदी की नई कविता को मज़बूत आधार देने वाले कवि को विनम्र श्रद्धाँजलि ! और काव्या आलोचना की गहरी समझ रखने वाले युवा टिप्पणी कार प्रचंड प्रवीर को बहुत बहुत बधाई!

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  4. ''क्या कारण है कि हमारे प्राचीनताओं के तो खण्डहर भी हैं, आधुनिकता के नाम पर हम फिसड्डी हैं. भारत में बीसवीं सदी में बना कोई स्थापत्य, कोई मूर्ति, कोई विश्वविद्यालय, वैश्विक स्तर पर कुछ भी नहीं है. और क्यों होगा, जब हमने व्यवस्था ही दोयम दर्जे की स्थापित की है.''

    उपर्युक्त टिप्पणी मुझे ‘मास्टरस्ट्रोक’ लगी। कुँवर जी को आप जिस तमीज और तरीके से याद करते हुए अपनी बात रखते हैं; उस साफगोई और समझ की जरूरत हमारी पीढ़ी को सबसे अधिक है।

    बाकी थोड़ा लिखना ज्यादा समझना!

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  5. तृप्तिकर आलेख।

    खास बात यह कि लेखक ने कुंवर जी पर जो दृष्टि डाली है उसमें हमारे पारंपरिक काव्‍य शास्‍त्र की आभा भी है और इसके साथ-साथ अत्‍याधुनिक काव्‍य-विवेक का उजास भी.. उनके विश्‍लेषणों के साथ कविता के अलग ही अर्थ खुलते चले गए.. श्री प्रवीर को सशक्‍त अभिव्‍यक्ति के लिए बधाई, प्रस्‍तुति के लिए आपका आभार और स्‍मृतिशेष सिरमौर रचनाकार कुंवर जी को विनम्र श्रद्धांजलि...

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