हिंदी भाषा को लेकर बार-बार दुहराए जाने वाली एक मांग यह भी
है कि वह सहज सरल हो. यह ठीक है कि उसे जानबूझकर अबूझ न बनाया जाए. अनावश्यक रूप
से उसमें संस्कृत न भर दी जाए, पर जटिल से जटिलतर होते समाज और ज्ञान को अभिव्यक्त करने
की अपनी ज़िम्मेदारी से हिंदी कैसे मुंह मोड़ सकती है. एक सबल भाषा के रूप में उसका
विकास तो होना ही है.
हिंदी दिवस के अवसर पर राहुल राजेश का यह जरूरी आलेख आपके
लिए.
आखिर हम कैसी हिंदी चाहते हैं?
राहुल
राजेश
जब भी,
जहाँ भी राजभाषा हिन्दी की चर्चा
होती है तो सबकी एक ही शिकायत होती है- राजभाषा हिन्दी सरल-सहज नहीं है. वह बोलचाल
की हिन्दी नहीं है. उनके कहने का मतलब यह होता है कि राजभाषा हिन्दी बहुत
संस्कृतनिष्ठ है, बहुत क्लिष्ट है, इसलिए लोग इसे नहीं अपना रहे हैं. चाहे कार्यालय हो, चाहे विश्वविद्यालय हो, चाहे कोई
सेमिनार हो या कोई संगोष्ठी, चाहे हिन्दी दिवस हो, या विश्व
हिन्दी दिवस- छोटे-बड़े अधिकारी से लेकर क्लर्क तक, हिन्दी के
लेखक-प्राध्यापक से लेकर हिन्दी के पत्रकार
तक- लोग ऐसा कोई अवसर, ऐसा कोई मंच नहीं छोड़ते जहाँ वे राजभाषा हिन्दी के कठिन, क्लिष्ट और संस्कृतनिष्ठ होने की शिकायत न करें.
विडम्बना यह है कि राजभाषा हिंदी में सहजता-सरलता की मांग तो
खूब की जाती है पर यह जोर बस सरल-सहज शब्दावली तक सिमट कर रह जाती है. जबकि किसी
भाषा में प्रवाह,
सरलता, सहजता और बोधगम्यता तब आती है,
जब उसमें इस्तेमाल किए जा रहे वाक्य लंबे-लंबे और लच्छेदार न होकर, छोटे-छोटे और सहज-सरल हों. लेकिन लोग वाक्यों और वाक्य-विन्यास में सरलता-सहजता की मांग
करने की बजाय शब्दावली की सरलता-सहजता पर अटक जाते हैं. अगर वाक्य छोटे-छोटे और
सहज-सरलहों तो उनमें पिरोए गए एकाध कठिन शब्द भी बोधगम्यता में बाधक नहीं होते हैं.
जहाँ तक शब्दावली और शब्दों के कठिन होने का सवाल है तो यह उन शब्दों से परिचित
या अपरिचित होने का मामला कहीं अधिक है, न
कि उनके अर्थ समझने-समझाने का संकट.
जिस शब्द से आप पहले से परिचित हैं, जाहिर है, वह शब्द आपको आसान लगेगा. जिस शब्द से आप परिचित नहीं हैं, वह शब्द आपको कठिन लगेगा. और यह सिर्फ हिंदी के शब्दों के
मामले में ही नहीं, अंग्रेजी के मामले में भी समान रूप से लागू होगा. इसे सिर्फ
हिंदी के शब्दों तक सीमित रखना कूपमंडूकता है. क्या अंग्रेजी के शब्द कठिन नहीं
होते? क्या अंग्रेजी के वाक्य कठिन नहीं होते? क्या अंग्रेजी में जारी सरकारी, कानूनी या
तकनीकी दस्तावेज कठिन नहीं होते?
कोई शब्द यदि पहले सुना या पढ़ा हुआ नहीं है तो वह अटपटा या
कठिन लग सकता है. पर हर नये शब्द को सिर्फ इसलिए कठिन नहीं कह दिया जाना चाहिए
क्योंकि उसे पहली बार सुना या पढ़ा जा रहा है.भाषा विज्ञान का यह सर्वमान्य और
सर्वविदित नियम है कि कोई भी शब्द चाहे वह कितना ही कठिन हो,लगातार इस्तेमाल में आने से आसान हो जाता है. कठिन से कठिन
शब्द भी लगातार इस्तेमाल होने से आसान,
परिचित और प्रचलित लगने लगते हैं. यानी इस्तेमाल होते रहने से कठिन से कठिन शब्द
भी कठिन और अपरिचित नहीं रह जाते हैं. वहीं
कोई भी शब्द चाहे वह उच्चारण और वर्तनी में कितना ही आसान हो, यदि इस्तेमाल नहीं हो रहा है तो वह पहली बार सुनने या पढ़ने
में अटपटा, अपरिचित और कठिन लग सकता है. और यह बात सिर्फ हिन्दी पर ही
नहीं, अंग्रेजी समेत किसी भी भाषा पर उतनी ही लागू होती है.
इस बात से कोई इंकार नहीं कर सकता कि जो भाषा जितनी अधिक
सरल-सहज होगी, वह उतनी ही अधिक जुबान पर चढ़ेगी. पर राजभाषा हिन्दी या किसी
भी भाषा के मामले में हम सरलता-सहजता की मांग एक हद तक ही कर सकते हैं. क्या
अंग्रेजी का शब्द ‘Correspondence’
बोलने-पढ़ने-लिखने
में कठिन नहीं है?तो सुनने-बोलने-पढ़ने-लिखने की सहजता-सरलता के लिए क्यों न इस
शब्द की जगह ‘Letters’ का इस्तेमाल किया जाए?
पर क्या ‘Letters’ से वही आशय और अर्थ संप्रेषित होता है जो ‘Correspondence’ से होता है?
क्या दोनों को एक-दूसरे का
पर्यायवाची कहा जा सकता है? एक दूसरा उदाहरण लें. अंग्रेजी में लिखे ‘Please refer to your letter’ को हिन्दी में हम सीधे, सहज ढंग से
लिखते हैं- ‘कृपया अपना पत्र देखें.’
लेकिन अंग्रेजी वाले ‘refer to’ की जगह ‘see’
क्यों नहीं लिखते? (क्योंकि इससे अंग्रेजी में वो वजन नहीं रह जाएगा.)
पिछले साल 08 नवंबर, 2016 से हजार और पाँच सौ रुपए के पुराने बैंकनोट विधिमान्य
बैंकनोट नहीं रह गए थे. तब बहुत से लोगों ने ‘Demonetization’
शब्द पहली बार सुना था और इस शब्द को बोलने में अच्छे-अच्छे अंग्रेजीदां लोगों की
भी जुबान लड़खड़ा जा रही थी. राजभाषा हिंदी में सहजता-सरलता की गुहार लगाने वाले लोग
कहते हैं, ‘Demonetization’
के हिंदी पर्याय ‘विमुद्रीकरण’
की जगह अखबारों में प्रयुक्त
सरल शब्द ‘नोटबंदी’ का प्रयोग किया जाना चाहिए. लेकिन जरा गौर करें तो ‘नोटबंदी’ शब्द दरअसल ‘NOTE-BAN’
के लिए इस्तेमाल किया जा रहा
है और इसलिए हम ‘Demonetization’ के लिए ‘नोटबंदी’ का इस्तेमाल नहीं कर सकते, क्योंकि
तकनीकी और कानूनी रुप से ‘Demonetization’ और ‘NOTE-BAN’ स्पष्टतः दो अलग-अलग बातें हैं. और इसलिए ‘नोटबंदी’ को ‘विमुद्रीकरण’ का बिल्कुल सटीक-सही पर्याय नहीं माना जा सकता.
इसी तरह राजभाषा हिंदी और इसकी शब्दावली को और अधिक सरल-सहज बनाने
के उपक्रम में हम ‘Correspondence’
के लिए प्रयुक्त हिंदी पर्याय ‘पत्राचार’ की जगह ‘चिट्ठी-पत्री’ नहीं
लिख सकते. (जैसे अंग्रेजी वाले ‘referto’ की जगह ‘see’ नहीं लिखते.)
ठीक इसी तरह हम ‘नृत्य-नाटक प्रभाग’
को ‘नाच-नौटंकी प्रभाग’
नहीं लिख सकते. हम ‘डांस एंड म्यूजिक प्रोग्राम’
को ‘नृत्य-संगीत कार्यक्रम’
की जगह ‘नाच-गाने का प्रोग्राम’
नहीं लिख सकते. यदि हम सरलता-सहजता और बोलचाल की हिंदी के नाम पर ऐसा करेंगे तो
इसके संदर्भ और मायने कितने बदल जाएँगे,
यह बताने की जरूरत नहीं है. कुछ लोग
कहते हैं कि बैंकिंग लेन देन के संदर्भ में ‘Withdrawal’
के लिए ‘आहरण’ शब्द कठिन है. लेकिन वे लोग यह नहीं देखते कि ‘आहरण’
की जगह ‘निकासी’ शब्द भी खूब धड़ल्ले से इस्तेमाल हो रहा है और यह शब्द लोगों
की जुबान पर चढ़ा हुआ है. वे यह नहीं देखते कि ‘Deposit’
के लिए ‘निक्षेप’ की जगह ‘जमा’ जैसे सरल शब्द का इस्तेमाल किया जा रहा है. वे तो यह भी नहीं
देखते कि अंग्रेजी शब्द ‘Discrimination’ (डिस्क्रिमिनेशन)
जैसे उच्चारण और लिखने में कठिन शब्द के लिए हिंदी में ‘भेद-भाव’ जैसा एकदम सरल-सहज शब्द है.
सरलता-सहजता की मांग करने वाले लोग यहाँ तक मांग कर रहे हैं
कि किसी अंग्रेजी शब्द का हिन्दी पर्याय तनिक भी कठिन लगे तो अंग्रेजी शब्द को ही
सीधे-सीधे देवनागरी में लिख दिया जाए. लेकिन जिन अंग्रेजी शब्दों के
सही-सटीक-समर्थ हिन्दी पर्याय मौजूद हैं तो सीधे-सीधे अंग्रेजी शब्द लेने का
हठधर्मितापूर्ण आग्रह क्यों किया जा रहा है? जब तक आप
हिन्दी पर्यायों को अधिक से अधिक बरतेंगे नहीं, वे आपको
कठिन ही लगेंगे.
अब तो असल चिंता की बात यह है कि सरलता-सहजता और दिखावे के
आग्रह में बोलचाल की हिन्दी में जाने-अनजाने ऐसे सैकड़ों अंग्रेजी शब्द घर-दफ्तर
में धड़ल्ले से इस्तेमाल होने लगे हैं, जिनके
लिए मूल हिन्दी शब्द पहले से मौजूद हैं. हम आजकल अपनी रोजमर्रा
की जिंदगी में अनजाने से कहीं ज्यादा, जानबूझकर
सैकड़ों अंग्रेजी शब्द घर-दफ्तर में बहुत तेजी से, बहुत
धड़ल्ले से बोलने लगे हैं,
जबकि इनके मूल और
प्रचलित हिंदी शब्द पहले से ही चलन में मौजूद हैं.
जरा गौर करें कि हम अब रंगों के नाम, दिन-महीनों
के नाम, फल-सब्जियों के नाम,
रिश्तों के नाम, विषयों के नाम,
धातुओं के नाम, अंक,
संख्या, मोबाइल नंबर, घर-दफ्तर के पते आदि प्राय: अंग्रेजी में ही बोलने लगे हैं कि
नहीं? क्या इनके लिए हिंदी शब्द मौजूद नहीं हैं? जरा याद करें, पोस्टमैन, मेकैनिक, इलेक्ट्रिशियन,
कारपेंटर, प्लम्बर, टेलर, कुक,
मेड, लेबर के लिए हमने डाकिया, मिस्त्री, बिजली मिस्त्री,
बढ़ई (काठ मिस्त्री),
पाइप मिस्त्री
(नलसाज), दर्जी, रसोइया (बाबर्ची),कामवाली
बाई (नौकरानी), मजदूर आखिरी बार कब बोला था? ग्रेवी, जूस, किचन के लिए झोर (झोल),
रस, रसोईआखिरी बार कब बोला था? क्या
हम इन प्रचलित हिन्दी शब्दों की जाने-अनजाने अनदेखी नहीं करते जा रहे हैं? और क्या इसका बुरा नतीजा यह नहीं हो रहा है कि ये हिंदी शब्द
हमारी बोलचाल से ही नहीं,
हमारी स्मृति और हमारे लोक से ही
बाहर होते चले जा रहे हैं?
मेरी यह चिंता और स्पष्ट हो जाएगी यदि मैं घर-दफ्तर में
धड़ल्ले से बोले जा रहे ऐसे सैकड़ों अंग्रेजी शब्दों की एक छोटी-सी सूची आपके सामने पेश करूँ. जैसे- टाइम, ऑफिस,
सर्विस, लाइफ, वाइफ, फैमिली, मदर-फादर, मैरेज,
मार्केट, कस्टमर, गिफ्ट, शॉपिंग, कैश,
चेंज, फ्रेश, फ्री,
फ्रीडम, ट्रेन, फ्लाइट,
लगेज, अटेंडेंस, प्रेजेंट, एबसेंट,
एक्शन, ट्रान्सफर, पोस्टिंग,
ऑर्डर, गवर्नमेंट, डिपार्टमेंट, मिंस्ट्री,
इलैक्शन, कमीशन, कमिटी,
कॉमन, मैनेजमेंट, मिनिस्टर,
ट्रेनिंग, इन्फॉर्मेशन, सेक्शन,
ब्लॉक, डिस्ट्रिक्ट, ऑफिसर, स्टाफ,
एम्प्लोई, हेड, सीनियर, जूनियर,
इशू, मैटर, लेटर,
ड्राफ्ट, रिप्लाई, यंग, ओल्ड,
एज, बिल्डिंग, फ्लोर,
टॉप, मिड्ल, टाउन, सिटी,
रेज़िडेन्शियल, हॉस्पिटल,
बेड, चेयर, गेम्स, ग्राउंड,
टीम, थीम, लेट, गेट, वेट, डेट, रेट, हेट, सेट, पेयर, लव, लैंग्वेज, आर्ट, लिटरेचर, राइटर, हेल्थ,
ग्रोथ, ब्लड, शुगर,
प्रेसर, टेंशन, हार्ट, अटैक, हेडेक, फीवर, एग्जाम,
इंटरव्यू, क्वेश्चन-आन्सर,
क्लास, कोर्स, सबजेक्ट,
सिलेबस, बुक, मैगजीन,
न्यूज, यूज, स्टूडेंट, युनिवर्सिटी,
टैलेंट, मेरिट, लिस्ट, अवार्ड, नॉलेज, बेस, वर्ड,
पैरेंट्स, कजिंस, नेबरवुड, नेबर, टी, ब्रेकफ़ास्ट, लंच, डिनर, फ्रूट, जूस, एप्पल, बनाना, राइस,
किचन, रेसिपी, वेज-नॉनवेज,
राउंड, सर्कल, सीन,
स्टेज, बैटिंग, बॉलिंग, वोटिंग, काउंटिंग आदि-आदि.
कुछ और उदाहरण देखिए- ज्यूलरी, मिरर,
मेक-अप, लुक,
फेस, बॉडी, स्कीन, प्रोडक्ट, सैंपल,
एग्जाम्प्ल,टेस्ट, मेडिसिन, बॉटल, मेड (सर्वेंट), पोस्टमैन, मेकैनिक, इलेक्ट्रिशियन, लेबर, रेड, ग्रीन, ग्रे, पिंक, ब्लू, ब्लैक, व्हाइट, डार्क, लाइट,कलर, ज़ीरो, वन, टू, हनड्रेड, थाउजेंड,संडे, मंडे,
मॉर्निंग, ईवनिंग, नाइट, म्यूजिक,
पेन, पेपर,स्लिप, सोशल, नेचर, सिग्नेचर, नैचुरल, हर्बल, अकाउंट, बैलेंस, सेविंग्स, सैलरी, पेमेंट, ब्रांच, ड्रेस, मेंबर, बिजनेस, इंडस्ट्री, लैंड, ओनर, रेंट, कोर्ट, केस, क्राइम, पीटिशन, अरेस्ट,एप्लिकेशन, कम्प्लेंट, पब्लिक, प्राइवेट, अफेयर, डेली, मंथली, क्वार्टरली, ऐनुअल, स्टेटमेंट, इंस्टॉलमेंट, डिमांड, इंस्टीच्यूट, ऑर्गनाइजेशन, एंट्री, एग्जिट, ब'डे, एनिवर्सरी, न्यू ईयर, फंक्शन, फूड, क्वालिटी, क्वांटिटी, केयर, लॉस, लेंथ, डेथ, पेशेंट, सर्टिफिकेट, व्यू, व्यूज, आइडिया, पर्सनल, प्रॉबलम, डायरेक्ट, रिलेशन, मीटिंग, वेलकम, टॉवेल, मेंटेन, सटिस्फायड, एडमिशन, रिजर्वेशन,सेफ, अनसेफ,लोकल, अब्रॉड,सेंटर, एडमिट कार्ड, रिजल्ट, जॉब, प्रोग्राम, फैन, फॉलो, मॉडर्न, लेटेस्ट, रिएक्ट, रिएक्शन, डायलॉग, एक्टिंग, कमेंट, स्टोरी, हिस्ट्री, डैमेज, सोर्स, सक्सेसफुल, पॉपुलर, कल्चर, सर्वे, लीडरशिप, रूल, सिस्टम, पार्टी, पॉलिटिक्स, कास्ट, कॉस्ट, केमिकल, प्लीज, एड्रेस, मेसेज, जज, जजमेंट आदि-आदि.
अब मैं इस बढ़ती ही जा रही
सूची को सायास रोक रहा हूँ. मैं यहाँ यह बात एकदम साफ तौर पर बता देना चाहता हूँ कि हिंदी लिखने में मैं कुछ हद तक शुद्धतावादी होने का तर्कसंगत
आग्रह भले करता हूँ पर बोलचाल की हिंदी में शुद्धतावादी होने का मेरा कोई आग्रह
नहीं है. मेरी चिंता बस यह है कि हम हिंदी बोलने की जगह ‘हिंग्रेजी’ या ‘हिंगलिश’ बोलने से भरसक बचें. हम बोलचाल की हिंदी में इतनी अधिक
अंग्रेजी न फेंट दें कि "मिलावट ही सजावट है" जैसा चालू जुमला भी शरमा
जाए. और यह मिलावट हिंदी की सजावट न होकर, हिंदी
के लिए सजा हो जाए. मेरी चिंता बस यह है कि यदि सरलता-सहजता के नाम पर लोग हिन्दी
लिखने में भी ऐसे ही सीधे-सीधे अंग्रेजी शब्द लेने लगेंगे तो आने वाले दिनों में हिन्दी
की क्या दुर्दशा होगी?
यह सोचकर ही मेरा कलेजा कांप जाता है. यह हमें ही तय करना होगा कि आखिर हम कैसी हिंदी चाहते हैं??
राहुल राजेश
बी-37, आरबीआई स्टाफ क्वार्टर्स,16/5, डोवर लेन, गड़ियाहाट, कोलकाता- 700029.
मो. 09429608159.
ईमेल: rahulrajesh2006@gmail.com
ईमेल: rahulrajesh2006@gmail.com
बढ़िया लेख राहुल जी .
जवाब देंहटाएंबहुय जरूरी लेख । समस्या की जड पर अँगुलि यख दी राजेश जी ने । बधाई ।
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (15-09-2017) को
जवाब देंहटाएं"शब्द से ख़ामोशी तक" (चर्चा अंक 2728)
पर भी होगी।
--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हिन्दी दिवस की
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक
बहुत शानदार लेख है। मैंने पूरा पढ़ा।
जवाब देंहटाएंबेहतरीन लेख आखिरकार आपने मिलावट के मासूम बहाने छीन लिए
जवाब देंहटाएंमेरी चिंता बस यह है कि हम हिंदी बोलने की जगह ‘हिंग्रेजी’ या ‘हिंगलिश’ बोलने से भरसक बचें. हम बोलचाल की हिंदी में इतनी अधिक अंग्रेजी न फेंट दें कि "मिलावट ही सजावट है" जैसा चालू जुमला भी शरमा जाए. और यह मिलावट हिंदी की सजावट न होकर, हिंदी के लिए सजा हो जाए. मेरी चिंता बस यह है कि यदि सरलता-सहजता के नाम पर लोग हिन्दी लिखने में भी ऐसे ही सीधे-सीधे अंग्रेजी शब्द लेने लगेंगे तो आने वाले दिनों में हिन्दी की क्या दुर्दशा होगी? यह सोचकर ही मेरा कलेजा कांप जाता है. यह हमें ही तय करना होगा कि आखिर हम कैसी हिंदी चाहते हैं??
जवाब देंहटाएं..एकदम सटीक चिंतन
बढ़िया लेख,राहुल जी। आपने कई जरूरी बातें उठाई हैं। मैं भी क्लिष्ट हिंदी के पक्ष में नहीं हूँ लेकिन जब हिंदी के सरल शब्द हों तो उसके जगह अंग्रेजी के शब्दों का प्रयोग करने से बचता हूँ। एक विचारोत्तेजक लेख। आभार।
जवाब देंहटाएंduibaat.blogspot.com
हिंदी हमारी अस्मिता और चेतना की भाषा है ।जिस चीज को हम व्यवहार मे लाते हैं,वही बचती और बढती है । तमाम विरोधाभासी स्थितियों के बीच भाषा को बचाने का अर्थ है, उसे प्रयोग करने वाले समाज को बचाना । हिंदी दिवस के अवसर पर बहुत जरूरी और समसामयिक लेख है ।
जवाब देंहटाएंलेखक को धन्यवाद। समालोचन और अरुण देव जी का बहुत आभार ।
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