यात्राएँ मंजिल पर पहुंच कर समाप्त
नहीं हो जातीं. दरअसल रास्ते भी यात्राओं में शामिल हैं.
और एक यात्रा खुद के अंदर भी चलती रहती है. ख़ासकर अगर कोई भारतीय ब्रिटेन जाए.
उसकी विगत स्मृतियाँ भी साथ- साथ चलती हैं. इतिहास और उसमें झांकता किसी समय का ‘भारत
भाग्य विधाता’ भी.
यही वह देश हैं जहाँ के चंद सौदागर भारत उतरे थे और फिर भारत वह
भारत नहीं रहा.
वह सैलानी क्या करे उस शेक्सपीयर का जिसे जब विलियम जोन्स ने महाकवि
कालिदास से तुलनीय माना तब कैसी तीव्र प्रतिकिया हुई थी इसी इंलैंड में.
दरअसल वह
कहना तो यह चाह रहे थे कि शेक्सपीयर ब्रिटेन के कालिदास हैं पर उन्हें कहना पड़ा कालिदास भारत के शेक्सपीयर हैं.
बेहद दिलचस्प और प्रवाह लिए हुए
यह संस्मरण आपके लिए. सम्पूर्ण.
कस्बाई औरत की पहली विदेश यात्रा
प्रतिभा कटियार
__________
आजकल विदेश यात्राएं कोई कमाल की बात नहीं रहीं. लोगों का एक पैर हिंदुस्तान में रहता है, दूसरा किसी और देश में. मेरे ही तमाम
दोस्त हैं जो आधे से ज्यादा वक्त पराये देशों में होते हैं. ऐसे में मेरी
विदेश यात्रा में मैं क्या लिखूंगी जो पढ़ने लायक होगा, वो भी लंदन के बारे में कितना लिखा पढ़ा
तो जा चुका है वहां के बारे में. कितने दोस्त हैं लंदन में जो वहां के किस्से
बताया ही करते हैं. अब तो सारे देश लगता है पास ही हैं. जितनी देर में मैं देहरादून से लखनऊ पहुंचती हूं, उससे कम वक्त में दिल्ली से लंदन पहुंचने में लगी...फिर क्या हो गया आखिर ऐसा जो मुझे यात्रा से पहले इस कदर
बेचैन किये था और यात्रा के बाद क्या कुछ हुआ जो अब पहले जैसा नहीं रहा.
असल में यह उत्तरी भारत के ग्रामीण परिवेश में जन्मी,
कस्बाई परिवेश में पली-बढ़ी, संकोची, सरल, हिंदी प्रदेश की मध्य वय की एक स्त्री की पहली विदेश यात्रा
की कथा है. सपनों की भरपूर उम्र, कुलांचे मारते उत्साह और कुछ भी कर गुजरने वाले जज्बे से
इसका कोई लेना-देना नहीं. उस पर
किशोरावस्था में अभी-अभी दाखिल हुई बिटिया की जिम्मेदारी बचे-खुचे खिलंदड़पन पर लगाम कसने, अति सतर्क होने, भीतर के भय और आशंकाओं से लगातार खामोश मुठभेड़ में धकेलने को काफी थी. पासपोर्ट ऑफिस में लगाये गये चक्कर पहले ही चेतावनी दे
चुके थे कि यह सफर अब तक किये गये सफरों जितना आसान भी नहीं है. कोई देश तुम्हें अपने यहां यूं ही नहीं आने देगा. एक तरफ जहां मित्रों को, सहकर्मियों को लग रहा था कि मेरे उत्साह का पारावार न होगा,
वहीं मेरा हाल बुरा था. अजीब बात है कि
पहली विदेश यात्रा को लेकर न कोई रूमान था, न रोमांच बस एक जिम्मेदारी वाला भाव लिए सब किये जा रही थी
कि बिटिया को विदेश घुमाने का एक अवसर है और यह उसके व्यक्तित्व को, उसकी जानकारी को, समझ को विकसित करेगा तो बस यह होना चाहिए. कभी-कभी लगता है कि हम कितने ही आजाद ख्याल हो लें हमारा परिवेश
और परवरिश हमें ऐसा बनाकर छोड़ते हैं कि हम औरतें मां होते ही अपने आप को पीछे
धकेलने लगती हैं. हालांकि इस सोच से लगातार झगड़ा चलता रहता है
कि मां होना अपने होने को बिसरा देना भी नहीं, फिर भी कभी-कभी हार भी जाती ही हूं. बहरहाल, लंदन एक मां की यात्रा ही था अपनी बेटी के साथ...
लंदन ही क्यों-
जो कोई और मौका होता, अपनी पसंद से अपनी पहली विदेश यात्रा के लिए कोई देश चुनना
होता तो लंदन शायद बाद में ही होता कहीं. उसके बाद में
होने के कारण निश्चित रूप से राजनैतिक और सामाजिक ही हैं. अंग्रेजों का
हमारे देश में रहा लंबा शासन काल और उस दौरान हमारे क्रान्तिकारियों व देशवासियों
के साथ उनका व्यवहार आसानी से भूला नहीं जा सकता. एक आम भारतीय की
तरह मैं भी इन सबसे मुक्त नहीं ही हूं. पिछली अंडमान
यात्रा के दौरान सेल्युलर जेल की दास्तानें, वो चीखें, वो फांसी के फंदे
और वो जुल्म की बेहिसाब दास्तानें कहीं न कहीं सालती ही रहती हैं. बावजूद इसके कि मेरे लिए लंदन पिछले कुछ सालों कुछ और भी
होने लगा है. ये कुछ और हो जाने और अरसे से मन में जो दर्ज है के बीच की
यात्रा भी है. भाई और भाभी के वहां रहने के कारण मायका सा भी
हो गया है लंदन. वहां के वक्त से, मौसम से, संस्कृति से
तालमेल चलता रहता है. और यह किसी देश से, किसी शहर से जुड़ने की कम बड़ी वजह भी नहीं है. तो हमारे लंदन
जाने की तैयारियों में भाई और भाभी के स्नेहिल आमंत्रण की सबसे बड़ी भूमिका रही और
लाख टालमटोल करने के बावजूद कागजात तैयार हो ही गये और अंततः बैग भी पैक हो गये.
उत्साह का कारवां-यह एक मां की
यात्रा थी बेटी को विदेश घुमाने की, एक बहन की यात्रा थी अपने छोटे भाई से मिलने जाने की और एक मां-बाप का सुख था बच्चों को इकट्ठे होते देखने का. दोस्तों का उत्साह था मुझे जाते हुए देखने का और बेटी का
उत्साह तो पूरा घर महकाये था. दिन भर मामा मामी की रटंत और गूगल पर लंदन की
पड़ताल...इन सबसे कोई विलग था तो वो मैं ही थी. जैसे एक बड़ा काम
था, जिसे सलीके से अंजाम देना था. सबके सुख का कारण भी बनना था और अपना सुख...फिलहाल अपनी अंटी में एक ही सुख था भाई भाभी से मिलने का. बरसों बाद भाई के साथ कुछ वक्त बिता पाना, पहली बार नई नवेली भाभी अदिति के साथ समय गुजार पाना. दूर देश में परिवार महसूस करना.
अदिति अक्सर पूछती, दीदी आपको कहां-कहां घूमना है, मैं कहती मुझे तो सिर्फ तुम्हारे पास आना है, बाकी तुम जानो. तो इस तरह यह यात्रा शुरू हुई.
भारतीय रेल में आपका स्वागत है-
देहरादून से दिल्ली तक का सफर ट्रेन से तय करना था हमें. दो महीने पहले बुक कराई गई ट्रेन की टिकट भी आखिरी वक्त पर
आरएसी पर अटककर मुस्कुरा दी. कोई चारा नहीं था. सामान जमाया और हम मां-बेटी ने एक ही
बर्थ पर रतजगे और कभी-कभार ऊंघ लेने के लिए कमर कस ली. इसी के साथ तय यह भी हो गया कि अब ठीक से पैर फैलाकर लेट
पाना लंदन में ही संभव होगा.
जब घर के दरवाजे पर ताला लगाकर निकल पड़ते हैं तो पीछे कितना
कुछ छूट जाता है. निकलते वक्त पूरी चैतन्यता से दरवाजे खिड़की,
स्विच, गैस, नलके बार-बार चेक करना, गमलों की देखभाल के लिए सुर्पुदगी और घर को प्यार से एक नज़र देखकर उससे विदा
लेने की प्रक्रियाएं इस दफे ज्यादा वक्त ले रही थीं. मुझे याद नहीं
कि 20 दिन के लिए पिछली बार कब घर से निकली हूं. ट्रेन में बैठकर भी चीजें रह-रहकर याद आती
रहीं. एक घंटे के सफर के बाद ही हम मां-बेटी को यह एहसास
होने लगा कि हमारी स्थिति तो काफी अच्छी है क्योंकि हमारे थर्ड एसी के उस डब्बे
में इस कदर भीड़ हो गई थी कि पूछिये मत. ऐसे लोग जिनकी
सीटें कनफर्म नहीं हुई थीं. ऐसे लोगों की आंखों की किरकिरी होते हैं, जिनकी कनफर्म हो जाती है. हमारी ऊपर वाली
बर्थ पर चार स्त्रियों ने किस तरह रात गुजारी होगी यह भी एक अलग ही कहानी है. जिसमें उनके साथ
एक बच्चा भी था. खैर, लुढ़कते ऊंघते हम दिल्ली पहुंचे. स्टेशन से एयरपोर्ट तक का सफर मेट्रो रेल के
जरिये किया. और इसके साथ ही बहुत सारी भीड़, शोर, अफरा-तफरी से धीरे-धीरे दूरी बननी
शुरू हो गई.
एयरपोर्ट टू एयरपोर्ट-इंदिरागांधी
अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे पर पहली बार कदम रखा. जाने कैसा-कैसा लग रहा था. डर, उत्साह, चौकन्नापन, अनाड़ीपन सब एक
साथ निकलकर बाहर आने को था. एक ही बात को कई लोगों से बार-बार कनफर्म कर रही थी. वहां मौजूद हर
व्यक्ति ऐसा लग रहा था, हमारी सुरक्षा की
जांच के लिए ही आ रहा हो. हालांकि हमारे पास सामान ज्यादा नहीं था फिर
भी डर लग रहा था कि कहीं सूटकेस खुलवा के न देखें. यह सब सोचने के
पीछे हिंदी फिल्मों के कुछ दृश्य भी रहे होंगे शायद.
जब सामान चला गया और बोर्डिंग पास मिल गये तो राहत तो हुई
लेकिन इमिग्रेशन इंटरव्यू का छोटा सा डर अभी बाकी था. इमिग्रेशन फॉर्म
पूरी सावधानी से भरा. अपनी बारी का इंतजार एक लंबी लाइन में लगकर किया और जब नंबर
आया तो एक गड़बड़ हो ही गई. न...न...मुझसे नहीं जांच अधिकारी से. उन्होंने
प्रतिभा कटियार को दुबई की फ्लाइट में बिठा दिया. आखिर हंसते हुए
उन्होंने अपनी गलती सुधारी और हम सुरक्षा की कार्यवाहियों से निजात पाये. कितनी गहरी सांस आई थी. सच कहूं तो
एयरपोर्ट पर नाचने का मन कर रहा था. जैसे कोई युद्ध जीत लिया हो.
जिन लोगों का एक पैर विदेश यात्राओं को बाहर ही निकला रहता
है, या जो खूब आते-जाते हैं,
उन्हें यह सब कितना अजीब लगेगा सुनकर कि एक जरा
सी बात है विदेश जाना. और इतना हैरान-परेशान. लेकिन साहब ये एक
जरा सी बात भर नहीं है. यह बात कितनी महत्वपूर्ण है उस स्त्री से
पूछिये जिसे कभी अपने ही शहर में सिटी बस में या ऑटो में सफर करने में डर लगता रहा
हो. जिसने कभी ट्रेन की टिकट खुद न खरीदी हो और कभी कोई सफर अकेले करने का सोचा भी
न हो. सचमुच. बड़ी राहत महसूस हो रही थी. लग रहा था अब दो-चार घंटे यूं ही चिंताविहीन एयरपोर्ट पर टहलने दो. लेकिन भूख भी लग
रही थी.और फ्लाइट का वक्त भी हो रहा था. हम मां-बेटी ने कुछ बिस्किट खाये और हवाई जहाज में मिलने वाले खाने
के भरोसे खुद को छोड़ दिया. थोड़ी ही देर में हम बड़े से जहाज में बैठ चुके
थे.
सबको फोन-वोन मिलाया, सामान जमाया और उड़ने का इंतजार करने लगे. इसी बीच शिवि ने कौन-कौन सी फिल्में
देखनी हैं उनकी लिस्ट बना ली. लेकिन जहाज तो उड़ ही नहीं रहा था. उड़ान का वक्त बीत
चुका था. एक घंटा बीत गया. जहाज न उड़ा, तब जाकर सूचना
मिली कि जहाज में तकनीकी खराबी के चलते कुछ देरी हो रही है. तकरीबन ढाई घंटे की देरी से जहाज उड़ा लेकिन हमारा उत्साह तो ढाई घंटे पहले ही
उड़ चुका था. शिवि सामने लगे स्क्रीन पर कुछ देखकर, खिड़की से बाहर झांककर बोर होकर सो चुकी थी. पेट की भूख भी हमें सता ही रही थी. करीब चार घंटे
बाद हमें कुछ खाने को मिला लेकिन तब तक शिवि का खाने का मन मर चुका था. टर्बलेन्स के चलते प्लेन एकदम हिंडोला बना हुआ था...जिससे कुछ बच्चे डर भी रहे थे, कुछ रो भी रहे थे, और शिविमेरा हाथ पकड़े गोद में लेटी हुई थी.
मैंने इस दौरान 5 फिल्में निपटाईं. पढ़ा बिल्कुल नहीं. पहली बार सफर
में कुछ पढ़ा नहीं हालांकि किताबें थीं, बस मन नहीं हुआ. सामने स्क्रीन पर कई फिल्में ऐसी दिखीं जो
मेरी छूटी हुई थीं. तो मैंने वो सब एक-एक करके निपटाईं. नींद बिल्कुल नहीं थी. थकान बहुत थी. वाकई साढे़ दस घंटे की फ्लाइट और ढाई घंटे का
विलंब काफी उबा देने वाला था. ऊपर से अभी हीथ्रो पहुंचकर आने वाली मुसीबत का
डर. हीथ्रो पहुंचते ही मोबाइल काम करना बंद कर चुके थे. वाईफाई ऑन किया लेकिन वो कनेक्ट हुआ नहीं. भाई को पहुंचने
की सूचना मात्र देने में 30 सेकेंड के 160 रुपये लग गये. आंसू आ गये कसम से.
इमिग्रेशन की लंबी लाइन ने लंदन पहुंचने के उत्साह पर ब्रेक
लगा दिया. हां, एक ही राहत थी कि
एयरपोर्ट के बाहर भाई खड़ा है. इमिग्रेशन के लिए बैठे फिरंगी अधिकारियों में
वो सारे अंग्रेज चेहरे दिखने लगे, जिन्होंने हमें
सताया था. एक तरफ जल्दी से बाहर निकलकर भाई से मिलने की इच्छा,
दूसरी तरफ ये डरावने फिरंगी. मेरा इंटरव्यू लिया एक बुजर्ग सी दिखनी वाली महिला ने. जैसे ही मैं बिटिया का हाथ थामकर उसके सामने पहुंची वो ढेर
सारे इंटरव्यू लेकर चिढ़ चुकी थी. उसने कहा, गो अवे, नॉट नाव. आई एम नॉट इन मूड नाव. हम दो कदम पीछे
हटकर उनके मूड बनने का इंतजार करने लगे. उसके बात करने
का ढंग काफी रूखा और लहजा काफी सख़्त था. खैर, दो ही मिनट में उसका मूड बन गया शायद और उसने हमसे कागजात
मांगे. उलट-पुलट के देखते हुए कुछ सवाल किये जिन्हें
मुश्किल से समझते हुए मैंने जवाब दिए. आखिरी सवाल
जिसमें शायद उसने बिटिया से मेरा रिश्ता पूछा था, मैं समझ नहीं पाई और मैंने उससे कहा, सॉरी...पार्डन प्लीज. वो एकदम से भड़क गई, उसने लगभग चिल्लाते हुए कहा, डू यू हैव हियरिंग प्रॉब्लम? मैं सन्न थी...ऐसा स्वागत...! एक हम भारतीय हैं अतिथि देवो भव के साथ दिया,
आरती, फूल और टीका लेकर खड़े रहते हैं.
खैर, कार्रवाई पूरी हो
चुकी थी. और डू यू हैव हियरिंग प्रॉब्लम के साथ हीथ्रो ने मेरा वेलकम किया था. यह बताने में कोई संकोच नहीं मुझे कि भारत के सरकारी
स्कूलों में पढ़ने के बावजूद अंग्रेजी पढ़ने, सुनने, समझने में मुझे
अधिकांशतः उतनी दिक्कत नहीं होती है लेकिन बातचीत में वो आत्मविश्वास अभी तक नहीं
जमा पाई हूं जो कॉन्वेंटी लोगों का होता है, फिर भी काम चला ही लेती हूं. लेकिन इस बार
सामने इंग्लैंड था और मेरी बोलती लगभग बंद. बहरहाल हीथ्रो
के बाहर खड़े भाई को दूर से देखकर ही आंखों में आंसू आ गये, जैसे हर मुश्किल से पनाह मिल गई हो.
मौसम खुशगवार, लंदन -दो छोटे-छोटे सूटकेस लिए हम एयरपोर्ट के बाहर निकले
जहां निकलते ही एक सर्द लहर ने हमारा स्वागत करते हुए कहा, वो जो एयरपोर्ट वाली मैडम ने कहा, वो भूल जाओ. वो भी थकी और परेशान रही होगी. आओ तुम लंदन शहर में तुम्हारा स्वागत है. यही वो पल था, जिस पल में मैंने खुद को एकदम से तनावमुक्त होता हुआ महसूस किया. बैग में रखे हुए ओवरकोट निकाले और भाई के साथ गाड़ी में
बैठे. जरा सी देर में हम लंदन की सड़कों पर सरपट दौड़ रहे थे.
जब हम ज्यादा भरे होते हैं तब ज्यादा बात नहीं करते,
ठीक उलट जब हम खाली होते हैं तब भी ज्यादा बात
नहीं करते. मैं इस वक्त एक साथ खूब भरी भी थी और खूब खाली भी. चिंताओं से खाली,
भावनाओं से भरी. ज़ाहिर है खामोश
थी. देख रही थी, महसूस कर रही थी. सब कुछ. कुछ ही देर में हम बड़ौदाहाउस के भीतर थे. अचानक से एक शोख
कमसिन सी लड़की कूदकर लगभग चिल्लाते हुए हमारे सामने आ खड़ी हुई. वो अदिति थी. हम गले मिले. और लंदन पहुंचना मुकम्मल हुआ. लंदन में हम
अपने घर में थे. अपने घर में. 36 घंटों का लम्बा सफर,
और ऐसी राहत...
अजनबी सुबह-
लंदन की पहली सुबह थी. मैं भरसक जितना
सो सकती थी उतना सो चुकने के बाद जगी तो देखा कि पूरा घर सोया हुआ है. थोड़ी हैरत हुई. अमूमन जागने
वालों में मेरा नंबर सबसे बाद में आया करता है. फिर मैंने घड़ी
देखी, हिंदुस्तान के हिसाब से 11 बज रहे थे. यानी मैं कोई जल्दी नहीं उठी थी. मुझे बड़ा अच्छा लग रहा था. लंदन की पहली
सुबह. मैंने कमरे की खिड़कियां खोल दीं. ठंडी हवा का
झोंका मेरे मुंह पर आ गिरा. सामने एक हरा मैदान मुस्कुरा रहा था. नीला आसमान भी. मैं देर तक
आसमान पे निगाहें टिकाए रही. देश कोई भी हो, कुदरत का सम्मोहन हर कहीं एक जैसा ही होता है. खिड़की के सामने जो पतली सी सड़क जा रही थी उस पर बेहद सधे
कदमों से कोई बुर्जुग गुजर रहे थे. फिर करीब पांच मिनट बाद कोई युवती गुजरी,
फिर कोई नौजवान बैग हाथ में लिया गुजरा है,
उसके कदमों की गति तेज थी, उसे शायद जल्दी थी कहीं पहुंचने की.
यूं खिड़की से बाहर लोगों को जाते हुए देखकर अचानक एक और
खिड़की खुलती है, बचपन की खिड़की. तब मेरी उम्र शायद पांच या छह बरस की रही होगी. मां और पापा दोनों काम पे जाते थे तो अक्सर मुझे कमरे में
बंद करके जाते थे. उसी कमरे में खाना-पीना होता था. खिड़की से बाहर देखते हुए उनके आने का इंतजार करना मेरा खेल
हुआ करता था. उसी खिड़की पर रोते-रोते चुप हो जाना,
आसमान पे उड़ती पतंगों का कटकर नीचे गिरते देखना,
लड़कों के एक झुण्ड का उस पर लपकना, लोगों का गुजरते रहना. कुछ लोग मुस्कुराकर मेरी तरफ हाथ हिला देते थे. उस खिड़की से इस
खिड़की के बीच कितना कुछ गुजर गया. उस रोज फेसबुक पर स्टेटस लिखते वक्त बहुत सुकून मिला.
लंदन की पहली सुबह गुनगुना रही है. मैं भारतीय समय
के हिसाब से साढ़े दस बजे उठकर भी लंदन के समय से बहुत जल्दी उठी हूं. बाकी सब सो रहे हैं. सोचती हूं मां
जिंदगी भर सुबह जल्दी उठने को कहती रहीं, आज जाके उनकी बात मान पाई हूं. मां को फोन भी किया ये बताने को कि देखो हम
भारतीय कितनी ही देर से सोकर जागें, लंदन वालों से तो पहले ही जागते हैं. भाई भाभी से
मिलने का सुख अंजुरियों में भरा है.
लगा कि इतनी दूर होकर भी दोस्तों से दूर नहीं हूं. सब हालचाल ले रहे
थे, बात हो रही थी. यहां लंदन सुबह की नींद में ऊंघ रहा था वहां मेरा देश काम
पर मुस्तैद था.
एक वो भी वक्त था जब बीस बरस पहले मां लंदन आई थीं. उनकी एक आईएसडी
कॉल के लिए हम लैंडलाइन फोन घेरे बैठे रहते थे. एक या दो मिनट
की कॉल में सब घर को बतियाना होता था, सब कुछ बताना होता था और सब कुछ पूछना होता था और सब रह जाता था. आज वाट्सएप और
फेसबुक ने सारी दूरियां मिटा दी थीं.
बर्किंघम पैलेस और ट्रेफेल्गर स्क्वॉयर-
पहला दिन बर्किंघम पैलेस और ट्रेफेल्गर स्कॉवयर घूमने के
लिए चुना गया था. हम पहली बार शहर में निकले थे. हर चीज को गौर से देखते हुए. सबसे ज्यादा
आकर्षित कर रहा था हरा. जैसे हर तरफ हरे रंग की चादर बिछी हो. जब हम किसी नई जगह पर होते हैं तो हर चीज विस्मित करती है. उसे अकोर लेने का
मन करता है हालांकि मैं तो पुरानी जगहों को भी बार-बार अकोरती रहती
हूं. लेकिन जो लोग वहीं के रिहाइशी होते हैं, उन्हें ये सैलानीनुमा हर चीज को विस्मित होकर देखते
तस्वीरें खींचते लोग थोड़े अजीब लगते हैं. इन दोनों के बीच
के फासले में काफी कुछ होता है. लेकिन मुझे ये अनगढ़ सैलानी लोग हर पल को कैमरे में बेताब
लोग मासूम से लगते हैं और याद दिलाते हैं उस गांव के मजदूर या किसान की जो पहली
बार डरते हुए रेल में बैठकर दिल्ली आता है. उसके लिए रेल कोई बेहद खास चीज होती है. आजकल तो वो रेल
के साथ सेल्फी भी लेता दिख सकता है, पहले लोग सुनाया करते थे पहली बार रेल देखने के रेल यात्रा के किस्से और लोगों
का झुण्ड बड़े चाव से सुनता था वो किस्से. सबकुछ कहां
बदलता है, पहली बार जहाज पर बैठते
हुए हम सबने एक फोटो खिंचवाई जरूर होगी. ऐसे ही हर कुछ जुड़ा होता है....शायद...तो यहां मेरी हालत उसी पहली बार रेल में बैठे किसान के जैसी
थी..सबकुछ विस्मित होकर देखना...सबसे ज्यादा हरा...एक तिनका हरा ही मुझे
बहकाने के लिए काफी होता है और यहां तो हरे का पूरा समंदर बिछा था...तरह तरह का हरा...ढेर सारा हरा...
पहली बार हम ट्यूब में बैठे...ये तो एकदम दिल्ली की मेट्रो है, एनाउंसमेंट का तरीका भी वही...शिवि बोली मम्मा लग रहा
है एनाउंसमेंट वाली आंटी कह रही हैं नेक्स्ट स्टेशन विल बी चावड़ी बाजार...हम चुपके से हंस लेते हैं. बर्किंघम पैलेस
के सामने लोगों का जमावड़ा था. भव्य राजमहल...अपनी शोभा बिखेर रहा था. राजमहल के आसपास टहलते हुए तस्वीरें खींचते
हुए सामने की सड़क पर नज़र पड़ी. ब्रिटिश झंडे सड़क के दोनों तरफ कदमताल करते
हुए सड़क को मनमोहक बना रहे थे.
यूं लंदन की सड़कों पर पैदल घूमना काफी सुखकर लग रहा था. बिटिया खूब उछलकूद कर रही थी...रास्ते किसी हरी सुरंग से मिलते...उसके भीतर चलते हुए कैसा
महसूस हो रहा था बताना मुश्किल है. पैदल चलने वालों के रास्ते इतने सुंदर मैंने
नहीं देखे थे. इन रास्तों पर तो दिन भर चला जा सकता है. मैं जब भी फिल्मों में लंदन देखा करती थी तो मुझे यहां
पैदल चलते लोग बहुत लुभाते थे...यूं मुझे खुद भी सर्द
मौसम में लिपटकर मीलों पैदल चलते जाना खूब पसंद है...देहरादून की कितनी ही सड़कें, जंगल इसके गवाह
हैं....
अब जब लंदन की सड़कें थीं, सर्द मौसम था और मैं इसमें पैदल चल रही थी तो यूं लग रहा था
कि कोई ख्वाब है शायद जिसके भीतर हकीकत की एक छोटी सी खिड़की खुल गई है. यूं ही पैदल चलते हुए, अठखेलियां करते हुए चर्चिल हाउस के सामने से गुजरते हुए,
हम ट्रेफल्गर स्क्वायर तक जा पहुंचे...बच्चों के लिए चीजों की भव्यता आकर्षक नहीं होती उनका आनन्द
कहीं और होता है. एक ऊंचे बहुत ऊंचे से चबूतरे जैसी जगह पर बड़े
से शेर के पास पहुंचने की कोशिश में बच्चों को बहुत मजा आ रहा था. धमाचौकड़ी मस्ती करते हुए हम चारों तरफ के इस भव्य दृश्य
में खुद को महसूस कर रहे थे. यह ठीक वही जगह थी, जहां लंदन को पूरा का पूरा महसूस किया जा सकता था. कुछ बच्चे बुलबुले फुला रहे थे...कुछ बच्चे गेंद का पीछा कर रहे थे. एक दुबला-पतला किशोर लोगों को इकट्ठा करके कोई करतब दिखा रहा था. मुझे अपने देश की कस्बाई नुमाइशों का ख्याल आ रहा था.
फिर हम आर्ट गैलरी के भीतर दाखिल हुए. एक से एक
खूबसूरत पेंन्टिग्स. एक सज्जन वहां लगी बड़ी सी कलाकृति का नाइट वर्जन यानी रात
में वो कैसे दिखेगी उसे कैनवास पर उतार रहे थे...लिखते वक्त न जाने कितनी ही पेंटिंग्स जे़हन में घूम रही हैं...एक के बाद एक कलाकृतियों के सामने से गुजरते हुए यही ख्याल
आ रहा था कि कलाओं का होना भर काफी नहीं उनका सहेजे जाना भी उतना ही जरूरी है,
लोगों का अपनी कलाओं के प्रति प्यार और सम्मान
होना भी जरूरी है.
लंदन शहर को बिना पैदल चले महसूस नहीं किया जा सकता...हालांकि यह बात और जगहों पर भी लागू होती ही है. तो पैदल चलते हुए ही हम वेस्टमिनिस्टर, बिग बेन, लंदन आई, और टॉवर ब्रिज के आसपास घूमते रहे, इस घूमने के दौरान थेम्स नदी लगातार हमारा हाथ थामे रही. जिन शहरों के बीच
से नदी गुजरती है वो कितने खुशकिस्मत शहर होते हैं. इस दौरान यहां की
सड़कें मुझे लगातार आकर्षित कर रही थीं. किस तरह सड़कों
पर इस शहर ने अपना इतिहास संजोया है, उसके प्रति सम्मान संजोया है, वो ध्यान खींच
रहा था. अपने देश में भी इसे चौराहों पर मूर्तियां लगवाकर किया
जाता है शायद...
इस बीच भूख भी हमला बोल चुकी थी. वेजीटेरियन खाने
की इच्छा हमें और चलने की ओर प्रेरित करती रही और बहुत सारा चलने के बाद आखिर एक
जगह आलू टिक्की बर्गर और फ्रेंच फ्राईज जब मिले तो पैरों और पेट दोनों को आराम
मिला.
घड़ी में रात के आठ बज चुके थे और सूरज ऐसे दमक रहा था जैसे
उसे जाना ही नहीं था. गर्मियों के मौसम में लंदन इसीलिए अच्छा होता
है कि दिन बहुत लंबे होते हैं...उजाला देर तक रहता है. जो भी हो हमारा शरीर भारतीय समय के हिसाब से चलने वाला हुआ
तो इस वक्त शरीर हिंदुस्तान के रात के 1 बजे के मुताबिक
नींद में लुढ़कने को बेताब था. घर पहुंचे तो यह तय होने लगा कि डिनर में क्या
बनना है...हिंदुस्तानी समय के हिसाब से रात के 3 बजे आखिर हमारे शरीर लुढ़क ही गये...
ग्रीनविच, वक्त को यहां से देखो-
अगले दिन हमें सुबह-सुबह ग्रीनविच के
लिए निकलना था. यह जगह सेन्ट्रल लंदन से 9 किलोमीटर की दूरी पर है. लेकिन इस 9 किलोमीटर की दूरी में ही शहर की चहल-पहल कुछ छूट गई
सी मालूम होती है. हम वहां ट्रेन से गये. बाद में इसी जगह
हम क्रूज से भी गये थे तब यह सिर्फ टूरिस्ट प्वाइंट ही लगा था.शहर के बाहर निकलने पर जो हिस्सा हाथ आता है वो कुछ अलग सा
ही रूमान बचाये होता है. आपाधापी कम होती है, ऐसा मालूम होता है लोग हड़बड़ी में उस तरह नहीं हैं...पैदल शहर में घूमना उसे महसूस करना सुकूनदायक था. सड़कों के किनारे दुकानें मानो शहर की खूबसूरती में इजाफा
करने को उगायी गई हों. उस रोज धूप थी और शनिवार भी तो इत्मिनान पूरे
ग्रीनविच पर तारी था. लोग घरों के बाहर लॉन में धूप में बैठकर
नाश्ता करते भी दिखे.
अदिति शिवि को जगह के बारे में बता रही थीं कि ये प्राइम
मैरीडियन है. दुनिया भर के समय का निर्धारण यहीं से होता है. वो रेखा जो समय विभाजक है, यहां से भी होकर गुजरती है. हमने यहां की रॉयल
ऑब्जर्वेट्री का रुख किया लेकिन उसके पहले शिवि को बहुत मजा आ रहा था एक बड़ी सी
धरती पर बने ग्लोब पर घूमने में. उसके पास सारी दुनिया पर दौड़ते-फिरने का सा सुख था. सबसे पहले वो
दौड़कर हिंदुस्तान पहुंच गई.
रॉयल ऑब्जर्वेट्री पहुंचने का रास्ता मोहक था. एक ऊंची पहाड़ी पर लोगों का जमावड़ा था. सब एक ही तरफ
देख रहे थे, चुपचाप. पलटकर देखा तो स्तब्ध थी, सामने जिस खूबसूरती को देखकर मन लहक रहा था, पीठ के पीछे उससे कहीं ज्यादा सौंदर्य मुस्कुरा रहा था. समूचा शहर पेड़ों की ओट से झांकता हुआ और ऊपर बादलों का
डेरा..... असीम सुख के पलों में हम अपने और अपनों के कितना करीब आ
जाते हैं इसका नज़ारा वहां देखते ही बन रहा था. कितने ही जोड़े
हाथों में हाथ डाले चुपचाप बैठे थे, कहीं स्नेहासिक्त चुम्बन भी थे...सब शांत...गहराई में उतरते हुए से...
शिवि को ऑर्ब्जेवेट्री के भीतर समय का विज्ञान समझने एक
दोस्त स्वाति के साथ भेजकर मैं अदिति और भाई के साथ उसी मंजर में डूबने उतराने लगे.
सुख से भरे हुए लोग अक्सर कम बात करते हैं...हम सब चुपचाप वापसी को चल पड़े. हरी सुरंगों में
से गुजरते हुए एक हरे समंदर में पसर जाने का मन हुआ तो हम सब कुछ देर सुस्ताने को
बैठ गये. समय के सुंदरतम पलों को जीते हुए समय के विज्ञान को न तो
समझने का जी किया, न उस पर बात करने का. क्या फर्क पड़ता है कि हिंदुस्तान के वक्त को निर्धारित
करने वाली कौन सी रेखा कहां से गुजरती है, हिंदुस्तान का वक्त तो अभी आना बाकी ही है...
रॉयल ऑब्जर्वेट्री से लौटते हुए हम सेन्ट्रल लंदन पर यूं ही
टहलने को उतरे. लंदन ब्रिज, टॉवर ब्रिज, वॉकी-टॉकी बिल्डिंग, लंदन की सबसे बड़ी इमारत शार्ड इनके इर्द-गिर्द घूमना,
आईसक्रीम खाना, थेम्स को बहते हुए देखना और महसूस करना शहर के बीच से एक
नदी के गुजरने के मायने को...एक खूबसूरत दिन को शाम की
चुनर में बांधने का वक्त आ गया था. इसलिए नहीं कि दिन ढल गया था बल्कि इसलिए कि
हम थक गए थे...
जी में आया यहां का सूरज आंचल में बांधकर हिंदुस्तान लेती
जाउं जहां हम लड़कियों को बचपन से ही सूरज ढलने से पहले लौट आने की ताकीद की जाती
है. उन लड़कियों को थमा दूं ये लगभग कभी न बुझने वाला सूरज कि
जाओ घूमो बेफिक्र...जब तक जी चाहे तब तक...सूरज का ढलना कोई दीवार न रहे. हालांकि शहरों
में खासकर मेट्रोपॉलिटन सिटीज में लड़कियों ने सूरज को काफी हद तक कब्जे में करना
सीख लिया है...लेकिन अभी बहुत सारी लड़कियां को अपना सूरज खुद जलाना और खुद
बुझाना सीखना बाकी है...
शेक्सपियर का गांव-
जब हम खुद को किसी के हवाले कर देते हैं तो यकीन मानिए कई
बार जितनी उम्मीद होती है, जितनी समझ होती
है उससे भी ज्यादा मिलता है. अदिति को मैंने जब यह कहा होगा कि मैं नहीं
तुम तय करोगी कि मुझे कहां-कहां घूमना है तो उसने कितने प्यार से चुनी
होंगी मेरी तमाम यात्राएं. अगला दिन इतवार का था और रात को ही बता दिया
गया था अगले दिन जल्दी सुबह उठना है और जाना है शेक्सपियर के गांव. स्ट्रेटफोर्ड अपॉन एवन...यही नाम है इस जगह का. यह सेन्ट्रल लंदन से 163 किलोमीटर की दूरी पर है. हम यहां ट्रेन से गये, मुझे इस तरह की ट्रेन में बैठने का भी बहुत मन था. कुदरत के बीच से सरसराते हुए गुजरने का सुख.... सारे रास्ते हम खाते-पीते, गप्पें मारते, बाहर का हरा आंखों में अकोरते करीब ढाई घंटे में गंतव्य पर पहुंचे.
किसी रूमानी उपन्यास का पन्ना खुल गया हो जैसे. ऐसी तृप्ति बरस रही थी स्टेशन पर कि क्या कहूं. छोटा सा स्टेशन, छोटा सा एक पुल, खूबसूरती से सजा संवरा...कम लोग.... ये सौन्दर्य ऐसा था जैसे
किसी कमसिन नई ब्याही लड़की ने खूब लाड़ से, दुलार से अपना घर सजाया हो. मैं स्टेशन पर ही घंटों गुजार सकती थी लेकिन
जाना तो कहीं और था...शेक्सपियर साहब के गांव
का चप्पा-चप्पा छान लेने की इच्छा भी थी. इन जगहों पर ये
जो पैदल चलने का सुख था वो भी कमाल था. एक पर्यटक को
खूब पैदल चलना आना ही चाहिए यह बात अब समझ में आ रही थी. पैदल चलते हुए
धरती आसमान, सड़कें, मौसम और शहर का मिज़ाज सब एक साथ पकड़ में आता है.
हम गंतव्य पर पहुंच चुके थे. सामने लिखा था “शेक्सपियर्स हाउस“. यह एक कस्बे सा है. चौड़ी सड़क, दोनों तरफ दुकानें, रेस्टोरेंट्स...पेट की भूख और पैरों की
थकन दोनों ने इसरार किया कि बैठकर कुछ खा लें पहले फिर आगे का सफर...शेक्सपियर के घर के ठीक सामने वाले रेस्टोरेंट में हमने
कॉफी ऑर्डर की और खाना भी...ऐसे में हमारे लिए क्या
ऑर्डर करें कि उलझन भी कम बड़ी नहीं होती थी. बहरहाल कुछ मैदे
से बने पराठेनुमा आए जिन्हें क्रेप्स कहा जाता था. जिसके अंदर शुगर,
स्वीटकॉर्न और चीज भरा हुआ था उसे खाया मैंने
और बेटू ने, अदिति ने स्ट्राबेरी
क्रेप्स, पनीनी और आईसक्रीम की डिश
और भाई ने भुने हुए आलू के बीच चीज डालकर खाया, ऑमलेट भी. पता चला कि पुर्तगाली डिश है ये क्रेप और
पनीनी जो हमने खाई.
शेक्सपियर हाउस में अंदर जाते ही शेक्सपियर का संसार, उनका जीवन, उनकी रचनाओं का एक के बाद एक खुलना शुरू हुआ. शेक्सपियर की बड़ी-बड़ी पेन्टिंग्स में उनकी जिन्दगी की घटनाएं दर्ज थीं, जो लोग उनकी जिंदगी में अहम स्थान रखते थे वो सब वहां मौजूद थे. बड़े से व्यक्तित्व की, जिंदगी की छोटी-छोटी चीजों को बड़े प्यार से संभालकर रखा गया था. एक प्रेक्षागृह नुमा गैलरी की दीवार पर शेक्सपियर के नाटकों के टुकडे़ चल रहे थे और बाहर लॉन में शेक्सपियर वॉल थी. एक दीवार जिस पर कॉमिक स्ट्रिप के रूप में उनके तमाम नाटकों के संक्षिप्त संस्करण मौजूद थे. यह एक कमाल का अनुभव था, दो मिनट में पढ़ लेना पूरा ओथैली, जूलियस सीजर, ट्वेल्थ नाइट, क्लियोपैट्रा वगैरह...उसी लॉन में एक पुरानी बेंच थी जिसे सहेजा गया था जहां शेक्सपियर शायद बैठा करते होंगे. इसके बाद हमने उस घर के अंदर प्रवेश किया. शेक्सपियर के पिता जो हाथ के दस्ताने बनाया करते थे को दस्ताने बनाते दिखाया गया था...उन्हीं असल चीजों के साथ सहेजी गई मूर्तिनुमा स्ट्रक्चर. छोटे-छोटे कमरों से गुजरना, वो मेज जहां वो नाश्ता करते थे, वो कमरा जहां उनका जन्म हुआ, जहां वो सोते थे, वो टेबल जहां वो लिखा करते थे....सब किस प्यार से सहेजा गया था. घर से बाहर निकलने पर लॉन में एक गोल घेरे में कुछ लोग बैठे मिले. अगर आप चाहें तो वो आपको शेक्सपियर का कोई नाटक या उसकी एक झलक उसी वक्त दिखा सकते हैं.
शेक्सपियर हाउस में अंदर जाते ही शेक्सपियर का संसार, उनका जीवन, उनकी रचनाओं का एक के बाद एक खुलना शुरू हुआ. शेक्सपियर की बड़ी-बड़ी पेन्टिंग्स में उनकी जिन्दगी की घटनाएं दर्ज थीं, जो लोग उनकी जिंदगी में अहम स्थान रखते थे वो सब वहां मौजूद थे. बड़े से व्यक्तित्व की, जिंदगी की छोटी-छोटी चीजों को बड़े प्यार से संभालकर रखा गया था. एक प्रेक्षागृह नुमा गैलरी की दीवार पर शेक्सपियर के नाटकों के टुकडे़ चल रहे थे और बाहर लॉन में शेक्सपियर वॉल थी. एक दीवार जिस पर कॉमिक स्ट्रिप के रूप में उनके तमाम नाटकों के संक्षिप्त संस्करण मौजूद थे. यह एक कमाल का अनुभव था, दो मिनट में पढ़ लेना पूरा ओथैली, जूलियस सीजर, ट्वेल्थ नाइट, क्लियोपैट्रा वगैरह...उसी लॉन में एक पुरानी बेंच थी जिसे सहेजा गया था जहां शेक्सपियर शायद बैठा करते होंगे. इसके बाद हमने उस घर के अंदर प्रवेश किया. शेक्सपियर के पिता जो हाथ के दस्ताने बनाया करते थे को दस्ताने बनाते दिखाया गया था...उन्हीं असल चीजों के साथ सहेजी गई मूर्तिनुमा स्ट्रक्चर. छोटे-छोटे कमरों से गुजरना, वो मेज जहां वो नाश्ता करते थे, वो कमरा जहां उनका जन्म हुआ, जहां वो सोते थे, वो टेबल जहां वो लिखा करते थे....सब किस प्यार से सहेजा गया था. घर से बाहर निकलने पर लॉन में एक गोल घेरे में कुछ लोग बैठे मिले. अगर आप चाहें तो वो आपको शेक्सपियर का कोई नाटक या उसकी एक झलक उसी वक्त दिखा सकते हैं.
वहां हमें गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर की मूर्ति भी
मिली. यहां उन लोगों को भी पूरा सम्मान व जगह मिली दिखी
जिन्होंने शेक्सपियर से प्रेरित होकर काम किया यो जो उनके समकालीन थे. मन में एक बात लगातार चल रही थी कि हमने अपने देश के महान
लेखकों के साथ क्या किया है. क्या हम लमही को सहेज सके हैं? यह तुलनात्मक नज़रिए से चीजों को देखकर अपने देश को कमतर समझने
वाली बात नहीं बल्कि सीखने की इच्छा की बात है. एक देश को समाज
को अपने यहां के साहित्य, संस्कृति और
कलाओं का सम्मान करना आना ही चाहिए...लेकिन हमारे यहां उनकी
स्मृतियों को सहेजना तो दूर की बात है जीते जी वो लेखक, कलाकार ही दवाइयों के इंतजार में दम तोड़ देते हों तो सोचना
तो पड़ेगा.
यह समूचा शहर शेक्सपियर का है...शहर या गांव कुछ भी कहें...शहर के तीन अलग-अलग हिस्सों में तीन घर हैं. उन सबसे गुजरते
हुए हम सड़कों से गुजरने का सुख बटोरते हुए एक पार्क में जा पहुंचे. एकदम इत्मिनान के साथ हरी घास पर लुढकते हुए शेक्सपियर को
आत्मसात् करने लगे. पास में एक झील थी, बच्चों का कोलाहल, प्रेमियों की आसक्तियां, युवाओं की
शोखियां....सब कुछ.
लौटते वक्त काफी भरा-भरा सा महसूस हो
रहा था...शहरों को भी कलाओं की साहित्य की जरूरत होती है याद आ रहा
था...कोई शहर किस तरह एक किताब सा हो जाता है और उसकी हर गली,
हर मोड़ किसी पन्ने सा खुलता है. हम कितनी ही जगह पर बुकमार्क लगाकर छोड़कर उस किताब को बंद
करके लौट रहे थे....शेक्सपियर को पूरा कहां
पढ़ पाई हूं...उनके अधूरे से पढ़े की तरह उस शहर को भी और घूमने की इच्छा
के साथ बंद करके लौट रही थी.
मैडम तुषाद म्यूज़ियम, ऑक्सफोर्ड स्ट्रीट, शॉपिंग, मस्ती-
अगले दिन की मुट्ठी में कितना सारा आनंद है यह पलकें झपकाती
रातों को पूरी तरह पता नहीं होता था. जादू सा दिन अपनी मुट्ठी खोलता और हम लम्हे
बटोरते...चूंकि मैडम तुषाद म्यूजियम घर से ज्यादा दूरी पर नहीं था और
वहां जाने की कोई हड़बड़ी नहीं थी इसलिए देर तक सोने और इत्मिनान से निकलने का भी
आनंद था. आज हम मां-बेटी अकेले निकले थे, पहली बार. हम रोमांचित थे. यह वही मैडम
तुषाद म्यूजियम था, जिसके बारे में खूब सुनते
रहते थे, पढ़ते रहते थे. यह सचमुच एक सुंदर संसार था. मोम से बनी
मूर्तियों का यह संग्रहालय दुनियाभर में मशहूर भी तो कम नहीं. अंदर पहुंचते ही
पहला सामना हुआ जूलिया रॉबर्ट्स से...उसके बाद तो एक के बाद एक
लोगों के साथ तस्वीरें खिंचवाने, मस्ती करने का
सिलसिला चलता ही गया. लोगों का उत्साह उफान पर था. दाहिनी तरफ एक गलियारा था, जिसमें हिंदुस्तानी बॉलीवुड स्टार्स मौजूद थे. अमिताभ, सलमान, शाहरुख, कैटरीना, माधुरी लेकिन सच कहूं
तो ये पुतले उतने स्वाभाविक नहीं लग रहे थे जितने बाकी दूसरे पुतले. ऐसा महसूस हुआ कि यहां भी कोई भेदभाव तारी है, हालांकि आगे जाकर सचिन और गांधीजी के अच्छे पुतले
देखकर थोड़ी राहत भी हुई.
मर्लिन मुनरो, आइन्स्टीन, पिकासो के पुतले काफी अच्छे लगे...हालांकि राजघराने के जो पुतले थे, खासकर क्वीन का उसका तो कोई जवाब ही नहीं...ऐसा लग रहा था मानो अभी बोल ही पड़ेंगी. शिवि सारे
पुतलों के साथ खेल रही थी. मैं उसका उत्साह कैमरे में कैद कर रही थी. एंग्रीबर्ड्स, स्टारवार्स, श्रेक, जाइंट, टिंकरबेल इन सबके
बीच बच्चे खूब खुश थे. यह एक अलग सी दुनिया थी, जहां लोग खूब आनन्द ले रहे थे. इस मस्ती के
समंदर में मैं भी कम नहीं डूबी...पिकासो के साथ तस्वीर
खिंचवाना हो या नेल्शन मंडेला गांधी के साथ या फिर बराक ओबामा के साथ मौका जाने
नहीं ही दिया. तकरीबन तीन-चार घंटे अंदर
बिताकर हम बाहर आये.
योजना के अनुसार शेरलक होम्स की स्टेचू के पास बेकर
स्ट्रीट के करीब वहां हमें हमारी दोस्त स्वाति मिलने वाली थी. उससे फोन पर बात
हुई, उसे आने में थोड़ी देर थी तब तक रोडसाइड शॉपिंग
में मशगूल हो गये. वही दोस्तों के लिए कुछ छोटे-छोटे तोहफे लेने थे, सो लिए. तब तक स्वाति आ गई और उसके पास एक अलग योजना
थी आगे के दिन की. वो हमें ऑक्सफोर्ड स्ट्रीट ले गयी. सारे रास्ते हम तीनों खूब मस्ती करते जाते.
ऊंची इमारतों को देखते, सजी-धजी सड़कों को देखते, सड़क के किनारे कोई नवयुवक गिटार बजाता भी मिला. एचएमवी का स्टोर देखकर कदम ठिठके भी...हमें चूंकि कोई शॉपिंग करनी नहीं थी इसलिए मन एकदम आजाद था. किसी भी दुकान में जाना, चीजें देखना और वापस आ जाना...यह वही मार्केट है जहां बॉलीवुड स्टार अक्सर शॉपिंग करने आते रहते हैं. दुकानों के अंदर जाहिर है बाजार ही था, कीमतों के बारे में बात न ही करूं तो ही ठीक. लेकिन इतना बताना जरूरी लग रहा है कि पौंड और रुपये के बीच का फासला हमें चीजों से बहुत दूर कर देता था.
ऊंची इमारतों को देखते, सजी-धजी सड़कों को देखते, सड़क के किनारे कोई नवयुवक गिटार बजाता भी मिला. एचएमवी का स्टोर देखकर कदम ठिठके भी...हमें चूंकि कोई शॉपिंग करनी नहीं थी इसलिए मन एकदम आजाद था. किसी भी दुकान में जाना, चीजें देखना और वापस आ जाना...यह वही मार्केट है जहां बॉलीवुड स्टार अक्सर शॉपिंग करने आते रहते हैं. दुकानों के अंदर जाहिर है बाजार ही था, कीमतों के बारे में बात न ही करूं तो ही ठीक. लेकिन इतना बताना जरूरी लग रहा है कि पौंड और रुपये के बीच का फासला हमें चीजों से बहुत दूर कर देता था.
इस बीच हम बीबीसी की बिल्डिंग के करीब से गुजरे,
फिलहाल वहां कोई दोस्त नहीं था जिससे मिलने
जाना होता सो बाहर से ही देखकर वापस हो लिए. इस दौरान भूख भी
अपना रास्ता बना चुकी थी और चलते-चलते पांव भी थकने लगे थे. अब शुरू हुई कुछ
अच्छा वेजीटेरियन खाने की तलाश. स्वाति एक अच्छे काठी रोल वाले का पता जानती
थी लेकिन वो थोड़ी दूर था. लेकिन हमने अच्छा खाना चुना और जाहिर है चलना
भी. जब तक हम वहां पहुंचे हमारी हालत पस्त हो चुकी थी. जैसे ही दुकान दिखी जैसे कोई खजाना मिल गया हो. हम तीनों पसर गये दुकान में और वेजिटेरियन काठी रोल के आने
का इंतजार करने लगे. यह एक बांग्लादेशी की छोटी सी दुकान थी. काठी रोल का स्वाद तमाम थकान का ईनाम था. हम खाकर एकदम तरोताजा हो चुके थे...जैसा कि मैं बता ही चुकी हूं दिन जैसे ढलता ही न हो यहां...तो ढलती हुई शाम और आती हुई रात नहीं पैरों की ताकत तय करती थी लौटने का वक्त.
आखिर हमने कुछ शॉपिंग करने का मूड बना ही लिया. मां-पापा के लिए कुछ लेना था कुछ दोस्तों के लिए भी
तो एक शॉपिंग मॉल में चले ही गए. शॉपिंग अगर बीमारी न हो और बजट के बाहर न जाये
तो उसका सुख होता है. हमारे पास वक़्त इफरात था, चीजों को देखना, ड्रेस का ट्रायल लेना लेकिन खरीदना वही जो जरूरी था. हिंदुस्तान में
ऐसी फुरसतिया शॉपिंग कब की थी याद ही नहीं. विंडो शॉपिंग का
असल मजा लिया लंदन में और लौटकर घर आये तो कुछ चीजें हाथ में थी ढेर सारा उत्साह,
सुख, अनुभव जेहन में. हां, थोड़ी सी थकन भी.
एक दिन का ब्रेक-
अगले दिन के लिए शिवि ने रात में ही ऐलान कर दिया कि कहीं
नहीं जायेंगे. घर पर रहकर मस्ती करेंगे. ज़ाहिर है देर तक
सोना उस मस्ती में शामिल था. उसकी मस्ती में एक और चीज भी शामिल थी,
बुलबुले फुलाना. वो बड़े-बड़े बुलबुले फुलाने वाली एक मशीन जैसी कोई चीज शेक्सपियर के
गांव से लाई थी, जब मौका मिलता बालकनी में
जाकर उससे बुलबुले फुलाती. अगले दिन हम चूंकि कहीं गये नहीं इसलिए घर के
आसपास जो पार्कनुमा हरा मैदान था उसमें घूमते रहे, बुलबुले फुलाते रहे और लंदन को महसूस करते रहे. किसी शहर को सिर्फ उसके टूरिस्ट प्वाइंट्स पर जाकर ही नहीं
समझा जा सकता, उसे समझा जा सकता वहां
दूध, सब्जी खरीदकर, बेसबब उसकी गलियों में घूमकर, भटककर. महसूस कर पा रही थी कि अब मेरे मन ने इस शहर
से दोस्ती स्वीकार कर ली है. रात संगीत की महफिल भी सजी...देर तक गिटार बजता रहा...गाना भी हुआ, गुनगुनाना भी.
थेम्स की लहरें, सी लाईफ-
अगला दिन फिर किसी जादू की पुड़िया सा खुला. यह दिन हमें सी-लाईफ देखने जाना
था और थेम्स की बोट राइड. मामला यह था कि एक टिकट था पास जो तीन दिन तक
की वैधता रखता था. क्रूज लंदन के तमाम पर्यटन स्थलों पर रुकते
हुए चलते रहते थे. कहीं भी उतरकर कितनी ही देर घूमकर किसी भी
दूसरे क्रूज पर बैठकर आगे भी जाया जा सकता था या पीछे लौटा भी जा सकता था. सुनकर ही मजेदार लग रहा है न? वो थेम्स जिसके आसपास घूमते हुए कई दिन बीत चुके थे आखिर
उसके भीतर उतरे बगैर बात बनती कैसे. लेकिन सुबह गूगल ने बताया कि मौसम खराब है और
थेम्स में हाई टाइड की संभावना है. यानी तेज लहरों वाला तूफान आ सकता था. तभी फोन पर एक दोस्त ने बताया कि आज थेम्स में जाना ठीक
नहीं है. लेकिन पानी से डरने वाले तो हम थे नहीं. सो जाना तय किया. नदी के किनारे
पहुंचे तो तेज बारिश आ गई और भागते हुए हमने पहले सी-लाइफ देखना तय
किया.
मैं और शिवि एक्वेरियम के अंदर पहुंचे. शुरू-शुरू में हमें इसमें खास मजा नहीं आया. हमने पहले भी
बहुत शानदार सी लाईफ देखी थी. पोर्ट ब्लेयर वाली यादगार अंडर वॉटर वॉक के
दौरान जो सी लाईफ देखी उसका तो कोई मुकाबला संभव ही नहीं था. खैर, चूंकि अदिति ने हमारे लिए यह चुना था तो जरूर कोई तो बात
होगी यही सोचकर हम आगे चलते गये. जल्दी ही हमें समझ में आ गया था कि हम यहां
क्यों भेजे गए हैं. आपके पांव के तले मछलियां, सर के ऊपर से गुजरती मछलियां, दाहिनी तरफ समुद्री जीव, बायीं तरफ भी. बिना भीगे पानी में चलने का सा एहसास. बड़ी-बड़ी मछलियां, छोटी-छोटी रंगीन मछलियां...बहुत सुंंदर अहसास था. लेकिन असल अहसास तो अभी होना बाकी था जब हम
ग्लेशियर नुमा कमरे मेंपहुंचे. जैसे बर्फ के मैदान में आ पहुंचे हों, तभी सामने से पोलर बियर, पेंग्विन आते दिखे, और जल्द ही हम उनसे घिर से गये. क्या कोई जादू देख रहे थे हम...वो मंजर कमाल का था. शिवि मुझे देख
रही थी. मम्मा आपको कित्ता मजा आ रहा है न? हां, वाकई मुझे बहुत
रोमांच हो रहा था.
सी-लाईफ देखने के बाद क्रूज में बैठकर घूमने का
रोमांच हमारा इंतजार कर रहा था और तेज बारिश भी. नदी के इस पार
सी-लाईफ थी उस पार क्रूज. बीच में एक पुल
था. हमने भीगना चुना. हम दोनों मां-बेटी भीगते हुए लंदन की सड़कों का, पुल का आनंद लेने लगे. उधर क्रूज तैयार
था और कुछ ही पलों में हम उसके भीतर थे. चूंकि बारिश थी
इसलिए ज्यादातर लोग नीचे ही बैठे थे लेकिन शिवि ने कहा मम्मा ऊपर चलना है तो हम
भीगने की लिए ही ऊपर चल पड़े. कैमरा छुपाया, मोबाइल छुपाया और नदी की बीच धार में खुद को महसूस करना
शुरू किया. वहां से शहर को देखना शुरू किया.
यह बहुत सुंदर एहसास था, बारिश ने इसे और भी खूबसूरत बना दिया था. नीचे पानी ऊपर पानी, चारां तरफ पानी ही पानी...नदी की प्यास नदी से बेहतर कौन जान सकता है. थेम्स के कान
में मैंने धीरे से कहा, तुम गंगा से मिली
हो? उसने मुस्कुराकर कहा, गंगा...तुम जैसी ही होगी...और तुम मुझ जैसी...एक ही वक्त में
वहां गंगा...थेम्स और मैं मुस्कुराई...आसमान से गिरती बूंदों ने देखा यह संगम...
आज जो भीगता हुआ लंदन सामने से गुजर रहा था, वो उस भागते हुए लंदन से अलग था जो अब तक हम देख रहे थे. क्रूज पर हो रही कॉमेन्टरी में कोई कह रहा था अगर आप लंदन
की जिंदगी से उकता गये हैं इसका मतलब है आप जिंदगी से उकता गये हैं...यह इतना जिंदा शहर है...मेरे सामने भीगता हुआ टॉवर ब्रिज, भीगता हुआ वेस्टमिनिस्टर, लंदन ब्रिज,
शार्ड, ग्रीनविच था...तभी हमने टॉवर ब्रिज को
दोबारा खुलते देखा, न सिर्फ खुलते देखा उसके
नीचे से गुजरे भी. हम दो जगह क्रूज से उतरे...और थोड़ा घूमकर वापस आ जाते...चूंकि लंदन की वो सारी
जगहें जहां लोग घूमने के लिए उतर रहे थे, हम पहले ही खूब घूम चुके थे इसलिए हमारा सारा आनंद थेम्स की लहरों में हिचकोले
खाने का था. बारिश रुकी तो कैमरों को आजादी मिली, कुछ तस्वीरें खिंचीं लेकिन यकीन मानिए दुनिया का कोई कैमरा
उस सुख को सहेज नहीं सकता जो उस क्रूज पर महसूस हुआ, उस भीगने का सुख, उन कंपा देने वाली हवाओं का सुख...वो भीगा हुआ सा दिन अब तक
महक रहा है...
वेम्बले, शॉपिंग, सर्वनाभवन-
लंदन शहर में एक छोटा सा हिंदुस्तान भी मिला. वैम्बले में. एक रोज वहां जाना भी बनता ही था. यह ऐसी जगह है जहां आकर आपको हिंदुस्तान में होने का का सा
सुख महसूस हो सकता है. वैसी ही दुकानें, वही सामान, वही लाली
लिपिस्टिक, पान की दुकानें, हिंदी गाने, चाट, पकौड़ी, दुकानों बाहर
हैंगर में टंगे कपड़े, शलवार कमीज, साड़ी, दुपट्टा, जलेबी समोसा सब मिलेगा यहां उसी देसी अंदाज में. लंदन में बसे हिंदुस्तानियों का यह प्रिय ठिकाना जरूर होगा,
ऐसा मुझे लगता है. बहरहाल, सर्वनाभवन देखकर हमारी भूख भी इसरार करने ही लगी कि लंदन
वाले इंडिया में खाना खिलाओ न. आखिर हम मसाला दोसा का ऑर्डर कर रहे थे. दोसा खाकर फिर से ताकत आ गई थी तो फिर निकलने पड़े घूमने. शॉपिंग तो करनी नहीं थी लेकिन दुकानों का जायजा कम नहीं
लिया. इतनी फुरसत से हिंदुस्तान में कभी घूमी हूं याद नहीं. बार-बार दुकानों में जाते, जायजा लेते और खाली हाथ वापस. यही सबसे अच्छी
बात रही कि शॉपिंग के चस्के से बचे हुए हैं हम.
ख़्वाब शहर...स्कॉटलैण्ड-
हमने अगली सुबह की तैयारी रात को ही कर ली थी. ठीक पांच बजे घर छोड़ दिया. मन में उत्साह
कुलांचे मार रहा था. स्कॉटलैण्ड देखने का मन तो जाने कबसे था,
शायद लंदन से भी पहले. स्कॉटलैण्ड के
बैगपाइपर्स, वहां के गोल्फ मैदान,
झीलें, वहां का थियेटर, कैसल...सबके बारे में सुना था.
615 किलोमीटर की लंदन से एडिनबरा की दूरी पांच घंटे के ट्रेन के सफर से पूरी हुई. उसके बाद वो शहर हमारी आंखों के सामने किसी जादुई अफसाने
सा खुला. शहर ने सबसे पहले आकर एक अपने यहां की खास सर्द हवा से
हमारा इस्तेकबाल किया. हमने अपने-अपने ओवरकोट के
भीतर भी सिहरन महसूस की. दो कमरे का घर पहले से ही वॉट्सन क्रीसेन्ट
नामक जगह पर तय किया जा चुका था. हम अपने तयशुदा दो दिन के घर की तलाश में
बंजारों की तरह निकल पड़े. मोबाइल का जीपीएस हमारा मार्ग प्रशस्त कर रहा
था. यह खेल मुझे वाकई दिलचस्प लगा था यहां.घर से निकलते हैं जीपीएस के भरोसे और पहुंच जाते हैं सही
ठिकाने पर. हालांकि अब हिंदुस्तान में भी जीपीएस का इस्तेमाल होने लगा
लेकिन बड़े शहरों में ही. बहरहाल, रास्ते ढूंढने का काम अदिति और विप्लव का था और मैं और शिवि
एडिनबरा शहर को देख रहे थे.
रास्ते में एक दुकान से हमने दूध, ब्रेड, मैगी जैसी जरूरी चीजें लीं और फिर घर की खोज में लग गए...जीपीएस था, सड़कें थीं और आनंद था. घर भी होगा ही कहीं न कहीं यह इत्मिनान भी था. बहरहाल, कुछ देर की मशक्कत और मटरगश्ती के बाद आखिर हम पहुंच गये उस दो दिवसीय घर में. वहां के मालिक ने हमें चाबियां दीं और दो दिन का मालिक नियुक्त किया. कमरे में पहुंचते ही लगा वाकई घर मिल गया हो. यहां आकर पैदल खूब चलने लगी थी मैं. मजे की बात यह रही कि शिवि भी खूब चलती थी, बैकपैक के साथ. पहुंचकर चाय और मैगी का जो आनंद मिला उसके बाद कुछ घंटे सोने का सुख भी आ जुड़ा.
रास्ते में एक दुकान से हमने दूध, ब्रेड, मैगी जैसी जरूरी चीजें लीं और फिर घर की खोज में लग गए...जीपीएस था, सड़कें थीं और आनंद था. घर भी होगा ही कहीं न कहीं यह इत्मिनान भी था. बहरहाल, कुछ देर की मशक्कत और मटरगश्ती के बाद आखिर हम पहुंच गये उस दो दिवसीय घर में. वहां के मालिक ने हमें चाबियां दीं और दो दिन का मालिक नियुक्त किया. कमरे में पहुंचते ही लगा वाकई घर मिल गया हो. यहां आकर पैदल खूब चलने लगी थी मैं. मजे की बात यह रही कि शिवि भी खूब चलती थी, बैकपैक के साथ. पहुंचकर चाय और मैगी का जो आनंद मिला उसके बाद कुछ घंटे सोने का सुख भी आ जुड़ा.
तीन बजे के करीब हम शहर घूमने निकले. पूरा शहर पैदल
घूमते रहे, कुछ कुछ खाते पीते,
मस्ती करते. किंग्स थियेटर,
कैसल, यूनिवर्सिटी ऑफ एडिनबरा के करीब से गुजरते हुए. रात का डिनर
इंडियन करना था यह सबने तय किया और फिर गूगल को काम पर लगा दिया गया कि बताओ,
जहां हम हैं वहां के आसपास कौन से हैं इंडियन
रेस्टोरेंट. एक लंबी सूची हमारे सामने थी और कुछ ही देर में हम भारतीय
रेस्टोरेंट में भारतीय शास्त्रीय संगीत की सुर लहरियों के बीच पूड़ी सब्जी और कढ़ाई
पनीर व बटर नान खाने पर टूटे पड़े थे. इस डिनर के बाद फिर एक बहुत लंबी वॉक करके
वापस लौटना था. अगली सुबह फिर जल्द उगने वाली थी क्योंकि मुझे
और शिवि को एक टूरिस्ट बस पकड़नी थी जो हमें साढ़े बारह घंटे में लगभग पूरा एडिनबरा
घुमाने वाली थी.
एक ख्वाब का खुलना और हमारा उसमें होना-जानना कई बार नुकसानदेह होता है और कई बार फायदेमंद भी. लेकिन कुदरत के बारे में मेरा अनुभव है कि कुदरत के पास
हमेशा आपके जाने हुए से ज्यादा होता है. ऐसा ही उस रोज हुआ
जब एडिनबरा घूमने के लिए टूरिस्ट बस में चढ़े. सुबह तकरीबन एक
घंटे की तेज कदमों वाली पैदल वॉक के बाद भी हम बस में पहुंचने वाले सबसे अंतिम
यात्री थे. सफर की शुरुआत अच्छी नहीं रही. मुझे सीट मिली
बस के आखिर में और शिवि को सबसे आगे. हम दोनों के मुंह उतर गए और उत्साह इस चिंता
में बदल गया कि कैसे हम एक-दूसरे के पास बैठ सकें. वो बार-बार मुझे पलटकर देख रही थी और मेरी नज़र उस पर ही थी. अब कुछ हो भी नहीं सकता था. बस चल रही थी और
ड्राइवर की चेतावनी भी कि बेल्ट न पहनने पर कितना जुर्माना है, अगर वापस वक्त पर न आये तो बस चली जायेगी, और जिम्मेदारी नहीं लेगी वगैरह. मैंने सोचा बस
जब दो घंटे बाद रुकेगी तो ड्राइवर से आग्रह करके साथ बैठने का जुगाड़ कर लूंगी. ध्यान बाहर के मौसम पर लगाने की कोशिश की. मौसम बेहद खुशनुमा था.
बस पूरी भरी हुई थी लेकिन अंदर कोई आवाज नहीं थी सिर्फ ड्राइवर
जॉन जो कि गाइड भी था उसकी आवाज गूंज रही थी. वो रास्ते में
गुजरने वाले इलाकों के बारे में वहां का इतिहास और संस्कृतियों के बारे में बता
रहा था. एक नज़र शिवि पर और दूसरी नज़र बस के बाहर थी. मौसम धीरे-धीरे भीतर उमड़-घुमड़ रहे चिंता
के बादलों को समेट रहा था. आखिर बस का पहला पड़ाव आ गया. मैंने शिवि को आश्वस्त किया कि मैं ड्राइवर से बात करके
साथ बैठने का जुगाड़ कर लूंगी. आखिर यह जरा सी ही तो बात है. लेकिन यह जरा सी बात नहीं थी. ड्राइवर ने साफ
इनकार कर दिया कि वो कुछ नहीं कर सकता. क्योंकि मैं देर
से आई थी इसलिए अब कुछ नहीं हो सकता. मुझे लगा यह तो पूरे सफर की बैण्ड बज गई. शिवि का चेहरा उतर गया. मेरा भी. फिर मैंने एक-एक यात्री से
रिक्वेस्ट की लेकिन किसी ने नहीं सुनी, कोई अपने प्रेमी के साथ था तो कोई अपने परिवार के अन्य सदस्यों के साथ. आखिर में एक कोरियन लड़की जो अकेले सफर पर निकली थी,
उसने मेरी बात सुनी और वो तुरंत खुशी से मान गई. असल में हमारा यह सफर अब शुरू हुआ.
उस पल में कोई न था...
एडिनबरा को अगर झीलों का शहर कहा जाए तो गलत नहीं होगा.सारे रास्ते हमारा गाइड बताता जा रहा था कि अब हम किस झील
के पास से गुजर रहे हैं, किस गांव के पास
से, वहां का क्या इतिहास है, कौन सा किला किसका है और किस तरह इन जगहों का आजादी की लड़ाई
में योगदान रहा, किसकी शहादत की दास्तान
किस झील में दर्ज है. बीच-बीच में गाइड चुप
हो जाता और हमें बाहर के अप्रतिम सौंदर्य को महसूस करने के लिए छोड़ देता था. बस के भीतर कोई स्कॉटिश धुन धीरे-धीरे उभरती और
बाहर बहती हवा को, पहाड़ों को रास्तों को
जंगलों को महसूस करने में हमारी मदद करती. कोई बादल का
टुकड़ा हमारे साथ-साथ चलने लगता कोई झील का किनारा आंखों से कभी
पेड़ों की ओट से लुकाछिपी खेलते हुए एकदम से सामने आ खड़ा होता और....और....भीतर सुख का कोई सागर
उमड़ता.
इस पूरी यात्रा में मैंने कई बार अपनी आंखों को सचमुच बहते
हुए महसूस किया. यही...ठीक यही वो लम्हा
था, यही वो अनुभूति जो किसी यात्रा का हासिल होती
है...उस एक पल में मैंने खुद को जीवन की तमाम जद्दोजहद से मुक्त होते
हुए महसूस किया, कोई बेचैनी नहीं, कोई कामना नहीं...बस अविरल बहता
कोई सुख...अध्यात्म में संभवतः इसे ही ईश्वर दर्शन होना कहते होंगे. प्रकृति के साथ साक्षात्कार करते हुए यह मेरे जीवन का
तीसरा अनुभव था...जब मैं अपने केंद्र पर थी
संपूर्ण रूप से और तमाम दुनियादारी से एकदम मुक्त...पहली बार गुलमर्ग के रास्तों पर...दूसरी बार अंडमान में
समंदर के ठीक बीचोबीच...और तीसरी बार यहां
एडिनबरा में....वो पल जिसमें न कोई और था न मैं खुद...
तभी बस एक ब्रेक के लिए रुकी. मानो ड्राइवर को
भी सिर्फ बस ड्राइव करना नहीं आता था बल्कि हमारे जे़हन भी ड्राइव करना आता था. ठीक उस जगह, ठीक उस वक्त वो बस में ब्रेक लगाता था जब हमारे भीतर की तमाम कसावटें टूट रही
होती थीं. बस से उतरते ही ठंडी हवाएं हमें सहलातीं...और हम कुदरत के उस असीम सौन्दर्य को एकटक ताकते रहते...कुछ तस्वीरों में सहेजने की कोशिश भी करते लेकिन वो जो
महसूस हो रहा था उसे कैद कर पाना कैमरों के बस की बात ही नहीं थी. समूची यात्रा लगातार सघन होती जा रही थी. अंदर की यात्रा भी. संभवतः यही हाल
औरों का भी था इसीलिए कम ही लोग एक-दूसरे से बात कर रहे थे. ऐसे ही पलों में
कोई प्रेमी अपनी प्रेमिका को और सटा लेता अपने पास और कोई प्रेमिका अपने प्रेमी का
चुंबन लेने से खुद को रोक नहीं पाती. इन प्रेमी प्रेमिकाओं को अगर उम्र में बांधकर
सोच रहे हैं आप तो गलत हैं. क्योंकि यहां बुजुर्ग प्रेमी जोड़े भी खूब
दिखते हैं.
अगला ब्रेक हमारा लंच ब्रेक था. हमारा लंच हमारे
बैग में था. कुछ चिप्स, बिस्किट और जूस. बाहर से खरीदकर खाने में वेज मांगने पर भी नॉनवेज निकल आने
का जो रिस्क था वो लेना हमारे बस का नहीं था सो वो चिप्स और बिस्किट ही भले लग रहे
थे हमें जो चलते वक्त अदिति ने बैग में रख दिए थे. हमने लंच के नाम
पर एक कोक जरूर खरीदी. चूंकि लंच का चक्कर नहीं था इसलिए हमारे पास
बाकियों से ज्यादा वक्त था. मैं और बेटू आसपास के दृश्यों को देखते हुए
घूमते रहे. इस लंच ब्रेक के बाद हमें लॉकनेस में क्रूज से जाना था. लॉक यहां लेक को ही कहते हैं.
क्रूज झील के ठीक बीच में था और मैं जीवन के ठीक बीच में...चारों तरफ पानी...दूर पहाड़ियां,
पहाड़ियों पर अठखेलियां करते बादल और जिस्म को
छूती हवाएं...उन हवाओं में जादू था, उन पहाड़ियों में भी, उस झील में भी...पूरी झील का
चक्कर लगाकर एक पुराने किले को देखते हुए हम करीब एक डेढ़ घंटे में लौटे. मैं महसूस कर पा रही थी कि भीतर का मौन लगातार सघन होता जा
रहा है. कुछ है जो भीतर बदल रहा है. कुछ जो छूट रहा
है, कुछ जो उग रहा है...किसी यात्रा का यही हासिल होता है.... आज इसे लिखते
हुए महसूस कर रही हूं वही भीतर रेंगता हुआ सुख. वापसी में बस
कुछ और जगहों पर भी रुकी लेकिन एक बार अगर आप उत्कर्ष पर पहुंच जाएं तो बाकी चीजें
अस्तित्व में होकर भी नहीं सी ही रह जाती हैं. हम वापस लौट रहे
थे लेकिन मैंने महसूस किया कि जो मैं गई थी, वो मैं लौट नहीं रही थी. वापस आकर
एडिनबरा शहर में हमने डिनर किया. आज भारतीय खाना नहीं, पुर्तगाली. “हमस“ नाम की कोई चीज़ थी और पीटा ब्रेड...अच्छी लग रही थी. रात को नींद की चादर ओढ़ने से पहले एक बार खुद
को टटोलने का जी किया...कोई अकराहट, कोई कड़वाहट कोई दुविधा कहीं नहीं थी.
तीसरा दिन स्कॉटलैण्ड की कैसल और आर्ट गैलरी के नाम था
लेकिन शहर ने मुस्कुराते हुए कहा कि बारिशां की लाडली को बारिशों का तोहफा देना तो
जरूरी है....सचमुच दिन ऐसा खुशनुमा हो उठा, महक उठा एडिनबरा की उस बारिश में...बार-बार बूंदें हथेलियों से फिसलते हुए पत्तियों पर गिरती रहतीं...जब मेरा जी भर गया तो बारिश ने खुद को समेटकर हमें एडिनबरा
की सड़कों पर ले जाकर खड़ा कर दिया. तीन दिन में मानो इस शहर के चप्पे-चप्पे से हमारी वाक़िफियत हो चुकी थी. एडिनबरा
यूनिवर्सिटी का हरा हमारी हथेलियों में ठहरने को तैयार ही नहीं था, रास्ते कहते आओ और पास आओ, कोई लड़का गिटार की धुन छेड़ता कुछ गाता भी...कोई उसकी टोपी में कुछ पौण्ड या पेंस रख भी देता लेकिन इससे
उसके गाने की लय नहीं टूटती. एक स्त्री खाली बच्चा गाड़ी के सामने रोते हुए
दुःख की समाधि में लीन सी दिखती. शहर की इमारतें सलीकेमंदी से खड़ा होना सिखाती
हैं. हम शहर में जीकर, जी लगाकर वापस लौटते हैं, बार-बार मुड़ मुड़कर देखते हुए.
लीड्स- “अगर तुम यह सोचती हो कि
मुझसे मिले बिना लंदन से चली जाओगी तो ऐसा तो मैं होने नहीं दूंगी...” बस यही वो अधिकार भरा प्यार था एक दोस्त का कि मैं बेटू का
हाथ पकड़कर लीड्स जाने वाली बस में जा बैठी. नीरा त्यागी यही
नाम है दोस्त का. आज के जमाने की दोस्तियां भी अजीब हैं,
कोई इन्हें फेसबुकिया दोस्ती कहता तो दोस्ती को
कम करके आंकने जैसा लगता है. नीरा दी और मैं एक-दूसरे को एक-दूसरे के पढ़े-लिखे से बरसों से जानते हैं. बिना मिले, बिना बात किये. लीड्स लंदन से बस से तय की जाने वाली साढ़े चार घंटे की
दूरी पर है. नीरा दी इसे लंदन का गांव कहती हैं. असल में उनका घर
लीड्स से भी करीब दस किलोमीटर की दूरी पर है. सारा रास्ता
हमें लुभाता रहा और लीड्स से उनके गांवस्कारक्रॉफ्ट तक की दूरी और भी. घर पहुंचते ही हमने पेटपूजा की और निकल पड़े घूमने. कसम से शाम की इतनी सुंदर वॉक करते हुए ऐसा लग रहा था किसी
बड़े बजट वाली बॉलीवुड फिल्म के किसी दृश्य के अंदर हमें एंट्री मिल गई हो जैसे. सारे रास्ते फूलों से भरे हुए थे, फिर पीले फूलों वाले खेत शुरू हुए, कच्ची मिट्टी पे हमारे कदमों के निशान दर्ज होने लगे,
रास्ते में कई जगह घोड़ों के चरागाह मिले. कोई लड़की घोडे़ की मालिश करती भी दिखी. सारे रास्ते खरगोश उछलकूद करते नजर आते रहे...कितना सुंदर रास्ता था, कबसे चलते ही जा रहे थे, थक ही नहीं रहे थे...वापस आकर मुंह से
यही निकला यह तो वाकई जन्नत है.
यॉर्क म्यूजियम और आर्ट गैलरी-
हमारी मुट्ठियां एकदम खाली थीं इन पर हर दिन किसी ख्वाब सा
उगता था और लहलहाता था. मजा यह था कि हमारे लिए ये जादू भरी पोटलियां
हमारे अपने तैयार कर रहे थे. हम चैन से सोते थे और सुबह हमारी हथेलियों पर
एक खूबसूरत दिन रख दिया जाता. लीड्स में नीरा दी और उनके पति रंजीत जी ने
हमें यॉर्क घुमाने का प्लान किया था. यह एकदम से नई खुली खिड़की थी. लंदन के एक गांव में रहने के खूबसूरत अनुभव के साथ यॉर्क
शहर घूमना तो बोनस ही था.
यॉर्क हम स्कारक्राफ्ट से तकरीबन आधे घंटे की ड्राइव पर था. सारे रास्ते लहलहाते खेत, हरे मैदान...शहर से बाहर होने का सुख से भर रहे थे. यॉर्क पहुंचते ही एक नदी हमसे मिलने को बेकरार मिली. बड़ी शांत से सी नदी. नाम था ओउस...जैसे नींद से जागी हो...बत्तखों का ऐसा जमावड़ा कि उन्हीं के बीच रह जाने को जी करे...कहा जाता है 13वीं सदी में इस शहर को रोमन्स ने खोजा था. यह असल में दीवारों का शहर है...खूबसूरत दीवारें...कलाओं से भरपूर शहर के जर्रे-जर्रे में आपको महसूस होगा कि आप किसी पेंटिग के भीतर प्रवेश कर चुके हैं और चल रहे हैं. इत्मिनान के साथ हम शहर को महसूस करते हुए पैदल चलते रहे...चलते रहे...यहां का थियेटर, इमारतें, चर्च सब आसपास थे...शहर को महसूसना भी एक इल्म होता है, हुनर होता है. शहर में जाना शहर से जुड़ना नहीं होता...इस यात्रा में इस जाने हुए में थोड़ा और इज़ाफा हो रहा था. किस तरह कोई शहर अपनी कला, अपनी सभ्यता, अपने इतिहास को संजोकर रखता है, उसके प्रति विनम्र और प्रेमपूर्ण होता है यह मुझे शेक्सपियर के गांव में भी महसूस हुआ और यहां भी, हां एडिनबरा में भी. एक बेहद पुरसुकून दिन बिताकर हम लौटे...तो लीड्स मुस्कुराता हुआ मिला. अगले दिन हमारी वापसी थी.
यॉर्क हम स्कारक्राफ्ट से तकरीबन आधे घंटे की ड्राइव पर था. सारे रास्ते लहलहाते खेत, हरे मैदान...शहर से बाहर होने का सुख से भर रहे थे. यॉर्क पहुंचते ही एक नदी हमसे मिलने को बेकरार मिली. बड़ी शांत से सी नदी. नाम था ओउस...जैसे नींद से जागी हो...बत्तखों का ऐसा जमावड़ा कि उन्हीं के बीच रह जाने को जी करे...कहा जाता है 13वीं सदी में इस शहर को रोमन्स ने खोजा था. यह असल में दीवारों का शहर है...खूबसूरत दीवारें...कलाओं से भरपूर शहर के जर्रे-जर्रे में आपको महसूस होगा कि आप किसी पेंटिग के भीतर प्रवेश कर चुके हैं और चल रहे हैं. इत्मिनान के साथ हम शहर को महसूस करते हुए पैदल चलते रहे...चलते रहे...यहां का थियेटर, इमारतें, चर्च सब आसपास थे...शहर को महसूसना भी एक इल्म होता है, हुनर होता है. शहर में जाना शहर से जुड़ना नहीं होता...इस यात्रा में इस जाने हुए में थोड़ा और इज़ाफा हो रहा था. किस तरह कोई शहर अपनी कला, अपनी सभ्यता, अपने इतिहास को संजोकर रखता है, उसके प्रति विनम्र और प्रेमपूर्ण होता है यह मुझे शेक्सपियर के गांव में भी महसूस हुआ और यहां भी, हां एडिनबरा में भी. एक बेहद पुरसुकून दिन बिताकर हम लौटे...तो लीड्स मुस्कुराता हुआ मिला. अगले दिन हमारी वापसी थी.
डर्डल डोर-एक किताब के खत्म होने के तुरंत दूसरी किताब
उठाने का मन नहीं करता, उसके असर को
महसूस करने का मन करता है वैसा ही यात्राओं भी में होता है शायद. हम एक जगह से आते और इस कदर भरे होते कि उसे ठहरकर जीने को
जी चाहता...लीड्स से लौटकर एक दिन हमने आराम, शॉपिंग के नाम पर कुछ घूमने का रखा. क्योंकि डर्डल
डोर जो कि लंदन से 128 किलोमीटर की दूरी पर है
वहां हमें अगले रोज जाना था. डर्डर डोर खूबसूरत समंदर के किनारे पर
प्राकृतिक रूप से बना चट्टान का खूबसूरत दरवाजा है. उसे हमने कई
फिल्मों में देखा था. असल में यह वेल्स परिवार की निजी संपत्ति है,
जिसे उन्होंने लोगों के सुख के लिए सार्वजनिक
तौर पर खोल दिया दिया है.
यहां मौसम काफी बदला हुआ मिला लेकिन समंदर नदारद. सामने तो एक पहाड़ खड़ा था. बेहद खूबसूरत
पहाड़. अदिति ने मुस्कुराकर कहा पहले इस पहाड़ को चढ़ना है, फिर उसे उतना ही उतरना है तब मिलेगा समंदर...एक बार को तो सहम सा गया मन. लेकिन हिम्मत
जुटाई. जैसे-जैसे कदम आगे बढ़ते मन प्रसन्न होता जाता. जन्नत जिसे कहते हैं लोग, वो यही होगी शायद. इतना सौन्दर्य
कि आंखों में समेटन लेने को मन बेताब हो उठे. पहाड़ी के टॉप पर
पहुंचकर खूबसूरत बेहद नीला समंदर दिखाई दिया. एक तरफ हरा घास
का मैदान और वो पहाड़ी रास्ता जिस पर हम चढ़कर आये थे दूसरी तरफ समंदर को उतरता
रास्ता और सामने समंदर. हम पहाड़ी के सबसे उंचे टीले पर कुछ देर ठहरे. चारों तरफ बादल ही बादल....बीच में वो पहाड़ी और उसमें बैठे हम...इसके बाद क्या
कोई इच्छा बाकी बचती है?
लेकिन जैसा कि दोस्तों का कहना था कि अभी तो असल खूबसूरती
देखना बाकी है. हम फिर लुढ़कने लगे पहाड़ से नीचे की ओर...लगातार समंदर के करीब जाते हुए अच्छा लग रहा था. आखिर हम पहुंच गये उस डर्डल डोर के सामने जिसने आवाज देकर
पुकारा था. नीले और हल्के हरे समंदर के बीच वो खूबसूरत सा दरवाजा मानो
किसी ने बनाया हो...मानो कह रहा हो...इस पार दुनिया है, दुनियादारी है उस पर सुकून है...मुक्ति है...और इस पार से उस पार जाना है जीवन सागर से गुजरकर ही. लोग तरह-तरह से तस्वीरों में दर्ज होना चाह रहे थे,
इस खूबसूरत मंजर के साथ...पानी बेहद ठंडा था मानो बर्फ की सिल्ली पर पांव रख दिया हो...फिर भी उत्साह में लोग पानी के भीतर जाने से रोक खुद को रोक
नहीं पा रहे थे. खूब इत्मिनान से हमने डर्डल डोर को आंखों में
भरा और विदा ली...वापसी थकान भरी थी और भूख
भी. फिर वही गूगल...वही जीपीएस और एक और
समंदर की तलाश. डर्डल डोर से कुछ दूरी पर एक और समंदर था जिसके
किनारे बलुई थे...डर्डर डोर के किनारे पर
बजरी थी तो वहां ज्यादा दूर तक पैदल चलना आसान तो नहीं था.
उस रोज वापसी में देर तो होना तय था. पहली बार रात का
लंदन घूम रहे थे हम...तकरीबन रात के एक बजे हम
घर पहुंचे...थके...तृप्त.
अगले रोज हमें मार्क्स की मजार पे जाना था. लेकिन सब के सब इस कदर थके हुए थे एक दिन में कई दिनों को
जीने की थकान जो थी...किसी की हिम्मत न हुई. अगले दिन वतन वापसी थी तो इत्मिनान से घर पर सबके साथ वक्त
बिताने का लालच भी था. पूरा दिन हम घर पर मटरगश्ती करते रहे...खाना...पीना...सोना...फिल्में...सब. अगले दिन निकलना था तो पैकिंग भी हो गई और तय
हुआ कि सुबह को हम मार्क्स की कब्र पर होकर आयेंगे शाम की फ्लाइट से वापसी...लेकिन सुबह से जो बारिश शुरू हुई कि होती रही....शहर जानता था कि बारिशों को चाहने वाली लड़की वहां आई हुई है...वो उसे बारिशों से भर देना चाहता था. बारिश के चलते
हमने मार्क्स की कब्र पर जाना आखिर स्थगित ही किया...बिटिया ने हंसकर कहा, वहां नहीं गई तो
क्या असल तो थॉट होते हैं वो तो हैं ही आपके साथ...बच्चे भी कैसे बड़े हो जाते हैं न? दिन बरसता रहा और मन यहां बिताये अठारह दिनों को समेटने लगा...
वापसी एक शहर को लेकर-
शाम को जब हम और शिवि सुरक्षा जांचों के तमाम चक्रव्यूहों
को भेदकर बोर्डिग पास लेकर हीथ्रो एयरपोर्ट पर मस्ती कर रहे थे...तो मैंने महसूस किया कि मैं वो नहीं थी जो मैं आई थी...जाने सुरक्षा जांचों में क्या जांचा जाता है...कोई नहीं जांच पाता कि किस तरह शहर हमारे साथ ही जा रहा है
और किस तरह बिना वीजा पासपोर्ट के एक मन हम वहीं छोड़कर जा रहे हैं....यात्राएं हमारे भीतर की तमाम अकुलाहट को, कड़वाहट को थामती हैं, हमें हमसे मिलाती हैं...
दिल्ली एयरपोर्ट पहुंचकर उस यात्रा के हासिल के साथ घर
वापसी का सुख भी हाथ आ गया...वापस लौट आने के सुख को
महसूस करने के लिए जाना सचमुच जरूरी होता है...डरी सहमी, सकुचाई, घबराई वो स्त्री जो पहली विदेश यात्रा को निकली थी जो लौटी
है वो आत्मविश्वास से भरी, साहस और ऊर्जा को
लेकर लौटी है. टटोलती हूं तो पाती हूं कि मेरी उम्र के कुछ
साल भी वहीं थेम्स में गिर गये हैं शायद...ज्यादा युवा
महसूस कर रही हूं...शिवि के साथ चॉकलेट के
लिए लड़ाई करते हुए मुस्कुराती हूं...
__________
प्रतिभा
कटियार
21 जुलाई 1975, कानपुर, उत्तर प्रदेश
कविता, कहानी, यात्रा-वृत्तांत, डायरी, लेख, साक्षात्कार, संपादन
चर्चा
हमारा (मैत्रेयी पुष्पा के साक्षात्कारों का संपादन), खूब कही (व्यंग्य संग्रह - संपादन), लगभग सभी प्रमुख साहित्यिक पत्र-पत्रिकाओं में कविताएँ और
कहानियाँ प्रकाशित.
kpratibha.katiyar@gmail.com
kpratibha.katiyar@gmail.com
हमेशा की तरह बहुत ही बढ़िया लिखा आपने Pratibha Katiyar. आपके शब्दों में उतरकर हमने भी एक यात्रा जी ली। हमारी छोटी-छोटी आदतें कितनी मिलती-जुलतीं होती हैं, घर से निकलने से पहले खिड़कियों से लेकर गैस की नॉब तक हज़ार दफ़े चेक करना। ठीक इसी तह सोचना कि यार 24 घण्टे में हम पुणे से लखनऊ पहुंचते इससे आधे समय मे तो लन्दन पहुँच जाते। और सबसे आखिरी बात कि कहीं से लौटने के बाद हम फिर से तरोताज़ा हो जातें हैं, ज़्यादा युवा महसूस करते हैं। और हाँ! सचमुच कुदरत का सम्मोहन हर जगह ऐसा ही है, एक नज़र में आपको बांध लेता है।
जवाब देंहटाएंप्रतिभा तुम्हारी नज़रों से लंदन, एडनबरा, स्ट्रेटफोर्ड, यॉर्क घूमा, कितनी बारीकी से उकेरा है सब कुछ, तुम्हारे शब्दों ने शहरों को कैसे दिन और रिश्तों से जोड़ा है; इस संस्मरण की तहों में लिपटे अहसास, इतिहास और संवेदनशीलता की हरियाली से कोई भी पाठक अछूता नहीं रह सकता।
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (29-07-2017) को "तरीक़े तलाश रहा हूँ" (चर्चा अंक 2681) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बेहतरीन वृतान्त प्रतिभा जी । बहुत ही साफगोई से सधी हुई भाषा में अपनी बात रखने का अद्भुत प्रयोग । यूँ ही आपके लेखनी की धार और धमक बनी रहे , यही कामना है ।
जवाब देंहटाएंये यात्रा चंद दिनों की यात्रा नही है, सदियों की यात्रा है। एक माँ की यात्रा है, सजग नागरिक की यात्रा है, एक देश के इतिहास में दूसरे देश के समानांतर इतिहास को देखने की यात्रा है, प्रकृति और मानव प्रवृति के रखरखाव की चिंता की यात्रा है, सूक्ष्म परख की यात्रा है। बेहतरीन वृत्त खींचा गया है। लगा कि कई तरह के लोगों की नज़र लंदन जी कर आई है। बिना पासपोर्ट और सुरक्षा जांच के पूरा लंदन ले आयीं वो, और उन्हें पता भी नही चला। ये उन लाखों लोगों के लिए तोहफा है, जो नही जा पाए या पाएंगे। पढ़ाने के लिए शुक्रिया समालोचन।
जवाब देंहटाएंआपकी नज़रों से लंदन देखा मानो की मैं भी वही पहुँच गई हु ऐसा एहसास हुआ। बेहतरीन Mam जादू है आपकी क़लम में।
जवाब देंहटाएंबहुत सजीव वर्णन
जवाब देंहटाएंमंत्रमुग्ध होकर पढ़ गया । बेहतरीन यात्रा-वृतांत । हार्दिक धन्यवाद ।
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