युवा
समाज वैज्ञानिक संजय जोठे ने भारत में नास्तिकता के अर्थ, उसकी परम्परा और वर्तमान में उस पर हो रहे हिंसक हमलों पर यह सारगर्भित
लेख लिखा है. यह लेख यह भी दिखाता है कि वर्तमान में धर्मों की यह जो भयानक
असुरक्षा है उसके मूल में क्या है. उनसे सहमत हुआ जा सकता है कि मथुरा में जो हुआ
है वह ‘तार्किकों, अन्धविश्वास विरोधियों, पाखंड-विरोधियों’
के खिलाफ काफी समय से चल रही आपराधिक हिंसा का ही विस्तार है.
समय
से और हमारे ‘समय’ में हस्तक्षेप करता एक जानदार आलेख.
नास्तकिता का अर्थात
_____________
संजय जोठे
सौभाग्य से आजकल भारत में नास्तिकता चर्चा में है. यह अच्छा लक्षण है और इसके साथ एक चिंता भी जुडी हुई है. यह अच्छा लक्षण इस अर्थ में है कि जब-जब कोई समाज नास्तिक होने का दुस्साहस दिखाता है तब-तब वहां संस्कृति सभ्यता और ज्ञान विज्ञान का तेजी से विकास होता है. या कहें कि ज्ञान विज्ञान के विकास और नास्तिकता में एक समानुपातिक संबंध है. भारत जब अतीत में बौद्धों और जैनों (और कुछ हद तक लोकायतों सहित आजीवकों) के साथ नास्तिक था - तब भारत की सभ्यता अपने शिखर पर थी और दार्शनिक ज्ञान में ही नहीं बल्कि भौतिक ज्ञान में भी भारत अपने ज्ञात शिखर पर था इसी दौर में गणित, खगोल, भेषज, धातुविज्ञान और शल्य चिकित्सा तक पर भारी काम हुआ था आजकल के हिन्दू ज्ञान विज्ञान का जो दावा करते हैं वह सब ज्ञान विज्ञान न तो वेदों से संबंधित है न आस्तिकों से. इसी दौर में भारत सोने की चिड़िया था जिस पर हमला करने के लिए पहले यवन फिर हूँण, तातार, शक इत्यादि योजना बना रहे थे. बाद में आस्तिक और वेदवादी धर्मों के उभार के बाद भारत पा पतन आरंभ हुआ जो कई अर्थों में आज तक जारी है.
सौभाग्य से आजकल भारत में नास्तिकता चर्चा में है. यह अच्छा लक्षण है और इसके साथ एक चिंता भी जुडी हुई है. यह अच्छा लक्षण इस अर्थ में है कि जब-जब कोई समाज नास्तिक होने का दुस्साहस दिखाता है तब-तब वहां संस्कृति सभ्यता और ज्ञान विज्ञान का तेजी से विकास होता है. या कहें कि ज्ञान विज्ञान के विकास और नास्तिकता में एक समानुपातिक संबंध है. भारत जब अतीत में बौद्धों और जैनों (और कुछ हद तक लोकायतों सहित आजीवकों) के साथ नास्तिक था - तब भारत की सभ्यता अपने शिखर पर थी और दार्शनिक ज्ञान में ही नहीं बल्कि भौतिक ज्ञान में भी भारत अपने ज्ञात शिखर पर था इसी दौर में गणित, खगोल, भेषज, धातुविज्ञान और शल्य चिकित्सा तक पर भारी काम हुआ था आजकल के हिन्दू ज्ञान विज्ञान का जो दावा करते हैं वह सब ज्ञान विज्ञान न तो वेदों से संबंधित है न आस्तिकों से. इसी दौर में भारत सोने की चिड़िया था जिस पर हमला करने के लिए पहले यवन फिर हूँण, तातार, शक इत्यादि योजना बना रहे थे. बाद में आस्तिक और वेदवादी धर्मों के उभार के बाद भारत पा पतन आरंभ हुआ जो कई अर्थों में आज तक जारी है.
आज नास्तिकता के इस दुस्साहस से जुड़े अवसर के
साथ एक चिंता भी जुडी हुई है. वह चिंता इस बात की है कि नास्तिकता चर्चा में जिस
ढंग से आई है वह ढंग खतरनाक है. नास्तिकता को एक संगठित आन्दोलन न बनने देने के प्रयासों
ने यह खबर बनाई है, न कि नास्तिकता
ने स्वयं मुखर होकर कुछ कहना आरंभ किया है. इस अंतर को समझना होगा. नास्तिकता अगर
अपने शिक्षण के कंटेंट और उस कंटेंट को डिलीवर करने की सफलता के कारण चर्चा में
आये तो यह शुभ है लेकिन नास्तिकता पर हमले के कारण यह चर्चा में आई है यह बात गलत
हुई जा रही है.
भारत में नास्तिकता हमेशा ही एक बिखरी हुई
प्रवृत्ति रही है. ऊपर-ऊपर प्रगतिशील नजर आने वाले लोग भी घर के अंदर न सिर्फ
आस्तिक हो जाते हैं बल्कि कर्मकांडी और पाखंडी तक हो जाते हैं. वे अपने बच्चों को
घर में समुद्र लांघ जाने वाले देवता सिखाते हैं और स्कूल में न्यूटन का
गुर्त्वाकर्षण और सौर मंडल का माडल सिखाते हैं, इसी कारण उनके बच्चे कुछ भी तय नहीं कर पाते और विज्ञान तो
कभी सीख ही नहीं पाते हैं. इन दो मुंहे प्रगतिशीलों को छोड़ें तो भी बिखरे हुए रूप
में सच्चे नास्तिक भारत भर में फैले रहे हैं लेकिन उनमे बड़े पैमाने पर आपस में कोई
सम्बन्ध नहीं निर्मित हुआ है. अब फेसबुक और सोशल मीडिया ने उन्हें भी सम्बन्धित
होने के लिए मंच दे दिया है. इन नास्तिकों ने पहली बार हिम्मत करके एक सामूहिक कदम
उठाया है और वृन्दावन के दुस्साहसिक बुद्धिजीवी बालेन्दु स्वामी जी के नेतृत्व में
यह एक आन्दोलन की शक्ल लेने को तैयार हुआ जा रहा है. इस सब पर हमला होना ही था.
अगर हमला न होता तो मानना पड़ता कि यह पहल ईमानदार या धारदार नहीं है. हर अच्छी और
इमानदार पहल पर हमला होना ही है. यही उस पहल के वैध, शुभ और शक्तिशाली होने का पहला प्रमाण है.
नास्तिकता की यह पहल क्यों हुई है और इसका
विरोध क्यों हो रहा है इसको समझने के लिए पहले आस्तिकता और नास्तिकता को ही समझना
होगा. दुनिया के अन्य देशों में ईश्वर, उसकी किताब और धर्मादेशों में आस्था रखने को आस्तिकता कहा जाता है और इन्हें
नकारने वालों को नास्तिक कहा जाता है. हालाँकि यह बहुत मोटा मोटा विभाजन है इसमें
अन्दर बहुत सारे जाल हैं लेकिन हमारी चर्चा के लिए इतना विस्तार पर्याप्त है. एक
अदृश्य से ‘करुणावान’ (इसाइयत और इस्लाम) या ‘भयानक’ (यहूदी) ईश्वर और
उसकी किताबों में भरोसा करना ईमान का या विश्वास का चिन्ह है जिसे आस्तिकता माना
जा सकता है. लेकिन भारत में या स्पष्ट रूप से कहें तो भारतीय दर्शन में आस्तिक का
अर्थ ईश्वर में विश्वास करना नहीं होता है. भारतीय दर्शन में आस्तिक का अर्थ वेदों
में आस्था रखने से है, वेद अपौरुषेय हैं
और उनके ज्ञान को चुनौती नहीं दी जा सकती – ऐसा मानने वाले दर्शन आस्तिक दर्शन कहलाते हैं और वेदों के
ज्ञान और उस ज्ञान की अपौरुषेयता को नकारने वाले दर्शन नास्तिक दर्शन कहलाते हैं.
ईश्वर को लेकर इस विभाजन का भी कोई अर्थ नहीं
है क्योंकि सांख्य और योग दोनों ही दर्शन आते तो आस्तिक दर्शन की श्रेणी में हैं,
लेकिन ईश्वर को क्रमशः या तो सीधे सीधे
अस्वीकार करते हैं या फिर धारणा का विषय मात्र मानते हैं. सरल शब्दों में कहें तो
सांख्य दर्शन ईश्वर को मानता ही नहीं और योग दर्शन के लिए ईश्वर सिर्फ धारणा का
विषय है जिससे किन्ही ख़ास मनोवैज्ञानिक रुझान के लोगों को साधना में सुविधा होती
है. योग इस तरह ईश्वर का “इस्तेमाल”
किसी ख़ास मकसद से कर रहा है, शायद यह दुनिया का एकमात्र दर्शन है जो किसी
अन्य “ईश्वर से भी बड़े साध्य”
के लिए ईश्वर को साधन बनाकर “उपयोग” करने का साहस रखता है. लेकिन आजकल के बाबा लोग ही नहीं बल्कि ओशो जैसे तथाकथित
क्रांतिकारी भी पतंजली से विश्वासघात करते हुए वेदान्तिक ब्रह्म को योग के ईश्वर
से मिलाकर लोगों को कन्फ्यूज करते हैं. खैर, तो अंतिम रूप से योग भी जिस कैवल्य में फलित होता है वहां ईश्वर
या आत्मा इत्यादि कुछ नहीं है, वह फलित जैनों के
कैवल्य से मिलता जुलता है और जैन न सिर्फ नास्तिक हैं बल्कि श्रमण है. इसके बावजूद
चूँकि योगदर्शन वैदिक प्रतीकों और भाषा का इस्तेमाल करते हुए वेदों की सत्ता को
स्वीकार करता है इसलिए वह आस्तिक दर्शन कहलाता है.
इस छोटी सी भूमिका के बाद अब हम स्वामी
बालेन्दु जी के नेतृत्व में उठ खड़े हुए इस आन्दोलन के प्रति वेद वेदान्त और
योग के रसिकों के मन की उभर रही असुरक्षा को समझ सकते हैं. यहाँ यह भी ध्यान देना
होगा कि स्वामी बालेन्दु न सिर्फ भारतीय अर्थ की आस्तिकता पर प्रश्न उठा रहे हैं
बल्कि सेमेटिक धर्म मानने वाले देशों की आस्तिकता (बिलीफ, फैथ या ईमान) को भी निशाने पर ले रहे हैं. इस प्रकार स्वामी
बालेन्दु जी की नास्तिकता की प्रस्तावना दोहरा वार कर रही है. इसीलिये वे हिन्दुओं
सहित ईसाईयों और मुसलमानों कि निंदा के पात्र भी बन गये हैं. भारतीय हिन्दुओं के
मन में बसी वेदों / भगवान के प्रति निष्ठा और भारतीय मुसलमानों ईसाईयों आदि के मन
में बसी अल्लाह या गॉड के प्रति निष्ठा – दोनों को वे एकसाथ कठघरे में खड़ा कर रहे हैं और बहुत तार्किक रूप से आस्तिकता
या विश्वास के इन माँडलों पर वैध प्रश्न उठा रहे हैं. उनके प्रश्नों कि भूमि
प्राकृतिक नैतिकता, कामन सेन्स,
नागरिकता बोध और वैज्ञानिक रुझान से मिलकर बनी
है, इसीलिये उनकी
प्रस्तावनाओं में विकसित और मुखर सामाजिक सरोकारों की गूंज होती है जिसे उनकी हर
टिप्पणी, वक्तव्य और लेख में सुना
जा सकता है.
लेकिन इतने अच्छे संकल्प से की जा रही इतनी
सुन्दर पहल से किसी को क्या समस्या हो सकती है? क्या काल्पनिक ईश्वर और हजारों वर्ष पुरानी तिथिबाह्य हो
चुकी किताबों को चुनौती देते हुए वैज्ञानिक चेतना के साथ जीने का आग्रह करने में
किसको खतरा हो सकता है? असल में यही
प्रश्न विचारणीय है. आस्तिकता या नास्तिकता में क्या ठीक और हितकर है यह कोई चर्चा
का मुद्दा नहीं है, सभी लोग जो थोड़े
से शिक्षित या जागरूक हैं वे नास्तिकता और वैज्ञानिक रुझान के फायदों को बखूबी
समझते हैं. इसलिए असल मुद्दा यह है कि आस्तिकता की रक्षा में लट्ठ भांजने वालों के
मन की असुरक्षा का विश्लेषण कैसे किया जाए.
इसे एक दुसरे मुद्दे से जोड़कर देखते हैं तब
आसानी होगी. क्योंकि नास्तिकता (बे-ईमान या नॉन-बिलीवर या वेद-विरोधी होने के अर्थ
में) जिस तरह पहले खतरनाक समझी गयी है वैसा ही और उतना ही खतरा उससे आज नहीं है.
आज उससे जो और जितना खतरा है वह संपूर्ण और निर्णायक खतरा है. आज पूरे विश्व में
आस्तिकता और धर्म को एक बहुत नए ढंग की चुनौती मिल रही है जो पहले कभी नहीं मिली
है. यह चुनौती क्या है और इसकी प्रष्ठभूमि क्या है इसे समझना जरुरी है, आइये इसमें प्रवेश करते हैं.
असल में पश्चिमी समाज में वैज्ञानिक विकास ने
जिस पुनर्जागरण को संभव बनाया है और उसके नतीजे में जो औद्योगिक और सामाजिक विकास
हुआ उसने ईश्वर को एक सृष्टा और नियामक के रूप में अपने पद से सदियों पहले हटा
दिया है. वहां अब ईश्वर सर्वशक्तिमान नहीं है बल्कि ईश्वर का स्थान विज्ञान ने ले
लिया और चर्च का स्थान विश्वविद्यालयों ने ले लिया है. लेकिन पूर्वी समाजों का
दुर्भाग्य ये रहा कि यहाँ धर्म सत्ता इतनी शक्तिशाली और सर्वव्यापी रही कि यहाँ
धर्म, दर्शन और विज्ञान में
विभाजन ही पैदा नहीं होने दिया. यहाँ धर्म ही दर्शन और विज्ञान तक का स्त्रोत बन
बैठा और इसी क्रम में आस्था और तर्क में असंभव मेल बैठाते बैठाते खुद पाखंडी हो
गया. पश्चिम में कम से कम धर्म, दर्शनशास्त्र और
विज्ञान अपने अपने क्षेत्रों में दावे से कुछ इमानदार घोषणा करते रहे हैं. वहां
भारत जैसा गोल मोल पाखण्ड नहीं जन्मा क्योंकि इन तीनों के विभाजन और उनके विषयों
के संगत विस्तारों का अंतर स्पष्ट रहा है.
लेकिन भारत में शुरू से ही धर्म ने सारा
कार्यभार अपने कन्धों पर उठा रखा है और तीन मुंह वाले ब्रह्मा की तरह एक मुंह से
धर्म, दुसरे से दर्शन और तीसरे
से विज्ञान कहना पड़ता है. इसीलिये भारतीय लोग न धर्म सीख पाते हैं न दर्शन न ही विज्ञान,
भारतीय समाज में एक आम आदमी के जीवन में ये
तीनों ही गायब हैं. भारतीय लोग इन तीन मुंहों को देखकर बस कन्फ्यूज ही होते रहते
हैं कुछ भी निर्णय नहीं ले पाते. इसीलिये भारत धार्मिक, दार्शनिक और वैज्ञानिक रूप से जहां का तहां बना रहता है.
इसी से कुछ लोगों को ग़लतफ़हमी हो जाती है कि ‘हम कभी मिटाए नहीं जा सके’, वे कहते हैं कि “कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी” लेकिन गौर से देखें तो असल में यह ऐतिहासिक जड़ता भर है,
अजर अमर हस्ती जैसा कुछ नहीं है. इसी को
अधिकाँश लोग सनातन होना कहते हैं – हजारों साल से जो
थे वही आज भी हैं. इसपर भी तुर्रा ये कि इस बात पर जिन्हें शोक मनाना चाहिए वही
इसमें गर्व का अनुभव करते हैं.
अब आगे बढ़ते हुए विज्ञान और औद्योगीकरण सहित
भूमंडलीकरण पर सवार होकर सब तरह के अच्छे बुरे विचारों – गीत संगीत, वेशभूषा, भोजन, शिक्षा, चिकित्सा इत्यादि
- ने अब दुनिया भर में हमला बोल दिया है. ऐसे में आत्मरक्षण और अस्मिता का प्रश्न
भयानक रूप से पीडादायी हो गया है. आधुनिकता और उत्तर-आधुनिकता ने जिस तरह से
सर्वसमावेशवाद, बहुसंस्कृतिवाद
और अन्तः संस्कृतिवाद आदि को जन्म दिया है उसकी प्रतिक्रिया ने प्राचीन धर्मों और
संस्कृतियों में अस्मिता की खोज और अस्मिता के परिभाषण सहित अतीत में मनचाही
अस्मिताओं को प्रक्षेपित और आरोपित करने तक के आन्दोलन छेड़ दिए हैं. यह आवश्यकता
एक विराट गर्भ बन गयी है जिसमे से दुनिया की हर प्रमुख संस्कृति में सांस्कृतिक
पुनर्परिभाषण, सांस्कृतिक पुनरुत्थान
और अपने धर्म की खोज के वैश्विक और स्थानीय आन्दोलन पैदा हो गये हैं.
इसी गर्भ से कई रंग के आतंकवाद और राष्ट्रवाद
जुडवा भाइयों की तरह एकसाथ निकल रहे हैं. यह वैश्विक स्तर पर पहले कभी इतने बड़े
पैमाने पर नहीं हुआ है. इसीलिये आज की आस्तिकता और नास्तिकता प्राचीन अर्थ की
आस्तिकता या नास्तिकता की स्वाभाविक संगिनी की तरह नहीं देखी जानी चाहिए. आज की
आस्तिकता और नास्तिकता – दोनों ही एक कई
अर्थों में वैश्विक और निर्णायक बन गयीं हैं. अब सभी तरह की धार्मिक और सांस्कृतिक
अस्मिताएं – अवश्यंभावी हो
चुके वैश्विक संस्कृति में विलय के पूर्व - आत्मरक्षण की अपनी अंतिम लड़ाई लड़ रही
हैं. और जैसा कि अमर्त्य सेन ने अपनी किताब “अस्मिता और हिंसा” में नोट किया है, “यह अस्मिता केवल गर्व और ख़ुशी का ही स्त्रोत नहीं है बल्कि
ताकत और आत्मविश्वास का स्त्रोत भी हो सकती है” यही ताकत और आत्मविश्वास न सिर्फ एक आरोपित महानता को अपने
धार्मिक-सांस्कृतिक अतीत (इतिहास नहीं) में प्रक्षेपित कर रहा है बल्कि इस आरोपित
महानता पर प्रश्न उठाने वालों पर आक्रामक होकर हमले भी कर रहा है. भारत में आज
तर्कवादियों या नास्तिकों पर जो हमला हो रहा है वह यही हमला है.
अब हम आते हैं नास्तिकता पर हो रहे हमले के
विश्लेषण पर. भारत में पिछले कुछ दशकों में धर्म के निर्माण और रक्षा की एक ख़ास
प्रवृत्ति उभरती रही है. असल में देखा जाए तो यह प्रवृत्ति अंग्रेजी शासन के समय
जन्मी थी जबकि भारतीय बुद्धिजीवियों को पश्चिम के सभ्य समाज से संबंधित होने का
पहला मौक़ा मिला था. निश्चित ही उपनिवेशी नियंत्रण और दमन खतरनाक था और निंदनीय है,
लेकिन उसने भारत के पुरातनपंथी और अन्धविश्वासी
समाज को पश्चिमी ज्ञान विज्ञान और विकसित सामाजिक रचना का पाठ भी पढ़ाया था. इसी
कारण तिलक, पाल, और राममोहन रॉय सहित अनेक तत्कालीन बुद्धिजीवियों ने आर्य आक्रमण थ्योरी
को लपक लिया था और अंग्रेजी आक्रमण को भारत को सभ्य बनाने वाली ईश्वरीय योजना का
एक भाग मान लिया था, राममोहन रॉय ने
तो ब्रिटेन में घोषणा भी की थी कि भारतीय आर्य अपने पुराने यूरोपीय आर्य भाइयों से
अरसे बाद दुबारा मिल रहे हैं. इस ऐतिहासिक भरत मिलाप का उन्होंने खासा उत्सव मनाया
था.
यहाँ एक और दिशा से गौर करें तो इसाइयत के
सेवाभावी और मिशनरी स्वरूप और पश्चिमी समाज की विकसित और तुलनात्मक रूप से नैतिक
संरचना ने भारतीय बुद्धिजीवियों को खासा प्रभावित किया था. विशेष रूप से स्वामी
विवेकानन्द ने अपनी अमेरिका और यूरोप यात्राओं से जिस तरह का इसाई धर्म और
सेवाभाव सीखा उसी के आधार पर इस नियो-हिन्दुइज्म या नियो-वेदांता की नींव रखी गयी,
याद कीजिये स्वामी विवेकानंद ने भारत लौटते ही
सिस्टर निवेदिता के साथ रामकृष्ण “मिशन” आरम्भ किया था. मिशनरी इसाइयत से प्रेरित इस नये “मिशन” के आगे या पीछे राममोहन रॉय, केशवचंद्र, देवेन्द्रनाथ, रानाडे, दयानन्द सरस्वती जैसे अन्य सुधारक भी हुए. इस दौर के भारतीय सिद्धान्तकारों
ने जिस एक नियो-हिन्दुइज्म को पैदा किया वही आजकल भारत में सांस्कृतिक राष्ट्रवाद
को संचालित कर रहा है.
यह नियो हिन्दुइज्म या नियो वेदांत संभवतः
दुनिया का सबसे नया और सबसे असुरक्षित धर्म है जिसके पास एक भगवान् एक किताब या एक
महापुरुष नहीं है और जो अपने रक्षण या विकास के लिए एक फ्रेम या एक मार्ग परिभाषित
करने में भयानक रूप से असमर्थ है. इसीलिये इसकी असुरक्षाएं अजीबो गरीब ढंग से काम
करती हैं. एक तरफ यह अपनी ही बड़ी आबादी को अपने धर्मग्रंथों और धर्मस्थलों का
उपयोग करने से रोकता है और दुसरी तरफ इन ग्रंथों और स्थलों से दूर जाने पर दंड भी
देता है. अपनी ही स्त्रियों को धर्म कि खोल में बांधे रखता है और उन्ही स्त्रियों द्वारा देवता या मंदिर के स्पर्श से डर भी जाता
है. यह भयानक रूप से विरोधाभासी और दिशाहीन स्थिति है जिसे सिर्फ अन्धविश्वासी
सम्मोहनों और हिंसा के भय से ही नियन्त्रण में रखा जा सकता है. यह भय और दंड ही
असल में इस नवीन रचना का प्राण है. इस भय को तार्किक विश्लेषण से उजागर करना इस
रचना के लिए बहुत पीडादायी है. इस आंतरिक भय और इस पीड़ा को न केवल आधुनिक सिर्फ
धर्माधीश और बुद्धिजीवी जानते समझते रहे हैं बल्कि आधुनिक सांस्कृतिक और राजनीतिक
संगठन भी इसी पीड़ा के गर्भ से जन्मे हैं. इसीलिये अब इनकी सम्मिलित शक्ति ने एक
राजनीतिक आन्दोलन को गठित किया है जो अनजाने अतीत में मनचाही श्रेष्ठताओं का
प्रक्षेपण करते हुए इस प्रक्षेपण पर उठने वाले सवालों का दमन कर रहा है. गौर से
देखा जाए तो स्वामी बालेन्दु के नास्तिक आन्दोलन पर जो आक्रमण हो रहा है या अन्य
तार्किकों, अन्धविश्वास विरोधियों,
पाखंड-विरोधियों का जो दमन हो रहा वह इसी दमन
का जीता जागता उदाहरण है.
______
संजय जोठे
Lead
India Fellow,
M.A
Development Studies,
I.D.S.,
University of Sussex U.K.
PhD.
Scholar TISS, Mumbai India.
sanjayjothe@gmail.com
sanjayjothe@gmail.com
बहुत अच्छा आलेख
जवाब देंहटाएंबेहद महत्वपूर्ण आलेख।
जवाब देंहटाएंGood
जवाब देंहटाएंआपकी ब्लॉग पोस्ट को आज की ब्लॉग बुलेटिन प्रस्तुति स्मिता पाटिल और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। सादर ... अभिनन्दन।।
जवाब देंहटाएंबेहतरीन और निष्पक्ष लेख।
जवाब देंहटाएंबेहतरीन ज्ञानवर्द्धक तथा विचारोत्तेजक लेख ..
जवाब देंहटाएंSir, aap saraahanaa ke paatra hai
जवाब देंहटाएंबहुत उपादेय और संग्रहणीय लेख।
जवाब देंहटाएंबहुत ज्ञानवर्धधक लेख
जवाब देंहटाएंधन्यवाद साथी
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महत्वपूर्ण लेख। एक प्रश्न है- क्या ऐसा नहीं है कि पश्चिम की चिंता धर्म, अध्यात्म और विज्ञान केे डायवर्सिफिकेशन की है न कि सायास धर्म और अध्यात्म को समाप्त कर डालने की। समकालीन पश्चिम में धर्मनिरपेक्ष राज्य और संगठित धर्म तथा व्यक्तियों की आध्यामिक आकांक्षाओं में क्या रिलेशनश्ािप है- कभी इसपर प्रकाश डालिएगा।
जवाब देंहटाएंबढ़िया
जवाब देंहटाएंलेख से मैं पूरी तरह सहमत हूँ परंतु कहा जाता है कि पश्चिमी लोगों का आध्यात्म कि ओर रुझान बढ़ रहा है. इस पर क्या ख्याल है
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