परख : एक और ब्रह्मांड : अरुण माहेश्वरी





एक और ब्रह्मांडख्यात लेखक अरुण माहेश्वरी की कृति है, यह इमामी समूह के संस्थापक श्री राधेश्याम अग्रवाल के जीवन पर आधारित है. पर यह जीवनी नहीं है और इसे उपन्यास भी नहीं कहा गया है. इसे शानदार ढंग से राधाकृष्ण प्रकाशन ने प्रकाशित किया है.

हिंदी में किसी व्यावसायिक व्यक्तित्व पर यह आदमकद रचना है. यह इतना रोचक, अप्रत्याशित, और रहस्यों से भरपूर है कि इसे एक उपन्यास की तरह पढ़ा जा सकता है. अरुण माहेश्वरी ने इसे रचते हुए तमाम समकालीन विमर्शों के साथ मुठभेड़ किया है. यह कृति बौद्धिक चुनौती भी पेश करती है.

उद्योग और प्रबन्धन से अपरिचित पाठक इसे पढ़ते हुए सहजता से अपनी समझ विकसित करता चलता है. पूंजी और उत्तर पूंजीवाद के इस दौर में एक अदने से मनिहारनका भारत के २०० अमीरों में शामिल हो जाना वास्तव में एक नए ब्रह्मांड का सृजन है.

३७० पेज में फैले इस आख्यान में कोलकाता के पतनशील सामन्ती समाज और उदीयमान व्यवसायी वर्ग के संघर्ष हैं, राधेश्याम अग्रवाल का मित्र राधेश्याम गोयनका से लम्बा चला संग साथ है, इमामी समूह के विशालकाय होते जाने की कथा है. बिडला समूह से रिश्ते, हिमानी, झंडू आदि तमाम कम्पनियों के अधिग्रहण आदि के तमाम दांव पेंच हैं. आमरी (हास्पिटल) का दर्दनाक अग्निकांड है.

गरज की यह भारत में उद्यमशीलता की गाथा है. इसे जरुर पढ़ा जाना चाहिए. पूंजी को समझने के लिए भी और एक आधुनिक समाज के निर्माण में वाणिज्यक समाज के योगदान को जानने के लिए भी.

सरिता शर्मा की समीक्षा


पूंजी, पूंजीवाद और उत्तर पूंजीवाद : तलघर                                
सरिता शर्मा

साहित्य में जीवनी-लेखन की समृद्ध परंपरा रही है.  यूनानी जीवनीकार प्लूतार्क की कृति में यूनान, रोम और फारस के  विशिष्ट और यशस्वी व्यक्तियों के जीवन वृत्तांत दिये गये हैं. सुकरात की जीवनी  ‘अनाबासिस सुकरात’ उनके शिष्य जनोफोन ने लिखी. चीन में स्सु-मा चिएन ने अपने समकालीन विशिष्ट व्यक्तियों की जीवनियां लिखी. जेम्स बासवेल द्वारा लिखित सेम्युअल जान्सन की जीवनी अंग्रेजी जीवनी-साहित्य में एक महत्वपूर्ण घटना है. मशहूर डच चित्रकार वान गॉग पर इरविंग स्टोन के उपन्यास `लस्ट फार लाइफ को श्रेष्ठ माना जाता है. हाल में वाल्टर इसाक्सन द्वारा स्टीव जॉब्स पर लिखी किताब बेस्टसेलर बन गयी है. उद्योगपतियों की जीवनियों में हेनरी फोर्ड की `माइ लाइफ एंड वर्क और रॉकफेलर की जीवनी `टाइटनमशहूर हैं. भारतीय उद्योगपतियों में जमशेदजी टाटा की दो जीवनियां, डी.सी.एम समूह के श्रीराम, खुशवंत सिंह, अरुण जोशी और  जी.डी. बिड़ला की जीवनियां आई हैं. 

हिंदी में ‘कलम का सिपाही और आवारा मसीहा जैसी श्रेष्ठ जीवनियां लिखी गई हैं. अरुण माहेश्वरी की पुस्तक ‘एक और ब्रह्मांड’  इमामी और झंडू जैसी विख्यात कंपनियों के मालिक राधेश्याम अग्रवाल की जीवनी है. यह पुस्तक राधेश्याम अग्रवाल के बहाने देश में आधुनिक व्यापार और उद्योग के जन्म और विकास का दिलचस्प वृतांत प्रस्तुत करती है. राधेश्याम अग्रवाल की गिनती भारत के दो सौ सबसे अधिक अमीर लोगों में की जाती है.


उन्होंने अपनी जीवनी  हिंदी में लिखवाने के बारे में लिखा है- मैंने जो जीवनियां पढ़ी, उनमें से अधिकांश अंग्रेजी में हैं. ये जीवनियां समाज के संभ्रांत वर्ग के लिए ठीक हैं, मगर जिन्हें अंग्रेजी नहीं आती, उनके लिए बेकार हैं. हमारे देश के सत्तर प्रतिशत लोग हिंदी जानते हैं. इसलिए मैंने फैसला लिया कि मेरी जीवनी आम आदमी की भाषा में लिखी जाएगी. कई लोगों ने मेरी जीवनी लिखने में दिलचस्पी ली, पर मैं ऐसे व्यक्ति से लिखवाना चाहता था जो जीवनियां लिखता रहा हो और जिसका हिंदी भाषा पर अधिकार हो. अरूण माहेश्वरी इस कसौटी पर खरे उतरे.

पुस्तक के आरंभ में  ‘जीवनी लेखन की मेरी समझ’ में अरुण माहेश्वरी लिखते हैं- यदि हम साहित्य के इतिहास को देखें तो पाएंगे कि एक साधारण, सपाट और नीरस जीवन को भी जब उसकी द्वंद्वात्मकता के साथ गहराई से पेश किया जाता है तो वह इतने रोमांच, विस्मय और विचारों के उद्रेक का हेतु बन जाता है कि पाठक सदियों तक उसमें डूबता-उतराता, अपने को संस्कारित करता चला जाता है. किसी भी महान साहित्य के अविस्मरणीय चरित्र, जीवन के वास्तविक चरित्रों की सच्चाइयों से ही निर्मित होते हैं. लेखक की कल्पनाशीलता, उसके ज्ञान और इतिहास-बोध की भी ऐसे चरित्रों के सृजन में बड़ी भूमिका होती है.’ लेखक के लिए तटस्थ रहकर जीवनी लिखना आसान नहीं होता. अरुण महेश्वरी मानते हैं- ‘सच से सुन्दर कुछ नहीं होता. श्रेष्ठ अमर जीवनी एक जीवंत, वास्तविक और कर्मोद्दम जीवन का साहसपूर्ण आख्यान होती है. तमाम ऊंच- नीच के बीच बनती आदमियत की पहचान होती है.’
 
अरुण माहेश्वरी
     
इस पुस्तक में बीस हजार रुपए से बीस हजार करोड़ रुपए तक की पूंजी के सफर के बारे में बताया गया है. मानव जीवन के वैचारिक द्वंद्व, बंगाल में कम्युनिस्ट शासन के दौर की साम्यवादी व्यवस्था में पूंजीवाद के तालमेल और तर्क को दर्शाया गया है. राधेश्याम अग्रवाल और उनके अभिन्न मित्र और समूह के को-चेयरमैन राधेश्याम गोयनका और श्री अग्रवाल की पत्नी उषा अग्रवाल के व्यक्तित्व पर भी प्रकाश डाला गया है. उद्योगपतियों के जीवन में असुरक्षा और  कदम -कदम पर जोखिम को विशेष रूप से उभारा गया है. धज बीकानेरमें  मारवाडिय़ों के व्यवसाय कौशल को रेखांकित करते हुए रेखांकित किया गया है. राधेश्याम के पिता वंशीलाल कंदोई  के बारे में बताया गया है -‘आने के साथ ही रंग के कारोबार में हाथ लगाया और खराब रंग ने भी सोने का भाव दिया. तत्काल हार्डवेयर के आयात का काम भी शुरू हो गया.

अपने समुदाय का ध्यान ये लोग कैसे रखते हैं, इसका भी उल्लेख है—‘वंशीलाल फलाने से देनदारी की फरदी लेकर नोटों की गड्डी के साथ बैठ जाता और फलाने का देना चुकाकर उसकी लाज ढांपता. राधेश्याम में परिवारगत संस्कार तो थे ही, कमाल की व्यावसायिक सूझबूझ भी थी. राधेश्याम ने दवाई कंपनी फ्रैंकरौस को आर्थिक संकट से उबारा, तो व्यवस्था राजेंद्र कुमार के हाथ में ही रहने दी, परंतु आगाह कर दिया—‘मैं कभी नहीं चाहूंगा कि इस कंपनी में ऊंचे वेतन के कर्मचारी भरे जायें. अगर ऐसा किया गया तो इसकी छोटी-छोटी दुकानों को मुनाफे पर चलाना असंभव होगा. विज्ञापन गुरु ऐलक पद्मसी ने इमामी क्रीम, टेलकम पाउडर, बोरोप्लस और नवरत्न तेल को सफलता के शिखर पर पहुँचाया. जब राधेश्याम अग्रवाल ने पुरुषों के लिए गोरेपन की क्रीम का उत्पादन करने की बात की, तो ऐलक पद्मसी ने ‘फेयर एंड हैंडसम’ का प्रचार शाहरुख़ खान से कराकर उसे बाजार में उतार दिया. ‘पेन रिलीफ’ क्रीम का नाम बदल कर ‘फ़ास्ट रिलीफ’ करने के पीछे भी ऐलक पद्मसी का दिमाग थाअमिताभ बच्चन, माधुरी दीक्षित, रवीना टंडन, करीना कपूर ने इमामी के विज्ञापन किये. राधेश्याम अग्रवाल की राय में- ‘आम जनता तक जाना है तो सितारों को साथ लाना ही होगा.’
    
पुस्तक में राधेश्याम अग्रवाल की प्रबंधकीय कुशलता के साथ- साथ  उनके मानवीय पक्षों को भी उजागर किया गया है. बिरला समूह द्वारा राधेश्याम अग्रवाल को स्मार्ट न दिखने पर रिजेक्ट किया जाना और अंततः उनकी प्रतिभा के बूते पर न सिर्फ नियुक्त कर देना, बल्कि आदित्य बिड़ला का चेहता बन जाना राधेश्याम अग्रवाल के व्यक्तित्व की सुदृढ़ता का परिचायक है. आदित्य बिड़ला से उन्होंने कंपनियों के अभिग्रहण और विलयन की विद्या सीखी. मजदूरों की समस्याओं पर इमामी समूह में विशेष रूप से ध्यान दिया जाता है. हर माह एक बार मालिक और मजदूरों की बैठक होती है जिसमें काम की परिस्थितियों, मजदूरों के वेतन, बढ़ोतरी और सभी कानूनी अधिकारों के बारे में फैसले लिए जाते हैं. चालीस सालों में एक बार भी काम बंद नहीं हुआ है क्योंकि मजदूर ही कमेटी और उसके अध्यक्ष को चुनते हैं. मजदूरों की आमदनी में वृद्धि को अनिवार्यतः उत्पादन में वृद्धि से जोड़ा गया है.

जितना जोखिम उतना लाभ’ के सिद्धांत पर चलते हुए इमामी में विलय के बाद हिमानी के मृतप्राय कारखाने के उत्पादन को चालीस गुणा बढ़ाने वाले राधेश्याम अग्रवाल आधुनिकीकरण और श्रम संसाधनों का समुचित प्रयोग करके चमत्कार करना जानते हैं. झंडू, खाद्य तेल, इमामी ब्रांड, रीयल इस्टेट जैसे बहुआयामी उद्योगों के सफल नियंत्रक राधेश्याम संयुक्त परिवार तथा भारतीय परम्पराओं से जुड़े हैं. राधेश्याम अग्रवाल के बारे में उनके साथी  राधेश्याम गोयनका का कहना है- राधेश्याम गजब की स्मरण शक्ति का धनी, दूरदर्शी, असंभव पढ़ाकू और गहरी अंतर्दृष्टि वाला असाधारण व्यक्ति है. असंभव शब्द उसके शब्दकोश में नहीं है. चुनौतियों में रमता है और मानता है कि कोई पूर्ण नहीं होता. नशा है तो सिर्फ काम का. दूसरों से भी यही अपेक्षा रखता है. इसीलिए कुछ जिद्दी भी है.’

पुस्तक में राधेश्याम अग्रवाल के साथ -साथ उनके कारोबार इमामी की जीवनी है. राधेश्याम अग्रवाल चारटर्ड अकाउंटेंट हैं मगर विपणन और विज्ञापन में गहरी समझ और दिलचस्पी के कारण कंपनी के इन कामों को देखते हैं. राधेश्याम गोयनका बिक्री और वित्त की जिम्मेदारी संभालते हैं. अपने एक साक्षात्कार में राधेश्याम अग्रवाल और राधेश्याम गोयनका ने अपने परिवार के सब सदस्यों का उपनाम ‘इमामीवाला’ रखने की बात की है. जमीन से जुड़े रहने की खासियत उन्हें अन्य धनाढयों से अलग करती है. ‘राधेश्याम अपनी ऊंची उड़ानों कर बावजूद जमीन छोड़ने को तैयार नहीं हैं. सड़क किनारे की दुकान से कुल्हड़ की चाय आज भी उसका शगल है.’ 

अन्दर –महल’ में राधेश्याम अग्रवाल की धर्मपत्नी उषा के जीवन की झलक मिलती है. ‘हर सफल पुरुष के पीछे एक महिला का हाथ होता है.’ यह बात उषा के जीवन से चरितार्थ होती है जिसने अपने शांत और स्थिर स्वभाव से संयुक्त परिवार को जोड़ा हुआ है. अपनी धार्मिक आस्था को उन्होंने डायरी में व्यक्त किया है जिसमें उनका स्वामी राधेश्वर भारती के प्रति भक्तिभाव परिलक्षित होता है. अन्दर महल की अन्य स्त्रियां कारोबार में हाथ बंटा रही हैं. राधेश्याम की पुत्री प्रीति इमामी के नए उत्पादनों को बाजार में लाने और ब्रांडिंग का काम संभाल रही है. बेटों- भतीजों की बहुएं किताबों और कलाकृतियों के काम से जुड़ गयी हैं. ‘चिट्ठियां और द्वय रसायन पाक’ में राधेश्याम अग्रवाल द्वारा राधेश्याम गोयनका को लिखे पत्रों के अंश हैं जिनमें कहीं उलाहना तो कहीं आत्मीयता नजर आती है. कारोबार से जुड़ी समस्याओं की भी उनमें चर्चा की गयी है. कारोबार जम जाने के पश्चात् राधेश्याम अग्रवाल ने स्कूल के दिनों के दौरान साथ पढ़े दोस्तों और बिड़ला ब्रदर्स के सहयोगी मित्रों की मंडली बनाकर हर शनिवार की दोपहर किसी न किसी के घर मिलकर गपशप करते हैं और ताश खेलते हैं. परिशिष्ट में प्रमोद शाह नफीस से बातचीत  राधेश्याम अग्रवाल के विभिन्न पक्षों को उजागर करती है. नौकरों के प्रति उदारता बरतने के बारे में उषा बताती हैं- पूछते रहते हैं कि सब पर कितना ऋण है, सबका ऋण चुकता कर देते हैं.’ राधेश्याम अग्रवाल के कविता संकलन ‘भावधारा’ में उनकी अंतर्यात्रा दिखाई देती है- ‘बांटो- खुशियां बांटो/ मुस्कान बांटो / चेहरे मुस्काएं/ अंतर मुस्काए/ जो देखे/ सो मुस्काए/ अपने लिए न रखो सब बांटो.’   
    
यह पुस्तक इतिहास दृष्टि से लिखी गयी है. बंगालियों के बारे में बहुत दिलचस्प जानकारी दी गयी है कि शिक्षा और प्रचुर धन संपत्ति के बावजूद वे व्यवसाय में क्यों नहीं आये और जो आये वे टिके नहीं. राधेश्याम अग्रवाल ने कोलकाता के चोर बागान इलाके में 48 बी मकान खरीदा जिसके मालिक नीलकंठ मल्लिक का वर्णन बेहद जीवंत है- ‘बंगाल की ‘बाबू’ संस्कृति की तमाम गलाजतों का एक जीता- जागता नमूना. नीलकंठ अपनी सुन्दर पत्नी ज्योत्स्ना को हर रोज हंटर से मारता, खुद को राजा समझता.’ राधेश्याम अग्रवाल ने एक बार नीलकंठ और उसके भाई रवि को मंहगी फ्रेंच सेंट की बोतल भेंट की, तो रवि ने सेंट की पूरी बोतल को अपनी बग्घी के घोड़े की पूँछ पर उड़ेल दिया. जब नीलकंठ ने इमामी कारखाने में काम करने वाली लड़की को छेड़ा, तो राधेश्याम अग्रवाल ने उसे चेतावनी दे दी- ‘आर्डर चलाओ अपने घर में. आगे से अगर कभी ऐसी हरकत की तो ख़बरदार जो हस्र होगा, इसकी कल्पना भी नहीं कर सकते.’ 

इमामी समूह के जीवन में आमरी अस्पताल में आग लगना काला अध्याय है. ‘इसी अस्पताल में मासूम, असहाय रोगियों की मृत्यु का जो अकल्पनीय दर्दनाक दृश्य दिखाई दिया, उसने एकबारगी हिटलर के गैस चेंबर की यादों को ताजा कर दिया. आमरी अग्निकांड राधेश्याम के जीवन में किसी प्रलयंकारी विध्वंस से कम नहीं था.’ यह अस्पताल अभी तक बंद पड़ा है. राधेश्याम के परिवार के कई सदस्यों को जेल जाना पड़ा और अभी तक मुक़दमे चल रहे हैं. लेखक ने व्यापार जगत की अनिश्चितता को चिन्हित करते हुए लिखा है- ‘लालसाएं ही तो इस पूरे युग की प्रमुख चालक शक्ति है. आधुनिकता के जख्मों को भोगना ही इस युग का मूलमन्त्र है.
एक और ब्रह्मांड अत्यंत सार्थक पुस्तक है जो उद्योग-व्यवस्था के संचालन और प्रबंधन से जुड़े तकनीकी पहलुओं को भी बड़े सरल एवं दिलचस्प ढंग से प्रस्तुत करती है. दो परिवारों का मिला- जुला उद्योग स्वयं में एक मिसाल है. पुस्तक के महत्व को रेखांकित करते हुए भूमिका में गिरीश मिश्र ने लिखा है-  ‘यदि कोई आदमी यह जानना चाहे कि देश में आधुनिक व्यापार और उद्योग कैसे पनपे और उसमें जिन लोगों या समुदायों का अहम् योगदान रहा, उन्होंने किन हालात में काम किया, प्रतिकूल परिस्थितियों से कैसे सामना किया तथा डटे रहे, तो अरुण माहेश्वरी की प्रस्तुत पुस्तक पढनी चाहिए.’

आलोक मेहता के अनुसार ‘इस पुस्तक में इतिहास और दर्शन भी आया है. इसका हिंदी में लिखा जाना महत्वपूर्ण है. यह पुस्तक प्रेरणा देने वाली है. ऐसी पुस्तकों को जनसुलभ बनाने की जरूरत है.’ लेखक जगदीश्वर चतुर्वेदी ने इस पुस्तक के बारे में कहा है – ‘कोलकाता के कम्युनिस्ट गढ़ में, जहां हड़तालें आम बात थी, राधेश्याम अग्रवाल ने इमामी समूह को कैसे गढ़ा, यह विस्तार से समझने की बात है.इतिकथन  में अरुण महेश्वरी कहते हैं- ‘क्या राधेश्याम की कहानी किसी असीम अनंत की साधना की, पूंजी के उस ब्रह्म की साधना की ही कहानी नहीं है, जो अविराम गति से फैलते अपने एक और असीम, अनंत ब्रह्माण्ड की सृष्टि कर रहा है.’

पुस्तक की शैली प्रवाहपूर्ण है और लेखक की टिप्पणियां विषयवस्तु को दिलचस्प बना देती हैं. नकारात्मक पक्षों से यथासंभव बचा गया है. उद्योग को सफल बनाने के लिए समय की नब्ज को पकड़े रखने और आगे बढ़ते रहने के जैसे गुरों को सीखने में यह पुस्तक मदद करती है.
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सरिता शर्मा 
1975, सेक्टर-4, अर्बन एस्टेट,
गुड़गांव-122001
मोबाइल -9871948430.
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"कुछ दिन पूर्व एक मित्र ने मुझसे पूछा था कि वह समालोचन की मदद कैसे कर सकते हैं? मैंने उन्हें सुझाव दिया कि क्यों नहीं आप समालोचन में किसी माह प्रकाशित रचनाओं पर अपने किसी की स्मृति में मानदेय प्रदान करें.
ऐसे में जब सहित्य की बड़ी पत्रिकाएं तक अपने लेखकों को मानदेय नहीं दे पाती हैं. समालोचन की यह इच्छा क्यों कर पूरी होती.
पर एक दिन साहित्य के प्रेमी और अध्येता डॉ. दिलीप कुमार गुप्त का संदेश आया कि वह अगस्त महीनें में समालोचन में प्रकाशित सभी रचनाओं पर अपनी माता जी की स्मृति में मानदेय देना चाहते हैं.
और इस तरह से एक ऐतिहासिक शुरुआत के वह सहभागी बन गए. यह अपने तरह की अनूठी पहल है. इसमें आप भी जुड़ सकते हैं."

संपादक

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आप अपनी प्रतिक्रिया devarun72@gmail.com पर सीधे भी भेज सकते हैं.

  1. अरुणजी शुक्रिया. नॉन- फिक्शन की समीक्षा बहुत कम करती हूँ मगर यह पुस्तक दिलचस्प लगी. बड़े उद्योगपति का अपने कर्मचारियों के प्रति इतना मानवीय व्यवहार बहुत कम देखने को मिलता है. व्यवसाय में सफलता के अनेक गुर इस पुस्तक से सीखे जा सकते हैं. पूरी पुस्तक में कहीं भी पाठक ऊबता नहीं है.

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  2. Sarita Sharma जी की समीक्षा पढ़ी थी . एक पूंजीपति के जीवन में झाँकने का अच्छा प्रयास

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  3. शशि शर्मा4 अग॰ 2016, 8:45:00 am

    अरुण माहेश्वरी जी को एक अलग और सामाजिक इतिहास के नए विषय पर लिखने के लिए बधाई ।

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  4. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (05-08-2016) को "बिखरे मोती" (चर्चा अंक-2425) पर भी होगी।
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    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  5. सरिता जी, आपने इस पुस्तक की सुंदर और संतुलित समीक्षा की है। पुस्तक पढ़ने, राधेश्याम अग्रवाल-गोएनका द्वय और अरुण माहेश्वरी से मिलने की इच्छा जग गयी है। इस जीवनी का हिन्दी में ही लिखवाया जाना राधेश्याम जी के व्यापक सामाजिक सरोकार और दायित्व का प्रबल परिचायक है। समीक्षा में प्रवाह था, इसलिए भी एकबारगी पढ़ गया! आभार।

    -राहुल राजेश, कोलकाता।

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  6. समीक्षा पुस्तक की आत्मा,उसकी बात प्रभावी तरीके से सामने लाने में सफल रही है।सरिता जी तथा लेखक अरुण माहेश्वरी जी को धन्यवाद।

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  7. सिर्फ़ संक्षेप में, कि अपने अस्पताल में 91 मरीज़ों की नृशंस मृत्यु के लिए ज़िम्मेदार और एक ''गोरे खूबसूरत बनो'' छाप क्रीम के इश्तेहार के ज़रिए त्वचा-रंगवाद और नस्लवाद फैलाने वाले एक 'सफल' पूँजीपति की प्रायोजित जीवनी को इस तरह लिखने और उसके जीवन को निर्लज्जता से 'एक और ब्रह्माण्ड' बताने के लिए मैं कथित वामपंथी अरुण माहेश्वरी की कठोरतम शब्दों में निंदा करता हूँ.अरुण माहेश्वरी के साथ कुछ गड़बड़ है यह तो मैं शुरू से ही महसूस करता आया था,लेकिन इस ''कृति'' ने उन्हें निर्वसन कर दिया है.

    जिन चाटुकारिता-भरे शब्दों में अरुण देव ने इस संदिग्ध 'पुस्तक' को प्रस्तुत किया है उनके लिए उनकी भी अधिकतम भर्त्सना करता हूँ.

    ''पुस्तक'' की मस्तिष्कविहीन ''समीक्षा '' के लिए महिला होने के बावजूद सरिता शर्मा की भी उतनी ही मज़म्मत की जानी चाहिए.

    इसके साथ ही मैं 'समालोचन' के साथ अपने सहयोग की समाप्ति की घोषणा भी करता हूँ.अरुण देव उसमें मेरा लिखा कुछ भी प्रकाशित न करें.वह मेरे पिछले लेखों को 'डिलीट' भी कर सकते हैं.

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  8. A WORTH READING BOOK BY ARUN MAHESHWRI

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  9. श्री Arun Maheshwari की किताब 'एक और ब्रह्मïण्ड' मिली तो मैं चकित रह गया। भला एक ख्यातप्राप्त माक्र्सवादी चिंतक और लेखक एक बड़े कारपोरेट घराने इमामी समूह के मालिक श्री राधेश्याम अग्रवाल की जीवनी क्यों लिखने बैठ गया! लेकिन जब मैं इसे पढऩे बैठा तो एक ही सांस में पौने चार सौ पेज की पूरी पुस्तक पढ़ गया। पुस्तक की भूमिका प्रख्यात अर्थशास्त्री प्रोफेसर Girish Mishra ने लिखी है। पुस्तक को पढ़कर लगा कि पूंजीपतियों की जीवनी तो तमाम लेखकों ने लिखी है और खूब सराही गईं लेकिन यह पुस्तक इन सबसे अलग एक माक्र्सवादी चिंतक ने अपने नजरिए से लिखी है। एक आदमी के जीवन के सतत संघर्ष और जिजीविषा की कहानी। राधेश्याम अग्रवाल कैसे एक सामान्य मध्यवर्गीय परिवार की परंपरा से निकल कर सौंदर्य उत्पाद बनाने वाली एक बड़ी कंपनी के मालिक बने। इमामी चलाने के लिए उन्होंने कोलकाता के बड़ा बाजार स्थित मुक्ताराम बाबू स्ट्रीट में कुल डेढ़ सौ फिट का कमरा लिया था और बाद में यही कमरा उस इमामी समूह की विशालता और साम्राज्य का गवाह बना जिसकी नींव यहां रखी गई थी। अपनी मेहनत व लगन से इसके मालिकों- राधेश्याम अग्रवाल और राधेश्याम गोयनका ने इसे एक कास्मेटिक्स और आयुर्वेद उत्पादों का एक विश्वविख्यात समूह बना दिया।पूंजी का यह सुविचारित प्रयोग पूंजीपति की दुनिया का अनोखा माडल है। राधेश्याम अग्रवाल पहले बिड़ला ब्रदर्स में नौकरी करते थे और फिर खुद ही एक नए घराने का इतिहास लिखने बैठ गए। हम मारवाडिय़ों के बारे में तमाम सच्चे-झूठे किस्से सुनकर बड़े होते हैं। उनका लालच, उनका काईंयापन और उनकी मजदूर विरोधी नीतियों के बारे में तमाम अफवाहें। लेकिन एक सवाल यह पैदा होता है कि कोई औद्योगिक घराना किस तरह किसी व्यक्ति के अनवरत संघर्ष से खड़ा होता है तो क्या यह प्रशंसनीय नहीं है? बोरोलीन के समानांतर बोरोप्लस से शुरू हुआ इमामी समूह आज झंडू जैसी भरोसेमंद आयुर्वेदिक दवाएं बनाने वाला समूह भी है। कारखाना खड़ा करने में कैसी-कैसी दिक्कतें और किस-किस तरह के पापड़ बेलने पड़ते हैं इन सबकी दास्तान है यह पुस्तक और फिर लेखक का अपना माक्र्सवादी चिंतन सबने मिलकर एक बेहतरीन जीवनी प्रस्तुत की है। पुस्तक की प्रस्तावना में लेखक ने हेगेल का एक उद्हरण प्रस्तुत किया है- "यह चिंतन ओर तर्क का युग है। इस युग में जो आदमी हर चीज का, वह चीज चाहे जितनी खराब और पागलपन से भरी क्यों न हो, कोई अच्छा कारण नहीं बता सकता, उस आदमी की कीमत ज्यादा नहीं समझी जाती। दुनिया में जो कुछ गलत काम किया गया है, वह हमेशा सर्वोत्तम कारणों से किया गया है।"
    राधाकृष्ण प्रकाशन ने इसे बहुत ही सुंदर तरीके से प्रस्तुत किया है। चाहे वह पेजों की साज-सज्जा हो अथवा ब्लैक एंड व्हाइट फोटों को प्रस्तुत करने की कला। कुल ढाई सौ रुपये की यह पुस्तक कोई मंहगी नहीं है। बल्कि जो लोग संघर्षों से प्रेरणा लेना चाहते हैं उनके लिए तो यह बहुत उपयोगी पुस्तक है 'एक और ब्रह्मïण्ड'।

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  10. आदरणीय अरुण जी,
    "एक और ब्रह्माण्ड " कल पढ़ी। जैसा कि पहले आपकी टिप्पणियों से इसके बारे में समझा था, उससे भी रुचिकर पाया। श्री राधेश्याम जी के जीवन के हर पहलू को आपने इसमें अच्छे से छुआ,एवंम व्यक्त किया, वो चाहे ननिहाल में लड़कपन की शरारते हो या मोहल्ले का दबदबा।अचानक राजा से रंक होने के बावजूद, विपरीत परिस्थितियों में कैसे सम्मान पूर्वक जिया जाए, यह राधेश्याम जी से सीखना चाहिए।समकालीन से तुलना, व्यवसाय के उतार चढ़ाव, मित्रता के मायने (विशेषकर गोयनका परिवार),यह सब बख़ूबी चित्रित किया है। पहले क़दम पर ही ठोकर लगने के बावजूद इस मुक़ाम पर पहुँचना, राधेश्याम जी की विद्वता,दृढ़ निश्चय को दर्शाता है, जो आपने बख़ूबी लिखा है़। मार्क्सवाद, पूँजीवाद का संक्षिप्त ज़िक्र,एक जीवनी के लिहाज़ से सन्तुलित है।
    लिखने को और भी है, पर मेरी टंकण गति काफ़ी कम है(विशेषता: हिन्दी में), इसलिए अभी के लिए विराम।
    अच्छी पुस्तक के लिए फिर से आभार।

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  11. अब लगे हाथों अरुण माहेश्वरी जी किसी बाजोरिया या सिंघानिया, बिड़ला या बजाज के भी अनछुए-अनदेखे-अनचीन्हे 'ब्रम्हाण्ड' मार्केट में ले आएं तो 'मार्क्सियन आन्तरप्रेन्योरशिप स्टडीज़' (या अरुण देव के पसंदीदा शब्द 'उद्यमिता' का उपयोग कर 'मार्क्सियन उद्यमिता अध्ययन' जैसा कुछ भी कहा जा सकता है) जैसी नई सब-स्ट्रीम दुनिया को सौंपने का श्रेय हिंदी समाज को मिल सकता है.
    "पूंजी को समझने के लिए और एक आधुनिक समाज के निर्माण में वाणिज्यक समाज के योगदान को जानने के लिए" अब से कम्यूनिस्ट मेनिफेस्टो नहीं बल्कि यह महान कृति (और इस परंपरा में आगे आने वाले अन्य 'ब्रम्हाण्ड') रिकमेंड की जाएगी.

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  12. अद्भुत मार्क्सवाद है यह हत्यारों की प्रायोजित जीवनियां लिखता। खरे साहब का कहा मेरा भी माना जाये। बाक़ी तो क्या कहें।

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  13. भारत भूषण तिवारी और अशोक कुमार पाण्डेय की टिप्पणियों से बेहद ज़रूरी नैतिक समर्थन पाने से पहले मैं निराश हो चुका था.अब सधन्यवाद आश्वस्त हूँ कि कई निर्भीक युवा बुद्धिजीवी मेरे साथ हैं.

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  14. विष्णु खरे की तरह के एक असंगत बुंद्धिजीवी से इसके अलावा और कोई अपेक्षा नहीं की जा सकती है । इनमें इतना सा भी देखने की तमीज़ नहीं है कि जिस पुस्तक की कॉपीराइट लेखक की है , उसे वे प्रायोजित पुस्तक कह रहे हैं । इनकी बुद्धि की दौड़ जितनी दूर तक जा सकती है उसमें इनके लिये पूँजी का विषय एक कोरे भावनात्मक विषय के अतिरिक्त कोई महत्व नहीं रख सकता है । इन्होंने जीवन में कभी मार्क्स की पूँजी के चंद पन्नों को भी पलटा होता तो पूँजी के इस एक मूर्त रूप के अर्थ को थोड़ा समझ पाते और पूँजी के ब्रह्मांड की बात भी उनके दिमाग़ में घुस पाती । इन्हें शायद पता ही नहीं होगा कि खुद मार्क्स ने पूँजी के संसार की व्याख्या के लिये धर्मशास्त्रीय आधिभौतिकता की पदावली को सबसे उपयुक्त माना था । इन बूढ़े और मानसिक तौर पर पूरी तरह से अथर्व हो चुके हिंदी के बुद्धिजीवी महोदय से यही कहना चाहूँगा कि अपनी ललित-कलावादी बौद्धिक कूपमंडुकता का थोथा रौब उन पर झाड़े जो आपका कौड़ी का भी मोल लगाते हैं ।

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  15. समालोचन पर अब तक 770 पोस्ट हो चले हैं. यहाँ क्या छपा है इस पर विवाद तो होते ही हैं क्यों छप गया और प्रस्तुति में क्या लिखा गया है इस पर भी घनघोर भर्त्सना हो जाती है. ज़ाहिर है यह समालोचन से पाठकों/ लेखकों के गहरे लगाव का ही परिचायक है. नहीं तो कौन यह देखता है -कहाँ क्या छपा है ?

    समालोचन के माडरेटर/ संपादक के नाते मेरा यह फर्ज़ है (जहाँ तक मैं समझता हूँ) कि समालोचन में प्रकाशित रचना अधिक से अधिक लोगों तक जाए. इसके लिए प्रस्तुति बेहतर करता हूँ और हर पोस्ट पर टिप्पणी इस उद्देश्य से देता हूँ कि सबको अटेंशन मिले और टिप्पणी पढ़कर पूरे लेख को पढने की उत्सुकता पैदा हो. आगे पाठक और रचनाकार. यहाँ आलोचना मैनेज नहीं की जाती है. मेरे तमाम प्रिय लोगों पर यहाँ बेसुमार अप्रिय टिप्पणियाँ मौजूद हैं.

    सब तेरे सिवा काफिर, आखिर इसका मतलब क्या
    सर फिरा दे इन्सान का, ऐसा खब्तमज़हब क्या.

    ___
    ज़ाहिर है आपके लिखे पर आपका ही अधिकार है पर यहाँ क्या छपेगा इसका निर्णय लेना मेरा अधिकार है.

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  16. ब्रह्माण्ड-श्रेष्ठि घनश्याम अग्रवाल का यह सर्वहारा मुनीम,जो कोलकाता के अत्यंत विपन्न मारवाड़ी परिवार से आया बताया जाता है और हड्डीतोड़ मार्क्सवादी मशक्कत से - फ़ोटो देखिए न, किस तरह भरी जवानी में ही किन्हीं कुटेवों से नहीं किन्तु जीवनियाँ लिखते-लिखते सूख कर काँटा हो चुका है - किसी तरह से सपरिवार दो जून की रोटी जुटा पाता है,''मैं झंडू बाम हुई डार्रलिंग तैरै लेए'' गुनगुनाते-ठुमकते हुए इतना निढाल हो चुका था कि अपनी समीक्षा ही ठीक से नहीं पढ़ पाया :

    '' ( राधेश्याम अग्रवाल ने ) अपनी जीवनी हिंदी में लिखवाने के बारे में लिखा है :'...मैंने फैसला लिया कि मेरी जीवनी आम आदमी की भाषा में लिखी जाएगी.कई लोगों ने मेरी जीवनी लिखने में दिलचस्पी ली,पर मैं ऐसे व्यक्ति से लिखवाना चाहता था...' ''

    अंग्रेज़ी के लोकप्रिय मुहावरे में -''प्रायोजित'' means 'commissioned',which it was,stupid.

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  17. किसी के भी जीवन को केंद्र में रख कर लिखने के लिये एक क़ायदा होता है कि उसकी अनुमति लेनी पड़ती है । शायद खरे इस बात को नहीं जानते । राधाकृष्ण ने उसे छापने के पहले उनसे यह अनुमति पत्र भी लिया था । सरिता जी ने वह बात किस स्रोत से ली, वे जाने । खरे को समीक्षक की बात दिखाई दी, किताब नहीं । और बाक़ी बातें, गालियाँ देने वाला हमेशा अपने चरित्र को ही उजागर करता है ।

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  18. अज्ञान का पुंज, इसीलिये अहंकार का पुतला । इनमें धीरज नहीं होता है कुछ पढ़ने-जानने का । यह जीवित आदमी पर केंद्रित है, इसके अर्थ को वे नहीं जानते ।

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  19. और निढाल ! वह तो इनकी भाषा से पता चलता है कि कितने पेग का प्रभाव बोल रहा है । शायद एकाध पेग और चढ़ा लेते तो इस बदज़ुबानी से बच जाते ।

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  20. साहित्य अकादमी की तरह की सरकारी संस्थाओं के नौकरशाहों के ज्ञान की सीमाओं को हम अच्छी तरह से समझ सकते हैं । ये लेखक के तौर पर किसी घटिया समीक्षक की हद को पार करने में असमर्थ होते हैं, लेकिन इनका गुमान साहित्य के बादशाहों की तरह का होता है । 'शक्तिशाली' नौकरशाह की हैसियत वाला, लेखक को अपने पैर की जूती समझने वाला । फील्डवर्क करने वाले लेखकों की जूतियाँ घिसती है और नौकरशाहों की कोरी ज़ुबान । विष्णु खरे नामक जीव के इस उत्स को जान लीजिये, इनके गाली-गलौज और फतवेबाजी से भरे बेसिर-पैर के लेखन का रहस्य सामने आ जायेगा ; लेखकों की हत्या का प्रतिवाद करने वालों की खिल्ली उड़ाने वाले इनके अहंकार का रहस्य खुल जायेगा । नौकरशाह की सामान्य प्रवृत्ति है अधीनस्थों/कमज़ोरों पर रौब गाँठना और अपने से ऊपर वालों/ शक्तिशालियों के जूते चाटना । विष्णु खरे उदय प्रकाश का मज़ाक़ उड़ा रहे थे, और इससे शासकों की चाटुकारिता कर रहे थे । संवेदनशून्य साहित्य अकादमी की पैरवी कर रहे थे ।

    कोई यदि किसी के बारे में कहे कि वह है तो बहुत दुष्ट और पाजी भी। मुंह का खराब, शराबी, जुआड़ी और औरतबाज भी। यहां तक कि उसपर बलात्कार का आरोप भी लग चुका है। वह किसी की परवाह नहीं करता। ‘लेकिन’ फिर भी कहूंगा कि वह बहुत साहसी है। जो सोचता है, वह कहता ही नहीं, करता भी है। फिर, स्त्रियां ही कौन सी दूध की घुली हुई है ! ताली एक हाथ से तो नहीं बजती। जिसे बलात्कार कहते हैं उसे ही ‘पीड़क आनंद’ भी कहा जाता है ! उसके पास धन है। विरोधी का जबड़ा तोड़ देने की ताकत भी है। तमाम बुराइयों के बावजूद, इन अच्छाइयों के लिये ही भला उससे कौन प्रेम नहीं करेगा !

    कहना न होगा, ऐसी बातें वही कह सकता है, जो उसी के गोत्र का कोई व्यक्ति होगा । खरे अपने ऐसे प्रशंसकों से ही घिरे रहते हैं और अपने 'डोनाल्ड ट्रम्प' होने पर इतराते हैं । वे गालियाँ बक कर उन्हें जितना चाहे रिझाएँ, लेकिन अंतत: वे खुद को ही बेपर्द कर रहे हैं ।

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  21. विष्णु खरे नामक लेखक पर अपनी पहले की एक पोस्ट को मैं यहाँ समालोचक के पाठकों से साझा कर रहा हूँ । यह उस समय लिखी गई थी जब उन्होंने पुरस्कार लौटाने वाले पहले लेखक उदय प्रकाश का मज़ाक़ उड़ाया था । इससे शायद इनकी बदज़ुबानी को समझने में और और भी सुविधा होगी -


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  22. शक्तिवानों की हंसी !
    अरुण माहेश्वरी


    लेखकों और विवेकवान बुद्धिजीवियों पर लगातार जानलेवा हमलों के प्रतिवाद में उदयप्रकाश ने साहित्य अकादमी का पुरस्कार लौटा दिया। इसका हिंदी के व्यापक लेखक समुदाय को जहां गर्व है तो वहीं कुछ बुरी तरह आहत। उनकी प्रतिक्रियाओं से लगता है जैसे किसी सुंदर औरत को देखकर अचानक ही कोई चीखने लगे - देखो वह कितनी बेशर्म है, अपने कपड़ों के पीछे पूरी नंगी है!

    इस बारे में हमारा इशारा खास तौर हंसी और कोप के स्थायी भाव में रहने वाले क्रमश: सुधीश पचौरी और विष्णु खरे की टिप्पणियों की ओर है।

    हम जानते हैं कि इनकी प्रतिक्रियाओं के पीछे शायद ही कोई निजी संदर्भ होगा। लेकिन यह इनकी एक खास तात्विक समस्या है। तथाकथित विचारधाराविहीनता के युग की तात्विक समस्या। विचारधाराओं की अनेक अतियों से उत्पन्न आदर्शहीनता की समस्या।

    वे हर चीज पर हंसना चाहते हैं, हर आदर्श को दुत्कारना चाहते हैं। क्योंकि यह मान कर चलते हैं कि आदर्शों के प्रति अति-निष्ठा ही सर्वाधिकारवाद की, सारी अनैतिकताओं की जननी है।

    लेकिन भूल जाते हैं इसके विलोम को। यदि अति-आदर्श-निष्ठा अनैतिकता की धात्री है तो अति-अनैतिकता-भोग किस आदर्श की धात्री है ? क्या वह पाप पर टिके आदर्श की, यथास्थितिवादी अनैतिकता की जननी नहीं है। क्योंकि, अपने मूल से रूपांतरण तो हर अति का होता है।

    सच कहा जाए तो इनकी हंसी, इनका कोप यथास्थितिवाद की जड़ता से पैदा होने वाली हंसी और कोप है। यह पाप पर टिके आज के नैतिक-नायक, ‘उपभोक्ता मनुष्य’ की हंसी और कोप है। वे इतराते हैं अपनी जड़ता पर, यथास्थिति से जुड़ी अपनी अनैतिक शक्तिशाली अस्मिता पर।

    अगर हम ध्यान से देखे तो पायेंगे कि किसी भी रचनात्मक अस्मिता की पहचान कहीं से कुछ ‘तुड़े-मुड़े’ होने में ही होती है, जो स्वाभाविक तौर पर हंसोड़ों की हंसी का विषय भी हो सकता है। लेकिन जब भी कोई प्राणी अपने इस अलग रूप को गंवा कर सामान्य हो जाता है, उसी समय सचाई यह है कि वह शून्य में विलीन हो जाता है, या किसी नये विशेष, जड़-रूप को धारण कर लेता है।

    ‘खमा अन्नदाता’ की गुहार के साथ जीवन के आनंद में डूबना रचनात्मक शून्यता है। वैचारिक क्षेत्र में ऐसे ‘शून्यों’ की शक्ति उनके विचारों से नहीं, इतर स्रोतों से आती है। ‘गंभीरता झूठ को छिपाने का उपाय है’, इसीलिये ये गंभीरता का भान भी नहीं करते। और सच कहा जाए तो ये दूसरे भी किसी से यह उम्मीद नहीं करते कि उन्हें या उनकी कही बातों को गंभीरता से लिया जाए।

    इसीलिये हम कहते हैं कि इनकी शक्ति इनके विचारों में नहीं, इनकी शक्तिशाली सामाजिक स्थिति, तिकड़मबाजियों, शुद्ध रूप से विचारों के बाहर की चीज में, किसी वैचारिक हिंसा अथवा लोभ-लालच के काम में निहित है। माक्र्स विचारधारात्मक बंधनों से प्रेरित लोगों के बारे में कहते थे - ‘वे नहीं जानते, लेकिन कर रहे है।’ लेकिन इन विचारधाराहीनों के बारे में हम कहेंगे - ‘वे जानते हैं, वे क्या कर रहे हैं, क्यों कर रहे हैं।’

    उनकी हंसी या उनका कोप एक नाचीज लेखक पर शक्तिशालियों की हंसी और शक्तिशालियों का कोप है। हर शक्तिशाली चाहता है कि कोई उसकी हंसी या कोप को गंभीरता से न ले। ‘जीवन में खुशी और गम तो लगे ही रहते हैं!’ लेकिन फिर भी सच यह है कि जो उनके हंसने-रोने को जितनी ज्यादा गंभीरता से लेता है, वही यथास्थिति की तानाशाही के लिये सबसे बड़ा सरदर्द और खतरा होता है। जैसे आज उदयप्रकाश बन गये हैं। एक बेचारा लेखक! नाचीज ! अपनी पूरी मर्यादा और साहस के साथ उतर पड़ा है ऐसी चीज का विरोध करने जो उसके वश में नहीं है, उससे कहीं ज्यादा बड़ी और डरावनी है !

    आज का असली नायक तो वह है जो अंबर्तो इको की शब्दावली में, अपनी कैद में हंसा करता है। एक ईमानदार कायर, जो भूलवश नायक हो गया है। वह मर कर भी नहीं मरता, मार कर भी नहीं मारता। बस चुप्पी साधे रहता है। दूसरे उसे भय, श्रद्धा और कामना का ‘रहस्य’ बना देते हैं।

    और, जो भले लोग खास प्रकार की तटस्थता, ‘ब्रह्मांडीय संतुलन’ बनाये रखने की जिम्मेदारियों को ओढ़े हुए हैं, वे भी ‘नाचीज’ से अलग प्रकार की दूरी बना कर चलने के आभिजात्य के उदाहरण पेश करते हैं।
    सुधीश पचौरी कहते है, उदयप्रकाश ने ऐसा करके अपना ‘पाप प्रक्षालन’ किया है। जब रवीन्द्रनाथ ने नाइट की पदवी लौटायी, तब भी कई राज-भक्तों ने इसी पाप-प्रक्षालन के मंत्र का जाप किया था !

    बहरहाल, कुल मिला कर लगता है, रघुवीर सहाय ने इन्हें देख कर ही शायद कहा था - ‘‘लोकतंत्र का अंतिम क्षण है कह कर आप हंसे/सबके सब है भ्रष्टाचारी, कह कर आप हंसे/ कितने आप सुरक्षित हैं जब मैं लगी सोचने/सहसा मुझे अकेला पाकर, फिर से आप हंसे।’’

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  23. हजारों हजार जिन्दगियों को मिनटों में लील जाने वाले भोपाल गैस कांड के मुख्य आरोपी वारेन एन्डरसन को तत्कालीन कांग्रेस सरकार के कुटिल इशारे पर अपने सरंक्षण और अपनी निगरानी में भारत से रातों रात विदेश भगा देने वाले अर्जुन सिंह पर चारण कवि की तरह कविता लिखने वाले और 'पहल' जैसी इस महादेश की वैज्ञानिक चेतना संपन्न पत्रिका में छपवाने वाले हिन्दी साहित्य के मूर्धन्य और स्वनामधन्य कवि श्री विष्णु खरे की भाषा और व्यवहार में बौद्धिक अहंकार, बदजुबानी, बदतमीजी और लंपटता दिनों दिन बढ़ती ही जा रही है ! हिन्दी की ऐसी तैसी तो वह अपनी क्रांतिकारी भाषा में कर ही रहे हैं, अपनी लंपटता में वह महिलाओं की भी 'मज्जम्मत' करने पर निर्लज्जता पूर्ण तरीके से उतारू हो गए हैं! इस लंपटता और निर्लज्जता में वह सामान्य सा विवेक भी खो चुके हैं कि यह पुस्तक कोई मार्क्सवादी विमर्श का परचम नहीं है, वरन् एक उद्योगपति की जीवनी मात्र है और उसपर पक्ष और विपक्ष दोनों नजरिये से समीक्षा लिखी जा सकती है। पुस्तक का लेखक भी इसे किसी मार्क्सवादी विमर्श का पुलिंदा नहीं बता रहा! पूंजी और बाज़ार को सिरे से नकारना ही मार्क्सवाद है तो फिर समाजवाद क्या है? राधेश्याम अग्रवाल ने तो आमरी अस्पताल की त्रासदी पर पश्चाताप भी किया है और अपने जीवन का सबसे काला अध्याय भी माना है! अर्जुन सिंह और एन्डरसन तो बिना पश्चाताप किए और कोई कारगर उपाय किए बिना ही निर्लज्जतापूर्ण एय्याश जीवन जीकर ऊपर खिसक लिये!

    - राहुल राजेश,
    कोलकाता।

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  24. प्रिय ब्लॉग पर मैं इसे आज ही देख सका हूँ। 'असंगत बुद्धिजीवी' खरे जी का समर्थन करता हूँ। बाकी जो संगत बुद्धिजीवी हैं, उनमें इतनी संगति रहती है कि लब नहीं खुल पाते। खरे जी को इस हस्तक्षेप के लिए सलाम। दोस्त भारत और अशोक को भी। फेसबुक पर शेयर करूँगा,खरे जी की टिप्पणी।

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  25. उम्मीद/अनुरोध

    खरे जी और समालोचन का रिश्ता बना रहेगा।

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