वसु का कुटुम
मृदुला गर्ग
राजकमल प्रकाशन प्रा. लि.
मूल्य-125 रुपए
पृष्ठ-119
समीक्षा
वसु का कुटुम-21वीं सदी का कच्चा-चिट्ठा
सुधा उपाध्याय
मेरे हाथ पिछले दिनों मृदुला गर्ग का नया सृजन ‘वसु का कुटुम’ लगा. पढ़ने बैठी तो एक सांस में ही पूरा कर
डाला. असल में लंबी कहानी की शक्ल में ‘वसु का कुटुम’ कहानी से लेकर शिल्प, हर लिहाज़ से ऐतिहासिक है. देवेन्द्र राज अंकुर
ने फ्लैप पर इस रचना के बारे में लिखा है- “दो शब्द में कहा जाए तो यह कहानी आज के यथार्थ के अति-यथार्थ का जीवन्त
दस्तावेज है जो इतिहास न होकर भी इतिहास बन जाता है.”
“किसी साहित्य का इतिहास उसके राष्ट्र के इतिहास
से अलग नहीं होता. इतिहास के आधारभूत तथ्य नहीं बदलते, लेकिन इतिहासकारों द्वारा उनपर दिया जाने वाला
बलाघात बदल सकता है. इसलिए इतिहास का पुनर्गठन और उसकी नई व्याख्याएं होती हैं.
अतीत के सभी तथ्य ऐतिहासिक नहीं होते. तथ्यों का ऐतिहासिक महत्व उनके संदर्भों पर
निर्भर करता है. तथ्य सामान्यतया स्पष्ट होते हैं लेकिन उनके संदर्भ अकसर पेचीदे
होते हैं. इतिहासकार इन्हीं पेचों को खोलते हुए तथ्यों के ऐतिहासिक महत्व का
निर्धारण करता है.” (आधुनिक साहित्य और इतिहास बोध-नित्यानंद तिवारी)
असल में ‘वसु का कुटुम’ ऐतिहासिक है, जिसमें तथ्य सामान्यतया स्पष्ट हैं पर उसका
संदर्भ पेचीदा है और इन्हीं पेचों को खोलने और तथ्यों के ऐतिहासिक महत्व का
निर्धारण किया है मृदुला गर्ग ने. जिसके केंद्र में ‘बी के सपोत्रा’ का निर्माणाधीन आलीशान बहुमंजिला मकान है और
उसकी धुरी में है ‘दामिनी’. दामिनी इतिहास का वो अध्याय है जिसको याद करने
में कष्ट होता है फिर भी यह कहानी दामिनी के जीने और उसके मरने के बाद पैदा हुए
हालात की जीवंत विधान है.
कहानी और शिल्प को लेकर तो ‘वसु का कुटुम’ अलग है ही, एक ख़ास बात और है जिसकी वजह से इसकी प्रासंगिकता हमेशा बनी रहेगी. महिला
विमर्श और महिला सशक्तिकरण के दौर में महिलाओं के अलग-अलग चरित्र और अलग-अलग
परिस्थितियों में एक ही महिला के बदलते चेहरे ने इस रचना को और भी महत्वपूर्ण बना
दिया है. इसमें सबसे ज्यादा महिला पात्र हैं- दामिनी, रत्नाबाई, नजमा, मीरा राव, नीलम और अर्चना. इन सब चरित्रों का जो अति
यथार्थ रूप है, समय के साथ इनकी
बनती-बिगड़ती जो तस्वीर सामने आई है वो इस दौर की असलियत है. इन महिलाओं के हिसाब
से पुरुषों का चरित्र भी लगातार पलटी खाता रहता है और समाज को नए सिरे से सोचने पर
मजबूर करता है. पढ़ने के दौरान कई बार ऐसा लगता है कि हर चरित्र देखा और पहचाना
है. वो आपके आस-पास है. इन चरित्रों और कहानी के ताने-बाने ने सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक प्रपंचों का पूरा
कच्चा-चिट्ठा और इक्कीसवीं सदी की असलियत को नए सिरे से उजागर किया है, जिसमें एनजीओ और मीडिया की अहम भूमिका भी
बाज़ारवाद की लिप्सा में खुलकर दुनिया के सामने आती है. ‘वसु का कुटुम’ में स्वार्थ के लिए रिश्तों की ढंकती-खुलती
परतों ने यह साफ कर दिया कि संवेदना महज दिखावा है. उसकी आड़ में जो भी अपने लिए
जितनी टीआरपी बटोर ले, वही सफल है.
पुराने मकान की ढेर पर बनाए जा रहे सपोत्रा के मकान से किसी
को कोई आपत्ति नहीं है. आपत्ति होनी भी नहीं चाहिए. पर जिस नंग-धड़ंग तरीके से
मकान को बनाया जा रहा है, आपत्ति उससे है. एमसीडी (म्यूनिस्पिल कॉरपोरेशन ऑफ दिल्ली) का नियम है कि जो भी
दुमंजिला, तिमंजिला या चार
मंजिला मकान बनाया जाए, उसके चारों तरफ बाड़ा बनाया जाए, जिससे अंदर से धूल धक्कड़ बाहर न आए. चूंकि धूल-धक्कड़ को रोकने के लिए कोई
बाड़ा नहीं लगाया गया, इसलिए आस-पड़ोस में रहने वाले लोगों की शामत थी. शिकायत करने के बाद पुलिस आई.
रिश्वत के पैसे लिए और चले गए. फिर से शिकायत की गई, पहले वाले से थोड़े सीनियर अफसर आए पहले से
ज्यादा रिश्वत लेकर चले गए. फिर से दरख्वास्त दी गई, उससे भी सीनियर अफसर आए तगड़ी से तगड़ी रिश्वत
वसूल की और चले गए.
कहानी की शुरूआत भले ही नियमों को ताक पर रखकर मकान बनाने
से हो रही है पर जब तस्वीर में दामिनी आती है तो उसमें एकदम से तेजी आ जाती है.
वजह है दामिनी का ग़लत को ग़लत और सही को सही बोलने की हिम्मत और उसके लिए आवाज़
उठाने की ताक़त रखना. दामिनी हर उस बात पर सवाल उठाती है जिसमें भ्रष्टाचार दिखता
है, हर उस बात के लिए
बहस करती है जिसमें लगता है कि उसे ठगा जा रहा है, हर उस बात के लिए जी जान लगा देती है जो बनाए गए
सरकारी नियमों के खिलाफ है. इसलिए दामिनी लगातार सवाल उठाती है सपोत्रा के मकान
बनाने के तौर तरीके पर. उसे जवाब मिलता है कि मकान बनवाने के लिए एमसीडी से
सर्टिफिकेट मिल चुका है. लेकिन सर्टिफिकेट दिखाने के लिए कोई राजी नहीं. दामिनी
जान चुकी है कि एमसीडी की तरफ से हरी झंडी मिली ही नहीं. जब समाज में बनी बनाई लीक
से हटकर कोई भी खड़ा होता है, ग़लत को ग़लत कहने के लिए कोई भी आवाज़ उठाता हो तो तय है कि यथास्थिति में
जीने के आदि लोग उसे शक की निगाह से देखने लगते हैं. उसके बारे में तरह-तरह की
बातें बनाने लगते हैं. यही हुआ दामिनी के साथ. “सुनने में आया है था कि उस औरत के साथ बलात्कार
हुआ था पर कॉलोनी के भद्र जन मानने को तैयार नहीं थे. वे जानते थे, या कम-से-कम सोचते थे कि बलात्कृत औरत डरी सहमी
रहती है. इस तरह झगड़ा करती नहीं घूमती. वह भी रौबदार मर्दों से. कुछ लोग कहते थे, झगड़ालू नहीं, जांबाज़ है. मगर जांबाज़ भी नहीं हुआ करतीं
ज्यादतीशुदा औरतें. यह मानना था सभी का, मर्द हों या औरतें.”
धूल-धक्कड़ ने दामिनी का जीना मुहाल कर दिया था. सांस
उखड़ने लगीं और बीमारी गंभीर होने लगी. समाज में सिर्फ बलात्कार ही अभिशाप है ऐसा
मानना सरासर ग़लत है. बाड़ा बनवाने की तमाम कोशिशों के बावजूद सपोत्रा के बन रहे
मकान से उड़ने वाली धूल से दामिनी की बीमारी का गंभीर रूप लेना भी उसी अभिशाप का
हिस्सा है. पीड़ा चाहे जिस भी वजह से बढ़ रही हो उसका असर शरीर पर ख़तरनाक होता
जाता है.और लगातार एक बात के लिए शिकायत करना, फिर भी रसूख की वजह से उसका बदस्तूर जारी रखना, रोज़ बलात्कार की तरह ही तो है. मृदुला गर्ग ने
अपनी भूमिका में लिखा है- “आँख के ऑपरेशन की तारीख़ तय होने से पहले मैंने उनसे गुज़ारिश की कि आप
नियम-क़ायदा मानते नहीं, सब काम रिश्वत से चलाते हैं, तो कम-से-कम मानवीयता का तकाज़ा तो मानिए.कृपया इसके चारों तरफ आड़ बनवा दें, क़ानूनन जो ज़रूरी है, बस उतनी, जिससे धूल-मिट्टी आकर हमारी आँख में न गिरे. उनका जवाब काबिले क़िस्सा था.
बोले- सिर्फ हमारे मकान की धूल-मिट्टी वजह नहीं होगी आपकी आँख ख़राब होने की.” इस बात से अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि हम जिस
दौर में जी रहे हैं दरअसल वहां नियम-क़ानून पैसे वालों के पैरों के नीचे दबा है और
यही वजह है कि अकसर पैसे वालों को मानवीयता छूकर नहीं जाती है. हालत यह है कि
सामने कोई दर्द से कराह रहा हो, वो मदद की गुहार लगा रहा हो पर मजाल है कि पैसे वाले नज़र उठाकर भी देख ले. जो
पुराने पैसे वाले हैं उन्होंने कभी मानवीयता की परवाह नहीं की लेकिन जो नए-नए पैसे
वाले बने हैं, उन्होंने पुराने
पैसे वालों की देखा-देखी अपनी आदत में इसे शुमार कर लिया.
जैसे-जैसे मकान की दीवारें मजबूत होती जाती हैं दामिनी
सरीखे की ज़िंदगी की साँसें कम होने लगती हैं. कम होती साँसों में दामिनी सपोत्रा
के खिलाफ आरटीआई डालने की कोशिश करती रही. लेकिन अपनी गाड़ी की तरह चलती-फिरती
ताबूत दामिनी की तबीयत खराब हुई. मानवीयता भले ही पैसों वालों में न हो पर कम पैसे
वाले, गरीबी में जीवन बसर
करने वालों में अब भी ज़िंदा है. उसके यहां काम करने वाली रत्नाबाई और कॉलोनी में
किराने की दुकान चलाने वाले राघवन ने दामिनी को अस्पताल में भर्ती कराया. चूंकि
दामिनी की बीमारी बलात्कार पीड़िता ‘निर्भया’ से मिलती जुलती है
इसलिए बीमारी भी गंभीर है. और बीमारी गंभीर है तो इलाज में काफी पैसे लगेंगे ही.
ज़ाहिर है इतना पैसा कोई दामिनी पर क्यों लगाए, जो सपोत्रा सरीखे पैसे वाले की आँखों की किरकिरी
बन सकती है. इसलिए चंदा इकट्ठा करने की योजना बनाई गई. लेकिन इससे बुरा क्या होगा
कि जिस एनजीओ में दामिनी काम करती थी इलाज के लिए चंदा से इकट्ठा किए गए पैसे उसी
एनजीओ की प्रमुख मीरा राव ने डकार लिए. कहा जाता था कि एक औरत दूसरी औरतों का दर्द
सबसे ज्यादा समझती है, पर इक्कीसवीं में यह कहावत बहुत पीछे छूट गई है. चूंकि गुर्दे के ऑपरेशन से
पहले ही दामिनी चल बसी, इसलिए उसकी मौत को गुप्त रख गया और मीरा राव ने चंदा लेना बदस्तूर जारी रखा.
इस बात का खुलासा तो तब हुआ जब इलाज के लिए राघवन ने जो सोने की गिन्नी दी थी उसे
मांगना शुरू कर दिया. वसुधैव कुटम्बकम का हवाला देने वाली संभ्रांत महिला मीरा राव
आज की नारी हैं, जिसके लिए पैसा
ज्यादा अहम है और साथ में काम करने वाली की मौत कोई मायने नहीं रखती.
दामिनी जबतक जीवित रहती है तबतक हम उस समाज में जी रहे होते
हैं जहां आवाज़ उठाने वाला सवालों के घेरे में हैं, संभ्रांत लोगों के निशाने पर है और तिल-तिलकर मर
रहा है. विरोध की उसकी तमाम कोशिशें विफल हो रही हैं.और दामिनी जब मर जाती है तो
उसी समाज में एक और नया समाज दिखाई देता है, जिसमें संवेदनाशून्यता चरम पर है, स्वार्थ की जड़ें और गहरी हो गई हैं और पैसे वालों की सांठगांठ की असलियत का
पर्दाफाश होता है. दामिनी की मौत के बाद यह विश्वास और दृढ़ हो जाता है कि असल में
सही को सही कहने वाले कुछ भी कहें, होगा तो वही जो ऊपर वाले चाहते हैं. हालांकि कहानी को रोचक बनाने के लिए
रत्नाबाई और सपोत्रा की अचानक मौत ने कई सवालों को अधूरा छोड़ दिया. इससे हुआ यह
कि उनके चरित्र का संघर्ष अधूरा रह गया.
खैर, दामिनी की मौत और राघवन के गिन्नी वापस मांगने के प्रकरण ने कहानी को नया और
रोचक मोड़ दे दिया. दामिनी के यहां झाड़ू-पोछा और खाना बनाने वाली और राघवन की
परिचित बुजुर्ग महिला रत्नाबाई झांसी की रानी बनकर उभरी. आब देखा न ताब और सीधे
मीरा राव से टकराने चली गई. गिन्नी तो वापस नहीं ला पाई, जान भी गवां बैठी. रत्नाबाई का मीरा राव से
भिड़ना और जान गंवाने का फुटेज न्यूज़ चैनल तक पहुंच गया. इसके बाद टीआरपी के लिए
लोकतंत्र के चौथे स्तंभ की भूमिका से बेक़बर होकर न्यूज़ चैनल ने मीडिया ट्रायल
शुरू कर दिया. सही तरीके से ख़बरें दिखाते तब भी गनीमत थी. लेकिन वहां तो खोजी
पत्रकार और चैनल के संपादक हिन्दीश जी का पूरा ध्यान इस बात पर था कि कौन सा टॉपिक
उठाया जाए जिससे उनके चैनल की व्ह्यूयरशिप बढ़े, जिसका सीधा मतलब चैनल पर चलने वाले कॉमर्शियल ऐड
से होता है और ऐड ही तो पैसे कमाने का एक सीधा ज़रिया है. हालांकि न्यूज़ चैनलों
में बहुत सी बातें जो पर्दे के पीछे होती हैं पैसे की उगाही उससे कहीं ज्यादा होती
है. सनसनीख़ेज और चटपटा बनाने की कोशिश में जितने तत्पर हिन्दीश जी है उससे कम
तत्पर कैमरे के सामने आने वाले भी नहीं रहते. यही तो कारण है कि दामिनी को
रत्नाबाई और राघवन के साथ अस्पताल ले जाने वाली नजमा का चरित्र इसी तत्परता में
खुलकर सामने आ गया. दामिनी की मौत से किसी को कुछ लेना देना नहीं. न्यूज़ चैनल पर
होने वाली बहस में दामिनी का जिक्र बमुश्किल लिया जाता है पर लोग अपना उल्लू सीधा
करने में ज़रूर लगे हैं.
इस लंबी कहानी को पढ़ते समय लगातार महसूस होता है कि आँखों
के सामने फिल्म चल रही है, जिससे आप बार-बार विचलित होते हैं. एक तरफ तस्वीरों का सिलसिला है और दूसरी
तरफ आप हैं. जैसे आप उससे जुड़ने लगते हैं तो आपका साक्षात्कार दम तोड़ रही
संवेदना से होने लगता है. आप घबराते हैं पर एक समय ऐसा महसूस होता है कि ऊपर से
सभी बड़े लोग आपस में इतने घुले-मिले कैसे हैं. मीरा राव और सपोत्रा कैसे दो होकर
भी एक हैं, जो आवाज़ उठाने वाले
को मिलकर मारने में जुटे हैं. आवाज उठाने वाले मरे तो मरे, उसपर आँसू बहाने वालों से पैसे भी ऐंठ लेते हैं.
आप जीते जी खुद की लाश पर चलने लगते हैं और समाज के अति यथार्थ से टकराकर चकनाचूर
हो जाते हैं. आख़िर में लगता है—आपकी सुनने वाला कोई नहीं. हर किसी को अपने स्वार्थ से मतलब है. वक्त रेत की
तरह फिसल रहा है और हम मूक बनकर खड़े हैं.
कहानी का अंत करते-करते जो आप सोच रहे होते हैं मृदुला जी
ने उसी को बड़े सटीक और झकझोर देने वाले अंदाज में जबरदस्त कटाक्ष के साथ मीरा राव
के दफ्तर में चपरासी का काम करने वाले रामलखन से कहलवाया-“यह समझिए पूरी कहानी हम कह तो गए, मगर सभी जानते हैं कि सब कुछ रहेगा वही का वही.
हम जानते हैं, आप जानते हैं, हिन्दीश जी जानते हैं, सब जानते हैं. तो जब सब जानते हैं तो हम बार-बार
उसे क्यों दोहराएँ?”
पूरी कहानी पढ़ लेने के बाद जो बेचैनी मन में उभरती है, बार-बार कहे जाने के बावजूद जो सच मन- मस्तिष्क
को कचोटने लगता है वही ‘वसु का कुटुम’ की सार्थकता है.
ज़ाहिर है ऐसे में कवि रघुवीर सहाय की कविता ‘रामदास’ और ज्यादा समझ में आने लगती है.
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सुधा उपाध्याय
बी-३, टीचर्स फ्लैट
जानकी देवी मेमोरियल कॉलेज(दि.वि.वि)
सर गंगाराम अस्पताल मार्ग
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (14-05-2016) को "कुछ जगबीती, कुछ आप बीती" (चर्चा अंक-2342) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
dhanyavad sudha. itnee sateek sameeksha ke liye. kya sanyog hai ki 1961-1963 tak maine bhi Janki Devi College men padhaya tha, arthshastra. Hindi men tab Mrs Bhatnagar hua kartee theen jinhone barson tak pustak mele men stall laga kar Hindi ki kitaben logon ke samne lane ka kaam kiya.
जवाब देंहटाएंनमस्ते मृदुला जी। आपकी टिप्पणी मेरे लिए महत्वपूर्ण है। क्या सुखद संयोग है,हम इस मायने मे औऱ करीब हो आए मेरी गुरु मां हेम भटनागर आज भी उतनी ही सक्रिय हैं , हस्तलिखित पुस्तकों का प्रकाशन औऱ अब तो सोशल मीडिया पर भी हैं। बहुत बहुत धन्यवाद ।
जवाब देंहटाएंबेहद बारीक़ विश्लेषण । अब तो पढ़ने का जी हो आया । इसकी वजह आपकी समीक्षा है
जवाब देंहटाएंसटीक समीक्षा
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