परख : हम न मरब (उपन्यास) : ज्ञान चतुर्वेदी















समीक्षा
हम न मरब : जीने और मरने  के बीच फैला जीवन का महाआख्यान

विवेक मिश्र



चनाएं मनुष्यता में शौर्य का संधान करती हैं. जिजीविषा को जगाती हैं. वे कहीं-कहीं ‘फीनिक्स’ पक्षी की तरह-विनाश के गंभीर शून्य से पुनर्सृजित होती हैं. जहाँ लगता है दुख और संताप में सब समाप्त हो रहा है, मिट रहा है, वहीं से एक अच्छी और प्रभावशाली रचना का जन्म होता हुआ भी दिखाई देता है.

‘हम न मरब’ भी मृत्यु के अवसाद से पैदा होकर तमाम उतार-चढ़ाव देखती हुई, जीवन के उत्सव की ओर बढ़ती हुई कथा है. यह ज्ञान चतुर्वेदी का चौथा उपन्यास है. वह व्यंग्य के क्षेत्र में अपनी विशिष्ट भाषा, शैली और दृश्टि के कारण एक अलग पहचान रखते हैं. पर उनके इस उपन्यास में जब आप प्रवेश करते हैं तो उनके एक सिद्ध्हस्थ किस्सागो के रूप से रूबरू होते हैं. आप एक ऐसे किस्सागो से मिलते हैं जो बड़े खिलंदड़े अंदाज़ में अपनी बात कहता हुआ आगे बढ़ता है. इसे पढ़ते हुए मुंशी प्रेमचंद की कही एक बात बार-बार याद आती है कि दर्द को हँसते-हँसते कहना भी एक कला है.

इस उपन्यास को पढ़ते हुए आप पाएंगे कि बुंदेलखण्ड में बेतवा के किनारे बसे गाँव लुगासी का जीवन, वहाँ की भाषा, लोक संस्कृति, राजनीति और जीवन दर्शन कुछ ऐसे धीरे-धीरे कथा में घुलते हैं कि आपके सामने एक जीती-जागती दुनिया खड़ी हो जाती है जो आपको अपने भीतर खींचकर आपसे बोलने बतियाने लगती है. वैसे यदि इस उपन्यास के बारे में सीधा प्रश्न किया जाए कि यह किस विषय पर है तो प्रश्न शून्य के अथाह विस्तार में घूमकर लौट आएगा पर यदि यह पूछा जाए कि यह जीवन के किस आयाम, उससे जुड़े किस विषय को छूता है तो आँखों के सामने हज़ारों रंग अपने मौलिक रूप में बिखर जाएंगे. उपन्यास के केन्द्र में लुगासी का जीवन है, उसकी उदात्तता है, उसके विरोधाभाष और उसकी विडंबनाएं हैं. इसमें कहीं सुख के लोभ में किए जा रहे छलछंद हैं, तो कहीं उससे उचटे हुए मन की विरक्ति है, ऊब है, उससे उपजा एक अलग किस्म का दर्शन है. पर इसमें जहाँ जो है वो इसी लोक का है, इसकी कथा एक ऐसी कथा है जिसमें परलोक की छाया से डरे-सहमे पात्र तो हैं पर स्वयं कथा का कोई परलोक नहीं है, वह यहीं इसी लोक के यथार्थ में मजबूती से पाँव जमाए खड़ी है. आज जहाँ अपठनीय, बोझिल, बौद्धिकता से लदे और वैचारिक पूर्वाग्रहों से भरे तथा जबरन गढ़े जा रहे कथा साहित्य की बाढ़ आई हुई है वहाँ ‘हम न मरब’ गल्प और किस्सागोई का अनूठा उदाहरण बनके सामने आता है.

इसकी कथा लुगासी गाँव के एक भरे-पूरे पांडे परिवार के कल-आज-कल और उससे जुड़े सुख-दुख, हानि-लाभ, यश-अपयश, राग-द्वेष, इर्ष्या-प्रेम, स्वार्थ-त्याग, दुनियदारी से विरक्ति और उसके प्रति आशक्ति की है. परिवार के मुखिया हैं- अस्सी पार कर चुके बब्बा जो जीवन के अनुभवों में तपके विकसित हुए अनुठे दार्शनिक निष्कर्षों पर पहुँचे हुए एक ऐसे चरित्र हैं जो अपनी हर बात को बहुत बेवाकी और साफगोई से कह देने के लिए तथाकथित रूप से घर के भीतर और घर के बाहर प्रशंसित भी हैं और प्रतिष्ठित भी. उन्होंने एक लंबा जीवन जिया है और अभी तक अपने तीनों बेटों- गप्पू, नन्ना और गोपी को और साथ ही उनके बीबी-बच्चों को किसी तरह बांधे रखा है. या कहें कि अपने घर का बंटबारा नहीं होने दिया है. बब्बा की बीमारी और उसके बाद उनकी मौत तथा पीछे लंबे समय से लकवा ग्रस्त पत्नी, और आपस में असंपृक्त पर बब्बा के नाम और घर, संपत्ति व सामंती अतीत से बंधे ढेर सारे लोगों का पीछे छूट जाना ही कथा का प्रस्थान बिंदु है. बब्बा मरकर भी किस क़दर अपने परिवेश में ज़िन्दा रहते हैं यह देखते ही बनता है.

बब्बा की मौत की ख़बर सुनकर पास से पास और दूर से दूर के रिश्तेदारों का, आस पास के गाँवों से परिचितों, हितैषियों, शुभचिन्तकों का जुटना कथा की वो उठान है जिसमें मौत का शोक भी किसी उत्सव में, या किसी मेले की रेलम पेल में और कहीं-कहीं रणभेरी में बदल जाता है. एक तरफ़ दुख है कि बब्बा नहीं रहे. उत्सव है कि पीछे भरा पूरा घर-परिवार छोड़ गए और उन्हें विदा करने, श्रद्धांजलि देने सब एक जगह जुटे हैं और सुख-दुख की इस डगर पे चलते हुए बब्बा के पीछे किसके हाथ क्या आएगा? बंटबार कब और कैसे होगा? कौन मालामाल होगा? और कौन हाथ मलता रह जाएगा? ये है इन सुखों-दुखों के नीचे दबा रिश्तों को छीलता-काटता घोर दुनियादार यथार्थ, और इसी की प्रेरणा से बब्बा के मरने के बाद चरित्र धीरे-धीरे अपना रंग बदलते हैं, या कहें कि अपने असली रंग में आते हैं. यानि बब्बा की मौत के बाद लुगासी गाँव और खास तौर पर बब्बा का घर एक पॉट ब्वॉयलर बन जाता है जिसमें अतीत, वर्तमान और भाविष्य की कथा एक साथ पकती है. इसमें डूबने-उतराने, खौलने और पिघलने वाले चरित्र हैं तो इसके चारों ओर खड़े तमाशबीन भी हैं, गाँव की शान्ति, उदासी और नीरवता भी है. उनका निठल्लापन और उस निठल्लेपन से उपजा अंतहीन, निर्रथक विमर्श भी है. खालीपन का ठाठ और आनंद भी है, तो काटे न कटने वाले समय की क्रूरता की हद तक धीमी गति भी है. उसी में घर-गाँव के आसपास गर्म होती आबोहवा, करवट बदलती राजनीति, सवर्णों का घटता वर्चस्व और ब्रहमणों का टूटता तिलिस्म भी है. 

सामंतों के ढहते किले भी हैं और पैरों के नीचे की घास का बड़ा होकर परिदृश्य पर फैलना और छा जाना भी है. रस्सी जल चुकने के बाद बची रह गई अकड़ भी है, तो साथ ही साथ इस बात का आकलन भी है कि आज सामंत सच में कितना सामंत और ब्राह्मण कितना ब्राह्मण है, तथाकथित समर्थ दरसल कितना समर्थ है, या ये सिर्फ़ अतीत की छवियाँ मात्र हैं, या खोखले दंभ की परछाइयाँ हैं जो अपनी कमजोरियों को भाँप रही हैं. या फिर ये प्रवृत्तियाँ मात्र हैं जो धन और सत्ता के साथ जगह बदलती रहती हैं. कथा में जगह-जगह धर्म के, आध्यात्म के, उससे जुड़े ढोंग-धतुरों के रंग उतर रहे हैं. समय सब कुछ आरपार दिखा रहा है. तथाकथित सामंत देख रहे हैं, डर रहे हैं, टूट रहे हैं पर वे बदल नहीं रहे हैं. कहीं कुछ अड़ियल अभिमान जैसा बचा है जो बदलने से रोक रहा है. जो बदलने का स्वांग कर रहे हैं, वे रंगे सियार हैं. जो सचमुच बदल गए हैं, उनकी अपनों के बीच ही कोई नहीं सुन रहा है. तथाकथित ऊँची जातियों के टूटते तिलिस्म की अलग-अलग अवस्थाओं में अवस्थित हैं, सारे चरित्र.

बब्बा- जिन्होंने ब्राहमण वर्चस्व का स्वर्णकाल देखा था, वो समय जब मनुष्य को मनुष्य भी नहीं समझा जा जाता था, वे सिर्फ़ जातियाँ थीं. गप्पू- बब्बा के बड़े बेटे जो बदल गए हैं और बदलाव अपने चारों ओर देखना चाहते हैं पर उनकी अपनों और परायों के बीच कोई नहीं सुनता. नन्ना- मझले बेटे, जो अभी भी उसी पुरानी ठसक में जी रहे हैं. जो न बदलाव को देखना चाहते हैं, न मानना. जाति के वर्चस्व का छद्म और उसका मिथ्या अभिमान ही उनके जीवन का आलंब है. वे बिना कुछ करे धरे ही महत्वपूर्ण बने रहना चाहते हैं. गोपी, छोटे बेटे जो शहराती हो गए हैं, बदल जाने का स्वांग रचे हैं, और समय-समय पर कड़क और ढीले चोले में आते जाते हैं. वह शहरी अवसरवादिता का टिपिकल प्रोटोटाइप हैं. बब्बा के बड़े बेटे गप्पू की सबसे बड़ी संतान रज्जन, जो इस बदलते वक्त को जाति पर आए संकट की तरह देखते हैं. वह आने वाले हालात को भाँप गए हैं इसलिए ख़ुद को आने वाले समय के लिए बड़ी चतुराई से तैयार कर रहे हैं. वह अपने वर्चस्व को बचाए रखने के लिए लुगासी के वर्तमान समय जैसे ही ढीठ, उदण्ड और वाचाल हो गए हैं. 

वह जान गए हैं कि लाठी और पैसा ही सबसे बड़ी जाति है. इसके बाद आते हैं परिवार से बाहर के चरित्र जिनमें प्रमुख हैं, बब्बा के गुरू महंत जी जो वय में बब्बा से छोटे हैं पर बातों से लोक की हर बात के तार परलोक से जोड़ने में माहिर हैं पर बब्बा के जाने के बाद धर्म के खेल के अनायास पटाक्षेप हो जाने और उसकी आड़ में हथियाई गई संपत्ति के कभी भी छिन जाने के डर में जी रहे हैं. फिर आता है दुनिया का सारा खेल समझकर खरी-खरी कहने वाला चरित्र, वह हैं रामजी चौबे जो कभी कांग्रेसी रहे, फिर कम्युनिस्ट बने और फिर फक्कड़ होकर यायावर बने घूमने लगे. वह धर्म, जाति, ज़मीन, धन-दौलत के पीछे छुपी दुनियादारी को साफ़-साफ़ देखते हैं. वे कथा में अनायास आए सूत्रधार भी हैं जिनकी बातें सारे छद्म, सारे आड़मबर, सारे घटाटोप को हटाकर, सारे बहस मुबाहिसों के पीछे छुपे स्वार्थ और सारी साजिशों को उजागर कर जाती हैं.

अब बात स्त्री चरित्रों की जिसमें सबसे अहम हैं अम्मा. बब्बा की पत्नी जो कहानी की वो कड़ी हैं जो बब्बा के यश के आड़ंबर, धर्म के पाखंण्ड और संयुक्त परिवार कही जाने वाली संस्था की तथाकथित इज़्जत-आबरू-साख को बचाते, ढकते घिस घिसकर घुल गईं हैं. पुरुष प्रधान समाज में, पित्रसत्तात्मक परिवार में स्त्री का जितना बुरा हो सकता है, वह अम्मा के साथ हो चुका है. अब वह होकर भी नहीं के जैसी हैं. घर में रहते हुए भी जीवन की परिधि से निष्काषित हैं. वे ऐसी जगह जो न अंधेरी है न उजली, न पूरी बाहर है, न भीतर, जिसे पौर कहते हैं उसमें सबके बीच रहते हुए भी, सबसे कटी हुई पड़ी हैं. अपनी बची हुई साँसें गिन रही हैं. ऐसे में उनकी बड़ी बहु सावित्री, गप्पू की पत्नी भी चुपचाप उनकी सेवा करते हुए उन्हीं के पदचिन्हों पर चलकर उसी भविष्य की ओर बड़ रही हैं जहाँ एक स्त्री किसी परिवार को जीवन देने के बाद भी किसी संदर्भ से संपृक्त नहीं रह जाती. बाहर सब कुछ बदलने के बाद उसके जीवन में कुछ नहीं बदलता. नेपथ्य में धकेल दिए जाना उसकी नियति है. उधर मझले बेटे नन्ना की पत्नी, मझली, पूरी नाटकीयता के साथ सदियों से पुरुष द्वारा पोषित किए जा रहे छद्म और टोटकों के साथ जी रही हैं. 

वह उन्हीं रूढियों को अतिनाटकीय बनाकर प्रस्तुत करती हैं और उसी के माध्यम से अपनी पहचान बनाने की कोशिश करती हैं. पर वह अलग दिखने की कोशिश के बाद भी अलग नहीं हैं, वह पूरी तरह व्यवस्था के यथस्थितिवादी चरित्र को ही पोषित करती हैं और उन्हीं रुढ़ियों में अतिरिक्त ढ़ोंग से वह अपना स्थान बनाना चाहती हैं. तीसरा स्त्री चरित्र है गोपी की पत्नी का जो एक पढ़ी-लिखी, काम-काजी महिला हैं और लुगासी में सभी यह मानते हैं कि उनके पति गोपी पू्री तरह उनके कहे में चलते हैं. दरअसल गोपी और उनकी पत्नी शहरी मध्यवर्ग जो कभी न कभी गाँव से ही शहर आया था और ख़ुद को शहराती और दूसरों को गंवार साबित करने का कोई मौका नहीं छोड़ता. वह अपने पति कीही तरह टिपिकल मध्यवर्ग का अवसरवादी चेहरा हैं.

बाकी के चरित्र जिनके स्पष्ट चेहरे और नाम नहीं हैं वे कथा का वातावरण निर्मित करते हैं और कथा के लोकेल को भी एक चरित्र के रूप में उभारने में मदद करते हैं. उन्हीं से मुख्य कथा के उपजीव्य और क्षेपक भी पैदा होते हैं और आपस में एक दूसरे से जुड़ते भी हैं. उपन्यास में कथा के बिखराव और उपजीव्यों के विस्तार से ही उसका वैभव होता है. मुख्य कथानक मुख्य होते हुए भी यहाँ गौड़ ही है क्योंकि वह उस परिवेश को उभारने, लोक जीवन को चित्रित करने का माध्यम भर है. दरअसल उसके माध्यम से संधान तो मनुष्य में जीवन में बची रह गई मनुष्यता का ही होना है. यहाँ कहना ही होगा कि इस उपन्यास में मुख्य कथा और उसके उपजीव्य अपने पूरे विस्तार और वैभव के साथ उपस्थित हैं और वे कहीं भी कथा के प्रवाह को बाधित नहीं करते बल्कि कहा जाए कि उपन्यास में कथा का प्रवाह ही उसकी आत्मा है तो अतिश्योक्ति नहीं होगी. कथा जिस प्रवाह से विकसित होते हुए आगे बढ़ती है वहाँ कुछ भी आरोपित नहीं लगता. वहाँ सारी घटनाएं, पात्र जीवन की गति के साथ कदम ताल करते हुए चलते हैं.

उपन्यास की भाषा बुंदेली लोक की भाषा है और वह भी अपने ठेठ देहाती ठाठ एवं ठसक के साथ. पात्रों के बीच होने वाले संवादों से ही कहानी खुलती भी है और आगे भी बढ़ती है. नरेटर कई जगह तो आपको पात्रों के हावाले करके अदृश्य हो जाता है. आप ख़ुद ही प्लॉट में डूबते-उतराते पात्रों के साथ आगे बढ़ते हैं. संवादों में ऐसा करारा व्यंग्य है जो सदियों पुरानी जड़ता की काई को बहुत तेज़ी से काटता हुआ कहानी को आगे बढ़ाता है. कई जगह व्यंग्य इतना पैना और धारदार है कि बरबस ही श्रीलाल शुक्ल केरागदरबारीकी याद आ जाती है. यहाँ भी अनपढ़ और गँवई जान पढ़ते पात्र बातों-बातों में जीवन का ऐसा दर्शन प्रस्तुत करते हैं कि पाठक आवाक रह जाता है. उपन्यास में हर दर्शन का देशी और ज़मीनी मूल्याकंन है. और वह भी उस धरातल पर उतरकर जिसपर पात्र जीते हैं, साँस लेते हैं, बोलते बतियाते हैं. पात्रों के आपसी संवादों के माध्यम से ही प्रश्न भी उठते हैं और तरह-तरह के उत्तर भी मिलते हैं. उसी से पक्ष भी निर्मित होता है और प्रतिपक्ष भी. जैसे बब्बा एक सिरा हैं तो उसकी काट करने के लिए राम जी चौबे उनसे उल्टी दिशा में दूसरा सिरा हैं. गप्पू एक पक्ष हैं तो नन्ना उसका प्रतिपक्ष. सावित्री उत्तर तो मझली दक्खिन. और इन सबके बीच खड़े हैं इस रस्साकसी का लाभ लेने वाले महंत जी, रज्जन, गोपी, गोपी की बहू. वे किसी तरफ़ नहीं हैं. वे जीवन के बंदरबांट में अपना उल्लू सीधा करने वाले लोग हैं. कहानी में कोई नायक नहीं, या कहें कि आम जनजीवन में समय ही सबसे बढ़ा नायक है, वही सबको नचाए हुए है. हम सब कभी पाले के इस तरफ़ तो कभी पाले के उस तरफ़ खड़े, बदलते समय से ही जूझ रहे हैं. समय नितन्तर है. वह कभी नहीं मरता. उसी के गर्भ में भूत, वर्तमान और भविष्य सुरक्षित रहता है.

कथा में कोई निदान, समाधान, कोई निष्कर्ष नहीं है बल्कि निरंतर निष्कर्षों की व्याख्या और निर्णयों का स्थगन है. दअरसल जीवन निष्कर्षों तक पहुँचना है भी नहीं बल्कि लगातार कभी सहमत तो कभी असहमत होते हुए निष्कर्षों पर पहुँचना स्थगित ही होता रहता है. अंत में सब सुनी-कही यहीं छूट जाती है. हम भी थोड़े जग से चले जाते हैं और थोड़े दूसरों की स्मृति में, दूसरों की बातों में रह जाते हैं. सार यही है कि ऐसे या वैसे दुनिया में आ ही गए हैं तो जीना तो है ही और इसी टेक पे दुनिया चले जा रही है, लोग अपनी-अपनी तरह जीवन और उसके दर्शन का संधान किए जा रहे हैं, और जिए जा रहे हैं, …और यही बात उपन्यास हमें बिना किसी आयातित दर्शन के, बिना किसी वैचारिक पूर्वाग्रह के, बड़े सरल शब्दों में समझा जाती है. उपन्यास के सभी पात्र हमें जीवन की नश्वरता और यह जानते हुए भी सतत इस तथ्य की उपेक्षा के साथ जीवन के अपने-अपने लक्ष्यों में सभी की संलग्नता से, जीवनचक्र का बड़ा पाठ पढ़ा जाते हैं. हम जानते हैं कि हम निरन्तर मृत्यु की ओर बढ़ रहे हैं फिर भी हम निरन्तर आँखें मूंदे जीवन को गले लगाने के लिए लालायित रहते हैं. यह उपन्यास इसलिए भी अपनी तरह का अनूठा उपन्यास है क्योंकि इसमें लेखक ने ज़िन्दगी और मौत की कहानी को हँसते-हँसते सुनाया है और ऐसा करते हुए कहीं भी कथा के मर्म को ठेस नहीं लगी है. 
(उपन्यासकार के साथ विवेक मिश्र)

चलते-चलते यही कहूँगा कि 'हम न मरब' पाने और खोने तथा जीने और मरने के बीच फैला जीवन का महाआख्यान है जो हिंदी साहित्य में लंबे समय तक अपने कथ्य, पात्र और शिल्प की विशिष्टताओं के लिए ही नहीं उसमें निहित दर्शन के लिए भी याद किया जाएगा.
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विवेक मिश्र : 
123-सी, पॉकेट-सी, मयूर विहार फेस-2, दिल्ली-91
मो-09810853128/ vivek_space@yahoo.com

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  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (18-03-2016) को "दुनिया चमक-दमक की" (चर्चाअंक - 2285) पर भी होगी।
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    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ

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  2. अद्भुत उपन्यास है ये ज्ञान जी का जब से हाथ आया है एक दो बार नहीं तीन चार बार पढ़ चुका हूँ लेकिन फिर फिर पढ़ने को जी करता है

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  3. सुन्दर समीक्षा उपन्यास के प्रति लालायित करती है जरूर बहुत ही बेहतरीन होगा,इस समीक्षा से जिज्ञासा और बढ़ी है। जरूर पढ़ेंगे

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  4. विस्तार से लिखा है विवेक भाई ने।'हम न मरब'पर हमें भी बहुत कुछ कहना है।पठनीयता और भाषा के सराहनीय प्रयोग।

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