भारत में बढती वैचारिक
असहिष्णुता और फैलती धार्मिक कट्टरता के प्रतिपक्ष में लेखकों और कलाकारों के
सम्मान लौटाने की ‘सक्रियता’ से जहाँ कुछ लोग असहज महसूस कर रहे हैं वहीँ कुछ इस
सक्रियता के पीछे के कारकों की विकृत व्याख्या कर लेखकों और कलाकारों को ही बदनाम
करने में जुट गए हैं. इससे जहाँ इस देश में साहित्यकारों की ‘स्थिति’ का पता चलता
हैं वहीं देश की बौद्धिकता के स्तर पर भी यह एक प्रश्न चिह्न की तरह है.
इसी देश में
दिल्ली में भडके सिख विरोधी दंगों के विरोध में खुशवंत सिंह ने अपना ‘पद्म भूषण’
लौटा दिया था. आपातकाल के विरोध में फणीश्वरनाथ रेणु ने ‘पद्म श्री’ लौटाया. रवीन्द्रनाथ टैगोर ने ब्रिटिश शासकों की ‘नाइटहुड’ की पदवी १९१९ में जलियांवाला हत्या कांड के विरोध में लौटा दी थी. ऐसे तमाम
प्रकरण हैं जहाँ लेखकों और कलाकारों नें मानवता के पक्ष में अपने कलम और कला से
विवेक और नैतिकता के पक्ष को जीवंत रखा. विगत में अगर किसी घटना का विरोध नहीं हुआ
है तो इसका यह अर्थ नहीं है कि सदैव के लिए विरोध का अधिकार खो दिया गया है.
फ्रांस के महान लेखक और अस्तित्ववादी दर्शन के जनक ‘ज्यां पॉल सार्त्र’ ने 1964
में नोबेल पुरस्कार लेने से इंकार कर दिया
था. यह वह समय था जब लेखक की नैतिक सत्ता का सम्मान समाज और राष्ट्र किया करते थे.
सार्त्र लेखक के ‘जोखिम भरे उद्यम’ के पक्ष में थे और
किसी लेखक के ‘राजनीतिक अतीत’ को कोई बुराई नहीं समझते थे. (जैसा कि आज लेखकों से
राजनीतिविहीन होने की मांग की जा रही है)
इस महत्वपूर्ण दस्तावेज का उतनी ही गम्भीरता से अनुवाद कथाकार अपर्णा मनोज
ने किया है. वर्तमान में इसे फिर से
पढ़ा जाना चाहिए.
सार्त्र का खत
मुझे इस बात का बेहद अफ़सोस है कि इस मुद्दे को सनसनीखेज़
घटना की तरह देखा जा रहा है: एक पुरस्कार मुझे दिया गया था और इसे मैंने लेने से
इंकार कर दिया.
यह सब इसलिए हुआ कि मुझे इस बात का ज़रा भी इल्म नहीं था कि
भीतर ही भीतर क्या चल रहा है. 15 अक्तूबर,
‘फ़िगारो लिट्रेरिया’ के स्वीडिश संवाददाता स्तम्भ में मैंने जब पढ़ा कि स्वीडिश
अकादमी का रुझान मेरी तरफ है, लेकिन फिर भी ऐसा
कुछ निश्चित नहीं हुआ है, तो मुझे लगा कि
अकादमी को इस बाबत ख़त लिखना चाहिए जिसे मैंने अगले दिन ही लिखकर रवाना कर दिया
ताकि इस मसले की मालूमात कर लूँ और भविष्य में इस पर कोई चर्चा न हो.
तब मुझे इस बात की जानकारी नहीं थी कि ‘नोबेल पुरस्कार’ प्राप्तकर्ता की सहमति के
बगैर ही प्रदान किया जाता है. मुझे लग रहा था कि वक्त बहुत कम है और इसे
रोका जाना चाहिए. लेकिन अब मैं जान गया हूँ कि स्वीडिश अकादमी के किसी फ़ैसले को
बाद में मंसूख करना संभव नहीं.
जैसा कि मैं अकादमी को लिखे पत्र में ज़ाहिर कर चुका हूँ,
मेरे इंकार करने का स्वीडिश अकादमी या नोबेल
पुरस्कार के किसी प्रसंग से कोई लेना-देना नहीं है. दो वजहों का ज़िक्र मैंने वहां
किया है: एक तो व्यक्तिगत और दूसरे मेरे अपने वस्तुनिष्ठ उद्देश्य.
मेरा प्रतिषेध आवेशजनित नहीं है. निजीतौर पर मैंने आधिकारिक
सम्मानों को हमेशा नामंजूर ही किया है. 1945 में युद्ध के बाद मुझे लिजन ऑफ़ ऑनर (Legion of
Honor) मिला था. मैंने लेने से
इंकार कर दिया, यद्यपि मेरी
सहानुभूति सरकार के साथ थी. इसी तरह अपने दोस्तों के सुझाव के बावज़ूद भी ‘कॉलेज द फ़्रांस’ में घुसने की मेरी कभी चेष्टा नहीं रही.
इस नज़रिए के पीछे लेखक के जोख़िम भरे उद्यम के प्रति मेरी
अपनी अवधारणा है. एक लेखक जिन भी राजनैतिक, सामाजिक या साहित्यिक जगहों पर मोर्चा लेता है, वहां वह अपने नितांत मौलिक साधन- यानी ‘लिखित शब्दों’ के साथ ही मौज़ूद होता है. वे सारे सम्मान जिनकी वजह से उसके
पाठक अपने ऊपर दबाब महसूस करने लगें, आपत्तिजनक हैं. बतौर ज्यां-पाल सार्त्र के दस्तख़त या नोबेल पुरस्कार विजेता
ज्यां-पाल सार्त्र के दस्तखतों में भारी अंतर है.
एक लेखक जो ऐसे सम्मानों को स्वीकार करता है, वस्तुतः खुद को एक संघ या संस्था मात्र में
तब्दील कर देता है. वेनेजुएला के क्रांतिकारियों के प्रति मेरी संवेदनाएं एक तरह
से मेरी अपनी प्रतिबद्धताएँ हैं, पर यदि मैं नोबेल
पुरस्कार विजेता, ज्यां-पाल
सार्त्र की हैसियत से वेनेजुएला के प्रतिरोध को देखता हूँ तो एक तरह से ये
प्रतिबद्धताएँ नोबेल पुरस्कार के रूप में एक पूरी संस्था की होंगी. एक लेखक को इस
तरह के रूपांतरण का विरोध करना चाहिए, चाहें वह बहुत सम्मानजनक स्थितियों में ही क्यों न घटित हो रहा हो, जैसा कि आजकल हो रहा है.
यह नितांत मेरा अपना तौर-तरीका है और इसमें अन्य विजेताओं
के प्रति किसी भी तरह का निंदा भाव नहीं. यह मेरा सौभाग्य है कि ऐसे कई सम्मानित
लोगों से मेरा परिचय है और मैं उन्हें आदर तथा प्रशंसा की दृष्टि से देखता हूँ.
कुछ कारणों का संबंध सीधे मेरे उद्देश्यों से जुड़ा है: जैसे,
सांस्कृतिक मोर्चे पर केवल एक-ही तरह की लड़ाई
आज संभव है- दो संस्कृतियों के शांतिपूर्ण सहअस्तित्व की लड़ाई. एक तरफ पूर्व है और
दूसरी तरफ पश्चिम. मेरे कहने का यह अभिप्राय भी नहीं कि ये दोनों एक-दूसरे को गले
से लगा लें- मैं भलीभांति इस सच को जानता हूँ कि ये दोनों संस्कृतियाँ आमने-सामने
खड़ीं हैं और अनिवार्य रूप से इनका स्वरूप द्वंद्वात्मक है- पर यह झगड़ा व्यक्तियों
और संस्कृतियों के बीच है और संस्थाओं का इसमें कोई दखल नहीं.
दो संस्कृतियों के इस विरोधाभास ने मुझे भी गहरे तक
प्रभावित किया है. मैं ऐसे ही विरोधाभासों की निर्मिती हूँ. इसमें कोई शक नहीं कि
मेरी सारी सहानुभूतियाँ समाजवाद के साथ हैं और इसे हम पूर्वी-ब्लॉक के नाम से भी
जानते हैं; पर मेरा जन्म और मेरी
परवरिश बूर्जुआ परिवार और संस्कृति के बीच हुई है. ये सब स्थितियां मुझे इस बात की
इज़ाज़त देती हैं कि मैं इन दोनों संस्कृतियों को करीब लाने की कोशिश कर सकूं. ताहम,
मैं उम्मीद करता हूँ कि “जो सर्वश्रेष्ठ होगा, वही जीतेगा.”
और वह है –समाजवाद.
इसलिए मैं ऐसे सम्मान को स्वीकार नहीं कर सकता जो
सांस्कृतिक प्राधिकारी वर्ग के ज़रिये मुझे मिल रहा हो. चाहें वह पश्चिम के बदले
पूर्व की ओर से ही क्यों न दिया गया हो, चाहें मेरी संवेदनाएं दोनों के अस्तित्व के लिए ही क्यों न पुर-फ़िक्र हों,
जबकि मेरी सारी सहानुभूति समाजवाद के साथ है.
यदि कोई मुझे ‘लेनिन पुरस्कार’
भी देता तब भी मेरी यही राय रहती और मैं इंकार
करता...जबकि दोनों बातें एकदम अलहदा हैं.
मैं इस बात से भी वाकिफ़ हूँ कि नोबेल पुरस्कार पश्चिमी खेमे
का साहित्यिक पुरस्कार नहीं है, पर मैं यह जानता
हूँ कि इसे कौन महत्त्वपूर्ण बना रहा है, और कौनसी वारदातें जो कि स्वीडिश अकादमी के कार्यक्षेत्र के बाहर है, इसे लेकर घट रही हैं –इसलिए सामयिक हालातों में यह सुनिश्चित हो जाता है कि नोबेल
पुरस्कार पूर्व और पश्चिम के बीच फांक पैदा करने के लिए या तो पश्चिम के लेखकों की
थाती हो गया है, या फिर पूरब के
विद्रोहियों के लिए आरक्षित है. यथा, ये कभी नेरुदा को नहीं दिया गया जो दक्षिण अमेरिका के महान कवियों में से हैं.
कोई इस पर गंभीरता से नहीं सोचेगा कि इसे लुइ अरागोन को क्यों नहीं दिया जाना
चाहिए जबकि वह इसके हकदार हैं. यह अफ़सोसजनक था कि शोलकोव की जगह पास्टरनक को
सम्मानित किया गया था, जो अकेले ऐसे
रूसी लेखक थे जिनका विदेशों में प्रकाशित काम सम्मानित हुआ जबकि अपने ही वतन में
यह प्रतिबंधित किया गया था.
दूसरी तरह से भी संतुलन स्थापित हो सकता था. अल्जीरिया के
मुक्ति संग्राम में जब हम सब “121 घोषणापत्र”
पर दस्तखत कर रहे थे, तब यदि यह सम्मान मुझे मिलता तो मैं इसे कृतज्ञतापूर्वक
स्वीकार कर लेता क्योंकि यह केवल मेरे प्रति सम्मान न होता बल्कि उस पूरे
मुक्ति-संग्राम के प्रति आदर-भाव होता जो उन दिनों लड़ा जा रहा था. लेकिन चीज़ें इस
दिशा में, इस तरह नहीं हुईं.
अपने उद्देश्यों पर चर्चा करते वक्त स्वीडिश अकादमी को
कम-अज-कम उस शब्द का ज़िक्र तो करना चाहिए था –जिसे हम ‘आज़ादी’ कहते हैं और जिसके कई तर्जुमें हैं. पश्चिम में
इसका अर्थ सामान्य व्यक्तिगत स्वतंत्रता के सन्दर्भों तक सीमित है- अर्थात एक ऐसी
ठोस आज़ादी जिसमें आपको एक जोड़ी जूते से अधिक पहनने और दूसरे के हिस्से की भूख हड़प
लेने का अधिकार है. अतः मुझे लगा कि सम्मान से इंकार करना कम खतरनाक है बजाय इसे
स्वीकार करने के. यदि मैं इसे स्वीकार कर लेता तो यह खुद को “उद्देश्यों के पुनर्वास” हेतु सौंपना होता. ‘फ़िगारो लिट्रेरिया’ में प्रकाशित लेख
के अनुसार, “किसी भी तरह के
विवादास्पद राजनैतिक अतीत से मेरा नाम नहीं जुड़ा था.” लेख का मंतव्य अकादमी का मंतव्य नहीं था और मैं जानता था कि
दक्षिणपंथियों में मेरी स्वीकारोक्ति को क्या जामा पहनाया जाता. मैं “विवादित राजनैतिक अतीत” को आज भी जायज़ ठहराता हूँ. मैं इस बात के लिए भी तैयार हूँ
कि यदि अतीत में मेरे कॉमरेड दोस्तों से कोई गलती हुई हो तो बेहिचक मैं उसे कुबूल
कर सकूं.
इसका यह अर्थ भी न लगाया जाए कि ‘नोबेल पुरस्कार’ बूर्जुआ मानसिकता से प्रेरित है, लेकिन निश्चित रूप से ऐसे कई गुटों में, जिनकी नस-नस से मैं वाकिफ़ हूँ, इसकी कई बूर्जुआ व्याख्याएँ जरूर की जायेंगी.
अंत में, मैं उस देय निधि
के प्रश्न पर बात करूँगा. पुरस्कृत व्यक्ति के लिए यह भारस्वरूप है. अकादमी
समादर-सत्कार के साथ भारी राशि अपने विजेताओं को देती है. यह एक समस्या है जो मुझे
सालती है. अब या तो कोई इस राशि को स्वीकार करे और इस निधि को अपनी संस्थाओं और
आंदोलनों पर लगाने को अधिक हितकारी समझे –जैसा कि मैं लन्दन में बनी रंग-भेद कमिटी को लेकर सोचता हूँ; या फिर कोई अपने उदार सिद्धांतों की खातिर इस
राशि को लेने से इंकार कर दे, जो ऐसे वंचितों
के समर्थन में काम आती. लेकिन मुझे यह झूठ-मूठ की समस्या लगती है. ज़ाहिर है मैं 250,000 क्राउंस की क़ुरबानी दे सकता हूँ क्योंकि मैं
खुद को एक संस्था में रूपांतरित नहीं कर
सकता –चाहे वह पूर्व हो या
पश्चिम. पर किसी को यह कहने का हक़ भी नहीं है कि 250,000 क्राउंस मैं यूं ही कुर्बान कर दूँ जो केवल मेरे अपने नहीं
हैं बल्कि मेरे सभी कॉमरेड दोस्तों और मेरी विचारधारा से भी तालुक्क रखते हैं.
इसलिए ये दोनों बातें- पुरस्कार लेना या इससे इंकार करना,
मेरे लिए तकलीफ़देह है.
इस पैगाम के साथ मैं यह बात यहीं समाप्त करता हूँ कि
स्वीडिश जनता के साथ मेरी पूर्ण सहानुभूति है और मैं उनसे इत्तेफ़ाक रखता हूँ.
(Jean-Paul Sartre explained his refusal to accept the Nobel Prize for Literature in a statement made to the Swedish Press on October 22, which appeared in Le Monde in a French translation approved by Sartre. The following translation into English was made by Richard Howard.)
(Jean-Paul Sartre explained his refusal to accept the Nobel Prize for Literature in a statement made to the Swedish Press on October 22, which appeared in Le Monde in a French translation approved by Sartre. The following translation into English was made by Richard Howard.)
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अनुवाद : अपर्णा मनोज
कथाकार, कवयित्री,अनुवादक
aparnashrey@gmail.com
अनुवाद : अपर्णा मनोज
कथाकार, कवयित्री,अनुवादक
aparnashrey@gmail.com
बहुत बढ़िया पत्र है ...और सही समय पर साझा किया आपने
जवाब देंहटाएंअपर्णा जी आपने बहुत अच्छा किया। यह महत्वपूर्ण पत्र आज के सन्दर्भ में बहुत सामयिक है ।
जवाब देंहटाएंसार्त्र का लेखन ही उनके लिए पुरस्कार था. किसी प्रकार के लालच से बचते हुए स्पष्ट सोच के साथ दिया गया उनका वक्तव्य तो प्रभावशाली है ही, अपर्णा ने इसका अनुवाद भी बहुत सहज और सुन्दर किया है.
जवाब देंहटाएंक्या शानदार अनुवाद है . दोनों हाथों से दाद !
जवाब देंहटाएंसाठ के दशक में जब ज्यां पाल सार्त्र छात्रों के आन्दोलन के साथ थे और उनकी गिरफ्तारी के लिये पुलिस भेजी गयी थी तो फ्रांस के राष्ट्रपति द' गाल ने उनकी गिरफ्तारी पर यह कहकर रोक लगायी थी कि सार्त्र का अर्थ फ्रांस की आत्मचेतना है और किसी राष्ट्र की आत्मचेतना को आप कैसे गिरफ्तार कर सकते हैं ?इससे बड़ा सम्मान एक लेखक के लिये दूसरा कुछ हो भी नहीं सकता ।
जवाब देंहटाएंअपर्णा जी को इस सामयिक महत्व की सामग्री के अनुवाद के लिये बहुत बहुत धन्यवाद
जवाब देंहटाएंअरुण जी !अक्सर इस गहमागहमी में ये प्रश्न उछल रहे हैं कि इमर्जेन्सी या अन्य कुत्सित घटनाओं के समय क्यो पुरस्कार नही लौताये गए ?मेरा जवाब होता है ,वह् पीदी भिन्न थी लेकिन आज के साहित्यकारों से क्यों कैफियत माँगी जा रही है कि उस समय पुरस्कार क्यों नही लौताये गए ?आज का निर्णय उनका है .
जवाब देंहटाएंबात मिर्च लगने की है इधर भी लगी है उधर भी लगी है । दर्द अपने अपने दवा अपनी अपनी । बेजुबान मुर्दे बोल रहे हैं और मुर्दे बनाने वाले खौल रहे हैं । जय हो ।
जवाब देंहटाएंयह उन दिनों की बात है जब हम नए-नए कॉलेज में दाखिल हुए थे. सदी आधी से अधिक गुजर चुकी है.सार्त्र के इस पत्र ने हमें उस जीवन को जीने के लिए दृष्टि दी थी जो हमारे स्वागत में खड़ी थी. ये वो दिन थे जब हम हर वक़्त अपनी बगल में सार्त्र को दबाये रखते थे. आपने सही वक़्त पर वे दिन याद दिलाये हैं. यही है सही अर्थ में पुनर्मूल्यांकन. अनुवाद बहुत सहज है. इस पोस्ट के लिए धन्यवाद.
जवाब देंहटाएंसामयिक। सटीक अनुवाद के लिए अपर्णा जी को बधाई।
जवाब देंहटाएंयह सही समय पर आया और सटीक अनुवाद है।कोई ऐसा पुरस्कार लेते समय उस लेखक की क्या मानसिकता होती है और लौटाते समय क्या ?क्या पुरस्कार ग्रहण करते समय लेखक के ध्यान में रहता है कि कभी उसे यह लौटाना भी पड़ सकता है ?फिर पुरस्कार कृति केंद्रित होता है या व्यक्तित्व और विचारधारा केंद्रित ?इसके लिए क्या लेखक स्वयं अपनी पुस्तक (कें) किसी फ़ार्म वगैरह को भर कर आवेदन करता है अथवा संस्थान स्वयं संज्ञान लेता है की अबकि कौन पुरस्कृत होगा?किन्ही दो लेखकों में से किसी एक को श्रेष्ठ सिद्ध करने के क्या कोई निर्धारित मानदंड होते हैं?किसी विरोध के लिए केवल पुरस्कार की वापसी भर पर्याप्त रहती है?सवाल ससुरे शैतान की आंत हुए जा रहे हैं और पुरस्कार लौटाने वालों की तादाद भी बढ़ती जा रही है।भाई लिखकर जो क्रान्ति अधूरी रह गयी थी अब बस उसे लिखे की मान्यता नकार कर हुई की हुई ।
जवाब देंहटाएं"दो संस्कृतियों के इस विरोधाभास ने मुझे भी गहरे तक प्रभावित किया है. मैं ऐसे ही विरोधाभासों की निर्मिती हूँ. इसमें कोई शक नहीं कि मेरी सारी सहानुभूतियाँ समाजवाद के साथ हैं और इसे हम पूर्वी-ब्लॉक के नाम से भी जानते हैं; पर मेरा जन्म और मेरी परवरिश बूर्जुआ परिवार और संस्कृति के बीच हुई है. ये सब स्थितियां मुझे इस बात की इज़ाज़त देती हैं कि मैं इन दोनों संस्कृतियों को करीब लाने की कोशिश कर सकूं. ताहम, मैं उम्मीद करता हूँ कि “जो सर्वश्रेष्ठ होगा, वही जीतेगा.” और वह है –समाजवाद."
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