साभार; वागीश झा |
देश में बढती वैचारिक कट्टरता और हिंसक साम्प्रदायिकता के
खिलाफ लेखकों का यह अखिल भारतीय जुटाव ऐतिहासिक है. साहित्य के इतिहास में साझे सरोकारों
को लेकर यह एकजुटता भक्ति काल (लगभग १३५० से १६५० ई.) और स्वाधीनता संग्राम के समय
दिखी थी. साहित्य पर इसका क्या प्रभाव पड़ेगा
उसका आकलन आगे होगा.
वरिष्ठ साहित्यकार और ख्यात पत्रकार विमल कुमार ने इस
प्रकरण के सभी पहलुओं पर विस्तार से लिखा है और जो सवाल उठायें गए हैं भरसक उनके उत्तर
भी देने की कोशिश की है. इस मुद्दे पर
कहीं भी कुछ लिखने – बोलने और राय बनाने से पहले इस आलेख को एक बार अवश्य पढ़ना चाहिए.
कितने अंधेरों में
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विमल कुमार
विमल कुमार
यह देश के इतिहास में ही नहीं, संभवतः विश्व के इतिहास की पहली घटना है जब इतनी बड़ी संख्या में लेखकों ने अकेडमी पुरस्कार
लौटाएं और पदों से इस्तीफे दिए हैं. मेरी
जानकारी में करीब तैतीस लेखकों ने अबतक अकेडमी पुरस्कार और करीब दस से अधिक लेखकों ने राज्यों की अकेडमी के
पुरस्कार लौटाएं हैं. संभव है कि अभी कुछ और लोग भी लौटाएं. बंगाल के करीब सौ
लेखकों ने राष्ट्रपति को पत्र लिखकर देश में बढ़ती साम्प्रदायिकता और अभिव्यक्ति की आजादी के बढ़ते खतरे पर चिंता जताई है. उधर
कोंकणी के लेखकों ने आन्दोलंन करने की बात
कही है. दो ज्ञानपीठ लेखकों केदारनाथ सिंह और कुंवर नारायण तथा
व्यास सम्मान से सम्मानित विश्वनाथ त्रिपाठी तथा दो साहित्य- अकादेमी पुरस्कार प्राप्त लेखक काशीनाथ सिंह और अरुणकमल ने भी पुरस्कार
लौटनेवाले लेखकों का समर्थन किया है और इस लडाई में सबको शामिल होने की भी बात की
है लेकिन मुझे नहीं लगता कि इस लडाई के तत्काल नतीजे निकलेंगे लेकिन मैं विष्णु
खरे की तरह इस को खारिज भी नहीं करता हूँ.
ज्ञानेद्रपति ने भी कहा है कि
वक़्त आने पर वे भी पुरस्कार लौटा देंगे फ़िलहाल वह साहित्य अकेडमी को कमजोर नहीं करना चाहते हैं.
गिरिराज किशोर भी यही बात कह रहें हैं लेकिन वह यह आशंका भी व्यक्त कर रहे है
कि अकेडमी को सरकार कब्जे में कर लेगी. यही आशंका काशीनाथ सिंह की भी है, पर उन्होंने अकेडमी पुरस्कार लौटा दिया है. नामवर
जी का बयान हौसला अफजाई करनेवाला नहीं है. लेकिन उन्होंने विरोध के अन्य तरीके
अपनाने की बात कही है, यही बात तो साहित्य अकेडमी के अध्यक्ष भी कह रहें हैं
और सरकार के मंत्री भी .
विनोद कुमार शुक्ल और अलका सरावगी तथा मृदुला गर्ग पुरस्कार लौटने के पक्ष में नहीं हैं कुछ ऐसी ही बात चंद्रकांत देवताले ने भी कही है पर ये सभी मोदी सरकार में व्याप्त स्थितियों की आलोचना भी कर रहे हैं अभी तक गोविन्द मिश्र, सुरेन्द्र वर्मा, रमेशचन्द्र शाह और मंज़ूर एह्तशाम का कोई बयान मुझे देखने को नहीं मिला है. लेकिन मैं उन सभी लोगों को धन्यवाद देता हूँ जिन्होंने ये पुरस्कार लौटाए. उनके प्रति मेरे मन में इज्ज़त बढ़ गयी है यह जानते हुए कि उनमे से कई लेखक वामपंथी नहीं हैं और वे कलावादी या ढुलमुल स्टैंड लेते रहे हैं लेकिन वे सभी हमारी लडाई में साथी हैं.
जिन लोगों ने पुरस्कार नहीं लौटाए उन्हें मैं किसी नैतिक कठघरे में भी खड़ा नहीं करता हूँ. महज पुरस्कार लौटना ही विरोध दर्ज करने की कोई कसौटी नहीं है रचनाकार के लिए. मैं अपने मित्र एवं प्रिय कहानीकार उदय प्रकाश को विशेष धन्यवाद देता हूँ जिन्होंने इसकी शुरुआत की. अशोक वाजपेयी भी धन्यवाद के काबिल हैं जिन्होंने अपनी वाम विरोधी दृष्टि के बावजूद एक अच्छा कदम उठाया लेकिन जिन लोगों ने पुरस्कार लौटाने वालों का मजाक उड़ाया है उनकी मैं घोर निंदा करता हूँ. फेसबुक पर ऐसी कई टिप्पणियां मैंने देखी हैं जिस से उन लोगों की घटिया मानसिकता का पता चलता है. मैं मोरवाल को भी बधाई देता हूँ कि उन्होंने इंदु शर्मा कथा सम्मान लौटा कर एक जरूरी काम किया है.
विनोद कुमार शुक्ल और अलका सरावगी तथा मृदुला गर्ग पुरस्कार लौटने के पक्ष में नहीं हैं कुछ ऐसी ही बात चंद्रकांत देवताले ने भी कही है पर ये सभी मोदी सरकार में व्याप्त स्थितियों की आलोचना भी कर रहे हैं अभी तक गोविन्द मिश्र, सुरेन्द्र वर्मा, रमेशचन्द्र शाह और मंज़ूर एह्तशाम का कोई बयान मुझे देखने को नहीं मिला है. लेकिन मैं उन सभी लोगों को धन्यवाद देता हूँ जिन्होंने ये पुरस्कार लौटाए. उनके प्रति मेरे मन में इज्ज़त बढ़ गयी है यह जानते हुए कि उनमे से कई लेखक वामपंथी नहीं हैं और वे कलावादी या ढुलमुल स्टैंड लेते रहे हैं लेकिन वे सभी हमारी लडाई में साथी हैं.
जिन लोगों ने पुरस्कार नहीं लौटाए उन्हें मैं किसी नैतिक कठघरे में भी खड़ा नहीं करता हूँ. महज पुरस्कार लौटना ही विरोध दर्ज करने की कोई कसौटी नहीं है रचनाकार के लिए. मैं अपने मित्र एवं प्रिय कहानीकार उदय प्रकाश को विशेष धन्यवाद देता हूँ जिन्होंने इसकी शुरुआत की. अशोक वाजपेयी भी धन्यवाद के काबिल हैं जिन्होंने अपनी वाम विरोधी दृष्टि के बावजूद एक अच्छा कदम उठाया लेकिन जिन लोगों ने पुरस्कार लौटाने वालों का मजाक उड़ाया है उनकी मैं घोर निंदा करता हूँ. फेसबुक पर ऐसी कई टिप्पणियां मैंने देखी हैं जिस से उन लोगों की घटिया मानसिकता का पता चलता है. मैं मोरवाल को भी बधाई देता हूँ कि उन्होंने इंदु शर्मा कथा सम्मान लौटा कर एक जरूरी काम किया है.
इस पूरे प्रसंग में कुछ तथ्यों को जान लेना जरूरी है क्योंकि बहुत सारे तथ्य अभी
मीडिया के सामने आये नहीं हैं. शायद इसलिए कई लोग गलत बयानी भी कर रहे हैं.
कलबुर्गी की हत्या ३१ अगस्त को होती है और साहित्य अकेडमी की नींद एक महीने बाद
टूटती है और उनकी स्मृति में धारवाड़ में शोक सभा ३० सितम्बर को होती है जबकि उदय प्रकाश ४
सितम्बर को ही अकेडमी पुरस्कार लौटा देते हैं, क्या साहित्य अकेडमी की संवेदनशीलता
ख़त्म हो गयी थी या वह वर्तमान सरकार से इतनी डरती है कि इतनी देर से वो शोकसभा
करती है. आमतौर पर एक मैंने अबतक अकेडमी को एक हफ्ते या दस दिन के भीतर ही शोक सभाएं करते देखा है और ये तो हत्या से हुई मौत है. अकेडमी को तो और
संवेदनशील होना चाहिए था. लेकिन जब १६
सितम्बर को विश्वनाथ त्रिपाठी के नेतृत्व में ११ सदस्यीय प्रतिनिधिमंडल
साहित्य अकेडमी के अध्यक्ष से मिलकर कलबुर्गी की हत्या पर दिल्ली में शोक सभा की
मांग करता है तो अध्यक्ष उनकी मांग को ख़ारिज कर देते हैं.
क्या साहित्य अकेडमी का कोई नियम है कि दिल्ली से बाहर रहनेवाले लेखकों की
स्मृति में शोक सभा दिल्ली में नहीं हो सकती है. लेकिन साहित्य अकेडमी ने दिल्ली
से बाहर रहनेवाले लेखकों की स्मृति में भी
सभाएं की है. आखिर अध्यक्ष किस बात से डरे हुए थे. अगर उन्हें भी डर था कि शोक सभा
करने से कलबुर्गी की तरह वह भी
सांप्रदायिक ताकतों के शिकार हो जायेंगे तो वह यह आशंका जाहिर करते. क्या वह इसलिए
नहीं करना चाहते थे कि भाजपा सरकार नाराज़ हो जायेगी. वह निर्वाचित अध्यक्ष हैं सरकार
द्वारा नियुक्त तो नहीं कि उनकी नियुक्ति खतरे में पड़ जाये. वह साहित्य अकेडमी की स्वायत्ता की बात कह रहे है लेकिन क्या शोक सभा आयोजित होने से अकेडमी की स्वायत्ता के भंग होने का कोई खतरा उन्हें नज़र
आ रहा था. चलिए हम थोड़ी देर के लिए ये भी मान लेते हैं कि उनसे भूल-चूक हो गयी पर वह तो अकेडमी पुरस्कार लौटाने वालों में से कुछ को आपातकाल का समर्थक
बताने लगे यह भी कहने लगे कि अकेडमी ने लेखक की किताब को भारतीय भाषाओँ में अनुवाद करा कर उसे कीर्ति प्रदान की है. इस से
तो ययह भी पता चलता है वह लेखकों का सम्मान
करना नहीं जानते ..
आखिर लेखक ने तो पुरस्कार पाने के लिए कोई आवेदन नहीं किया था और न अपनी किताब
का अनुवाद करने के लिए कोई अनुरोध किया था तो फिर उन्हें ऐसी बात नहीं कहनी चाहिए,
फिर उन्होंने यह भी कहा कि लोग पुरस्कार लौटकर राजनीति कर रहे है लेकिन उन्हें इस बात को समझना चाहिए कि देश के कोने-कोने
से लोग संस्था के राजनीतिकरण के लिए पुरस्कार नहीं लौटा रहे थे.
वे अख़बार की सुर्ख़ियों के लिए
पुरस्कार लौटा रहे थे जैसा कि नामवर जी ने यूनीवार्ता से बातचीत में यह बात
कही. क्या नयनतारा सहगल और कृष्णा सोबती अख़बार कि सुर्ख़ियों में आने के लिए कदम
उठा रही थी, अगर अख़बार में नाम आने के लिए
इन लेखकों ने ऐसा किया तो यशपाल की कहानी ‘अख़बार में नाम’ की याद आना स्वाभाविक है
जिसमे एक बच्चा मोटर के नीचे इसलिए आ जाता
है की वह अख़बार में अपना नाम देखना चाहता है. यह सही है कि अंगरेजी के अख़बार
हिन्दी के लेखकों को भाव नहीं देते हैं और उनके जीने मरने की खबर भी नहीं देते
हैं. पुरस्कार लौटने वाले कई लेखकों के नाम वे नहीं छापते पर मीडिया के लिए यह एक अनहोनी
घटना थी शयद इसलिए उसने कुछ दिन तवज्जो दी लेकिन बाद में मीडिया भी ढीला पड़ गया. भाजपा के मंत्रियों के उलटे सीधे बयान छापने लगा जिसमे पुरस्कार लौटानेवलों पर हमले किये गए और यह कहा गया कि लेखकों ने ये
पुरस्कार पहले क्यों नहीं लौटाए तब तो इस तर्क से ये भी कहा जा सकता है कि टैगोर
ने जलियांवाला काण्ड की घटना पर सर की उपाधि क्यों लौटाई उस से पहले क्यों नहीं
लौटाई. ये भी तर्क दिया जा सकता है कि भक्तिकाल के लेखकों ने भी कोई दरबार में
विद्रोह क्यों नहीं किया, १८५७ की लडाई में
कितने लेखक आगे आये.
अरुण जेटली ने इसे कागजी क्रांति कहा लेकिन उन्हें भी कागजी नेता कहा जा सकता
है क्योंकि वे जमीनी नेता तो नहीं. खुद तो चुनाव नहीं जीत पाते हैं. रविशंकर
प्रसाद ने कहा कि आपातकाल में लेखकों ने पुरस्कार क्यों नहीं लौटाए जबकि उन्हें
मालूम है कि रेणु जी ने पद्मश्री लौटाया कई लेखक जेल गए कई लेखकों ने विरोध
में रचनाएँ लिखी जिसमे धर्मवीर भारती और भवानी बाबू शामिल हैं.
८४ के दंगों के विरोध में खुशवंत सिंह ने पद्मभूषण लौटा दिया था
इसके अलावा तीन और लेखको ने भी विरोध में पुरस्कार लौटाए और यह ख़बरें मीडिया में
आयीं लेकिन संस्कृति मंत्री ने तो लेखकों को लिखना बंद करने की बात की है, फिर यह कहा
कि ये कानून व्यस्था तो राज्य की जिम्मेदारी है. अगर सबकुछ राज्य की जिम्मेदारी है
तो केंद्र ‘भूमि अधिग्रण’ कानून क्यों बना रहा था. विकास भी राज्य की ही
जिम्मेदारी है लेकिन स्मार्ट सिटी से लेकर सफाई अभियान भी केंद्र चला रहा है.
इस पूरे प्रकरण में शशि थरूर भी लेखकों को नसीहत देने लगे कि पुरस्कार का
सम्मान किया जाना चाहिए लेकिन जब अकेडमी खुद कलबुर्गी का सम्मान नहीं कर रही तो
लेखक क्या करें अगर वे पुरस्कार नहीं लौटाते है तो लोग कहते है कि लेखक पुरस्कार
से चिपके हैं अगर वे लौटते हैं तो उन्होंने पुरस्कार का असम्मान किया, फिर यह भी कहा
जाता है कि विरोध के और भी तरिके हैं.
अगर लेखक धरना दे तो पुलिस उसे उठा लेती है, पकड़ लेती है, लाठी से
पिटाई करती है, आमरण अनशन करे तो गिरफ्तार कर लेती है, साहित्य अकेडमी के सामने
नारेबाजी करे तो यह लेखकों का अशिष्ट व्यवहार
माना जता है. विरोध में कविता
कहानी लिखों तो सरकार के कानों पर जू तक
नहीं रेंगती. नक्सली कह कर पुलिस जेल में डाल
देती है इसलिए साहित्य अकेडमी को यह बताना चाहिए कि लेखक किस तरह विरोध
प्रकट करे, फिर ये भी तर्क दिया गया कि साहित्य अकेडमी को बचाना जरूरी है लेकिन
किसी ने या नहीं कहा कि संवेदनशीलता को बचाना अधिक जरूरी है.
जब देश और समाज ही नहीं बचा तो साहित्य अकेडमी के बचने से क्या लाभ होगा. कुछ
लोगों को अकेडमी से पुरस्कार, यात्रा, सेमीनार आदि की उम्मेदे हैं कुछ को किताबों
के प्रकाशन की उम्मीद है शायद वे इसलिए इसे कमजोर नहीं करना चाहते हैं. मैं भी
चाहता हूँ कि अकेडमी बचे लेकिन इस अकेडमी को
अब गंभीर लेखकों की जरूर नहीं है. पिछले दस पंद्रह सालों में अकेडमी की साख काफी
गिरी है. इस पूरे प्रकरण में कई लोगों की कलई भी खुल गयी और पता चल गया कि उनके
क्या दृष्टिकोण हैं. मैं भी यह नहीं मानता हूँ कि पुरस्कार लौटकर लेखकों ने कोई
शहादत दी है पर इन लेखकों ने कम से कम आवाज़ तो बुलंद की. मुझे केकी एन दारूवाला
की अध्यक्ष को लिखी गयी चिठ्ठी अच्छी लगी जिसका आशय यह है कि मैं भ्रष्ट युपीए- दो का प्रशंसक नहीं
हूँ पर इस देश में एम. ऍफ़ हुसैन और तसलीमा नसरीन के संदर्भ में कट्टरपंथी ताकतों
के आगे भाजपा और वाम दलों को झुकते देखा है.
दरअसल इस देश को खतरा इन्हीं
कट्टरपंथी ताकतों से है और चुनावी राजनीति ने समाज का जाति और धर्म के आधार पर
बुरी तरह ध्रुवीकरण कर दिया है. मोदी सरकार ने इसे और बढ़ाने का काम किया है. लेखकों
के प्रतिरोध को व्यापक परिप्रेक्ष्य में देखने की जरूरत है. यह केवल कलबुर्गी की
हत्या का मामला नहीं. पिछले डेढ़ वर्षों में जिस तरह का माहौल बना है वो बहुत घुटन
भरा है लेकिन ये कहने का अर्थ यह नहीं कि कांग्रेस के कार्यकाल में सब कुछ अच्छा
था. आज जैसे ही आप भाजपा कि आलोचना करो वेवह आपको कांग्रसी बता देते है जैसे पहले कांग्रस की आलोचना करो तो वह आपको साम्प्रदायिक और
भाजपाई बता देते थे. मुझे लगता है कि आनेवाले दिन और अंधेरों से भरें होंगे
और फासीवाद ताकतें बढेंगी क्योंकि अब विपक्ष के नाम पर कोई तीसरी ताक़त दिखाई नहीं
देती. ऐसे में लेखकों को एकजूट होने की जरूरत है. बीस तारीख को जलेस-प्रलेस-जसम-प्रेस
क्लब -भारतीय महिला प्रेस कोर- दलित लेखक संघ आदि ने एक सम्मलेन रखा है और २३ को
मौन मार्च. बेहतर होगा हम अपने मतभेदों को भुलाकर इस लडाई में शामिल हों और फेसबुक
पर हलकी टिप्पणियां न करें .
विमल जी, जरूरी लेख। उदयप्रकाश जी ने जरूरी पहल की। मुझे लगता है कि इस आंदोलन से अकादमिक हलकों और विद्यार्थियों का जुड़ना भी बहुत जरूरी है।
जवाब देंहटाएंबहुत बेबाक और तथ्यपूर्ण लेख के लिए विमल जी का आभार! लेकिन जिन्हें लेखकों या यह प्रतिरोध नहीं सुहा रहा वे भला इन बातों पर क्यों ग़ौर करेंगे?
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (18-10-2015) को "जब समाज बचेगा, तब साहित्य भी बच जायेगा" (चर्चा अंक - 2133) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बेहद ज़रूरी विचार.. इस बीच कई मंचों पर फुटकर ढंग से इस घटनाक्रम के विरोध में कुछ बेहद सतही विचारकों को सुन कर कोफ़्त हो रही है. कुछ लोग तो शायद इस प्रत्याशा में सभी बड़े साहित्यकारों की चिंताओं का, उनके विरोध का विरोध कर रहे हैं कि जैसे लौटाये हुए पुरस्कार अपने लिए लपकने का उनके लिए स्वर्णिम अवसर सामने आ गया हो.. लेखकों को एक साथ आना ही चाहिए.
जवाब देंहटाएंलेकिन प्रश्न ये है कि इन सभी लोगों को ये सांप्रदायिक दंगे इन्हीं डेढ़ साल में क्यों दिखाई दे रहे हैं इससे पहले क्यों नहीं दिखाई देते थे?
जवाब देंहटाएंविमल कुमार जी का लेख न केवल तथ्यपरक है बल्कि एक दिशा भी देता है । बधाई इस महत्वपूर्ण लेख के लिए
जवाब देंहटाएंएक टिप्पणी भेजें
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