परिप्रेक्ष्य : लेखन और आत्माभिव्यक्ति : वन्दना शुक्ला


       लेखन और  आत्माभिव्यक्ति                   
वन्दना शुक्ला

एक पुरानी कहावत है ‘’चमत्कार को नमस्कार’’....आशय यही है कि चाहे विचारधारा हो,कोई अन्वेषण हो, या अभूतपूर्व प्रयोग, नया सदैव स्वागत योग्य है,बशर्ते कि उसमे लोकप्रिय होने का माद्दा हो. ये सच है, कि  नवीन प्रयोग रचयिता की कल्पना-शक्ति की ऊंचाई का बोध कराते  हैं लेकिन उतना ही सच यह भी है, कि सिर्फ नया यानी अ-भूतपूर्व’’के बल बूते पर कालजयी हो जाना असंभव है. टिकता वही है जो वास्तव में पुख्ता, संग्रहणीय पाठक या श्रोता के ह्रदय को स्पर्श करने की काबीलियत रखता होकहानी में कविता की महक और कविता में कहानी की छटा और एक दूसरे में उनकी सहज आवा-जाही निस्संदेह शिल्पगत चातुर्य और बौद्धिक अन्वेषण का ही एक स्वरुप है

कुछ वर्षों पूर्व जब सुप्रसिद्ध कथाकार ज्ञानरंजन कहते हैं- “केवल एक कहानी संबंध को छोड़करजिसे मैंने कई बार कविता की तरह पढ़ा हैशायद उसे अभी भी पढ़ सकता हूं.“(सबद से साभार) निस्संदेह  वे विधा की इस ‘’मौलिकता’’ के टिकाउपन की ही बात कर रहे होते हैं. रंगमंच में भी नित नए प्रयोग हो रहे हैं . भि‍खारी ठाकुर के अभि‍नेता अपने हाथ की लाठी को काँधे पर रखते तो वह बन्‍दूक बन जाती और धरती से टि‍काते तो हल. प्रोबीर गुहा के नमकीन पानी में एक अभि‍नेत्री के पेट से लाल वस्‍त्र नि‍काल उसे चबाने का नाट्य करता अभि‍नेता स्‍त्रीभ्रूण हत्य का अद्भुत  दृश्‍य रचता है ..(प्रसिद्द रंग-समीक्षक हृषिकेश सुलभ जी से बातचीत का एक अंश ).....

मौलिकता का अर्थ आखिर क्या है?रचनाकार ,ब्रह्माण्ड का ही एक हिस्सा होता है,इस सृष्टि  में से ही वो विषय वस्तु चुनता है,जिसके साक्षी हम सभी होते हैं,यानि स्रष्टि में पहले से उपस्थित तत्व या विषय को रचनाकार सिर्फ अभिव्यक्ति देता है वो एक माध्यम होता हैवस्तुतः मनुष्य की उपलब्धियां, उसके अनवरत संघर्ष का ही नतीजा हैं, जो वो व्यक्तिगत,जातिगत,और सामूहिक रूप में भोगता हैलेखन परिस्थितियों के बरक्स एक आत्म संघर्ष है जिसका बड़ा हिस्सा लेखक के अपने अनुभवों पर आधारित होता है. इमरे कर्तेज़ जब फेटलेस ‘’उपन्यास में अपने अनुभव को इस प्रकार व्यक्त करते हैं

एक अकेले कमरे में
थकी हुई बोझिल ऑंखें
आवाज़ भर्रा गई है सांस रुक गई है
अँधेरा ही इन दिनों की याद है
कत्लगाह में लाखों सूरज
डूबते चले जा रहे हैं,
तुम इस बंदीगृह में
कब तक रहोगे..?

एक एक पंक्ति, एक दृश्य खड़ा करती  है आँखों के सामने .लेखक की मनःस्थिति और पीड़ा की गहन अभिव्यक्ति है ये. उल्लेखनीय है कि हंगरी के साहित्यकार इमरे कर्तेज़ ने लोमहर्षक अत्याचारों को  ना सिर्फ खुद भुगता बल्कि उसे दुनियां के सामने लाए इन सबके बावजूद उन्होंने मानवीयता के बचे रहने का विश्वास व्यक्त किया.

एक ही देश या समाज एक समय में एक जैसी स्थितियों का गवाह होता है भोगता है लेकिन लेखक की लेखनी या शब्दों में गुंथी दास्तान ही किसी देश और काल का इतिहास बनती है जो कालगत सीमाओं से मुक्त होती हैफिलीस्तीन के मशहूर लेखक महमूद दरवेश देश समाज में व्याप्त अन्याय और अराजकता की घुटन को इन शब्दो में व्यक्त करते हैं  अपने कविता संग्रह जैतून के पत्ते में लिखते हैं

लिखो कि
मै अरब हूँ ,
मेरा कार्ड नंबर है 50,000
मेरे आठ बच्चे हैं,और नवें का इंतज़ार है
क्या तुम्हे इस बात पर गुस्सा है?
लिखो,कि मै अरब हूँ
अपने साथी मजदूरों के साथ मै,
पत्थर काटता हूँ
मै चट्टान को निचोडकर रख देता हूँ.......
अंत में वो लिखते हैं...
और लिख लो /सबसे बढ़कर
मै किसी से नफरत नहीं करता
मै किसी को लूटता नहीं
लेकिन जब मै भुखमरी का शिकार होता हूँ
मै अपने हमलावरों के चिथड़े नोचता हूँ
मेरी भूख से सावधान रहो
मेरे गुस्से से बचो.

मार्खेज़ लेखन को एक तनहा पेशा मानते हैं .’....तनहा से तात्पर्य न सिर्फ आत्मकेंद्रित हो लेखन करना बल्कि बाह्य आडम्बरों,दिखावे और प्रसिद्धि की भूख से विलगता  भी है. गौरतलब है कि ज्यां पाल सात्र ने नोबेल पुरूस्कार लेने से इनकार कर दिया था उनका मानना था कि लेखक को किसी संस्था से संबद्ध नहीं होना चाहिए .विश्व प्रसिद्ध कृति ‘’डॉक्टर जिवागो’’के लेखक बोरिस पास्तरनाक और ‘’वोटिंग फॉर गोदोत’’के लेखक सेम्युअल बेकेट ने भी नोबेल पुरूस्कार लेने से इनकार कर दिया था .हिंदी की सुप्रसिद्ध वरिष्ठ लेखिका कृष्णा सोबती ने व्यास सम्मान ठुकरा दिया था. वहीं,1966 की ज़र्मन यहूदी कवियत्री नेली जाख्स ने नोबेल पुरूस्कार की आधी राशि और अपनी पुस्तकों से होने वीली आय सभी धर्मों के अनाथ और बेसहारा बच्चों को दान कर दी थी. हलाकि पुरूस्कार मिलना या उसे ठुकरा देना ना तो उत्कृष्टता की गारंटी होता है और ना ही किसी अच्छे साहित्यकार का मापदंड  (क्यूँ कि वजहें अलग हो सकती हैं.)बावजूद इसके नोबेल जैसा विश्व का सर्वोपरि और सम्मानीय पुरूस्कार ना लेने का निर्णय आधुनिक मानसिकता के सन्दर्भ में  दुस्साहस पूर्ण और कुछ विस्मयकारी घटना तो है ही.

सुप्रसिद्ध लेखक उपेन्द्र नाथ अश्क के लिए पुरस्कार मिलना ना मिलना कोई मायने नहीं रखता .वे कहते हैं ‘’ सच्चे और खरे लेखक के सामने अपने आप को दूसरों द्वारा पहचनवाने की समस्या ही नहीं होती .’’यहाँ ज़िक्र करना तर्क संगत होगा चिली के लेखक नेफ्ताली रिकार्डो रेइस बसाल्तो यानी पाब्लो नेरूदा का जिन्हें प्रकाशक ना मिलने की स्थिति में  अपनी प्रथम कविता पुस्तक अपने घर का फर्नीचर और पिता द्वारा दी गई घड़ी बेचकर अपने खर्च पर प्रकाशित करवानी पडी थी, और बीस वर्ष की आयु तक नेरुदा चिली के श्रेष्ठ लेखकों में गिने जाने लगे थे. लेखक ही क्यूँ एपिल के संस्थापक तकनीकी गुरु /आविष्कारक स्टीव जोब्स के जीवन का एक वक़्त ऐसा था जब भोजन के किये उन्होंने ‘’हरे राम हरे कृष्ण’’सम्प्रदाय को स्वीकार किया था,जहाँ एक भक्त होने के नाते उन्हें मुफ्त भोजन उपलब्ध हो जाता था. सार-संक्षेप यही कि  प्रसिद्धि या प्रतिभा किसी पुरूस्कार या किसी के रहमोकरम की मोहताज़ नहीं होती .(हमारे यहाँ हलाकि इसको भाग्य या पूर्व कर्मों से जोड़ने की परम्परा है ये अलग बात है).

लेखन एक नजरिया है ....

कोई भी सृजन  जो  किसी उथले या सतही  महत्वाकांक्षाओं से नहीं उपजा  हैवास्तव में  सर्जक  की आतंरिक संचेतना के बीज  से ही जन्मता है  .हर सर्जक  व्यक्तिपरक एक मौलिक   रचना संसार बुनता है ,जगत को अलग दृष्टि से देखता है.निस्संदेह वो उसकी पारिवारिक,सामाजिक ,राजनैतिक और भौगोलिक प्रष्ठभूमि और संचित अनुभवों का  आइना ही होते हैं उनका अपना नजरिया होता है .जैसे प्रसिद्द द ग्रेट रेलवे बाज़ार यात्रा-वृत्तान्त के लेखक पौल थरू जो एक ओर लेखन के लिए यायावरी को ज़रूरी मानते हैं वहीं दूसरी ओर, वही यायावरी  के दौरान उन्हें लगभग हर जगह नकारात्मकता के ही दर्शन होते हैं,वहीं लन्दन में बसे भारतीय लेखक वी.एस.नायपाल जिन्होंने ,भारत  के सम्बन्ध मे तीन किताबें लिखीं ‘’एन एरिया ऑव डार्कनेस’’,’’इण्डिया; अ वूदेंड सिविलईजेशन ‘’और ‘’इण्डिया;ए मिलियन म्युतिनीज़ नाऊ ‘’पहली और दूसरी किताबों में उन्होंने भारतीय संस्कृति और जीवन की तीव्र आलोचना की परन्तु तीसरी किताब में उन्होंने अपना रुख मुलायम करते हुए लिखा कि ‘’अनेक संघर्षों के कारन देश को अनेक कठिनाइयाँ झेलनी पड़ीं,परन्तु उसकी आत्मा जीवित है ‘’. हाल में शाह आलम कैम्प की रूहें’’जैसे कहानी संग्रह के सुप्रसिद्ध लेखक असगर वजाहत द्वारा लिखा गया यात्रा वृत्तान्त पाकिस्तान का मतलब क्या?’’..(नया ज्ञानोदय में प्रकाशित’’)अद्वितीय वृत्तान्त है,पाकिस्तान का नाम सुनते ही एक अजीब अराजकता और राजनीतिक  या कट्टरवादी कुव्यवस्था की तस्वीर ज़ेहन में उभरती है लेकिन लेखक ने उसमे ना सिर्फ वहां की भव्यता,व धनाद्य्ता का वर्णन किया बल्कि उच्च वर्ग को सुसंस्कृत व कला प्रेमी बताया है  उसकी तुलना दिल्ली के उच्च वर्गीय तबके के कला प्रेमियों की संकीर्ण मानसिकता से भी की है वहां की कमियों को भी उन्होंने अपने अंदाज़ में बयाँ किया.

दरअसल किसी एक , कलाकृति या रचना  के कई अर्थ या व्याख्याएं हो सकती हैं .किसी ने लिखा भी है ‘’आपकी जिंदगी का फलसफा किसी और से मिलता-जुलता हो,यह एक मुश्किल संयोग होता है ‘’.

सोद्देश्य और सार्थक रचनाएँ अधिक चर्चित होती हैं 

विश्व प्रसिद्द कृति  ''प्रौफेत''(जीवन-सन्देश) के लेखक खलील जिब्रान अंतर्राष्ट्रीय लेखकों की अग्रिम पांत के लेखक हैं.उनकी कहानियां मात्र आत्ममुग्धता,या आत्मरति के लिए नहीं बल्कि सांसारिक संत्रास,पीड़ा,दुःख और विषमताओं  का दिग्दर्शन हैंऐसे ही विश्व प्रसिद्द पुस्तक ''अल्केमिस्ट''के रचयिता लेखक पाओल कोएलो आज विश्व में सबसे ज्यादा पढ़े जाने वाले लेखकों में से एक हैं जिनके लेखन में मानव के जीवन बदल देने की अद्भुत क्षमता है ' समाज के बदरंग चेहरे से कमलेश्वर की कहानियां नकाब उतार देती हैं ...भूख गरीबी,पीड़ा का ह्रदय स्पर्शी वर्णन उनकी कहानियों की विशेषता है .कमलेश्वर की कहानी  ‘’राजा  निरबंसिया’’इसका अद्भुत उदहारण है. एक कहानी (किस्सागोई)और एक सच्ची घटना का समनांतर चलना एक सुगठित शिल्प रोचक कथ्य .

हिंदी के ठोस हस्ताक्षर भीष्म साहनी मानते हैं कि किसी रचना  का ज़न्म मात्र लेखक के मस्तिष्क से नहीं होता,वैसे ही रचना की उपादेयता भी मात्र लेखक के लिए नहीं होती.लेखक भले ही मर खप जाये,पर उसकी रचना ज़िंदा रह सकती है.प्रेमचंद के कफ़न से लेकर निर्मल वर्मा के परिंदे तक और ऐसी अनेकों अद्भुत रचनाएँ और उनके लेखक इसके ठोस प्रमाण हैं.  चन्द्रधर शर्मा गुलेरी सिर्फ एक कहानी ‘’उसने कहा था’’ से अमर हो गए .

मौलिकता से अर्थ नवीनता अत्यंत संकीर्ण हो जायेगा. निर्मल वर्मा के लिए कहा जाता है कि ‘’समय उनके यहाँ बीतता नहीं ,उपस्थित रहता है’’वस्तुतः किसी भी सशक्त और सार्थक रचना के लिए मौलिकता का यही मनोदर्शन है . लेखक सह्रदय व संवेदनशील होता है जीवन के टेढ़े मेढे रास्तों और तमाम अनुभवों को अपनी रचनाओं के माध्यम से व्यक्त करने के बाद भी कुछ रिक्तता बनी ही रहती है

कवि की अपनी सीमाएं हैं ,
कहता जितना कह पाता है ,
कितना भी कह डाले लेकिन ,
अनकहा अधिक रह जाता है ‘’
(शिव मंगल सिंह सुमन )

सुप्रसिद्ध रचनाकार कुंवर नारायण कहते हैं ,कि कविता जीवन से सादृश्य होनी चाहिए कि वह कितनी लाईफ सपोर्टिंग है लेकिन संभवतः यह भी लेखक की खोजी द्रष्टि और जिज्ञासु प्रवृत्ति का नतीजा होता है कि जिंदगी ही नहीं म्रत्यु की भावी कल्पना भी कभी कभी उसकी रचनाओं का एक हिस्सा हो जाती  हैं वो जीवन और संसार के प्रति एक विरक्ति या पलायन में भी एक रस और उत्तेजनात्मक आनंद का अनुभव करता हैं . मृत्यु एक एतिहासिक तर्क है, सत्य है जीवन की तरह ,लेकिन उसका विचार अर्थात होना’’ हरेक की एक अलग अनुभूति हैं. अर्नेस्ट हेमिंग्वे जिनकी रचनाएँ अक्सर आत्मकथात्मक स्वरूप में होती हैं ,ने अपनी भावी म्रत्यु का वर्णन दो उपन्यासों में कर दिया था  वे थे दि स्नोज़ ऑफ किलिमंजारो’’तथा ‘’आ क्रोस दि रिवर एंड इंटू दि ट्रीज’’. ज्ञातत्व है कि इस वर्ष के नोबेल पुरूस्कार विजेता टॉमस ट्रांसट्रोमर ने भी  आत्मकथा द मेमोरीज़  आर वाचिंग मी’’लिखी . हलाकि टॉमस विरल विषयों के कवि हैं लेकिन म्रत्यु पर भी उन्होंने अपनी रचनाये लिखी हैं .स्टीव जोब्स कहते हैं ‘’अपनी म्रत्यु को याद रखना सबसे महत्वपूर्ण उपकरण है जिसने जिंदगी के हर बड़े चुनाव में मेरी मदद की है ...हमारे पास खोने को कुछ भी  नहीं ‘’.

मार्क्सवाद के प्रवक्ता पाब्लो नरूदा ,कामू,सार्त्र ,जैसे अनीश्वरवादी लेखकों के लिए लेखन जहाँ एक ज़द्दोजहद,एक आत्म संघर्ष और उससे जूझने की कटिबद्धता है तो खलील जिब्रान, अस्तित्व वाद के आस्थावादी दार्शनिक किर्केर्गाद ‘’वोटिंग फॉर गोदोत के लेखक सेम्युअल बेकेट , और टॉमस ट्रांसट्रोमर जैसे रचनाकारों के लिए आध्यात्म तक पहुँचने का ज़रिया. बेकेट कहते हैं ‘’सामाजिक सम्बन्ध,अपनी स्थिति के लिए संघर्ष,सुख आदि तो बाह्य समस्याएं हैं ,वास्तविक समस्या तो यह है कि हम इस संसार में क्यूँ आये हैं ?हमने ये ज़न्म क्यूँ लिया है? हम कौन हैं और हमारा वास्तविक स्वरुप क्या है?’’

अंत में
मै वहीं जाऊँगा
जहाँ निशीथ के एकांत अन्धकार में
चट्टानें विलाप करती हैं
जहाँ वृक्ष अपनी हरीतिमा के आच्छादानों के पार
सिसकते हैं
वहीं होगा मेरा ठिकाना
प्रार्थना और विलाप के बीच
बढ़ती हुई धुंध के नज़दीक
मृत्यु भी शायद वहां से ज्यादा दूर ना होगी
मै वहीं जाउंगा
(अशोक बाजपेई की कविता )








वंदना शुक्ला ::
कविताएँ, कहानियाँ और लेख.
ई पता : shuklavandana46@gmail.com


12/Post a Comment/Comments

आप अपनी प्रतिक्रिया devarun72@gmail.com पर सीधे भी भेज सकते हैं.

  1. वंदना , अभिव्यक्ति और लेखन पर बहुत सारगर्भित लेख ..
    लेखन एक तनहा पेशा है ..
    कलाकार भोगा हुआ जीवन उठाता है .. एक अनगढ़ पत्थर की तरह .. फिर उसे तराशता है ..
    वंदना की कलाकर दृष्टि भी कइयों तक जाती है ... दरवेश से ज्यां पाल सार्त्र .. लौटकर गुलेरी जी पर ..इमरे कर्तेज़ से हेमिंग्वे ..कृतियों और कृतित्व के बीच वे अनजाने में अपना एक अलग सुन्दर संसार बुन रही हैं , जो पाठक पर जाकर रुकता है .
    संग्रहणीय लेख . अरुण जी का आभार .

    जवाब देंहटाएं
  2. सच्चा लेखक पुरस्कार की लालसा से नहीं लिखता उसके केन्द्र में होता है जीवन
    और यह किसी बात भी रचना के लिये सर्वाधिक मह्त्वपूर्ण है.

    जवाब देंहटाएं
  3. कई मुद्दों को समेटने की अच्छी कोशिश की है वंदना ने. मुझे लगता है कि इन तीनों मुद्दों को एक दूसरे से अलग करके स्वतंत्र रूप से लिखा जाता तो बात अधिक खुलती, और उसी अनुपात में बनती भी. इसी चौखटे के भीतर भी थोडा और विस्तार देने से भी एक भरे-पूरे आलेख की शक्ल उभर कर आ सकती थी. हर मुद्दे के खुलासे के लिए उदहारण खूब सारे मिल जाते हैं, यहां-वहां. उदहारण के लिए पुरस्कारों के मुद्दे को ही देखा जा सकता है. राम विलास जी का उल्लेख भी किया जा सकता था, जहां उन्होंने धन राशि स्वीकार न करके उसके वैकल्पिक सामाजिक उपयोग(शिक्षा पर) की सिफारिश कर दी थी. कुल मिलाकर यह आलेख वंदना के अध्ययन का साक्ष्य प्रस्तुत करता है. इसे आधार बनाकर वह भविष्य में एक बेहतर रूप दे सकती हैं. वैसा करना कदाचित अधिक सार्थक होगा.

    जवाब देंहटाएं
  4. एक गंभीर और सारगर्भित विषय पर बहुत रोचक प्रस्तुतीकरण....

    जवाब देंहटाएं
  5. ‘’सामाजिक सम्बन्ध,अपनी स्थिति के लिए संघर्ष,सुख आदि तो बाह्य समस्याएं हैं ,वास्तविक समस्या तो यह है कि हम इस संसार में क्यूँ आये हैं ?हमने ये ज़न्म क्यूँ लिया है? हम कौन हैं और हमारा वास्तविक स्वरुप क्या है?’’

    अंत में –
    मै वहीं जाऊँगा
    जहाँ निशीथ के एकांत अन्धकार में
    चट्टानें विलाप करती हैं
    जहाँ वृक्ष अपनी हरीतिमा के आच्छादानों के पार
    सिसकते हैं
    वहीं होगा मेरा ठिकाना
    प्रार्थना और विलाप के बीच
    बढ़ती हुई धुंध के नज़दीक
    मृत्यु भी शायद वहां से ज्यादा दूर ना होगी
    मै वहीं जाउंगा
    (अशोक बाजपेई की कविता )..

    सारगर्भित आलेख...
    वन्दना जी!अच्छा लगा इसे पढ़ना..

    जवाब देंहटाएं
  6. बहुत ही सारगर्भित लेख लिखा है वंदना जी ने, सार्थक लेखन से जुड़े काफी पहलुओं को सम्मिलित किया गया है......बधाई

    जवाब देंहटाएं
  7. लेखन परिस्थितियों के बरक्स एक आत्म संघर्ष है जिसका बड़ा हिस्सा लेखक के अपने अनुभवों पर आधारित होता है.... वास्तव में एक अच्छा लेख या कविता, सम्यक शब्दों से पिरोई हुई लेखक की तात्कालिक मनस्थिति की परिणिति ही होती है!..बहुत प्रभावशाली लेख.. अभिव्यक्ति की सार्थकता के लिए दिए गए उदाहरण विशेष रूप से प्रशंसनीय हैं! . , वंदनाजी को बधाई! शुभकामनाएं! अरुणजी को धन्यवाद.

    जवाब देंहटाएं
  8. आप सभी की हार्दिक आभारी हूँ |आपको लेख अच्छा लगा लिखना सार्थक हुआ ...धन्यवाद |

    जवाब देंहटाएं
  9. बहुत ही रूचिकर और महत्वपूर्ण लेख लिखा है वंदना जी आपने। बहुत कुछ जानने समझने को मिला। बधाई... अरूण जी का बहुत आभार....

    जवाब देंहटाएं

एक टिप्पणी भेजें

आप अपनी प्रतिक्रिया devarun72@gmail.com पर सीधे भी भेज सकते हैं.