सहजि सहजि गुन रमैं : प्रत्यक्षा



















प्रत्यक्षा : 
२६ अक्टूबर, गया (बिहार),
शिक्षा रांची और पटना से
कहानीकार, कवयित्री
2008 में भारतीय ज्ञानपीठ से कहानी संग्रह जंगल का जादू तिल तिल प्रकशित.
दूसरी किताब की तैयारी
सभी प्रमुख हिन्दी साहित्यिक पत्रिकाओं में कहानियाँ
पावरग्रिड कॉर्पोरेशन ऑफ इंडिया लिमिटेड में मुख्य प्रबंधक वित्त, गुड़गाँव
ई-पता : pratyaksha@gmail.com


प्रत्यक्षा की युवा कविताएँ कहन और स्थापत्य में विशिष्ट हैं. यह हिंदी कविता का नया चेहरा है. भाषा के निविड़ वन–प्रान्तर में अर्थ की तलाश में निकले यायावर शब्दों का काफिला कविता के अब तक के सौंदर्य बोध से अतिरिक्त की मांग कर रहा है. सम्बन्धों के जटिलतर विन्यास को अपनी अलहदा काव्य–शैली में प्रत्यक्षा लिखती हैं. गुम्फित विचार श्रृंखलाएं और हरपल घट रहे का बिम्ब समुच्चय घन की चोट की तरह यहाँ उपस्थिति है. अनुभव का विस्तार और भाषा का आकाश इन कविताओं को सृजनात्मक रूप से समृद्ध करते हैं.हिंसा का दैनंदिन आघात और प्रेम का मद्धिम स्पर्श प्रत्यक्षा के अपने इलाके हैं. 
  

  Indrapramit Roy/THE TERRACE

सोचें खुशी

शाम के उदास फीकेपन में 
किसी गीत का बजना जैसे
ये सोचना कि 
उदासी का रंग हर सिंगार क्यों है
उमगती खुशी क्यों नहीं
जैसे बच्ची हँसती है , अनार खाती है 
उसके अनार से दाँत में फँसी हँसी हँसती है 
कानों के पीछे खुँसा जबाकुसुम का फूल ढलकता है 
कैलेंडर पर कतार में नीले हाथी चलते हैं 
सूँड़ उठाये 
रसोई से उठती है महक हींग की 
और कहीं बाहर से आता है स्वर 
रेडियो सीलोन का 
रात के बारह बजे हम गले लगते हैं 
और थक कर सोते हैं नींद में 
सब सपनों को फिलहाल मुल्तवी करते 
मुकेश का गीत कभी इतना मार्मिक 
पहले नहीं लगा था जैसे इस वक्त
शाम की उदासी में लगता है 
जबकि हम कहते रहे एक दूसरे को
खुश रहो खूब खुश रहो
जानते हुये कि ऐसा कहना 
अपनी सब सद्भावना देना है लेकिन
खुशी निश्चित कर देना नहीं 
फिर भी ऐसा कहना अपनी ओर से
कोई कमी नहीं छोड़ना है 
कैलेंडर के हाथी मालूम नहीं इकतीस दिसंबर के बाद
कहाँ जायेंगे
मालूम नहीं अनारदाँत लड़की बड़ी हो कर 
कितना दुख पायेगी 
मालूम नहीं उदास गाने क्यों हमेशा के लिये बैन कर दिये जायें 
क्यों नहीं किसी भी चीज़ के खत्म होने के खिलाफ कड़े नियम बनाये जायें 
क्यों नहीं तुम मेरा हाथ पकड़ कर भाईचारे में सूरज की तरफ उठे चेहरे 
की खुशी के पोस्टर बनाओ 
और ये कहो कि कागज़ चारकोल से गंदे करो
जबकि मैं पानी के रंग की खुशी चाहूँ 
जबकि मैं गाने बिना शब्द के गाऊँ 
जबकि मैं आग में पकाऊँ बैंगन का भरता 
और अपने लिये खरीदूँ नई किताबें 
और कहूँ तुमसे , सुनो तुम को मेरी सब सद्भावना 
और ये संगीत तुम्हारे लिये 
और ये शब्द तुम्हारे लिये
और ये रंग तुम्हारे लिये
और चाहूँ कि तुम भी चाहो यही सब 
मेरे लिये 
यही सब सबके लिये
कि भीड़ में खड़े हम सब 
आमने सामने खड़े गायें कोरस में
कि भाषा के पहले भी प्यार था भले वो
उस लड़की के दो चोटियों और मनुष्य के जानवरों की नकल में था
शायद खलिहान में लगे उस कनकौव्वे में या फिर उस पाजी की गुलेल में था 
लोर्का की कविता और चवेला वार्गास के गीतों में था या फिर बाउलों की संगत में था 
किसी फकीरी फक्कडपने का ठसक भरा राग था 
या किसी बीहड़ महीनी का अंतरंग रंग था 
जो था सब था 
तुम्हारी आँखों के सामने जस था 
रूठे बच्चे की आधी सिसकी था 
किसी के भय का खट्टा स्वाद था 
कहीं दूर सुदूर से आते साईबेरियन क्रेन सी उड़ान था 
किसी टीवी चैनेल पर जोश उन्माद भरा बीच बहस
किसी जोकर का रसरंग था 
इस चिरकुट सी दुनिया के भ्रष्ट अफसाने और
व्हाई इज़ लाईफ सो ब्लडी अनफेयर का रिफ्रेन था 
सुनो अब भी , इतना सब होने पर भी हम कहते रहे
दॉन कियोते बन पाये कोई साँचो पाँज़ा ही बन गये होते
क्यों हम कभी अल बेरुनी फहियेन या मार्को पोलो बन सके
कभी सोचा कि अलेक्सांन्द्र या कोलम्बस होना क्या होना होता होगा
कि शब्दों की नौका पर सवार अटलांटिक ही घूम आयें ? या फिर
अफ्रीका की धूपनहाई धरती पर एक झँडा , सही आर्कटिक 
और ग्रीनलैंड , सही एस्कीमो या ज़ुलु या फिर कोई मुंडा ओराँव भी चलता
किसी टोटेम की पूजा और पत्तों पर खाना , जँगल के जँगल
की पहचान 
कितने प्रश्न हैं , लेकिन तुम कहते हो सोचा मत करो
मैं सोचती नहीं , हरसिंगार जबाकुसुम
मैं सोचती हूँ , खुशी 
सोचने से मिलती है चीज़ें जैसे किसी साईंस फिक्शन या फंतासी साहित्य में
पढी  गई कहानी , जो हर होने को सँभव बनाती हैं 
तो आज के दिन , जो कि हर किसी और दिन की तरह खास है
आओ हम मिलकर सोचें , खुशी 
और सोचें उम्मीद 
और सोचें , उस सोच को जो हर इन एहसासों को मूर्त करता है
जैसे बच्ची के चेहरे पर हँसती मैना
जैसे गाने का कोई भूला मुखड़ा 
गोगां के पैलेट का कोई चहकता रंग
या फिर हमारी साझी हँसी का तरल संसार 
इन टैंगो , ईवन इफ इट इज़ लास्ट वन 
क्योंकि इस विशाल विस्तृत संसार में सुनियोजित है 
हमारा इस तरह कभी उदास होना और 
कभी तरल , कभी कहना बहुत और सुनना और ज़्यादा
कभी तुम होना और कभी मैं 
और हमेशा , अकेलेपन , तीव्र अकेलेपन के बावज़ूद
उड़ान लेना किसी पक्षी के जोड़े की तरह , इन टैंडेम
वाल्ट्ज़िंग इन इनर स्काई
अपने भीतर के संगीत की संगत में 
होना 
ऐसे जैसे इस भरपूर संसार में खुद से बेहतर और कोई हुआ 
खिली धूप , नीले आसमान में सबसे सफेद 
सबसे खूबसूरत परिन्दा.




सांप, सेब और प्यार  

उसके मेरे बीच प्यार शब्द कभी आया ही नहीं
हम शिकारियों के चौकन्ने पन से
पैंतरे बाँधते
कुशल फेंसर्स जैसे
चेहरे को ढके तलवार भाँजते
शब्दों को काटते
कभी गलती से भी
जीभ पर अगर
फिसल आता
कोई प्यार जैसा
या उसका पर्यायवाची शब्द
हम शर्मिन्दगी से
चेहरा छुपा लेते

हमने आपस के नये शब्द इजाद किये
सब ऐसे जो प्यार से कोसो दूर थे
जब हमारी उँगलियाँ तरसतीं
प्यार को
हमारा मन सुराखों के पार के आसमान को
ललक कर देखता
और उँगलियाँ शाँत हो जातीं

लेकिन इन सब के बीच
हमारी हज़ारों किस्से कहानियों के बीच
हम कई बार
बेवजह ठिठक जाते
जैसे कोई भूला शब्द
ज़ुबान पर आते आते फिसल जाता
हम बहुधा चौंक कर देखते एक पल को
एक दूसरे को
गो कि हमने कितने दिन साथ गुज़ारे
कितनी रात बतकहियाँ की
कितनी बारिश साथ भीगे
कितने मौसमों को एक खिड़की से
बदलते देखा
फिर भी हमने
ताउम्र कोशिश की
कि प्यार जैसा
कोई शब्द हमारे बीच
बिलकुल न आये

और हम इतने प्राण पण से जुटे थे
प्यार को भुला देने में
उसे बेवजह साबित कर देने में
कि मौसम कब खिड़की से बाहर गया
हम जान ही नहीं पाये
और जब हमारे बच्चे
हमारे पास आये
पूछा
तुम्हारे पास
हमारे लिये क्या है
हमने तब कहना चाहा
प्यार
हमारी जीभ इस शब्द के पहले अक्षर पर ही
लटपटाने लगी
हमारा दम फूलने लगा
गले की नसें भूली हुई कोशिश में टूटने लगीं
और हमारे सामने हमारे बच्चे हवा में धूँये की तरह
विलीन होने लगे
हम उजबकों की तरह उनको देखते रहे
देखते रहे क्योंकि हमारे बीच प्यार शब्द
कभी आया ही नहीं

उसने तब कहा
दोबारा शुरुआत करो
और हमने खुद को उस बगीचे में पाया
जहाँ मैं थी
वो था
सेब था
और साँप था




वो औरतें

वो औरतें प्रेम में पकी हुई औरतें थीं
कुछ कुछ वैसी जैसे कुम्हार के चाक से निकले कुल्हड़ों को आग में ज़रा ज़्यादा पका दिया गया हो
और वो भूरे कत्थई की बजाय काली पड़ गई हों
या कुछ सुग्गे के खाये, पेड़ों पर लटके कुछ ज़्यादा डम्भक अमरूद की तरह
जिसे एक कट्टा खाकर फिर वापस छोड़ दिया गया हो उनके उतरे हुये स्वाद की वजह से

वो औरतें डर में थकी हुई औरतें थीं
कुछ कुछ चोट खाये घायल मेमनों की तरह
जिबह में जाते बकरियों की तरह
जिनकी फटी आँखों से लगातार बेआवाज़ आँसू बहते हों
या कुछ उन जोकरों की तरह जो हर कलाबाज के करतब पर पाउडर पोते
ठोस ज़मीन पर खड़े अंदर ही अंदर भय से थरथराते हैं

इन औरतों ने पाया कि आखिर एक वक्त ऐसा आया कि
भय और प्रेम इनके अंदर एक हो गया
तब उन औरतों ने
एक जत्था बनाया
खड़िया हाथ में पकड़ा
और लिखा प्रेम अर्थात भय
फिर लिखा
भय अर्थात शून्य और
शून्य अर्थात प्रेम अर्थात मुक्ति

आसमान में अक्षर उभरने लगे
हर अक्षर पर
उनकी उँगलियों की पकड़
मज़बूत होती गई
आग की लपट उँची उठने लगी
भट्टी में शब्द पकने लगे
उन लपटों में आहूति देते एक सुर से गाया
इदमग्नये जातवेदसे इदन्न मम

ओ पवित्र अग्नि जो वर्तमान है हर सृजन में
ये मेरा शरीर , मैं समर्पित करूँ
अपनी आत्मा की गहराई से
इस अग्नि को ये शरीर जो अब मेरा नहीं
कस्मै देवाय हविषा विधेम

बोलती है एक खास लय में
साँस रोके दमयंती
जिसका नाम पड़ा है अपने
किसी बूढ़ी परदादी के नाम पर
उसी के जिनके डायरी के पहले पन्ने पर से
पढ़ती है एक साँस में
दमयंती
कहानी उनकी जो किसी पिछली सदी में थीं
वो औरतें
और जो अगली कई सदियों तक रहेंगी
वो औरतें ...





पर कहोगे नहीं कभी प्यार 

कितनी बार कहोगे
लेकिन प्यार नहीं कहोगे
कहोगे
दुनिया जहान की बातें
इसकी बातें उसकी बातें
वो जो गौरैया थी
जो उड़ जाती थी
जो मेमना था
जो बच्चा था
कहीं हर्ज़ेगोविना बॉस्निया में
या
गाज़ा में , अनाथ अकेला
गिरजे पर हुये हमले
और मेधा पाटकर के धरने
कहोगे
फिर बुश और इराक
सद्दाम की मौत
और
पेंटागन की साजिश
नौ ग्यारह
कैसे गिरा था
ट्विन टॉवर
तब शायद खा रहे थे
रात का खाना
लिया था पहला कौर
रोटी का शोरबे के साथ
बगल में फेन उगलता
बीयर का मग
कैसे रह गया था
अधूरा
और फेंका था अगली सुबह
काँता बाई ने
ज़रा नाक सिकोड़ते हुये
तुम्हारे अफसोस के साथ

कहोगे
कि शेयर मार्केट के उछाल के इंतज़ार में
रोक रखा है तुमने
खरीदना किसी अपमार्केट सबर्बिया में
पॉश एक फ्लैट
कि कितने लाख
तुमने खोये पिछली गिरावट में
पर
परवाह नहीं
कर लोगे भरपाई
किधर और से
पढ़ लोगे
इकॉनिमिक टाईम्स और मनी मार्केट
नब्ज़ है तुम्हारी सेंसेक्स पर
सिर्फ यही नहीं
फुरसत में
पढ़ोगे रेनर मारिया रिल्के को
सुन लोगे मधुरानी को
पुरानी बदरंग अल्बम से चुनकर
देख लोगे उदास कर देने वाली तस्वीरें
धूप में भी सर्द सिहर लोगे
और परे हटा दोगे
फ्लावरी ऑरेंज पीको
कहोगे
एक अलस दोपहरी में
नींद की बातें
नमक में डुबाकर हरी मिर्च का स्वाद
देर रात तक थियेटर का रंग
कि हम सब कठपुतली है रंगमँच के
फिर उस नाटकीय डायलॉग पर
ठठाकर हँस पड़ोगे
फिर संजीदा
कहोगे
कि अब हमें लाना चाहिये
एक बदलाव
कहोगे
कि चलो अब किसी दूसरी तरह से
जिया जाय
किसी और तरीके से
रहा जाय
फिर उबासी लेकर औंधे पड़े
कहोगे
कल से ?
अच्छा ?
पर कहोगे कभी नहीं प्यार ?




रेड इस डेंजर 

उन लड़कियों ने बाथरूम के शीशे तक
रंग डाले थे
चौकोर टुकड़े धानी और नीले
और समन्दर का गहरा हरा नीला पानी
फैले रेत का सुनहरापन और
लहराते नारियल के पेड़
पानी का झाग और
धुँध में धुँधलाता
कोई पानी का जहाज़

फिर वो कमरे की दीवारों तक आईं
वहाँ उन्होंने बनाया
जंगल
घना डरावना नहीं
खुशनुमा सुकूनदेह
जहाँ आसमान से पत्तियों तक
रौशनी छनती थी
ज़मीन पर
छोटे नन्हे फूल खिलते थे

फिर बाहरी कमरों की बारी आई
फिर दरवाज़ों की
जहाँ घुड़सवार सफेद अरबी घोड़ों पर
चुस्त मुस्तैद
परचम लहराते
धूल उड़ाते जाने कहाँ
किस नई दुनिया की खोज में
कूच करते

इस तरह उन लड़कियों ने
पूरा जहान रंग डाला
एक सफर कर डाला
पूरी दुनिया देख डाली

पर उनके रंग
अब भी बाकी थे
कुछ ठहर कर
उन्होंने अब रंगना शुरु किया
अपना मन
और पाया कि
चाहे कितनी मन मर्जी
कूची चला लें
कैसे भी शोख रंग चुन लें
पीले पड़े चेहरों पर
बिना आँख़ नाक होंठ वाले चेहरों पर
वो सिर्फ एक रंग डाल सकीं थी
लाल बिन्दी
सिर्फ बिन्दी
उस पीले चेहरे पर
बस और कुछ नहीं

और अंत में
थकहार कर
उन्होंने लिखा
रेड इज़ डेंजर !
और कहा
ये सफर यहीं समाप्त होता है
.

Neeraj Goswami GOSSIP


राग – प्रेम
                                                                                                                                                                  

गीली मिट्टी ,गेहूँ की बाली, तुम और मैं....


तुम्हें याद है
गर्मी की दोपहरी
खेलते रहे ताश
पीते रहे नींबू पानी
सिगरेट के उठते धूँए
के पार
उडाते रहे दिन
खर्चते रहे पल
और फिर किया हिसाब
गिना उँगलियों पर
और हँस पडे बेफिक्री से
तब , हमारे पास
समय बहुत था


सिगरेट के टुकडे
कश पर कश
तुम्हारा जरा सा झुक कर
तल्लीनता से
हथेलियों के ओट लेकर
सिगरेट सुलगाना
मैं भी देखती रहती हूँ
शायद खुद भी ज़रा सा
सुलग जाती हूँ
फिर कैसे कहूँ
तुमसे
धूम्रपान निषेध है

 
तुम्हारी उँगलियों से आती है
एक अजीब सी खुशबू
थोडा सा धूँआ
थोडी सी बारिश
थोडी सी गीली मिट्टी
मैं बनाती हूँ
एक कच्चा घडा उनसे
क्या तुम उसमें
रोपोगे गेहूँ की बाली ?


सुनो ! आज कुछ
फूल उग आये हैं
खर पतवार को बेधकर
हरे कच फूल
क्या तुम उनमें
खुशबू भरोगे
भरोगे उनमें
थोडी सी बारिश
थोडा सा धूँआ
थोडी सी गीली मिट्टी


अब , हमारे पास
समय कम है
कितने उतावले हो
कितने बेकल
पर रुको न
धूँए की खुशबू
तुम्हें भी आती है न
गीली मिट्टी की सुगंध
तुमतक पहुँचती है न
कोई फूल तुम तक भी
खिला है न


जाने भी दो
आज का ये फूल
सिर्फ मेरा है
आज की ये गेहूँ की बाली
सिर्फ मेरी है
इनकी खुशबू मेरी है
इनका हरैंधा स्वाद भी
मेरा ही है
आज का ये दिन मेरा है
तुम अब भी
झुककर
पूरी तल्लीनता से
सिगरेट सुलगा रहे हो
मैं फिर थोडी सी
सुलग जाती हूँ.




हरी फसल,  सपने मैं और तुम

हम सडक पार करते थे
हम बात करते थे
तुम कह रहे थे
मैं सुन रही थी
तुम सडक देखते थे
मैं तुम्हें देखती थी
फिर तुमने हाथ थाम कर
मुझे कर दिया दूसरे ओर
तुम्हारी तरफ गाडी आती थी
तुम बात करते रहे
मैं तुम्हें देखती रही
राख में फूल खिलते रहे
गुलाबी गुलाबी..........
तुम निवाले बनाते
मुझे खिलाते रहे
तुम ठंडे पानी में मेरा पैर
अपने पाँवों पर रखते रहे
तुम मुझे सडक पार कराते रहे
तुम मुझे गहरी नींद में
चादर ओढाते रहे
मैं मिट्टी का घरौंदा बनती रही
मैं खेत की मिट्टी बनती रही
मैं हरी फसल बनती रही
मैं सपने देखती रही
मैं सपने देखते रही




नीम का पेड,  सोंधी रोटी ..मैं और तुम

नीम के पेड के नीचे
कितनी निबौरियाँ
कभी चखा उन्हें
तुमने ?
नहीं न
कडवाहट का भी
एक स्वाद होता है
मैं जानती हूँ न
तुम भी तो जानते हो


हम बात करते रहे
अनवरत, अनवरत
कभी मीठी , कभी कडवी
सच !
उनका भी एक स्वाद होता है न


बीत जायें कितने साल
जीभ पर कुछ पुराना
स्वाद अब भी
तैरता है
तुम्हारी उँगली का स्वाद
नीम की निबौरी का स्वाद
अनवरत बात का स्वाद !


जंगल रात
आदिम गंध
मैं पकाती हूँ
लकडियों के आग पर
मोटे बाजरे की रोटी
निवाला निवाला
खिलाती हूँ तुम्हें
मेरी उँगली का स्वाद,
सोंधी रोटी का स्वाद
मीठे पानी का स्वाद.



परछाईं नृत्य करती है
मिट्टी की दीवार पर
तुम्हारे शरीर से फूटती है,
गंध ,रोटी का स्वाद
नीम की निबौरी का स्वाद
मेरी उँगली का स्वाद ?


मैंने काढे हैं
बेल बूटे, चादर पर
हर साल साथ का
एक बूटा, एक पत्ता
फिर भरा है उनमें
हमारी गंध, हमारी खुशबू
हमारा साथ हमारी हँसी
आओ अब इस चादर पर
लेटें साथ साथ
साथ साथ

 


मैं और तुम..हम
 
तुम और हम
और हमारे बीच
डोलती ये अंगडाई
आज भी .....

कल ही तो था
और
कल भी रहेगा


स्पर्श के बेईंतहा फूल
मेरी तुम्हारी हथेली पर
कुछ चुन कर
खोंस लूँ
बालों में
कानों के पीछे



टाँक लूँ
तुम्हारी हँसी
अपने होठों पर

कैद कर लूँ
तुम्हें
फिर अपनी बाँहों में



तुम्हारे सब
जवाबों का
इंतज़ार करूँ ?

या मान लूँ
जो मुझे मानना हो
सुन लूँ
जो मुझे सुनना हो



ढलक गये बालों को
समेट दोगे तुम ?

मेरी हथेलियों पर
अपना नाम
लिख दोगे तुम ?




मेरे तलवों पर
तुम्हारे सफर का
अंश क्या देखा तुमने

मेरे चेहरे पर
अपने सुख की
रौशनी तो
देख ली न तुमने



मैं क्या और तुम क्या
मेरा और तुम्हारा नाम
मेरी याद में
गडमड हो जाता क्यों

क्या इसलिये कि
अब सिर्फ हम हैं
सिर्फ हम



हम

एक फूल खिला था
कुछ सफेद
कुछ गुलाबी
एक ही फूल खिला था
फिर ऐसा क्यों लगा
कि मैं सुगंध से
अचेत सी हो गई



मेरी एडियों दहक गई थीं
लाल, उस स्पर्श का चिन्ह
कितने नीले निशान
फूल ही फूल
पूरे शरीर पर
सृष्टि , सृष्टि
कहाँ हो तुम

  

कहाँ कहाँ भटकूँ
रूखे बाल
कानों के पीछे समेटूँ कैसे
मेरे हाथ तो तुमने थाम रखे हैं


  
मेरे नाखून, तुम्हारी कलाई में
दो बून्द खून के
धीरे से खिल जाते हैं, तुम्हारे भी
कलाई पर
अब, हम तुम
हो गये बराबर
एक जैसे फूल खिलें हैं
दोनों तरफ



आवाज़ अब भी आ रही है
कहीं नेपथ्य से
मैं सुन सकती हूँ तुम्हें
और शायद खुद को भी
मैं चख सकती हूँ
तुम्हें और शायद
अपने को भी
लेकिन इसके परे
एक चीख है क्या
मेरी ही क्या



न न न अब मैं कुछ
महसूस नहीं कर सकती
एहसास के परे भी
कोई एहसास होता है क्या.
___________________________________________________

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  1. सच में युवा शक्ति को सलाम काफी लंबी चितनमय कवितायेँ युवा उर्जा से ही संभव हुई लगती हैं जिनमे शब्द साँस नहीं तोड़ता पाठक को साथ लिए दोडता है .साधूवाद प्रस्तुति के लिए

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  2. bahut hee sundar kavitayen ...arunji pratyakshaji ki kavitayen padhane ke liye bahut dhanywad ...

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  3. ""क्यों नहीं किसी भी चीज़ के खत्म होने के खिलाफ कड़े नियम बनाये जायें
    क्यों नहीं तुम मेरा हाथ पकड़ कर भाईचारे में सूरज की तरफ उठे चेहरे
    की खुशी के पोस्टर बनाओ
    और ये न कहो कि कागज़ चारकोल से गंदे करो
    जबकि मैं पानी के रंग की खुशी चाहूँ
    जबकि मैं गाने बिना शब्द के गाऊँ """

    """और अंत में
    थकहार कर
    उन्होंने लिखा
    रेड इज़ डेंजर !
    और कहा
    ये सफर यहीं समाप्त होता है""""

    अरुण जी अच्छी कवितायेँ लगी सुक्रिया शेयर करने का इन दो पेरा में मन अटक गया सुन्दर !!!...""बल्कि अंत में .....ये सफर यही समाप्त"" जब पड़ा तो मानो लगा क्यू नहीं ये पहले की कविता की तरह लम्बी है ....बाकि भी अच्छी लगी .....सुन्दर अभिव्यक्ति जी !!!!!!.Nirmal Paneri

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  4. अलबत्ता , प्रत्यक्षा जी की कविताओं को पढ़ने का अलग मज़ा है .. इनमें नयापन है . ताजगी से भरी .. एक्सपर्ट हाथों के स्ट्रोक .. कई एबस्ट्रेक्ट चित्र और उनमें भरे गहरे रंग आपको हर बार नए लगते हैं .

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  5. bahut alag kism ki rachnaayen hain Pratyaksha ji... anchhooyee si... Arun ji Pratyaksha ji se milaane ke liye aapka shukriya...

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  6. प्रत्यक्षा की 10 कविताओं से गुजरना शायद नि:शब्द लौटना है। बहुत बड़े कैनवस पर सारी कविताएँ घटित हुई लगती हैं। कविताएँ पढ़ते हुए ओर-छोर को पकड़े रहना एक दुर्निवार अपेक्षा से भारग्रस्त लगने लगता है। बहुत बहुलता है। इतना कि कठिन संतुलन छूटा कि कविता का भूगोल गोटियों की तरह भरभरा जा सकता है। हर जगह प्रत्यक्षा की कविताएँ मुझे अपांक्तेय ही लगीं। यह जो कविता के भीतर की अभेद्य और परम ऊर्जा उमगती दिखती है वह एक हद तक बहुज्ञता और बहु-अभिव्यक्तियों की बदौलत संभव हुई है। लेकिन यह स्थापत्य कविताओं के संचार पर सीमाएँ लगाने वाली हैं। प्रतीकों, संदर्भों, दृश्यों, अवधारणाओं का विस्फोट कविताओं को विमर्शात्मक आख्यान की ओर ले जाने वाला है। लेकिन इतना तो तय है कि कविताओं में हमारे आस-पास का एक सर्वथा नया भूमंडल और आकाश आभासित हुआ है। प्रत्यक्षा जी गंभीर सर्जक और विचारक कवियित्रि हैं। यह बहुत सुखद - सुंदर संयोग है। उनको बधाई और अरूण जी को भी।

    सुशील कृष्ण गोरे

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  7. हिन्‍दी की नयी रचनाशीलता में इधर अभिव्‍यक्ति की जो अलग भंगिमा दिखाई देती है, उसके आशय और अर्थ-संदर्भ, संभव है कि किसी नये सौन्‍दर्यबोध की अपेक्षा रखते हों, प्रत्‍यक्षा की इन कविताओं के बारे में अरुणदेव की इस टिप्‍पणी के साथ आंशिक सहमति के ब...ावजूद उनकी अन्‍य बातें थोड़ी अमूर्त और अवांतर-सी लगती हैं, लेकिन उन पर बात फिर कभी। फिलहाल तो इन कविताओं पर, और वह भी एक खास कविता 'सोचें खुशी' पर बात करना जरूरी लग रहा है - यह कविता हमारी आज की जीवनचर्या और समय में व्‍याप्‍त तमाम तरह की विषमताओं, विडंबनाओं, अनाचारों और नाइंसाफियों के विरुद्ध एक रचनात्‍मक प्रतिरोध दर्ज करती है। निश्‍चय ही जहां प्रतिरोध के बारे में सोचना तक खतरों से खाली न हो, वहां अपनी खुशी के बारे में सब के साथ मिलकर सोचना, प्रकारान्‍तर से अपने ही से जिरह करना है। एक नितान्‍त निजी और घरेलू-सी लगती दुनियां (रसोई से उठती हींग की महक) अपनी शाम की उदासी के प्रसंग को लेकर किस तरह जिन्‍दगी और दुनिया-जहान के व्‍यापक सरोकारों तक जा पहुंचती है, यह कविता उस जटिल परिदृश्‍य को सघन आकार में प्रभावी ढंग से व्‍यक्‍त करती है - उसके अर्थ-संदर्भ देशकाल की परिधियों को पार करते हुए जिस वैश्विक धरातल पर इस उदासी को उजागर करते हैं, वहां सामूहिक सोच और मानवीय खुशी के बारे में सोचना क्‍या मायने रखता है, उसे व्‍यक्‍त करने में यह कविता अभिव्‍यक्ति का एक तेवर लेकर सामने आती है। यही नयापन प्रत्‍यक्षा की इन कविताओं को इधर की आम अमूर्त कविताओं से अलग करता है।

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  8. प्रत्यक्षा जी ने प्रत्याशा बढ़ा दी है। अलंकारिक शब्दों में कहूँ तो कविताएँ सुंदर, सहज, संभावनापूर्ण, सुयोिजत, सदोश्य (कृपया कुछ और 'स' वाले शब्द अपनी तरफ़ से जोड़ लें) हैं और सीधे-सादे शब्दों में कहूँ तो दिल से निकली हुईं और दिल को छूने वाली हैं। पहली कविता में कुछ पांडित्य (प्रदर्शन) है परंतु कवियत्री ने बहुत चतुराई से इसे बोझिल होते होते बचा लिया है। मैं कविता की कठिनाई, कवि की कठिनाई और कविता लिखने की कठिनाई- तीनों को समझता हूँ। कविता में और विशेष रूप से इस प्रकार की कविताओं में शब्दों, रूपकों, बिंबों, उपमाओं का चयन, खोज या गढ़न हिमालय की किसी बर्फ़ानी चोटी पर तपस्या करने से कहीं अधिक कठिन होता है।

    शेष कविताएँ हर लिहाज़ से बेजोड़ लगीं। विशेऒ तौर पर "साँप, सेब और प्यार" एवं "रेड इज डेंज़र।"
    कुछ पंक्तियों ने मन को बाँधा, कुछ ने खोला।
    कुछ पंक्तियों ने दिल को कचोटा, कुछ ने सहलाया।

    बहुत बहुत बधाई प्रत्यक्षा जी!
    बहुत बहुत बधाई अरूण जी!

    -सईद अय्यूब
    +91 96500-11833

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  9. हिंदी की नयी रचनाशीलता मे प्रत्यक्षा का आगमन बिलकुल ताज़े झोंके की तरह है ,ऐसा झोंका जिसकी खुशबू भी अलग और स्पर्श भी,इन दस कविताओं से गुजरना संवेदना के उन छोरो को छु कर लौटना है,जो जीवन को उसकी सहजता मे बचाए रखती है .यहाँ अगर नितांत घरेलु चिताएं हैं तो उन चिंताओ क घर से निकल वैश्विक बनाने क करतब भी है.सुन्दर कविताएं ,बधाई प्रत्यक्षा,आपकी रचनाशीलता और निखरे

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  10. लाजवाब कविताएँ, पाठक को पकड़ कर रखने का हुनर साफ़ झलकता है। शुभकामनाएँ कि आप ऐसे ही लिखती रहें।

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