गौतम कुमार सागर की कुछ मुकरियाँ


 
 

मुकरी काव्य की पुरानी विद्या है, अमीर खुसरों ने इन्हीं मुकरियों से हिंदी का रास्ता तैयार किया था, जो खड़ी बोली हिंदी की प्रकृति के निकट थीं, आज भी उन्हें पढ़ा समझा जा सकता है. उस रास्ते के झाड़ झंखाड़ जब भारतेंदु साफ कर रहे थे तब उन्हें भी मुकरियों की याद आई और वे ब्रज में जिसके वे कायल थे, न लिखकर खड़ी बोली हिंदी में लिखी गयीं, उनमें १८८४ में प्रकाशित मुकरियों को उन्होंने ‘नये जमाने की मुकरी’ कहा है, शायद इसलिए कि उनमें अंग्रेजों का जिक्र है, रेल, अख़बार, ग्रैजुएट पुलिस आदि का भी. इसी में उन्होंने अपनी यह कालजयी मुकरी लिखी है-


‘भीतर भीतर सब रस चूसे

हंसि हंसि कै  तन मन धन मूसे

जातिर बातन में अति तेज

क्यों सखि सज्जन नहिं अंग्रेज.

 

महाकवि ग़ालिब की मृत्यु के १५ साल बाद, अपनी मृत्यु के एक वर्ष पहले ३४ की अवस्था में भारतेंदु की  औपनिवेशिक शासन की समझ के विकास का यह सार है. इसमें ‘तन मन धन’ पर विशेष ध्यान अपेक्षित है. जिसकी बाद में ओरियंटल स्टडी के विद्वानों ने  व्याख्याता की. खैर

 

अभी भी इस विद्या  में लोग लिख रहें हैं. गौतम कुमार सागर की ये मुकरियां भी नए जमाने की ही हैं. इसमें गूगल है यहाँ तक कि कोरोना का मास्क भी.

 

देखिये. 



गौतम कुमार सागर की कुछ मुकरियाँ                                                



1)

चिपटा रहता है दिन भर वो

बिन उसके भी चैन नहीं तो

ऊंचा नीचा रहता टोन

ए सखि साजन ? ना सखि फोन!

 


2)

सुंदर मुख पर ग्रहण मुआ

कौन देखे होंठ ललित सुआ

कब तक करूँ इसे बर्दाश्त

ए सखि साजन ? ना सखि मास्क!                

 

 

 

3)

इसे जलाकर मैं भी जलती

रोटी भात इसी से मिलती

ये बैरी मिट्टी का दूल्हा

ए सखि साजन ? ना सखि चूल्हा! 

 

              

4)

 

डार डार और पात पात की

ख़बर रखें हजार बात की

मानों हो कोई जिन्न का बोतल

ए सखि साजन ? ना सखि गूगल

 


5)

 

उसकी सरस सुगंध ऐसी

तृप्ति पाये रूह प्यासी

फुलवारी का वो रुबाब

ए सखि साजन ? ना सखि गुलाब !

 


6)

कभी तेज़ तो कभी हो मंद

नदियों में वो फिरे स्वछंद

पार उतारे तट के गाँव

ए सखि साजन ? ना सखि नाव !

 

 

 

7) 


कसमें , वादे और सौगंध

वो है पदभिमान में अंध

अबकी आए तो मारू जूता

ए सखि साजन ? ना सखि नेता!

 


8) 


हृदय के यमुना के तट पर

आता वो है  बनकर नटखट

रूप अधर और नैन मनोहर

ए सखि साजन ? ना सखि गिरधर

 

9 ) 

सके बिन है जीवन मुश्किल

चलो बचाएं उसको हम मिल

जीवन की रसमय वो निशानी

ए सखि साजन ? ना सखि पानी 



10) 

उसका आकर्षण मतवाला

सब प्याले हैं, वो मधुशाला

पद-मद में है चूर वो गल्ली

ए सखि साजन ? ना सखि दिल्ली

 

 

11)

मुट्ठी में ही मांगे है वो

खुलकर नहीं है बोले वो

पार करें टेबल का पर्वत

ए सखि साजन ? ना सखि रिश्वत 

 

 

12)

काजल का सौंदर्य लिये

स्वर में है माधुर्य लिए 

दिखता है कभी होता ओझल

ए सखि साजन ? ना सखि कोयल

 

13)

यह तो अब पहचान है मेरी

आँख ,उंगली, निशान हैं मेरी

काम  पड़े   है   बारंबार

ए सखि साजन ? ना सखि आधार 

 

 

14)

आँखें नीचे करके रहता

चोर हो जैसे मन में बसता

इसका काम सच की लूट

ए सखि साजन ? ना सखि झूठ  


15)

उससे ही मन की बात कहूँ मैं

उसे  छुपाकर कहीं रखूँ  मैं

भाव अमर हैं, शब्द हैं मिट्टी

ए सखि साजन ? ना सखि चिट्ठी 

_________________

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  1. दया शंकर शरण23 जून 2021, 11:47:00 am

    इन्हें पढ़ते हुए एक अलग किस्म का आनंद मिलता है जैसे खाने में चटनी का स्वाद। शुरू में पहेलियां बुझाती ये मुकरियाँ अंत में उत्तर भी देती चलती हैं।मगर ये पाठक को स्वयं बुझने का मौका नहीं देतीं और उत्तर में एक लाक्षणिक बिंब उपस्थितकर गायब हो जाती हैं।जाहिर है, इनमें व्यंजना का प्रभाव घट जाता है। मगर इसे समकालीन कविता की आधुनिक प्रवृत्तियों से बिल्कुल अलग मान लेना गलत होगा। वस्तुतः विकास-क्रम में इन दोनों के गुणसूत्र एक हैं। गौतम जी एवं समालोचन को बधाई !

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  2. मुकरी जैसी विधा अपने आप में बहुत सशक्त है। यह भाषाई चमत्कार के साथ ज्ञान वर्धन भी करती है और आनंद भी प्रदान करती है ।भारतेंदु जी के बाद और किस-किस ने मुकरियां लिखी है मुझे पता नहीं है । लेकिन इनका स्वागत किया जाना चाहिए ।

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  3. मुक्तेश्वर चन्द्र23 जून 2021, 5:37:00 pm

    करे है चार लाइन की कविताई
    कहीं चपलता, है कहीं गहराई
    बातों में भरता है गागर,
    ए सखि साजन ? ना सखि सागर!

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  4. आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 24-06-2021को चर्चा – 4,105 में दिया गया है।
    आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ाएगी।
    धन्यवाद सहित
    दिलबागसिंह विर्क

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  5. वाह!!!!
    बहुत ही लाजवाब कह मुकरियाँ।

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  6. वाह! अति मनोहर मुकरियाँ

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  7. बहुत सुंदर कह मुकरियाँ ,
    सटीक समालोचना ।
    बधाई।

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