कबीर: 'पीव क्यूं बौरी मिलहि उधारा': सदानन्द शाही



सदानन्द शाही का इधर रैदास बानी का काव्यान्त्रण ‘मेरे राम का रंग मजीठ है’ प्रकाशित हुआ है. गोरख, कबीर, रैदास उनकी रूचि के विषय हैं. कबीर को सम्बोधित उन्होंने कविताएँ भी लिखीं हैं और उनके पदों को समझते-समझाते हुए आलेख भी लिखा है.

कबीर जयंती पर यह प्रस्तुति आपके लिए. 

 

कविताएँ
सदानन्द शाही

 

 

ज्ञान को अंग

( कबीर को याद करते हुए)

 

तुम्हारे ज्ञान का अंग क्या है - परम गुरु!

कहते है रामानन्द के खड़ाऊं से कुचल गये थे तुम

गुरु के मुंह से बरबस

निकल पड़ा था रामनाम का महामंत्र

और तुम्हें ज्ञान हो गया था

 

सच - सच बतलाना - परम गुरु!

 

कुचले जाने से कैसे आता है साहस

कहां विलीन हो जाती है दीनता

कैसे जल उठती है- 'सत्य की लौ'

 

कुचली जाती हुई धूल

एक दिन कैसे बनती है बवंडर

 

सच - सच बतलाना - परम गुरु!

क्या इसी तरह आती है ज्ञान की आंधी.

 

 

एक बार फिर

(कबीर की 6 सौ वीं जयन्ती पर हुए एक आयोजन की रिपोर्ट पढ़कर)

 

एक बार फिर

कबीर को विधवा ब्राह्मणी के गर्भ से पैदा हुआ बताया जायेगा

रामानन्द के कल्पित आशीष से

 

आखिर एक बुनकर जुलाहे में इतनी प्रतिभा आती कहाँ से?

 

एक बार फिर (वर्ण) व्यवस्था की

दरकती हुई दीवार की मरम्मत की जायेगी

 

कबीर कहते रहें-

 

'पंडित बाद बदै ते झूठा'

और उन्हीं के जन्म की एक झूठी कहानी गढ़ दी जायेगी

 

फिर बनेंगी कबीर की प्रतिमाएँ

पुष्प मालाओं से ढँक दी जायेंगी कबीर की चिन्ताएँ

मरे हुए पीर-पैगम्बर

कबीर पर धुआंधार भाषण देंगे

 

एक बार फिर

सुर नर मुनि मिलकर

कबीर की चादर मैली करेंगे

ताना और भरनी पण्डे उठा ले जायेंगे

करघा लेकर भाग जायेंगे मुल्ले मौलवी

सूत और कपास की राई-छाई हो जायेगी

 

विद्वान बोलते बोलते तत्व का नाश कर देंगे

 

मन ही मन खुश होंगे

कि तुलसी जैसे कबीर के प्रखर विरोधी भी

कबीर बानी का बाल बांका नहीं कर सके

और हम छद्म समर्थक-

कितने आराम से-

श्रद्धापूर्वक

कर रहे हैं

कबीर बानी का बंटाधार

 

वेद और पुराण के

निन्दक एक अधम कवि के साथ यह उचित भी है

 

वे संतोष की खट्टी डकार लेंगे

और लवण भास्कर चूर्ण खाकर मोह निद्रा में सो जायेंगे

 

पृष्ठभूमि से उठती कबीर की आवाज़

उनकी नींद हराम करती रहेगी

'हम न मरै, मरिहैं संसारा'.

(1998)

 

 

नयी चादर बुनी जाती रहेगी

(6 सौ वीं जयन्ती पर कबीर को याद करते हुए )

 

मुरदों के गाँव में सब मर जायेंगे

कबीर नहीं मरेंगे

 

जब तक संसार जलता रहेगा

कबीर धाह देते रहेंगे

 

जब तक 'कागज की लेखी', 'भ्रम की टाटी', खड़ी करती रहेगी आती रहेगी 'ज्ञान की आँधी'

 

बैठे ठाले पण्डे और पुरोहित

चादर मैली करते रहें—

 

कबीर का करघा चलता रहेगा

और नयी चादर बुनी जाती रहेगी.

(1998)




पीव क्यूं बौरी मिलहि उधारा  
सदानन्द शाही

 


परोसिनि मांगे कंत हमारा.

पीव क्यूं बौरी मिलहि उधारा..

मासा मांगे रती न देऊं,घटे मेरा प्रेम तौ कासनि लेऊं.

राखि परोसिनि लरिका मोरा,जे कछु पाऊं सु आधा तोरा.

बन बन ढूंढि नैन भरि जोऊं,पीव न‌मिलै तो बिलखि करि रोऊं.

कहै कबीर यहु  सहज हमारा, बिरली सुहागिनि कंत पियारा..

(कबीर वांग्मय खण्ड- 2 पद -173 पृ -219) 

कबीर हमेशा चकित करते आये हैं. कबीर का यह  पद भी  आश्चर्यचकित करता है. कबीर वांग्मय में इस पद का अर्थ सम्पादकों ने इस प्रकार दिया है- ‘कबीर कहते हैं कि अन्य सांसारिक जीव ( पड़ोसिन ) हमारे प्रियतम परमात्मा को हमसे उधार माँगते हैं. अरे पागलो ! क्या कहीं पति भी उधार दिया जाता है. यदि मेरी पड़ोसिन एक माशा उधार माँगती है तो मैं उसका आठवां भाग अर्थात् रत्ती भर भी देने को तैयार नहीं हूँ, क्योंकि प्रेम तो व्यक्तिगत होता है . यदि मैं इसका विभाजन करूँ तो मेरे घटे हुए प्रेम की पूर्ति कैसे होगी ?, प्रेम का बँटवारा नहीं हो सकता.

भक्ति से चित्त-शुद्धि होती है. यह शुद्धीकरण प्रियतम के मिलन से ही संभव है. अतः यह उनका पुत्र है. कबीर उस साधक जीव ( पड़ोसिन ) से निवेदन करते हैं कि वह उनके शुद्ध चित्त ( पुत्र ) की देखभाल करता रहे, जिससे उसमें मलिनता न आ जाये. इसके बदले में वह प्रभु-कृपा से प्राप्त लाभ का कुछ भाग देने को तैयार हैं. मेरा अपने प्रियतम के प्रति इतना प्रगाढ़ प्रेम है कि मैं उन्हें बन-वन में खोजती हूँ,टकटकी लगाकर उनके दर्शन की प्रतीक्षा करती हैं. उनके न मिलने पर विरह में बिलखकर रुदन करती हूँ.

कबीर कहते हैं कि जीवात्मा रूपी साधक-पत्नी का यह सहज स्वभाव है कि वह अपने प्रियतम प्रभु के वियोग में विलाप करती रहे . किन्तु कोई ही ऐसी सौभाग्यवती जीवात्मा रूपी पत्नी होती है जिसे परमात्मा प्रिय होता है. कहने का तात्पर्य यह है कि यद्यपि जीव अपने को परमात्मा के बिना अपूर्ण समझता है, किन्तु उन्हें प्राप्त करने की लगन बहुत कम जीवों में होती है’.

थोड़ी देर के लिए इस शास्त्रीय अर्थ से अलग सामान्य अर्थ पर ध्यान दें तो आश्चर्य समझ में आयेगा. पूरे  पद में  दो औरतों की बातचीत है, लेकिन सामने केवल एक औरत आती है. सामने आई औरत से पड़ोसिन(पड़ोस में रहनी वाली दूसरी औरत)उसके  प्रिय को उधार माँगती  है. इसी बात पर   पहली  औरत पूरे पद में जवाब दे रही  है .जवाब क्या दे रही है ,झिड़क रही है, इस झिड़कने में बेगानापन नहीं है आत्मीयता और दुलार है. कबीर की झिड़कियों की यही ख़ासियत है कि उनमें दूसरे को नीचा दिखाने की उतावली नहीं; बल्कि उसे उन्नत करने का अपनापा रहता है. यह झिड़की देखिए- अरे बावली!  क्या बात करती हो ,प्रिय कहीं  उधार माँगने से  मिलता है. मज़े की बात यह कि सारा  सवाल जवाब अकेले में नहीं हो रहा है, सरे बज़्म हो रहा है. बात अकेले में हो तो दूसरा अर्थ है,सरे बज़्म हो तो बात बदल जाती है- ‘जोश-ए-कदह  से बज़्म चरागॉं किए हुए’ की तरह. पड़ोसन से बात करते करते  अगली ही  पंक्ति  में वह औरत  पाठक-श्रोता समूह को संबोधित करने लगती है  और कहती है- देखिए मेरी बावली पड़ोसन  को. मेरे प्रिय को माँग तो रही है .लेकिन मैं देने वाली नहीं हूँ. भले ही वह अपने जाने  बहुत कम यानी माशा (वजन करने का पैमाना) भर माँग रही है लेकिन मैं तो उसे रत्ती भर यानी माशे का आठवाँ हिस्सा भी नहीं देने वाली. क्योंकि थोड़ा  भी दे देने से मेरा प्रिय घट जायेगा. वह जो पर्याप्त है, वह जो पूर्ण है, वह खंडित हो जायेगा. फिर  मैं (वह पूर्णता)कहाँ से पाऊँगी? ऐसा भी नहीं है कि यह औरत अनुदार या कंजूस है, जो कुछ भी देना नहीं जानतीपड़ोसन के प्रति कटु होने का सवाल ही नहीं है. अगली पंक्ति में वह  फिर पड़ोसन की ओर मुख़ातिब होती है और  कहती है- तुम चाहो तो अपने  लड़के को दे सकती हूँ, उसे ले लो. इतना ही नहीं मेरे अनन्य प्रेम से  जो कुछ मुझे  मिलेगा उसका आधा तुम्हें दे दिया. लेकिन वह प्रिय जो  वन-वन ढूँढने से मिला है, बिलख-बिलख कर रोने से मिला है, उसे नहीं दे सकती(क्योंकि उसे दिया ही नहीं जा सकता).ठीक यहीं पर पद में कबीर प्रवेश करते हैं और कहते हैं -‘यही हमारा सहज भाव  है , कोई बिरली ही  सुहागिन होती है जिसे प्रिय मिलता है’. कबीर का यह सहज भाव मुश्किल से मिलता है .कबीर ने बार-बार इस सहज को समझाया है- सहज सहज सब कोई कहै ,सहज न चीन्हें कोय, जो सहज विषया तजै सहज कहीजै सोय.. यह सहज सरल नहीं है.

कबीर हों या गोरख या रैदास, सबके यहाँ सहज मिलता  है. कई बार हम सहज को सरल समझने की भूल कर बैठते  हैं. ज्ञान मीमांसा में भी हम प्राय: सरलीकरण के शिकार हो जाते हैं, जीवन और जगत को समझने में भी सरलीकरण के रास्ते ग़लत नतीजे पर पहुँचते  हैं.जब गोरखनाथ यह संकल्प लेते हैं कि हबकि न बोलिबा- हबक कर नहीं बोलूँगा तो इसी सरलीकरण से बचने की सलाह दे रहे होते  हैं.

यह पद पढ़ते हुए आश्चर्य इसलिए भी हुआ कि  बचपन में सुना हुआ भोजपुरी का एक बिरहा याद आ गया.  बिरहा इस प्रकार है- 

टिकवा से टिकवा बदलि ल ए भउजी

कोदो से बदलि ल तू धान

पियवा से पियवा बदलि ल ए ननदो

मोरे पिया लरिका नदान

नून देबि मंगनी तेल देब मंगनी;

संइया के मंगनिया ना देबि.

हमरो पियवा डंडी के जोखल;

घटिहें त केकरा से लेबि. 

यहां भी दो औरतें हैं . यहाँ वे ननद और भौजाई हैं .ननद-भौजाई की बातचीत बहुत खिलन्दडे अंदाज में हो रही है. ननद कहती है कि मेरे कोदो से अपना धान बदल लो. इस भावज मज़ाक़ करती है -मेरा प्रिय नादान है , मेरे प्रिय से अपना प्रिय बदल लो. ज़ाहिर है इसमें ननद और भाभी के बीच ठिठोली का भी भाव  है. लेकिन महत्वपूर्ण  वह है जो ननद  पलटकर  जवाब देती है .ननद  का जवाब  वही है जो कबीर के पद की औरत कहती है. ’नमक उधार दे सकती हूँ, तेल उधार दे सकती हूँ, प्रिय को उधार नहीं दे सकती .मेरे प्रिय तराज़ू के तौले हुए हैं - पर्याप्त हैं, पूर्ण हैं, कम हो गये तो मैं कहाँ माँगने जाऊँगी’. आश्चर्य की बात केवल यह  नहीं कि कबीर किस  कदर लोक में समाये हुए हैं या कि कबीर में लोक कितना समाया हुआ है बल्कि आश्चर्य इस बात पर है   कि जिस लोक और लोक भाषा को हमारी आधुनिक पढ़ाई लिखाई बहुत भाव नहीं देती ,वह कितने सहज ढंग से गहरे मर्म की बात कह जाती है.

आख़िर वह मर्म क्या है, जिसके लिए कबीर पूरा पद लिखते हैं ? वह प्रिय कौन है  जिसे वन-वन खोजा गया, जिसके लिए बिलख बिलख कर रोया गया है, जिसे तौलकर लिया गया है, जिसके कम पड़ जाने पर पुन: पाया नहीं जा सकता. क्या वह प्रेमी है, प्रिय है, प्रेम है, ईश्वर है, सत्य है!  क्या है वह

कई बार ऐसा लगता है कि यह सब एक ही है. कबीर का अपने ईश्वर से रिश्ता ही प्रेम का  है. वहाँ न भय है न लोभ. यह रिश्ता इतना घनीभूत और सान्द्र  है कि दोनों एक हो गये हैं. प्रेम ही ईश्वर है ,ईश्वर ही प्रेम है. और यह दोनों मिलकर ही सत्य का सृजन करते हैं. कबीर  यही बता रहे हैं कि इस अनुभव सत्य को अर्जित करना पड़ता है. इसे न तो उधार लिया  जा सकता है और न ही उधार दिया जा सकता है. यह बात इतनी सहज  और आईने की तरह साफ़ है कि  समझने के लिए किसी द्राविड प्राणायाम की ज़रूरत नहीं रहती.

लोगों को लगता है प्रेम में क्या रखा है ,घर बैठे प्राप्त किया जा सकता है, राह चलते मिल सकता है. शमशेर बहादुर सिंह ने कभी कहा था- कभी राह में यूँ ही मिल लेने वाले, बड़े आये मेरा वो दिल लेने वाले. राह चलते दिल नहीं मिला करता, राह चलते प्रेम नहीं मिला करता, राह चलते सत्य नहीं मिला करता. जिसे ग़ालिब कहते हैं ऐसा आसां नहीं लहू रोना दिल में ताक़त जिगर में हाल कहाँ. राह चलते कुछ चीज़ें पायी जा सकती हैं,कुछ चीज़ें शार्टकट से भी पायी जा सकती है लेकिन कुछ चीज़ें ऐसी हैं जिनके लिए सब कुछ न्यौछावर करना पड़ता है. प्रेम ऐसा ही है. शार्टकट से कुर्सी भले मिल जाये , प्रेम नहीं मिल सकता. प्रेम ही नहीं  सत्य भी. इसीलिए कबीर बार-बार कहते हैं-प्रेम खेत में नहीं उपजता, हाट में नहीं बिकता, राजा हो या प्रजा जिसे भी चाहिए अपना  सिर दे और उसके बदले प्रेम ले जाय.

कबीर इसलिए चकित करते हैं कि उनका यह पद हमारे वर्तमान को भी परिभाषित करता है. एक ऐसा समय जिसमें  हम सब कुछ राह चलते पा लेना चाहते हैं,तरह-तरह के शार्टकट हैं. हम महज़ विज्ञापन से ,दावा करके  सत्य और ज्ञान के शिखर को छू लेना चाहते हैं. ऐसे में कबीर   का यह पद पढ़ते हुए अर्थ के अनेक स्तर खुलते हैं. साधक को सिद्धि सब कुछ न्यौछावर करने पर  मिलती  है, ज्ञान के लिए भी सब कुछ दांव पर लगाना होता है, .प्रेमी  और  प्रेम भी सब कुछ क़ुर्बान  करने पर मिलता है.

कोई चाहे तो देश और समाज के सन्दर्भ में भी इस पद को पढ़ सकता है. भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने कहा था-स्वत्व निज भारत गहै. हम जानते हैं उन्नीसवाँ और बीसवीं शताब्दी में भारत को सत्व ग्रहण के लिए कितनी कुर्बानियाँ देनी पड़ी थी. आज भी यह सत्व उधार नहीं मिलने वाला .इसके लिए  हमको सब कुछ न्यौछावर  करना होगा. सब कुछ का मतलब सर्वोत्तम. भारत का  सत्व पहले भी अपना सर्वोत्तम देकर  मिला है, आगे भी सत्व हासिल करने के लिए सर्वोत्तम देना होगा. कबीर चौरा से कबीर पूछ रहे हैं- क्या हम अपना, अपने देश और अपने समाज का स्वत्व प्राप्त करने के लिए सर्वोत्तम देने को तैयार हैं.

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सदानन्द शाही 
7 अगस्त 1958,कुशीनगर (उत्तर प्रदेश)
असीम कुछ भी नहीं, सुख एक बासी चीज है, माटी-पानी (कविता संग्रह)
स्वयम्भू, परम्परा और प्रतिरोध, हरिऔध रचनावली, मुक्तिबोध: आत्मा के शिल्पी, गोदान को फिर से पढ़ते हुए, आदि का प्रकाशन.

आचार्य
काशी हिन्दू विश्वविधालय
sadanandshahi@gmail.com

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  1. अरुण कमल24 जून 2021, 10:58:00 am

    सदानंद जी ने इन महान कवियों तक पहुँचने का नया रास्ता बताया है ।रैदास और गोरखनाथ के चयन और रूपांतरण हम सबके लिए अनिवार्य पाठ हैं।आज कबीर और नागार्जुन का स्मरण करते हुए हम आपका और आपके सहपाठकों का अभिनंदन करते हैं ।

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    1. सादर प्रणाम।आपका स्नेह बनाए रहे।

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  2. दयाशंकर शरण24 जून 2021, 9:14:00 pm

    कबीर का जन्म एक ऐसे समय में हुआ जब दिल्ली की सल्तनत पर मुस्लिम सुल्तानों का आधिपत्य था।सैयद वंश के बाद संभवतः लोधी वंश का प्रारंभिक काल ।वे धार्मिक मामलों में कितने क्रूर थे,इतिहास इस बात का गवाह है।ऐसे काल में यह कहना तो दूर कोई सोच भी नहीं सकता था कि अजान को लेकर कोई यह कहे कि क्या खुदा बहरा है? 'कांकड़ पाथर जोरि के मस्जिद लई चुनाय,ता उपर मुल्ला बांग दे क्या बहरा हुआ खुदाय'।कबीर ने दोनों धर्मों की रूढ़ियों पर जमकर फटकार लगायी। 'पाथर पूजे जो हरि मिलै तो मैं पूजूं पहाड़'। पांडे !तू तो बड़ा कसाई ! पूरी निर्भीकता से धार्मिक आडंबरों और पाखंड पर जिस तरह से प्रहार अपने दोहों से कबीर ने किया,वैसा उदाहरण इतिहास में शायद कोई दूसरा नहीं दीखता। निस्संदेह इसके पीछे उनकी आध्यात्मिक ताक़त रही होगी।'घट घट में राम' को देखनेवाला हीं ऐसा साहस कर सकता है।सदानंद शाही जी का आलेख कबीर के काव्य में निहित प्रेम-पक्ष की मीमांसा है।उनकी कविताएँ भी ध्यान खींचती हैं। साधुवाद !

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  3. सदानंद जी ने मुक्तिबोध और कबीर पर बहुत काम किया है। कबीर का आध्यात्म बरबस ही आकृष्ट करता है। यह अलग बात है कि हमारी शिकायत उनके स्त्री चिंतन को लेकर है। यदि हम मान भी लें कि उनके काव्य की स्त्री माया है जो जीवों को उनके इच्छाओं के जाल में फँसा कर दुख देती है। फिर भी कवि के तौर पर यदि वे स्त्री का ही दृष्टांत लेते हैं तो स्त्री का जो मूल स्वभाव है उसके खिलाफ़ कैसे जा सकते हैं।
    जिसे लोक का परब्रह्म का इतना ज्ञान था, क्या इतनी भारी संख्या में स्त्रियों का होना उनके लिए कोई मायने नहीं रखता था। एक पुरुष, एक चिंतक, एक भक्त, एक कुशल बुनकर, एक गुरु कैसे स्त्री को बेवजह इतना भला बुरा कह सकता है। उनके मन में स्त्री के प्रति घृणा थी। अंततः यही साबित होता है न ,एक क्षुब्ध सवाल भटकता है।

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  4. कबीर की स्त्री संबंधी धारणा को लेकर काफी धुंध है। उसके लिहाज से आपका गुस्सा जायज है। जल्दी ही इस पहलू पर अपने विचार लिखता हूं।

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