राधाकृष्ण: एक लाख सतानब्बे हजार आठ सौ अट्ठासी


‘यदि हिंदी के उत्कृष्ट कथा-शिल्पियों की संख्या काट-छाँटकर पाँच भी कर दी जाए, तो उनमें एक नाम राधाकृष्ण का होगा.’

प्रेमचंद

इस अकाल बेला में हिंदी के कथाकार राधाकृष्ण की याद उमड़ी है, हैजा महामारी में हो रही मौतों पर आधारित तथा १९४५ में प्रकाशित उनकी कहानी- ‘एक लाख सतानब्बे हजार आठ सौ अट्ठासी’ की ओर ध्यान खींचा है वरिष्ठ कथाकार बटरोही ने.

यह कहानी कथ्य और शिल्प में इतनी मजबूत और सधी हुई है कि आश्चर्य होता है, प्रेमचंद ने उचित ही कहा था.

बटरोही के संपादन में इस कहानी का अंग्रेजी अनुवाद भी छपा था, उसका वृतांत और इस कहानी के महत्व पर टिप्पणी के साथ और यह कहानी प्रस्तुत है. इस कहानी को सामने ला कर उन्होंने स्तुत्य कार्य किया है.

७५ साल बाद भी स्थितियों में कोई ख़ास बदलाव नहीं आया है अभी भी लाशें नदी में तैर रहीं है और अपनी मृत्यु का इंसाफ मांग रहीं हैं

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बटरोही-  


 

कहानी को शुरू करने से पहले मैं पाठकों को अपनी उस चिंता से परिचित करना चाहता हूँ, जिसके कारण आज से लगभग चार दशक पहले हिंदी और अंग्रेजी विभागों के हम प्राध्यापकों ने हिंदी की सम्पूर्ण कहानियों का एक प्रतिनिधि संकलन अंग्रेजी में सम्पादित करने की योजना बनाई थी. हिंदी कहानियों के संकलन बड़ी मात्रा में तब भी मौजूद थे, फिर भी उन संकलनों और चर्चाओं से गुजरते हुए बार-बार लगता था कि कहीं भी राधाकृष्ण का उस रूप में जिक्र नहीं होता था, जिसके वो अधिकारी थे. मैं यह नहीं कहता कि मैंने उनसे बेहतर संकलन तैयार किया था, मगर यह बात मेरे दिमाग में साफ थी कि कोई ऐसा संग्रह हो जो हिंदी के गुटबाज चर्चाकारों से अलग हिंदी रचनाकारों का प्रतिनिधि पक्ष प्रस्तुत कर सके और जिसमें हिंदी समाज की जातीय चिंताएं साफ झलक सकें. यह चिंता भी मन में थी कि हिंदी साहित्य और समाज का आपस में जो आत्मीय रिश्ता उलझता चला गया है, साहित्यिक और लोकप्रिय अभिरुचि के बीच तनातनी पैदा हो गयी है, उन कारणों को भी यथा-संभव तलाशा जा सके. खासकर पाठकों के भी जो खेमे बनते चले गए उन कारणों पर भी.

 

काफी मेहनत के बाद हम लोगों ने शुरू से तब तक के प्रतिनिधि कहानीकारों की सूची तैयार की, विभाग और बाहर से ऐसे अनुवादकों की तलाश की जिनमें रचनात्मक संवेदना की पहचान हो. कोशिश यह भी रही कि हिंदी कथा-लेखन की विशेषताएं और प्रवृत्तियां संचयन में शामिल हो सकें. टीम में अंग्रेजी के एक-दो ऐसे प्राध्यापक शामिल थे, जिनका अंग्रेजी कथा-साहित्य का बारीक ज्ञान था मगर हिंदी कहानियों को उन्होंने बहुत कम पढ़ा था. इससे हमें इस बात को तलाशने में मदद मिली कि साहित्यिक गुटबाजी से दूर सार्थक लेखन को रेखांकित किया जा सके.

 

दो खण्डों में विभक्त इस संकलन में कुल 37 कहानियों का चयन किया गया. आरम्भ गुलेरी की कहानी ‘उसने कहा था’ (She had said)  से किया गया, जिसे लेकर हिंदी के सभी इतिहासकार एकमत रहे हैं. प्रेमचंद की कहानी ‘ठाकुर का कुआँ’ (The Thakur’s Well) दूसरी कहानी थी जबकि तीसरी जयशंकर प्रसाद की ‘देवरथ’ (The Divine Chariot). चौथी यशपाल की शिव-पार्वती’ शामिल की गयी और पांचवी जैनेन्द्र कुमार की ‘प्रियव्रत’. छठी कहानी अज्ञेय की ‘रोज’ शामिल की गयी और सातवीं चन्द्रगुप्त विद्यालंकार की कहानी ‘सिकंदर डाकू’.

 

आठवीं, वही केन्द्रीय कहानी है जिसे लेकर संकलन का विचार मेरे मन में आया था, राधाकृष्ण की कहानी One Lakh, Ninety-seven thousand, Eight Hundred Eighty-eight. पहले खंड के शेष कहानीकार है: भीष्म साहनी (The Boss Came to Dinner), हरिशंकर परसाई (Inspector Matadin on the Moon), फणीश्वरनाथ रेणु (The Samvadia), धर्मवीर भारती (Gulki Banno), मोहन राकेश (Lord of the Rubble-heap), निर्मल वर्मा (The Burning Bush) अमरकांत (The Midday Meal), शैलेश मटियानी (The Funeral Feast), मन्नू भंडारी (Trishanku), कमलेश्वर (Lost Horizon) और उषा प्रियंवदा (The Return).



 

अठारह कहानीकारों के दूसरे खंड का आरम्भ साठोत्तर कहानीकारों से किया गया है, जिनमें शामिल हैं: ज्ञानरंजन (The Creative Process), काशीनाथ सिंह (Bliss), गिरिराज किशोर (The Fifth Parantha),  हिमांशु जोशी (Tarpan), मृदुला गर्ग (Consummation), गोविन्द मिश्र (Michael Lobo), रमेशचंद्र शाह (The Guardian), मृणाल पाण्डे (Girls), अमर गोस्वामी (Sympathy), देवेन्द्र मेवाड़ी (Goodbye Mr. Khanna), बटरोही (Where Do I Belong), पंकज बिष्ट (Plough), स्वयं प्रकाश (A Beautiful Home), उदय प्रकाश (tirichh), संजीव (Crime), अब्दुल बिस्मिल्लाह ((The Guest of Honour), धीरेन्द्र अस्थाना (In spite of…) और सुनील सिंह (Mother will Live with Me).

 

इस संकलन को तैयार करते हुए मुझे कुछ हद तक इस बात का जवाब मिला कि क्यों हिंदी का आम लेखक-पाठक अपने समाज की धड़कनों के साथ नहीं जुड़ पाया, हिंदी पाठकों के क्यों कई-कई खेमे बनते चले गए और साहित्यिक लेखन आम पाठक से दूर होता चला गया. इस बात का जवाब भी मिला कि राधाकृष्ण जैसे आम जिन्दगी के सरोकारों से जुड़े लेखक मुख्य धारा के लेखन के हाशिये में धकेल दिए गए. मुख्य रूप से जो बात सामने आई, ये कि पश्चिमी साहित्य के पढ़ाकू लेखकों ने, जिनकी जड़ें भारतीय लोक जीवन में कहीं भी नहीं थी; जो विश्वविद्यालयों के हिंदी विभागों में बड़े पदों पर मौजूद थे, उन्होंने हिंदी लेखन का निर्णायक माहौल बनाना शुरू कर दिया. इस बात ने हिंदी विभागों में एक रचनात्मक बौद्धिक माहौल बनने में मदद तो की, मगर जल्दी ही हिंदी के अध्यापकों के बीच गंभीर रचनात्मक सरोकारों से जुड़े अध्यापकों और अवसरपरस्त मास्टरों को एक-दूसरे का दुश्मन बनाना शुरू कर दिया. यही नहीं, दोयम दर्जे के अध्यापकों ने गंभीर लेखन का विरोध करना और चुनौतीपूर्ण लेखन को पाठ्यक्रम से हटाना शुरू कर दिया.


इसी की देखादेखी राजनीतिक खेमेबंदी का जन्म हुआ और लेखकों-अध्यापकों की योग्यता और रचनात्मकता को राजनीतिक विचारधाराओं के आलोक में देखा जाने लगा. शायद यह स्वाभाविक था, मगर बुरा यह हुआ कि एक तरह के लेखक-पाठक दूसरों का निजी तौर पर नुकसान करने लगे. राजनीति की तरह लेखन और अध्यापन में भी अनेक खेमे बन गए जिनका काम लिखने-पढ़ने से हटकर एक दूसरे को हटाने और स्थापित करने में लग गया.

 

सबसे बुरा यह हुआ कि भारतीय सामाजिक संरचना में से गाँवों के ख़त्म होने और शहरी मध्यवर्ग के उदय के साथ हिंदी साहित्य से लोक-सरोकार गायब हो गए. चूंकि यह वर्ग लोक की जड़ों से कटा हुआ था, इसलिए लोक जीवन की ताजगी लेखन से ख़त्म तो हुई ही, उसे हीन भी समझा जाने लगा. इस प्रक्रिया में ग्रामीण जीवन अमीरों की बैठक में रखे सजावट के सामान की तरह पेश किया जाने लगा. यह एक तरह से हिंदी साहित्य से भारतीय सरोकारों के ख़त्म होने का दुर्भाग्यपूर्ण सिलसिला था. यही आज हिंदी पाठक के अंत की विडंबना के रूप में हमारे सामने है.



एक लाख सतानब्बे हजार आठ सौ अट्ठासी                               
राधाकृष्ण 

(समय व्यतीत होता जा रहा है और यह कहानी अभी तक चल रही है. मगर इस कहानी के शीर्षक को लेकर भ्रम हो जाता है, क्योंकि शीर्षक के साथ कहानी की संगति नहीं बैठती. अतएव, लगता है कि इस कहानी के शीर्षक के सम्बन्ध में एक टिप्पणी की आवश्यकता है. सन १९४२-४३ का समय था, जब बंगाल में अकाल से और मिथिला में मलेरिया और भुखमरी से लोग मरते जा रहे थे. बंगाल में मरने वालों की कहानियां उजागर हो रही थीं, लेकिन बिहार की बातों पर ब्रिटिश सरकार के आतंक से एक पर्दा-सा पड़ा हुआ था. उस समय केवल एक ‘इंडियन नेशन’ था जो मिथिला के बारे में तब तक लिखता रहा जब तक कि उसके प्रधान संपादक को अपनी नौकरी से हाथ नहीं धोना पड़ा. उस समय बिहार सरकार के सलाहकार थे श्री वाई. एस. गौडबोले. उन्होंने एक प्रश्न के उत्तर में बतलाया था कि मलेरिया आदि से मिथिला में मरने वालों की संख्या है ‘एक लाख सतानब्बे हजार आठ सौ अट्ठासी.’ इसी वक्तव्य को देखकर यह कहानी लिखी गयी थी. यह एक ही परिवार की कहानी नहीं बल्कि यह एक लाख सतानब्बे हजार आठ सौ अट्ठासी व्यक्तियों की अकाल मृत्यु की करुण कहानी है. इसी कारण इस कहानी का शीर्षक ऐसा है. पहले यह कहानी गौडबोले साहब के वक्तव्य के साथ ही छपती थी. कालांतर में उद्धृत करने वालों ने वक्तव्य को छोड़ दिया. उसके बाद यह कहानी इसी रूप में छात्रों को पढ़ाई जानी लगी. 

(‘राधाकृष्ण की प्रतिनिधि कहानियां’, नए संस्करण में लेखक द्वारा दी गयी टिप्पणी.)



ह मिथिला है. देखिये, गाँव के किनारे से कोसी नदी बहती जाती है. सामने एक बूढ़ा पीपल है. पीपल के नीचे कभी का तालाब है. वहां पक्का घाट है. पुराने ज़माने के किसी जमींदार ने इस घाट को बनवाया था. अब के जमींदार तो मुकदमा लड़ते हैं, मैनेजर और रंडी रखते हैं, शराब पीते हैं, और बंगला बनवाते हैं. घाट-वाट बनवाने के फेर में नहीं पड़ते. सो घाट की ईंटें दरक गई हैं, पलस्तर छूट गया है, टूटी सीढ़ियों में काई जमी रहती है. यह घाट हमारे काम का नहीं. वहां तो बस स्त्रियाँ नहाती हैं. हम बाल-गोपाल घाट की बगल से नदी में उतरते हैं. वहीँ गाय और भैंसों को धोते हैं, छपाछप खूब स्नान करते हैं और सर्र-सर्र पानी में तैरते हैं. उस पीपल पर, कहते हैं, भूत है. भूत भी ऐसा कि ब्रह्मपिशाच. गाँव वाले कहते हैं कि ‘रात को वह घाट पर बैठा रहता है. अगर कोई उधर जा निकला तो उसे मार डालता है’. हम लोग रात में कभी उधर गए ही नहीं. जाने की कभी जरूरत ही नहीं पड़ी. पता नहीं ब्रह्मपिशाच की बात कहाँ तक सच है.

बस्ती हमारी बड़ी है. यहाँ ताड़ के पेड़ हैं. पासी अपने पैर में फंदा लगाकर उसके ऊपर तक चला जाता है और लबनी में भर कर ताड़ियाँ उतार लाता है. खजूर के पेड़ हैं और रसीले आम के पेड़ भी हैं. हमारे यहाँ के आम को आप लोग दरभंगिया आम कहते हैं. आम समूची मिथिला में होता है; लेकिन आप लोग हमारे आम और महाराजाधिराज को सिर्फ दरभंगा का ही बतलाते हैं. दरभंगा तो सिर्फ एक शहर है! वहां कचहरी है, महाराजाधिराज का किला है. उस शहर में डिप्टी और वकील लोग रहते हैं और मुकदमा हुआ करता है. हमारे गाँव से बहुत-से लोग सत्तू-पोटली बाँधकर बगल में कागजों का बस्ता लेकर मुकदमा लड़ने के लिए दरभंगा में जाया करते हैं. दरभंगा यहाँ से दूर है. हमारे यहाँ जिस तरह सूरज का उजाला होता है, वहां रात में उसी तरह बिजली जगमग करती है. वहां आग और पानी से चलने वाली रेलगाड़ी भी है, मोटरों को लोग एक दुर्गंधित तेल से चलाते हैं; लेकिन उन बातों की विशेष जानकारी मैं आपको नहीं दे सकूँगा, क्योंकि एक तो मैं लड़का हूँ, दूसरे मैं कभी दरभंगा गया ही नहीं.

मैं आपको अपनी बस्ती की भी पूरी जानकारी नहीं दे सकता. यह बहुत बड़ी बस्ती है और मेरा ख्याल है कि यहाँ सात कोड़ी से भी अधिक घर होंगे. इसी गाँव में भूखन साह रहते हैं. उनके यहाँ की औरतें रंगीन साड़ी पहनती हैं, आँखों में सुरमा मांजती हैं और सोने-चांदी के आभूषण पहनकर झमाझम चलती हैं. उन्हीं की लड़की की शादी में हमने पहले-पहल हाथी देखा था. गाँव में सूदन झा, लखन झा, बिरजू झा आदि बड़े-बड़े पंडित हैं. ये लोग छानकर पानी पीते हैं और रोज रोहू मछली छोड़कर दूसरी मछली बिलकुल नहीं खाते. टेमन साव, टेसा साव, सकूर मियां आदि यहाँ बड़े-बड़े महाजन हैं. उनके यहाँ आदमी को पांच कोड़ी तक कर्ज मिल सकता है. मास्टर इसी गाँव के रहने वाले हैं जिनकी विद्या का तो कहना ही क्या. वे अंगरेजी भी जानते हैं और किताबों को शुरू से आखीर तक पढ़ जाते हैं. सुचित झा इसी गाँव के नेता हैं जो कहते थे कि हमको स्वराज्य लेना ही होगा. वे बड़े अच्छे आदमी थे और बहुत सी बातें बतलाया करते थे. हर हफ्ता उनके पास एक अख़बार आता था. उसमें वनस्पति घी और स्वराज्य की अच्छाई के बारे में बहुत सी बातें लिखी रहती थीं. प्रति सप्ताह उसमें दाद की दवा और डोंगरे के बालामृत का वृतांत छपता था. काका सुचित झा उसे आदि से अंत तक पढ़ते थे और पूछने पर कुछ हम लोगों को भी बतला देते थे. उन्हीं दिनों की बात है कि सुचित झा इस गाँव में एक बहुत बड़े नेता को बुला लाए थे. आने वाले उस नेता की मूछें घुटी हुई थीं, भारी-भरकम शरीर था. वे चश्मा लगाकर गैंदा फूल की माला पहने हुए थे. उस दिन आम की बगिया में दरी बिछायी गई थी और बड़ा समारोह हुआ. हम सभी लड़के इस घटना से बहुत प्रसन्न थे और ऊंची आवाज में ‘जय-जय’ चिल्लाते थे. उस नेता ने बहुत बड़ा भाषण दिया. वह युद्ध का विरोध करते और हर एक आदमी को चरखा चलाने का उपदेश देते थे. मगर काका सुचित झा को छोड़ गाँव में दूसरा कोई चरखा चलाने वाला नजर नहीं आया. लोग कहते थे इसमें मजदूरी कम है. अगर दूसरा कोई काम करता है, तो दो पैस ज्यादा मिल जाता है.

यह सब बहुत दिनों की बात है. अब तो हमारे नेता सुचित झा भी जेल में बंद हैं. पुत्र-शोक में घुल-घुल कर उनकी माँ ने दम तोड़ दिया. मरने के बाद घर में कफ़न के लिए कौड़ी भी नहीं थी. केले के पत्ते से ढांप कर उनकी लाश उठाई गयी. सुचित काका की स्त्री आजकल पिसाई करती है और पैबंद लगी साड़ी पहनती है. उसने बताशा बेचने का काम भी किया था; लेकिन चीनी के अभाव में वह काम बंद कर देना पड़ा. पिसाई के अलावा वह गुड़िया बनाती है और गाँव की लड़कियों के हाथ धेले-पैसे में बेचा करती है. सब जानते हैं कि सुनैना काकी बड़ी मुसीबत में है लेकिन कोई उसकी मदद नहीं करता. टेमन साव और टेसा साव के पास बहुत पैसे हैं, लेकिन वे उसे कर्ज भी नहीं देते. अगर सुचित काका किसी भांति स्वराज्य ले लें तो उससे इन्हीं अमीरों का ज्यादा लाभ होगा. मगर वे लोग हैं, जो सुनैना काकी की कोई मदद नहीं करते. हम लोग तो छोटे-छोटे लोग हैं. हम लोग क्या कर सकते हैं. हमारी सुनैना काकी बेचारी एक शाम खाती है, दूसरे शाम उपवास रह जाती है. पूछते हैं तो कहती है कि बेटा रात के समय मुझे भूख नहीं लगती. क्या जाने उसे भूख क्यों नहीं लगती. मुझे तो रात को भी ऐसी भूख लगती है कि क्या पायें और खा जाएँ.

उसी सुनैना काकी की बगल में मेरा घर है. जाति के हम लोग सुनार हैं. बाबूजी का गहना गढ़ने में नाम है. कंगन, बिछिया, हंसुली. हार आदि वे बड़ा बढ़िया बनाते हैं. मगर गाँव में गहना गढ़वाने का शौक नहीं है. तो क्या किया जाय? थोड़ी बहुत खेती है, उसी से गुजारा है. गाय का दूध है, भैंस की छाँछ है, गुड़ की मिठाई है. गाँव में हम लोग खाते-पीते अच्छे हैं. छम्मी मेरी छोटी बहन है. कभी-कभी वह ज़िद मचा देती है कि हम घी की मिठाई खायेंगे. लेकिन मेरा तो दावा है कि घी की मिठाई दरभंगा छोड़कर और कहीं बन नहीं सकती. छम्मी छोटी है. उसे अक्ल कहाँ?


(दो) 

सुचित काका का जेल में जाना था कि गाँव में काया-पलट हो गयी. हम हैरान थे कि क्या हो गया. गुड़ की भेली जो हम पैसे में दो लेते थे, वह अब तीन पैसे में सिर्फ एक मिलने लगी. भूखन साहू ने अपनी दुकान बंद कर ली. अब न वे हल्दी देते थे, न धनिया ही बेचते थे. सीधे कह देते थे कि है ही नहीं; लेकिन मैं जानता हूँ कि सारी चीजें उनके यहाँ थीं. खुद मेरे बाबूजी उनके यहाँ जाते थे और चिरौरी करके किरासन तेल ले आते थे. कहते थे कि बारह आने बोतल लगता है. लगता होगा. अम्मा के लिए एक ही साड़ी बारह रुपयों में आई थी. इसके लिए बाबूजी को सवा मन चावल बिक्री करना पड़ा था. फिर हमारे लिए धोती चाहिए. छम्मी मचलती है कि वह तो लाल साड़ी लेगी. एक लालटेन खरीदने की भी सख्त जरूरत है. इसके लिए हमारे तमाम गेहूं बिक गए. चावल का एक दाना भी नहीं रहा, पुआल के बिना गाय भूखी रहने लगी. सिर्फ कपड़ा-लत्ता और लालटेन खरीदने के पीछे ही हम लोगों की लेई-पूँजी साफ हो गई. पिताजी उदास रहने लगे कि अब क्या होगा!

पिताजी चिंता में दुबले होने लगे कि एक दिन दोपहर के समय बुरी तरह कांपने और हांफने लगे. उन्हें बड़े जोर का बुखार आया था कि रात भर वे मुँह फाड़ कर पड़े रहे. बार-बार पानी मांगते थे और अर्र-बर्र बोलते थे. सबका मिजाज बदहवास हो गया. रात भर बाबूजी बुखार में पड़े रहे, अर्र-बर्र बोलते रहे. जब चुप रहते थे, उस समय मुँह फाड़े रहते थे. रात भर के बाद दूसरे दिन जैसे ही सूरज निकला कि बाबूजी के शरीर से पसीना छूटने लगा. सारा शरीर पसीने से सराबोर हो गया. बुखार छूट गया, सिर्फ कमजोरी बाकी बची.

सबका ख्याल था कि अब बुखार से पिंड छूटा; लेकिन दूसरे दिन फिर शाम को बाबूजी के साथ वही तमाशा हुआ, उसी तरह शरीर दलदलाने लगा. बुरी तरह कांपने लगे. रजाई दी गयी, कम्बल दिया गया. मेरा, छम्मी का, अम्मा का, सबका ओड़ना-बिछाना उनके शरीर पर लड़ दिया गया; लेकिन कंपकंपी ऐसी थी जो नहीं छूटती थी. उसके बाद भयानक बुखार आया और पिताजी ने आँख बंद करके अपना मुँह फाड़ दिया. हमने तो समझा कि बाबूजी मर ही गए. सुचित काका की अम्मा मरी थी तो इसी भांति आँखें बंद थीं. इस बात से मुझे बहुत ही डर मालूम हुआ. अम्मा से अपना संदेह प्रकट किया तो वह मुझ पर चांटा मर बैठी. रोता-सिसकता मैं सो गया. फिर सबेरे उठकर देखता हूँ कि बाबूजी के पसीना छूट रहा है और बुखार उतर रहा है.

अम्मा के गहने बिक गए, बर्तन बंधक रख दिए गये. कुछ दिन के बाद एक दाढ़ी वाला आदमी आया और हमारी तमाम गायों को खूंटे से खोल ले गया. हम रोने लगे, ढेला लेकर  मारने के लिए दौड़े. पिताजी ने डांट दिया. बोले, हमारी गायें उन्होंने खरीद ली हैं.

मैंने रोते हुए कहा-  यह तो कसाई है. हमारी गायों को काट देगा.

तब बाबूजी ने मुझे जोर से डांटा कि मैं सहम उठा. शायद यह सच्ची बात कहना मुझसे कहर हो गया था. यह मेरा कैसा अपराध था. अपनी सूनी गौशाला के कमरे में बैठकर मैं सुबक-सुबक कर रोने लगा.

माँ खाना खिलाने के लिए आई तो मैंने साफ जवाब दे दिया- जब तक मेरी गएँ नहीं आयेंगी, तब तक मैं नहीं खाऊंगा.

मगर मेरी टेक निभी नहीं.

बाबूजी का वही हाल था. रोज बुखार आता और सबेरे छूट जाता. दुबले-पतले कंकाल-सरीखे दिखाई देते थे. सारा शरीर काला पड़ गया था. आँखें भयावनी हो गयी थीं.

बाबूजी की बीमारी में एक दूसरी नयी बात सुनने में आई. उन्हें एक दावा मिलती नहीं थी. उस दवा का नाम है कुनैन. पता नहीं यह कैसी अचम्भे वाली दवा है. बाबूजी ने तमाम सुराग लगाया, हर जगह छान मारा; लेकिन उन्हें वह दावा मिली ही नहीं. पहले मैंने सुना था कि लोगों को सांप की मणि नहीं मिलती. दूसरे मैंने सुना था कि सोने के पहाड़ को खोदकर भी नहीं पा सकता. तीसरे मैंने यही देखा कि हजार कोशिश के बाद भी कुनैन नाम की चीज नहीं मिल सकती.

मगर थोड़ा-सा खटका बना ही रहा. एक दिन मैंने सुनैना काकी से कहा – ऐसा तो हो ही नहीं सकता कि कुनैन कहीं नहीं होगा. दुनिया में कहीं-न-कहीं बहुत-सा कुनैन जरूर होगा.

सुनैना चची ने धीरे-से हंस दिया.

मैंने कहा- दरभंगा में जो बड़ा-सा सरकारी अस्पताल है, जहाँ से लोग पढ़-पढ़ कर डाक्टर बनते हैं, क्या वहां भी नहीं होगा? मैंने कहा- हम्रारे महाराजाधिराज के यहाँ तो जरूर होगा. अगर उनके यहाँ नहीं हो तो उनके राजराजेश्वर हैं, उनके यहाँ तो जरूर होना चाहिए. चची, वे लोग कुनैन क्यों नहीं बांटते?

चाची बोली- लड़ाई है बेटा, उसी कारण कुनैन नहीं मिलता.

बात मेरी समझ में नहीं आई. मैंने कहा-  जब लड़ाई ही करनी थी तो थोड़ा कुनैन अपने पास जरूर रख लेना चाहिए था. ऐसी लड़ाई किस काम की कि पास में मारने की सब चीजें हैं और जिलाने की कोई चीज नहीं. अगर इस गाँव में हर किसी को बुखार हो जाये तो सरकार का ही तो नुकसान होगा. हम लोग भी सरकार के ही आदमी है न चाची! पिछले महीने में रामरतन फ़ौज में भरती होकर चला गया. हम भी बड़े होंगे तो हम भी भरती होंगे. मगर हमें बुखार लग जाये तब तो हमसे क्या लड़ाई होगी!

चाची ने कहा- जो सबसे बली है; वही सरकार जिसको जो चाहे, सो कर सकती है. अगर सरकार कुनैन नहीं रखती तो इसके लिए कुछ भी नहीं कह सकते.

मैंने कहा- क्यों नहीं कहूँगा, बेशक कहूँगा.

चची ने झुंझलाकर कहा- तुम्हें भी जेल चला जाना पड़ेगा, समझ लो.

मेरा दिल दहल गया. जेल, सुनते हैं कि वहां से आदमी निकल ही नहीं सकता. सुनते हैं कि एक जिला है भागलपुर. सो वहां की जेल में सरकार ने गोली चला दी. भगवान जाने, जेल में हमारे सुचित काका कैसे होंगे. जेल का नाम सुनते ही मेरा मुँह सूख गया.

फिर भी विश्वास नहीं होता था. बोला- सिर्फ जरा सी बात कहने के लिए सरकार जेल नहीं देगी.

चाची ने कहा- तुम्हारे काका ने क्या किया था? उन्होंने सिर्फ गाँधीजी की जय कही और उन्हें जेल में डाल दिया गया. बोलो, इसके सिवा उन्होंने और क्या किया था?

 बात सही थी.मेरा कलेजा धड़कने लगा. कहीं सरकार को मेरी बात मालूम न हो जाय.

चाची ने समझाया- बेटा, ऐसी बात नहीं कहते.

ठीक है, मुझे समझना चाहिए था. अब कभी नहीं कहूँगा.

गाँव में केवल हमारे ही बाबूजी बीमार नहीं थे. रामधन का भी यही हाल था. शिवटहल महीनों से इसी बीमारी को भुगत रहा था. जानकी तो इसी बीमारी से मर गया.

और दिन आ रहे थे और दिन जा रहे थे.

घर की हालत क्या बतलावें. बाबूजी ने अनाज इसी भरोसे बेच दिया था कि सस्ती होगी तो खरीद लेंगे. मगर सस्ती कहाँ तक होगी कि रूपये में सवा सेर का चावल बिकने लगा. अगहन का महीना आया; लेकिन मेरे घर में धान बिलकुल ही नहीं आया. पूछने पर अम्मा ने बतलाया अबकी धान भूखन साहू ले जायेंगे.

क्यों?-  मैंने पूछा.

-क्योंकि तुम्हारे बाबूजी ने दवा कराने के लिए रुपये लिए हैं- अम्मा बोलीं.

मैंने क्रोध से कहा- वे अपने रूपये लेंगे कि हमारा धान भी ले लेंगे?

अम्मा बोली- वे अपना रुपया भी लेंगे और धान भी लेंगे. खेत उनके हाथ में जरपेशगी दी गई है.

तब हम खायेंगे क्या?

अम्मा रोने लगी- बेटा, तुम्हारे बाबूजी अच्छे हो जायेंगे तो फिर सब हो जायेगा. अभी दुःख के दिन हैं सब्र करो.

शाम को मैं सुनैना काकी के पास गया. उनसे पूछने लगा- चाची, सब्र करने से क्या फल होता है?

चाची बोली- बेटा, सब्र का फल बहुत मीठा होता है.

तब मैंने ख्याल किया कि मुझे सब्र ही करना चाहिए. अपने लिए नहीं तो बाबूजी के लिए तो मुझे जरूर सब्र करना चाहिए.

इधर घर में मुझे छूछा भात मिलने लगा. दूसरे शाम वह भी नदारद हो गया. मैं अम्मा की गोद में दुबककर सो जाता था. मुझे मालूम था कि सब्र का फल मीठा होता है. मेरी छोटी बहन छम्मी नासमझ थी. वह भूख-भूख रटती थी. आप परेशान होती थी और अम्मा को भी परेशान कर देती थी. छम्मी नहीं जानती कि सब्र करने का फल क्या मिलता है.

खाने के लिए छूछा भात हो गया. माड़ में थोड़ी-सी हल्दी मिला देने से वह दाल का मजा देती थी. तरकारी के नाम पर जरा-सी चटनी हो जाय तो वही बहुत है.

ऐसे इस तरह के दिन भी आने लगे और जाने लगे.

कि, लो, अब अम्मा का भी वही हाल हो गया. सबेरे के पहर उनके शरीर में कंपकंपी होने लगती. दिन भर बुखार में पड़ी रहती.

दिन में बाबूजी रसोई बनाते थे और रात को अम्मा बाबूजी के पैर दबाती थी.

सिर्फ कुनैन के बिना? सुनते है कुनैन जापानियों के हाथ में है. मैं पूछता हूँ सिर्फ कुनैन के लिए ही जापानियों को नेस्तनाबूद क्यों नहीं किया जाता? सबसे पहले कुनैन मिलना चाहिए. पीला कुनैन की लड़ाई हो. फिर बाकी लड़ाई पीछे होती रहेगी. रात के समय मैं सोचा करता था, मैं जापानियों से जूझने जा रहा हूँ. मेरे पीछे बहुत बड़ी सेना है. तमाम जापानी मारे जाते हैं. अब पृथ्वी पर एक भी जापानी नहीं, अब कुनैन निर्बंध है. मैं पुकारता– आओ. कुनैन ले जाओ. सभी दौड़ते हैं. कितने लोग हैं, क्या मैं कभी इन्हें गिन भी सकता हूँ...! अम्मा मेरी बलैय्या लेती है, पिताजी मुझे आशीर्वाद देते हैं. मगर भूखन साहू को मैं कभी कुनैन नहीं दे सकता. वह हमारा सारा धान उठाकर ले गया.

गर्मी के दिन किसी-किसी भांति बीत गए. अब बरसात आई है. झमाझम मुसलाधार वृष्टि हो रही है. रात का समय. बाबूजी बुखार में पड़े हैं, अम्मा की तबियत भी अच्छी नहीं है. तमाम घर में अँधेरा छाया हुआ है. अब तो न किरासन का तेल है और न उसे खरीदने के लिए पैसे हैं.


(तीन)

आजकल तो मैं ही घर में कमाने वाला हूँ. दिन के समय लड़कों के साथ कोसी में मछलियाँ मारता हूँ. शाम होते ही किसी की फुलवारी में घुसकर कुछ फल और सब्जी का जुगाड़ करता हूँ. इसी से घर चलता है. उस दिन भूखन साहू के यहाँ  एक बैलगाड़ी खड़ी थी. उसमें चावल के बोर लदे थे. अपने साथियों के साथ मिलकर हम लोगों ने एक पूरा बोरा ही उड़ा लिया. गाड़ी वालों को खबर भी नहीं हुई. इसमें मुझे तेरह सेर चावल का लाभ हुआ था. छम्मी भी समझदार हो गई है. उसने भी अब सब्र करना सीख लिया है. अब वह लाल साड़ी पहनने के लिए ज़िद नहीं मचाती. फटा-पुराना चिथड़ा लपेटकर इधर-उधर जलावन के लिए सूखी लकड़ियाँ खीजती है. माँ को दिन भर बुखार लगता है, बाबूजी उठने-बैठने से लाचार हो गए हैं. छम्मी खुद बनती है. उसे बनाना भी नहीं आता. सब्जी में वह नमक भी नहीं डालती. पूछता हूँ तो कह देती है कि घर में है ही नहीं तो क्या करूँ. अब उस नासमझ को कौन समझाए? भूखन साहू के यहाँ बोरा-का-बोरा नमक पड़ा रहता है. जरा नजर इधर-उधर हुई कि एक मुट्ठी गायब कर दिया. कौन देखता है. इतने ही से काम चल जाता. बिना नमक के खाना बेस्वाद मालूम होता है.

रात का समय है. घर में अँधेरा छाया हुआ है. बाबूजी बुखार में बेहोश हैं, छम्मी सो रही है. अम्मा और मैं जग रहा हूँ. आज मेरी तबियत सुस्त है. आज मुझे जमींदार के भंडारियों ने मारा है. हम लोग रहर और सरसों चुरा रहे थे कि साला बिसेसरा किधर से आ गया. और लड़के तो फुर्र हो गए, केवल मैं ही पकड़ लिया गया. इसके बाद उसने छड़ी से, घूंसे से, थप्पड़ से मेरी खूब मरम्मत की. तीन बार थूक कर चटवाया तब तब जान छोड़ी. उस समय तो उसने जान छोड़ दी, लेकिन अभी मालूम होता है जैसे जरूर जान चली जाएगी. सारा शरीर घाव की तरह दर्द कर रहा है. डर से कराहता भी नहीं कि अम्मा सुनेगी तो पूछेगी. अम्मा से कहने की यह बात नहीं है, कहा भी नहीं. अगर बाबूजी से कह दूँ, तो बिसेसर के छक्के छुड़ा दें. अब वे अच्छे हो जाएँ. बीमारी की हालत में यह बात सुनेंगे तो रोने लगेंगे.

तमाम सन्नाटा है. मालूम होता है जैसे सारा गाँव मर गया. बरसात का पानी बरस रहा है. बस झमाझम उसी की आवाज है. इसी समय एक भयानक आवाज सुनता हूँ– छम्मी की अम्मा!

अम्मा चिहुंक उठती है, मैं डर जाता हूँ– मालूम होता है जैसे कोई औरत चिल्ला रही है और कै कर रही है. मैंने धीरे-से कहा- चुड़ैल!

अम्मा ने मुझे अपनी छाती से चिपका लिया.

छम्मी की अम्मा!- फिर आवाज सुनाई पड़ी. मालूम हुआ जैसे सुनैना काकी की आवाज है.

माँ उठकर बाहर गयी.थोड़ी देर के बाद वापस आकर बोली- उन्हें हैजा हो गया है. कै और दस्त हो रहे हैं. तू चुप सो जा. मैं उनकी सेवा को जा रही हूँ.

सवेरे तक सुनैना काकी की मृत्यु हो गई थी और मेरी अम्मा को कै होने लगे थे. अंजन में ही दस्त निकल जाता था. जब मैंने उन्हें देखा तब उनकी पिंडलियाँ ऐंठ रही थीं. बार-बार तेज हिचकी आती थी. शरीर कांप उठता था. मुझे देखकर उनकी आँखों से आंसू बहने लगे.

मैंने समझाया- ठहरो अम्मा, घबराओ नहीं, मैं लोगों को बुलाए लाता हूँ.

और मैं दौड़ा हुआ बाहर निकला.

जगेसर के यहाँ गया. उसने बतलाया मुझे खेत में जाना है. सीताराम के तीन बच्चे इसी बीमारी में पड़े हैं. रामधन की माँ ने इसी बीमारी से दम तोड़ दिया है. मालूम हुआ कि तमाम गाँव में हैजा फ़ैल गया है. घर-घर में लोग बीमार हैं और मर रहे हैं. सामने सारा गाँव था लेकिन हमारे लिए कहीं कोई नहीं था. सबको अपनी-अपनी पड़ी थी. कोई भी आने को तैयार नहीं हुआ.

आखिर मेरा मित्र रामनाथ काम में आया. वह मुझसे उम्र में बड़ा है. सात महीना दरभंगा में रह आया है. वह बहुत-सी बातें जानता है और बड़ा हिम्मत वाला आदमी है. उसने दो-चार दोस्तों को और जमा किया. सबके साथ जिस समय हम घर पहुंचे उस समय देखा कि माँ की दोनों आँखें खुली हैं, एक टक. सारा शरीर ऐंठ गया है. बदबू के मारे आँख नहीं दी जाती. वे बरामदे में पड़ी हुई थीं और उनके सारे शरीर पर मक्खियाँ भिनभिना रही थीं.

रामनाथ ने कहा- यह तो मर गयी!

मैं चौंक उठा.

छम्मी बोली- अभी थोड़ी देर पहले तक तो पानी मांगती थी.

नहीं, मरी नहीं है. सुनैना काकी भी तो इसी तरह पड़ी हुई है.

रामनाथ ने कहा- अरे नहीं पगली,यह मर गयी. अब इन्हें ले चलना होगा.

रामनाथ ने एक चारपाई पर सुनैना काकी और अम्मा को सुला दिया. हम चारों-पाँचों उन्हें ले गए. बाबूजी में तो इतनी शक्ति भी नहीं थी कि वे बिस्तर से उठ सकते. रह में रामनाथ बहुत ही आश्चर्यजनक बात कर रहा था – मरने पर आदमी की लाश भारी हो जाती है. जब तक आदमी जिन्दा रहता है तब तक हल्का रहता है.

इसी तरह की बातें करते हुए हम श्मशान पहुंचे. रामनाथ के साथ रहकर हम लोग निश्चिन्त थे. वह हम लोगों का अगुआ था.

श्मशान में पहुंच कर हम लोगों ने देखा, कुछ चिताएं जली हुई हैं, कुछ बुझी हुई हैं. वहां हमने टेसा साव को देखा. उनकी लड़की मर गयी थी. सूदन झा, लखन झा, बिरजू झा आदि सभी बड़े-बड़े पंडित उनके साथ मसान में आये थे. दो-तीन और लाशें थीं. ऊपर चील मंडरा रहे थे. तमाम चिरायंध गंध फैली हुई थी. हम लोग बैठ गए और विचार करने लगे कि अब क्या हो. इसी समय हमने रघु चमार को देखा. वह खुद ही हम लोगों के पास आया और कहने लगा- महामारी के दिनों में लाश नदी में बहा दी जाती है. ऐसे समय लकड़ी कहाँ खोजते फिरेंगे. तुम लोग भी यही करो.

यह सीख देने के ब्द वह ठहरा नहीं. अपने घर की ओर वापस चला गया. उसने अपनी मौसी और बच्चों की खबर लेनी थी. रामनाथ ने मुझसे कहा- तुम भी ऐसा ही करो.

सबको यही राय जंच गई.

पहले सुनैना काकी की लाश बहाई गई. मैंने उनकी डूबती हुई लाश को देखकर कहा- जाओ काकी, दुनिया में तुमने कष्ट किया है, लेकिन भगवान के दरबार में तुम्हें सुख मिलेगा.

माँ की लाश डुबाते समय तो मेरी आँखों से आंसू बहने लगे. बहुत ही ढाढ़स के साथ मैंने माँ को आश्वासन दिया– तुम सुख से जाओ, मेरी कोई चिंता नहीं करना. अब से बाबूजी की देख-रेख मैं ही करूँगा. छम्मी को सुख से रखूँगा. वह बड़ी होगी, तो उसकी शादी कर दूंगा. तुम हम लोगों की जरा भी चिंता नहीं करना.

और उसके बाद मैं बिलख-बिलख कर रोने लगा.

घर लौटने में मुझे देर हो गई थी. राह में मेरे मित्र रामनाथ के साथ अलग हो गए थे. मुझे देखते ही पिताजी ने चिल्ला कर कहा– तू कहाँ चला गया था? देखता नहीं, मुझे कै और दस्त हो रहे हैं. ला, पानी ला; थोड़ी-सी चावल की मांड दे दो. श्रीराम वैद्य को बुला ला.

मैं व्यग्र होकर फिर रामनाथ के यहाँ दौड़ा.

रात के समय में रामनाथ और छम्मी बाबूजी की लाश लेकर श्मशान जा रहे थे. घर में मुर्दा नहीं रखना चाहिए. रामनाथ का कहना था कि इससे बीमारी और दुर्गन्ध फैलती है. बाबूजी का लाश अम्मा की भांति भारी नहीं थी. फिर भी छम्मी कहती थी– बड़ा भारी है, मुझसे चला नहीं जाता.

श्मशान में पहुँचते ही छम्मी ने कै किया और कांपने लगी. उसने बतलाया कि घर पर ही मुझे तीन-चार दस्त हो चुके थे. लेकिन मैंने डर से किसी कि नहीं बतलाया.

रामनाथ ने पूछा– किसका डर रे पगली?

मरने का! – छम्मी ने कहा. काकी, बाबूजी और अम्मा को मरते देखकर मुझे बहुत डर लगता था. थोड़ा पानी दो.

रामनाथ उसके लिए पानी लेता आया. मुझसे बोला– सुनता है रे, इस छम्मी को भी हैजा हो गया.

तब? – मैंने पूछा.

चलो, किसी पेड़ के नीचे बैठ जाएँ. अगर किसी तरह इसे घर में ले भी जायेंगे, तो मरने के बाद फिर लाना पड़ेगा. इससे अच्छा है कि इस बरगद के नीचे बैठ जाएँ.अभी पानी भी नहीं है. आसमान में चाँद निकल आया है. तू जाकर एक लोटा ले आ.

रामनाथ की बात ठीक थी. घर भी श्मशान से कम नहीं था. जो आराम घर में था वही आराम इस बरगद के नीचे भी दिखाई देता था. बाबूजी की लाश को रखकर छम्मी को लिए हुए बरगद के नीचे चले गए. फिर मैं लोटा लाने के लिए दौड़ गया.

लोटा लेकर जब वापस आया तो मालूम हुआ कि छम्मी के दस्त कम हो गए हैं लेकिन प्यास बहुत है. पानी पीती है और कै कर देती है. कहती थी शरीर में बहुत जलन है और वह बड़ी तेजी से चिल्ला उठती थी. दांत किटकिटाती थी और हम लोग कुछ कहते थे तो सुनती ही नहीं थी.

फिर वह सुस्त हो गई. सिर्फ कराहती थी और किसी बात का कोई जवाब नहीं देती थी.

मैंने रामनाथ से पूछा– यह ऐसा क्यों करती है? बोलती क्यों नहीं?

रामनाथ ने इस बात का कोई जवाब नहीं देकर कहा– राम-राम कहो.

और उच्च स्वर में राम-राम पुकारने लगा.

मैंने घबराकर पूछा– रामनाथ सच बतलाओ, यह क्या हुआ.

रामनाथ ने कहा– यह मर रही है.

छम्मी भी मर रही है! माँ मर गई, बाप मर गए, सुनैना चाची भी मर गई और अब छम्मी मर रही है; अब मैं कैसे रहूँगा? मैं रोने लगा. रोते-रोते पुकारा छम्मी!

कोई उत्तर नहीं.

छम्मी!

फिर भी कोई उत्तर नहीं. हाय अब किसके साथ रहूँगा? किसके लिए मछली मरने जाऊँगा और किसके लिए अमरूद चुराकर लाऊंगा? छम्मी बोलती क्यों नहीं? मैंने बिलखते हुए कहा– दुनिया में जिसका राज्य है वह हमारी नहीं सुनता; लेकिन स्वर्ग में तो भगवान का राज्य है, वे सबकी सुनते हैं. उनसे तू हमारे बारे में कहना. छम्मी, तू उनसे हमारे दुखों के बारे में जरूर कहना.

क्या छम्मी ने भगवान् से हमारे बारे में कुछ कहा होगा? कुछ कहा होगा तो भगवान ने भी अभी तक... जाने दो, मैं अपना किस्सा ख़त्म करता हूँ. 

________________________

राधाकृष्ण
(जन्म: १८ सितंबर, १९१०; रांची-  मृत्यु:3 फ़रवरी, 1979)

 
उपन्यास : फुटपाथ, रूपांतर, बोगस, सनसनाते सपने, सपने बिकाऊ हैं
अपूर्ण उपन्यास: अल्ला कसम, जमीन का टुकड़ा, फिर फाहियान आया, कवि का आविर्भाव
कहानी संग्रह: रामलीला, सजला, गेंद और गोल, गल्पिका
व्यंग्य संग्रह: चंद्रगुप्त की तलवार
नाटक: भारत छोड़ो, बिगड़ी हुई बात, एकांकी, अधिक अन्न उपजाओ
बाल साहित्य: इस देश को कौन जीत सकेगा, मूर्खों की कहानियाँ
संपादन: एकादशी (11 कहानियों का संकलन), साहित्य मधुकरी,साहित्य श्री ,  आदिवासी पत्रिका

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  1. विनोद यादव17 मई 2021, 11:18:00 am

    कहानी जितनी प्रासंगिक है उतना ही सहज और सरल है।

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  2. शिव किशोर तिवारी17 मई 2021, 11:43:00 am

    कहानी में जिस बीमारी का वर्णन है वह काला आजार लग रही है, मलेरिया नहीं। आपकी भूमिका के लिए एक छोटा तथ्य।
    मैंने यह कहानी पहली बार पढ़ी । ऐसा अनोखा रत्न लगभग अज्ञात है यह दुःख का विषय है। मैं अभिभूत हूँ। 'अनुभव की प्रामाणिकता' मुहावरा आजकल नहीं चलता पर इस कहानी में देखना चाहिए कि वह क्या चीज होती है।
    फिर लिखने की सफाई! एक वाक्य फालतू नहीं। फोकस, कसावट, तदनुभूति - पूरी कहानी में अनुस्यूत।
    वाह!
    बटरोही और आपका शुक्रिया।

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  3. राहुल द्विवेदी17 मई 2021, 11:45:00 am

    राधाकृष्ण जी के इस कहानी को पढ़वाने का बहुत शुक्रिया अरुण जी और बटरोही जी ।
    कितनी मार्मिक कहानी । एक एक शब्द सधे हुए..। और सचमुच कुछ भी तो नहीं बदला...सिवाय तारीख के..

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  4. वेदना, असहायता, कुशासन और मृत्यु दंश को इस तरह लिख दिया है कि यह हर युग की कथा है। यही विडंबना है। जैसे बरस बीत गए, समय नहीं बीता।
    उल्लेखनीय कहानी।

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  5. दया शंकर शरण17 मई 2021, 2:37:00 pm

    यह एक कालजयी कहानी है । कालजयी वही हो सकती है जो कालजीवी हो। समूचा शोषण-तंत्र का महीन फरेबी जाल और परजीवी जोंक जैसी व्यवस्था आज भी समाज के रेशे-रेशे में व्याप्त है, सिर्फ़ तरीके और रूप बदले हैं। आजादी के बाद सिर्फ़ चेहरे और चमड़ी के रंग भर बदले हैं।सत्ताएँ बदली हैं,कुर्सियां तो वही हैं। प्रेमचंद को इसका पूर्वाभास था। कहानी अगर रूलाने लगे तो यही उसकी सार्थकता है। मैंने अबतक इसे क्यों नहीं पढ़ा था,इसका मलाल हो रहा है। एक बात और,इस कहानी की कथन भंगिमा,शिल्प और बुनावट आज की कहानियों जैसी हीं है जो इसे और भी समकालीन बनाती है। समालोचन और विशेष रूप से बटरोही जी का बहुत-बहुत आभार !

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  6. अविनाश17 मई 2021, 3:32:00 pm

    कहानी अपने संरचना और भाषा में बिल्कुल नवीन है। पहली दफा मैंने राधाकृष्ण जी को पढ़ा और मैं हैरत में हूँ। तब भी कोई लेखक निर्ममता का ऐसा चित्र बिना निर्मम विशेषणों के कैसे खींच रहा था। आज के लेखक भी यह करते नहीं दिखाई देते।

    इस कहानी को पढ़ाने के लिये शुक्रिया। आगे इनको और खोज के पढ़ा जायेगा।

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  7. घर भी श्मशान से कम नहीं था. जो आराम घर में था वही आराम इस बरगद के नीचे भी दिखाई देता था. बाबूजी की लाश को रखकर छम्मी को लिए हुए बरगद के नीचे चले गए. फिर मैं लोटा लाने के लिए दौड़ गया.

    कितना भयावह दृश्य है। और यह दृश्यऔर भयावहता बदली कहां। सबकुछ वैसा का वैसा। कालजयी रचनाएं समय को नहीं जीवन को दर्ज करती है। ओह... लाशों के बहना, चिताओं का जलना और राह चलते छम्मी का मर जाना.. हम अब भी वैसे ही हैं। बटरोही जी और समालोचन का आभार।

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  8. आशुतोष भारद्वाज17 मई 2021, 8:23:00 pm

    बेहतरीन कहानी। मैंने पिछले महीनों में एक ऑनलाइन हिंदी स्टडी सर्कल में भुवनेश्वर की 'भेड़िए' और अमरकान्त की 'हत्यारे' का पाठ करवाया था। अगली कहानी यही होगी।

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  9. सुशील सुमन17 मई 2021, 8:24:00 pm

    बहुत मर्मस्पर्शी कहानी। न केवल अस्सी बरस पहले की, बल्कि आज की भी कथा कहती।

    इस कहानी को उपलब्ध कराने के लिए बहुत शुक्रिया, समालोचन।

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  10. समय स्वयं को दुहराता है और इसकी गवाही साहित्य देता है । हम कितनी भी तरक्की कर लें समय से अधिक बलवान नहीं हो सकते। राधाकृष्ण हिन्दी के एक दुर्लभ साहित्यकार थे।

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  11. राजाराम भादू17 मई 2021, 10:39:00 pm

    बहुत पहले यह कहानी पढी थी और तब भी यही अहसास हुआ कि इसे भुला क्यों दिया गया। कोई रचना कैसे अपने देश- काल में जडें जमा कर कालजयी बनती है, यह कहानी इसका सर्वथा उपयुक्त उदाहरण है।
    कैसे ठीक वैसे ही हालात और आचरण लौट आये हैं और कहानी की प्रत्येक पंक्ति प्रासंगिक हो उठी है, अपने गहरे सृजन- सत्य के साथ।
    आज हमारे इर्दगिर्द त्रासद वृत्तांत बिखरे हैं, पता नहीं उनमें से कितने बचे हुओं के लिए रचनाओं में रूपान्तरित होंगे।
    इसीलिए राधाकृष्ण जी की ये कहानी क्लासिक है।
    बटरोही जी का आभार कि उन्होंने ऐसे समय इसे उपलब्ध कराया जबकि इसकी बहुत जरूरत थी। उन्होंने कई बहसतलब चीजें अपनी टिप्पणी में उठायी हैं लेकिन उन पर बात करने की अभी मन: स्थिति नहीं है।
    समालोचन का आभार कि इसे प्रस्तुत किया।

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  12. प्रकाश चन्द्रायन
    हिंदी समाज और साहित्य ने टुच्चेपन में कितना कुछ भुलाया है और कितना कुछ खोया है,उसका उदाहरण रचनाकार राधाकृष्ण और
    उनकी यह जैविक कहानी है.

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  13. इस कहानी को पढ़कर लगा कि कथ्य सधा हुआ हो तो शिल्प सध ही जाता है। ऐसा शिल्प कि लगे ही नहीं कि शिल्प है। कितनी सीधी सरल गति से आगे बढ़ती है। और जहाँ समाप्त होती है वहीं हो सकती थी। आज इतने वर्षों बाद भी उसकी प्रभावकता कम नहीं हुई है। बटरोही जी को धन्यवाद इस कहानी को पढ़वाने के लिए। आज की स्थितियाँ देख कर लगता है कि हमने इतने वर्षों बाद भी कुछ हासिल नहीं किया है। अफ़सोस की बात है।

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  14. अरुण जी अद्भुत कहानी । पहली बार पढ़ी । जी झन्ना गया ।आज की दशा का शार्ट रूप। जब लोग ,सुख सुविधाएं कम थी ।अज्ञान न कहेंगें था ही नहीं कुछ तो जिस तरह स्थितियां आईं उसका बड़ा रूप आज देख पा रहे हैं । कितनी सरलता से कही गई है । वैसई मरते लोग दवाइयों पर ---- । भयानक सत्य ।

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  15. सत्ता हर बार निर्मम ही होती है कोई अंतर नहीं अंग्रेजों में और अंग्रेजों के बाद बनी सरकारों में। मध्यमवर्ग उस समय भी निर्लिप्त ही था आम आदमी के लिए ही हमारी ,युद्ध , महंगाई विनाश लाते हैं । कालजयी कहानी।

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  16. मर्मस्पर्शी कहानी. पहली बार राधकृष्ण जी को पढ़ा. आपका आभार.

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  17. पहली बार पढ़ी मैने यह कहानी... यह कितनी अजीब बात है कि जो बहुत पहले कभी घटित हो चुका है उसकी पुनरावृत्ति होती है और वह जैसे एकदम से ‘वर्तमान’ हो उठता है...।
    एक किशोर की नज़र से वर्णित यह पूरी कथा कितनी मार्मिकता से यह उजागर करती है कि सामान्य जन के यूं भले– संवरे जीवन को पटरी से उतरने और टूट कर विश्रंखलित हो जाने में कितना कम समय लगता है...

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  18. सही मायने में कालजयी कहानी.
    मगर कष्टकारी यह कि मठाधीशों के कारण ऐसी कालजयी रचनायें, रचनाकार अंधेरे में खो जाते हैं. जिन्हें अब बटरोही जी जैसे मनीषी उजाले में ला रहे हैं. इसे मठाधीशों के मठ पर हमला ही कहा जाना चाहिए. यह और तेज होना चाहिए. क्योंकि इन मठाधीशों ने हिंदी साहित्य को जितना नुकसान पहुंचाया है उतना किसी और ने नहीं. आज आवश्यकता इसी बात की है कि राधाकृष्ण, भुवनेश्वर जैसे अंधेरे में ढकेले गए लेखकों को उजाले में लाया जाए. बटरोही जी, अरुण जी आशा बंधाते दिख रहे हैं कि यह प्रयास और तेज होगा.
    इस प्रस्तुति के लिए दोनों ही लोगों को धन्यवाद. आभार.

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