अल्बेयर कामू का उपन्यास और लुईस पुएंजो का सिनेमा ‘द प्लेग’: अमरेन्द्र कुमार शर्मा


 


  

महामारियां व्यवस्था की आपराधिक ख़ामियों को कत्ल-ए-आम मचाकर डरावने ढंग से उजागर करती हैं, यह मनुष्य की लोभ और लूट की अनैतिक सभ्यता का भी पर्दाफाश कर देती हैं.  

महामारियां पहले भी आती थीं, और दुर्भाग्य से इनका भविष्य भी है. साहित्य में इनपर काफी कुछ लिखा गया है. नोबल पुरस्कार से सम्मानित लेखक कामू के विश्व प्रसिद्ध उपन्यास प्लेग और इस पर आधारित लुईस पुएंजो की फ़िल्म ‘द प्लेग’ पर अमरेन्द्र कुमार शर्मा का यह आलेख विस्तार से महामारियों और उनपर लिखे साहित्य और फिल्मों की चर्चा करता है. इस उपन्यास का यह कथन जैसे आज के लिए है लिखा गया था –

हममें से हरेक के भीतर प्लेग है, धरती का कोई आदमी इससे मुक्त नहीं है. और मैं यह भी जनता हूँ कि हमें अपने ऊपर लगातार निगरानी रखनी पड़ेगी ताकि लापरवाही के किसी क्षण में हम किसी के चेहरे पर अपनी साँस डालकर उसे छूत न दे बैठें.

आलेख प्रस्तुत है.  

  


 

महामारी की काया में युद्ध की छाया
अल्बेयर कामू का उपन्यास और लुईस पुएंजो का सिनेमा ‘द प्लेग’                                                             
अमरेन्द्र कुमार शर्मा 

 





(‘ क्या अप्रैल इस धरती से विदा लेने का महीना है ?’ –

2020 के अप्रैल महीने से कोरोना महामारी का जो खौफ़ पसरा हुआ रहा है, 2021 के अप्रैल में यह खौफ़ नए सिरे से और नए तरह से फिर पसरता जा रहा है. पिछले वर्ष अप्रैल के महीने से ही कई लेखकों, कलाकारों की मृत्यु की खबरें आने लगी थी. इस वर्ष भी अप्रैल महीने में इस तरह की ख़बरें आने शुरू हो गईं हैं.  आशंकाओं और दुश्चिंताओं का पर्यावरण हमें चारों ओर से घेरता जा रहा है.  आशंकाओं और दुश्चिंताओं से भरे वक्त में अल्बेयर कामू के ‘प्लेग’ उपन्यास के पाठ में भी अप्रैल महीना खौफ़ की चादर बुनता है.  ‘प्लेग’ उपन्यास को पढ़ते और लिखते हुए मुझे शुरुआत कहीं और से करनी थी, शुरू कहीं और से कर रहा हूँ . नीचे प्लेग उपन्यास के कुछ शुरूआती पन्नों में दर्ज तिथियों और घटनाओं का उल्लेख कर रहा हूँ. )
अमरेन्द्र कुमार शर्मा  

 


महामारी


‘16 अप्रैल की सुबह जब डॉक्टर रियो अपने ऑपरेशन रूम से निकले तो उन्हें अपने पैरों के नीचे किसी नर्म चीज का स्पर्श महसूस हुआ. जीने के बीचोबीच एक मारा हुआ चूहा पड़ा था .’

‘17 अप्रैल के आठ बजे जब डॉक्टर बाहर जा रहा था तो पोर्टर ने उसे रोककर बताया कि कुछ निकम्मे बदमाश छोकरे हाल में तीन मरे हुए चूहे पटक गए हैं.’

‘18 अप्रैल की सुबह जब डॉक्टर स्टेशन से अपनी माँ को लेकर लौट रहा था तो उसने देखा कि माइकेल पहले से भी ज्यादा परेशान है. तहखाने से लेकर बरसाती तक जीने में एक दर्जन के करीब मरे हुए चूहे पड़े हुए थे. सड़क के सब मकानों के कूड़े के कनस्तर चूहों से भरे थे.’

‘18 अप्रैल के बाद से फैक्ट्रियों और गोदामों में ढ़ेरों मरे हुए या मरणासन्न चूहे पाए गए थे.’

‘25 अप्रैल को (रैन्सडाक सूचना-विभाग ने)अपनी वार्ता इस घोषणा से शुरू की कि अकेले उस दिन ही 6231 मरे चूहे जमा करके जलाए गए थे.’

‘28 अप्रैल को जब  रैन्सडाक ब्यूरो ने घोषणा की कि आज आठ हजार चूहे जमा किए गए हैं तो सारे शहर में दर और घबराहट की लहर-सी फ़ैल गई.’ 

मृत्यु की दुर्गंध से ग्रसित इतिहास को नैतिक पोस्टमार्टम की जरुरत है. हम उस अँधेरे जगत में निवास करते हैं जो हमारी करनी का फल है.- अल्बेयर कामू

‘इतिहास में जितने बार युद्ध लड़े गए हैं उतनी ही बार प्लेग भी फैली है. फिर भी प्लेग हो या युद्ध, दोनों ही जैसे लोगों को बिना चेतावनी दिए आ पकड़ते हैं.’- प्लेग

‘वह आदमी था. आदमी का दर्द पहचानता था. आदमी की भाषा में सोचता था. वह ख़ामोश चला गया क्योंकि उसे आसपास आदमी का मुखौटा लगाए शैतान नज़र आ गए थे.’- अल्बेयर कामू की मृत्यु पर ज्याँ पाल सार्त्र




(एक)

जो इतिहास से उत्पीड़ित हैं 

युद्ध एक जीवाणु है. युद्ध एक महामारी है. ‘प्लेग’ का जीवाणु व्यक्ति के शरीर में उसकी हिंसात्मक प्रवृत्ति के रूप में सदियों से निवास कर रहा है. ‘प्लेग’ मात्र एक जीवाणु नहीं है न केवल एक महामारी ही. प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष युद्धों से भरी हमारी दुनिया में ‘प्लेग’ एक प्रतीक है जिसकी प्रतीकात्मकता के कई गहरे रक्तस्नात अर्थ-संदर्भ हैं और छल से भरे कूट-संकेत भी हैं. सभी व्यक्तियों में ‘प्लेग’ के जीवाणु सुप्तावस्था में मौजूद होते हैं. किसी-किसी में यह समय के अंतराल पर जाग्रत होकर प्रकट होता रहता है. जब यह प्रकट होता है तब यह मनुष्यता के लिए संहारक साबित होता है. मनुष्यता के संहारक इतिहास में, ‘प्लेग’ कई बार प्रकट हुआ है. इन सबके प्रकटीकरण का अपना रक्तरंजित इतिहास है. 

बीसवीं सदी में यह मुसोलिनी, हिटलर और जेनरल फ्रेंको के साथ तानाशाही के रूप में यूरोप में प्रकट हुआ. एशिया और अफ़्रीकी देशों में भी यह प्रकट होता रहा है. फासीवादी चरित्र में ‘प्लेग’ के जीवाणु पूरी तन्मयता से फलते-फूलते हैं. मुसोलिनी, हिटलर और जेनरल फ्रेंको की तानाशाही में यह इसी तन्मयता के साथ रक्त की खेती के रूप में फलित हुआ था. इसका फलना-फूलना मनुष्यता के लिए न केवल त्रासदी है बल्कि हमारी दुनिया के लिए एक भविष्यलक्षित सबक भी. पूरी दुनिया ने यह त्रासदी देखी है, लेकिन इस त्रासदी के ताप के सहारे क्या कोई सबक भी लिया है ? अल्बेयर कामू अपने उपन्यास में ‘प्लेग’ को केवल एक विषाणु के रूप में नहीं बल्कि बीसवीं सदी में युद्ध की त्रासदी के रूप में भी प्रस्तुत हुआ है. ‘प्लेग’ बीमारी के बहाने असल में, अल्बेयर कामू अपने तीन सौ चालीस पृष्ठ के उपन्यास ‘प्लेग’ में द्वितीय विश्वयुद्ध की त्रासदी रच रहे थे. 

उपन्यास में प्लेग का जीवाणु, युद्ध के जीवाणु के रूप में परिवर्तित हो रहा था. यह पहली बार घटित हो रहा था जब प्लेग जैसी महामारी अपनी प्रतीकात्मकता में युद्ध के साथ उपन्यास में महामारी की तरह प्रकट हो रहा था. प्लेग जीवाणु से मनुष्यता के लिए उत्पन्न त्रासदी को पढ़ते हुए, द्वितीय विश्व युद्ध के कारण उत्पन्न मनुष्यता की त्रासदी को समानांतर समझा जा सकता है. यह उपन्यास अपनी अंतर्वस्तु में प्लेग महामारी के रास्ते युद्ध को महामारी के रूप में प्रस्तुत करता है साथ ही यह उपन्यास व्यक्तियों में, मनुष्यता के लिए दबे, छिपे संभावित संघारक जीवाणुओं को प्रतीकात्मकता में प्रस्तुत करता है.  

अल्बेयर कामू के उपन्यास ‘प्लेग’ को पढ़ते हुए प्रश्न का एक त्रियक रूपबंध सबसे पहले हमारे सामने खड़ा हो जाता है. प्रश्न के इस त्रियक रास्ते से गुजरकर संभवतः हम इस उपन्यास के संदर्भ में अल्बेयर कामू के वास्तविक नजरिए, उसके दार्शनिक मंतव्य को समझ सकते है. पहला, आखिर ऐसा क्या था कि अल्बेयर कामू अपने उपन्यास में ‘प्लेग’ महामारी के रास्ते युद्ध को महामारी बता रहे थे और व्यक्ति, संस्था तथा राज्य की देह में निवास करने वाले युद्ध के जीवाणु को ‘प्लेग’ के जीवाणु  से ज्यादा ख़तरनाक बता रहे थे ? 

प्लेग के जीवाणु तो समय अंतराल के साथ दवाई के इस्तेमाल से ख़त्म हो जाते हैं लेकिन युद्ध के जीवाणु का कोई निश्चित समय नहीं होता और न ही युद्ध की चिकित्सा ही की जा सकती है. दूसरा, अल्बेयर कामू की परिवेशगत परिस्थिति क्या थी जो वे ऐसा सोच रहे थे ? तीसरा, कौन थे अल्बेयर कामू ? 

अल्बेयर कामू, अल्जीरिया मूल के फ़्रांसिसी दार्शनिक लेखक हैं. अल्बेय कामू की पैदाइश (7 नवंबर,1913-4 जनवरी, 1960) उत्तरी अफ्रीका के देश अल्जीरिया के मोंडोवी की है. अल्जीरिया 1830 से 1962 तक  फ़्रांस का उपनिवेश बना रहा था. अल्बेय कामू की नागरिकता फ़्रांस की थी. एक उपनिवेश में जन्म लेने का दुःख, उपनिवेश से आजादी का महत्त्व और अपनी अस्मिता, अपने अस्तित्व की पहचान, उसकी खोज अल्बेयर कामू के चिंतन का केंद्रीय प्रस्थान बिंदु है. अस्मिता संबंधी चिंतन ही अम्बेयर कामू को अस्तित्वादी दर्शन की तरफ ले जाता है. कामू अभी एक वर्ष के भी नहीं हुए थे कि उनके पिता लुसियन कामू की मृत्यु पेरिस के पूर्वोत्तर हिस्से में बहने वाली नदी मार्ने के किनारे फौजी के रूप में लड़ते हुए प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान हो गई, जबकि कामू के पिता मूल रूप से एक खेतिहर मजदूर थे, वे स्वेच्छा से फ़ौज में शामिल हुए थे. पिता नामक संस्था से अल्बेयर कामू अनभिज्ञ रहे. कामू की माँ कैथरीन कामू स्पेनी मूल की थी और अपने पति की मृत्यु के बाद आजीविका के लिए दूसरों के घर में घरेलू सहयोगी के रूप में काम करती थी. स्कूली पढाई के लिए कामू को एक शिक्षक की मदद से छात्रवृति मिल गई और वे पढ़ने के लिए ‘लिसे’ शहर चले गए. बाद के दिनों में जब मात्र चौवालीस वर्ष की उम्र में उन्हें 1957 में नोबल पुरस्कार मिलने की घोषणा हुई (कम उम्र में नोबल पुरस्कार प्राप्त करने वाले कामू दूसरे लेखक थे. कामू से पहले प्रसिद्ध ब्रिटिश लेखक रुडयार्ड किपलिंग (1865-1936) को बयालीस साल की उम्र में 1907 ई. में नोबल पुरस्कार मिला था.), तब कामू अपने उस शिक्षक को याद करना नहीं भूले थे जिनकी वजह से वे आज यहाँ तक पहुँचे थे. 

19 नवंबर 1957 को कामू अपने शिक्षक जरमाँ को ख़त लिखते हुए कृतज्ञता ज्ञापित करते हैं,

 ‘...आपके बिना आपके उस प्यार भरे सहारे के बिना जो आपने उस छोटे से गरीब बच्चे को, जो  उस समय मैं था, दिया. बिना आपको शिक्षा और आदर्श के, यह कुछ भी संभव नहीं था.’[1] 

अपने शिक्षक के प्रति सम्मान का भाव हमेशा कामू में रहा है. अल्बेयर कामू को 1930 में अपने समय की एक असाध्य बीमारी टीबी हो गया था जिससे वे जीवन भर जूझते रहे. हम जानते हैं कि पेंसिलिन के अविष्कार से पूर्व यह बीमारी पूरी दुनिया के लिए प्राणघातक बीमारी थी. कामू द्वितीय विश्व युद्ध शुरू होने से ठीक पहले 1934 में कम्युनिस्ट पार्टी में शामिल हुए. जल्द ही पार्टी द्वारा सुविधानुसार पार्टी लाइन में बदलाव लिए जाने के कारण वे असहज होने लगे और कामू ने कम्युनिस्ट पार्टी छोड़ थी. 1934 में ही कामू ने सयाम हीय से शादी की जो जल्द ही टूट गई. दूसरी शादी  1940 में फ़्रांस की पियानोवादिका फ्रानसीन फोर से की. 1940 में उनके दो जुडवाँ बच्चे कैथरीन और जीन हुए. द्वितीय विश्व युद्ध की परिस्थितियों के कारण कामू कुछ वर्षों तक अपनी पत्नी के साथ नहीं रह सके थे. द्वितीय विश्व युद्ध में हुई असंख्य दर्दनाक मौतें, बचपन में ही प्रथम विश्व युद्ध में पिता की मृत्यु, टीबी बीमारी के कारण हमेशा मृत्यु की संभावनाओं के संकट से भरे, युद्ध की परिस्थितियों के कारण पत्नी फ्रानसीन फोर से दूर रहने की विवशता आदि के साथ अल्जीरिया और फ़्रांस की सामाजिक स्थितियों का असंतुलन, फ़्रांस के साथ जर्मनी का राजनीतिक संघर्ष ने अल्बेयर कामू की चिंतन भूमि को बहुत गहरे प्रभावित कर रहा था. उनकी चिंतन भूमि में अस्ति-चिंतन, मृत्यु-बोध, अनास्था, अलगाव आदि के आने का मार्ग उपर्युक्त परिस्थितयों के कारण निर्मित हुआ है. 

नोबल पुरस्कार समारोह में कामू ने जो व्याख्यान दिया उसमें ऐसी कई बाते उन्होंने कही जिससे लगता है कि कामू सबके बीच रहते हुए भी अपने ‘अकेलेपन’ को जी रहे थे. जर्मनी में उभरते नाजीवाद और उसकी नृशंसता कामू की चेतनशील दुनिया को स्याह बना रही थी. उन्होंने अपने नोबल व्याख्यान में लेखक के संदर्भ से यह जरुरी बात कही, 

‘...लेखक का कार्य उन लोगों का हित साधना नहीं जो इतिहास को रचते हैं, बल्कि उसे ऐसे लोगों के पक्ष में खड़ा होना है, जो इतिहास से उत्पीड़ित हैं.’[2]   

कामू की रचनात्मकता में वैचारिकता का द्वंद्ध हमेशा बना रहा है. कामू के निबंधों का संग्रह 1951 में ‘द रिबेल’ नाम से प्रकाशित हुआ. यह राजनैतिक दर्शन पर आधारित एक महत्त्वपूर्ण किताब थी. कामू ने इस किताब में मार्क्सवाद की कड़ी आलोचना प्रस्तुत की थी. कामू की इसी किताब के कारण सार्त्र के साथ बड़े पैमाने पर असहमति हुई. दोनों के बीच एक लंबी बहस 1952 में हुई. दोनों के इस बहस का ऐतिहासिक महत्त्व है. इस बहस को इसलिए भी पढ़ा जाना चाहिए की दो विस्ख्यत चिंतक अपने समय में विचारधारों के तमाम घुमावों को किस तरह से देखते हैं और उसकी सामाजिक उपयोगिता के बारे में क्या कहते हैं. 

एक सड़क दुर्घटना में कामू की मृत्यु 1960 को हो गई. जब उनकी मृत्यु हुई तब उनके पास उनके लिखे अंतिम उपन्यास ‘द फर्स्ट मैन’ की अधूरी पाण्डुलिपि थी. उनकी मृत्यु के कई वर्ष बाद यह उपन्यास 1994 में प्रकाशित हुआ. उपन्यासों के अलावा कामू ने कई नाटक, कई वैचारिक किताबें लिखे. अस्तित्वादी दर्शन में कामू का नाम बड़े ही आदर से लिया जाता है. तो यह था अल्बेयर कामू और उनका परिवेश जिसके प्रभाव के कारण ‘प्लेग’ उपन्यास कथा की प्रत्यक्ष सतह पर एक जीवाणु के कारण फैलती हुई बीमारी, बीमारी का भय, बीमारी  के कारण मृत्यु और संत्रास को विरचित कर रहा था लेकिन अप्रत्यक्ष रूप से कथा की सतह के नीचे व्यक्ति में निहित उन जीवाणुओं की कथा कह रहा था जिसके कारण युद्ध होते हैं, हिंसाएँ होती हैं.


 

(२)

निषेध है- संपर्क और स्पर्श        

अल्बेयर कामू द्वारा प्लेग महामारी पर उपन्यास लिखे जाने से पूर्व और उसके बाद भी महामारियों पर लिखे जाने और उस लिखे तथा उस लिखे के अतिरिक्त भी महामारियों पर सिनेमा बनाए जाने की एक विस्तृत परम्परा रही है. जितनी समृद्ध परम्परा यह विदेशी साहित्य में रही है उतनी ही समृद्ध परम्परा भारतीय साहित्य में भी दिखलाई देती है. विदेशी साहित्य में डेनियल डेफो (1660-1731) अपने कालजयी उपन्यास ‘रोबिन्सन क्रूसो’ (1719) के लिए ख्यात रहे हैं. 

कहते हैं कि बाइबिल के बाद सबसे अधिक अनुवाद इसी कृति का हुआ है. लेकिन महामारी से संबंधित उनकी कृति ‘ए जर्नल ऑफ़ द प्लेग इयर’ (1722) है, जो  लंदन में 1665 ई. में फैले प्लेग महामारी पर आधारित उपन्यास है. इसी पर आधारित 1979 में एक मेक्सिकन फ़िल्म ‘द इयर ऑफ़ प्लेग’ नाम से मेक्सिकन डायरेक्टर फेलिप कैजलस (1937) ने बनाई, जिसकी पटकथा नोबल पुरस्कार विजेता ग्रैबियल गार्सिया मार्खेज (1927-1914) ने लिखी थी. इस उपन्यास पर आधारित एक लघु एनिमेटेड जर्मन फ़िल्म ‘पेरिविंग मेकर’ 1999 में बनाई गई. 

ग्रैबियल गार्सिया मार्खेज द्वारा 1985 में हैजे की पृष्ठभूमि में लव इन द टाइम ऑफ कोलेरा नाम से एक प्रसिद्ध उपन्यास लिखा गया । यह उपन्यास भी हैजे की महामारी की पृष्ठभूमि में लिखी गई है.  इस नाम से एक फिल्म भी 2006 में बनाई गई. ‘ब्लैक डेथ’ की पृष्ठभूमि पर इंगमार बर्गमैन ने ‘द सेवेंथ सील’ (1957) नाम की फ़िल्म  बनाई थी. ऐतिहासिक सच को फैंटसी के रूप में प्रस्तुत करने के लिए इंगमार बर्गमैन ने मृत्यु और जीवन की प्रतीकात्मकता को परदे पर रचा. परदे पर जीवन का मृत्यु से संवाद शतरंज खेलते हुए होता है. महामारी से मृत्यु यहाँ भयावहता के साथ नहीं उपस्थित होता है बल्कि मृत्यु का संदर्भ शतरंज के मोहरे के साथ दार्शनिक हो जाता है. इटालियन कवि, उपन्यासकार और दर्शनशास्त्री अलेक्जान्द्रों फ्रेंसेसको अंतोनियो मान्जोनी (1785-1873) ने ‘द ब्रेटथेड’ (The Betrothed) नाम से एक ऐतिहासिक उपन्यास 1827 में तीन खंडों में लिखी. मिलान शहर में 1630 ई. में फैले प्लेग की पृष्ठभूमि में लिखा यह उपन्यास इटालियन भाषा में सबसे अधिक पढ़े जाने वाला उपन्यास साबित हुआ. उपन्यास के नाम पर तीन ऐतिहासिक फ़िल्में  क्रमशः 1923 में मारिओ बोनार्ड ने, 1941 में मारिओ कोमेरिमी ने और 1964 में मारिओ माफ्फ़ी ने बनाई है. इटली के राजनीतिज्ञ और डिप्लोमेट बाल्दारसे बोनौटी (1336-1385) ने फ्लोरेंस में चौदहवीं सदी के मध्य में आए प्लेग महामारी पर ‘क्रोनिकल ऑफ़ फ्लोरेंस’ नाम से किताब लिखी. फ्लोरेंस शहर में फैले प्लेग महामारी पर ही 1353 ई. में गिओवनी बोकाकियो (1313-1375) ने ‘द डीकेमैरोन’ (The Decameron) नाम से लंबी कहानियों का एक संकलन तैयार किया, जिसे प्लेग के कारण फ्लोरेंस से बाहर निर्मित एक शेल्टर होम में सात युवा स्त्री और तीन युवा पुरुष द्वारा नैरेट किया गया है. इसकी एक कहानी के आधार पर विलियम शेक्सपीयर का एक प्रसिद्ध नाटक ‘आल वेल दैट इंडस वेल’ है. इस संकलन में शामिल विभिन्न कथाओं के आधार पर बाद के दिनो में कई नाटक, कविताएँ, गीत, ओपेरा और फिल्में बनाई गई. 

इस कृति की प्रसिद्धि का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि इस संग्रह की कहानियों के आधार पर ही 2007 में ‘वर्जिन टेरिटरी’, 2015 में ‘वंडर्स बोकाकियो’ और 2017 में कॉमेडी फ़िल्म ‘द लिटिल आवर्स’ बनाई गई. एक अमेरिकन विज्ञान फंतासी लेखिका कोनी विलिस (1945) द्वारा 1992 में चौदहवीं शताब्दी में फैले इन्फ्लूएंजा और प्लेग महामारी पर केंद्रित ‘डूम्सडे बुक’ उपन्यास लिखी गई. जर्मन उपन्यासकार थामस मान (1875-1955) ने 1912 में एक  उपन्यास ‘डेथ इन वेनिस’ नाम से लिखा जिसकी कथा में कोलेरा महामारी की से हुई मौतों की भयावह तस्वीर है. इस उपन्यास पर इसी नाम से 1971 में लुचिनिवो विस्कोरटी ने एक फ़िल्म बनाई. अमेरिकी लेखक रिचर्ड मैथसन (1926-2013) का महामारी पर केंद्रित प्रसिद्ध उपन्यास ‘आई एम लिजेंड’ (1954) पर तीन बार फ़िल्म बनाई  गई. 

पहली बार ‘द लास्ट मैन ऑन द अर्थ’ (1964) नाम से अमेरिकी फ़िल्मकार रोबर्ट लिपर्ट द्वारा, दूसरी बार अमेरिकी फ़िल्मकार वाल्टर सेल्त्जर द्वारा ‘द ओमेगा मैन’ (1971) नाम से और तीसरी बार ‘आई एम लिजेंड’(2007) नाम से अमेरिकन फ़िल्मकार फ्रांसिस लोरेन्स द्वारा बनाई गई. अमेरिकी लेखक रिचर्ड पेटसन (1954) की 1994 में लिखी किताब ‘द हॉट जोन’ चिकित्सकीय ध्वंस के कारण फैली महामारी को केंद्रित करती है. इसी किताब पर जर्मन फ़िल्मकार वूल्फगैंग पेटरसन ने 1995 में ‘आउटब्रेक’ नाम से फ़िल्म की रचना की. अमेरिकन डॉक्टर, लेखक और फ़िल्मकार मिशेल क्रिक्थान (1942-2008) का चर्चित उपन्यास ‘द एंड्रोमेडा स्ट्रेन’ (1969) विषाणु के कारण रक्त कोशिकाओं में रक्त जम जाने के कारण हुई मौत पर आधारित है. अमेरिकी फ़िल्मकार रोबर्ट वाइज 1971 में इसी नाम से एक फ़िल्म बाने. बाद में ‘द एंड्रोमेडा स्ट्रेन’ पुस्तक पर इसी नाम से एक मिनी सीरिज 2008 में बनाई गई. एक संपर्क या मात्र  एक स्पर्श से फैलनेवाले विषाणु के कारण साँस की नलिका को अवरुद्ध कर देने वाली कहानी की चर्चित फ़िल्म ‘कोंटाजिन ’ (2011) अमेरिकी फ़िल्मकार स्टीवन सोडेर्बेर्ग की सबसे चर्चित फ़िल्म मानी गई. ब्रिटिश फ़िल्मकार डैनी बोयेलिए (1956) की फ़िल्म ’28 डेज लेटर’(2002) एक विषाणु के तेजी से फैलने के कारण हुई महामारी पर केंद्रित है. ‘टुएल्व  मंकीज’ (1995) अमेरिकन मूल के ब्रिटिश फ़िल्मकार टेरी गिलियम की फ़िल्म है जो बंदरों से फैलने वाले वायरस को केंद्रित करती है. ‘ट्रेन टू बुसान’(2016) दक्षिण कोरियन फ़िल्मकार एयन सैंग हो की फ़िल्म है. यह फ़िल्म एक बायोटेक कारखाने से केमिकल के लीक होने के कारण फैली महामारी को चित्रित करती है. 

नोबल पुरस्कार विजेता प्रसिद्ध पुर्तगीज लेखक जोसे सारामागो (1922-2010) द्वारा 1995 में ब्लाइंडनेस शीर्षक से अवर्णनीय महामारी अंधत्व पर केंद्रित एक बेहद संवेदनशील उपन्यास लिखा गया. इस उपन्यास पर 2008 में ब्राज़ीलियन फ़िल्म निर्देशक  फर्नान्डो मियरेल्स (1955) द्वारा एक फ़िल्म बनाई गई. भारतीय साहित्य में भी महामारी को लेकर लेखन कार्य की एक मजबूत परम्परा रही है. हिंदी के प्रसिद्ध कथाकार मास्टर भगवानदास की 1902 में लिखित कहानी ‘प्लेग की चुड़ैल’ जो इलाहबाद शहर में प्लेग फैलने और उससे उत्पन्न दहशत को केंद्रित करती है, पाण्डेय बेचन शर्मा ‘उग्र’ (1900-1967) द्वारा लिखित कहानी ‘वीभत्स’ 1918 में फैले स्पेनिश फ्लू महामारी को केंद्रित करती है, स्पेनिश फ्लू के जीवाणु प्रथम विश्वयुद्ध में शामिल भारतीय सैनिक के भारत लौटने के साथ आया था, फनीश्वरनाथ ‘रेणु’ (1921-1977) द्वारा 1944 में लिखित कहानी ‘पहलवान की ढोलक’ हैजा महामारी की पृष्ठभूमि में , रजिंदर सिंह बेदी (1915-1984) की कहानी ‘क्वारंटीन’ (1940) प्लेग महामारी के बीच बीमारों के रखे जाने वाली जगह की नारकीय स्थिति का बयान है. महामारी पर आधारित चर्चित कहानी मानी जाती है. 

प्रेमचंद की कहानी ‘ईदगाह’ और ‘दूध का दाम’ में हैजे और प्लेग महामारी का संदर्भ आया है. हिंदी के प्रसिद्ध कवि सूर्यकांत त्रिपाठी निराला की पुस्तक ‘कुल्ली भाट’ जिसका अंग्रेजी अनुवाद ‘ए लाइफ मिसस्पैंट’ नाम से हुआ था. निराला की इस रचना में भारत में फैले स्पेनिश फ्लू महामारी की त्रासदी के कारण गंगा नदी के तट पर पसरे हुए शवों की विभीषिका उपस्थित हुई है. निराला की पत्नी सहित परिवार का एक बड़ा हिस्सा इस महामारी की भेंट चढ़ गया था. हरिशंकर परसाई अपने प्रसिद्ध निबंध ‘गर्दिश के दिन’ में अपने बचपन में प्लेग महामारी के कारण अपनी माँ को खो देने की त्रासद स्मृति को याद करते हैं. उड़िया के ख्यात लेखक फ़क़ीर मोहन सेनापति (1843-1918) ने अपनी कहानी ‘रेवती’ (1898) में एक पिछड़े गाँव में फैले हैजे की चपेट में आई लड़की रेवती की पढाई के लिए किए जाने संघर्ष और सामाजिक रूढ़िवादिता को दर्ज किया है. यू.आर.अनंतमूर्ति (1932-2014) का प्रसिद्ध कन्नड उपन्यास  ‘संस्कार’ में ‘प्लेग’ महामारी का संदर्भ आया. इस उपन्यास पर आधारित फिल्म के दृश्यों में प्लेग महामारी फैलने की परिस्थितियों और गाँव पर पड़ने वाले प्रभावों को विन्यस्त किया गया है. 

मलयालम उपन्यासकार जोर्ज वर्गिस कक्कानंद के प्रसिद्ध उपन्यास वासुरी (1968) में केरल के एक गाँव में फैले चेचक महामारी की त्रासदी को रचता है. भारतीय साहित्य में महामारी पर लिखे इन कुछ उदाहरणों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि साहित्य अपनी जमीन पर समकालीनता के बीज तो बोटा है लेकिन अतीत से विलग होकर नहीं. 1992 में लुईस पुएंजो (1946) ने अल्बेयर कामू के उपन्यास ‘प्लेग’ पर एक फ़िल्म बनाई. सिनेमा के परदे पर महामारियों को पसरते हुए देखना और पन्नों पर महामारी की दुनिया के विविध रंगों को देखना कई बार हमारी चेतना की भाषा को वर्तनी रहित कर जाता है. हम यहाँ मुख्य रूप से प्लेग उपन्यास और उसपर बनी फ़िल्म पर स्वयं को केंद्रित करेंगे.      

जब प्रथम विश्व युद्ध जारी था, उसी दौरान 1918 से 1920 ई. के बीच फ़्रांस में प्लेग की बीमारी भयानक रूप से फ़ैल रही थी. 1913 में जन्मे अल्बेयर कामू तब महज 5 वर्ष के थे. इस महामारी के बारे में कामू बड़े होने पर बेहतर तरीके से जान गए थे. प्रथम विश्वयुद्ध में अपने पिता के खोने, प्लेग महामारी के कारण फ़्रांस में तबाही की किंचित स्मृतियों को कामू द्वितीय विश्व युद्ध की भयावह त्रासदी, जर्मनी के हिटलर द्वारा फ़्रांस में फैलाई गई तबाही, मनुष्यता का संहार आदि से जोड़ कर देख रहे थे. दोनों विश्वयुद्धों की त्रासदी का समेकित प्रभाव कामू की चेतना पर पड़ा था. चालीस के दशक का दुःख, बेगानापन, मृत्यु बोध प्लेग जीवाणु के रास्ते अल्बेयर कामू के उपन्यास ‘प्लेग’ की कथा भूमि को सिंचित करता है. द्वितीय विश्वयुद्ध जब अपनी गति पर था ठीक इसके बीच अल्बेयर कामू ‘प्लेग’ उपन्यास की कथा भूमि के बारे में चिन्तनशील थे. यह समय 1942 का था. कामू ने उपन्यास लेखन का कार्य 1945 से 1947 के बीच किया. 1947 में ही यह उपन्यास पहली बार फ्रेंच में ‘ला पेस्ट' नाम से और 1948 में अंग्रेजी नाम ‘द प्लेग’ नाम से प्रकाशित हुआ. 

पेरिस के प्रसिद्ध फ्रेंच प्रकाशक गालीमार के संस्करण का हिंदी में अनुवाद शिवदान सिंह चौहान और विजय चौहान द्वारा साझे रूप में किया गया. 1961 में यह हिंदी में प्रकाशित हुआ. आज, जब मैं इस उपन्यास और उपन्यास पर आधारित फ़िल्म पर लिख रहा हूँ, भारत सहित संपूर्ण विश्व में लंबी अवधि से ‘कोरोना’ नामक महामारी फैली हुई है. बढ़ते संक्रमण के बीच लाखों लोगों की मृत्यु हो चुकी है. मृत्यु अब भी जारी है. अंतिम आंकड़ा क्या होगा किसी को नहीं मालूम है. सभ्यता का यह सबसे बड़ा संकट है जिसमें एक मनुष्य को दूसरे मनुष्य से दो गज की दूरी पर रहने के लिए कहा जा रहा है. एक-दूसरे के बीच स्पर्श निषेध है. यानी कि एक ही साथ पारिवारिकता और सामाजिकता की संवेदनाएँ स्थगित कर दी गई हैं. संवेदनाओं के स्थगित होते जाते समय में ‘प्लेग’ का पाठ हमारे सामने कई चुनौती पेश कर देता है. 

इस चुनौती को, उपन्यास में एक भिन्न प्रसंग से कहे अल्बेयर कामू के इस दार्शनिक कथन से समझा जा सकता है- ‘मैं मानता हूँ कि ‘लेकिन’ और ‘तथा’ में से चुनाव करना आसान है. ‘तथा’ और ‘तब’ में कौन सा सही रहेगा इसका चुनाव ज्यादा मुश्किल है. लेकिन सबसे मुश्किल चीज है यह जानना कि ‘तथा’ को वाक्य में लगाया जाए या काट दिया जाए.’(118) यह ‘तथा’ ही है जो महामारी जैसी आपदा के  बीच कुछ लोगों को अपने स्वार्थ पूर्ति के ‘अवसर’ उपलब्ध करा देता है. इस उपन्यास की संरचना में ‘आपदा में अवसर’ से गुजरते हुए भारत में पसरते ‘कोरोना’ महामारी के बीच के ‘आपदा में अवसर’ की समाजिकी और उसकी राजनीति को समझा जा सकता है. अल्बेयर कामू, प्रसिद्ध चेक रचनाकार फ्रेंज काफ्का (1883-1924) से प्रभावित रहे हैं. काफ्का का प्रसिद्ध उपन्यास ‘द ट्रायल’ प्रथम विश्वयुद्ध की शुरुआत में ही 1914-1915 के दौरान लिखा गया और 1925 में प्रकाशित हुआ. इस उपन्यास की कहन शैली से कामू बहुत प्रभावित थे. कामू के उपन्यास ‘प्लेग’ पर काफ्का की कहन शैली का प्रभाव  दिखलाई देता है. असल में, काफ्का के लेखन की एक विशिष्ट शैली रही है,  उसके द्वारा लिखे एक वाक्य का कोई एक निर्धारित अर्थ नहीं होता बल्कि उसका अर्थ बहुअर्थी होता है. 

कामू के उपन्यास ‘द आउटसाइडर’ और ‘प्लेग’ में काफ्का के इस बहुअर्थी शैली को लक्षित किया जा सकता है. ‘प्लेग’ उपन्यास पर रोलाँ बार्थ (1915-1980) ने फरवरी 1955 में ‘द प्लेग स्पीक्स नथिंग’ नाम से एक समीक्षा लिखी जिसमें बार्थ ने उपन्यास को गैर ऐतिहासिक और घटनाओं में निरंतरता के आभाव को बेहद कड़े स्वर में रेखांकित किया. इस समीक्षा के बाद कामू ने रोलाँ बार्थ को एक विस्तृत ख़त लिखा था.[3] 

दरअसल, रोलाँ बार्थ ‘पाठ’ की बहुलार्थता पर यकीन करनेवाले चिंतक रहे हैं. ‘प्लेग’ उपन्यास की बहुलार्थता को उपन्यास के समय, उपन्यास के पूर्व के समय और कई बार भविष्यलक्षित समय के वृत्त में समझा जा सकता है. मृत्यु-बोध के संदर्भ से यह संयोग ही है कि फ्रेंज काफ्का, रोलाँ बार्थ और अल्बेयर कामू को एक ही बीमारी क्षय रोग हुआ था जिसके कारण उनका जीवन बहुत ही सहज नहीं बीता था. कामू ने अपने पिता को एक वर्ष की उम्र में खो दिया था और बार्थ ने अपने पिता को किशोरावस्था में. फ्रेंज काफ्का का अपने पिता से संबंध कभी सहज नहीं रहा. इन तीनों लेखकों के जीवन पर इन सबका असर रहा है, उनके लेखन में भी इस प्रभाव को देखा जा सकता है.       

‘प्लेग’ उपन्यास में वर्णित एक छोटा सा शहर ओरान, अल्जीरिया के उत्तरी पश्चिमी हिस्से में भूमध्यसागरीय तट पर आबाद फ्रांसीसी बंदरगाह का शहर है. वर्तमान में ओरान सांस्कृतिक और व्यावसायिक दृष्टिकोण से अल्जीरिया का दूसरा सबसे महत्त्वपूर्ण शहर है. इस शहर के वास्तु-शिल्प को कई बार आने वाले भूकंप ने ध्वस्त किया है. फ़िल्म के दृश्य में यह शहर समुद्र के किनारे गीली सड़क, धुआँ छोड़ते छोटे कारखाने और पानी के जहाजों से भरा हुआ भूमध्यसागरीय तट के एक आरेख को उभरता है. इस उपन्यास में अल्बेयर कामू ओरान शहर के परिचय में तीन बाते कहते हैं. उपन्यास की चौथी पंक्ति में कामू लिखते हैं-‘...ओरान एक मामूली शहर है, जिसकी ख़ूबी सिर्फ यह है कि वह अल्जीरियाई तट पर स्थित एक बड़ा फ्रांसीसी बंदरगाह है.’(पृष्ठ 07) और फिर कुछ ही पन्नों बाद फिर लिखते हैं-‘ दूसरी बात, ...और शहरों की तरह ओरान में भी, समय और चिंतन की कमी के कारण लोगों को एक-दूसरे से मुहब्बत करनी पड़ती है, बिना यह जाने हुए कि मुहब्बत क्या चीज है.’(09) और तीसरी बात, -‘वृक्षरहित, आकर्षणहीन, आत्मारहित ओरान का यह शहर अंत में शांतिपूर्ण दिखाई देने लगता है और कुछ दिनों में ही आप यहाँ निश्चिंत भाव से गाढ़ी नींद में सोने लगेंगे.’ तो यह है ‘प्लेग’ उपन्यास के शहर का भूगोल और उसकी समाजिकी. उपन्यास में जिस वर्ष की घटना का उल्लेख है या जो समय घटित होता है उसे लेखक ने अधूरे संकेत ‘194...’ में लिखा है. इसमें 1940 से 1949 तक के किसी भी वर्ष का अनुमान लगाया जा सकता है. 

वास्तविकता यह है कि अल्बेयर कामू ने अपने इस उपन्यास की रचना 1945 से 1947 के बीच किया और जो 1947 में फ्रेंच नाम  ‘ला पेस्ट’ और 1948 में अंग्रेजी में ‘द प्लेग’ नाम से प्रकाशित हुआ. दिलचस्प है कि इस उपन्यास पर आधारित एक घंटे पैंतालीस मिनट की फ़िल्म के नौ मिनट 20 सेकेंड पर उभरते हुए दृश्य में परदे पर जिस शहर का दृश्य उभरता है वह ओरान शहर दक्षिण अमेरिका का बताया जाता है और वर्ष का संकेत 199...के क्रम में दर्ज होता है. यह 1990 से लेकर 1999 का कोई भी वर्ष हो सकता है. असल में निर्देशक लुईस पुएंजो दक्षिण अमेरिका के देश ब्राजील के रहने वाले हैं संभवतः इसी कारण ओरान शहर के भूगोल को दक्षिण अमेरिका में दर्ज कर रहे हैं. 

निर्देशक ने यह फ़िल्म 1992 के वर्ष में बनाई है संभवतः इसी कारण फ़िल्म में यह 199... के संकेत के साथ दृश्य में उपस्थित होता है. उपन्यास और फ़िल्म की समय संरचना और उसके भूगोल में यह अंतर फ़िल्म में महामारी के ताप और उसकी संप्रेषणीयता को कहीं से बाधित नहीं करती है. बहरहाल, ओरान शहर में प्लेग नामक महामारी धीरे-धीरे फ़ैल रही होती है. महामारी से जूझ रहे शहर में भय, मृत्यु के प्रसंग का चित्रण भयावह है. यह चित्रण इतना विश्वसनीय है कि उपन्यास को पढ़ते हुए बतौर पाठक यह लगने लगता है कि हम स्वयं इस महामारी के परिवेश का हिस्सा बनते जा रहे हैं. महामारी के परिवेश में शहर की सामाजिक संरचना में विन्यस्त विभिन्न तबकों के लोगों की मनोरचना उसकी प्रवृतियाँ, जीवन जीने के ढंग, उसकी वरीयताएँ , उसकी संवेदनशीलताएँ आदि के विवरण से गुजरते हुए 2020 ई. के कोरोना महामारी की परिस्थितियों की तरफ हमारा ध्यान सहज ही चला जाता है.

‘प्लेग’ उपन्यास और उसपर बनी फ़िल्म के विश्लेषणों की तरफ जाने से पूर्व ‘प्लेग’ उपन्यास की कथा-भूमि की संरचना पर संक्षिप्त चर्चा आवश्यक है. उपन्यास की कथा-भूमि का विस्तार पांच छोटे-छोटे  भागों  में हुआ है. प्रत्येक भाग कई  उपभागों में विभाजित है. पहले भाग के आठ, दूसरे के नौ, तीसरे के एक, चौथे के सात और पाँचवें भाग के कुल 5 उपभाग हैं. इस उपन्यास में महत्त्पूर्ण और गौण पात्रों की कुल संख्या लगभग बीस है. डॉ. बर्नार्ड रियो, रियो का सहयोगी डॉक्टर कास्टेल, जीन तारो, पत्रकार रेमंद रेम्बर्त, मार्टीन रेम्बर्त म्युनिसिपल क्लर्क जोजफ़ ग्रान्द, व्यापारी मोशिये कोतार्ड, फ़ादर पेनेलो, डॉ कैसल, चौकीदार मायकल, पुलिस मजिस्टेट मोशिये ओर्थों आदि प्रमुख चरित्र हैं.   

 


(३)

‘क्योंकि चूहे सड़कों पर मरते हैं और आदमी अपने घरों में’

‘प्लेग’ उपन्यास का रूपबंध कथा-वाचक के माध्यम से तीन आधारों के रास्ते अपनी कथा-यात्रा पूरी करता है. एक, वह जिसने खुद अपनी आखों से महामारी को देखा है. दूसरा, वह जो अनेक लोगों के द्वारा देखा गया और उसके अनुसार बयान प्रस्तुत किया गया और तीसरा, वह दस्तावेज जिसके आधार पर महामारी के बारे में जाना जा सका है. फ़िल्म के नरेशन में यह तीनों आधार डॉ. बर्नार्ड रियो के माध्यम से गतिशील हुआ है. उपन्यास के शिल्प में कथा-वाचक की जानकारी पाठक को उपन्यास के लगभग आखिर में मिलता है. फ़िल्म में यह पहले ही दृश्य से स्पष्ट होने लगता है.  फ़िल्म के पहले ही दृश्य में हमें डॉ. बर्नार्ड रियो प्लेग के अनुभवों को दर्ज करता हुआ दिखलाई देता है. उपन्यास और फ़िल्म में  इन तीन आधारों से गुजरते हुए, मुझे फ़िलिप थौड़ी की ‘प्लेग’ उपन्यास के बारे में एक सारगर्भित टिप्पणी की याद हो आती है जो उन्होंने अल्बेयर कामू के बारे में लिखते हुए की थी, 

‘...द प्लेग बहुत से मायनों में राजनीतिक प्रतिबद्धता की कृति होने के साथ-साथ आम तौर पर पाई जाने वाली नैतिक खराबियों की जटिलताओं का एक बयान भी है.’[4] 

‘नैतिक खराबियों की जटिलताओं का एक बयान’ ‘प्लेग’ उपन्यास में ’18 अप्रैल के बाद से फैक्ट्रियों और गोदामों में ढ़ेरों मरे हुए या मरणासन्न चूहे पाए गए थे.’(20) और इसके ठीक चार दिन बाद ‘चूहों ने फिर बिलों से निकलकर एक साथ मरना शुरू कर दिया.’(21) से शुरू होता है और यह शुरुआत हमें एक ऐसी दुनिया में प्रविष्ट होने के लिए आमंत्रित करता है जिसमें व्यक्ति का जीवन और जीवन के लिए किए जा रहे संघर्ष एक ही झटके में ख़त्म हो जाते हैं. अल्बेयर कामू की दार्शनिकता में यह रहा है कि व्यक्ति का अस्तित्व उसके पूरे जीवन से नहीं एक क्षण से परिभाषित होता है. व्यक्ति का अस्तित्व एक क्षण में घटित होता है. ‘प्लेग’ उपन्यास में यह सघनता से उपस्थित है - ‘...स्मृतियों और उम्मीदों के बगैर वे सिर्फ क्षण के लिए जीने लगे. ‘यहीं’ और ‘अब’ उनके लिए सब-कुछ बन गए थे. इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है कि प्लेग ने धीरे-धीरे हम सबमें न सिर्फ प्यार की बल्कि दोस्ती की क्षमता भी खत्म कर दी थी. 

यह स्वाभाविक ही था क्योंकि प्यार भविष्य की माँग करता है और हमारे पास वर्तमान के क्षणों की पंक्ति के सिवा कुछ नहीं बचा रहा था.’ (पृष्ठ 203) ‘क्षण के लिए’ जीने के संदर्भ का छोर असल में द्वितीय विश्वयुद्ध की त्रासदी के प्रभाव के कारण जो किसी महामारी से कम नहीं था, आया हुआ है. फ़िल्म के परदे पर 13 मिनट में एक मरते हुए चूहे का दृश्य रोंगटे खड़े कर देना वाला है. मरते हुए चूहे के खड़े होते रोएं धीरे-धीरे हिलते हुए स्थिर हो जाने के दृश्य में चूहे की स्थिर खुली आँखें आनेवाली भयावह परिस्थिति का संकेत है. यह उचित होगा कि यहीं पर ‘प्लेग’ फ़िल्म से संबंधित कुछ आवश्यक तथ्य का उल्लेख कर दिया जाए.

1992 में लुईस पुएंजो (1946) ने अल्बेयर कामू के उपन्यास ‘द प्लेग’ पर ‘ग्रे’ शैली में इसी नाम से फ़िल्म बनाई है. बुएनस ऐरेस में जन्मे लुईस पुएंजो  मूल से से एक अर्जेंटेनियन फ़िल्म निर्देशक हैं. 1985 में ‘द ऑफिसियल स्टोरी’ से लुईस पुएंजो को काफी प्रसिद्धि प्राप्त हुई. इस फ़िल्म के लिए उन्होंने ऑस्कर पुरस्कार भी मिला. यह फ़िल्म अर्जेंटीना में अंतिम सैन्य तानाशाही (1976-198) व्यवस्था के दौरान भयानक रूप से हुए मानवाधिकार के उल्लंघन की पृष्ठभूमि में एक मध्यवर्गीय परिवार द्वार अवैध रूप से गोद लिए बच्चे पर आधारित है.  ‘द प्लेग’ सिनेमा, परदे पर उदासी की निरंतरता को धूसर रंग में रचती है. एक दर्शक के तौर पर कहने में यह हर्ज नहीं है कि, इस फ़िल्म को देखकर ख़ुशी नहीं होती. उदासी की एक लकीर या यों कहें कि इस फ़िल्म को देखते हुए उदासी एक शिल्प की तरह हमारे ज़ेहन में ठहर जाती है. उदासी के शिल्प निर्माण में इस फ़िल्म के संगीत की बड़ी भूमिका है. फ़िल्म के संगीत का निर्देशन ग्रीक संगीत निर्देशक और आकेस्ट्रा में जैज संगीत के विशेषज्ञ वेंजेलिस (1943) ने  किया है. 

इस फ़िल्म में संगीत देने से पूर्व, 1924 में आयोजित ओलंपिक खेल में शामिल दो एथलेटिक खिलाड़ी की सच्ची घटना पर आधारित फ़िल्म  ‘कैरिओट्स ऑफ़ फायर’ फ़िल्म (1981) के लिए  वेंजेलिस को ऑस्कर पुरस्कार मिल चुका था. ‘द प्लेग’ फ़िल्म संगीत में एक अर्जेंटेनियन टैंगो ‘निन्गुना’ का इस्तेमाल वेंजेलिस ने किया है. जिसकी रचना अर्जेंटीना के प्रसिद्ध संगीतकार होमेरो मांजी (1907-1951) ने 1942 में किया था . अर्जेंटेनियन टैंगो, संगीत का एक जेनर है, जो मोटे तौर पर समूह नृत्य में प्रस्तुत होता है. यह समूह नृत्य मुख्यतः अतीत की यादें, उदासी, प्रेम-विलाप आदि के रूपबंध में प्रस्तुत होता है. इस फ़िल्म में यह प्लेग के कारण हुई मौतों के दुःख और उदासी के साथ प्रस्तुत हुआ है. फ़िल्म का संपादन जुआन कार्लोस (1945) ने फ़िल्म की उदासी के छोर को सँभालते हुए किया है. 

फ़िल्म की सिनेमेटोग्राफी फेलिक्स मोंटी (1938) ने किया है. फ़िल्म में प्लेग के कारण मरते हुए चूहों की रोमावलियों के कंपन को सूक्ष्मता से परदे पर घटित होने हुए देखना एक त्रासदी की तरह घटित होता है. जुआन कार्लोस और फेलिक्स मोंटी, लुईस पुएंजो की फ़िल्म ‘द ऑफिसियल स्टोरी’ से भी जुड़े हुए थे. भारत में पसरते कोविड-19 के विषाणु और उसके कारण हुई हजारों मौतों के बीच इस फ़िल्म में घटित त्रासदी सघनता के साथ अभिग्रहीत होती है. अल्बेयर कामू के उपन्यास में डॉक्टर रियो की भूमिका महत्त्वपूर्ण है, फ़िल्म में इसकी भूमिका अमेरिकी अभिनेता विलियम हर्ट (1950) ने निभाई है. 

इस फ़िल्म में विलियम हर्ट की अदाकारी में एक खास किस्म से ठहराव दिखलाई देता है. प्लेग विषाणु के कारण फैलती महामारी के वातावरण को अँधेरे-उजाले के बीच के दृश्यों में उनका अभिनय बेहतरीन है. इसी वर्ष 2021 की थ्रिलर फ़िल्म ‘ब्लैक विडो’ में विलियम हर्ट ने अभिनय किया है. बहरहाल, ‘द प्लेग’ सिनेमा के परदे पर जो उदासी की लकीर है, धूसर रंग, कम रौशनी में दृश्यों का जो आरोह है उसकी संवेदना उपन्यास की संवेदना से भिन्न दिखलाई देती है. संवेदनाओं का यह अंतर असल में दृश्य और पठ्य माध्यमों के कारण है. परदे पर उभरती संवेदना और पन्ने पर उपस्थित संवेदना दर्शक-पाठक को एक ही धरातल पर प्रभावित नहीं करती है. 

फ़िल्म के एक दृश्य में प्लेग से हुई मौत और प्लेग संक्रमण के खौफ के बीच शहर से बेतहाशा भागते लोगों  की रिपोर्टिंग करती हुई एक पत्रकार बहुत ही मानीखेज बात कहती है, कि प्लेग के कारण हुई मौत और भगदड़ की समांतरता दरअसल, युद्ध और नाजी नरसंहार में हुई हत्याओं के समतुल्य है. दोनों ही अवस्थाओं में शहर सैनिकों के हवाले कर दिया जाता है. बढ़ते प्लेग के बीच ओरान शहर भी सैनिकों के हवाले कर दिया गया है. पत्रकार की पृष्ठभूमि में सैनिकों की हलचल को फ़िल्म में देखा, सुना जा सकता है. इतिहास अपना सबक दरअसल स्वयं ही बार-बार दुहराता है. युद्ध तथा नरसंहार की हत्याओं के साथ महामारी के कारण हुई मृत्यु भी हत्या के साथ जुड़ जाती है. अल्बेयर कामू इस आधार पर प्लेग को युद्ध के समतुल्य इस उपन्यास में देखते हैं.

उपन्यास के शिल्प में महामारी के उभरते लक्षणों के आधार पर बीमारी का नाम बहुत बाद में डॉक्टर रियो लेता है. असल में रियो शुरुआत में बीमारी का नाम लेने से बचना चाहता है क्योंकि उसे पता है कि महामारी के बारे में जैसे ही बात फैलेगी, शहर में भगदड़ शुरू हो जाएगी. बीमारों की बढ़ती संख्या के बीच डॉक्टर रियो अपने सहयोगी डॉक्टर कास्टेल से कहता है- ‘हाँ कास्टेल ! इस बात पर यकीन करना मुश्किल है. लेकिन बीमारी के सारे लक्षण इसी ओर इशारा करते है की यह प्लेग है.’ (45) और इस तरह से उपन्यास में पहली बार प्लेग का उल्लेख होता है. शुरुआत में किसी भी तरह की महामारी से मनुष्य नहीं घबराता है उसे लगता है कि इससे दूसरे प्रभावित होंगे और हम बचे रह जाएंगे. असल में ‘महामारियाँ मनुष्य के नाम से नहीं बनती है’ और न ही महामारियाँ किसी ‘बुरे सपने की तरह’ गुजरती है. महामारियाँ रहती है और जबतक रहती है उससे ‘कोई कभी आजाद नहीं’ होता. उपन्यास का कथा-वाचक प्लेग के लक्षणों के आधार पर स्मृति की यात्रा करता हुआ कहता है, ‘प्लेग की जिन तीस महामारियों का इतिहास पता है, उन्होंने करीब दस करोड़ लोगों की जान ली है. ...डॉक्टर को कुस्तुनतुनिया की प्लेग की याद आयी, जिसके बारे में प्रोकोपियस ने लिखा था कि एक ही दिन में उससे दस हजार मौतें हुई थी. ...सत्तर साल पहले कैंटन शहर में प्लेग से जब चालीस हजार चूहे मर चुके तब जाकर बीमारी नगरवासियों में फैली थी.’

अल्बेयर कामू इन्हीं संदर्भो के परिप्रेक्ष्य से मृत्यु को लेकर एक दार्शनिक सवाल खड़े कर देते हैं कि, ‘जो युद्ध में लड़ आता है, वह कुछ दिन बाद यह भूल जाता है कि मुर्दा आदमी क्या होता और चूँकि मुर्दा व्यक्ति वास्तविक नहीं होता, जब तक कि उसको प्रत्यक्ष मरते हुए न देखा गया हो.’(47) यानि की जबतक प्रत्यक्ष मरते हुए न देख लिया जाय तबतक व्यक्ति की मौत वास्तविक नहीं कही जाएगी. इतिहास में घटित घटनाओं में व्यक्तियों की मौत असल में एक आँकड़ा भर है जिसकी हैसियत ‘धुएँ के एक कश में’ भुलाया गया है/भुलाया जा सकता है. असल में, अल्बेयर कामू अपने दार्शनिक चिंतन की यात्रा में मृत्यु पर बेहद सख्त होकर विचार करते हैं. भारतीय परम्परा और भारतीय दार्शनिक परम्परा में में भी मृत्यु बोध पर खूब विचार हुआ है. उपनिषदों में यह प्रमुखता से मिलता है. नचिकेता और यम का संवाद तो एक उदाहरण मात्र है. महात्मा गांधी भी अपने निबंधों और पत्राचारों में मृत्यु का उल्लेख दार्शनिकता के धरातल पर करते हुए दिखलाई देते हैं.   




(४)

'इंतजार करो' एक बे-अक्ल की नीति' है  

2020 के भारत में जब वसंत अपनी यात्रा के बीच में था तब कोरोना नामक वायरस से मरने वालों की संख्या बड़ी तेजी से बढ़ रही थी. महामारी में मृत्यु एक भय की तरह महानगरों, शहरों, कस्बों में पसरती जा रही थी. यह देखा जा रहा था जो जितना संपन्न है वह उतना ही अधिक इस महामारी से बचने के इंतजाम में लगा हुआ था. वही साँस की तकलीफ से बचने के लिए ऑक्सीजन सिलिंडर की अतिरिक्त खरीद कर रहा था. गोया, महामारी से संपन्न आदमी को ही सबसे ज्यादा खतरा हो. असल में महामारी गरीब-अमीर, जाति-धर्म में कोई विभेद नहीं करता है. ‘प्लेग’ उपन्यास में का पात्र रियो कहता है की, ‘उसने कहीं पढ़ा था कि प्लेग कमज़ोर और दुर्बल शरीर के लोगों को छोड़कर मजबूत और तंदुरुस्त व्यक्तियों को ही आमतौर पर अपना शिकार बनाती है.’(53)    

‘प्लेग’ उपन्यास में महामारी के कारण मृत्यु का भय अचानक उपस्थित नहीं हुआ है बल्कि यह भय ऐतिहासिक महामारी की स्मृतियों के सहारे गाढ़ा होता हुआ संरचित हुआ है. स्मृतियों में जब मृत्यु के विवरण एथेंस, चीन, मर्साई, कुस्तुनतुनिया, मिलान, लंदन के माध्यम से  गतिशील हो रहे थे तब उपन्यास में भी वसंत का मौसम था. ‘एथेंस, एक विशाल श्मशान जिससे आसमान तक सड़ांध उठ रही थी और जिसे चिड़ियाँ भी वीरान करके उड़ गयी थी; चीन के शहर प्लेग के शिकार मरीजों से पटे हुए, जो ख़ामोशी से अपनी यातना झेल रहे हैं; मर्साई, जहाँ पर कैदी खंदकों में सड़ी हुई लाशों के ढेर जमा कर रहे हैं; प्रोवेंस के इलाके में प्लेग की क्रुद्ध हवाओं को रोकने के लिए एक महान दीवार का निर्माण; (इस उपन्यास और फ़िल्म में भी शहर के बीच दीवार बनाए जाने का संदर्भ आता है.) 

कुस्तुनतुनिया के कोढ़ीगृह, बदबूदार सदी चटाईयां मिट्टी के फर्श में धंसी हुई जहाँ रोगियों को कुदालों से ठेलकर अपने बिस्तरों से नीचे गिराया गया था; काली मौत को शांत करने के लिए नकाबपोश डॉक्टरों का मेला; मिलान शहर के कब्रिस्तानों में स्त्रियों और पुरुषों की खुली रतिक्रियाएं; लंदन की पिशाचों के भय से आक्रांत अँधेरी सड़कों पर से लाशों से भरी गाड़ियों का चरमराते लड़खड़ाते हुए गुजरना- हमेशा और हर जगह मनुष्य के दर्द-भरे चिर-क्रंदन से आक्रांत रातें और दिन.’(49) कथा-वाचक की स्मृति में मृत्यु का यह विवरण असल में उपन्यास के आगामी कथा-विन्यास में उत्पन्न होने वाली मृत्यु की त्रासदी की पूर्व सूचना मात्र नहीं है बल्कि विश्वयुद्धों और नाजी नरसंहारों में व्यक्ति के जीवन की अनिश्चितता इस कदर फ़ैल गई थी कि क्षण मात्र को संपूर्ण जीवन मान लेने और उसी क्षण में स्वयं को संपूर्णता के साथ अभिव्यक्त कर लेने की तड़प पैदा हो गई थी. मृत्यु, कभी भी और कहीं भी हो सकती है, इसके स्वीकार का भाव विश्वयुद्धों और नाजी नरसंहारों के बीच अधिक सघन हो गया था. उपन्यास की संरचना में प्लेग के संदर्भ से ‘ठहरो और इंतजार करो’ की नीति की आलोचना इस अर्थ से कि प्लेग के जीवाणु व्यक्ति के शरीर में घुसकर तीन दिन के भीतर ही तिल्ली को बढ़ाकर चौगुना कर देता है और अनाज की नली में हुई गिल्टी को सुजाकर नारंगी के अकार का कर देता है. और उसमें मवाद भर देता है. संक्रमित व्यक्ति फिर दर्द से तड़पने लगता है. क्या ऐसी स्थिति में ‘ठहरो और इंतजार करो’[5] की नीति अपनाई जा सकती है ?

कोरोना संक्रमण के शुरूआती महीनों में जब इस बीमारी के लक्षणों की पहचान पर कोई एक राय नहीं थी और कमोबेस आज भी नहीं है, सिवाय इसके कि इसके संक्रमण के कारण तेज बुखार आता है और स्वाद की इन्द्रियां स्थिल हो जाती है, ऐसे समय में इंतजार करना ही एक विकल्प बच गया था. लेकिन, इंतजार संक्रमण को ख़त्म नहीं कर सकता था, इंतजार महामारी का समाधान नहीं था. असल में, किसी भी महामारी के लिए ‘ठहरो और इंतजार करो’ एक ‘बेअक्ली की नीति’ है. ‘प्लेग’ उपन्यास का दूसरा भाग, प्लेग के फैलने की परिस्थितियों के बीच उत्पन्न बेचैनी और उससे बचने को दर्ज करता है. महामारी के दौरान अक्सर एक आम सवाल हमारे सामने उपस्थित होता है कि, ‘जो व्यक्ति महामारी फैलने से पहले बाहर चले गए थे, क्या उन्हें फिर वापस आने की इजाज़त दी जा सकेगी ?’ यह सवाल जितना उपन्यास का सच है उतना ही हमारे समय में फैले महामारी का भी सच है. 

महामारी के दौर में व्यक्ति का जीवन स्थगित हो जाता है उसके दिन निष्प्रयोजन बीतने लगते हैं. महामारी के कारण उत्पन्न बेचैनी और महामारी से बचने की चाह में व्यक्ति कई बार महामारी के पूर्व के सुख को याद करता है. वह कई बार स्मृतियों की यात्रा कर आता है. अपने से दूर स्वजनों की परवाह करने लगता है. महामारी में हमारी भावनाएँ और संवेदनाएँ नया चोला पहन लेती है. उपन्यास के शहर ओरान जहाँ प्लेग फैला हुआ है, वहाँ के लोगों की भावनाएँ इस कारण से बदल रही हैं कि उन्हें पता है कि जबतक संक्रमण रहेगा उन्हें अपने स्वजनों से वियोग सहना होगा. असल में महामारी में यंत्रणा दोहरे ढ़ंग से काम करती है. एक व्यक्ति स्वयं के बारे में सोचता है और दूसरा उनके बारे में जो उनके साथ मौजूद नहीं हैं, मसलन अपनी माँ, बेटे-बेटियों, बीबी या प्रेमिकाओं आदि के बाए में. इस नुक्ते से अल्बेयर कामू व्यक्ति के मनोविज्ञान का चित्रण सटीक ढ़ंग से करते हैं. ‘ऐसे पति, जिनको अपनी पत्नियों पर पूरा विश्वास था, यह देखकर हैरान रह गए कि वे खुद भी उतने ही वफादार बन गए थे और प्रेमियों को भी ऐसा ही अनुभव हुआ.’(83) 

असल में, जब व्यक्ति संभावित मृत्यु के घेरे में होता है तब वह ईमानदार और निश्चल होने लगता है. अल्बेयर कामू का यह उपन्यास अपने कथा-शिल्प में बीच-बीच में मृत्यु के आंकड़े भी देता चलता है. प्लेग महामारी के ‘पाँचवें हफ्ते में तीन सौ इक्कीस मौतें हुई और छठे हफ्ते में यह संख्या तीन सौ पैंतालीस तक पहुँच गई.’ (91) संपूर्ण विश्व में, 2020 की गर्मियों में हम रोज कोरोना से होनेवाली मौतों के बढ़ते आंकड़ों को उपन्यास की तरह ही देख रहे थे. और यह भी देख रहे थे कि महामारी के जीवाणु-विषाणु से बचने के लिए व्यक्ति किस तरह के अंधविश्वासों का सहारा ले रहा था, किस  तरह से सुनी-सुनाई नुस्खों पर यकीन कर रहा था उसे आजमा रहा था. कोरोना महामारी के दौरान हमने इसे खूब देखा. यह कुछ वैसा ही था जैसा बहुत पहले अल्बेयर कामू अपने उपन्यास में दर्ज कर गए थे कि, ‘बढ़िया शराब की बोतल प्लेग की छूत से बचने का सबसे अच्छा तरीका है.’(93) 

उपन्यास में फिर क्वारनटीन की प्रक्रिया, एक शहर से दूसरे शहर में जाने के लिए सर्टिफिकेट जारी करने की मुश्किलों का तफ्सील से उल्लेख है. व्यक्ति में ‘प्लेग’ की जाँच की जटिल प्रक्रिया का वर्णन है. सिनेमा के परदे पर यह कुछ ही पलों के लिए कुछ जरुरी संकेतों के साथ आता है. 

अल्बेयर कामू के उपन्यास ‘प्लेग’ में महामारी, विज्ञान और धर्म के रिश्ते को लेकर कुछ गहन और गंभीर सवाल खड़े हुए हैं. यह सवाल चर्च के एक पादरी फ़ादर पेनेलो द्वारा महामारी से बचने के एक उपाय के रूप में चर्च में आयोजित ‘प्रार्थना-सभा’ में दिए गए प्रवचन से उभरता है. फ़ादर पेनेलो का यह पूरा प्रवचन सुदीर्घ है जो उपन्यास के सात पन्नों में विस्तृत ढंग से आया हुआ है. सिनेमा में फ़ादर पेनेलो की भूमिका चिली मूल के आर्जेन्टीनियन फ़िल्मकार और अभिनेता लौतारो मुरुआ (1926-1995) ने निभाई है. उपन्यास में ‘प्लेग का मुकाबला करने का फैसला करके एक ‘प्रार्थना-सप्ताह’ मनाने’ के  आयोजन को पढ़ते हुए भारत में फैलते कोरोना के बीच एक शाम अपने-अपने घरों में दीये जलाने के संदर्भ की याद हो आती है. आगे चलकर यह संदर्भ ताली, थाली, घंटे, शंख बजाने के साथ बदलता जाता है. 

महामारी से लड़ने वाले डॉक्टर, मरीज और महामारी से प्रभावित लोगों के लिए संवेदना व्यक्त करने का यह एक अजीब तरीका दरअसल अवैज्ञानिक दिखलाई देता है. उपन्यास में प्लेग के कारण चर्च के एक संत रौच की मृत्यु हो जाती है उसी की याद में ‘प्रार्थना-सप्ताह’ के आखिरी दिन रविवार को  फ़ादर पेनेलो प्रवचन देता है. प्रवचन में प्लेग से बचने के अजीब और अवैज्ञानिक तरीकों का उल्लेख पादरी करता है. दरअसल, यह वही पादरी है जो उपन्यास के लगभग आरंभ में माइकल नाम के चौकीदार को प्लेग से प्रभावित होने के कारण  डॉक्टर रियो के पास ले जाता है. कामू पादरी के बारे में कहते हैं कि ‘उनके विचारों  में न आधुनिकता की उच्छृंखलता थी, न अतीत का पुरोहितवाद.’ यही फ़ादर पेनेलो संत रौच की प्लेग से मृत्यु के बाद आज अपने तरीकों से महामारी का मुकाबला करने के लिए ‘प्रार्थना-सप्ताह’ का आयोजन कर रहा है. उपन्यास का कथा-वाचक जो डॉक्टर रियो है , ‘प्रार्थना-सभा’ में शामिल लोगों के मुख से एक ही बात सुना करता था कि, ‘जो भी हो, इससे कोई नुकसान नहीं हो सकता.’ डॉक्टर रियो अपने पत्रकार मित्र तारो को यह सारा प्रकरण सुनाता है. तारो इसे अपनी डायरी में नोट करता हुआ यह भी दर्ज करता है कि, ‘ऐसे मौकों पर चीन के लोग प्लेग के देवता के आगे डफली बजाने लगते हैं, ...यह बताना मुमकिन नहीं है कि क्या सचमुच व्यवहारत: छूत रोकने की एहतियाती कार्यवाहियों के मुकाबले डफली ज्यादा कारगर साबित होती थी ?’(108) 

उपन्यास का प्रमुख पात्र ही उपन्यास का कथा-वाचक है यह प्रयोग उपन्यास के शिल्प में अल्बेयर कामू का पचास के दशक में एक नया प्रयोग था. फ़ादर पेनेलो के प्रवचन के बारे में कथा-वाचक कहता है कि, ‘उसकी भाषण-शैली शक्तिशाली और आवेशपूर्ण थी जो श्रोता को दूर तक बहा ले जाती थी.’ इस भाषण-शैली के कारण श्रोता का वास्तविक यथार्थ से ध्यान हट जाता था और वास्तविक यथार्थ की जगह एक आवेशपूर्ण आभासी तथा नकली यथार्थ उसे अपनी गिरफ्त में ले लेता था. वह अपनी स्थितियों के लिए स्वयं को ही जिम्मेदार मानने लगता था न कि किसी धर्म, चर्च पादरी या किसी राजनीति को. आज, इक्कीसवीं सदी के दूसरे दशक के ख़त्म होने के बाद इसे पढ़ते हुए लगता है कि हमारे अति वाचाल समय में भी ‘आवेगपूर्ण भाषण-शैली’ हमारे सामने एक आवेशपूर्ण आभासी तथा नकली यथार्थ ला खड़ा कर दिया है जिसके प्रभाव में हम अपनी स्थितियों के लिए स्वयं को ही ज़िम्मेदार मानने लगे हैं. पादरी कहता भी है, ‘तुम पर एक संकट आया है, मेरे भाइयों ! और मेरे भाइयों, तुम इसी के काबिल भी थे.’(109) 

‘तुम इसी के काबिल भी थे’ की ध्वनि अपने अर्थ-गाम्भीर्य में एक लंबी यात्रा करता हुआ दिखलाई देता है. तमाम धार्मिक युद्ध इसी ‘काबिल’ के नुक्ते से लड़े गए थे और नाजी नरसंहार भी इसी नुक्ते से किया गया था. फ़ादर पेनेलो के प्रवचन की प्रस्तुति के ढंग से गुजरते हुए यह अनुमान लगाना कठिन नहीं है कि कुछ इसी अंदाज से जर्मनी और इटली में क्रमश: हिटलर और मुसोलिनी अपना भाषण देता था. फ़ादर पेनलो के मुक्के मारकर बोलने का ढब ठीक हिटलर और मुसोलिनी के ढब से मिलता है. जाहिर है अल्बेयर कामू जिस परिवेश के बीच स्वयं को संयोजित कर रहे थे उस परिवेश में उन्होंने ये ढब देखे थे. फ़ादर पेनेलो के बोलने के ढब को नीचे टिप्पणियों में पढ़ा जा सकता है.[6] 

जिसमें फ़ादर विज्ञान के ज्ञान और विकास को चुनौती देता हुआ कहता है – ‘दुनिया की कोई ताकत, यहाँ तक कि - गौर से मेरी बात सुनें - साइंस की ताकत भी, जिसकी इतनी शेखी बधारी जाती है, इस प्रहार से आपको नहीं बचा सकती अगर एक बार वह हाथ आपको तरफ बढ़ गया. खून से भरे, शोक के फर्श पर अनाज की तरह, तुम लोगों को फटकारा जाएगा और तुम चोकर के साथ दूर फेंक दिए जाओगे.’(111) और ठीक इसके बाद धर्म की महत्ता स्थापित करने के लिए भोले-भाले लोगों के लिए एक तर्क गढ़ता है, 

‘ खुदा आपका इतंजार करते-करते थक गया तो वह खुद-ब-खुद आपसे मिलने चला आया. इतिहास के शुरू से ही खुदा उन तमाम शहरों में जाता रहा है जिन्होंने उसके ख़िलाफ़ गुनाह किए हैं.’(112) 

यानी धरती पर ‘प्लेग’ आदमी द्वारा खुदा के प्रति किए किसी गुनाह या पाप के कारण आता है. नियति और भाग्य के खेल का प्रसंग दरअसल, धर्म की बुनियादी पहचान है जिसे अल्बेयर कामू अपने समय में दर्ज कर रहे थे. फ़ादर पेनेलो के इस कथन-‘यही महामारी आपको तबाह करने के साथ-साथ आपकी भलाई भी कर रही है और आपको सही रास्ता दिखा रही है.’ के पीछे की वास्तविक सचाई का अर्थ हमारे सामने तब खुल रहा था, जब हमारे देश में, व्यक्ति के आत्मनिर्भर होने के अवसर के तौर पर कोरोना महामारी को देखे जाने की बात कही जा रही थी. 

दरअसल, यह कहना होगा कि तमाम वैज्ञानिक आविष्कारों के बाद भी मनुष्य के ऊपर धर्म की जकडबंदी अबतक न खत्म हुई है न कम हुई है. सिनेमाई परदे पर लुईस पुएंजो की फ़िल्म, ‘प्लेग’, रविवार के दिन एक विशाल चर्च में ठसाठस भरी भीड़ में फ़ादर पेनोले द्वारा हाथ उठाकर (हाथ उठाने का ढंग  हिटलर द्वारा हाथ उठाने के ढंग से मिलता है.) विज्ञान की सारहीनता और धर्म को मुक्ति का मार्ग बताने के दृश्य को प्रभावी ढंग से उकेरता है. फ़िल्म में फ़ादर पेनेलो की भूमिका चिली मूल के अर्जेंटेनियन अभिनेता, फ़िल्म निर्देशक और पटकथा लेखक लौतारो मुरुआ (1926-1995) ने बेहतरीन ढंग से निभाई है. यह बेहद दिलचस्प है कि यह फ़ादर पेनलो बाद में उपन्यास के चौथे हिस्से में स्वयं प्लेग की चपेट में आ जाता है. 

डॉक्टर रियो उसका इलाज करता है. फ़ादर पेनलो अपने प्रवचन में जिस विज्ञान को धर्म के सामने चुनौती दे रहा था वही फ़ादर आज इस वैज्ञानिक इलाज के आगे एकदम ख़ामोश हो जाता है. हालत ख़राब होने पर वह सरकारी अस्पताल जाने के लिए तैयार हो जाता है. प्लेग का प्रभाव उसके ऊपर इतना अधिक हो गया था कि अंततः उसकी मृत्यु हो जाती है. मृत्यु के आखिरी क्षणों में पादरी सलीब की माँग करता है जो उसके पलंग के ऊपर टंगा रहता था. असल में सलीब इस बात की तरफ इशारा है कि पादरियों का इस दुनिया में कोई दोस्त नहीं होता. पादरी अपना सर्वस्व ईश्वर को सौंप देता है. इसलिए आखिरी वक्त में ईश्वर का प्रतीक सलीब ही उसका सहारा होता है. फ़ादर पेनेलो की मृत्यु एक स्तर पर धर्म की मृत्यु तो है ही दूसरे स्तर पर श्रेष्ठता बोध से ग्रसित नाजीवादी विचारों का भी अंत है.

 

(५)

‘शहर में शराबियों के सिवा कोई नहीं हँसता है और शराबी जरूरत से ज्यादा हँसते हैं’ 

महामारियाँ, त्रासदी के साथ कुछ अनिवार्य बदलावों की दास्तान भी बड़ी ख़ामोशी से लिखती है. यह बदलाव परिवेश, प्रकृति, भौगोलिक विन्यास और व्यक्ति के चरित्र में लक्षित की जा सकती है. यह देखा गया था कि, कोरोना महामारी के दौर में जब पूरे देश में संपूर्ण लॉकडाउन लगा दिया गया था और संपूर्ण वातावरण में एक निचाट ख़ामोशी पसर रही थी ऐसे में पक्षियों के चहकने की आवाज शाम होते-होते एकदम साफ़ सुनाई देने लगी थी. अल्बेयर कामू के उपन्यास में भी, ‘शाम के वक्त घरों के ऊपर चहकनेवाले पक्षियों की आवाजें पहले से अधिक तेज होती जा रही थीं.’(128) उपन्यास में, रेडियो पर लगातार मरने वालों का आँकड़ा बढ़ता जा रहा था. शहर की दुकानों से पिपरमेंट की गोलियाँ ख़त्म होती जा रही थी. शहर को सैनिकों ने अपनी निगरानी में ले लिया है. सड़कों पर उसके बूटों की केवल आवाज सुनाई देती है. फ़िल्म के एक दृश्य में लॉकडाउन के दौरान ओरान के बासिंदों से सैनिकों की झड़प होती है. पत्थर फेंके जाते हैं, आँसू गैस छोड़े जाते हैं. उपन्यास के समय से बहुत बाद कोरोना के समय में भी यह सब नए तरह से घटित हो रहा था. 

जिनको यह बीमारी नहीं हुई थी वह इस बीमारी से ग्रस्त हो जाने के भय में जी रहे थे. यह कितना कारुणिक लगता है कि व्यक्ति इस महामारी के अलावा और कुछ सोच ही नहीं पा रहा था. उसकी दुनिया इसी महामारी के इर्द-गिर्द बीतती जा रही थी. लोगों में असंतोष, पागलपन, बेचैनी बढ़ती जा रही थी. महामारी के नियमों को पालन करने की सख्त चेतावनी दी जा रही थी. जिस शहर में महामारी का प्रकोप कम है वहाँ चले जाने के विकल्प पर लोग विचार कर रहे थे लेकिन न जा पाने की मज़बूरी से परेशान हो रहे थे. यह उपन्यास बड़ी सूक्ष्मता से इन सबको  दर्ज करता है. हमने कोरोना महामारी में भी यह सब घटित होते हुए देखा है. फ़िल्म में व्यवसायी और स्मगलर कोतार्द और तारो में यह बैचैनी सबसे ज्यादा दिखलाई देती है. इसी बेचैनी के आलम में तारो विडम्बना के दृश्य को अपनी डायरी में दर्ज करता है, ‘शहर में शराबियों के सिवा कोई नहीं हँसता है और शराबी जरूरत से ज्यादा हँसते हैं.’(134) 

ओरान शहर के लोगों की लगातार बढ़ती बेचैनी के बीच शहर को धीरे-धीरे खोला जाने लगता है, लोग निकलते हैं लेकिन छूत से बचने के लिए एक-दूसरे के स्पर्श से बचते हैं. कल्पना किया जाना चाहिए कि यदि हमारी दुनिया में  महामारी की बारम्बारता तेजी से घटित होने लगे तो धीरे-धीरे हमारी स्पर्श की इन्द्रियाँ मुरझा जाएँगी. छूकर समझने, जानने का ज्ञान हमारा ख़त्म हो जाएगा. लोगों के चरित्र में बदलाव आने लगेगा. अल्बेयर कामू का यह उपन्यास चरित्र के नुक्ते से अपना करवट बदल लेता है, ‘महामारी और ज्यादा फ़ैल गई तो लोगों के चरित्र भी काबू से बाहर हो जाएँगे...’(136) महामारी के समय लोगों के प्रति सामाजिक संगठनों के कार्य, म्युनिसिपलटी की भूमिका, सरकार  के  दायित्व का क्षेत्र अपना एक नया रूप ग्रहण कर लेता है. कई बार ये सभी अपनी भूमिका को वाचलता के साथ प्रस्तुत करते हैं. अल्बेयर कामू चूँकि अपने समय की राजनीति और विचार पर पैनी नज़र रखते थे, इसलिए अपने उपन्यास में इस पहलू पर भी अपने सूक्तिपरक विचार दर्ज करते चलते हैं, मसलन :

‘प्रशंसनीय कामों को जरूरत से ज्यादा महत्त्व देने का अर्थ है इंसान की प्रकृति के सबसे बुरे पहलू को प्रच्छन्न और सशक्त रूप से श्रद्धांजलि अर्पण करना.’

‘दुनिया में जो बुराई है वह हमेशा अज्ञान से पैदा होती है.’

‘सबसे बड़ा पाप, जिसका प्रतिकार नहीं किया जा सकता, ऐसे किस्म का अज्ञान है जो सोचता है कि वह सब कुछ जानता है इसलिए उसे हत्या का अधिकार है.’(148)

‘तीस बरस की उम्र में इंसान का बुढ़ापा शुरू हो जाता है और फिर उसे जिंदगी में से बेहतर ख़ुशी पाने की कोशिश करनी पड़ती है.’(168)

‘इंसान एक विचार है और वह बहुत क्षुद्र विचार बन जाता है जबकि वह प्यार से पीठ मोड़ लेता है. और यही मेरे कहने का असली मतलब है, हम-इंसान प्यार करने की सामर्थ्य खो बैठे हैं.’(182)

‘उदासी की आदत उदासी से कहीं बदतर है.’(202)

‘...यह कहना बेहतर होगा कि प्यार में कभी इतनी ताकत नहीं होती कि वह अपने को व्यक्त करने के लिए उपयुक्त शब्द तलाश कर सके.’(321)

‘प्लेग और जिंदगी के संघर्ष में आदमी सिर्फ ज्ञान और स्मृतियाँ ही जीत सकता था.’(321)

महामारी के हर दौर में धर्म के ढकोसले और व्यक्ति की झूठी नैतिकता प्रगाढ़ हो जाया करती है. महामारी से हुई मृत्यु, समस्त मृत्यु संस्कारों को स्थगित कर देती है. एक चेतनशील व्यक्ति को ऐसे समय में संघर्ष दो स्तरों पर करना होता है. एक, महामारी के संकट से बचने के उपायों की खोज और दूसरे, धर्म के ढकोसले और व्यक्ति की झूठी नैतिकता के विरुद्ध जागरण का अभियान. उपन्यास में प्लेग महामारी के दौरान अधिकांश नैतिकतावादी जब यह मानने लगे थे कि, ‘प्लेग पर कोई बस नहीं चल सकता और हमें विधाता की मर्जी के आगे सर झुका देना चाहिए’ तब डॉक्टर रियो, तारो और उसके दोस्त यह तय कर रहे थे कि ‘किसी न किसी तरीके से प्लेग के ख़िलाफ़ संघर्ष जरुर करना चाहिए और हरगिज झुकना नहीं चाहिए.’ एक विज्ञानसम्मत विवेक हमेशा विपरीत परिस्थितयों में खड़े रहने और उसका सामना करने का साहस देता है और ठस किस्म की धार्मिक नैतिकता, सबकुछ को नियति मान लेने की प्रवृति का विकास करता है. 

अल्बेयर कामू अपने इस गल्प में अपनी दार्शनिक धारा को कभी नहीं छोड़ते हैं. क्योंकि उन्होंने बहुत नजदीक से मनुष्य के जीवन की क्षणभंगुरता को देखा था. असल में, महामारी के समय हर व्यक्ति की किस्मत एक जैसी होती है. सभी भय, अकेलेपन और बेगानेपन के साथ जीने को बाध्य हो जाते हैं. महामारी समस्त भेद-भावों को समतल पर ले आती है. कई बार तो व्यक्ति भयंकर उब में यह कहता पाया जाता है कि, उसे महामारी के जीवाणु लग जाएँ और एक ही पल में सारा किस्सा ही खत्म हो जाए और कई बार भय के दवाब में जरा सा सिरदर्द होने पर आतंकित हो उठते थे क्योंकि वे जानते थे कि प्लेग का प्रारंभिक लक्षण सिरदर्द ही है. दरअसल, मनुष्य में उब की यह चरम अवस्था है जो उसके इर्द-गिर्द उपस्थित परिस्थितियों के दवाब से उत्पन्न होता है. 

उपन्यास में ‘प्लेग’ महामारी की रोकथाम करते हुए मृत्यु कर्मचारियों को उसके पद के अनुसार पदक दिए जाने का उल्लेख आता है. किसी को तमगे और किसी को ‘प्लेग मैडल’ देने की बात होती है. भारत में कोरोना पर विजय प्राप्त करने वाले को ‘कोरोना योद्धा’ कहे जाने की बात उपन्यास में कहे के समतुल्य दिखलाई देती है. यह समतुल्यता इस बात में भी दिखलाई देती है जब प्लेग महामारी के कारण मृत्यु-दर लगातार बढ़ती जा रही थी, लोग अपने परिजनों से दूर मरते जा रहे थे, अस्पतालों में परिजनों का आना वर्जित था. यदि किसी की देर शाम मृत्यु होती तो उसका शव अगली सुबह दफनाए जाने तक यूँ ही लावारिस पड़ी रहती. शव के दफ़नाने की सारी औपचारिकताएँ धीरे-धीरे ख़त्म होने लगी थी. शव रखने के ताबूत और शव को लपेटने के लिए कफ़न कम होने लगे थे, कब्रिस्तान में जगह कम होने लगी थी इसलिए सामूहिक दफनाए जाने की नीति विकसित कर ली गई थी. एक ही कब्र में कई-कई लाशों को एक साथ दफनाया जाने लगा था. 

भारत में कोरोना से होनेवाली मृत्यु में भी हमने यह सब देखा है. यह दृश्य भारत में आज भी जारी है. महामारी के दौरान मनुष्य की संवेदना का जबरन स्थगन होता जा रहा था. दरअसल, महामारी सामाजिक संरचना और उसके वरीयता क्रम को बुरी तरह झकझोर देता है. महामारी  समाज के भाषाई विन्यास में एकरसता का उपस्थितिकरण कर देता है. महामारी में भाषा के इस पक्ष को ‘प्लेग’ उपन्यास ठीक ढ़ंग से पकड़ता है. प्लेग महामारी ने मनुष्य की स्वाभाविकता को ख़त्म कर दे रहा था. इस दौरान ‘सब लोग एक ही तरह के शब्द इस्तेमाल करते थे और अपनी वंचना को एक ही दृष्टिकोण से देखते थे.’(203) स्थापित भाषाई संरचना के टूट जाने और एक ही किस्म के शब्दों को व्यवहार में बरतने के कारण भाषा में एक सर्द उदासीनता पैदा हो जाती है. प्लेग  भाषा में यह उदासीनता पैदा कर रही थी और मनुष्य की न्यूनतम विवेक-शक्ति भी ख़त्म कर दे रही थी.



(६)

‘उसके गाल अब भी आँसुओं से गीले थे’ 

‘प्लेग’ उपन्यास चौथे भाग में दूसरी करवट बदलता है. यह भाग उपन्यास के सबसे कारुणिक दृश्यों और विडम्बनाओं को संयोजित करने वाला है. सात उपभागों में उपन्यास का कथा मोड़ एक छोर पर, कोतार्द और तारो के बीच के मानवीय संबंधों को प्रस्तुत करते हुए महामारी के मुद्दों पर दोनों के बीच की बहस को रेखांकित तो करता ही है साथ ही तारों के इंसानी गुणों को स्थापित भी करता है और यह सब डायरी की शक्ल में तारो ही दर्ज करता है. उपन्यास के शिल्प की यह एक विलक्षण विशेषता है कि अपनी संरचना में वह वाक्य के अर्थ के कोण को बदल देता है. एक रात तारो और कोतार्द एक म्युनिसिपल थियेटर में जाते हैं जहाँ ऊबे हुए प्रभु वर्ग के लोग इवनिंग गाउन पहनकर बैठे हैं. कोतार्द प्रभु वर्ग के बीच जाकर बैठता है तारो नीचे की तरफ खड़ा रहता है. 

एक महामारी के बीच मनोरंजन की तलाश में पहुँचता है और दूसरा महामारी की त्रासदी के दौरान मनोरंजन के तरीके को देखने के लिए पहुँचता है. असल में, इस उपन्यास और फ़िल्म में कोतार्द एक ऐसा पात्र है जो महामारी में लाभ कमाने के रास्ते खोजता रहता है. कोतार्द प्लेग महामारी के दौरान अपनी हैसियत से ज्यादा खर्च करने वाले पात्र के रूप में सामने आया है. दरअसल, कोतार्द, ‘चोरी से राशन की चीजों को बाहर से मंगवाता था. वह ऊँचे दामों पर चोरी से मँगवाए सिगरेट और घटिया शराबें बेचता था, जिससे उसने एक अच्छी-खासी रकम जमा कर ली थी.’(157) 

फ़िल्म के एक दृश्य में कोर्ताद बेकाबू होकर अपने होटल के कमरे से गोली चलाता है, उसकी गोली तारो को लगती है और तारो की मृत्यु हो जाती है. कोर्तार्द को पुलिस पड़कर ले जाती है. रास्ते में कोर्तार्द ओरान के लोग मारते-पीटते हैं.  फ़िल्म में घुँघराले बालों वाले इस पात्र की भूमिका दमदार तरीके से ब्राजीलियन अभिनेता रौला जूलिया (1940-1994) ने निभाई है. रौला जूलिया की मृत्यु कम उम्र में भोजन में संक्रमण के कारण पेट में हुए कैंसर से हुई, जब वे अमजेन के जंगलों को बचाने के आंदोलन से जुड़े एक्टिविस्ट चियो मेंडनेस के जीवन पर 1994 में बनाई जा रही फ़िल्म ‘द बर्निंग सीजन’ में अभिनय कर रहे थे. बहरहाल, उपन्यास में इस थियेटर का जो दृश्य उभरता है वह सिनेमा के दृश्य से एकदम अलग है. उपन्यास में थियेटर का माहौल एकदम संयत लेकिन फ़िल्म के दृश्य में यह उत्तेजक होकर सामने आया है. 

फ़िल्म में यह, प्लेग महामारी की उदासीनता के बरक्स कृतिम उल्लास को सृजित करने वाला है. थियेटर में शराब के नशे में ओरान शहर के प्रभु वर्ग के लोगों के  अट्टहास करते हुए का दृश्य परदे के एक कोने से दूसरे कोने तक गतिशील होता रहता है. थियेटर के नृत्य वाले मंच पर एक निर्वस्त्र स्त्री है जिसके शरीर पर एक चूहा धीरे-धीरे रेंग रहा होता है, रेंगते हुए चूहा स्त्री के होठों तक पहुँचता है, निर्वस्त्र स्त्री चूहे को चूम लेती है. थियेटर में जोर का अट्टहास गूंज जाता है. प्लेग में चूहे का खौफ सबसे ज्यादा  होता है लेकिन विडम्बना यह है कि यहाँ एक उत्तेजक रूप में स्त्री देह पर मौजूद होता है. यह मनोवैज्ञानिक तथ्य है कि व्यक्ति जिस चीज से डरता है, मौका मिलने पर उसी का तेजी से उपहास भी उड़ाता है. 

पाठक किसी भी  कोण से इसमें प्रवेश कर सकता है. कथा के दूसरे छोर पर एक करुण दृश्य तब उपस्थित होता है जब पुलिस मजिस्टेट मोशिये ओर्थों का बेटा बीमार हो जाता है और उसे अस्पताल ले जाया जाता है. लुईस पुएंजो की फ़िल्म में यह एक घंटे, छठे मिनट पर घटित होता है. यह मासूम बच्चा दर्द से बेतरह तड़प और चीख रहा होता है. अस्पताल में लंबे परीक्षण के बाद और लगभग बीस घंटे बीत जाने के बाद डॉक्टर रियो को लगता है कि बच्चे को अब बचाया नहीं जा सकता है तब इन परिस्थितियों में बच्चे पर डॉक्टर कास्तेल द्वारा प्लेग की रोकथाम के लिए बनाए सीरम के प्रयोग करने पर विचार होता है और उसी रात बच्चे को टीका दे दिया जाता है. दूसरे दिन दिन टीके के प्रभाव को देखने के लिए फ़ादर पेनेलो, ग्रान्द, रेम्बर्त और डॉक्टर रियो बच्चे के सामने बेचैनी के साथ खड़े हो जाते हैं. बच्चे पर टीके का कोई असर नहीं होता है. मासूम बच्चा मौत की घोर यंत्रणा से गुजरता है उसकी देह भयानक दर्द से ऐंठ जाती है और उसके मुहँ से एक लंबी चीख निकलती है, उसकी सूजी हुई पलकों से बड़े-बड़े आँसू निकलकर जम गए थे. 

फ़िल्म के एक घंटे तेरहवें मिनट पर बच्चे की मृत्यु का जो दृश्य घटित होता है वह दहला देने वाला है. उपन्यास में यह दहलाने वाला दृश्य कुछ इस तरह से दर्ज हुआ है, ‘उसका नन्हा चेहरा भूरे रंग की मिट्टी के नकाब की तरह सख्त हो गया था. धीरे-धीरे उसके होठ खुले और उनमें से एक लंबी अविराम चीख निकली, जो साँस लेने के बावजूद ज्यों की त्यों बनी रही. इसी चीख ने वार्ड को एक भंयकर क्षोभपूर्ण प्रोटेस्ट से भर दिया, शैशव का य अह नन्हा क्रन्दन वार्ड के सब संतापं लोगों की वेदना की सामूहिक अभिव्यक्ति बन गया. रियो ने अपने होंठ भींच लिए, तारो दूसरी तरफ देखने लगा, रेम्बर्त जाकर कास्तेल के पास खड़ा हो गया, जिसके घुटनों पर बंद किताब पड़ी थी. फ़ादर पेनेलो ने बच्चे के नन्हें मुँह की तरफ देखा जिसे प्लेग की मलिनता ने विषाक्त कर दिया और जिसमें से मौत की क्रुद्ध चीत्कार निकल रही थी जो आदिकाल से मानवता सुनती आयी है.’(241) असल में बच्चा, उम्मीद से ज्यादा बीमारी से लड़ गया था. सीरम को असफल होना था, वह हुआ भी. 

संपूर्ण उपन्यास और फ़िल्म की यह सबसे त्रासद घटना है. एक नन्हें बच्चे की मौत, उपन्यास की दुनिया को बदल देता है और फ़िल्म को अभिग्रहण करने की दृष्टि को भी. बच्चे  की मौत डॉक्टर रियो को बेचैन कर देता है. वह अस्पताल के अपने कमरे में रखे दस्तावेज को फाड़ने और इधर-उधर फेंकने लगता है. वहाँ से वह बाहर निकलकर स्कूल के खेल के मैदान में रखी बेंच पर बैठ जाता है और अपना सिर धुनने लगता है. फ़िल्म में डॉ रियो की भूमिका अमेरिकी अभिनेता विलियम हर्ट (1950) ने निभाई है. महामारी से मरते हुए लोगों को न बचा पाने की छटपटाहट और बेचैनी के दृश्यों में हर्ट ने कमाल का अभिनय किया है. अस्पताल के एक बड़े से हॉल जो दरअसल एक स्कूल का हिस्सा था, में आने-जाने के लिए बीच की जगह को छोड़कर दोनों तरफ असंख्य बिस्तर पर मरीजों की उपस्थिति एक काफ़िले की तरह लगती है. हॉल के ठीक बीचोंबीच से चलते हुए डॉक्टर रियो के जूते की ख़ामोश पदचाप परदे पर संत्रास का प्रभाव पैदा करती है.

2005 में विलियम हर्ट की फ़िल्म ‘ए हिस्ट्री ऑफ़ वायलेंस’ काफी सराही गई थी. परदे पर डॉक्टर की पत्नी एलिस रियो की भूमिका ब्रिटिश अभिनेत्री विक्टोरिया तेंनांत (1950) ने निभाई है. खुद पर प्लेग के लक्षणों की जाँच करती हुई एलिस रियो, प्लेग से ग्रस्त होती एलिस रियो की भाव-भंगिमा और उसकी अभिव्यक्ति प्रभावित करती है लेकिन परदे पर उसके अनूठे अभिनय की ताप तब दिखलाई देती है जब उसके पति डॉक्टर रियो एक मासूम बच्चे को न बचा पाने के दुःख और बेचैनी से अपना सर धुन रहे होते हैं तब एलिस अपने पति के सर को अपनी गोद में रखकर उसे सहलाती है जैसे वह एक बच्चे को सहला रही है. फ़िल्म के इस दृश्यबंद में दर्शक मृत्यु के एक द्रष्टा की बेचैनी को स्त्री के संपर्क में आने के बाद शांत होते हुए देखता है. यह मृत्यु रियो के जीवन मूल्य को बदल देता है. रियो कहता है, ‘प्यार के बारे में मेरे मन में दूसरी ही किस्म के विचार हैं. और अपनी जिंदगी के आखिरी दिन तक मैं ऐसे विधान से हरगिज प्यार नहीं कर सकूँगा जिससे बच्चों को इतनी यंत्रणा दी जाती है. ... मुक्ति मेरे लिए बहुत बड़ा शब्द है. मैं इतनी बड़ी महत्त्वकांक्षा नहीं रखता. मेरा संबंध इंसान की सेहत से है, मेरे लिए पहली चीज उसकी सेहत है. (244) 

कोरोना महामारी के दौर में, एक छोटे बच्चे में कोरोना के संक्रमण के बाद अकेले एम्बुलेंस में बैठने के दृश्य को हम सबने टेलीविजन और अख़बारों के पहले पृष्ठ पर देखा है. संक्रमितों की देखभाल करते हुए कई रात तक जगे रहने वाले डॉक्टरों के बारे में सुना है. ये सभी दृश्य हमारी आँखों में इस कारण स्थिर हो जाते हैं क्योंकि हमने कभी कल्पना नहीं की थी कि इक्कीसवीं सदी में विकसित होते भारत में महामारी का स्वरूप इस प्रकार का भी होगा जिसमें व्यक्ति को एक-दूसरे के संपर्क से अलग रहना होगा अपने ही स्वजन का स्पर्श वर्जित हो जाएगा. हम अपने ही परिवार के सदस्यों को अकेले रहने और अकेले ही मर जाने के लिए विवश होकर छोड़ देना होगा. विकास की अंधी दौड़ में मनुष्य की इस मज़बूरी का कोई हल नहीं है. उपन्यास में एक मासूम बच्चे की मौत से गुजरते हुए यह लगता है कि सभी तरह की महामारियों पर असंख्य बच्चों की मौत का गुनाह लिखा है. यह सच है कि एक बच्चे की व्यथा से अधिक बड़ी और महत्त्वपूर्ण कोई चीज नहीं होती. उपन्यास में यह व्यथा गाढ़ेपन के साथ उपस्थित हुआ है. 

उपन्यास के चौथे भाग के एकदम आखिर में डॉक्टर रियो और तारो का विस्तृत संवाद कई पन्नों तक चलता है. इस संवाद में डॉक्टर रियो और तारो, महामारी से ऊबकर अपने-अपने अतीत को याद करते हैं. अपने पिता के साथ के संबंधों, अपने बचपन और अपनी पढाई के दिनों, स्वयं द्वारा की गई रोमांचक यात्राओं, जीवन-मूल्य के प्रश्नों, महामारियों के विस्तृत अर्थ-संकेत और उसकी प्रभाविता, उसकी मारक क्षमता, महामारी के जीवाणु की उपस्थिति की सार्वभौमता पर विस्तृत चर्चा करते हैं. इस चर्चा में हमें सहज ही अल्बेयर कामू की उपस्थिति का अंदाजा लग जाता है. प्लेग के जीवाणु और युद्ध के कीटाणु के नुक्ते से हम अल्बेयर कामू की उपस्थिति को कथा-वाचक डॉक्टर रियो के माध्यम से पहचान सकते हैं. इस पहचान के लिए मैं उपन्यास के सिर्फ तीन कथनों का सहारा लूँगा - 

‘मैं सिर्फ इतना जानता हूँ कि इंसान को प्लेग के अभिशाप से मुक्त होने के लिए भरसक कोशिश करनी चाहिए और सिर्फ इसी तरीके से हम कुछ शांति की उम्मीद कर सकते हैं. और अगर शांति नहीं तो शालीन मौत तो नसीब हो सकती है.’(280)

 इस कथन में प्लेग शब्द की जगह युद्ध शब्द रखकर पढ़ने से अर्थ के दूसरे दरवाजे खुलने लगते हैं.

‘हममें से हरेक के भीतर प्लेग है, धरती का कोई आदमी इससे मुक्त नहीं है. और मैं यह भी जनता हूँ कि हमें अपने ऊपर लगातार निगरानी रखनी पड़ेगी ताकि लापरवाही के किसी क्षण में हम किसी के चेहरे पर अपनी साँस डालकर उसे छूत न दे बैठें.’(281) 

इस कथन में प्लेग शब्द की जगह हिंसा शब्द रखकर पढ़ने से अर्थ का वृत्त हमारी सभ्यता   की पूरी संरचना का अर्थ सामने आने लगता है. हिंसा और वर्चस्व के नुक्ते से समुअल पी. हटिंगटन (1927-2008)  के ‘क्लैश ओस सिविलाइज़ेशन’ के अर्थ के नए दरवाजे खुलने लगते हैं.

‘मैं सिर्फ यह कहता हूँ कि इस धरती पर महामारियाँ हैं और उनसे पीड़ित लोग हैं और यह हम पर निर्भर करता है कि जहाँ तक संभव हो सके हम इन महामारियों का साथ न दें.’(281) 

इस कथन में महामारियाँ शब्द की जगह युद्ध और हिंसा दोनों शब्द रखकर बारी-बारी से पढ़े जाने की जरूरत है. अल्बेयर कामू की युद्ध संबंधी चिंता का सार इसी प्रकार के कथनों में खुलकर हमारे सामने आता है.

उपर्युक्त तीनों कथनों को उसके रचना समय के यथार्थ के साथ तो हम समझें ही लेकिन आवश्यकता इस बात की है कि इन कथनों को हम अपने समय के यथार्थ के साथ भी समझें. प्लेग शब्द की जगह हम साम्प्रदायिक हिंसा, जातिगत हिंसा, जाति भेद, शोषण के नए ढ़ांचे, राजनीतिक दाव-पेंच और राजनीतिक हत्याएँ, वितीय घोटाले और भ्रष्टाचार आदि को रखकर देखें तो हमें अपने देश-काल के भयावह यथार्थ को समझने में आसानी होती है और इस प्रकार के यथार्थ से मुक्ति की चेतना निर्मित होने में आसानी होती है. आखिर हमें सजग चेतना का वारिस होना चाहिए.


(७) 

प्यार, निर्वासन और दुःख 

महामारी की परिणति भयानक रूप से निर्वासन और अपार दुःख में होती है. निर्वासन और दुःख को प्यार ही कम कर सकता है. महामारी के दौरान संपर्क और स्पर्श निषेध के दंश से बाहर निकलने के लिए महामारी के बाद व्यक्ति एक ही चीज को पाने की तमन्ना कर सकता है और वह चीज है इंसान का प्यार. अल्बेयर कामू के चिंतन में इंसान के प्यार का काफी महत्त्व है. इस महत्त्व की सीख अल्बेयर कामू को उसके बचपन के शिक्षक से प्राप्त हुआ था जिसे कामू नोबल पुरस्कार पाने के दौरान भी नहीं भूले थे. उपन्यास के पाँचवें और अंतिम हिस्से में प्लेग महामारी की लंबी अवधि से मुक्ति पाने की परिस्थितयों का दृश्य है. 

‘चूँकि लंबे इंतजार के बाद इंसान इंतजार करना खत्म कर देता है, इसलिए लोग इस तरह दिन काट रहे थे जैसे उनका कोई भविष्य न हो.’(286)

प्लेग ने व्यक्ति की इच्छाओं के आरोह-अवरोह को भंग कर उसे सम पर ला दिया था. महामारी से हुई असंख्य मौतें व्यक्ति को मृत्यु के लिए तैयार कर लिया था. दरअसल, ‘महामारी अपने सारे उद्देश्य पूरे करने के बाद ही पीछे हटी थी-...महामारी ने अपना उद्देश्य पूरा कर लिया था.’ हर व्यक्ति रेडियो पर यह ख़बर सुनने की बेसब्री से प्रतीक्षा कर रहा था कि अब हम आजादी से हवा में साँस ले सकते हैं. और यहीं पर उपन्यास का पात्र तारो एक जरुरी टिप्पणी करता है, ‘यह साफ़ जाहिर है कि सिर्फ सरकारी घोषणा से महामारी को ख़त्म नहीं किया जा सकता.’(308) 

इस टिप्पणी का अभिप्राय केवल महामारी तक ही सिमित नहीं है बल्कि यह मनुष्य की उन आंतरिक प्रवृतियों को ध्वनित करता है जहाँ महामारी की तरह युद्ध और हिंसा बसी रहती है. वर्षों-बरस तक यह फूलती और फैलती रहती है. कुछ समय के अंतराल पर यह हमारे सामने आती है और हमारे देखते ही देखते हमारी दुनिया को उजाड़ देती है. यदि हम इसमें बचे रह गए तो हमारी स्थिति एक गाइड की स्थिति जैसी हो जाती है. ‘कई बार तो प्लेग (प्लेग की जगह युद्ध पढ़ें) में जिंदा रहनेवाला आदमी सिर्फ गाइड का रोल ही अदा करता था और ‘आँखों देखे गवाह’ का काम करता था, जो ‘सारी घटना में से गुजर चुका था’ और अपने दर का जिक्र किए बगैर खुलकर खतरे का बयान करता था.’(327) 

अल्बेयर कामू अपने इस उपन्यास के आखिरी पृष्ठ में युद्ध, नरसंहार और व्यक्ति के चेतन-अवचेतन में बसी हुई हिंसा को प्रतीकात्मक रूप से प्लेग के कीटाणु के सहारे बहुत ही सहजता से लेकिन दार्शनिक अर्थ-गाम्भीर्य के साथ कहते हैं, ‘... प्लेग का कीटाणु न मरता है, न हमेशा के लिए लुप्त होता है. वह सालों तक फर्नीचर और कपड़े की अलमारियों में छिपकर सोयरा रह सकता है; वह शयनगृहों, तहखानों,संदूकों और किताबों की अलमारियों में छिपकर उपयुक्त अवसर की टाक में रहता है; और शायद फिर वह दिन आएगा जब इंसानों का नाश करने और उन्हें ज्ञान देने के लिए वह फिर चूहों को उत्तेजित करके कसी सुखी शहर में मरने के लिए भेजेगा.’(340) 

लुईस पुएंजो ने अपनी फ़िल्म के आखिरी दृश्य में इस कथन को ओरान शहर के एक सूखे दृश्य की पृष्ठभूमि में साकार किया है. दृश्य में ऊँघता हुआ समुद्री किनारा है, तट पर खड़े उदास जहाज हैं, सुखी और सुनी सड़कें हैं. ध्यान रहे फ़िल्म के आरंभ में ये सड़के गीली थी जिसपर तेज रफ़्तार से भागती हुई गाड़ियाँ थीं. लुईस पुएंजो फ़िल्म के आखिरी दृश्य में कामू के कथन की भयावहता में मनुष्य द्वारा रोज उपयोग में लाए बाले रुमाल में प्लेग के कीटाणु के छिपे रहने का उल्लेख करते हुए उसे और भयावह बना देते हैं. तो हमें सावधान हो जाना चाहिए , हमारी ज़ेब में रखे रुमाल में भी महामारी के जीवाणु-विषाणु हो सकते हैं. एकदम बिलकुल पास.                                                          

संदर्भ और टिप्पणियाँ 


[1] नोबल पुरस्कार मिलने पर कामू का ख़त अपने शिक्षक के नाम, रचना समय का कामू विशेषांक (अगस्त-सितंबर 2019), संपादक – हरि भटनागर, भोपाल,(ख़त का हिंदी में फ्रेंच से अनुवाद शरद चंद्रा) पृष्ठ -159
[2] वही, पृष्ठ 09
[3] रोलाँ बार्थ की प्लेग पर समीक्षा और कामू द्वारा रोलाँ बार्थ को लिखे ख़त का विश्लेष्ण यहाँ देखा जा सकता है - https://www.academia.edu/36970228/The_distance_between_reality_and_fiction_Roland_Barthes_reading_Albert_Camus
[4] रचना समय (अगस्त-सितंबर 2019), संपादक-हरि भटनागर, भोपाल, (फ़िलिप थौड़ी के लेख का हिंदी अनुवाद मुकेश वर्मा), पृष्ठ-157
[5] ‘ठहरो और इंतजार करो’ से गुजरते हुए एक भिन्न किस्म के सिद्धांत की तरफ हमारा ध्यान जाता है. जर्मन भूगोलवेता फेडरिक रेटजेल (1844-1904) और उनकी शिष्या अमेरिकिन मानव भूगोलवेता एलेन चर्चिल सेम्पल (1863-1932) द्वारा मनुष्य और पर्यावरण के रिश्ते की खोज में ‘निश्चयवाद’ के सिद्धांत में ‘रुको और जाओ’ की संकल्पना प्रस्तुत की थी. इसी सिद्धांतों के आधार पर नए संदर्भ से सभ्यताओं के विश्लेष्ण करते हुए अमेरिकन राजनैतिक वैज्ञानिक समुअल पी. हटिंगटन (1927-2008) ने ‘क्लैश ओस सिविलाइज़ेशन’ के सिद्धांत का प्रतिपादन किया.
[6] हिटलर और मुसोलिनी के बोलने के ढब को हम फ़ादर पेनेलो के बोलने के ढब में देख सकते हैं, ‘ मेरे भाइयों ! पेनेलो ने ऊँचे स्वर में कहा, ‘वे दूत (दूत का संदर्भ यहाँ प्लेग के जीवाणु से है) फिर शिकार पर निकले हैं और आज हमारी सड़कों पर तबाही मचा रहे हैं. वह देखो महामारी के दूत को जो लूसिफर की तरह खूबसूरत है, जो शैतान की तरह चमक रहा है, वह तुम्हारे मकानों की छतों पर मंडरा रहा है. उसके दाएँ हाथ में नेजा है जो प्रहार करने के लिए ऊपर उठा हुआ है. उसका बायाँ हाथ आपके मकानों में से कुछ मकानों की ओर बढ़ा हुआ है. मुमकिन है, इसी क्षण उसकी ऊँगली आपके दरवाजे की ओर इशारा कर रही हो, लाल नेजा आपको चौखटों को खटखटा रहा हो. और क्या पता प्लेग आपके घर में दाखिल होकर आपके सोने के कमरे में जाकर बैठ गई हो और आपके लौटने का इंतजार कर रही हो. धैर्य और सतर्कता से वह उचित अवसर की ताक में बैठी है, उससे बचना असंभव है जैसे विदि के विधान से कोई नहीं बच सकता. दुनिया की कोई ताकत, यहाँ तक कि – गौर से मेरी बात सुनें – साइंस की ताकत भी, जिसकी इतनी शेखी बधारी जाती है, इस प्रहार से आपको नहीं बचा सकती अगर एक बार वह हाथ आपको तरफ बढ़ गया. खून से भरे, शोक के फर्श पर अनाज की तरह, तुम लोगों को फटकारा जाएगा और तुम चोकर के साथ दूर फेंक दिए जाओगे.’’(अल्बेयर कामू (2001),प्लेग, अनुवाद – शिवदान सिंह चौहान, विजय चौहान, राजकमल पेपरबैक्स,पृष्ठ 111)

__

अमरेन्द्र कुमार शर्मा 
9422905755
कविताई और आलोचना लेखन
महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालयवर्धा 
amrendrakumarsharma@gmail.com

5/Post a Comment/Comments

आप अपनी प्रतिक्रिया devarun72@gmail.com पर सीधे भी भेज सकते हैं.

  1. यह काफी विस्तृत और प्रभावी है।
    कई महत्वपूर्ण जानकारियों से संपन्न।
    यह दूसरे, अधिक संलग्न पाठ की माँग करता है।
    इसे प्रकाशित करने के लिए धन्यवाद।

    जवाब देंहटाएं
  2. दया शंकर शरण22 अप्रैल 2021, 5:18:00 pm

    कोरोना के बहाने वायरस के भयानक संक्रमण पर इस आलेख में विशद चर्चा करते हुए उसके पूरे समाजशास्त्र को खंगाला गया है ,राजनीतिक और धार्मिक कोणों से भी ।दुनिया ने प्लेग से लेकर स्पैनिश फ्लू एवं अन्य अनेक संक्रमण का दहशतनाक दौर भी देखा है। अबतक करोड़ों लोग इसकी भेंट भी चढ़ चुके हैं।इन सब पर फिल्में भी खूब बनती रही हैं। मौजूदा हालात में इस लेख की प्रासंगिकता और भी बढ़ गई है।लेखक एवं समालोचन को बधाई!

    जवाब देंहटाएं
  3. टी एस इलियट की कविता वेस्ट लैंड की पंक्तियाँ हैं- एप्रिल इज दि क्रुएलेस्ट मंथ।
    मैं ने भी पहले प्लेग का वही शिवदानसिंह चौहान- विजया चौहान वाला हिन्दी अनुवाद पढा था।
    लेकिन अब जब पहले ही इतना विषाद चहुं ओर फैला है, मेरी इसे पढने की हिम्मत नहीं थी। फिर भी पढ लिया।
    लेख सुगठित और पठनीय है- जरूरी प्रसंगों और व्याख्याओं से युक्त। सबसे महत्वपूर्ण यह कि महामारी के मौजूदा विद्रूप को सुसंगत रूप से संदर्भित किया गया है।
    लेकिन बार- बार प्लेग अर्थात महामारी को युद्ध अथवा फासीवाद के अर्थ में स्थापित करना गैर- जरूरी है। पाठक के विवेक पर भी भरोसा करके चलना चाहिए।
    बहरहाल, समालोचन ने अपनी तरह से एवं संवेदनशील हस्तक्षेप किया है।

    जवाब देंहटाएं
  4. किसी महामारी को केंद्र में रख कर ऐसे शोध पूर्ण विस्तृत लेख कम ही पढ़ने को मिलते हैं. लेखक और समालोचन दोनों ही धन्यवाद के पात्र हैं. लेकिन राजा राम जी की इस बात 'बार- बार प्लेग अर्थात महामारी को युद्ध अथवा फासीवाद के अर्थ में स्थापित करना गैर- जरूरी है।' से असहमत होने का कोई कारण दिखाई नहीं देता. पूरे लेख में यह एक खटकने वाली बात है....

    जवाब देंहटाएं

एक टिप्पणी भेजें

आप अपनी प्रतिक्रिया devarun72@gmail.com पर सीधे भी भेज सकते हैं.