लेखक-आलोचक पंकज पराशर द्वारा लिखे
गये कला क्षेत्र की मकबूल शख्सियतों पर केंद्रित आलेख समालोचन पर आप पढ़ रहें हैं,
इन्हें बहुत पसंद किया गया है. इस बीच वे अपनी यात्रा के अनुभवों को भी क़िताब की
शक्ल दे रहें हैं. यह हिस्सा पाकिस्तान की उनकी यात्रा से सम्बन्धित है. बहुपठित पंकज
पराशर के इस यात्रा-वृत्त में ग़ालिब भी आ गये हैं, यह यात्रा अतीत की भी है.
प्यार बड़ी चीज है पर नफ़रत भी कुछ कम
नहीं, बड़ा ही तेज़ नशा होता है इसका. सदियों से इसका कारोबार चलता आ रहा है- सत्ता(ओं)
के लिए यह बड़ा मुफ़ीद धंधा है.
जिस पाकिस्तान के विषय में आप सुनते
रहें हैं- यह तो देखने पर अलग लगा.
प्रस्तुत है.
पाकिस्तान-यात्रा
दिल
मुसलसल किसी सफ़र में है
पंकज पराशर
डेढ़ दशक पहले जब पाकिस्तानी टीवी चैनल्स देखने का भारतीयों के पास कोई स्रोत नहीं था, वहाँ का अख़बार पढ़ पाना मुमकिन नहीं था, तो पाकिस्तान के बारे में आम जनता तो छोड़िये, पत्रकारों तक की जानकारी बहुत सीमित हुआ करती थी. जमनादास ‘अख़्तर’, कुलदीप तलवार और कुलदीप नैयर-जैसे कुछ पुराने पत्रकारों के पास तब पाकिस्तान से उर्दू के जो अख़बार डाक से आते थे, उनमें से कुछ ख़बरों के आधार पर वे लोग हिंदी के अख़बारों के लिए एक साप्ताहिक कॉलम लिखा करते थे. उन दिनों यही वह ज़रिया था जिससे भारत के आम लोगों के पास वहाँ के बारे में ख़बरें पहुँचती थी.
चिराग़ तले अँधेरा शायद इसी को कहा जाता है कि हमें अमेरिका और यूरोप के बारे में तो बहुत कुछ मालूम था, लेकिन पड़ोस के देश के बारे में जानकारी बहुत सीमित थी. अब तो भला हो इंटरनेट, यूट्यूब और ऑनलाइन पत्रकारिता का, जो दुनिया में कहीं भी, किसी भी घटित घटना का समाचार तत्काल हम तक फोटो और वीडियो सहित मिनटों में पहुँच जाता है. आज से एक दशक पहले तक सेंसरशिप की इंतहा यह थी कि भारत का कोई अख़बार आप अपने साथ लेकर पाकिस्तान नहीं जा सकते और न पाकिस्तान का कोई अखबार लेकर आप भारत आ सकते हैं. इस तरह के प्रतिबंधों का सबसे बड़ा असर यह होता है कि जहाँ जिस चीज़ पर सबसे ज़्यादा रोक लगाई जाती है, वहाँ उस चीज़ के बारे में उतनी ही अधिक उत्सुकता लोगों के बीच पाई जाती है.
बीस-पचीस साल पुरानी बात है. वरिष्ठ पत्रकार-लेखक मधुकर उपाध्याय उन दिनों
बीबीसी हिंदी में हुआ करते थे. उन्होंने
लाहौर को लेकर लंबी रिपोर्टिंग की थी और पंजाबी भाषा की पंक्ति दोहराई थी, ‘जिस लहोर नइ वेख्या, ओ जम्या इ नइ’ यानी जिसने लाहौर
नहीं देखा, वह समझो पैदा ही नहीं हुआ! फिर बाज़ार अनारकली से
लेकर बादशाही मस्ज़िद, लाहौर का क़िला और वहाँ के खाने-पीने की वो तारीफ़ की थी कि
किसी का भी दिल मचल जाए!
(अनारकली बाज़ार) |
पाकिस्तान कहने को तो हमारा पड़ोसी देश है, लेकिन वहाँ जाने के लिए भी आपको उसी तरह पासपोर्ट, वीज़ा, अमेरिकी डॉलर आदि अपने साथ लेकर जाना पड़ता है और उन्हीं औपचारिकताओं से गुज़रना पड़ता है-जैसे अमेरिका या किसी अन्य देश जाते समय. जबकि यूरोप में आप जर्मनी से फ्रांस, स्विट्जरलैंड, इटली, नीदरलैंड, नार्वे, चेक गणराज्य, जहाँ मन करे जाइए. सीमा पर आपको किसी तरह की कोई समस्या नहीं आएगी. यदि आप उत्तर भारत के किसी हिंदीभाषी राज्य के रहने वाले हैं और उर्दू की तहज़ीब-ओ-तासीर से वाकिफ़ हैं, तो लाहौर के बाज़ार अनारकली में घूमते समय या रावलपिंडी बस अड्डे पर लाहौर, पेशावर, सरगोधा, बहावलपुर, नारंग मंडी या मियाँवाली के लिए बस का इंतज़ार करते समय, इस्लामाबाद में रावल डैम की सैर करते समय या कराची में समंदर के किनारे घूमते हुए ‘फ्राइड फिश’ या ‘फिश बिरयानी’ का लुत्फ़ उठाते वक्त आपको कतई ये अहसास नहीं होगा कि आप हिंदुस्तान से बाहर किसी ग़ैर मुल्क में हैं!
इस पर जब आप ठहर कर सोचेंगे, लिबास और अलग लहजे की पंजाबी-उर्दू के कठिन अलफ़ाज पर ग़ौर करेंगे, तब जाकर पता चलेगा कि आप इस वक़्त पुरानी दिल्ली में नहीं, लाहौर के बाज़ार अनारकली में ‘फिर’ रहे हैं! दिलचस्प यह है कि लाहौरिये हमारी तरह घूमने को ‘घूमना’ नहीं, ‘फिरना’ कहते हैं! बाद में मुझे लगा कि फिरना पाकिस्तान के लोगों की बोलचाल में भले शामिल हो, लेकिन हमारी उर्दू शायरी में भी फिरना का ख़ूब इस्तेमाल हुआ है. मसलन पाकिस्तानी शायर मुनीर नियाज़ी का ये शेर देखें,
‘बेचैन बहुत फिरना घबराए हुए रहना
इक आग-सी जज़्बों की दहकाए हुए रहना. ’
वहीं ज़नाब नूह नारवी फरमाते हैं,
‘हमारी जब
हमारी अब हमारी कब से क्या मतलब
ग़रज़ उन को ग़रज़ से क्या
ग़रज़ मतलब से क्या मतलब. ’
तो साहब इस तरह जब हम उर्दू
शायरी की दहलीज़ पर गए तो पता चला कि फिरना लफ़्ज को लेकर इस क़दर हैरतज़दा होने
की कोई ज़रूरत नहीं.
हालाँकि यह देख-सुनकर कर आपको लाज़िमी तौर पर हैरत होगी जब आप लाहौर में लक्ष्मी चौक, लाला छतरमल रोड, दयाल सिंह कॉलेज, गुलाब देवी अस्पताल, गंगाराम अस्पताल, क़िला गुज्जर सिंह, संतनगर, कोट राधा किशन, मिठरादास, फूलनगर, दीनानाथ, गज्जनसिंहवाला, भोलावाला, भगवानपुरा, ग्वालमंडी, हीरामंडी, फिरोजपुर रोड में ‘फिर’ रहे हों, तो लाहौर आपको पुरानी दिल्ली-जैसा लगेगा और सिंध राज्य की राजधानी कराची में जब आप गुरु मंदिर चौरंगी, आत्माराम प्रीतमदास रोड, रामचंद्र टेंपल रोड और कुमार स्ट्रीट में ‘घूम’ रहे होंगे, कुछ खा-पी रहे होंगे, तो आपको लगेगा कि आप आमची मुंबई में हैं!
एक पुराने घर के नेमप्लेट पर आज तक उसी हाल में ‘बाबा
भगवानदास, सन् 1916’ देखकर सुखद आश्चर्य हुआ कि इतने साल बीत
जाने के बाद भी समय के गर्दो-ग़ुबार ने बहुत कुछ नहीं बदला! जबकि
हिंदुस्तान में इन दिनों शहरों के नाम बदलने का एक नया सिलसिला चल निकला है, जिस
वज़ह से सालों से लोगों के मानस में रचा-बसा मुग़लसराय जंक्शन अब ‘दीन दयाल उपाध्याय जंक्शन’ हो चुका है. इलाहाबाद का नाम ‘प्रयागराज’ किया जा चुका है और जिला फ़ैज़ाबाद अब अयोध्या ज़िले के नाम से जाना
जाएगा.
फ़ैजाबाद, जहाँ की अमीरन थी, जो दिलावर खाँ की कमीनगी का शिकार होकर बाद में उमराव जान हुई और शायरी में उमराव जान ‘अदा’! उमराव जान ‘अदा’ नाम से एक उर्दू उपन्यास है, जिसे मिर्जा हादी रुस्वा ने लिखा है और यह पहली बार सन् 1899 में छपा. कहा जाता है कि जब लेखक लखनऊ में उमराव जान से मिले, तो उन्होंने स्वयं अपनी यह पूरी कहानी रुस्वा साहब को बताई थी. हालाँकि कई लोगों का मानना है कि असल में कोई उमराव जान थी ही नहीं, यह तो लेखक की कल्पना मात्र है. लेकिन यह ख़ाकसार जब शहर बनारस में रह रहा था, तो पता चला कि मिर्ज़ा हादी रुस्वा के उपन्यास की नायिका का इंतकाल बनारस में हुआ था! कहते हैं ज़िंदगी के आखिरी पड़ाव पर उमराव जान बिल्कुल अकेली हो गई थीं.
तकरीबन सन् 1928 में उन्होंने शहर बनारस का रुख
किया. चौक क्षेत्र के गोविंदपुरा मोहल्ले
में उन्हें पनाह मिली और इसी शहर में गुमनाम ज़िंदगी बसर हुए 26 दिसंबर, 1937 को
उन्होंने आख़िरी साँस ली. फ़ैज़ाबाद से
लखनऊ, कानपुर होते हुए उमराव जान का आख़िरी वक़्त बनारस में गुज़रा. उसी बनारस में जहाँ पहुँचकर मिर्ज़ा ग़ालिब के
ज़ज्बात फ़ारसी ज़बान में ‘चराग़-ए-दैर’ बनकर फूट पड़ा था.
कहते हैं कि पेंशन के सिलसिले में सन् 1827 या 1828 में दिल्ली से कलकत्ते के सफ़र पर निकले मिर्ज़ा असदउल्लाह खाँ ‘ग़ालिब’ ने दिल्ली से कलकत्ते का सफ़र दस महीने में पूरा किया और इन दस महीनों में अकेले बनारस में उन्होंने पाँच महीने क़याम किया. जबकि जिस लखनबी तहज़ीब को लेकर बहुत-सी बातें की जाती हैं, उस लखनऊ में उस वक़्त के बादशाह के एक वज़ीर ने उनसे बदतमीज़ी से पेश आने की कोशिश की, तो उन्होंने ये शेर,
‘सताइश-गर है ज़ाहिद इस क़दर जिस बाग़-ए-रिज़वाँ का
वो इक गुलदस्ता है हम बे-ख़ुदों के ताक़-ए-निस्याँ का’
कहते हुए शहर इलाहाबाद का रुख किया. इलाहाबाद से बनारस का सफ़र उन्होंने घोड़े पर बैठकर किया और जब बनारस की दहलीज़ पर पहुँचे, तो उनका पूरा बदन बुख़ार से तप रहा था और दोस्तों की बदसुलूकियों का घाव में दिल में अलग से दर्द दे रहा था. लेकिन गंगा के साहिल की हवा, जमना के साहिल की हवा से ज़्यादा ग़ालिब को रास आई और वे दो-चार दिन में ही तरो-ताज़ा हो गए. सुबह-ए-बनारस की खूबसूरती पर फिदा होकर फारसी में ‘चराग़े–ए–दैर’ नाम से 108 अशआर की मसनवी लिखी. ‘चराग़–ए–दैर’ का मानी होता है मंदिर का दीया. फ़ारसी के इस मसनवी में जब वे मंदिर के दीये का जिक़्र करते हैं, तो वहाँ के घाटों की ख़ूबसूरती, लाला के फूल, भँवरों की गुनगुनाहट, वहाँ की तंग गलियों, मंदिर की आरती और बनारस की संस्कृति को सराहते हुए इस शहर को हिंदुस्तान का क़ाबा बताते हैं, ‘
इबादत खानः-ए-नाक़ूसियानस्त
हमाना क़ा’बः-ए-हिंदुस्तानस्त. ’
अपनी इस मसनवी में ग़ालिब ने जिस तरह बनारस को देखा है, उस तरह से उर्दू के किसी शायर ने नहीं देखा. हक़ीकत यह है कि दिल के शायर मिर्ज़ा नौशा मंदिर-मस्ज़िद पर दिल को तरज़ीह देते हैं, इसलिए और चीज़ों को ढहाने की बात तो करते हैं, लेकिन दिल को ढहाने की बात नहीं करते, क्योंकि ख़ुदा का असल घर तो इंसान का दिल है, ‘
बुतखाना तोड़ डालिये, मस्जिद को ढाइये
दिल को न तोड़िये ये खुदा का मक़ाम है!’ ‘
चराग़-ए-दैर’ में ग़ालिब ने फ़रमाया है कि अगर मेरे पैरों में मज़हब की जंजीरें न होतीं, तो मैं अपनी
तज़्वी तोड़कर जनेऊ धारण कर लेता. माथे पर
तिलक लगा लेता और गंगा के किनारे उस वक्त तक बैठा रहता जब तक मेरा यह फ़ानी जिस्म
एक बूंद बनकर गंगा में पूरी तरह समा ना जाता. इस तरह अपने तास्सुरात का इज़हार वही शख़्स कर
सकता है, जिसे हिंदुस्तान की तहज़ीब से बेपनाह मुहब्बत हो.
मसनवी से इतर मोहम्मद अली खाँ के नाम लिखे अपने ख़त में मिर्ज़ा लिखते हैं,
‘बनारस की हवा के ऐजाज़ से मेरे ग़ुबारे-वज़ूद को अलमे-फ़तह की तरह बलंद कर दिया और वज़्द करती हुई नसीम के झोंकों ने मेरे ज़ोफ़ और कमज़ोरी को बिल्कुल दूर कर दिया. मरहबा! अगर बनारस को उसकी दिलक़शी और दिलनशीनी की वज़ह से सुवैदाए आलम कहूँ, तो बजा है. मरहबा, इस शहर के चारों तरफ़ सब्ज़-ओ-गुल की ऐसी कसरत है कि अग़र इसे ज़मीन पर बहिश्त समझूँ तो रवा है. इसकी हवा को यह ख़िदमत सौंपी गयी है कि वह मुर्दा जिस्मों में रूह फूँक दे. इस की ख़ाक का हर ज़र्रा रहे-रौ के पाँव से पैकाने ख़ार बाहर खैंच ले. अगर गंगा इसके पाँव पर अपना सर न रगड़ता, तो हमारे दिलों में उसकी इतनी क़द्र न होती. अगर सूरज इस के दरो-दीवार से न गुज़रता, तो इतना ताबनाक और मुनव्वर न होता. बहता हुआ दरिया-ए-गंगा (नदी होने के कारण गंगा हिंदी में भले स्त्रीलिंग हो, लेकिन फ़ारसी में दरिया पुल्लिंग की श्रेणी में आता है, इसलिए ग़ालिब ने गंगा और नदी दोनों लफ़्ज का इस्तेमाल पुल्लिंग में किया है. ) उस समुंदर की तरह है, जिस में तूफ़ान आया हुआ हो. यह दरिया, आसमान पर रहने वालों का घर है. सब्ज़ रंग परी चेहरा हसीनों की जल्वागाह के मुक़ाबले में क़ुदसियाने माहताबी के घर कतां के मालूम होते हैं. अगर मैं एक सिरे से दूसरे सिरे तक शहर के इमारतों की कसरत से ज़िक्र करूँ, तो वह सरासर मस्तों से आबाद हैं और अगर इस शह्र के एतराफ़े सब्ज़ा–ओ–गुल से बयान करूँ, तो दूर–दूर तक बहारिस्तान नज़र आये.’
मिर्जा नौशा की बनारस पर लिखी यह मसनवी अपनी मिट्टी और संस्कृति से गहरी मुहब्बत की ऐसी मिसाल है, जो मज़हबी अक़ीदों से यक़ीनन अलग थी और जिसका मज़हब था इंसानियत.
तो
ख़ैर, हम बात नाम बदलने की सियासी चलन की कर रहे थे, तो इस चलन की पड़ताल ज़रा
पीछे जाकर करें, तो हम पाते हैं कि ‘काशी’, ‘बेनारेस’ और ‘बनारस’ आदि नामों के बीच 24 मई, 1956 को मिर्ज़ा
ग़ालिब, भारतेंदु, प्रेमचंद, प्रसाद के ज़बान पर चढ़े हुए नाम बनारस को वाराणसी कर
दिया गया. ...और उसके बाद जो लहर चली तो
मद्रास को चेन्नई, बंबई को मुंबई, बंगलोर को बंगलुरु और कलकत्ता को कोलकाता करके
ही यह लहर थोड़ी थमी. थोड़ी थमी इसलिए
लिखना पड़ा कि कौन जाने अब भी किस शहर के नाम को बदलकर क्या से क्या कर दिया जाए! कवि अशोक वाजपेयी से माज़रत चाहते हुए कहूँगा कि शहर अब भी संभावना हो
चाहे न हो, शहर के नाम बदलने की अब भी सदैव संभावना है!
नाम बदलने की राजनीतिक परंपरा पाकिस्तान में विभाजन के फौरन बाद ही शुरू हो गई थी. नये बने देश पाकिस्तान ने विभाजन के बाद ख़ुद को भारतीय विरासत से दूर करने की लगातार कोशिश की. विशेष रूप से एक कट्टर इस्लामिक देश की पहचान, जो अपने पड़ोस के देशों की मिली-जुली और साझी संस्कृति के बजाय अरब देशों की संस्कृति के अधिक क़रीब हो. यही वज़ह रही कि पाकिस्तान के पंजाब प्रांत के मशहूर शहर लायलपुर का नाम बदलकर फैसलाबाद कर दिया गया. लाहौर के कृष्ण नगर इलाके का नाम बदलकर इस्लामपुर रख दिया गया. लाहौर से पचास किलोमीटर दूर एक छोटे-से शहर ‘भाई फेरू’ का नाम फूल नगर हो गया. लाहौर के स्थानीय लोगों ने एक किस्सा बताया कि सिखों के सातवें गुरु हरराय जी यहाँ आए थे. भाई फेरू के भक्ति-भाव को देखकर वे इतने अधिक प्रभावित हुए कि उन्होंने इस नगर का ही नाम ‘भाई फेरू’ रख दिया.
(तालाब- टोबा टेक सिंह) |
एक और दिलचस्प चीज़ वहाँ जाकर पता चली कि सआदत हसन मंटो की जिस कहानी ‘टोबा टेक सिंह’ की हमलोग बहुत तारीफ़ करते हैं, वह मात्र ‘गल्प’ या गप्प नहीं है. टोबा टेक सिंह लाहौर-इस्लामाबाद के रास्ते में लाहौर से करीब दो सौ पैंसठ किलोमीटर दूर पाकिस्तान के पंजाब प्रांत का एक शहर और ज़िला है. इसके इतिहास को जानने की कोशिश की तो पता चला कि इसका इतिहास टेक सिंह नाम के एक व्यक्ति से जुड़ा हुआ है, जिसका काम इस इलाके में आने वाले मुसाफिरों की मदद करना था. चूँकि यह जगह कई रास्तों के संगम पर था, इसलिए यहाँ यात्रियों का आना-जाना लगा रहता था. टेक सिंह इन्हें पास के एक तालाब से मटके में पानी लाकर पिलाया करता था. यह गरहा मटका उर्दू में टोबा कहलाता है. इस वजह से समय के साथ यह इस स्थान की पहचान बन गया और इसका नाम टोबा टेक सिंह पड़ गया. यह जगह भी विभाजन की क्रूरता से अछूता नहीं रहा. विभाजन की खरोंचें टोबा टेक सिंह पर भी आईं.
पंजाब का एक अहम रेलवे स्टेशन होने
के नाते टोबा टेक सिंह न केवल हिंसा का साक्षी बना, बल्कि इसने शवों से लदी हुई
ट्रेनें भी देखी हैं. आज़ादी के बाद इस
जगह का नाम भी बदलने की कोशिशें हुई. कट्टरपंथियों
ने इस जगह का नाम ‘दर-उल-इस्लाम’
करने का प्रस्ताव रखा,
लेकिन टोबा के लोगों ने इसका विरोध किया और इस जगह की विरासत को किसी तरह
बचाया!
जियो न्यूज़ चैनल के पत्रकार अब्दुर रऊफ ने बताया कि सन् 1992 में जब अयोध्या में बाबरी मस्जिद तोड़ी गई, तो उसके कुछ ही घंटे के भीतर लाहौर के जैन मंदिर चौक को ‘बाबरी मस्जिद चौक’ और बलूचिस्तान प्रांत के ‘हिंदू बाग' को 'मुस्लिम बाग' में तब्दील कर दिया गया. सन् 1947 में देश के विभाजन के बाद बड़े पैमाने पर हिंसा हुई थी. उससे बचकर कुछ लोग इस पार से उस पार और उस पार से इस पार आने में सफल रहे, लेकिन विस्थापन के शिकार हुए लोगों के घर-द्वार, मंदिर-मस्जिद, गुरुद्वारे, कब्रिस्तान, श्मशान सब वहीं रहे, जहाँ वे वर्षों से रह रहे थे. उनके लिए इन चीज़ों को इधर से उधर करना मुमकिन नहीं था.
कुछ शहरों, कुछ
गलियों, कुछ इमारतों के नाम तो लोगों ने बदल दिये, लेकिन जिन लोगों ने जेहनी तौर
पर उन शहरों, उन इमारतों और उन धार्मिक स्थलों से एक रिश्ता कायम किया हुआ था, वे
ज्यों-के-त्यों रहे. वे आहें, वे यादें
नहीं बदली. लोगों के जले हुए घर और
बिछुड़े हुए बच्चों की पुकारों और जबरन धर्म बदलने और बलात्कारियों के बच्चे पैदा
करने को मजबूर औरतों की सिसकियों ने दशकों तक हिंदी, पंजाबी और उर्दू-साहित्य में ‘पाकिस्तान
मेल’, ‘तमस’,
‘अमृतसर आ गया है’, ‘पानी
और पुल’, ‘ठंडा गोश्त’, ‘मलबे के मालिक’ और ‘टोबा टेक सिंह’ ने हमारे कलेजे को चाक-चाक किया है.
आम तौर पर हमारे यहाँ मीडिया में पाकिस्तान की कट्टरता, विभाजन के समय से ही भारत के साथ दुश्मनी का रवैया, भारत को अस्थिर करने के लिए आतंकवाद को बढ़ावा देने की ख़बरें प्रमुखता से छायी रहती हैं. कवि ज्ञानेन्द्रपति की पंक्तियों में कहूँ, तो छपते हुए अख़बार और पकते हुए माँस को चाहिए है गरम मसाला, इसलिए दुश्मन देश के बारे में नकारात्मक ख़बरें हमारी मीडिया के लिए गरम मसाले का काम करती हैं. किसी दुश्मन देश की सकारात्मक चीज़ों को देखने की कोशिश इस लिहाज से भी मुझे ज़रूरी लगा कि हम वर्षों तक पाकिस्तान के सच के सभी पहलुओं को निरपेक्ष होकर नहीं देख पा रहे हैं.
आज़ादी के बाद अगर हिंदुस्तान ने कई चीज़ों में तरक्की की है, तो पाकिस्तान ने भी कई क्षेत्रों में बेहतर काम किया है. माना कि पाकिस्तान एक इस्लामिक गणतंत्र है, जहाँ का राष्ट्रपति संवैधानिक तौर पर सिर्फ़ मर्द और सुन्नी मुसलमान और प्रधानमंत्री होने के लिए भी मुसलमान होना जरूरी है, वहीं भारत में न केवल अल्पसंख्यक समुदाय से अनेक राष्ट्रपति हुए हैं, बल्कि प्रतिभा पाटिल के रूप में एक महिला भी राष्ट्रपति हो चुकी हैं. यह जानना बेहद सुखद है कि पाकिस्तानी पंजाब के पंजाब विश्वविद्यालय के पुस्तकालय में तकरीबन साढ़े आठ हजार संस्कृत-हिंदी की पांडुलिपियां आज भी सुरक्षित रखी हुई हैं. हिंदू, मुगल, सिख, पठान एवं ब्रिटिश साम्राज्य की मिश्रित संस्कृति वाला नगर लाहौर कभी आर्य समाज का गढ़ रहा है. संस्कृत और भारत-विद्या का सुप्रसिद्ध प्रकाशन मोतीलाल बनारसीदास की स्थापना सन् 1903 में लाहौर में हुई थी.
(हीरा मंडी) |
रीना अब्बासी ने अपनी किताब ‘हिस्टॉरिक टेंपल्स इन पाकिस्तान-ए कॉल टू कान्शंस’ में पाकिस्तान में मंदिरों के बारे में अनेक दिलचस्प जानकारियाँ दी हैं. इस पुस्तक में एक स्थान पर रीमा ने लिखा है कि सिंध में मंदिरों की बहुत अच्छे से देखभाल की जा रही है और ख़ैबर पख़्तूनख्वाह और बलूचिस्तान में मंदिरों की हालत बेहतर है, लेकिन सबसे ख़राब स्थिति पंजाब प्रांत के मंदिरों की है. ख़ासकर लाहौर में, जहाँ सिर्फ़ दो मंदिर बचे हैं, जिनमें एक बंद रहता है.
अनारकली
बाज़ार जाते समय रास्ते में हमारी नज़र ढहाई जा चुकी एक वीरान जैन मंदिर पर पड़ी.
मेरे मित्र रऊफ साहब ने
बताया कि भारत में बाबरी मस्ज़िद के विध्वंस के बाद हुई प्रतिक्रिया में धार्मिक
अतिवादियों ने इस मंदिर को क्षतिग्रस्त कर दिया था. हमने देखा कि क्षतिग्रस्त मंदिर परिसर में अनेक
चीज़ों की दुकानें, लाहौर वेस्ट मैनेजमेंट कंपनी एल.डब्ल्यू.एम.सी. के दफ्तर और
इसके अलावा कई अन्य व्यापारिक प्रतिष्ठान चल रहे थे.
भारत के आम लोगों तक पाकिस्तान के बारे में जितनी भी खबरें पहुँचती हैं, वह या तो हिंसा की होती हैं या भारत विरोधी. हमारे यहाँ पाकिस्तान के बारे में शायद ही कोई ऐसी ख़बर पहुँचती है, जो वहाँ के बारे में कोई सकारात्मक बात करती हो. इस वज़ह से हमारे ज़ेहन में पक्के तौर पर यह बात बैठ चुकी है कि पाकिस्तान इराक, सूडान और सीरिया की तरह एक विफल राष्ट्र है. द्विराष्ट्र सिद्धांत पर बने इस देश के अंदर कोई अच्छी या सकारात्मक बात भला हो भी कैसे सकती है? देश के विभाजन के बाद से ही हिंदुस्तान के प्रति दुश्मनी का रवैया रखने वाले पाकिस्तान में कोई सकारात्मक चीज़ देखकर हम भारतीयों को आश्चर्य में डालने के लिए काफी था.
पाकिस्तानी पंजाब के देहाती इलाके से गुज़रते हुए जब आप हरे-भरे खेत देखेंगे और उन खेतों में लहलहाती हुई फसलें देखेंगे, तो आपका संबंध अगर गाँव और खेती-किसानी से रहा है, तो उन खेतों में उतरने से अपने आपको आप रोक नहीं पाएँगे. वहाँ की मिट्टी उठाकर जरूर देखना चाहेंगे, खेत में काम करने वाले किसानों और मज़दूरों से बात करना चाहेंगे. सो मेरा भी किसान-मन नहीं माना. मैंने वहाँ के खेत देखे, खेतों की मिट्टी उठाकर देखी, तो लगा कि पाकिस्तानी पंजाब के किसानों की ज़मीन हमारे पंजाब के मुकाबले ज़्यादा ऊर्वर और ज़्यादा बेहतर है. हमने उपज बढ़ाने के लिए रसायनिक खादों का उपयोग कर-करके मिट्टी को ख़राब कर दिया है. पानी के लिए बोरिंग भूजल का इतना दोहन किया है कि पहले जहाँ सौ फीट पर पानी आता था, वहाँ अब तीन-साढ़े तीन सौ फीट पर जाकर पानी मिलता है. जबकि पाकिस्तान में दुनिया की सबसे बड़ी नहर आधारित सिंचाई प्रणाली है.
स्वास्थ्य
के क्षेत्र में एक सकारात्मक चीज़ यह पता चली कि दुनिया में पाकिस्तान में दुनिया
की सबसे बड़ी एंबुलेंस चेन, जिसे वहाँ का ग़ैर सरकारी संगठन ईदी फाउंडेशन चलाता है.
सड़कों के मामले में पाकिस्तान ने जो ‘मोटर वे’ बनाई है, उसका आसपास हमारे यहाँ के सिर्फ़
यमुना एक्सप्रेसवे को रखा जा सकता है. अंतर यह है कि यमुना एक्सप्रेसवे पर डिवाइडर
लगाकर दोनों तरफ़ आने-जाने का रास्ता है, जबकि मोटर वे पर जाने के लिए अलग और आने
के लिए अलग सड़क है. सड़क के किनारे
निश्चित स्थानों पर एयरपोर्ट की तरह बेहतरीन सुविधाओं वाले बस स्टेशन बने हुए हैं,
जहाँ खाने-पीने के बहुतेरे विकल्प हैं.
दक्षिण एशियाई देश पाकिस्तान और बांग्लादेश, जो सात दशक पहले तक दुनिया के नक्शे में अविभाजित हिंदुस्तान हुआ करता था, आज दो अलग आज़ाद मुल्क हैं! भारत विभाजन के बाद कुछ क्षेत्रों में इन देशों ने भारत से अधिक कामयाबी हासिल की है और अनेक समस्याओं, राजनीतिक अस्थिरता और धार्मिक उथल-पुथल के बावज़ूद कई क्षेत्रों में हिंदुस्तान से आगे निकलने की होड़ में हैं! कपड़ा उद्योग में बांग्लादेश आज दुनियाभर में चीन के बाद दूसरे स्थान पर है और खाद्यान्न उत्पादन के मामले में अब वह पूरी तरह आत्मनिर्भर हो चुका है.
बांग्लादेश की खुशहाली का एक कारण कदाचित् यह भी
हो कि उसकी सीमा के चारों ओर जो-जो देश हैं, उनके साथ बांग्लादेश का कोई बड़ा सीमा
विवाद या तनावपूर्ण संबंध नहीं है. पड़ोसी
देशों से बेहतर संबंध होने के कारण कथित सुरक्षा के नाम पर बांग्लादेश को अपनी सकल
घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का एक बड़ा हिस्सा खर्च नहीं करना पड़ता है. इस पैसे का इस्तेमाल वह अपनी अर्थव्यवस्था को
बेहतर बनाने में करता है. आज सॉफ्टवेयर से
लेकर दवा निर्माण के क्षेत्र में बांग्लादेश ने उल्लेखनीय प्रगति की है.
(निराला स्वीट्स) |
भारत की संसद में महिलाओं को तैंतीस प्रतिशत आरक्षण देने का विधेयक अभी तक लंबित है, वहीं पाकिस्तान की संसद और विधानसभा में महिलाओं की उपस्थिति बीस से बाईस फीसदी के बीच है. संसद में महिलाओं के प्रतिनिधित्व के हिसाब से पाकिस्तान 199 देशों की सूचनी में 89वें स्थान पर है, जबकि भारत इस सूची में 148 वें स्थान पर है. पाकिस्तान की संसद में कुल 342 सीटें हैं, जिनमें से 60 महिलाओं और 10 सीटें धार्मिक रूप से अल्पसंख्यक उम्मीदवारों के लिए आरक्षित हैं. इसके बावज़ूद अगर हिंदू उम्मीदवार चाहें, तो वे पूरे पाकिस्तान की किसी भी सामान्य सीट से चुनाव लड़ सकते हैं. पाकिस्तान के चुनाव आयोग ने वहाँ के राजनीतिक दलों के लिए यह अनिवार्य नियम बना दिया है कि सामान्य सीटों की कम-से-कम पाँच फीसदी सीटों पर उन्हें महिला उम्मीदवारों को टिकट देना होगा. जबकि भारत के राजनीतिक दलों के लिए अब तक कोई ऐसी अनिवार्यता नहीं है.
बीबीसी की उर्दू
सेवा में काम करने वाले मेरे मित्र अली सलमान (जो अब बीबीसी उर्दू सेवा छोड़कर
अमेरिका में बस चुके हैं) ने वहाँ महिला आरक्षण का गणित समझाते हुए बताया कि
महिलाओं के लिए आरक्षित 60 सीटों पर सीधे चुनाव होता है. राजनीतिक दल चुनाव आयोग को चुनाव पूर्व ही अपने
महिला उम्मीदवारों की वरीयता सूची सौंप देती हैं. इसके बाद 272 सीटें को 60 सीटों से भाग दिया
जाता है. चुनाव के बाद पार्टी को 4.5 सीट
के अनुपात में वरीयता के आधार पर एक आरक्षित महिला सीट मिल जाती है. यही फॉर्मूला अल्पसंख्यकों के लिए आरक्षित 10
सीटों के लिए भी है. यानी जिस दल को 27.2
सीटें मिलती हैं,
उसका एक उम्मीदवार जीत जाता है.
इंसानियत की खुशक़िस्मती कहिये कि इधर पाकिस्तान में धार्मिक विविधता के लिए समाज में स्वीकार्यता बढ़ने लगी है. हाल के दिनों में पाकिस्तान की सरकार ने अल्पसंख्यकों का भरोसा जीतने के लिए उन्हें सेना में शामिल करने, राजनीति की मुख्यधारा में लाने, उनकी धार्मिक विरासतों को सुरक्षा देने और धार्मिक स्वतंत्रता को सुनिश्चित करने-जैसा कदम उठाने की बात करने लगी है. पाकिस्तान के तीन बार प्रधानमंत्री रह चुके मियाँ नवाज़ शरीफ़ का दो-तीन साल पहले दिया गया एक बयान मुझे बहुत आश्वस्तकारी लगा, जिसमें उन्होंने कहा,
‘वो दिन दूर नहीं जब पाकिस्तान को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अल्पसंख्यकों के दोस्त के तौर पर पहचाना जाएगा. पगड़ी वाले हों या नंगे सिर, दाढ़ी वाले हों या बग़ैर दाढ़ी वाले मुसलमान हों या ग़ैर-मुस्लिम सबकी ख़ुशियों में शरीक होता हूँ. अल्पसंख्यकों की हिफ़ाज़त और उन्हें बराबरी का हक़ देना हमारे ईमान का हिस्सा है. मज़हब सबका अपना-अपना, लेकिन मानवता हमारी साझी विरासत है. ’
पता नहीं मौके
की नज़ाकत को देखकर उन्होंने यह बयान दिया था या इसमें वाकई कुछ ईमानदारी थी, ये
तो वही बेहतर जानते हैं या उनका ख़ुदा बेहतर जानता होगा, लेकिन अग़र आप तटस्थ होकर
देखें तो कोई भी इंसाफ़पसंद और इंसानदोस्त शख़्स शायद ऐसा ही बयान देगा.
अल्पसंख्यकों के नज़रिये से देखें तो तमाम नकारात्मक ख़बरों के बीच सच का दूसरा पहलू यह है कि पाकिस्तान के सुप्रीम कोर्ट में राणा भगवानदास न्यायाधीश रह चुके हैं, वहीं जोगेंद्र नाथ मंडल वहाँ के पहले हिंदू कानून मंत्री थे. वहाँ मंडल के कद का अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि मोहम्मद अली जिन्ना ने 1946 में अविभाजित भारत की अंतरिम सरकार में मुस्लिम लीग की तरफ से जिन पाँच नामों को भेजा था, उनमें एक नाम मंडल का भी था. भारत की संविधान सभा के चुनाव में भीमराव अंबेडकर जब बंबई में हार गए थे, तो जोगेंद्र नाथ मंडल ने उन्हें बंगाल असेंबली के जरिये चुनकर संविधान सभा में भेजा था.
विभाजन के बाद मंडल न सिर्फ
पाकिस्तान के पहले कानून मंत्री बने, बल्कि पाकिस्तान संविधान
सभा के अध्यक्ष भी थे. मोहम्मद अली जिन्ना
जब तक जिंदा थे, तब तक तो किसी तरह मंडल ने निभाया, लेकिन उसके बाद ‘दारूल हर्ब’ को ‘दारूल इस्लाम’ में बदल देने को आतुर
शक्तियों की कारस्तानियों पर पाकिस्तान के हुक़्मरानों की ख़ामोशी को देखकर 08
अक्तूबर, 1950 में मंडल ने पाकिस्तान सरकार से इस्तीफा दे दिया और वापस कलकत्ता आ
गए. पाकिस्तान में उनका अनुभव इतना तल्ख़
रहा कि उसके बाद वे लौट कर फिर कभी पाकिस्तान नहीं गए और ज़िंदगी भर अपने को ठगा
हुआ महसूस करते रहे.
लेख शानदार और पंकज sir का फ़ोटो भी शानदार लगा है । अरुण जी को साधुवाद
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर
जवाब देंहटाएंएक टिप्पणी भेजें
आप अपनी प्रतिक्रिया devarun72@gmail.com पर सीधे भी भेज सकते हैं.