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आलोचक रविभूषण का मानना है कि रणेन्द्र का उपन्यास ‘गूँगी रुलाई का कोरस’ गहन अध्ययन, श्रम-अध्यवसाय से लिखा गया एक शोधपरक उपन्यास है. इसमें यह और जोड़ा जाना चाहिए कि संगीत के घरानों को आधार बनाकर लिखा गया यह हिंदी में विरल उपन्यास भी है.
इसकी विस्तार से चर्चा कर रहें हैं
आलोचक-रचनाकार प्रेमकुमार मणि.
गूँगी रुलाई का आख्यान
प्रेमकुमार मणि
रणेन्द्र हिंदी के सुपरिचित कथाकार-उपन्यासकार
हैं. 2006 में जब उनका उपन्यास 'ग्लोबल गाँव का देवता' प्रकाशित हुआ, तब एक हलचल
हुई और हिंदी पाठकों का ध्यान उनकी ओर आकर्षित हुआ. अपने
छोटे कलेवर के इस उपन्यास ने असुर आदिवासियों के सवाल
को हिंदी समाज के वैचारिक दायरे में ला खड़ा किया था. असुर हमारे साहित्य में हासिये के लोग थे. उनकी धड़कन
और जीवन-राग से हिंदी की मुख्यधारा लगभग अपरिचित थी.
साहित्य की वैचारिक दुनिया में इससे नए विमर्श का आरम्भ हुआ. द्विजवादी समझ और संस्कारों में पला-बढ़ा हिंदी समाज असुरों के प्रति एक
विजातीय अथवा शत्रु-भाव पालता रहा था. उसे जब मालूम हुआ, वे
पौराणिक नहीं, इसी समाज के जीवित हिस्सा हैं और सांस्कृतिक
रूप से तथाकथित अभिजात तबके से कुछ मामलों में
अधिक सुसंस्कृत भी, तब लोग थोड़े अचंभित हुए.
ग्लोबल गाँव के देवता के माध्यम से
रणेन्द्र ने असुरों के राजनीतिक और सांस्कृतिक पराभव की त्रासद गाथा लिखी. उनकी
विकसित सभ्यता उनके पराभव के आधार बन गए. उनके बर्बर शत्रुओं ने उन्हें निर्ममता
से पराजित किया. उनके खेत, नगर और राजपाट सब कुछ झपटते हुए
उन्हें जंगलों की तरफ धकेलने लगे. जब जंगल को ही उन लोगों ने अपनी दुनिया बना ली,
तब जंगलों को भी अपने कब्जे में लेने लगे. यह सब पुरानी दुनिया से
लेकर आधुनिक ज़माने तक में हुआ. बल्कि आज की दुनिया में उन पर हमला जोरदार हो गया
है. अंतर यही है कि पहले देवासुर संग्राम होता था, आज
ग्रीनहंट होता है. आधुनिक औजारों से सजे पूरे फ़ौज-फाटे उनके 'त्रेता-द्वापर कालीन' पारम्परिक तीर-धनुष के विरुद्ध
खड़े हो गए हैं.
फिलहाल तो उनकी स्थिति यह है कि
उन्हें गुलाम बनाने की जोरदार तैयारी बहुराष्ट्रीय कंपनियों द्वारा की जा रही है.
आज वह अपने वजूद बचाने का सब से बड़ा संघर्ष कर रहे हैं. बड़ी बात यह है कि उनका
संघर्ष पूरी दुनिया में भिन्न -भिन्न रूपों में है. पूरी दुनिया के आदिवासी-मूलनिवासी
अपने अस्तित्व-रक्षा का संघर्ष कर रहे हैं. यह
उपन्यास आकार में भले ही छोटा था, लेकिन उसने एक सभ्यता-विमर्श
को अचानक से हमारे सामने ला खड़ा किया था. यह अनायास
नहीं था कि देव-पुत्रों और देवभाषा की पूरी सांस्कृतिक
दुनिया एकबारगी कठघरे में बेजुबान-सी हो गई थी.
मैंने महसूस किया है 'गूंगी रुलाई का
कोरस' उसकी ही अगली कड़ी है. हालांकि इस बीच रणेन्द्र
का एक और उपन्यास 'गायब होता देश' भी
आया. मैं स्पष्ट करूँ इस उपन्यास ने मुझे कुछ खास आकर्षित नहीं किया था. लेकिन 'गूंगी रुलाई का कोरस' में वे सवाल फिर से मुखर हो जाते हैं, जो 'ग्लोबल गांव का देवता' में उभरे थे. वे तमाम
सवाल हमारी सभ्यता से जुड़े सवाल थे.
दुनिया के हर समाज में सभ्यताओं का
संघर्ष कम-से-कम दो स्तरों पर चलता है. पहला दूसरों से स्पर्धात्मक
संघर्ष चलता है और दूसरा अपने भीतर का ही बदलाव होता
है. इसका अर्थ हुआ सभ्यताएं और संस्कृतियां कभी स्थिर नहीं रहतीं;
वहां निरंतर मेटाबोलिज्म अथवा चयापचयता
जारी रहती है. सभ्यताओं का आधार समाज होता है. विभिन्न
समाजों और उनकी सभ्यताओं में थोड़ी भिन्नता होती है. लेकिन समानता के तत्व अधिक
होते हैं. कुछ लोगों की दिलचस्पी भिन्नताओं को रेखांकित करने और
समानताओं को उपेक्षित करने की होती हैं. भिन्नता को खासियत बनाने की कोशिश होती
हैं और फिर बात यहां तक पहुँचती हैं कि हम श्रेष्ठ हैं. इनका संस्कृति-विमर्श यह
होता हैं कि उनकी जीवन शैली बाकी लोगों की जीवन शैली से श्रेष्ठ है और केवल इसी
शैली के माध्यम से दूसरे भी सुख प्राप्त कर सकते हैं. धीरे-धीरे उनकी इच्छा यह
होने लगती हैं कि अपनी जीवन शैली और सोच दूसरों पर किस
तरह थोप दी जाये. सांस्कृतिक साम्राज्यवाद की यह संकल्पना
हमें आहिस्ता-आहिस्ता बर्बरता की ओर धकेलने लगती है. फिर एक अंतर-संघर्ष की शुरुआत होती है. यह संघर्ष संघनित होते-होते हिंसक संघर्ष का
रूप लेता है. कुछ लोगों को लगता है कि जो 'अन्य' हैं, उन पर वर्चस्व बनाए
बगैर हमारा अस्तित्व असुरक्षित होगा. यह भी कि राजनीतिक प्रभुत्व कायम किए बिना
सांस्कृतिक वर्चस्व नहीं स्थापित किया जा सकता.
राजनीतिक-सांस्कृतिक वर्चस्व कायम
करने का यह स्वप्न अंततः एक कोलाहल को जन्म देता हैं. जो अन्य हैं, उन्हें विजित करने का अभियान चलता है. और सब
से पहले विजित की संस्कृति को विनष्ट किया जाता हैं. उन
पर विजेता अपनी संस्कृति थोपने की कोशिश करता है. जो
झुक जाते हैं, उन्हें विजेता अपनी संस्कृति में समाहित कर
लेता है. जो नहीं झुकते, वे बहिष्कृत कर दिए जाते है.
अंतर्वेशन और बहिष्करण का एक सिलसिला बनने लगता है और इसके साथ ही सभ्यता के विस्तार के नाम पर एक भयावह विसंस्कृतिकरण की पटकथा आरम्भ हो
जाती हैं. दुनिया हारे हुए और जीते हुए, श्रेष्ठ और कमतर,
वास्तविक और अवास्तविक, आर्य और अनार्य,
देव और असुर, वीर और कायर, देशी और विदेशी आदि-आदि में विभाजित होने लगती हैं. दुनिया केवल दो, या कुछ वर्गों में ही नहीं, अनेक संस्कृतियों और सभ्यताओं में विभाजित मान ली जाती है. 'स्व' और 'अन्य' की सोच विकसित होती है.
दुनिया के दार्शनिकों ने अपने
-अपने तरीकों से सभ्यताओं को देखा-समझा हैं, उनकी व्याख्या की हैं. इनकी
भिन्नताओं को ज्यादातर ने उनकी विशेषता और सौंदर्य माना हैं. उनका बहुरंगपन माना
है. कश्मीर के लोग एक धुन में रहते हैं और केरल के लोग उनसे तनिक भिन्न धुन में. असम
और गुजरात के लोग अलग-अलग तरीकों से रहते-जीते है. उनके पहनावे, उनकी बोली बानी, उनके खान-पान और उनकी रुचियों में
थोड़ी-थोड़ी भिन्नता होती हैं. लेकिन इसके मायने यह नहीं कि उनमें समानताएं नहीं होती हैं. दोनों दुःखी होते हैं, खुश भी. जीना-मरना,
उदास होना, हँसना-रोना दोनों के यहाँ होता है.
पहाड़ और समंदर देख कर दोनों उत्फुल्ल होते हैं. फूल-तितलियाँ, चाँद-तारे, नील गगन और आँखें दोनों को सुहाती हैं.
दोनों को भूख लगती है. हिंसा दोनों को ख़राब और प्यार दोनों को अच्छा लगता है.
पुरानी दुनिया के दार्शनिकों ने एक ही
ईश्वर को जड़-चेतन सब में प्रतिष्ठापित कर सब को एक सूत्र में बाँधने-संवारने की
कोशिश की थी. आधुनिक दुनिया के दार्शनिकों ने ईश्वर से भी
कहीं महत्वपूर्ण मनुष्य को माना और पूरी दुनिया के लिए एक अभिनव मानवीय नजरिये का
प्रतिपादन किया. तकनीक के विकास ने संचार को इतना सुगम बना दिया हैं कि आज पूरी
दुनिया एक गाँव के मानिंद है. भिन्नताएं शत्रुता नहीं ,सौंदर्य में तबदील हो गई हैं. एक ही हाट में
दुनिया भर के व्यंजन और पहनावे आज सुलभ हैं.
दरअसल सभ्यताओं के इस महायुद्ध में
अधिक अच्छे की होड़ तो लगी ही है, उसके समान्तर भिन्नताओं को स्वीकार
अथवा अंगीकार करने का उत्साहपूर्ण सिलसिला भी शुरू है.
लोगों को एकरंगी दुनिया की जगह बहुरंगी अथवा इंद्रधनुषी दुनिया अधिक पसंद है. एकता
की जगह अनेकता के महत्व को रेखांकित करने की कोशिशें जारी हैं. और यह आज से नहीं
है. संस्कृति पर गहरे विमर्श करने वाले हिंदी कवि रामधारी सिंह दिनकर ने कहा है -
अनेकता जहाँ होती है, युद्ध के देवता
वहां रोते हैं
दुनिया को एक करने की सनक से युद्ध
उत्पन्न होते हैं.
अनेकता को अंगीकार करने, उन्हें सजाने-संवारने
की प्रवृत्ति हमारे समाज में स्वाभाविक रूप से रही है. अनेक के बीच एक और एक से
अनेक की अवधारणा को हमने उदारता से स्वीकार किया है. कभी रवीन्द्रनाथ टैगोर ने
भारत की बुनावट को यूँ रखा था-
हेथाय आर्य, हेथा अनार्य,
हेथाय द्राविड़-चीन
शक-हूण-दल , पठान-मोगल एक देहे
होलो लीन
आर्य-अनार्य-शक-हूण-पठान-मोगल-द्राविड़-चीन
सब एक ही देह में विलीन हो गए हैं. सब मिल कर भारत बन गए हैं. सभ्यता के हजारों
सालों में जाने कितनी जातियां-प्रजातियां आईं. सब की कुछ कमियां कुछ खूबियां रही
होंगी. सब की खूबियां मिल कर भारत एक महाराग बन गया. एक ऐसी सांस्कृतिक दुनिया
जिसके बारे में आधुनिक इकबाल से लेकर प्राचीन संस्कृत कवियों ने सुन्दर पंक्तियाँ
लिखीं. जिस भरत के नाम पर इस देश का नाम भारत बना बताया गया, उसके वृत्त पर कवि कुलगुरु कालिदास ने एक सुन्दर नाटयाख्यान लिखा 'अभिज्ञान
शाकुंतलम'.
कौन है भरत ? शकुंतला और
दुष्यंत के अभिसार से उत्पन्न पुत्र. पूरी कथा अत्यंत कारुणिक है. लेकिन है कुल मिला कर एक वृहत्तर प्रेमकथा. शिकार का शौक पूरा करने
जंगल गए राजा दुष्यंत को कण्व ऋषि के आश्रम में सुकुमारी शकुंतला मिलती है,जो एक ऋषि और अप्सरा के प्रेम का परिणाम है. दुष्यंत
पहली नजर में ही उसे अपना दिल दे बैठते हैं. गुपचुप गन्धर्व
विवाह होता है और इस उपलक्ष में दुष्यंत शकुंतला को राजमुद्रिका पहनाते हैं. शकुंतला गर्भवती होती हैं. लेकिन जब उन्हें राजा दुष्यंत के पास ले जाया
जाता है तो राजा शकुंतला की नहीं, अपनी अंगूठी की खोज करता
है. राजा आखिर राजा होता है. बेचारी शकुंतला की अंगूठी नदी पार करते समय नदी में
गिर गई थी. वह करे तो क्या करे. अचानक पूरा प्रेम-आख्यान शकुंतला की पीड़ा की कहानी
में तब्दील हो जाता है. एक नाटकीय घटनाक्रम में अंगूठी मछुवारे को मिलती है. फिर
वह राजा तक पहुँचती है. लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी. आख्यान के आखिर में जंगल
में पल रहे भरत से दुष्यंत की मुलाकात होती है और अंततः नाटक सुखान्त को जाता है.
हमारी लोकमान्यता है कि इसी
शकुंतला पुत्र भरत के नाम पर इस देश का नाम भारत हुआ. यदि यह सच है तो स्वीकार
करना होगा, हमारे ऋषियों-दार्शनिकों का नजरिया आज के सामाजिक दार्शनिकों की तुलना में
कहीं व्यापक था. संवेदना की एक गहरी पौराणिक अनुगाथा को
उन ऋषियों ने ऐसी मान्यता आखिर क्यों दी? यह मनुष्य को
रेखांकित करने, उसकी पीड़ा को रेखांकित करने का उनका अपना
अंदाज़ था. शायद इसीलिए एक आधुनिक मलयाली लेखक तकषि शिवशंकर पिल्लई ने कहा था भारत को उसके सौंदर्य ने नहीं, उसकी पीड़ा
ने गढ़ा है. उत्तर से दक्षिण और पूरब से पश्चिम के आमजन और मिहनतक़श किसानों की पीड़ा समान है. यह पीड़ा ही उनकी
ताकत है.
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(रणेन्द्र) |
'गूंगी रुलाई का
कोरस' इसी हिंदुस्तान की कहानी को फिर से कहने का एक सांस्कृतिक अनुष्ठान है. लेखक ने अपने आख्यान के ताने-बाने
के लिए संगीत के एक घराने को लिया है. यह घराना उस्ताद महताबुद्दीन
खान का है जिनकी चार पीढ़ियों की कथा यहां किसी न किसी रूप में गूंथी गई है. घराने
का ठौर है, मौसिकी-मंजिल, यानी संगीत
का घर, जो पूरे उपन्यास के केंद्र में है.
महताबुद्दीन से लेकर बाउल कमोल
कबीर तक एक कहानी फैली-पसरी पड़ी है, जो अत्यंत सधे अंदाज़ में कुछ बड़े
सवाल हमारे जेहन में रख जाती है. मौसिकी मंजिल की चार पीढ़ियों की कथा में
हिंदुस्तानी संगीत के विकास और उसके सरोकारों की एक झांकी देखी जा सकती है.
हिंदुस्तानी संगीत ने कई मंजिलें तय की हैं और इसका इतिहास गौरवपूर्ण है. हमारे
मुल्क में संगीतकारों के लिए कोई अनुकूल परिवेश कभी नहीं रहा. संगीत-साधकों ने
अनेक मुश्किलों के बीच से अपनी कला को निखारा. उनकी साधना अद्भुत रही है और उन्हें
लेकर जाने कितनी किंवदंतियां हैं. महताबुद्दीन घराने की कथा को लेखक ने पूरी
निष्ठा के साथ रखा है. उनके खान-पान, बोली-बानी, पहनावे, सरोकार से लेकर जीवन की छोटी-छोटी चीजों को
भी लेखक ने अत्यंत सूक्ष्मता के साथ पकड़ने की कोशिश की है. शोधपरक उपन्यासों का
मैं पक्षधर नहीं हूँ. इसलिए कि ऐसे उपन्यासों में स्वाभाविकता की जगह विद्वता और
परिश्रम हावी हो जाता है, जो मेरी दृष्टि में उचित
नहीं है. शोध कथा-रस को फीका और उपन्यास
के समग्र प्रभाव को कमजोर कर देता है. लेकिन इस उपन्यास की विशेषता है कि न इसकी
स्वाभाविकता प्रभावित हुई है, न ही यह अतिरिक्त तौर पर बोझिल
अनुभव होता है.
उपन्यास मौसिकी मंजिल के धीरे-धीरे
उजड़ने की करुण गाथा है. कमोल कबीर की लाश रेल की पटरियों के किनारे पड़ी है. कमोल
की पत्नी शबनम, यानी शब्बो भाभी और उनकी अम्मीजान विलाप कर रही हैं. उन्हें पता नहीं चल
रहा है कि मौसिकी मंजिल को आखिर किसकी 'नजर' लग गई है. यह परिवार
लगातार की विपदाओं से लगभग टूट गया है. 'नानू, अब्बू, फिर कमोल- बाबा, अब कौन?'
रणेन्द्र इस पूरे परिवार के ऐतिह्य
को सिलसिलेवार रखते हैं. इस के साथ ही बंगाल में उभरी और फिर उत्तर भारत में आकर
निखरी हिंदुस्तानी मौसिकी (मौसिकी फारसी शब्द है, जिसका नाता ग्रीक मुसीका और अंग्रेजी
म्यूजिक से है) के पूरे इतिवृत्त को खूबसूरत अंदाज़ में चित्रित करते हैं. बाउल
गीतों के बादशाह लालन शाह फ़क़ीर से लेकर संगीत से जुडी जाने कितनी हस्तियां और
प्रसंग इस उपन्यास के डिटेल्स हैं. ऐसा लगता है कि हम हिंदुस्तानी संगीत की दुनिया
से हो कर गुजर रहे हैं.
किसी भी समाज में राग और संगीत ने
आखिर किया क्या है? दरअसल यह आध्यात्मिकता की चरम अभिव्यक्ति है. भारत जैसे
देश में जहाँ अनेक किस्म की संस्कृतियां और जीवन-शैली है, संगीत
सबको एक दूसरे से जोड़ती है, कम से कम कोशिश तो अवश्य करती है.
इसलिए यह एक सांस्कृतिक सेतु का रूप ले लेती है. भारत की निर्मिति आज से नहीं पुराने
ज़माने से इन राग-रागिनियों ने ही की है. जहाँ विचार थक जाते हैं, फलसफे बेजान होने लगते हैं, राग मोर्चा संभाल लेते
हैं. इसलिए ईश्वर और अनंत की तमाम प्रार्थनाएं संगीतमय हो जाती हैं, अथवा संगीत बन जाती हैं.
इस्लाम के शास्त्रवाद ने संगीत का
निषेध किया है. कहते हैं कुरान में संगीत का निषेध है. लेकिन फ्रेंच लेखक गाई
सोर्मन की मानें तो सब से बड़ा विद्रोह इस्लाम के भीतर से हुआ और वह संगीत के रूप
में हुआ. सूफी संतों की मजारों पर संगीत का एक रूप कव्वाली उसका आधार बन गया. गाई
सोर्मन के अनुसार हिंदुस्तान का अस्सी फीसद इस्लाम मस्जिद और कुरान केंद्रित नहीं, मजार और कव्वाली
केंद्रित है. इस मौन विद्रोह को समझने की कोशिश शायद ही हुई है .
उपन्यास में वर्णित मौसिकी मंजिल में अपने ही अंदाज़ का एक हिंदुस्तान विकसित हो रहा है. वहाँ मजहबों की रूढ़ियाँ अनुपस्थित है. चंडीदास कहते थे सबसे बड़ा सत्य मनुष्य है, इस के ऊपर कुछ नहीं. मौसिकी मंजिल की ऐसी ही मान्यता है. मनुष्य सब से बड़ा है, और उसके केंद्र में है राग अथवा संगीत, मौसिकी. बंगाल की संस्कृति में पगा पूरा परिवार सूफियाना मनोदशा में जीता है.
"बड़ो नानो का गोप्पो भी आजोब. वली दकनी से शुरू करेंगे तो अपने यार बिस्मिल्ला खान तक पहुँच जाएंगे. वैसे ही बाउलों की बात शुरू करके बीच में जोगियों की कहानी सुनाने लगेंगे. अपनी भटकन के सिलसिले में ही अब्बू के बाबा सिकंदर शाह जोगी के साथ भी बड़ो नानू उस्ताद महताबुद्दीन खान ने अच्छा-खासा समय गुजारा था. जोगी भी इस पिंड में ही ब्रह्माण्ड की मौजूदगी को मानते. हूबहू मनेर मानुष वाली बात. जात-धरम का भेद यहाँ भी नहीं और जोगियों में भी नहीं. दुनियावी चमक-दमक, धन-संपत्ति से वास्ता यहाँ भी नहीं, वहाँ भी नहीं बाउल एक कदम आगे. यहां जरुरत से ज्यादा पैसे को अच्छा नहीं माना जाता. आमदनी का एक हिस्सा गरीबों में बाँटने का रिवाज. बाउल तो केवल जात-धरम की बराबरी ही नहीं बल्कि धन-संपत्ति की बराबरी का सुन्दर ख्वाब को सँजोए हुए थे."
(उपन्यास के पृष्ठ 56 से एक अंश )
ऐसे परिवेश में पले-बढ़े परिवार के
पात्रों के मन-मिजाज का आकलन सहज ही किया जा सकता है. खानदान की परंपरा है कि इनके
लोगों को निजामुद्दीन औलिया और मैहर की शारदा देवी से अपनी तकलीफों की गुहार लगाने
में एक तरह का संतोष मिलता था. खुद महताबुद्दीन काली माँ के भक्त थे. उनके घर में
पूरे बंगाली धज की हिन्दू बहुएं थीं. मजहब से अधिक तहजीब उनके लिए अर्थपूर्ण था.
वे सैंकड़ों साल की विरासत को अपने तरीके से सँवार रहे थे.
लेकिन यहीं से परेशानियां भी शुरू
होती हैं. हिन्दू या मुसलमान की जगह हिंदुस्तानी होना इतना आसान भी नहीं है. समय
के एक मोड़ पर नया भारत उभरने लगता है. और इसी के साथ गड़बड़ियां भी उभरने लगती हैं.
वली दकनी के ध्वस्त किए गए मजार के बगल में संगीत मेले का आयोजन होता है और उसमें दंगा भड़क जाता है. अम्मू
इसी समारोह में शॉक्ड होती हैं और फिर कभी स्वस्थ नहीं हो पातीं. फिर तो पूरे
मुल्क में एक नया सिलसिला शुरू होता है. जिस 'डेली एक्सप्रेस' अख़बार में कमोल लिखते थे और जिसके
संपादक श्रीवास्तव उनके दोस्त थे, उसी में मौसिकी मंजिल से
जुड़े आश्रम की मिलकियत के बारे में एक खबर छपती है, जिस से
दोनों में थोड़ी अनबन होती है. खबर छपने के पीछे बी. बी. गुप्ता नामक एक बंदा है, जिसने अख़बार के अधिकांश शेयर खरीद लिए हैं और उसका मालिक बन बैठा है.यही गुप्ता 'सुआर्यन सेना'
और कच्छप सेना जैसी जज्बाती संगठन खड़ा करता है, जिसके साथ नौजवान जज्बातियों की एक 'भीड़' है.
कमोल की हत्या के पीछे इसी गुप्ता
का हाथ है, इस तथ्य को और कोई नहीं, स्वयं उसकी पत्नी कालिंदी ही स्पष्ट करती है. कालिंदी एक समय कमोल के प्यार में
पगी थी. उसने गुप्ता से तलाक़ की पेटिशन दी हुई है और मौसिकी मंजिल से जुड़ कर उसे
सँवारने की कोशिश करती है. उपन्यास का अंत सुखद नहीं, तो
शुभद अवश्य प्रतीत होता है, क्योंकि तमाम दुखों के बीच भी
मौसिकी मंजिल की तीसरी मंजिल की कोठरियां तानपूरे की झंकार से गूंजने लगती हैं. सिउड़ी-जुटान
के लिए रियाज जरूरी है. दुःख चाहे जितना सघन हो, मौसिकी को
जिन्दा रखने की जिद कायम है.
उपन्यास अनेक स्तरों पर हमें
झकझोरता है. वह हमारे समय के सबसे बड़े संकट से हमें रुबरु भी कराता है. पत्रकारिता, संस्कृति और
राजनीति किस तरह एक दूसरे को प्रभावित करते हैं और फिर इकट्ठे हो क्या-क्या किस
अंदाज़ में अंजाम दे सकते हैं, इस उपन्यास में देखा जा सकता
है. संस्कृति का शाइनबोर्ड लगाकर वर्चस्व और हिंसा की
राजनीति की जा रही है, मानो दूध का शाइनबोर्ड लगा कर ताड़ी
बेची जा रही हो. कमोल की पत्नी शब्बो या शबनम की समझ में यह बात उभर रही है कि
"पहचान की राजनीति केवल घृणा और घृणा को ही जन्म देती है." (आखिरी पृष्ठ)
वह यह भी समझती है कि नफरत को नफरत से खत्म नहीं किया जा सकता. इसलिए तमाम विपरीत
स्थितियों में भी वह एक बार संगीत को ही पुनर्जीवित करती है.
मैं नहीं जानता हिंदी पाठक इस
उपन्यास को किस रूप में ग्रहण करेगा. जैसा कि मैंने आरम्भ में चर्चा की है कि यह
आख्यान हमें सभ्यता-विमर्श के लिए उत्तेजित करता है. जिस देश में सांस्कृतिक बहुलता हो, कई तरह की संस्कृतियां हों, वैसे देश में पहचान की
राजनीति अंततः एक कोलाहल और गृहयुद्ध को ही जन्म दे सकती है. यह उपन्यास संगीत की
महान भारतीय परंपरा के प्रति हमें जिज्ञासु भी बनाता है. उसके प्रति हमारी
दिलचस्पी विकसित करता है. उपन्यास की भाषा कथा के अनुरूप तो है ही, बंगला-हिंदी की जुगलबंदी का सौंदर्य भी बिखेरती है. हाँ, हर अनुखंड का आरम्भ कविता की पंक्तियों से होना कुछ जँचता नहीं है. शायद
लेखक अपने उपन्यास को अधिक कलापूर्ण बनाने के प्रयास में अनजाने ही कुछ बोझिल बना
देता है. जैसे चाय में अतिरिक्त चीनी उसके आस्वाद को प्रभावित कर देती है, वैसे ही ये कविताएं इस उपन्यास को बोझिल करती अनुभव होती हैं. हर अनुखंड
में इन कविता पंक्तियों का होना एक क्लीशे बन जाता है. काजल के जरूरत से ज्यादा
मोटे-गाढ़े डोरे की तरह अप्रासंगिक अथवा गैर-जरूरी. लेकिन कुल मिला कर यह उपन्यास
हमारे समय का आवश्यक आख्यान है, जो हमारे लिए कुछ जरूरी सवाल
छोड़ जाता है.
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प्रेमकुमार मणि
९४३१६६२२११
गहरी और व्यापक ! मणि जी को पढ़कर सदा सीखने को मिलता कुछ। शानदार उपन्यास के लिए Ranendra भाई को बधाई। आज ही ऑर्डर करता हूँ।
जवाब देंहटाएंमणि जी स्वयं ख्यातनाम कथाकार हैं इसलिए जिस संवेदना के साथ उन्होंने उपन्यास का पाठ किया है, वह अतुलनीय है ।
जवाब देंहटाएंसूरज पालीवाल
हटाएंसर मैं उपन्यास ज़रूर पढ़ूँगा। एक बात जो मैं कहना चाहूँगा वह यह कि हिन्दुस्तानी संगीत की नींव में पत्थर डालने में मुसलमानों और हिन्दुओं का बराबर का योगदान है। कितने ही घराने मुसलमानों ने शुरू किया और हिन्दुओं ने उसे स्थापित किया। उदाहरण के तौर पर किराना घराना। एक बात और राग यमन तो ईरान से आया राग है। न जाने कितने भजन इस राग में हैं। भारतीय-पाकिस्तानी मुसलमान पूरी दुनिया में अलग इस मायने में हैं कि उन्होंने संगीत को बुलंदियों पर पहुँचाया। पाकिस्तान में राग दुर्गा को आज भी राग दुर्गा ही बोला जाता है। हमारे यहाँ की तरह उसका नाम नहीं बदला गया। मुसलमान न होते तो हिन्दुस्तानी संगीत न जाने किस रूप में होता! किताब ज़रूर पढ़ूँगा।
जवाब देंहटाएंरणेंद्र का यह उपन्यास वाकई एक अनूठे विषय को उठाते हुए इसे एक गहरे सांस्कृतिक विमर्श में बदल देता है और समकालीनता के साथ भी मुठभेड़ करता है। मणि जी ने हिन्दी समाज की पाठकीयता की ओर जो इंगित किया है, वह अत्यंत महत्वपूर्ण है। कायदे से इस उपन्यास को सभी विश्वविद्यालयों में पढ़ाया जाना चाहिए।
जवाब देंहटाएंBibhas Kumar Srivastav ji आपका कहना बिल्कुल सही है।अमीर खुसरो ,मोहम्मद गौस, वाज़िद अली शाह से लेकर उस्ताद बिस्मिल्लाह खाँ साहब, डागर बन्धु, अमीर खान्ं साहब, विलायत खाँ साहब और फिर तलत महमूद,रफी तक लम्बी फेहृरिस्त है मुस्लमान संगीत कारों की जिनके योगदान को इतिहास कभी नहीं भुला सकता लेकिन एक सच्चाई यह भी है कि बंटवारे के वक्त नामी गिरामी मुस्लिम कलाकारों ने सिर्फ़ मुस्लिम शागिर्दों और वो भी मौखिक शिक्षा देना शुरु कर दिया था।तब विष्णू नारायण भातखण्डे जी व वी डी पलुस्कर जैसे समर्पित कलाकारों ने संगीत की बाकायदा एक लिपि यानि पद्धति बनाई और छिपकर उस्तादों की शिक्षा रागों इत्यादी को इस लिपि मे बांधा । भातखण्डे पुस्तक मालिका के खंडों से ही आज भी संगीत विध्यार्थियों को शिक्षा दी जाती है।
जवाब देंहटाएंवाह, आज ही पुस्तक आर्डर करता हूँ । रणेंद्र जी को साधुवाद ..इस तरह के विषय से रूबरू कराने के लिए
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