रज़ा |
कविता आत्मा की पुकार है, वह मुक्ति की आवज़
भी है. कविता विरोधी समय में रहते हुए आज सबसे अधिक कविता ही लिखी जा रही है.
बाज़ार न होने के बावजूद कविता संग्रह प्रकाशित हो रहे हैं. अखबारों और पत्र –
पत्रिकाओं से बेदखल कविता ने वेब माध्यम को अपना घर बना लिया है. कविता लिखना,
पढ़ना और कविता पर बात करना आज प्रतिरोध और हस्तक्षेप से कम नहीं है. वरिष्ठ
समीक्षक ओम निश्चल ने गत वर्ष के कविता – परिदृश्य की गहन जांच पड़ताल की है. अलग
अलग प्रकाशन संस्थानों से प्रकाशित कविता संग्रहों की खूबिओं और खामिओं पर उनकी
दृष्टि है. साहित्यिक पत्रिकाओं में प्रकाशित कविताओं का लेखा जोखा लिया है. वेब
दुनिया पर सहित्य की गहमागहमी पर भी उनकी नज़र है.
यह आलेख ओम जी के कविता प्रेम और अध्यवसाय
का प्रमाण है. कविता के नाम पर लद जाते
वैताल पर ओम जी की मारक टिप्पणियाँ भी ध्यान खींचती हैं.
कविता के लिए यह साल
ओम निश्चल
एक वक्त था ब्लाग और बेवसाइट्स का बोलबाला था. लोग इन लिंक्स पर जाकर करीने से सँजोई रचनाऍं देखते पढ़ते थे. यह एक सामाजिक कार्यभार जैसा लगता था. अब यह पारस्परिक मैत्री और तुष्टीकरण का मंच लगने लगा है. हर ब्लाक संयोजक में भाईचारा और बहनापा है. हर संयोजक छोटा मोटा कवि है. वह कवियों को लुभावनी भाषा में लांच कर रहा है. उसे कोई और कर रहा है. हर संयोजक के पास अपने पाठक मित्र हैं जो घूम फिर कर अपनी टिप्पणियॉं दर्ज करने को इस महान कविता-समय में महान काम मानते हैं. आप नहीं दर्ज कर रहे हैं तो कविता-समय से कहीं पीछे चल रहे हैं. यद्यपि कुछ ब्लाग और बेव पत्रिकाऍ इस काम को एक अनुष्ठान की तरह सम्पन्न कर रही हैं और इन पर अच्छे कवियों की कविताऍं दिख जाती हैं. कवियों के सुसम्बद्ध चयन को लेकर इनका कोई एजेंडा नही होता. अधिकांश 'जो मिल गया उसी को मुकद्दर समझ लिया' वाले भाव से आढतियागीरी करते हैं या कहीं किसी साइट आदि पर पहले से मौजूद कविताओं को उड़ा कर अपने वाल की शोभा बढ़ाते हैं.
ऐसे कवितानुकूल समय में जब कविताओं की बाढ आई हो, अपने पैसे से संग्रह छप रहे हों, स्तरीयता की सारी कसौटियॉं बेमानी हो चुकी हों, कविताओं के अम्बार से अच्छी कविताएं खोज पाना सहज नहीं रहा. एक इवेंट मैनेजमेंट की तरह पुस्तकें लांच हो रही हैं और उनके अपरिहार्य लोकार्पणों से कविता के देवताओं, आलोचकों ओर संपादकों को खुश करने की कार्रवाइयॉं चल रही हैं. मुद्रास्फीति के इस जमाने में शहर दर शहर सगे-संबंधियों, कवियों महाकवियों के नाम पर पुरस्कार स्थापित हैं और एक विनिमय के कारोबार की तरह इसे संपर्कवाद के रूप में भुनाया जा रहा है. 'संत को कहा सीकरी सो काम' कहते कहते संत संसदों में जा पहुंचे. इसी तरह खानकाहों में रह कर कविता लिखने को धर्म मानने वाले कवियों की संतानों ने शानदार नौकरियों के साथ यह पार्टटाइम शौक भी पाल लिया, जिससे समाज में एक रसूख हासिल हो सके जो कुर्सियों की बदौलत मिलता है कविताओं की बदौलत नहीं. वे संस्कृत की इस नीति का अनुधावन करते हैं: यस्यास्ति वित्त: स नर: कुलीन:. स पंडित स: श्रुतवान गुणज्ञ:. लिहाजा कविता की फसल हर वक्त सरसब्ज दिखती है. लगता है समाज कवितामय हो गया है. पर वास्तव में ऐसा नहीं है. आज भी अच्छी कविता विरल ही दिखती है. जीवन और समाज छंद-रस-लय-गति-हीन दिखता है.
4.
ऐसे कविता बहुल समय में अच्छी कविता का आकलन वास्तव में कठिन है. साल 2012 में अनेक संग्रह आए गए. कुछ की चर्चा हुई कुछ चर्चाकारों की बाट ही जोहते रहे. हिंदी आलोचना का दुर्भाग्य है कि वह अपने कर्तव्य से इन दिनों विमुख सी है. आलोचना को विमर्श में बदलने का परिणाम यह हुआ है उसमें आलोचना की खरी खोटी सुनाने की गुंजाइश नहीं होती. सब विमर्श की समरसता में घुल मिल जाता है. कविताओं पर लिखी जा रही समीक्षाओं को पढ़ कर लगता है यह फलाहारी समीक्षा है. सब कुछ सुभाषित के अंदाज में कहा गया होता है. हर दूसरा कवि लीक तोड़ने वाला कवि होता है, मुक्तिबोध, निराला, नागार्जुन, त्रिलोचन, केदार की परंपरा से जुड़ने वाला.जैसे कहानियों में एक वक्त हर तीसरा कथाकार प्रेमचंद की परंपरा से जुड़ता हुआ पाया जाता था. बेशक उसे अपनी परंपराओं का भान न हो. कविता-आलोचना का नुकसान कवियों ने अपने संपर्कवाद का वास्ता देकर भी खूब किया है.
5.
आज प्रकाशन के जो हालात हैं वे बहुत अच्छे नहीं हैं. पुस्तकों के प्रचार को जो नेटवर्क देश भर में होना चाहिए वह नही है. लिहाजा किसी भी पुस्तक की उपलबधता केवल प्रकाशक के यहॉं या दो-चार बड़े वितरकों तक ही है. पत्रिकाओं की हालत थोडी बेहतर हो सकती है. इसलिए कविता की पुस्तकें छप तो रही हैं पर वे पाठकों तक पहुँच नही पा रही हैं. अपने को लोक कवि कहलाने का दावा करने वालों को लोग पहचानते तक नहीं. लोक का ढिंढोरा केवल उनकी पारिभाषिकियों तक सीमित है. कया कारण है कि कवियों की आवाज आज दूर तक सुनाई नही देती? अच्छे से अच्छे कविता संग्रह अपने सीमित संस्करणों में सिमट कर रह जाते हैं. लोगों तक पहुंचते नहीं. कवि सम्मेलनों से गंभीर कविता ने पहले ही किनारा कर रखा है. इसके बावजूद अच्छी कविता के रसिक हैं और वे ऐसी कविताओं की टोह में रहते हैं जिनमें जीवन संसार को समझने का सलीका हो. कविता संसार पुस्तकों और पत्रिकाओं दोनों से बनता है.
6.
2012 में लगभग साठ सत्तर कविता संग्रह प्रकाशित हुए यानी विरल होते समाज में भी कविताऍं अप्रतिहत भाव से लिखी और छापी जा रही हैं. विश्व पुस्तक मेले के अवसर पर राजकमल प्रकाशन से कई संग्रह एक साथ आए. विनोद कुमार शुक्ल, अरुण कमल, प्रियदर्शन, सविता भार्गव, प्रज्ञा रावत, वर्तिका नंदा, निशांत व तजिन्दर सिंह लूथरा के संग्रह. बाद में प्रताप राव कदम और हरीश आनंद के संग्रह भी आए. साल के आखिरी दिनों में अष्टभुजा शुक्ल का बहुप्रतीक्षित बहु चर्चित पद कुपद भी आ गया. कविता का माहौल बनाने में इन संग्रहों का अपना योगदान रहा है. दूसरे बड़े प्रकाशन प्रतिष्ठान भारतीय ज्ञानपीठ से गौरव सोलंकी, प्रदीप जिलवाने, अंशुल त्रिपाठी, श्रीप्रकाश शुक्ल, उमेश चौहान और नरेश सक्सेना के संग्रह आए. एक वक्त कविता संग्रहों की झड़ी लगाने के बाद अब लगता है, ज्ञानपीठ ने अपने हाथ कविता संग्रहों से सिकोड़े हैं. यो संग्रहों की बारिश में औसत की बरसात ज्यादा होती है. लिहाजा, जो बात एक सीरीज में एक वक्त सात आठ कवियों के संग्रह निकले थे बोधिसत्व, प्रेमरंजन अनिमेष, निर्मला पुतुल, वसंत त्रिपाठी, अरुण देव, संजय कुंदन जैसे कवियों के, वैसी बात इधर साल-दो साल पहले निकले रविकांत, निशांत, वाजदा खान,नीलोत्पल आदि कवियों की सीरीज में न थी. यद्यपि इसमें नीलोत्पल ,रविकांत व वाजदा खान की कविताओं में एक उम्मीद भरी उठान दिखाई देती है पर इस सीरीज को वह गरिमा न मिल सकी.
7.
इधर गौरव सोलंकी जरूर अपने प्रतिरोध-प्रदर्शन के चलते विवादों में रहे, पर उनके संग्रह सौ साल फिदा पर भी कोई वाजिब समीक्षात्मक परिणति देखने में नहीं आई. श्रीप्रकाश शुक्ल के तीसरे संग्रह रेत पर आकृतियॉं ने भी अपने पिछले संग्रह बोली बात जैसी चर्चा हासिल नहीं की जो उनके जैसे कवि को मिलनी चाहिए थी. यह और बात है कि गंगातट को पूरी तरह ज्ञानेन्द्रपति के व्यवहृत करने के बाद खँखोरने के लिए रेत पर आकृतियों के सिवा अब शायद ही कुछ बचा हो जिस पर कविताऍं टांकी जा सकें. तिस पर ज्ञानेन्द्रपति के गंगा को लेकर ही एक और संभावित संग्रह के आ जाने के बाद तो गांगेय पृष्ठभूमि पर कविताएं लिखने की शायद ही जरूरत महसूस हो क्योंकि न तो ज्ञानेन्द्र जैसा कोई कुलवक्ती कद्दावर कवि हमारे बीच है न वैसी चित्रकारिता और बिंब-संयोजन सबके वश का है. लिहाजा, श्रीप्रकाश शुक्ल या किसी भी बनारसी कवि को कविता के लिए गंगातट या तज्जन्य कथ्य के अलावा अन्य उपादान खोजने होंगे. हां, अंशुल त्रिपाठी का संग्रह आधी रात में देवसेना जरूर ध्यातव्य है. अपनी ताजगी और रागात्मकता के कारण अनेक अछूती कल्पनाऍं यहां मिलेंगी पर इसमें कविताओं के चयन में थोड़ी सख्ती बरती जाती तो कई कविताओं के यहां देने का कोई औचित्य न बनता. इसलिए पृथुलता के बावजूद वह बात इसमें नहीं दिखती जो साहित्य अकादेमी से प्रकाशित कुमार अनुपम के पहले संग्रह बारिश मेरा घर है में दिखती है. ऐसा नही कि ये कविताऍं सर्वथा निर्दोष हैं या हाल में भारत भूषण पुरस्कार पाने के कारण ऐसा कह रहा हूँ, बल्कि यह इस संग्रह से भी प्रमाणित है कि ज्ञानेन्द्रपति जैसे कवि ने इस संग्रह की अनेक मानीखेज कविताओं ओर उनके वेधक रेंज का जायज़ा लेते हुए आश्वस्ति व्यक्त की है. पुरस्कारों की आज जो हालत है उसमें भारतभूषण पुरस्कार संदेह के दायरे से बाहर नही है. निर्णायक की अपनी रूचि से परिचालित होने के चलते इससे पुरस्कृत कई कवियों ने अपने कवि-कद से लुभाया है तो कई ने चौंकाया भी है. इस पुरस्कार समिति के ही एक सदस्य रहे विष्णु खरे जैसे कवि-आलोचक का पुरस्कृत कवियों के बारे में जारी तीखा बयान बेशक कई युवा कवियों की नींद उड़ाने वाला हो पर उसमें 25 प्रतिशत सचाई भी है. यही वजह है कि निंदक को नियरे न रखते हुए ‘उर्वरप्रदेश’ में समाविष्ट वक्तव्य को हटा कर उसकी जगह अशोक वाजपेयी की स्वस्तिकारी भूमिका लगायी गयी.
8.
कविता संग्रहों के प्रकाशन में तत्पर बोधि प्रकाशन जयपुर ने अल्पमोली किताबें छाप कर चकित तो किया ही है, उनके प्रस्तुतीकरण में भी एक सलीके का परिचय दिया है. 2012 में इस प्रकाशन से आए वरिष्ठ कवि हेमंत शेष के संग्रह खेद योग प्रदीप और सवाई सिंह शेखावत के संग्रह 'कितना कम जानते हैं हम ख्यातिहीनता के बारे में' के साथ दिनकर कुमार (क्षुधा मेरी जननी), अभिज्ञात (खुशी ठहरती है कितनी देर) ओर राघवेंद्र (एक चिट्ठी की आस में), के संग्रह उल्लेखनीय हैं. राजस्थान के कवियों में सवाई सिंह शेखावत ने बोधि प्रकाशन से आए अपने संग्रह ‘कितना कम जानते हैं हम ख्यातिहीनता के बारे में’ से एक बढ़त ली है. उनके कई संग्रह अब तक आ चुके हैं. हरीश करमचंदानी के रचना प्रकाशन से आए संग्रह ‘समय कैसा भी हो’ की कविताओं ने भी ध्यान खींचा है. राजस्थान के अन्य कवियों अनिरुद्ध उमट,प्रेमचंद गांधी व प्रभात जैसे कवियों से उम्मीद है कि वे अनुभव और संवेदना के तंतुओं से नई कसीदेकारी करते हुए कविता को और आगे ले जाऍंगे.
युवा कविता का क्षितिज
मेरी देह से मिट्टी निकाल लो और बंजरों में छिड़क दो
1.
समाज में निरुद्यमी व्यसन मानी जाने
वाली कविता इन दिनों परवान पर है. जबसे इंटरनेट, फेसबुक, बेवसाइट्स का प्रचलन बढ़ा है, हर आदमी बैठे ठाले नित्यकर्म की तरह कविताओं के उत्पादन में लग गया है. इसके लिए
कवि होना जरूरी नहीं रहा. किसी शास्त्र के अध्ययन की आवश्यकता नहीं रही. बस अपने
विचारों और भावों को ज्यों का त्यों छाप देना है. अब
संपादकों के सखेद पत्रों का कोई भय नहीं रहा. कोई दिलजला
शख्स भले कहे कि यह भी कोई कविता हुई पर आप अविजित भाव से मुस्कराते रह सकते हैं
क्योंकि इसी तथाकथित कविता को पसंद करने वालों और उस पर टिप्पणी जड़ने वालों की
संख्या सैकड़ों में है. आपने चरम सीमा तक जाकर मित्र संख्या इसीलिए बढ़ाई है
ताकि एकाधिक विसंवादी स्वरों पर लगाम लगाई जा सके. अकेले रहने
वाले लोग यों ही कवि मुद्रा में रहते हैं. फेसबुक पर
तमाम पेशों से जुड़े लोग, महिलाऍं लड़कियॉं सब कविता-कलरव में शामिल हैं. मैत्री
अनुरोध स्वीकार करते हुए लगता है यह शख्स कदाचित कविता की व्याधियों से दूर हो. पर दूसरे
ही दिन वाल पर कविताओं की टैगिंग से लगता है फिर एक अतिक्रमण हुआ है. फिर एक कवि
का वाल पर इजाफा हुआ है. यह मैत्री का चस्का नहीं, यह कविता पढ़वाने
और प्रशस्ति लिखवाने की ख्वाहिश है, आत्मश्लाघा है. ऐसी रद्दी और नकचढ़ी कविताऍं कि सिर भन्ना जाए लेकिन आप
कुछ कर नहीं सकते. आप कुछ काम कर रहे हैं कि एक लिंक आपके चैट बाक्स में आ
धमका है. नमस्कार की विनयी भंगिमा के साथ. पूछता हूँ यह क्या
है. उत्तर मिलता है, कृपया अपनी वाल पर देखिए. वाल पर उनकी प्रस्तुति विराजमान है. टेढ़ी
मेढ़ी सतरें जिन्हें वे कविता कह रहे हैं. सैकड़ों
लोग रात भर में लाइक कर चुके हैं. अब मेरी बारी है. जल्दी से
लाइक का बटन दबा कर टैग हटाता हूँ. यही आए दिन की
कवायद है. हालॉंकि पल्प लिटरेचर को मात देता यह वेबलोक अच्छी और सुघर कविताओं का घर
भी है.
2.
एक वक्त था ब्लाग और बेवसाइट्स का बोलबाला था. लोग इन लिंक्स पर जाकर करीने से सँजोई रचनाऍं देखते पढ़ते थे. यह एक सामाजिक कार्यभार जैसा लगता था. अब यह पारस्परिक मैत्री और तुष्टीकरण का मंच लगने लगा है. हर ब्लाक संयोजक में भाईचारा और बहनापा है. हर संयोजक छोटा मोटा कवि है. वह कवियों को लुभावनी भाषा में लांच कर रहा है. उसे कोई और कर रहा है. हर संयोजक के पास अपने पाठक मित्र हैं जो घूम फिर कर अपनी टिप्पणियॉं दर्ज करने को इस महान कविता-समय में महान काम मानते हैं. आप नहीं दर्ज कर रहे हैं तो कविता-समय से कहीं पीछे चल रहे हैं. यद्यपि कुछ ब्लाग और बेव पत्रिकाऍ इस काम को एक अनुष्ठान की तरह सम्पन्न कर रही हैं और इन पर अच्छे कवियों की कविताऍं दिख जाती हैं. कवियों के सुसम्बद्ध चयन को लेकर इनका कोई एजेंडा नही होता. अधिकांश 'जो मिल गया उसी को मुकद्दर समझ लिया' वाले भाव से आढतियागीरी करते हैं या कहीं किसी साइट आदि पर पहले से मौजूद कविताओं को उड़ा कर अपने वाल की शोभा बढ़ाते हैं.
3.
ऐसे कवितानुकूल समय में जब कविताओं की बाढ आई हो, अपने पैसे से संग्रह छप रहे हों, स्तरीयता की सारी कसौटियॉं बेमानी हो चुकी हों, कविताओं के अम्बार से अच्छी कविताएं खोज पाना सहज नहीं रहा. एक इवेंट मैनेजमेंट की तरह पुस्तकें लांच हो रही हैं और उनके अपरिहार्य लोकार्पणों से कविता के देवताओं, आलोचकों ओर संपादकों को खुश करने की कार्रवाइयॉं चल रही हैं. मुद्रास्फीति के इस जमाने में शहर दर शहर सगे-संबंधियों, कवियों महाकवियों के नाम पर पुरस्कार स्थापित हैं और एक विनिमय के कारोबार की तरह इसे संपर्कवाद के रूप में भुनाया जा रहा है. 'संत को कहा सीकरी सो काम' कहते कहते संत संसदों में जा पहुंचे. इसी तरह खानकाहों में रह कर कविता लिखने को धर्म मानने वाले कवियों की संतानों ने शानदार नौकरियों के साथ यह पार्टटाइम शौक भी पाल लिया, जिससे समाज में एक रसूख हासिल हो सके जो कुर्सियों की बदौलत मिलता है कविताओं की बदौलत नहीं. वे संस्कृत की इस नीति का अनुधावन करते हैं: यस्यास्ति वित्त: स नर: कुलीन:. स पंडित स: श्रुतवान गुणज्ञ:. लिहाजा कविता की फसल हर वक्त सरसब्ज दिखती है. लगता है समाज कवितामय हो गया है. पर वास्तव में ऐसा नहीं है. आज भी अच्छी कविता विरल ही दिखती है. जीवन और समाज छंद-रस-लय-गति-हीन दिखता है.
4.
ऐसे कविता बहुल समय में अच्छी कविता का आकलन वास्तव में कठिन है. साल 2012 में अनेक संग्रह आए गए. कुछ की चर्चा हुई कुछ चर्चाकारों की बाट ही जोहते रहे. हिंदी आलोचना का दुर्भाग्य है कि वह अपने कर्तव्य से इन दिनों विमुख सी है. आलोचना को विमर्श में बदलने का परिणाम यह हुआ है उसमें आलोचना की खरी खोटी सुनाने की गुंजाइश नहीं होती. सब विमर्श की समरसता में घुल मिल जाता है. कविताओं पर लिखी जा रही समीक्षाओं को पढ़ कर लगता है यह फलाहारी समीक्षा है. सब कुछ सुभाषित के अंदाज में कहा गया होता है. हर दूसरा कवि लीक तोड़ने वाला कवि होता है, मुक्तिबोध, निराला, नागार्जुन, त्रिलोचन, केदार की परंपरा से जुड़ने वाला.जैसे कहानियों में एक वक्त हर तीसरा कथाकार प्रेमचंद की परंपरा से जुड़ता हुआ पाया जाता था. बेशक उसे अपनी परंपराओं का भान न हो. कविता-आलोचना का नुकसान कवियों ने अपने संपर्कवाद का वास्ता देकर भी खूब किया है.
5.
आज प्रकाशन के जो हालात हैं वे बहुत अच्छे नहीं हैं. पुस्तकों के प्रचार को जो नेटवर्क देश भर में होना चाहिए वह नही है. लिहाजा किसी भी पुस्तक की उपलबधता केवल प्रकाशक के यहॉं या दो-चार बड़े वितरकों तक ही है. पत्रिकाओं की हालत थोडी बेहतर हो सकती है. इसलिए कविता की पुस्तकें छप तो रही हैं पर वे पाठकों तक पहुँच नही पा रही हैं. अपने को लोक कवि कहलाने का दावा करने वालों को लोग पहचानते तक नहीं. लोक का ढिंढोरा केवल उनकी पारिभाषिकियों तक सीमित है. कया कारण है कि कवियों की आवाज आज दूर तक सुनाई नही देती? अच्छे से अच्छे कविता संग्रह अपने सीमित संस्करणों में सिमट कर रह जाते हैं. लोगों तक पहुंचते नहीं. कवि सम्मेलनों से गंभीर कविता ने पहले ही किनारा कर रखा है. इसके बावजूद अच्छी कविता के रसिक हैं और वे ऐसी कविताओं की टोह में रहते हैं जिनमें जीवन संसार को समझने का सलीका हो. कविता संसार पुस्तकों और पत्रिकाओं दोनों से बनता है.
6.
2012 में लगभग साठ सत्तर कविता संग्रह प्रकाशित हुए यानी विरल होते समाज में भी कविताऍं अप्रतिहत भाव से लिखी और छापी जा रही हैं. विश्व पुस्तक मेले के अवसर पर राजकमल प्रकाशन से कई संग्रह एक साथ आए. विनोद कुमार शुक्ल, अरुण कमल, प्रियदर्शन, सविता भार्गव, प्रज्ञा रावत, वर्तिका नंदा, निशांत व तजिन्दर सिंह लूथरा के संग्रह. बाद में प्रताप राव कदम और हरीश आनंद के संग्रह भी आए. साल के आखिरी दिनों में अष्टभुजा शुक्ल का बहुप्रतीक्षित बहु चर्चित पद कुपद भी आ गया. कविता का माहौल बनाने में इन संग्रहों का अपना योगदान रहा है. दूसरे बड़े प्रकाशन प्रतिष्ठान भारतीय ज्ञानपीठ से गौरव सोलंकी, प्रदीप जिलवाने, अंशुल त्रिपाठी, श्रीप्रकाश शुक्ल, उमेश चौहान और नरेश सक्सेना के संग्रह आए. एक वक्त कविता संग्रहों की झड़ी लगाने के बाद अब लगता है, ज्ञानपीठ ने अपने हाथ कविता संग्रहों से सिकोड़े हैं. यो संग्रहों की बारिश में औसत की बरसात ज्यादा होती है. लिहाजा, जो बात एक सीरीज में एक वक्त सात आठ कवियों के संग्रह निकले थे बोधिसत्व, प्रेमरंजन अनिमेष, निर्मला पुतुल, वसंत त्रिपाठी, अरुण देव, संजय कुंदन जैसे कवियों के, वैसी बात इधर साल-दो साल पहले निकले रविकांत, निशांत, वाजदा खान,नीलोत्पल आदि कवियों की सीरीज में न थी. यद्यपि इसमें नीलोत्पल ,रविकांत व वाजदा खान की कविताओं में एक उम्मीद भरी उठान दिखाई देती है पर इस सीरीज को वह गरिमा न मिल सकी.
7.
इधर गौरव सोलंकी जरूर अपने प्रतिरोध-प्रदर्शन के चलते विवादों में रहे, पर उनके संग्रह सौ साल फिदा पर भी कोई वाजिब समीक्षात्मक परिणति देखने में नहीं आई. श्रीप्रकाश शुक्ल के तीसरे संग्रह रेत पर आकृतियॉं ने भी अपने पिछले संग्रह बोली बात जैसी चर्चा हासिल नहीं की जो उनके जैसे कवि को मिलनी चाहिए थी. यह और बात है कि गंगातट को पूरी तरह ज्ञानेन्द्रपति के व्यवहृत करने के बाद खँखोरने के लिए रेत पर आकृतियों के सिवा अब शायद ही कुछ बचा हो जिस पर कविताऍं टांकी जा सकें. तिस पर ज्ञानेन्द्रपति के गंगा को लेकर ही एक और संभावित संग्रह के आ जाने के बाद तो गांगेय पृष्ठभूमि पर कविताएं लिखने की शायद ही जरूरत महसूस हो क्योंकि न तो ज्ञानेन्द्र जैसा कोई कुलवक्ती कद्दावर कवि हमारे बीच है न वैसी चित्रकारिता और बिंब-संयोजन सबके वश का है. लिहाजा, श्रीप्रकाश शुक्ल या किसी भी बनारसी कवि को कविता के लिए गंगातट या तज्जन्य कथ्य के अलावा अन्य उपादान खोजने होंगे. हां, अंशुल त्रिपाठी का संग्रह आधी रात में देवसेना जरूर ध्यातव्य है. अपनी ताजगी और रागात्मकता के कारण अनेक अछूती कल्पनाऍं यहां मिलेंगी पर इसमें कविताओं के चयन में थोड़ी सख्ती बरती जाती तो कई कविताओं के यहां देने का कोई औचित्य न बनता. इसलिए पृथुलता के बावजूद वह बात इसमें नहीं दिखती जो साहित्य अकादेमी से प्रकाशित कुमार अनुपम के पहले संग्रह बारिश मेरा घर है में दिखती है. ऐसा नही कि ये कविताऍं सर्वथा निर्दोष हैं या हाल में भारत भूषण पुरस्कार पाने के कारण ऐसा कह रहा हूँ, बल्कि यह इस संग्रह से भी प्रमाणित है कि ज्ञानेन्द्रपति जैसे कवि ने इस संग्रह की अनेक मानीखेज कविताओं ओर उनके वेधक रेंज का जायज़ा लेते हुए आश्वस्ति व्यक्त की है. पुरस्कारों की आज जो हालत है उसमें भारतभूषण पुरस्कार संदेह के दायरे से बाहर नही है. निर्णायक की अपनी रूचि से परिचालित होने के चलते इससे पुरस्कृत कई कवियों ने अपने कवि-कद से लुभाया है तो कई ने चौंकाया भी है. इस पुरस्कार समिति के ही एक सदस्य रहे विष्णु खरे जैसे कवि-आलोचक का पुरस्कृत कवियों के बारे में जारी तीखा बयान बेशक कई युवा कवियों की नींद उड़ाने वाला हो पर उसमें 25 प्रतिशत सचाई भी है. यही वजह है कि निंदक को नियरे न रखते हुए ‘उर्वरप्रदेश’ में समाविष्ट वक्तव्य को हटा कर उसकी जगह अशोक वाजपेयी की स्वस्तिकारी भूमिका लगायी गयी.
8.
कविता संग्रहों के प्रकाशन में तत्पर बोधि प्रकाशन जयपुर ने अल्पमोली किताबें छाप कर चकित तो किया ही है, उनके प्रस्तुतीकरण में भी एक सलीके का परिचय दिया है. 2012 में इस प्रकाशन से आए वरिष्ठ कवि हेमंत शेष के संग्रह खेद योग प्रदीप और सवाई सिंह शेखावत के संग्रह 'कितना कम जानते हैं हम ख्यातिहीनता के बारे में' के साथ दिनकर कुमार (क्षुधा मेरी जननी), अभिज्ञात (खुशी ठहरती है कितनी देर) ओर राघवेंद्र (एक चिट्ठी की आस में), के संग्रह उल्लेखनीय हैं. राजस्थान के कवियों में सवाई सिंह शेखावत ने बोधि प्रकाशन से आए अपने संग्रह ‘कितना कम जानते हैं हम ख्यातिहीनता के बारे में’ से एक बढ़त ली है. उनके कई संग्रह अब तक आ चुके हैं. हरीश करमचंदानी के रचना प्रकाशन से आए संग्रह ‘समय कैसा भी हो’ की कविताओं ने भी ध्यान खींचा है. राजस्थान के अन्य कवियों अनिरुद्ध उमट,प्रेमचंद गांधी व प्रभात जैसे कवियों से उम्मीद है कि वे अनुभव और संवेदना के तंतुओं से नई कसीदेकारी करते हुए कविता को और आगे ले जाऍंगे.
युवा कविता का क्षितिज
अंतिका प्रकाशन ने इस साल
कई युवा कवियों के संग्रहों का प्रकाशन कर इस दिशा में एक बढ़त ली है. पिछले साल
उसने बनारस के रामाज्ञा शशिधर का संग्रह छापा था, इस बार उसने कमलेश्वर
साहू (पके हुए फल का स्वाद), माताचरण मिश्र(बचा रहेगा
जो), मोहन राणा (रेत का पुल) और सच्चिदानंद
विशाख(और थोड़ी दूर) के संग्रह
छापे हैं. प्रकाशन संस्थान ने साल की शुरुआत में सुपरिचित युवा कवि प्रेमरंजन
अनिमेष का संग्रह संगत छापा है जो पिता पर केंद्रित प्रथुल
संग्रह है. जाहिर है कि इतना पृथुल होने के कारण ही वे शायद भावुकता
के अतिरेक को संयमित नही कर पाए हैं. किताबघर प्रकाशन ने
जितेन्द्र श्रीवास्तव का कायांतरण प्रकाशित किया है. भारतीय
भाषा परिषद से पिछले दिनों शंकरानंद, चित्रा
सिंह, प्रियंका पंडित व मनोज
कुमार झा के संग्रह आए पर इनमें मनोज कुमार झा के संग्रह तथापि
जीवन में जीवंतता का बोध सर्वाधिक है. भूमिका में
कहा गया है कि हिंदी कविता का डेल्टा इनसे विस्तृत होता है. मनोज
अनुवाद से रोटी कमाने वाले कवि हैं, और यह कार्य भी कितना सुलभ है, हमें मालूम है. बिन पैसे के दिन बेकारी के इसी आलम
का साक्ष्य है. कविता की पदावलियों में कहीं कहीं कुछ अटपटा सा मिल सकता
है पर अरुण कमल की संस्तुति वाले इस कवि का ढर्रा बहुत अलग है. सोचने
लिखने की लीक अलग है. एक ऐसी ही कविता कल मरी बच्ची आज कैसे रोपूँ धान
में कवि का कहना हिला देता है: पाऊं तो बित्ता भर जगह/जहां रोऊं
तो गिरे आंसू/बस धरती पर/किसी के
पांव पर नहीं. विज्ञापन सुंदरियों से लेकर बाढ के दिनों में सरकार के
बंदों से बतियाते हुए मनोज हलाकान जीवन के अनेक
अपमानजन्य प्रसंगों को कविता की संवेदना में पिरोते हैं.
कहने की जरूरत नहीं कि मैथिलीभाषी इस
कवि की कविता की मिट्टी इस भाषा की महक से सनी है जिसकी नींद सबसे अलग है, जिसका जगना
सबसे अलग, जिसकी चाहत है एक
अदद मनुष्य होने का सुख उठाना और मकई के दाने सा भुट्टे में पडे रहने का लुत्फ. मनोज से
युवा कविता को काफी उम्मीदें हैं. प्रियदर्शन खबरों की
दुनिया में रहने वाले इंसान हैं किन्तु नष्ट कुछ भी नहीं होता जैसे अपने
पहले संग्रह से ही उम्मीदें जगा दी हैं. पहली ही नज़र में
विष्णु खरे जैसी दिखने के बावजूद उनके नैरेटिव में उबाऊपन नहीं है न ही उनमें खरे
जैसे मेगा नैरेटिव रचने की ख्वाहिश दिखती है. वे आस्थाओं, मूल्यों, विश्वासों
के संशयग्रस्त समय में अच्छी कविता की गुंजाइश तलाश रहे हैं: फिर भी कई
कोने हैं/कई सभाऍं/कई थकी हुई
आवाजें/कई थमे हुए भरोसे/कई न खत्म
होने वाली लड़ाइयॉं/ जिनमें बची हुई है एक अच्छी कविता की गुंजाइश. अचरज नहीं
शब्दों के चाकचिक्य और वाचिक वैभव में जीने वाले प्रियदर्शन इस संग्रह की कई
कविताओं में कविता लिखने की मुश्किलों का जायज़ा लेते हैं. मुझमें
मेरी कविताऍं बनी रहें---के ख्वाहिशमंद प्रियदर्शन के इस फलसफे से शायद ही किसी
युवा कवि को एतराज हो:
कविता लिखना दुनिया
को नए सिरे से देखना है अपनी मनुष्यता को नए सिरे से पहचाननाइस पहचान में यह सवाल
भी शामिल हैकि जब तुम कविता नहीं लिख रहे होतेतब भी दुनिया को इतनी मुलायम निगाहों
से क्यों नहीं देख रहे होते ?
युवा कवियों का ही जिक्र चला है तो लगे
हाथ थी हूँ रहूँगी की कवयित्री वर्तिका नंदा पर बात कर ली
जाए. इसमें संदेह नही कि वर्तिका ने हिंदी कविता के इलाके में सलीके से प्रवेश
किया है और इस संग्रह में अनेक अच्छी कविताऍं भी दी हैं. पर कुछ
कविताओं का मोह संवरण किया जा सकता तो यह संग्रह अपने स्लिमकाय में भी बेहतरीन
होता. जो नदी होती भी प्रज्ञा रावत का पहला
संग्रह है. पर संग्रह की कविताओं से लगता है कविता बुनने में
कवयित्री का हाथ रँवा है. एक ठिठकी हुई संवेदना के साथ वे अभिव्यक्ति का जोखिम
उठाती हैं और स्त्री विमर्श पर बिना लाउड हुए अपनी बात कहती हैं.
सविता भार्गव का कविता
संसार भी उनकी अपनी दुनिया की अनुभूतियों और अनभवों से बना है. कुछ इरोटिक
कविताऍं लिख कर पहले पहल चर्चा में आई सविता ने करवटें बदली हैं और अपनी संवेदना
को दुनिया जहान से जोड़ा है. उनका भी पहला संग्रह किसका है आसमान आश्वस्ति
के साथ पढने योग्य है. यह और बात है कि अनीता वर्मा और सविता सिंह की संवेदना
की ज़मीन पाने के लिए इन्हें और प्रयास करने होंगे तथा अपनी संवेदना की तराश और
काट छॉंट करनी होगी तथा यह जानना होगा कि कविता में एक जरा सी फिसलन उसे संदिग्ध
बना देती है. वंदना मिश्र का वाणी से प्रकाशित संग्रह वो
आ गए हैं---एक गतानुगतिक ढर्रे का संग्रह है. कविता के
लिए जो धूप दीप नैवेद्य आवश्यक है वह न होने पर सबकी सरस्वती सिद्ध नही होतीं.
मधु शर्मा का मेधा
से आया संग्रह इसी धरती पर यह दुनिया है---अपनी
संवेदना-प्रवण भाषा से ध्यान खींचता है तो अन्ना माधुरी तिर्की का पहला
संग्रह सोना जोरी के तट से---आदिवासियों की
प्रजाति से कविता में आई एक सरलहृदया स्त्री के मनोभावों साक्ष्य है. कभी
निर्मला पुतुल भी आक्रामकता और ताजगी के साथ कविता में आई थीं. यों तिर्की
में आक्रामकता नही है पर अपनी बात रखने का सलीका भरपूर है. कविता के
क्षेत्र में इस साल जिन और महिलाओं ने दस्तक दी है उनमें ममता किरण, स्वाति
नलावडे, संगीता मनराल, रचना शर्मा
और पूनम चंद्रा मनु के नाम शामिल हैं पर कविता की सूक्ष्मता मनु
में ज्यादा प्रगाढ है. नीदरलैंड में रह रही कवयित्री पुष्पिता अवस्थी
ने अपने नए संग्रह ‘’शैल प्रतिमाओं से’’ में प्रेम
कविताओं का संसार सँजोया है. पर इससे अलग वैश्विक परिदृश्य की कुछ कविताऍं भी यहॉं
हैं जिनमें से कुछ अवश्य ध्यातव्य हैं.
युवा कवियों में संजय कुंदन का
वाणी से प्रकाशित संग्रह योजनाओं का शहर अपनी वक्रताओं और व्यंजनाओं से
जाना जाएगा तो प्रताप राव कदम का नया संग्रह उसकी आंखों में कुछ
अपने रोमैंटिक शीर्षक के विपरीत यथार्थ की जमीन पर समाज को जॉंचने का उपक्रम है. हालांकि
शिल्प और कथ्य की वे बारीकियॉं यहॉं नहीं हैं जो इन दिनों गीत चतुर्वेदी
और नितांत नए कवि कुमार अनुपम में दीखती हैं. निशांत अपने
दूसरे संग्रह ‘जी हॉं लिख रहा हूँ’ के साथ
कविता के मैदान में थोड़े विश्वास के सामने आए हैं पर पहले ज्ञानपीठ और अब राजकमल
से प्रकाशित इस युवा कवि पर कुल मिला कर सन्नाटा ही व्याप्त है. हिंद युग्म से
प्रकाशित विजेन्द्र विज जैसे कलाकार कवि का संग्रह जुगलबंदी
भी चर्चा से लगभग ओझल ही रहा. पवन करण का महत्वपूर्ण संग्रह 'कहना नही आता' भी इसी वर्ष आया है.
अनामिका प्रकाशन से आया अमिताभ
मिश्र का संग्रह कुछ कम कविता भी कम ध्यातव्य नहीं है. उमेश चौहान
के संग्रह जनतंत्र में अभिमन्यु में गद्य पद्य चम्पू जैसा काव्यास्वाद
है तो ओम भारती के नए संग्रह ‘अब भी अशेष’ में
प्रगतिशील चिंतन के कुछ और सबूत मिलते हैं जो उनकी कविताओं की आधार भित्ति का काम
करते हैं. मुक्त छंद का अपना प्रवाह उनमें है. सुधीर सक्सेना का संग्रह
किताबें दीवार नही होती मित्रों के लिए यादगार संग्रह होगा क्योंकि सारी
की सारी कविताऍ मैत्री के नाम हैं. तजिन्दर सिंह
लूथरा के पहले संग्रह ‘अस्सी घाट का बॉंसुरीवाला’ में नि:संकोच उनके
कवित्व की दाद देनी होगी. उन्होंने यह सिद्ध किया है कि एक पुलिस अधिकारी के भीतर
भी कवि का दिल धड़कता है. चाहे तनिक देर से कविता की देहरी पर यह पहला कदम हो, लूथरा ने
यथार्थ का कचरा इकट्ठा करने की बजाय उस आवाज की परवाह की है जो उनके भीतर से
निकलती है.
मात्र दो कविता संग्रहों के बल पर नरेश
सक्सेना ने वह जगह कविता में हासिल की है जो दशाधिक संग्रहों के बाद भी
कवियों को नसीब नही होती. भारतीय ज्ञानपीठ से आया उनका संग्रह सुनो चारुशीला
हिंदी कविता के उस सामर्थ्य का अहसास कराता है जो रससिद्ध कवीश्वरों के यहां भी
कठिनाई से द्रष्टव्य है. नरेश जी की कविता पढते हुए वाचिक का-सा सुख
देती है. वह इस अहसास से रची गयी है कि कविता, शब्दों में नहीं, दूर से
कहीं आती हुई अंतर्ध्वनियों, अनुगूँजों में बसी हुई है. वे इन्ही अनुगूँजों और आवाजों से अपनी कविता की नोक-पलक
सँवारते हैं.उनकी ऐसी कोई कविता नही है जिसे मैं कहूँ कि आप न पढ़ें. सब की सब
और खास तौर पर गिरना, इस बारिश में, शिशु, भाषा से बाहर, ईश्वर, कविता की तासीर, मुर्दे,दरवाजा,नीम की पत्तियॉं तो अपरिहार्य हैं. इन्हें
पढ़कर हमारे मन की ज़मीन थोड़ी और नम हो उठती है. ऐसे ही
नहीं विनोद कुमार शुक्ल ने लिखा है कि उनसे कविता को सुनना जीवन के कार्यक्रम को
सुनना है. फिर भी यह कवि यही कहता है: कितनी सुंदर होती
हैं पत्तियॉं नीम की, ये कोई कविता क्या बताएगी ?
नरेन्द्र जैन की इस साल
चौराहे पर लुहार संग्रह आधार प्रकाशन से आया किन्तु लगता है, उदाहरण के
लिए और सराय में कुछ दिन व काला सफेद में प्रविष्ट होता है
वाले नरेन्द्र जैन अब वैसे नही रहे. कविताओं में अहसासे-कमतरी का
बोध क्यों होता है उन्हें पढ कर समझ नही आता. उनका यह
लिखना कि कविता को जिरह होना है अब एक फौरी जरूरत के तहत---कहीं उनकी
कविता के मोटिव में तो शुमार नही हो चुका है. कदाचित ऐसा
है तो यह कवि के लिए घातक है. हेमंत शेष कलावादी रुचियों को प्रश्रय देने वाले
कवि हैं और दशाधिक संग्रहों से उन्होंने इतनी हैसियत कविता में जरूर बनायी है कि उन्हें याद रखा जा
सके. किन्तु छोटी कविताओं के खुमार में निकाले गए शीर्षक हीन संग्रह खेद
योग प्रदीप में खेद का ही योग ज्यादा बनता है क्योंकि कविता शिकायतों का
पुलिंदा नही है न ही वह उपहास का मंच. लिहाजा हेमंत का
निरीह व्यंग्य प्रगतिशीलों पर यों टूटता है: ‘प्रगतिशील
कवि खुश है---पालतू होने के बाद/आकाशवाणी
बिचारी यों दे दे कर मार्क्सवादियों को नौकरी / सोखती है न
जाने कित्तों का जनवादी क्रोध.‘ अब यह
शिकवा-शिकायत कुछ भी हो, कविता नही है. अब इसके बाद वे अमृततुल्य शब्द भी कहें मसलन: वृक्ष को
ईर्ष्या है कि मेज को कोई दुख नहीं---तो भी उनके कवित्व
पर मन नहीं टिकता. साल के आखिर में हिमाचल के वरिष्ठ कवि श्रीनिवास
श्रीकांत का संग्रह चट्टान पर लड़की और प्रकाशन संस्थान से दिविक
रमेश का संग्रह बॉंचो लिखी इबारत आया है. किताबघर से
आया प्रताप सहगल का संग्रह मुक्तिद्वार के सामने एक नए भावबोध की
कविताओं से संपन्न है.
वरिष्ठ कवियों में जिन्होंने अपने
समय और कविता के साथ न्याय किया है उनमें विनोदकुमार शुक्ल, अरुण कमल
और नंद किशोर आचार्य हैं. विनोद कुमार शुक्ल अपनी ढब पर कविता
लिखने वाले इंसान हैं जो शब्दों,रीतियों, भंगिमाओं का सुख लेने और उसे अपनी तरह से व्यक्त करने का करतब जानते हें. वे अपनी
रीतिबद्धता में यह भूल नही जाते कि उन्हें अपने देश काल ओर सीमाओं का पूरा भान है. लिहाजा
आदिवासियों की समस्या को उन्होंने कभी के बाद अभी की कविताओं की नाजुक
अंतर्वस्तु मे जिस तरह उठाया और साधा है, वह काबिले गौर है. अचरज नहीं
कि उनकी शैली और रीतिबद्धता कुछ अखबारी यथार्थ की समझ रखने वाले लोगों को नागवार
भी गुजरती है तथा वे तोहमत लगाते हैं कि शुक्ल जी जटिलता के हामी हैं. किन्तु
सीधी उँगली से घी निकलता तो लोग उँगली को टेढी करने की जहमत क्यों उठाते. लिहाजा
विनोद कुमार शुक्ल जैसे कवियों की कविता को समझने के लिए भी पाठक से अपनी काव्यरुचियों
को थोड़ा परिष्कृत करने की दरकार होती है.
अरुण कमल ने मैं
वो शंख महाशंख तक आकर अपनी उस शाश्वत संवेदना का परिचय दिया है जो अच्छी कविता
के लिए उर्वरक का काम करती है. तात्कालिक
और अखबारी यथार्थ से बहुत दूर, किन्तु जीवन जगत के अपरिहार्य प्रसंगों को अरुण कमल बेहद उत्तरदायी ढंग
से उठाते हैं. उनके यहां कविता किसी बुलबुले की तरह फूट कर बिखर नही
जाती वह अक्सर ऐसी प्रतिक्रियाओं से लैस दिखती है जो जीवन में जुत कर हासिल किए
गए होते हैं. अभागा में वे कहते हैं, 'अभागा है वह जिसका
कही कोई इंतजार नही करता. उससे भी अभागा है वह जो इंतजार करते दोस्तों को छोड़ कर
आगे बढ जाता है'.
इसी संग्रह में उनकी एक कविता है हिचक. इसमें वे
लिखते हैं: ‘जो खो चुका है घर-परिवार, उसे कैसे
कहूँ पानी उबाल कर पियो.‘ ‘जब तुम ' और इस जैसी तमाम
कविताओं में वे उन अस्तित्व खो रहे या खो चुके लोगों के बारे में सोचते हैं. वे लिख
चुके हैं: जैसे ही कोई कौर उठाता हूँ/ कोई आवाज
देता है. यहां वे पूछ रहे हैं: ‘क्या तुम
जानते हो कि जब तुम खा रहे थे तब कोई जान दे रहा था विदर्भ अबोहर मदुरै में?’ वे कहते
हैं, ‘अब कोई
नहीं पूछता यह दुनिया ऐसी कयों है/ बेबस
कंगालों और बर्बर अमीरों में बंटी हुई. मैं बार
बार पूछता रहूंगा वहीह एक पुराना सवाल --यह दुनिया
ऐसी क्यों है ?’ हर दो मील पर रंगदारों की मौजूदगी को लक्ष्य करने वाला
कवि ही यह कह सकता है कि सितारा बनने से अच्छा है गंदी गली का लैम्पपोस्ट बनना.
यह एक जैसी त्रासदी का दो कवियों का जैसे साझा सा अनुभव है जब विनोद कमार शुक्ल लिखते हैं: ‘मेरा स्थायी पता मुझसे खो गया है/ मेरा पता कमानेखाने के लिए भागते एक एक लोगों के पीछे चला गया जिनमें जमाने भर के छत्तीसगढ़िया भी शामिल हैं. ‘ एक गहरी मानवीय और स्थानिक चिंता में यह कवि सोचता है: ‘इस साल का भी अंत हो गया/ परन्तु परिवार के झुंड में अबकी बार/ छोटे छोटे बच्चे नहीं दिखे/ कहीं यह आदिवासियों के अंत होने का सिलसिला तो नहीं.‘ वह मनुष्य को बचाने मे तल्लीन रहता हुआ सोचता है : ‘मनुष्य का जन्म बड़ा है/ किसी भी कविता के जन्म से. और यद्यपि कविता मनुष्य को बड़ा बनाती है. उन्हें यह जीवन इतना अमूल्य लगता है कि वे इसे भूलना नही चाहते तथा मर कर खोना भी और जब कोई भी दुखी नहीं होगा--एक दिन ऐसा भी वे देखना चाहते हें.
यह एक जैसी त्रासदी का दो कवियों का जैसे साझा सा अनुभव है जब विनोद कमार शुक्ल लिखते हैं: ‘मेरा स्थायी पता मुझसे खो गया है/ मेरा पता कमानेखाने के लिए भागते एक एक लोगों के पीछे चला गया जिनमें जमाने भर के छत्तीसगढ़िया भी शामिल हैं. ‘ एक गहरी मानवीय और स्थानिक चिंता में यह कवि सोचता है: ‘इस साल का भी अंत हो गया/ परन्तु परिवार के झुंड में अबकी बार/ छोटे छोटे बच्चे नहीं दिखे/ कहीं यह आदिवासियों के अंत होने का सिलसिला तो नहीं.‘ वह मनुष्य को बचाने मे तल्लीन रहता हुआ सोचता है : ‘मनुष्य का जन्म बड़ा है/ किसी भी कविता के जन्म से. और यद्यपि कविता मनुष्य को बड़ा बनाती है. उन्हें यह जीवन इतना अमूल्य लगता है कि वे इसे भूलना नही चाहते तथा मर कर खोना भी और जब कोई भी दुखी नहीं होगा--एक दिन ऐसा भी वे देखना चाहते हें.
नंद किशोर आचार्य छोटी-छोटी किन्तु
चिंतनशील संवेदना के कवि है. कितनी शक्लों में अदृश्य हाल ही में सूर्य
प्रकाशन मंदिर बीकानेर से आया है. इधर गए दो तीन सालों में हर साल उनका कोई न कोई संग्रह आ
रहा है. केवल एक पत्ती ने, चांद आकाश
गाता है और उड़ना संभव करता आकाश भी ऐसे ही छोटी छोटी कविताओं के संग्रह
हैं जिन्हें पढते हुए लगता है आचार्य ने ये क्षणिकाऍं जीवन के रोजमर्रा के छोटे
छोटे अनुभवों से जुटाई हैं. इसके बावजूद यदि वे हिंदी आलोचना में चर्चा से ओझल हैं
तो शायद इसलिए कि इस समय के अर्धविवृत यथार्थ को वे उस भाषा और शैली में टक्कर दे
पाने में असमर्थ हैं जो कवि के जागे हुए का प्रमाण देती हो.
कुछ काव्यात्मक
दुर्घटनाऍं और बासी कढ़ी में उबाल
यह साल कविता को लेकर कुछ प्रमुख
घटनाओं के लिए भी स्मरण किया जाएगा. एक घटना फेसबुक की
तथाकथित कवयित्रियों को लेकर लिखी गयी हेमंत शेष की कविता से जुड़ी है जिसे स्त्री-अवमान या
उसे ठेस पहुंचाने के उपक्रम के रूप में देखा गया. किन्तु
उत्तरोत्तर फेसबुक पर फूल-फल रहे चालू कविता-कारोबार को
देखते हुए हेमंत शेष के साहस की दाद देनी होगी कि कुछ स्त्री-पुरुषों ने
अपनी चालू काव्ययुक्तियों से कविता को चुटकुला बना देने की हद तक नीचे गिराया है
जिसकी निंदा में लिखी कविता पर अनेक भद्र कवियों की भृकुटियॉं भी तनीं. दूसरी घटना
थी अनामिका और पवन करण की दो ऐसी कविताओं पर विमर्श का ज्वार जिनमें वक्ष कैंसर
से ग्रस्त स्त्री को लेकर कविता का स्वैराचार रचा गया था. अनामिका ख्यात
कवयित्री हैं और पवन करण भी अच्छे कवियों में हैं पर बहन का प्रेमी और भाभी का
प्रेमी जैसी कविताएं लिखने के लिए ख्यात और अतियथार्थवादी होने के उत्साह में
यदा कदा कविता को दुस्साहसिक मोड़ देने वाले पवन करण की कैंसरग्रस्त स्त्री पर
लिखी और अनामिका की कैंसरग्रस्त स्त्री की अनुभूति को परिहास में बदलने वाली
विवादित कविताओं की शालिनी माथुर ने समाजशास्त्रीय व्याख्या कर उसकी धज्जियॉं
उड़ा दीं और इन कविताओं को असामाजिक और अप्रकृत करार दिया. इस पर इन
कवियों की सदाशयता के साथ खड़े कतिपय समर्थकों, आलोचकों ने एक बड़ी
मुहिम चलाई पर इस विवाद पर जैसी कलम प्रभु जोशी की चली, उसने इन
कविताओं के कदाशय व इनके रचयिताओं की काव्ययुक्तियों की कलई खोल कर रख दी और
समर्थकों के आचार्यत्व को जबर्दस्त चुनौती दी .
उमाकांत मालवीय ने एक गीत लिखा था, जिसके बोल
हैं: ऐसा कुछ करें बासी कढ़ी में उबाल दें. इधर वागर्थ
ने नवें दशक की कविता में उबाल लाने के लिए ऐसा ही एक प्रायोजित अभियान चलाया
है जिसमें कुछ आलोचकों व कवियों के साथ हिंदी कविता: ’80 के बाद यानी लांग
नाइन्टीज पर परिचर्चा आयोजित की गयी है. इस संदर्भ
में सबसे पहले सवाल यह उठता है कि केवल नवें दशक के कवियों पर ही बात क्यों? क्यों
नहीं आठवें दशक के बाद के तीन दशकों की समग्र कविता पर बात की जाती? जाहिर है
आठवें दशक और नवें दशक के बीच का सौतिया डाह ही इस परिचर्चा की वजह जान पड़ता है
जिसमें अनेक बड़बोले प्रत्याख्यान किए गए हैं. इस
परिचर्चा ने यह भी परोक्ष रूप से जताया है कि कविता करना ही जरूरी नहीं है, कविता की
सियासत में भी दक्षता अपरिहार्य हो गयी है.
आठवें दशक के कवियों ने कविता को लेकर
जिस प्रतिबद्धता का परिचय दिया है, उतनी ही प्रतिबद्धता इन कवियों ने कविता के गठन और स्थापत्य को समय समय
पर परिभाषित और विश्लेषित करने में दिखायी है. पर मदन कश्यप
आठवें दशक की कविता को गैरसामाजिक बताते हैं. एकांत
श्रीवास्तव ने अपने लुभावने आमुख में लोक के दायरे में ग्रामीण व नागर दोनों को
समेटने की बात की है और सौरभहीन सेंथेटिक कविता से विरोध दर्ज किया है. पर यह नहीं
बताया कि दो दर्जन उल्लिखित अथवा अनुल्लिखित कवियों में आखिर वे कौन हैं जो ऐसी
सौरभहीन और सेंथेटिक कविताऍं लिख रहे हैं. जबकि लोक
कविताओं का हाल यह रहा है कि वे अक्सर ग्रामीण लोक के लालित्य का बखान ही करती
आई हैं---- लोक में जिनकी पैठ न के बराबर है. हॉं, लोक के
प्रति कवियों की चिंता अवश्य ध्यातव्य मानी जा सकती है. लिहाजा, लोक में व्याप्त
सामंती आचरणों और उसके उत्तरोत्तर विद्रूप होते जाने पर कवियों के यहॉं आज भी
अच्छी कविताओं का अभाव है.
'फॉक', 'मास' और 'पब्लिक स्फियर' को लेकर
बोधिसत्व, एकांत अलग सोचते हैं, अजय तिवारी अलग. पर ग्रामीण लोक की तरह शहरी लोक का भी अपना अस्तित्व
और जद्दोजेहद है, इसे अजय तिवारी तथाकथित 'लोक' से बाहर मानते हैं. आठवें और
नवें दशक के कवियों के बीच विभाजन रेखा खींचते हुए मदन कश्यप ने एक वर्गीकरण भी
पेश किया है किन्तु मोटे तौर पर नक्सलवाद विरोध को आठवें दशक के और
सांप्रदायिकता और साम्राज्यवाद विरोध को नवें दशक की कविता के वैशिष्ट्य के रूप
में देखा गया है. किन्तु देखा जाए तो कविता देश, काल और परिस्थितियों
की उपज होती है, आठवें दशक की कविता को गैर सामाजिक करार देने के पीछे एक सोची समझी रणनीति
है. वह राजनैतिक चेतना से लैस है तो क्या बुरा है, और राजनीतिक रूप से
सचेत पीढ़ी सामाजिक चेतना से च्युत कैसे मानी जा सकती है. क्या ऐसा
नही है कि किसानों, आदिवासियों, दलितों और स्त्रियों की चिंता की जमीन तैयार करने में राजनीतिक जागरूकता
का हाथ रहा है? और सांप्रदायिकता का उभार '92 के बाद
जैसे जैसे प्रबल हुआ है न केवल नवें दशक बल्कि आठवें दशक के कवियों में भी इसे
लेकर सक्रियता जागी है? आखिर सातवें दशक के विनोद कुमार शुक्ल और जैसे वरिष्ठ
कवि भी तो आज आदिवासियों, दलितों के पक्ष में कविताएँ लिख रहे हैं या नक्सलवाद को अपने नजरिए से देख
रहे हैं तो यह एक मात्र नवें दशक के कवियों की विशेषता नहीं है. युगीन
मुद्दों से आठवें दशक और आगे के कवि समान रूप से प्रभावित हैं.
विमल कुमार का यह
कहना कि राजेश जोशी में आत्मसंघर्ष का अभाव है या बोधिसत्व का यह आरोप
कि वे किताबी और नारेबाजी की कविता के कवि हैं, राजेश जोशी की
कविता-कला का
अपपठन या अल्पपठन है. यह क्या विडंबना है कि जहॉं कुछ लोग आलोक धन्वा पर
नकली नक्सल सहानुभूति रखने और राजनैतिक रूप से लाउड कविता करने का आरोप लगाते रहे
हैं वहीं बोधिसत्व उनकी कविता पर लोकोन्मुखता का लेबल चिपकाते हैं. जबकि
शुरुआती दौर में आलोक में क्रांतिकारिता बेशक प्रबल हो, पर समय के साथ उनकी
कविता में मर्मस्पर्शिता का गुण घनीभूत हुआ है. राजनीतिक
रूप से सचेत होते हुए भी आठवें दशक के ज्ञानेन्द्रपति, जिन्होंने 80 के दौर में
अपना बघवा और कांग्रेस के बारे में जैसी कविताऍं लिखीं और अन्य
कवियों में भी साम्राज्यवाद व बाजारविरोधी चेतना, प्राकृतिक संसाधनों
के दोहन समेत तमाम तरह की अमानवीय कार्रवाइयों का प्रतिरोध देखा जा सकता है. इसलिए
आठवें दशक या नवें दशक में बांट कर कविता को देखने की प्रवृत्ति अकादेमिक सोच का
ही प्रतिफल है. यानी जिस दशक पद्धति के मूल्यांकन का आप सिद्धांतत: विरोध करते
हैं, वही
प्रविधि आप खुद अपना रहे हैं. कविता की अंतश्चेतना में आज इतनी गहरी फॉंक नही है कि
जितनी सातवें दशक की अकविता और आठवें दशक की कविता के मध्य रही है. नवें दशक
की कविता आठवें दशक की कविता का ही स्वाभाविक और अग्रगामी विकास है जिसे स्वीकार
करने में नवें दशक या परवर्ती कवि कतराते हैं. हॉं नवें
दशक और परवर्ती कविता के शिल्प और अंदाजेबयां में जो बॉकपन देवीप्रसाद मिश्र, अष्टभुजा
शुक्ल या गीत चतुर्वेदी आदि कवियों का है वह अवश्य इस पीढ़ी का अपना उपार्जन है.
कविता की हलचल और
बेव दुनिया
कहने को फेसबुक व
इंटरनेट की लिखापढी को भले ही औसत नजरिये से देखा जाता हो पर कविता के प्रसार का
यह भी एक त्वरित माध्यम है. नेट से जुड़े लोगों का एक ऐसा शरण्य जहॉं मन को बहलाने
के सभी उपक्रम मौजूद हैं. वेब परिदृश्य में सबद ने जहॉं अनेक अच्छी
कविताऍं दीं वहीं जानकीपुल ने नान्त से लौटने के बाद अशोक वाजपेयी की कुछ
ताज़ा कविताऍं मुहैया करायीं. समालोचन भी कविता के प्रसार की मुहिम में
संलग्न है. अनुनाद भी. कृत्या रति सक्सेना
की सम्पूर्ण वेब पत्रिका है जिसका संयोजन वे काफी समय से कर रही हैं. कृत्या का संसर्ग
विदेशी कवियों से भी है. इस दिशा में द्विभाषीय वेब पत्रिका प्रतिलिपि भी
गिरिराज किराड़ू के संयोजन में कविताओं का विशेष ख्याल रखती है. कुमार
अनुपम की भारतभूषण पुरस्कार से सम्मानित कविता कुछ न समझे खुदा करे कोई
यहीं छपी और चर्चित हुई. 'खाकर वे सो रहे है जाग कर हम रो रहे हैं' शीर्षक से जानकीपुल
में आई अशोक वाजपेयी की कविताओं से अरसे बाद गुजरना हुआ. अशोक जी को
पढ़ते हुए अक्सर लगता है कि हम कविता की किसी साफ सुथरी कालोनी से गुजर रहे हैं, जहॉं की
आबोहवा हमारे निर्मल चित्त को एक नई आनुभूतिक बयार से भर रही है. उनकी एक
कविता में यह कहना कि ‘मैने कविता से पूछा तो उसने कहा: तुम्हारी
दुनिया में, अब थोड़ी सी रोशनी, बहुत सारे
अँधेरे/ और थोड़े से विलाप के अलावा अब बचा क्या है?' कविता के
सामने खड़े संकट का प्रत्याख्यान है. यह वाकई ऐसा ही दौर
है जब खाकर वे सो रहे हैं और जाग कर हम रो रहे हैं. जागने की
सामूहिकता खत्म हो चुकी है. कहने में संकोच नहीं कि आज ऐसा ही समय है जब हम सभी अपने
अपने उत्तरदायित्वों से विरत हैं. अपने सपनों में, दुस्वप्नों
से मुठभेड़ करते हुए एक चीत्कार के साथ सुबह का आवाहन करते हुए.
अशोक वाजपेयी ने
अपनी कविता मे उस निरुपायता को चिह्नित किया है जो हमारे समाज का स्थायी भाव बनता
जा रहा है: वह जो देख रहा है, कितना कम
देख रहा है.... जानकीपुल पर ही आई अरुण देव की कविता
सीरीज स्त्री के बालों से डरती है सभ्यता के अंतर्गत लय का
भीगा कंठ पढते हुए वास्तव में ऐसा ही अहसास होता है: यह किसका
रुदन है/किस भाषा में हिचकियॉं बुदबुदाती हैं अपने पश्चात्ताप.
कंजूसी से कविता छपाने वाले कुँवर नारायण की दो नई कविताऍं हाल में सबद पर पढने को मिलीं: 'पवित्रता' व 'जंगली गुलाब'. 'जंगली गुलाब' पर लिखते हुए यह कहना कि 'मुझे अपनी तरह खिलने और मुरझाने दो/मुझे मेरे जंगल और वीराने दो' जैसे आदिवासियों की पीड़ा को कहने का नया सलीका हो. सबद पर ही आई गीत चतुर्वेदी की कविता पथरीला पारितोषिक पत्थरहृदया को भी प्रेम की ऊष्मा से पिघलाते हुए उसकी कठोरता को रुई में बदल देने के लिए प्रतिश्रुत दिखती है. गीत चतुर्वेदी में इतने वर्तुल हैं, इतनी गहराइयॉं हैं, संवेदना की हरी चादर-सी प्राकृतिक चमक है जिसके चलते उनकी कविता मनुष्यता पर प्यार लुटाती हुई चलती है. सबद पर ही प्रस्तुत गीत की सात कविताओं में आखिरी कविता 'पंचतत्व' जैसे कवि की वसीयत हो: आप भी गौर फरमाऍं:
कंजूसी से कविता छपाने वाले कुँवर नारायण की दो नई कविताऍं हाल में सबद पर पढने को मिलीं: 'पवित्रता' व 'जंगली गुलाब'. 'जंगली गुलाब' पर लिखते हुए यह कहना कि 'मुझे अपनी तरह खिलने और मुरझाने दो/मुझे मेरे जंगल और वीराने दो' जैसे आदिवासियों की पीड़ा को कहने का नया सलीका हो. सबद पर ही आई गीत चतुर्वेदी की कविता पथरीला पारितोषिक पत्थरहृदया को भी प्रेम की ऊष्मा से पिघलाते हुए उसकी कठोरता को रुई में बदल देने के लिए प्रतिश्रुत दिखती है. गीत चतुर्वेदी में इतने वर्तुल हैं, इतनी गहराइयॉं हैं, संवेदना की हरी चादर-सी प्राकृतिक चमक है जिसके चलते उनकी कविता मनुष्यता पर प्यार लुटाती हुई चलती है. सबद पर ही प्रस्तुत गीत की सात कविताओं में आखिरी कविता 'पंचतत्व' जैसे कवि की वसीयत हो: आप भी गौर फरमाऍं:
मेरी देह से मिट्टी निकाल लो और बंजरों में छिड़क दो
मेरी देह से जल
निकाल लो और रेगिस्तान में नहरें बहाओ
मेरी देह से निकाल
लो आसमान और बेघरों की छत बनाओ
मेरी देह से निकाल
लो हवा और यहूदी कैम्पों की वायु शुद्ध कराओ
मेरी देह से आग
निकाल लो, तुम्हारा दिल बहुत ठंडा है
गीत में इतनी यतियॉं और गतियॉं हैं कि
उनकी कल्पना की वल्गाओं को थाम सकना आसान नहीं. नींद की
पलकों से होठों को चूमने वाले इस कवि का यह कहना प्रेम कविता को एक नई रूह से भर
देना है:
तुम आओ और मेरे
पैरों में पहिया बन जाओ
इस मंथरता से थक
चुका हूं मैं
थकने के लिए अब
मुझे गति चाहिए
पर इसी
ब्लाग पर आई गीत चतुर्वेदी की लंबी कविता 'उभयचर' हमारे सब्र का इम्तिहान भी लेने वाली कविता
भी है. सबद पर
प्रस्तुत सुशोभित शक्तावत और अम्बर रंजना पांडेय की कविताऍं युवा
कविता से एक खास उम्मीद जगाती है. समालोचन पर आई गीत
चतुर्वेदी की चंपा के फूल और अन्य कविताओं की रागात्मक छुवन काबिलेगौर है.
समालोचन ने साल के आखिरी सांसें लेने से पहले अपने फलक पर प्रेमचंद गांधी की कुछ कविताऍं, कविता में कुविचार, कवि की रसोई, नरमेध के नायक, तानाशाह और तितली, निरपराध लोग ---प्रस्तुत कीं. हिटलर की जीवनी भी एक कवि के भूगर्भ में हलचल मचा सकती है और उसकी काव्यात्मक कोशिकाऍं जागृत कर सकती है, यह गांधी की कविताओं से पता चला. मुझे इससे पहले गांधी की कविताओं में उतरने का अवसर तो मिला पर वह सुख नहीं मिला जो युवा कवियों में खोजा करता हूँ. इन कविताओं में गांधी की काल्पनिक उड़ान दीखती है, उनका संवेदना-संयम परिलक्षित होता है. 'कविता में कुविचार' जैसी कविता जो हिटलर की जीवनी पढ़ते हुए विकार की तरह दिमाग में उतरती है वह तमाम तार्किकी को ध्वस्त करते हुए इस अवधारणा को पुष्ट करती है कि घृणा का नायक भी हमारे लिए किस कदर प्रेरणास्रोत हो सकता है. अपनी रचना प्रक्रिया पर बात करते हुए गांधी ने भाषा की बारादरी में होने की जिस अनुभूति को जिया है उसकी शिनाख्त ये कविताऍं देती हैं. 'अभावग्रस्त लोगों की उम्मीदों के अक्षत हैं मेरे कोठार में/ जल है मेरे पास दूध जैसा /प्रेम की शर्करा कभी न खत्म होने वाली' जैसी बहती हुई भाषा कविता के अक्षत यौवन का प्रतीक है जो कि इन दिनों के उर्वर गद्य विधान वाली कविताओं में प्राय: नही दीखती. इसीलिए तमाम असह्य मुद्दों पर अपने आवेग को संयमित न कर सकने वाले कवियों की कविताओं में आग कम, झाग ज्यादा होता है. गांधी में यह आग अब एक मद्धिम सुनहली आंच की तरह दिखती है---पकी हुई फसलों की मुस्कान सरीखी.
इसी ई पत्रिका पर आई मृत्युंजय की कीमोथेरेपी के दुस्साध्य उपचार पर लिखी कविता से पता चलता है कि कविता हमारी कोशिकाओं को कितना करीब से जानती है. इस ब्लाग पर दर्ज कविताओं में युवा कविता के अनेक ज्वलंत हस्ताक्षर हैं जिन्होंने कविता में अपना स्थान और अपना अंदाजेबयां निर्मित किया है. यहां मौजूद अनुज लुगुन, समीर वरण नंदी,प्रांजल धर, अमित उपमन्यु जैसे नए कवि तेजी से परिदृश्य में पहचान बना रहे हैं. बुद्धू बक्शा पर मौजूद मंगलेश डबराल की कई नई कविताऍं नये युग में शत्रु, आदिवासी, बची हुई जगहें, यथार्थ इन दिनों , नया बैंक, हमारे शासक और गुलामी आदि समय के बारीक कुचक्र को करीने से व्यक्त करती हैं.
समालोचन ने साल के आखिरी सांसें लेने से पहले अपने फलक पर प्रेमचंद गांधी की कुछ कविताऍं, कविता में कुविचार, कवि की रसोई, नरमेध के नायक, तानाशाह और तितली, निरपराध लोग ---प्रस्तुत कीं. हिटलर की जीवनी भी एक कवि के भूगर्भ में हलचल मचा सकती है और उसकी काव्यात्मक कोशिकाऍं जागृत कर सकती है, यह गांधी की कविताओं से पता चला. मुझे इससे पहले गांधी की कविताओं में उतरने का अवसर तो मिला पर वह सुख नहीं मिला जो युवा कवियों में खोजा करता हूँ. इन कविताओं में गांधी की काल्पनिक उड़ान दीखती है, उनका संवेदना-संयम परिलक्षित होता है. 'कविता में कुविचार' जैसी कविता जो हिटलर की जीवनी पढ़ते हुए विकार की तरह दिमाग में उतरती है वह तमाम तार्किकी को ध्वस्त करते हुए इस अवधारणा को पुष्ट करती है कि घृणा का नायक भी हमारे लिए किस कदर प्रेरणास्रोत हो सकता है. अपनी रचना प्रक्रिया पर बात करते हुए गांधी ने भाषा की बारादरी में होने की जिस अनुभूति को जिया है उसकी शिनाख्त ये कविताऍं देती हैं. 'अभावग्रस्त लोगों की उम्मीदों के अक्षत हैं मेरे कोठार में/ जल है मेरे पास दूध जैसा /प्रेम की शर्करा कभी न खत्म होने वाली' जैसी बहती हुई भाषा कविता के अक्षत यौवन का प्रतीक है जो कि इन दिनों के उर्वर गद्य विधान वाली कविताओं में प्राय: नही दीखती. इसीलिए तमाम असह्य मुद्दों पर अपने आवेग को संयमित न कर सकने वाले कवियों की कविताओं में आग कम, झाग ज्यादा होता है. गांधी में यह आग अब एक मद्धिम सुनहली आंच की तरह दिखती है---पकी हुई फसलों की मुस्कान सरीखी.
इसी ई पत्रिका पर आई मृत्युंजय की कीमोथेरेपी के दुस्साध्य उपचार पर लिखी कविता से पता चलता है कि कविता हमारी कोशिकाओं को कितना करीब से जानती है. इस ब्लाग पर दर्ज कविताओं में युवा कविता के अनेक ज्वलंत हस्ताक्षर हैं जिन्होंने कविता में अपना स्थान और अपना अंदाजेबयां निर्मित किया है. यहां मौजूद अनुज लुगुन, समीर वरण नंदी,प्रांजल धर, अमित उपमन्यु जैसे नए कवि तेजी से परिदृश्य में पहचान बना रहे हैं. बुद्धू बक्शा पर मौजूद मंगलेश डबराल की कई नई कविताऍं नये युग में शत्रु, आदिवासी, बची हुई जगहें, यथार्थ इन दिनों , नया बैंक, हमारे शासक और गुलामी आदि समय के बारीक कुचक्र को करीने से व्यक्त करती हैं.
रविवार.काम पर
मौजूद कल्लोल चक्रवर्ती की फूल बेचने वाले और महानंदा एक्सप्रेस
प्रभावित करने वाली कविताऍं हैं.
अनुनाद पर जो
कि कविता और कविता पर विचार को ही समर्पित है, अनेक युवा कवियों ने अपनी आमद दर्ज की है. यहॉं उपलब्ध वंदना
शुक्ल की कई कविताओं के बीच एक छोटी सी कविता संशय यह जताती है कि यह
कवयित्री अपने तंतुओं से कविता बुनने के किन हिकमतों से गुजर रही है. असुविधा पर भी
कुछ अच्छी कविताऍं मौजूद हैं. किन्तु यह नही कहा जा सकता कि श्रेष्ठता
के सारे प्रतिमान किसी एक ब्लाग पर एकत्र हैं. वे हैं और इत्र की तरह यत्र तत्र बिखरे हैं. जलसा में
कसाब पर अंशु मालवीय और सौम्य मालवीय की एकदम ताजा कविताऍं देवीप्रसाद मिश्र की कई छप चुकी कविताओं के साथ
प्रतिष्ठित हैं. देवीप्रसाद मिश्र को पढ़ने का सुख हर वक्त एक ताजा अहसास से भर
देता है पत्रिका चाहे जितनी बासी हो.
कविता के लिए एक व्यापक मंच उपलब्ध
कराने का काम वाटिका और गवाक्ष ने भी बखूबी किया है जिसने कविता और
छंदों को समान तरजीह दी है, पर अच्छी और खराब कविताओं से पटे समाज की तरह इस पर
भी दोनों तरह की कविताऍं मिलती हैं. यों तो कई जाने अजाने ब्लाग अच्छी कविताओं
के मुरीद दिखते हैं किन्तु मॉंग और आपूर्ति के आपद्धर्म के चलते औसत का बोलबाला
काफी है. भीड़ में अच्छी कविता का चेहरा पहचानना मुश्किल सा होता जा रहा है. अब
ब्लाग भी लोग अनुनय के बावजूद पढ़ना गवारा नही करते. अत: कविताऍं सीधे फेसबुक पर
टॉंकी जा रही हैं जिससे वे आनन फानन में खुलें और सीधे आंखों से गुजर जाऍं. इस तरह
कभी कभार फेसबुक पर भी अच्छी कविता के दीदार हो जाते हैं. अभी पिछले दिनों नीलोत्पल
की वाल पर टँकी हुई कविता कोई आग पैदा कर रहा है ने अतीव सुख दिया. कवि
लिखता है: ‘एक-एक पत्ती बजती है/ सुनाई पड़ता है/ कोई आग पैदा कर
रहा है/ बर्फ से जमे पहाड़ पर.‘ विमलेश त्रिपाठी की वाल पर भी यदा कदा ऐसी कविताऍं दिख
जाती हैं जो उत्पादन की श्रेणी में नहीं, सर्जना की श्रेणी में रखी जा सकती हैं. पर कविताओं के ऐसे गवाक्ष कम हैं.
बहुधा तो आत्मश्लाघा की चासनी में सनी हुई होती हैं.
कविगण खोज रहे अमराई
इन माध्यमों के साथ ही मुद्रित माध्यम
की पत्र पत्रिकाओं में कविताऍं निरंतर छप रही हैं. वसुधा, तद्भव, कथन, दस्तावेज़,
नया ज्ञानोदय, वागर्थ, समकालीन भारतीय साहित्य, आलोचना, दोआबा, परिकथा, हंस और कथादेश आदि के साथ साथ शुक्रवार की साहित्य वार्षिकी 2012
ने अपने पन्नों पर बेहतरीन कविताऍं दी हैं पर आखिरकार जो छप रहा है वही संग्रहों
में संकलित भी हो रहा है और कुछ बड़े कवियों को छोड दें तो हर संग्रह में, औसतन
बीस प्रतिशत कविताऍं ही ऐसी होती हैं जिनमें कुछ सत्व-तत्व होता है. सच कहें तो
दस कविताएं भी संग्रह को ऊँचे आसन पर बिठा देती हैं पर उन्हीं दस कविताओं का भी
अभाव कभी कभी ऐसे संग्रहों में दिखता है. कविता के सतत प्रवाह में यह स्वाभाविक
है कि औसत का प्रवाह भी अबाध गति से चलता रहे. कविता के क्षेत्र में औसत का प्रवाह
और उसकी खपत भी बहुत है. जैसे बुनियादी औषधियों के अभाव में उसके विकल्पों से काम
चलाया जाए. अच्छी से अच्छी लघु पत्रिकाएँ भी औसत कविताओं से काम चला रही हैं.
यही वजह है कि जो प्रभाव एक वक्त नागार्जुन,
त्रिलोचन, कुंवर नारायण और केदारनाथ सिंह का रहा है या आज भी नरेश सक्सेना,
मंगलेश डबराल, राजेश जोशी, ज्ञानेन्द्रपति, लीलाधर मंडलोई, अरुण कमल, देवीप्रसाद
मिश्र और गीत चतुर्वेदी जैसे कवियों को पढते हुए होता है, वैसा प्रभाव कम ही
कवि पैदा कर पा रहे हैं. प्रतिरोध की वैसी इबारतें भी विरल होती जा रही हैं जो
समाज के पेंचोखम को बारीकी से पढ़ सकें और कविता को एक मजबूत विपक्ष के रूप
में स्थापित कर सकें..
एक बात कहनी आवश्यक है. वह यह कि
अंतत: संग्रहों की संख्या, पुरस्कारों और प्रायोजित समीक्षाओं-चर्चाओं से भी कोई
कवि सिद्ध नहीं होता, वह होता है अपनी कविता की ताकत से. साहित्य विवेक इस सबसे
प्रभावित नहीं होता. ऐसा होता तो दशाधिक संग्रहों के होते हुए भी अधिकांश कवि
हाशिए में उपेक्षित नहीं पड़े रहते और महज दो संग्रहों के बल पर नरेश सक्सेना
और एक संग्रह के बल पर आलोक धन्वा महफिलें नहीं लूट रहे होते. कविता में
धीरे धीरे देशराग खत्म हो रहा है. अष्टभुजा शुक्ल जैसे कवि जो गॉंव में
रहते हुए कविता की अलख जलाए हुए हैं. उनका कहना कि ‘कविता
की खेती में जितने सुख हैं/खेती की कविता में उतने ही दुख और असमंजस.‘ इधर की कविता में खेती किसानी के दुख बॉंचने वाले कवियों का
अभाव है. वे मध्यवर्ग की पारिवारिकता में रमे हैं तथा रोजमर्रा के क्रियाकलापों
में कविता का मजमून तलाश रहे हैं. अष्टभुजा शुक्ल ने व्यर्थ नही कहा है: कविगण
खोज रहे अमराई. अब भी कवियों की एक बिरादरी कविता को निज के चित्तवृत्त का
उपार्जन मानती है. उसका व्यापक लोक से नाता कम रहा है. वह निज मन मुकुर का
पर्याय है. किन्तु यह सच है कि जब तक कवियों का व्यापक लोक से नाता नहीं जुड़ता, कविता में मनुष्य की सच्ची आवाज़ अपने वैविध्य के साथ
सुनाई नहीं देगी.
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(लमही के नए अंक में शीघ्र प्रकाश्य)
मेल: omnishchal@gmail.com
फोन: 09696718182
विहंगावलोकन.. विनोद शुक्ल जी, अन्ना माधुरी व कमलेश्वर के इन्ही संग्रहों की कुछ कवितायें छत्तीसगढ़ी अनुवाद के लिए मेरे टेबल पर पड़ी है .. सुखद अनुभूति.
जवाब देंहटाएंखासी मेहनत और सूझ-बूझ से लिखा पूरे साल की कविता का सफ़रनामा. ओम निश्चल ढेर सारी बधाई के हक़दार हैं.
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया लेख ! ऐसा व्यापक लिखने के लिए, वर्ष भर के कविता-कर्म इस तरह की लगभग exhaustive cataloging के लिए लेखक अवश्य नियमित और प्रतिबद्ध पाठक रहे होंगे. और फिर उसे इस संयम से लिखना सराहनीय है.
जवाब देंहटाएंमोनिका कुमार
एक बढ़िया और सुचिंतित आलेख है | इसके लिए आपको बधाई | आपकी मेंहनत और परिश्रम को सलाम |लेकिन बिना व्यक्तिगत हुए इस बहाने मैं भी कुछ अपनी बाते कहना चाहता हूँ | कविता के स्तर को लेकर बेब दुनिया की जो आलोचना की जा रही है , वह कुछ हद तक सही भी है , लेकिन ऐसा करते समय पत्रिकाओं में छप रही स्तरहीन कविताओं पर वह निर्ममता क्यों नहीं दिखाई देती , जहाँ संपादक भी होता है | ब्लॉगों पर कविताओं की बाढ़ है, तो क्या यह बाढ़ पत्रिकाओं में कम है ? दरअसल यह एक तरह का पूर्वाग्रह है ,जो कुछ बड़े लोगों में भी पाया जाता है ,जो अभी तक प्रिंट की दुनिया से ही मंजर को देखते आये हैं | मुझे तो ऐसा लगता है , कि ब्लॉगों की कविताओं ने पत्रिकाओं की कविताओं को जिस तरह से चुनौती दी है , उसे अभी तक ठीक से रेखांकित ही नहीं किया गया है| यदि कुछ लोग ब्लॉगों की कविताओं को अनजान युवाओं द्वारा लिखी हुयी कवितायें कहकर ख़ारिज कर रहे हैं , तो आज के दौर का युवा भी ऐसी आलोचनाओं को प्रिंट की दुनिया के अनजान आलोचकों द्वारा लिखी हुयी कहकर ख़ारिज कर देना चाहेगा | कहा जाता है कि ब्लॉगों पर श्रेष्ठता के सारे प्रतिमान एक साथ मौजूद नहीं हैं , तो कोई भी आलोचक पत्रिकाओं के बारे में यह दावा कर सकता है क्या ? पत्रिकाओं की कवितायें भी तो पाठकों के सामने लुढकी ही पड़ी हैं , और उसी तरह से आलोचनाएँ भी| मुझे तो लगता है , कि हमारे दौर की अधिकांश श्रेष्ठ कवितायें आज ब्लॉगों पर मौजूद हैं ,अब यह अलग बात है , कि प्रिंट के आलोचकों को यह दिखाई नहीं देता | मैं ऐसे दर्जनों नाम गिना सकता हूँ , जिन्होंने ब्लॉगों के माध्यम से हमारे दौर की कविताओं को समृद्ध किया है | एक बार अनुनाद , असुविधा , जानकी पुल , प्रतिलिपि, सबद , कर्मनाशा और समालोचन जैसे ब्लॉगों की कोटरों में जाकर कुछ समय जाया तो कीजिए...क्या पता मेरे नाम गिनाने की जरुरत ही न पड़े ...| बाकि इस लेख के लिए आपके साथ समालोचन का भी शुक्रिया तो बनता ही है |
जवाब देंहटाएंपोस्ट संकलित कर ली, सुकून से पढ़ेंगे..
जवाब देंहटाएंbahut achchha aalekh
जवाब देंहटाएंरामी जी। आपका कहना सही है। प्रिंट माध्यम के लोग अभी तकनीकक्षम नहीं हैं। वे ब्लाग वेब फेसबुक आदि आनलाइन माध्यमों के गहरे और सतत संपर्क में नहीं है। पर मेरा मानना है और लिखा भी है कि पत्रिकाएं ही क्यां किताबों में 10 से ज्यादा अच्छी कविताऍं नही होती। औसत का अतिरेक हर जगह है। दातून कुल्ले की तरह कविता की दिनचर्या का निबाह करने से भी अच्छी कविताऍं नही बनतीं और बन भी जाऍं तो उन्हें जारी करने में जो संयम बरता जाना चाहिए, वह बेवसंपर्कित कवि में कहॉं है। आपके बताए ब्लाग देखता पढता हूँ। जो और है, या आगे और सृजित होंगे, जिन जिन की सुगंध हम तक पहुंचेगी वहॉं वहॉं हम अदृश्य के मधुसंचयी पहुंच ही जाऍंगे। पर चुनेंगे वही जो हमे काम्य है।
जवाब देंहटाएंkafi sari jaankariya mili .. shukriya
जवाब देंहटाएंअपने सीमित स्पेस में भी बहुत से बिंदु समेटता , रागविराग एवम नीर क्षीर युक्त आलोचकीय हस्तक्षेप करता ओम जी का यह लेख कविता के उनके गहन अध्ययन और चिंताएं को प्रस्तुत करता है ..हम इसे 'दीप स्तम्भ' के समान सम्मान शुक्रिया और सकारात्मकता के साथ स्वीकारते हैं ..अरुण जी का भी हार्दिक आभार
जवाब देंहटाएंबहुत परिश्रम के साथ पत्रिकाओं, पुस्तकों और ब्लॉग की दुनिया का जायज़ा लिया है ओम जी ने. अपने प्रिय कवियों गीत चतुर्वेदी, कुमार अनुपम और मनोज कुमार झा पर लिखी उनकी टिप्पणियां दुबारा पढ़ रहा हूँ. ऐसे आलेख और अवलोकन कहानी की दुनिया पर भी होने चाहिए. इस दुसाध्य कार्य के लिए ओम जी का शुक्रिया और समालोचन का भी
जवाब देंहटाएं-विमल चन्द्र पाण्डेय
पूरे साल के कविता परिदृश्य पर मेहनत से लिखा गया आलेख। आपको बधाई, लेकिन मेरा सवाल अब भी बरकरार है - आख़िर कब तक कवियों और आलोचकों के लिए कविताएं लिखी जाती रहेंगी। कबतक लोग अपनी बंद और आत्ममुग्ध दुनिया में एक दूसरे की पीठ खुजाते रहेंगे ? कुछेक अपवादों को छोड़ दें तो इस दौर की कविताएं उबाती हैं, थकाती हैं और गुस्सा दिलाती हैं।
जवाब देंहटाएंआपकी दुनिया के बाहर कौन पढ़ता है इन कविताओं को ? ये कविताएं कैसे छपती हैं और किन आलमारियों की शोभा बढ़ाती हैं, यह सबको पता है। कहां चली गईं मन में गहरे उतर कर जीवन, सौंदर्य,मानवीय मूल्यों और संबंधों के प्रति आस्था जगाती कविताएं ? कहां गईं वे कविताएं जो हमारा अकेलापन भी बांटती थी और हमें अपनी दुनिया से जोड़ती भी थीं ? अपनी उधार की बौद्धिकता का आतंक परोसने वाले ये कवि हिंदी कविता की हत्या करने के बाद ही चैन से बैठेंगे ? और आपलोग कविता को सहज-सरल बनाकर उसे एक बार फिर जन-जन तक पहुंचाने की फिक्र कब करना शुरू करेंगे ? या आपके लिए भी कविता महज़ 'क्लास' की चीज़ है - आमलोगों के लिए पतनशील फ़िल्मी गीत-संगीत और जुगुप्सा जगाते टी .वी सीरियल्स तो हैं ही !
भाई, ओम जी ने बहुत मेहनत से लिखा है. अच्छा किया आपने लगा लिया वरना लमही को ढूंढने तो लमही जाना पड़ता. जो बात लोग नहीं करते वह यह कि पत्र-पत्रिकाओं का मिलना मुहाल होता है, उनको ढूँढना श्रमसाध्य काम होता है, वही ये वेब पत्रिकाएं उनको सहज-सुलभ उपलब्ध करवा देती हैं, पाठकों तक पहुंचा देती हैं. अच्छा लगता है जब कोई सर्टिफिकेट देता है. लेकिन इस माध्यम में सबसे बड़ा सर्टिफिकेट पाठक देते हैं.
जवाब देंहटाएंआलोचकीय दृष्टि से कविता की यायावरी को कहता -सुनता आलेख। पाठकों के लिए भी सहूलियत ..
जवाब देंहटाएंकीमियागरों की दुनिया है ,कबीरों की दुनिया है ..कबीर यहु घर प्रेम का
खाला का घर नाहीं।
बधाई आपको सर और समालोचन को भी एक सार्थक आलेख के लियें | पढ़ने के बाद तुरंत टिप्पणी नहीं लिख पायी ....बहुत सारी बातें मन-मस्तिष्क को उद्वेलित करती रहीं |
जवाब देंहटाएं'कविता किसे कहते हैं' इस पर भी एक आलेख पढवाईये सर..
ओम जी ...मेरा नाम इतना कठिन तो नहीं है कि उसे 'रामी' बना दिया जाये ..खैर आपने बना ही दिया तो कोई बात नहीं.. |हां .आलोचक अपना काम्य चुनेगा , इसमें किसे एतराज होगा , और न ही इसमें कि लेखक भी अपना काम्य स्वयं चुने | वह क्यों आलोचक की तरफ देखे , कि उसका काम्य क्या है | आखिर काम्य चुनने की स्वतंत्रता पर किसी का पेटेंट तो हुआ नहीं |
जवाब देंहटाएंAdarniye Om Nishchal ji aap ka aalekh Sahitik or gair-sahitik logo ke liye bohat sehatmand hai isme koi shak nahi, par mein yaha ek baat "facebook" ke bare mein zaroor kehna chahta hun ke ye un khuddar or achey yuva kavion ka bhi munch hai, jinhe lagbhag saari sahitik patrikaon or blog ke "sampadak" Apni ankhon par dastane chadha kar bhi nahi chhute,vo sirf apni bhai bhatija vaad vali niti par chalte hain...ve sirf apne mitron,chamchon or chaploos kaviyon ko hi jyadatar chhapne ka jimma lete hain...uske bahar unhe kuch dikhai hi nahi deta ya vo dekhna nahi chahte, iske liye.. aise sampadak or alochak bhi jimmedar hain.. jo sahitye se pakshpat or khilvad kar rahe hain..
जवाब देंहटाएंबीते साल की कविता की दुनिया की हर छोटी-बड़ी हलचल इस लेख में मौजूद तो है ही, ओम जी ने जगह-जगह ठहर हर ध्यान भी खींचा है और काफी-कुछ अपनी ओर बताया है। बहुत बधाई।
जवाब देंहटाएंप्रियवर राम जी , वर्तनी में लिपिकीय त्रुटि के लिए क्षमा। वैसे हम अवध के हैं, राम को जिस रूप में पुकारें,वह राम ही होता है।वही मेरा काम्य भी था। प्रकाशित होते ही पता भी चल गया पर शुद्धि कातरीका न मालूम था। इसलिए इसके लिए बुरा न मानें।राम जी आपकी टिप्पणी मुझे सकारात्मक ही लगी और तदनुकूल मैंने उत्तर भी दिया। आपके प्रति कोई दुर्भाव नही है। आप मेरे परिचय में न होते हुए भी आपने लेख पढ़ा और अपनी बात कही। संयोग से आपकी बात से सहमत भी हूँ। वेसा करता भी हूँ और उसी का यह परिणाम है। मेरा फोन दिया है,आवश्यकता समझें तो बात भी कर सकते हैं,कभी बनारस आएं तो आपका यथोचित स्वागत भी करुंगा। कर्मनाशा नही देख पाया हूँ अब जरूर देखूँगा, समालोचन,प्रतिलिपि,सबद,जानकीपुल, अनुनाद,बुद्धूबक्सा,और असुविधा पर मेरी आवाजाही है। अच्छी ओर मनोनुकूल कविताओं का आस्वाद लेता हूँ और यह मालूम हैं कि अच्छी बुरी औसत कविताऍं सब जगह हाती है,पत्रिकाओं में भी,बेव पर भी। पर आस्वादक अपना ठीहा ढूढ लेता है। यह आलेख विजय राय के आग्रह पर लिखा गया था, तथा इसमें 25 दिसंबर तक की मुझे अच्छी लगने वाली हर प्रविष्टि मौजूद है। आप खुद कविता के मर्मज्ञ हैं, आप यह बात जानते ही हैं कि किसी भी आलेख से सबको संतुष्ट नही किया जा सकता। यह मेरे बूते का नही है, इसीलिए मैं आलोचना को सामूहिक कार्रवाई मानता हूँ। मैं कभी तुष्टीकरण की नीति से परिचालित नही होता,जब ऐसा आपद्धर्म आता है तो बड़ी कठिनाई सामने आती है। आपकी सदभावना के प्रति अभिभूत हूँ।
जवाब देंहटाएंप्रभात भाई, आपका कहना सही है। यह कई नेटसंपन्न पाठकों साहत्यिकों के लिए सुलभ शरण्य हे। पत्रिकाएं मुझ जेसे दुर्दान्त पाठक के लिए भी जब सुलभ नही हैं तो आम पाठक कहां जाए। मैं तो ईश्वर से कामना करताहूँ कि हर कवि लेखक पाठक के पास नेटवर्क हो,ताकि वह ज्ञान विज्ञान और साहित्य की बड़ी दुनिया के हमकरीब हो सके। आज बड़े से बड़े प्रकाशक के पास किसी एक किताब की कभी कभी 2 कापियॉं भी न मिलेंगी। यह दिल्लीमें रहने के बावजूद बता रहा हूँ। तब सुदूर बिहार उप्र मप्र राजस्थान हिमाचल आदि में तो और भी टोटा है। प्रभात जी आपका ब्लाग इस लेख के लिए कई बार खंगाला। तब जो इस लेख की सीमा में बन पड़ा उसे दर्ज किया।आप साहित्य की हर गतिविधि,अध्यवसायिता,सृजन की खबर लेते रहते हैं,किसी भी बेहतर पत्रिका की तरह इसके आस्वाद और उन्माद को कायम रखते हैं। आप जानते हैं कि यह काम कितना कठिन है,लोग बाजदफे नाराज भी होते हैं,पर साहित्य के हित में आप यह काम कर रहे हैं। लमही सब जगह नही जा सकती इसीलिए इसे समालोचन के संपादक से पाठकों के हित में जारी करने का अनुनय किया। बात पहुंचे तो सही। आपकी टिप्पणी से मुझे बल मिलता है।
जवाब देंहटाएंकविवर नीर जी,आपकी बातें सटीक हैं।मैंने खुद स्वीकार कियाहै कि नेट/ब्लाग/बेव मंच जहॉं सर्वसुलभ अभिव्यक्ति का मंच है, यह संजीदा कवियों का ठीहा भी है। संपादक भी अपने विवेक से पत्रिका निकालता है,हर संपादक की अपनी रुचि होती है। बड़े संपादक साहित्य के जरिए समाज को उच्च जीवनमूल्यों से संस्कारित करने का काम करते हैं समाज में साहित्यिक जागरूकता का निर्माण करते हैं। कोलकाता में शंभुनाथ जी और उनके संपर्क के लेखक हर साल हिंदी मेला का आयोजन करते हैं। निशांत,कुणाल,विमलेश इसी समवाय की उपज हैं। आज इतने सुपरिचित लेखकों में शुमार हैं। दिल्ली में मिथिलेश श्रीवास्तव अरसे से यह काम कर रहे हैं,युवा कवयित्री अंजू शर्मा भी उसमें हाथ बँटाती है। कितने लोगों की कविता को वे मंच प्रदान करते हैं। इसलिए, संगठनों व संपादकों ने साहित्य रचना का वातावरण तेयार करने में एक बडी ऐतिहासिक भूमिका निभाई है। संपादक का काम यह भी है कि वे रचनाओं के अंबार से स्वीकार्य और स्तरीय रचना चुने और उसे छापे। हमारे पास भी कई खेदपत्र पड़े हैं,कई संपादकों से प्रेरणाऍं मिली हैं, उनका कृतज्ञ हूँ। फिर भी आपकी प्रतिक्रिया मेरे काम की है। आपने समय निकाल कर पढ़ा व बेबाकी से लिखा। इसके लिए आभार व स्नेह।
जवाब देंहटाएंगीता पंडित जी। आपकी प्रतिक्रिया के लिए आभार। कविता क्या है, विषय पर परंपरा से लिखा जा रहा है। साहित्यशास्त्र की एक लंबी परंपरा है। संस्कृत में तो है ही, हिंदी के आचार्यो ने भी इस पर समय समय पर निबंध लिखे हैं। कविता की रचना प्रक्रिया पर समय समय पर कवियों ने लिखा है। उन्हें यथावसर खोजें और पढें। कविता क्या है,इसका शास्त्र तो है, पर हर कवि का कविता रचने के लिए शास्त्र की शरण में नही जाता। आचार्य क्षेमेन्द्र ने कवियों को वैयाकरणों से बचने की सलाह दी है। इसलिए शास्त्र के चक्कर में न पड़े, अच्छी कविताओं में ही कहीं यह कुंजी छिपी होती है कि अच्छी कविता क्या है। अच्छी कविता पढते ही स्वत: चित्त में घंटियां बजने लगती हैं।
जवाब देंहटाएंध्रुव जी, आपकी चिंताएैं वाजिब हैं।कवियों को पाठकों का भी ध्यान रखना होगा। अव्वल तो हर कविता किसी मूँगफली की तरह आस्वाद्य हो यह संभव नहीं। मुक्तिबोध विराट कवि हैं,पर बहुतों की समझ के बूते के बाहर हैं ।तथापि उनकी महानता में संशय नहीं। पर जैसे पहले के कवि बच्चन,दिनकर, महादेवी,नेपाली,नागार्जुन, त्रिलोचन,केदारनाथ अग्रवाल को देखें तो ये एक तरफ पढी लिखी जनता के कवि थे तो साहित्यिक रूप से उन्नत पाठकों के कवि भी। कवियों के कवि भी। वे पाठक और स्तरीय साहित्य के बीच एक पुल बनाते थे। इनसे जुड़ कर पाठक इनकी स्तरीय और दुर्बोध कविता भी पढ़ने समझने का प्रयास करता था। आज ऐसे वातावरण की फिर जरूरत है जिससे कविता व्यापकसमाज तकपहुंचे।
जवाब देंहटाएंएक बढ़िया और सुचिंतित आलेख. बधाई.
जवाब देंहटाएंहाहाकार और जल्दबाज़ी के मुख़ालिफ़, स्वीकृति और निरस्ति के 'खेला' खेलने वाले टिप्पणीकारों के मुख़ालिफ़, ओम जी का यह लेख बताता है कि कविता की आलोचना कितने सब्र, कितने विस्तार और कितनी गहराई का काम है. वह विनयशील अध्यवसायी आलोचक हैं, जो कविता की तरफ़ 'निहुरकर' पहुंचने को जि़म्मेदारी की तरह लेते हैं.
जवाब देंहटाएंकविता की गुफ़ा में आप अकड़कर नहीं घुस सकते, ऐसा करेंगे, तो अपना ही सिर फोड़ लेंगे. यदि आप ग़ैर-जि़म्मेदार, गुफाओं से रंजिश रखने वाले वाचाल होंगे, तो आपकी पहली शिकायत यह होगी- यार, ये गुफ़ा बनाने वाले ने इसका मुहाना इतना छोटा क्यों बना दिया है, हमसे तो घुसा ही नहीं जाता. इस गुफ़ा को रिजेक्ट करो. वे यह भूल जाते हैं कि कविता की आलोचना, किसी भी युग में, महलों का पर्यटन नहीं रही.
ऐसे कई टिप्पणीकार इन दिनों सक्रिय हैं. उन्हें कविता पर लिखता देख मुझे क्रिकेट से जुड़ा एक बिंब सूझता है- कविरूपी एक गेंदबाज़ बहुत तेज़ गेंदबाज़ी करता है, टिप्पणीकाररूपी बल्लेबाज़ उसकी गेंद समझ नहीं पाता और बल्ला फेंककर किनारे खड़ा हो जाता है, रुआंसेपने के आक्रोश में कहता है, इस गेंदबाज़ को हटाओ यार, इसकी तो गेंद ही समझ में नहीं आती, मैं खेलूं कैसे?
अब अगर गेंद समझ में नहीं आती भाई, तो पहले उसे समझने की क़ुव्वत जुटा लो, बाद में बल्लेबाज़ी कर लेना. अपनी अक्षमता के लिए काहें गेंदबाज़ को गरिया रहे?
पर इन दिनों यही प्रवृत्ति कई लोगों पर सुरूर की तरह तारी है. उनके अपने हित होंगे. लेकिन ओम जी के इस लेख को ऐसी तमाम प्रवृत्तियों के निषेध की तरह पढ़ा जाना चाहिए. उनका श्रम, एक-एक रचना तक पहुंचने की उनकी मेहनती साधना, तमाम रंगों से भरे हुए परिदृश्य में से प्रधान रंगों की शिनाख़्त कर लेना, बावजूद आद्योपांत एक बुनियादी समावेशी दृष्टिकोण बनाए रखना... यह सब इस लेख व ओम जी के अन्य लेखों की विशेषता रही है. इस लेख में आलोचना, कविता से मल्ल नहीं करती, बल्कि यह बताती है कि how to read and how to appreciate good poetry.
इस लेख के लिए ओम जी को साधुवाद, लमही और समालोचन को बधाइयां. यह हाल की कविताई के तमाम रुझानों को अब तक महत्तम पकड़ता है.
साल के विहगावलोकन के बहाने ही सही ओम जी ने हिंदी कविता के विविधता भरे परिदृश्य की ज़रूरी और उल्लेखनीय समालोचना की है। यह लेख कवियों को इसलिए भी पढ़ना चाहिए कि इससे यह भी पता चलता है कि एक कवि के तौर पर हमसे क्या छूट रहा है, जिसे बाकी कवि अपनी नज़र से देख रहे हैं और सक्षम-समर्थ आलोचना ऐसी कविता को कभी ओझल नहीं होने देती।... सच कहूं तो मैंने भी इस बरस में इतने कविता संग्रह नहीं पढ़े, जिनकी ओम जी ने चर्चा की है। ओम जी को बधाई कि ऐसा धैर्यवान काम किया... आभार समालोचन का, इस प्रशंसनीय समालोचन के लिए।
जवाब देंहटाएंमैंने कल ही यह लेख पढ़ लिया था...पूरा. पढ़ने में इतना समय लगा कि कुछ लिखने के लिए समय नहीं बचा. सो आज लिख रहा हूँ...बहुत दिनों बाद कविता (ओं), कविता संग्रहों, कवियों और कविता-कर्म को केंद्र में रख कर लिखी गयी एक श्रम साध्य, समय साध्य, सुविचारित सुंदर, आलोचना पढ़ने को मिली. कहने को यह वर्ष भर के कविता का लेखा-जोखा है पर इस लेखे-जोखे में कविता को लेकर कई बारीक बातें कही गयी हैं. बहुत सारी बातें हैं जिनसे नए कवि बहुत कुछ सीख सकते हैं और पुराने कवि अपने गिरेबान में झाँक सकते हैं. ओम जी के गीत मैंने खूब पढ़े हैं, कुछ वार्ताएँ भी पढ़ी हैं. फेसबुक पर चली लंबी-लंबी लड़ाईयों में उनकी टिप्पणियाँ भी पढ़ता रहा हूँ और अधिकाँश टिप्पणियों से सहमत रहा हूँ. आपसे कभी मिलने का सौभाग्य नहीं मिला पर यह छवि मन में बनी है कि आप बहुत ही सुलझे हुए और अच्छे इंसान हैं और किसी भी चीज़ को अ-गंभीरता से नहीं लेते.
जवाब देंहटाएंबहरहाल, अब इस लेख पर... इस लेख की जितनी भी प्रशंसा की जाए कम है. यह लेख बताता है कि ओम जी ने कितनी मेहनत की होगी. लगभग ६०-७० कविता संग्रहों को पढ़ना, ब्लॉग की कविताओं को पढ़ना और पूरे वर्ष भर की कविता (और कुछ हद तक काव्यात्मक) हलचलों पर ध्यान रखना...हम सहज ही अंदाज़ा कर सकते हैं कि उन्हें कितनी मेहनत करनी पड़ी है और अपना कितना समय देना पड़ा है. इस लेख के लिए उन्हें कोटिशः बधाई व धन्यवाद देते हुए, मेरे कुछ प्रश्न, शंकाएँ, टिप्पणी जो भी कह लें, निम्नलिखित है-
१) ओम जी ने कविता की सही आलोचना व आलोचक न होने की तरफ़ एक बार फिर ध्यान दिलाया है. हम बार-बार इस बात का उल्लेख करते हैं, लेखों में, बात-चीत में, हर जगह. पर यह समस्या कैसे सुलझ सकती है, क्या इस पर कोई बात-चीत होती है? मुझे लगता है कि हिंदी साहित्य का अधिकाँश भाग आज भी पुराने आलोचकों से काम चला रहा है. मैं कोई नाम नहीं ले रहा हूँ, क्योंकि उसकी कोई आवश्यकता नहीं है पर अधिकाँश सर्वमान्य आलोचक कितने नए लोगों को पढ़ते हैं, यह सर्वविदित है. तो क्यों नहीं, हम में से कोई यह काम करता है? बहुत सारे लोग हैं, जिनकी कविता की समझ बहुत अच्छी है, वे यह काम कर सकते हैं. कहानी के क्षेत्र में कुछ युवा आलोचक सामने आए हैं, कविता के क्षेत्र में भी यह हो सकता है. मैं मानता हूँ कि इसमें खतरा है. बहुत से लोग नाराज़ हो सकते हैं कि उसने अपनी आलोचना में उनको सही स्थान नहीं दिया, या उनकी कविताओं को ठीक से सम्मान नहीं दिया आदि..आदि-आदि. पर मुझे लगता है कि यदि कोई निरपेक्ष होकर आलोचना का दायित्व निभाता है तो उसे संबन्धों का जितना नुकसान होगा, उससे अधिक लाभ होगा. और कुछ जोखिम तो उठाने ही होंगे. जैसा कि ओम जी ने इस लेख में उठाया है. कोई कह सकता है कि मैं क्यों नहीं यह काम शुरू कर देता हूँ तो मुझे यह स्वीकार करने में कोई हिचक नहीं है कि मेरी कविता की समझ इतनी अधिक नहीं है कि मैं आलोचक ही बन बैठूँ. बस कविताओं का एक आम पाठक भर हूँ.
२) भारत भूषण सम्मान प्राप्त कवि कुमार अनुपम के बारे में ओम जी ने लिखा है. वे मेरे मित्र भी हैं. 'बारिश मेरा घर' मेरे पास है. पर परसों ही लखनऊ से प्रकाशित होने वाली एक नयी पत्रिका 'समकालीन सरोकार' जिसके संपादक हरे प्रकाश उपाध्याय हैं, का चौथा अंक मुझे डाक से मिला. मैंने इसे उलट-पुलट कर देखना शुरू किया. इस पत्रिका का आवरण कथा है 'साहित्य में भ्रष्टाचार.' और इसके पहले लेख का शीर्षक है 'नकल पैरोडी की अनुपम कला' और इसमें कुमार अनुपम पर बहुत सारे आरोप लगाए गए हैं. सबसे बड़ा आरोप साहित्यिक चोरी का है और बहुत सारे उदाहरण देकर यह साबित करने का प्रयास किया गया है, कि कुमार अनुपम ने बहुत सारे रचनाकारों की बहुत खूबसूरत चोरी या नक़ल की है. यह लेख पढ़ कर मैं शाक्ड था. मैं चाहता हूँ कि कुमार अनुपम जी अगर इस बारे में जवाब दें तो अधिक बेहतर होगा. लेख के लेखक का नाम है चंद्रेश्वर और ऐसा लगता है कि चंद्रेश्वर कुमार अनुपम को अच्छी तरह से जानते हैं. लेख को पढ़ कर यह महसूस होता है कि लेखक को अनुपम से कुछ व्यक्तिगत खुन्नस अवश्य है पर लेखक ने जो प्रमाण दिए हैं उसे सहसा रिजेक्ट भी नहीं किया जा सकता.
३) ओम जी, इसे व्यक्तिगत न लें और यदि बुरा लगे तो मुझे अपना अनुज समझ कर माफ़ करें, पर इस लेख में प्रकाशित संग्रहों पर ओम जी ने जितनी तल्लीनता से बात की है, ब्लॉग के कवियों और कविताओं पर उनकी दृष्टि उस अनुपात में संकुचित लगती है. पिछले वर्ष ब्लॉगस पर प्रकाशित बहुत सारे कवियों / कवियित्रियों का उन्होंने उल्लेख तक नहीं किया है. मैं किसी विशेष कवि या कवियित्री का पक्ष नहीं ले रहा हूँ और इसीलिए किसी का नाम यहाँ नहीं लिख रहा हूँ. एक बार फिर से माफ़ी, पर कई बार लगता है कि ऐसा जानबूझ कर किया गया है. एक बात और यह लगती है कि ब्लॉग के कवियों पर बात करते हुए शायद ओम जी ने केवल वर्ष के उत्तरार्ध में प्रकाशित कवियों का ही उल्लेख किया है.
जवाब देंहटाएं४) अरुण देव जी से एक निवेदन...अगर संभव है तो दो पोस्ट के बीच कुछ गैप रखें.अभी हम एक पोस्ट पढ़ कर कुछ लिख भी नहीं पाते कि दूसरी पोस्ट आ जाती है और कभी-कभी कई दिन तक कोई पोस्ट नहीं आती. अभी मैं परितोष मणि जी का हिंदी ब्लॉग पर लिखे गए लेख को ठीक से पढ़ भी नहीं पाया था कि यह पोस्ट आ गयी. मेरे ख्याल से बेहतर यह होगा कि सप्ताह के किसी एक निश्चित दिन ही पोस्ट डालें जाएँ. बहरहाल यह मेरा ख्याल भर है. मुझे ठीक से नहीं पता कि ब्लॉग को चलाने में कितनी कठिनाइयों और दबावों का सामना करना पड़ता है.
लिखना और भी बहुत कुछ है पर अभी केवल ओम जी और अरुण जी दोनों का आभार, इस लेख के लिए. बहुत बहुत शुक्रिया!
बहुत ही महत्त्वपूर्ण समसामयिक विश्लेषणात्मक आलोचनात्मक दस्तावेज़
जवाब देंहटाएंबड़ी मेहनत से लिखा गया आलेख है पढ़कर मजा आया। धन्यवाद ओम निश्चल जी को
जवाब देंहटाएंसईद अयूब जी। आपकी टिप्पणी ने मुझे ढाढस बंधाया हे। आपका कहना सही है कि ब्लाग्स और बेब को बहुत खंगाला नही है। वह भी होगा। उससे कोई पथ्य परहेज नही है। पर वहॉं नही जाता तो गीत ,अरुण,प्रेम, नीलोत्पल, अंबरा रंजन पांडेय, प्रभात और कई युवा कवियों के निकट कैसे पहुंचता। याद रहे कि बिहार की साक्ष्य पत्रिका में बिना कोई संग्रह छपे गीत की कुछ फोटोस्टेट कविताओं पर मैंने मन से टिप्पणी लिखी थी। अयूबजी उस लेख के आधार के रूप में पत्रिका के संपादक ने कुछ नए कवियों की कविताऍं मुहेया करायी थीं, कुछ मैंने समाविष्ट की थीं ताकि मामला केवल बिहार की स्थानीयता तक सीमित न रहे। उस लेख का शीर्षक था: भाषा में बह आई फूल मालाऍं: युवा कविता के कुछ रूपाकार। जो कविता को इस संज्ञा से नवाजता हो, उसकी रसिकता पर संदेह नही करना चाहिए। हॉं मूल्यांकन में ढिलवाही या सख्ती पर बात की जा सकती है। हो सकता है किसी मूल्यांकन में तार ज्यादा कसे हों या कुछ कृपांक की पेशकश की गयी हो सकती है। पर जब हम देवीप्रसाद मिश्र या गीत चतुर्वेदी की कविता के सम्मुख अन्य युवा कवियों को रखते- परखते हैं तो हमें बहुत सतर्क रहना पड़ता है। कोई बहुत नया कवि बड़ी उठान के साथ केंद्र में दमक रहा होता है, आप न्यायिक होते हुए यहां वरिष्ठताक्रम से पेश नही आ सकते। आपकेा उस आती हुई आहट को सुनना ही होगा।
जवाब देंहटाएंअयूब भाई, बेब की दुनिया में अभी मुझे उतरना है केवल सैर के वास्ते नहीं, कुछ पाने कुछ समझने कुछ रचने के वास्ते। यह ऐसा कुँआ है जिसमें जितनी गहराई मे जाओंगे उतना मीठा जल पीने को मिलेगा। अयूब, आपकी संजीदगी से वाकिफ हूँ, सुदूर हूँ दिल्ली से लेकिन रचना सहकार की दृष्टि से नातिदूर। हम नवग्रह पूजन या सर्वदेवेभ्यो -देवीभ्यो नम: पर उतरते तो बात बिगड़ जाती। हमने अभी बेव के कुछ नायाब हीरों को ही उठाया है, उसमें पसरे झाग की व्याख्या नही की है। हमें ऐसे हीरों की सतत तलाश रहेगी रोशनी पाने के लिए तथा इसके लिए उस गह्वर में प्रवेश की आकांक्षा रहेगी जिसकी खेाज में हम निकले तो थे पर कुछ खंदकों,खाइयों तक भटक कर लौट आए।
main kavita ka achha paathak nahin hoon, par om ji ke is lekh ko padh kar kavitaon mein dilchaspi jagti hai. aalochnaa ki isse badi safaltaa aur kya ho sakti hai! iske liye Om ji aur Samaalochan ko dhanyawaad!
जवाब देंहटाएंबहुत बारीकी और मेहनत से लिखा गया आलेख |ओम् जी के लेख खोज परख और विश्लेषणात्मक होते हैं |उनमे कहीं भी अगम्भीरता का उथलापन नहीं दिखता |प्रस्तुत विश्लेषण में एक निष्पक्ष साफगोई ,गहन अध्ययन और एक परिपक्व समझ और परख है | कवि कथाकार,समीक्षक या फिर पाठक ही हो,हर व्यक्ति के अपने अनुभव और तर्क होते हैं एक दूसरे से अलग इसलिए हर कृति पर उनकी अभिव्यक्ति भी अलग होती है |जैसा कि उपर्लिखित टिप्पणियों से ज़ाहिर है | नेपथ्य में पूर्वाग्रहों को भी नज़रंदाज़ नहीं किया जा सकता |बहरहाल ...आलेख से संदर्भित स्थापित कवि गणों/बुद्धिजीवियों की महत्वपूर्ण टिप्पणियों के बाद कुछ मत-भिन्नताएं एक पाठक की द्रष्टि से मुझे लग रही हैं जिन्हें मै रखना चाहती हूं जैसे (१)-पहले से लगभग चौथे खंड तक आपने रद्दी कविताओं (पल्प-साहित्य)से सम्बंधित कुछ उदाहरण और अनुभव प्रस्तुत किये हैं |एक तटस्थ पाठक के अनुभव के आधार के तहत इतना ही कह सकते हैं कि ये असम्भव है कि किसी भी विधा में सिर्फ तथाकथित उत्कृष्ट और स्तरीय रचनाएँ ही लिखी जाएँ दूसरे, हर तरह की रचनाओं को पढ़ने वाला अलग पाठक वर्ग होता है जैसे कोई अश्लील फिल्म या गीत एक खास वर्ग को अश्लील लगता है वहीं एक दूसरे वर्ग को लाज़वाब ,या कोई मोर्डन आर्ट (पेंटिंग)एक के लिए बेहद मानीखेज और अद्विती है तो दूसरे के लिए अर्थहीन और बेकार...कहने का तात्पर्य यही कि जो कवितायेँ किसी एक वर्ग को प्रभावित करती हैं वहीं किसी अन्य पाठक को वे अजीबोगरीब लग सकती हैं |इसके लिए ना पत्रिकाओं और ना किसी ब्लॉग को दोषी ठहराया जा सकता है (बावजूद इसके कि फेस्बूकीय कविताओं की पठनीयता और प्रसंशा कवि की मित्र संख्या पर निर्भर करती है |) (२)-जो श्रेष्ठ हैं वो श्रेष्ठ ही कही जायेंगी यानी एक तटस्थता के साथ किसी ''योग्य'' व्यक्ति द्वारा की गई समीक्षा या आलोचना अपना अलग महत्व रखती है (लाइक और टिप्पणियों की कसीदेदार भाषा से अलहदा )गीत चतुर्वेदी,कुमार अनुपम,विनोद शुक्ल,अरुण देव ,आदि इन्ही उत्कृष्ट कवियों की श्रेणी में आते हैं लेकिन नरेंद्र जैन के बारे में ओम् जी और राजेश जोशी के कवि-पक्ष में विमल कुमार जी या अन्य की टिप्पणियां समझ में नहीं आईं |उसकी अगली ही पंक्ति में आलोक धन्वा के लियी की गई टिप्पणी भी |किसी भी कवि की किसी एक कविता या कुछ कविताओं के आधार पर उनके आरोप तय नहीं किये जाने चाहिए |(३)-जहाँ तक ''कवियों की बाढ़ '' या कविता के स्तर पर संकट का प्रश्न है और यदि इसका इशारा किसी सोशल नेट्वर्किंग साईट की तरफ है तो संभवतः ऐसी ''स्तरहीन कवितायेँ''(?)अपने ब्लॉग पर देने के लिए ना तो ब्लॉग मालिकों और ना ही कवियों को दोष देना ठीक है क्यूँ कि ये माध्यम पूर्णतः अभिव्यक्ति को प्रोत्साहित करने वाला माध्यम है इस सुविधा के साथ कि किस कृति को पढ़े और किसे नहीं !(४)-ब्लोग्स पर अनेकों नए पुराने कवियों की बहुत अच्छी रचनाएँ भी पढ़ी जाती हैं जिनका प्रस्तुत लेख में विस्तृत ज़िक्र नहीं किया गया है ,यद्यपि लेख में अनेक कवियों और उनकी उत्कृष्ट रचनाओं किताबों आदि का ज़िक्र है जिसमे ओम् जी का शोध और मेहनत दिखाई देती है |ओम् सर,आप श्रद्धेय हैं हमारे कृपया किसी भी बात को अन्यथा ना लें |बहुत धन्यवाद अरुण जी और ओम् जी को इस अद्भुत और गंभीर विश्लेष्णात्मक लेख को शेयर करने के लिए
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वंदना जी। आपकी प्रतिक्रिया पढ़ी। ध्यान से लिखा है आपने अपने प्रेक्षणों के साथ। आपने ठीक लिखा है कि एक ही रचना का असर भिन्न भिन्न पाठक समुदायों पर भिन्न भिन्न तरीके से पड़ता है। भिन्न रुचिर्हिलोंक:। यह तो स्वाभाविक है। मेरे आग्रह भी दूसरों को पूर्वग्रह लग सकते हैं, स्वाभाविक हैं। पर पढते पढते एक विचारणा तो बनती ही है।
जवाब देंहटाएंजहॉं तक नरेन्द्र जैन जी के बारे मे मेरे मत का उल्लेख आपने किया है, अब भी सहमत हूँ कि उनके लगभग सभी संग्रहों का पाठक होने के नाते इस संग्रह की कविताऍं मुझे कम छू सकीं। शायद कभी इस पर विस्तार से लिखते हुए सोदाहरण अपनी बात रख सकूँ। सराय में एक दिन, या काला में सफेद प्रविष्ट होता है जैसे बेहतरीन संग्रहों की तुलना में इन कविताओं में मुझे कुछ कमी-सी महसूस हुई। यों, उनके कवित्व की श्रेष्ठता से इन्कार बिल्कुल नहीं है। हॉं, मैंने 'अहसासेकमतरी' की ही बात की है, जैसा मुझे महसूस हुआ। आपने यदि संग्रह देखा पढ़ा हो तो हो सकता है,उसकी झंकृति आपके मन में किसी और तरह बजती सुन पड़ती हो। आलोक धन्वा पर मेरी टिप्पणी सकारात्मक है। उनके एक संग्रह के बावजूद उनका कवित्व गर्व करने लायक है। उनकी हाल तक की कविताओं में उनकी आत्मा की झंकार सुनाई देती है। मैंने उनकी कविताओं में मर्मस्पर्शिता के गुणों को रेखांकित किया है तथा आलेख का समाहार करते हुए एक ही संग्रह के बलबूते महफिलें लूटने का जिक्र भी।
जहॉ तक बेवदुनिया के कविता-परिदृश्य की बात है,बेवदुनिया या नेट पर उपस्थित कविताओं का गहन अवगाहन नही किया है,पर कुछ चुनिंदा ब्लाग्स या बेव पत्रिकाओं को तो खँगाला ही है और जिन कविताओं या कवियों का हवाला दिया है, वे निश्चय ही ध्यातव्य हैं। यह एक बडी दुनिया है और इसकी महत्ता से इन्कार नहीं है। इसलिए इस अवलोकन को सांकेतिक ही माना जाए,समग्र नहीं।औसत का बोलबाला कहॉं नही होता।हर समय कोई श्रेष्ठतम ही नहीं लिख रहा होता। वह औसत भी लिखता है। हमेशा शिखर पर कौन टिका रह पाता है ?
आपने इसे पढ़ने की जहमत उठाई, इसके लिए आभार।
साहित्य में निरंतर आ रही नयी कविताओं और प्रवत्तियों को रेखांकित और सूचीबद्ध करना आसान नहीं होता ..ऐसे हर प्रयास की अपनी सीमायें होती हैं ..स्वाभाविक है कोई एक व्यक्ति सारे काम नहीं कर सकता .किसी से कुछ छूट भी सकता है करने वाले की अपनी पसंद -नापसंद भी हो सकती है .शायद यह उसका अधिकार भी है .ओम जी का यह काम स्तुत्य है और इसे इसी परिप्रेक्ष्य मैं देखा जाना चाहिए लमही जैसी अव्यवसायिक पत्रिका के लिए किया गया यह काम व्यावसायिक तो नहीं ही है .ओम जी को साधुवाद और अरुण का आभार
जवाब देंहटाएंधन्यवाद ओम् सर ,लेख निस्संदेह पठनीय बल्कि संग्रहणीय है |आपने जो उदाहरण प्रस्तुत किये उनसे सहमत हूं |कविताओं,कवियों और किताबों को सूचीबद्ध करना और फिर उन पर टिप्पणी वस्तुतः बेहद श्रम और एकाग्रता का विषय है जिसके लिए आपको साधुवाद |
जवाब देंहटाएंवंदना जी, यह आश्वस्ति जरूर होनी चाहिए कि यह स्तरीयता का आकलन है,समावेशिता का भी। कवियों का आलोचकों आस्वादकों से कोई प्रतिपक्ष का नाता नही है, वह सहकार और मैत्री का होता है। जैसे कवियों को प्रजापति कह कर उसे कुछ भी कहने की स्वतंत्रता है, वैसी ही आजादी समीक्षक व आलोचक को होनी चाहिए कि वह मित्र कवि पर भी,यदि उसकी रचना दो कौड़ी की है तो उसे कहने में संकोच न करे। आलोचना यदि शांतिपाठ की कार्रवाई बन जाए तो उसका कोई अर्थ नहीं। जो इसे शांतिपाठ और सर्वसहमतिवाद में बदलना चाहते हैं,उन्हें आजादी है। वे ऐसा करें। पर याद रहे, सैकड़ों कद्दावर कवियों के होते हुए नामवर जी ने 'कविता के नए प्रतिमान' के लिए केवल कुछ चुनिंदा कवियों को ही आधार बनाया। कवियों की जनगणना पर या सूचीयन पर नही उतरे। कल ही शाम डॉ.बोधिसत्व का संदेश आया है । उनके एक अभिमत पर प्रतिकूल टिप्प्णी होते हुए भी उन्होंने लिखा है: ''आज पढ़ पाया हूँ। परिपूर्ण लेख। शुक्रवार वाला लेख आज पढ़ूँगा।''
जवाब देंहटाएंएक संदेश सुपरिचित कवि अनूप सेठी जी का:
जवाब देंहटाएंAnup Sethi
11:07 AM (29 minutes ago)
प्रिय ओम जी,
समालोचन पर साल भर की कविता का आपका आकलन देखा. बड़ा कम्प्रीहेंसिव लेख है. हिंदी कविता का मिजाज आपने पकड़ा है. ब्लागों का भी नोटिस लिया है. बहसों पर भी नजर डाली है. पर लगता है मुंबई की पत्रिका 'चिंतनदिशा' में चली बहस ने आपको इतना प्रेरित नहीं किया. आपकी टिप्पणी से इसे थोड़ी दिशा मिल जाती. हालांकि यह भी पता नहीं कि आप तक 'चिंतनदिशा' पहुंचती भी है या नहीं.
हार्दिक शुभकामनाएं
Om Nishchal
11:36 AM (0 minutes ago)
to Anup
नही वह नही पहुंचती। ब्लाग्स पर बहुत दूर तक नहीं जा पाया। साल भर पढी पोस्टस का सम्यक हिसाब नहीं रख पाया। बेब की दुनिया अब बहुत बड़ी हो गयी है। यों कुछ प्रतिनिधि स्वर तो आ सके हैं पर नए स्वरों के लिए धीरज चाहिए। इस पर अलग से विस्तार से लिखने पर ही बात बनेगी। आप कुशल होंगे, ऐसी आशा करता हूँ।
ओम निश्चल
ताकि सनद रहे: मोबाइल पर प्राप्त संदेश
जवाब देंहटाएं।। प्रांजल धर ।।
'माननीय,
आपने समालोचन पर कविता इस साल नामक जो लेख लिखा है, वो वाकई बेजोड़ है। बधाइयॉं'
Aalochana aur teekhee honi chahiye.sahitya ka hit isi mein hai.mehnat se likhe aalekh ke liye dhanyavaad. - kamal jeet Choudhary ( j and k )
जवाब देंहटाएंकमल जी, आपका कहना सही है। यह आलोचनात्मक आलेख न हो कर सामान्य वार्षिक प्रेक्षण है कविता पर इसलिए ज्यादा क्रिटिकल नहीं हुआ जा सकता था। इसके भीतर डाक्यूमेंटेशन है,सौम्य अनुशीलन भी। बहुत सख्त होता तो दसाधिक संग्रहों से ज्यादा केंद्र में नही होते।
जवाब देंहटाएंकाव्य-पाठ का सतत ऐसी सजग और वर्ष-पर्यन्त की निरंतरता इस लेख और उसके लेख को प्रशंसनीय बनाती है .
जवाब देंहटाएंप्रिन्ट-मीडिया जैसी जगह की तंग-दिली न होने से भी इंटरनेट माध्यम की उपयोगिता इस तरह के लेखों के लिए ध्यान आकर्षित करती है
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