माँ
कुछ
असमाप्त प्रसंग
सुभाष
गाताडे
यादें
जिन्हें
पालते हैं हम
आंखों
में
ईजिप्शियन
ममीज की तरह
स्मृति और विस्मृति गोया आपस में लुका छिपी का खेल खेलती हैं.
कब
मन की किस परत के नीचे दशकों से दबी कोई बात अचानक नमूदार हो जाएगी, बिना दस्तक दिए दरवाजे के धड़ाम से खोलते हुए स्मृतियों के आंगन में दाखिल
हो जाएगी और कब यादों के अंतहीन लगने वाले झुरमुट में लम्बे समय से टिमटिमाती,
कौंधती कोई घटना विस्मृति के अंतहीन लगने वाले खोह में समा जाएगी
कहा नहीं जा सकता.
आज
मां- जिसे हम आई कह कर पुकारते थे- के न रहने के चौंतीस साल बाद उसके बारे में गुफ्तगू
कर रहा हूं तो किसी प्रपात की तरह मन को आप्लावित करती तमाम बातें याद आ रही हैं-
आप
कभी छोटे बच्चों के किसी स्कूल के गेट के सामने उस वक्त खड़े हुए हैं जब स्कूल
छूटने को होता है और बच्चों की भीड़ घंटी बजने का इंतज़ार कर रही बेचैन होती जा रही
होती है!
बच्चे
इन्तज़ार करते रहते हैं कि स्कूल का दरवाज़ा खुले और वे सभी- जो गोया एक अदृश्य बंधन
में जकड़े हुए थे- बेसाख्ता घरों की ओर दौड़ पड़े?
आप
ने गौर किया होगा कि जैसे ही घंटी बजती है और गेट खुलता है, तमाम बच्चे गोया एक दूसरे को लांघते, धकियाते आगे
निकलने की कोशिश में जुट जाते हैं, वह यह तय करने की
मनःस्थिति में भी नहीं होते कि इस आपाधापी में सभी एक दूसरे की रफ्तार को धीमा ही
कर रहे हैं.
मां
को लेकर जो यादों का रेला आ रहा है वह इसी तरह एक दूसरे को पीछे धकियाते हुए आगे
बढ़ने की कोशिश में है.
कहां
से शुरू करूं?
१.
चलिए
‘पहली’ ही याद से शुरू करता हूं..
आप
पूछेंगे कि ‘पहली याद’ ?
यूं
तो मैं आप से भी जानना चाहूंगा, उन सभी से पहले ही माफी के साथ जिन्हें विभिन्न
कारणों से मां का साया नसीब नहीं हुआ, जो अबोधावस्था में ही
मां से बिछुड़ गए, कि अपनी मां की पहली कौनसी याद आप के अपने मन में अंकित है.
एक
छोटा-सा प्रसंग है जो एक झलकी की तरह कई बार मन की आंखों के सामने उपस्थित हो जाता
है.
पहले
लगता था कि उस प्रसंग में सच्चाई का कोई पुट न हो और वह महज एक आभास हो, भुला दिए गए किसी सपने का हिस्सा हो. हालांकि आई के रहते हुए ही बात-बात
में मैंने उससे इस प्रसंग के बारे में पूछा था और उसने भी उस प्रसंग की पुष्टि कर
दी थी.
उन दिनों
सेन्ट्रल एक्साइज विभाग में इन्स्पेक्टर के तौर पर काम कर रहे पिताजी- जिन्हें हम
‘बाबा’ नाम से संबोधित करते थे- का तबादला कोंकण क्षेत्र के मुरूड में हुआ था.
प्रसंग इतना ही है कि निचले तल्ले के एक मकान के गलियारे में मैं बैठा हूं, मां पीछे बैठी है, और घर के गेट के बाहर एक बेहद गरीब आदमी कुछ मांगने की मुद्रा में खड़ा है,
न मां की शक्ल दिख रही है, न उस गरीब आदमी की
शक्ल ठीक से दिख रही है. वह व्यक्ति विकलांग है, जिसे
‘लोल्या’ कह कर संबोधित किया जाता है.
मैं
दावे के साथ इसकी वजह बता नहीं सकता कि आखिर क्यों मुझे लोल्या याद रह गया और दो
तीन साल की उम्र का कोई अन्य प्रसंग याद नहीं रहा. हो सकता है कि जिद्दी व्यवहार
कर रहे बच्चे को जिस तरह चुप कराने के लिए किसी फकीर या किसी बाबा का सहारा लिया
जाता हो उसी अंदाज़ में मां ने लोल्या का नाम लिया हो !
कहना
मुश्किल है?
उसके
बाद सोलापुर की हमारी रिहायश की भी याद है, जो पिताजी के अपने
मौसा का ही मकान था, जहां हम किरायेदार के तौर पर पहली मंज़िल
पर रहते थे, उन
दिनों मैं ‘बटाटेसोलू’ के तौर पर परिवार में ‘मशहूर’ था. बटाटेसोलू का मतलब आलू
छीलनेवाला. मां सब्जी के लिए या अन्य किसी काम के लिए आलू उबालती थी और कीचन में
आसपास मंडरा रहे मुझे आलू छीलने का काम दे देती थी, जिस काम
को मैं ईमानदारी से पूरा करता था. उबले आलू छीलने में एक यह इन्सेन्टिव भी रहता था
कि मां की नज़र चुरा कर एकाध आलू तुरंत मुंह में डाल लें. 61-62 में हम पुणे पहुंचे
थे- जब हम चार-पांच साल के थे, बड़ी बहन रेखा मुझ से पांच साल
बड़ी थी और भाई सुनील तीन साल बड़े थे.
दो
छोटे कमरों का मकान किराये पर लिया गया था. 35 रूपये प्रति माह किराया. जिसे हम
लिविंग रूम कम बेडरूम कम स्टडी कह सकते हैं कि वह इतना ही बड़ा था कि पांच लोग सो
जाएं तो जगह नहीं बचती थी क्योंकि उसके एक किनारे अलमारी, टेबिल लगा हुआ था. कोई छठवां व्यक्ति घर पर आता तो सोने के लिए किचन को ही
विस्तारित बेडरूम का रूप दिया जाता था.
किराये
का मकान आदमाणे जी का था, जिनका पुराना मकान था
और जिस मकान में- जिसे वाडा कहते हैं- कई अन्य किरायेदार भी थे. पड़ोसी शाह थे,
उनके बगल में हणमशेट, मकान के पिछवाडे कुएं
तथा पारिजात के पेड़ के पास शेकदार और पाठक, और मुख्य गेट के
पास पुंडे रहा करते थे.
बड़ी
बहन और भाई का दाखिला घर से पांच सात मिनट पैदल पूरी पर स्थित आदर्श विद्या मंदिर में
हुआ था और अपुन को किराये के उस मकान के बगल के मकान में स्थित बाल गोपाल विद्या
मंदिर में एडमिशन दिलाया गया था.
मैं
पहले ही इस बात की चर्चा कर चुका हूं कि जब बड़े भाई बहन की स्कूल की कभी-कभी छुट्टी
होती थी और मेरा स्कूल चलता रहता था तब मैं ऐलान कर देता था कि मेरे भी स्कूल की छुट्टी
है और घर की खिड़की से अपने स्कूल को निहारता रहता था जहां मैडम- जिन्हें बाई कह कर
संबोधित किया जाता है- पढ़ा रही होती थी.
न आई
इस पर कुछ कहती, ना बाबा जोर देते कि तुम्हारा स्कूल जाना जरूरी है और
हम स्कूल से इस फ्रेंच लीव को एन्जॉय करते.
२.
‘भूख
लागता पाट मांडूनी
देई
रडता, एक ठेवूनी
ती
माझी आई
किती
हो आई माझी गुणी.’
(भूख
लगने पर मेरे लिए खाना लगाती, रो देने पर कान
उमेठती, वह मेरी मां, मेरी मां कितनी
गुणवान)
शायद
मैं तीसरी चौथी में था, जब मैंने यह चार लाइनें लिखी थीं
यह
लाइनें अचानक मेरे जेहन में किस तरह आयीं, अभी पूरी तरह याद
नहीं है. किसी किताब में एक ऐसी ही कोई रचना मैंने शायद पढ़ी थी और उसी तर्ज पर यह
कविता लिखी थी.
लेकिन
मुझे याद है कि मेरी इस ‘पहली रचना’ (?) पर घर में कितनी खुशी का वातावरण था. घर
में आने वाले रिश्तेदारों के सामने या पिता के दोस्तों के बीच मेरे इस ‘काव्य पाठ’
का कार्यक्रम होता था.
वही
हाल बड़े भाई के अख़बार पढ़ने का था. सुनील को बचपन में ही अख़बार पढ़ने में रुचि
पैदा हुई थी, और इस रुचि का रिश्तेदारों एवं पिता के दोस्तों
मित्रों में जरूर जिक्र होता था.
उस
वक्त़ इस बात का अन्दाज़ा लगाना मुश्किल था कि वह ताउम्र लेखक-पत्रकार के तौर पर
सक्रिय रहेंगे.
आम
तौर पर सभी बच्चे चित्रकला या ऐसी ही अन्य कलाओं में रुचि रखते हैं, लेकिन जब मैंने पेंटिंग करना शुरू किया तो मेरी प्रथम रचना की तरह उसकी
चर्चा होने लगी.
चित्रकला
में मेरे लिए एक ट्यूशन का इंतज़ाम किया गया. यूं तो हमारी आर्थिक स्थिति इतनी
अच्छी नहीं थी कि ट्यूशन के लिए आसानी से पैसे निकाले जाते. पिता अकेले कमाने वाले
थे और हम सभी निर्भर थे. उन दिनों तनख्वाह भी अधिक नहीं होती थी.
यूं
तो जिस सरकारी महकमे में बाबा काम करते थे, वह महकमा ‘उपर की
कमाई’ के लिए कुख्यात है, लेकिन पिता के मूल्य इस मामले में
अनुकरणीय थे, उन्होंने उस पथ का अनुगमन नहीं किया.
मुझे
याद है मौसी के घर जाने के लिए बस का एक आने का किराया लगता था. जाते वक्त हम बस
से जाते, लेकिन वापसी में पैदल ही घर आते. मां कहती वापसी में
बस मिलने में दिक्कत होती है- जबकि यह बात अपने आप में तर्क से परे थी- और हम भी
उसकी बात पर पूरी तरह यकीन करके पैदल घर को लौटते. इस तरह चार आने बच जाते.
इन
सबके बावजूद आई मुझे खुद आपटे सर के यहां ले गयी, जो किसी स्कूल में
चित्रकला पढ़ाते थे.
संतानों
को किस तरह प्रोत्साहित करना है, उसकी एक अलग कला
आई-बाबा के पास थी.
यहां
तक कि दीवाली के आसपास अपने सेकेण्डरी स्कूल में टाटा कम्पनी से जुड़ी किसी एजेंसी
की तरफ से बच्चों के जरिए तेल-साबुन-तथा अन्य चीजों की बिक्री के लिए एक
प्रतियोगिता का आयोजन किया जाता था. विद्यार्थी अपने रिश्तेदारों-परिचितों के पास
जाकर इस सामान को बेचते. इस तरह उनका आत्मविश्वास भी बनता और उन्हें सौ रुपए की
बिक्री पर एक आना कमीशन मिलता था.
बाबा
उन दिनों रोज पुणे-मुंबई जाया करते थे, 66-67 के आसपास उनका
मुंबई तबादला हुआ था, लेकिन बच्चों की पढ़ाई प्रभावित न हो
इसलिए उन्होंने यह सिलसिला शुरू किया था, जिसे उन्होंने बारह
साल तक चलाया. रोज सुबह वह घर से साइकिल से पुणे के शिवाजीनगर स्टेशन के लिए
निकलते और वहां से मुंबई की ट्रेन पकड़ते और रात को लौट आते. कई बार उन्हें लौटने
में देर भी हो जाती, लेकिन दूसरे दिन मुंबई जाना ही होता था.
अपनी
संतानों को प्रोत्साहित करने का यही जुनून था कि मुंबई के अपने दफ्तर के सहयोगियों
से भी वह ऑर्डर ले आते और हम यहां से पैक करके वहां भेजते थे.
आज
हम कल्पना ही कर सकते हैं कि सुगंधित तेल की बोतलें, या अच्छे किस्म के
साबुन तथा दीवाली के लिए जरूरी ऐसी ही चीजें अपने बैग में पैक करके साइकिल से
शिवाजीनगर स्टेशन ले जाना, वहां से ट्रेन पकड़ना और फिर मुंबई
पहुंच कर किसी लोकल ट्रेन से अपने दफतर पहुंचने का काम निश्चित ही आसान नहीं था,
लेकिन पहले सुनील फिर मेरे लिए वह खुशी-खुशी करते रहे.
(painting- jamini roy) |
३.
पांचवीं
कक्षा में नूतन मराठी विद्यालय में- जो सिर्फ लड़कों का स्कूल था- मेरा एडमिशन हुआ.
सुनील पहले से ही वहां पढ़ता था.
स्कूल
में हिंदुत्व के विचारों को मानने वाले कई अध्यापक थे. कोई मेहेंदले सर हुआ करते
थे, वह स्कूल में भी गणवेश की काली टोपी पहन कर आते थे. कभी-कभी
वह आई बाबा से मिलने घर भी आते थे.
मेरे
एक अन्य अध्यापक थे- कोई कुलकर्णी नाम से थे. मराठी पढ़ाते थे, मगर बात-बात में कई महापुरुषों का नाम लेकर समुदाय विशेष के बारे में
एकांगी चित्र खींचते थे, उनके ‘हिंसक’ होने के किस्से सुनाते
थे.
गनीमत
थी कि आई-बाबा से नियमित संवाद होता था. मैं अपनी नोटबुक निकाल कर बाबा से
कुलकर्णी सर के कथनों को उद्धृत कर बहस करने की कोशिश करता और वह समझाते कि मैं
सही नहीं सोच रहा हूं.
आई
धार्मिक विचारों की थी, लेकिन अपने समय के सर्व-धर्म-समभाव
की छाप उसके मन में थी, इसलिए वह हमें मंदिरों में भी ले
जाती और कभी-कभी कुछ दरगाहों पर भी ले जाती. शायद उसके लिए सभी ईश्वर के स्थान थे.
यह
दोनों के स्वभाव का सम्मिलित प्रभाव था, और वे ताउम्र धर्मनिरपेक्षता के मूल्यों
पर अडिग रहे और नेहरू के मुरीद रहे पिता के साथ चली लंबी चर्चाओं का प्रतिफलन था
कि हममें से कोई भी धर्म या जाति केन्द्रित किसी संकीर्ण विचारों का हमराही नहीं
बना, जिसकी पूरी आशंका थी.
४.
आई
से जुड़ा एक किस्सा नहीं भूलता !
मैं
उस वक्त नौ-दस साल का था, जब यौन प्रताड़ना की
शिकार पड़ोसी शाह परिवार की कामवाली बाई- जिसे मराठी में मोलकरिण कहा जाता है- को
‘तुरंत न्याय’ दिलाने का काम किया गया था.
शायद
दोपहर चार बजे का वक्त़ रहा होगा कि जब पड़ोसी शाह परिवार में काम कर रही मोलकरिण
सुंदराबाई (बदला हुआ नाम) ने आकर मां को उसके साथ हुई इस प्रताड़ना का किस्सा
सुनाया था- जिसका जिक्र वह पहले ही मिसेस शाह से कर चुकी थी- कि किस तरह पास के
सब्जी मार्केट में गयी थी- जिसे फुले मंडई के नाम से जाना जाता था- वहां किसी
सब्जीवाले ने उसका हाथ पकड़ कर उसे छेड़ने की कोशिश की थी. सुन कर मां बेहद क्षुब्ध हुई
थीं. उसने शायद हमारे जैसे ही अन्य किरायेदार के तौर पर उस मकान में रह रही अन्य
कुछ महिलाओं से बात की थी- जो उसकी दोस्त थीं- और चंद मिनटों के अन्दर ही
‘सुंदराबाई’ मिसेस शाह, मेरी मां तथा आई की अन्य एक दो
महिला मित्र और पीछे-पीछे हम भाई बहन और किराये के मकान में रह रहे हमारे कुछ
सहमना बच्चों का वह झुंड फुले मार्केट पहुंचा था.
एकरस
जिन्दगी में हम इसी बात से खुश थे कि कुछ एक्साइटमेंट का अवसर है.
सब्जीवाले
ने ऐसे किसी दृश्य की कल्पना ही नहीं की थी कि जिस महिला को उसने छेड़ा था वह
बमुश्किल आधे-एक घंटे के अंदर एक समूह के साथ पहुंचेगी. जाहिर सी बात थी जैसे ही
उस सब्जीवाले के सामने हम पहुंचे, वह अचानक अवाक सा रह
गया था.
सुंदराबाई
ने मां की तरफ देखा था, मेरे लिए यह कहना मुश्किल है कि
मां तथा सुंदराबाई ने एक दूसरे के साथ किसी संदेश का आदान प्रदान किया था या नहीं,
लेकिन अगले ही क्षण मैंने देखा था कि सुंदराबाई ने सब्जीवाले का
कॉलर पकड़ लिया था और उसे तुरंत दो चार झापड़ रसीद किए थे.
बाद
में वह झुंड पास की पुलिस चौकी पर भी गया था और खड़े-खड़े ही उस सब्जीवाले के बारे
में पुलिस को सूचना दी गयी थी.
थोड़ी
ही देर में हम लोगों का वह हुजूम- अपने घरों में लौट आया था.
अंदाज़ा
लगाया जा सकता है कि उस प्रसंग की चर्चा आदमाणे वाडा- जहां हम सभी किरायेदार थे-
उसमें लंबे समय तक चली होगी और लोग इस मामले में मेरी मां की पहल की बात करते रहे
होंगे.
५.
आज
जब साढ़े-तीन दशक बाद आई के बारे में लिखने बैठा हूं तो मैं यह कतई नहीं चाहता हूं
कि उनका कोई अनावश्यक महिमा मंडन करूं, लेकिन फिर भी उनके
जीवन के कुछ प्रसंग इस बात की झलकी जरूर देते हैं कि वह थोड़ी अलग थीं.
आत्मविश्वास
से भरी, व्यावहारिक और बहुत कुछ.
एक
किस्सा बड़ी बहन रेखा बताती है.
उन
दिनों मैंने जनम नहीं लिया था अभी चंद महीनों की ही देरी थी. रेखा और सुनील को साथ
लेकर मां उस स्थान के लिए यात्रा कर रही थी जहां बाबा का तबादला हुआ था. जिस ट्रेन
में वह यात्रा कर रही, उस ट्रेन में अचानक कोई ख़राबी आ गयी. और यात्रियों को
निर्देश दिया गया कि वह बगल में खड़ी एक दूसरी ट्रेन को पकड़े. डिब्बे में बैठे अन्य
यात्री एक-एक करके निकल गए, वहां कोई कुली भी
नहीं मिल रहा था. अचानक रेलवे का कोई आदमी आया और जल्दी मचाने लगा. मां ने उसे
लगभग डांटा कि आप को दिख नहीं रहा है कि मैं दो बच्चों के साथ यात्रा कर रही हूं
और कैसे अचानक पूरा सामान लेकर चल पडूं. रेलवे का वह अधिकारी थोड़ा सहम सा गया. और
फिर उसने आई के लिए कुछ अलग इंतज़ाम करवा कर बगल की गाड़ी में चढ़ने में उसकी मदद की.
मुझे
लगता है कि कहीं न कहीं आधुनिकता के मूल्यों को स्वीकारने के बारे में वह पोजिटिव
थीं.
आई
खुद ग्लास पेंटिंग करती थी. उसकी कुछ पेंटिंग हमारे घर में ही फ्रेम बना कर लगायी
गयी थी. लेकिन वह एक तरह से थोड़ा महंगा शौक था और सीमित आय के चलते मां ने इस शौक
को भुलाना ही मुनासिब समझा होगा.
बड़े
होने पर किसी अन्य रिश्तेदार के साथ बातचीत में आई की बड़ी बहन- जिन्हें हम माई
मौसी के नाम से पुकारते थे- ने इस राज का भी खुलासा किया था कि किस तरह मां परिवार
को सीमित रखना चाहती थी. रेखा, सुनील के जनम के बाद
ही वह इसके बारे में गंभीर थी और प्रस्तुत कलमघिस्सु के पैदा होने के बाद उसने ऐसी
किसी संभावना से बचने के लिए जरूरी आपरेशन भी करवा लिया था.
क्या
यह उस सीमित एक्स्पोजर का नतीजा था, जिसकी अनुगूंजें 42
के भारत छोड़ो आन्दोलन के चलते जगह-जगह सुनायी दी थी या वह स्त्री के जीवन के दोयम
दर्जे के उसके अपने एहसास का प्रतिफलन था, या ऐसी कोई भी बात
नहीं थी.
42
की जब लहर उठी थी तब मेरे एक मामा भी शायद उससे थोड़ा बहुत जुड़ गए थे. इस लहर का एक
गाना आई कभी-कभी सुनाया करती थी.
मेरे
नानाजी ने दो शादियां की थीं. ऐसे प्रसंगों पर कभी परिवारों में बात नहीं होती है, लेकिन मैंने उड़ते-उड़ते यही सुना था कि आई की मां- जिसे हम बार्शी की आई (शाब्दिक
अर्थ बार्शी में रहनेवाली मां) कभी अपने नैहर गयी थी तब नाराज होकर नानाजी ने
दूसरी शादी रचा ली थी. मेरी दूसरी नानी को हम बाई आजी के नाम से पुकारते थे,
उनकी एक-ही संतान थी वसंत अर्फ अण्णामामा.
बाई
आजी स्त्री के जीवन की दुर्दशा पर एक मार्मिक बात कहती थी.
बोलती
थी कि तांगे में सवार लोगों के लिए तो
तांगे की सवारी नयी चीज़ हो सकती है, लेकिन उस घोड़े के लिए
इससे क्या फर्क पड़ता है, उसे तो सभी को ढोना ही है. यही हाल
स्त्री के जीवन का है.
वैसे
आधुनिकता का मां का स्वीकार वर्णाश्रम की चौखट पर रूक जाता था, जिसके अनुगमन के बारे में वह अड़ियल रहती थी.
मुझे
याद है कि कटिंग सैलून से जब हम बाल बना कर लौटते थे तो हमें तुरंत निर्देश होता
था कि हम बाथरूम में घुस जाएं और नहा कर ही निकलें. बचपन में लगता था कि अत्यधिक
स्वच्छता के प्रति आई के आग्रह का नतीजा है, यह सच्चाई बहुत देर
में उजागर हुई कि इसमें मनु के विचारों का प्रतिबिम्बन साफ झलकता है.
मेरे
या सुनील के कोई मित्र आते थे- जिनकी जाति का पता नहीं चलता था- तो उन्हें पानी
पीने के लिए दिए जा रहे गिलास को सीधे मांजने के लिए रखने का आदेश रहता था.
रेखा
को जोर से हंसने की आदत थी. जब भी वह ऐसा हंसती आई तुरंत डांट देती कि ‘लड़कियों को
पराये घर जाना होता है, उन्हें इतना जोर से नहीं हंसना
चाहिए.’
६.
आई
से जुड़ी वह आखिरी याद को भी कैसे भूल सकता हूं जब उसने इस फानी दुनिया से रुखसत ली
थी और वह एक अस्थि कलश के रूप में- जिस घर में उसका सालों से निवास था- वहां
‘मौजूद’ थी.
वाराणसी
से पुणे की वह यात्रा खतम होने का नाम नहीं ले रही थी.
उन
दिनों मैंने इंजीनियरिंग में पीएचडी करने के लिए अपने ही संस्थान- आईटी-बीएचयू में
दाखिला लिया था, पीएचडी प्रवेश के बाद छात्रावास का कमरा उपलब्ध हुआ
था, स्कॉलरशिप भी मिलती थी, यही तय
किया था कि इसी बहाने छात्रों-युवाओं के बीच सामाजिक कामों को बढ़ावा देते रहेंगे.
मैं
कहीं निकला था तो होस्टल के रूम पर तार विभाग वालों ने एक छोटा-सा संदेश दिया था.
अर्जेन्ट मेसेज! तार आफिस में आकर ले जाएं. जल्दी-जल्दी तार ऑफिस पहुंचा. मैंने
महसूस किया कि तार हाथ में सौंपने के पहले काउंटर पर बैठा क्लर्क मुझसे बेहद
आत्मीय होकर बात कर रहा था. ‘बेटे, कहां के रहनेवाले
हो’! शायद वह मुझे उस संदेश के ग्रहण के लिए तैयार कर रहा था जो वह मेरे हाथ में
सौंपने वाला था.
‘मां
नहीं रही.’ तार में लिखा था.
इसके
पहले कि मैं उस सन्देश को जज्ब करता, क्लर्क ने अपनी आत्मीय
बातचीत जारी रखी थी.
पुणे
के अपने घर पहुंचा तो बाबा, रेखा, सुनील के अलावा तमाम आत्मीय एकत्रित थे- बड़े चाचा जिन्हें हम अण्णाकाका
कहते थे, बड़ी चाची, छोटे चाचा- जो
मधुकाका नाम से जाने जाते थे, मालती काकू, बड़े चाचा के बेटे बेटियां किशोर, नंदा, माधुरी, विजय या छोटे चाचा की संतानें मिलिंद,
माधवी, मीना सभी थे.
बाहर
के कमरे से कुर्सियां हटा दी गयी थीं-
दाहिनी
तरफ एक दरीनुमा कुछ बिछा हुआ था- जिस पर बाबा और सुनील बैठे थे- और उनके सामने ही
छोटे-से पैकेट में अस्थियां रखी गयी थीं.
जिस
घर को उसने दशकों से संवारा था, जिस परिवार को संभाला
था, अपनी इच्छाओं का होम करके उसने खड़ा किया था, जहां हर चीज़ में उसके अस्तित्व को महसूस किया जा सकता था अलबत्ता वह वहां
नहीं थी.
मैं
अंदर के कमरे में गया जहां लोहे का पलंग रखा था- जो पिछले लगभग एक दशक से मां का
ठिकाना था, जिसके बगल में नीचे चटाई डाल कर बाबा सोते थे- बिल्कुल
सूना था, शायद उसके उपर माटी का एक दिया रखा था, तेल में डाली बाती से निकलती मंद-मंद रौशनी उसके न रहने के सूने पर दूर
करने का एक असफल प्रयास कर रही थी.
बड़ी
बहन ने सांत्वना देने की कोशिश की, लेकिन उसी के आंसू
निकल आए थे. अपनी नम आंखों को काबू में करने के प्रयास में उसके भी आंसू निकलने
लगे थे.
“सुभाष
तुमने बहुत देर कर दी, आखिरी दिनों में वह तुम्हें बार-बार
याद कर रही थीं.’’
जिसे
भोकार मार कर रोना कहते हैं, वैसे ही रोने का मन
किया, लेकिन चुप ही रहा.
महज
ढाई माह पहले मैं उसी घर में था. जीवन संगिनी के साथ वहां पहुंचा था.
उस वक्त
उसकी तबीयत ढलान पर थी.
लेकिन
संवेदनशीलता की गहरी कमी कह सकते हैं या सामाजिक कामों के प्रति एक जुनूनी किस्म
की यांत्रिक समझदारी का प्रतिबिम्बन कह सकते हैं- जो कभी-कभी मनुष्य को अपने बेहद
आत्मीयों की पीड़ा व्यथा समझने के प्रति भी असम्पृक्त बना देती है- हम दोनों वहां रुके
नहीं थे.
आज
इतने वक्फे बाद पीछे मुड़ कर देखता हूं तो अपने उस व्यवहार के लिए- जो असंवेदनशीलता
से परिपूर्ण था, अमानवीय था- अपने आप को माफ नहीं कर पाता हूं,
एक गहरा अपराध बोध हमेशा ही मन में तारी रहता है.
और
मैं यह भी जानता हूं कि जब तक चेतनावस्था में रहूंगा तब तक वह अपराध बोध साथ-साथ
चलेगा.
मन
अपने आप से हमेशा यह सवाल करता रहेगा कि ‘मैं क्यों नहीं रुका ?’
निश्चित
ही उसकी आसन्न मौत को मैं भले स्थगित नहीं कर पाता, लेकिन कम-से-कम उसे
इस एहसास के साथ मृत्यु के आगोश में जाने से बचा पाता कि तीन संतानें होने के
बावजूद जब आखिरी वक्त़ आया तब वह बेहद अकेली हो गयी थी.
७.
आई
लगभग बारह साल से अधिक वक्त से बीमार चल रही थी.
गठिया
का ऐसा एटैक आया था कि फिर उसका सामान्य जीवन में लौटना नामुमकिन हो गया था. उसने
बिस्तर ही पकड़ लिया था. इसी दौरान बड़ी बहन और भाई की शादी हुई थी, ऐसे दिनों में अधिक स्ट्रोंग दवा खाकर उसने अपने आप को मोबाइल रखा था,
बाकी दिनों में उसने अपना लोहे का बिस्तर छोड़ा नहीं था.
इंजिनीयरिंग
की पढ़ाई के दौरान जब छुट्टियों में घर आता तो देर रात तक उसके पैर दबाता रहता, उसके शरीर में भारी दर्द रहता था.
बड़ी
बहन रेखा शादी होकर नासिक चली गयी थी तो बड़े भाई पीटीआई में पत्रकार के तौर पर
अपनी नौकरी के सिलसिले में दिल्ली चले आए थे.
घर
में आम तौर पर दो लोग ही रहते थे. आई और बाबा.
जिस
सुबह मां का इन्तक़ाल हुआ, उसके चंद रोज़ पहले
बड़ी बहन अपने दफ्तर के किसी काम से पुणे आयी थी. गनीमत यही कही जाएगी कि उसके
अंतिम समय में पिता के अलावा बड़ी बहन साथ में थी.
पुणे
में कुछ दिन रूक कर फिर वापस लौटने को हुआ.
अभी
बाकी सभी रिश्तेदार घर पर ही थे. तेरही की रस्म भी पूरी नहीं हुई थी.
बाबा
ने अस्थियों के कलश की ओर इशारा करते हुए कहा कि ‘वाराणसी जा रहे हो, रास्ते में प्रयाग पड़ता है, उसकी काशी यात्रा की
काफी इच्छा थी, कम-से-कम उसकी अस्थियां’
उनसे
अधिक बोला नहीं गया.
बात-बात
में उन्होंने यह भी जोड़ा कि मैं जानता हूं कि तुम इन सभी बातों में यकीन नहीं करते
हो, नास्तिक हो !
8.
हमारे
बचपन में धार्मिक रही आई अपने जीवन के अंतिम दौर में इन सारी बातों से रफ्ता रफ्ता
दूर होती गयी थी.
ईश्वर, खुदा को माननेवालों के बीच यह आम धारणा होती है कि अगर आप उसकी पूजा करोगे,
नमाज अदा करोगे, पुण्यकर्म करोगे तो इसका फल
तुम्हें मिलेगा.
आई
का चिन्तन भी बुनियादी तौर पर इससे अलग नहीं था. इसके चलते शायद उन्हें इस हक़ीकत
को स्वीकारना कठिन हो चला था कि उनके इतना धार्मिक होने के बावजूद ईश्वर ने उनके
साथ ऐसी ज्यादती क्यों की?
बारह
साल की लम्बी बीमारी के दौरान उसके मन के सामने यह मूलभूत प्रश्न उपस्थित हुआ होगा
कि आखिर जिसे वह पूजती रही हैं, उसका अस्तित्व है या
नहीं. ध्यान रहे इस अंदाज़ में उन्होंने कभी साफ तौर पर रखा नहीं.
हां, धार्मिक कर्मकांडों के प्रति वह लगातार असम्पृक्त होती गयीं.
लेकिन
अपने आखिरी दिनों में उन्होंने जो फैसला सुनाया वह अपने समय से काफी आगे का था.
उन्होंने
देह दान के बारे में कहीं से सुना था. अस्सी के दशक के उत्तरार्द्ध में देह दान या
अंगदान की चर्चा भी अधिक नहीं सुनायी देती थी, लेकिन उन्हें यह
विचार पसंद आया.
और
उन्होंने बाबा को तथा अपने अन्य आत्मीय स्वजनों को अपने इस फैसले की जानकारी दी थी.
जैसा
मैं पहले ही बता चुका हूं कि आई के गुजरने के बाद इस फैसले पर अमल नहीं किया जा
सका था, सिर्फ नेत्र दान किया जा सका था.
9.
मेरे
अपने जीवन के तमाम फैसलों को लेकर- उन्होंने कभी कोई एतराज नहीं जताया- भले ही
उनके अरमान रहे होंगे कि इंजीनियरिंग की डिग्री लेकर मैं अच्छी नौकरी करूंगा और
खूब पैसे कमाऊंगा और किसी सजातीय लड़की से ब्याह रचाऊंगा. इंजीनियरिंग में
स्नातकोत्तर पढाई करने के बाद जब मैंने बताया कि में वाम आंदोलन के लिए ताउम्र काम
करना चाहता हूँ और नौकरी करने की कोई योजना नहीं है तो ना उसने ना ही बाबा ने कोई
एतराज जताया. हाँ, अपनी राय प्रगट करने में उसने संकोच नहीं किया,
वह यही बात कहती कि 'नौकरी करो और आधी तनख्वाह
गरीबों को दे दो'.
प्रस्तुत
कलमघिस्सु के बारे में- जो उनकी सबसे छोटी संतान था- आई को महज एक ही चिन्ता रहती
थी.
वह
यही चिंतित रहती थी कि मैं बेहद चुप्पा हूं. जहां बोलने की जरूरत होती है, वहां भी बोलता नहीं हूं, चुप रह जाता हूं. इस स्थिति
में आज भी कोई गुणात्मक अंतर नहीं आया है.
इसी
के चलते मुझे वह सलाह देती थी कि ‘मुख दुर्बल मत बनो!’ अर्थात ‘चुप्पा मत बनो !’
मुझे
याद है कि आई के जब पीरियडस चलते थे तो तीन दिन के लिए वह ‘दूर’ बैठती थीं.
चौथे
दिन सुबह नहा कर फिर वह दैनंदिन कामकाज में लग जाती थी.
सबसे
छोटा मैं- जिसे बचपन में जब मां से इस अलग तरह के विरह की पीड़ा सताती- उसे इस तीन
दिन के अन्तराल में यह छूट रहती थी कि मैं उनसे गले मिलूं, थोड़ी देर उनकी गोद में बैठूँ.
इतना
लम्बा वक्फा़ हो गया कि सपनों में भी उसका आना सपना बन गया है.
अलबत्ता
मैं कभी मन की आंखों के सामने ऐसे मंज़र का तसव्वुर करता हूं कि मैं फिर एक बार
बच्चा हो गया हूं और आई की गोद में विराजमान हूं ..
और
उसे जोर-जोर से कह रहा हूं कि 'आई देखो मैं अब बोलने
लगा हूं.
आई, आई मैं बोलने लगा हूँ.
खामोश
नहीं रहता.
मैं
अपने आप को एक वीराने में पाता हूं जहां सिर्फ मेरी आवाज़ ही सुनाई दे रही है.
सिर्फ मेरी आवाज़ ही सुनाई दे रही है.
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सुभाष जी ने बहुत अच्छा लिखा है। माँ से अपने रिश्ते में उनकी अपनी भूमिका पर अब आलोचनात्मक नजरिये से विचार, इसे दुर्लभ मार्मिकता देता है। स्मृतियां, व्यक्तित्व को कैसे रचती है और सुदूर विगत कितना करीब और प्रभावित करने वाला होता है, यह भी समझ मे आता है। बारीक तथ्यों का आत्मीय लेखन भी गहराई लेकर आता है। उम्मीद है, सुभाष इस तरह लिखते रहेंगे।
जवाब देंहटाएंमैं महाराष्ट्र में रहा हूं । मुंबई पुणे जैसी जगह मेरी जानी पहचानी है । मराठी भाषा के शब्द आई, बाबा , मोलकरीन सब मेरे बचपन के शब्दकोश में शामिल है। सुभाष गाताड़े जी की स्मृतियों को पढ़ते हुए मुझे इस तरह की कई माताएं दिखाई दे गईं । मुझे यही पर मुक्तिबोध की पत्नी भी दिखाई दे जिन्हें रमेश भैया गिरीश भैया, दिवाकर मुक्तिबोध भैया सब आई कहते थे । और मेरे कई मराठी भाषी मित्रों की भी माताएं है जिन्हें मैं आई कहता था । विचारधारा में हम वामपंथी हो जाएं या किसी परम सत्ता को ना मानने के कारण नास्तिक कहलाए लेकिन हम एक स्त्री की कोख से जन्मे हैं इसे तो नकार ही नहीं सकते । पिता की भूमिका सिर्फ बीज बोने की होती है उसके बाद मां ही हमें जीवित रखती है अपने वक्ष से बहती अमृतधारा का पान करवा कर ।
जवाब देंहटाएंगाताड़े जी की माता के निधन के समय की स्मृतियों को पढ़ते हुए मुझे अपनी मां याद आई मैं भी उनके निधन के बाद उनसे मिलने पहुंचा थाऔर फिर रात भर उनकी मृत देह के पास बैठकर एक कागज कलम लेकर उनसे संवाद करता रहा । वह एक तरफा संवाद बाद में 'मां की मृत देह के पास बैठकर लिखी कविताओं ' के शिल्प में चीन्हा गया ।
मां की स्मृतियों के अस्तित्व को हम अपनी अंतिम सांस तक नहीं नकार सकते यह सत्य है और तथ्य भी।
शरद कोकास
यह संवेदना के धरातल पर एक उम्दा लेख है । जरूर पढ़ा जाना चाहिए । इस लेख को उपलब्ध कराने के लिए समालोचन और अरुण देव जी को बहुत शुक्रिया ।
जवाब देंहटाएंसंवेदनशील मन की बतकहियां,रिश्तों की संरचनात्मकता गढते हुए।
जवाब देंहटाएंमाँ पर लिखे गये इस मार्मिक संस्मरण से सुभाष जी ने एकबार फिर से भाव-विह्वल कर दिया। पहली बार अपने पिता के संस्मरण से। संतानें तो अक्सर चुकती रही हैं अपने कर्तव्य-निर्वहन से, लेकिन किसी ने माँ को चुकते देखा है कभी ? सिर्फ़ आपकी हीं नहीं यह अपराधबोध एक साझा दुख है।
जवाब देंहटाएंयह श्रृंखला पूरी करें सुभाष जी। आपके आत्मसंघर्ष और अभिव्यक्ति की संवेदन- सिक्त शैली से परिचय हो रहा है। अतिरेक के उन दिनों में हमने काफी कुछ खोया है। मां की स्मृति को आदरांजलि !
जवाब देंहटाएंमुझे इस तरह के लेखन की ज़रूरत कई बार महसूस होती है।
जवाब देंहटाएंइससे संकोच में बैठी रह गयी किसी लेखक को बीहड़ में एक पगडंडी सी दिखने लगती है। हो सकता है वह इसपर चल भी न पाए। लेकिन उसकी झलक भर से उसे सुकून मिलता है।
यह दुनिया का सबसे कठिन विषय है , और इसे इतना सरल समझा जाता है कि विश्वास नहीं होता ।
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