अदब में नस्लें कैसे संवारी जाती हैं ? एक बड़ा लेखक किस तरह से अपनी भाषा के युवा से संवाद स्थापित करता है और उसकी खोज़-खबर रखता है ? कैसे वह एक बिसरी रवायत को तलाशता है और उसे जिंदा रखने के जतन करता है? किस तरह से अपनी भाषा के महान कवियों की जगह की अदला-बदली कर देता है और उनमें नये मायने भरता है? अपनी अना के साथ कैसे जिया जाता है?
इस आलेख को पढ़कर जाना जा सकता है. उर्दू के जाने-माने कथाकार और नाटककार रिज़वानुल हक़ ने मरहूम शम्सुर्रहमान फ़ारूक़ी के अदबी महत्व और उनके व्यक्तित्व की परतों को ख़ुलूस के साथ यहाँ खोला है. जैसे कोई दास्ताँ ही हो अंत तक पहुंच कर उदास कर जाने वाली.
शम्सुर्रहमान
फ़ारूक़ी
कुछ बातें, चन्द
यादें
रिज़वानुल
हक़
शम्सुर्रहमान फ़ारूक़ी (30 सितम्बर 1935- 25 दिसम्बर 2020) को भी यह साल 2020 जाते जाते ले गया. वह हमारे ज़माने में उर्दू साहित्य के सूरज (उर्दू में शम्स सूरज को कहते हैं) से कम न थे. जबसे यह साल शुरू हुआ है, न जाने कैसी-कैसी शख़्सियतें हमसे बिछड़ती जा रही हैं, अभी कुछ दिनों पहले मंगलेश डबराल हमसे विदा हुए थे और अब फ़ारूक़ी साहब. पिछले लगभग साठ वषों से वह उर्दू साहित्य के केन्द्र में थे. उनके व्यक्तित्व के कई आयाम थे, मिसाल के तौर पर आलोचक, संपादक, शाइर, कहानीकार, उपन्यासकार, अनुसंधानकर्ता, अनुवादक, भाषाविद वगै़रा. साहित्य और भाषा की लगभग हर मुख्य विधा में उन्होंने न सिर्फ लिखा है, बल्कि अक्सर विधा में उन्होंने ऐसा काम किया है कि वह अगले पिछले लोगों से आगे निकल गये हैं. अब ऐसे शख्स के बारे में क्या लिखा जाए? और कहाँ से शुरू किया जाए? साथ ही क्या कहा जाए और क्या छोड़ा जाए?
इससे
पहले कि फ़ारूक़ी साहब की बौद्धिकता और रचनात्मकता की बात की शुरू की जाए,
बेहतर होगा कि उस व्यक्तित्व के बारे में भी कुछ जान लिया जाए कि
शम्सुर्रहमान फ़ारूक़ी कौन थे? और कोई शम्सुर्रहमान फ़ारूक़ी
कैसे बनता है? वह 1935 में काला काँकर
हाउस, प्रतापगढ़ में अपने ननिहाल में पैदा हुए. लेकिन उनके
वालिद आज़मगढ़ ज़िले के रहने वाले थे और उनकी परवरिश और आरम्भिक शिक्षा आज़मगढ़ में
हुयी. उनके बचपन के बारे में कई लोगों ने लिखा है और ख़ुद शम्सुर्रहमान ने भी कई बार
कहा है कि उन्होंने बचपन में कभी कोई खेल नहीं खेला, बस हर
वक़्त लिखते पढ़ते रहे. उन्होंने एक किताब बाइडिंग करने वाले से दोस्ती कर ली थी और
उसकी दुकान पर बाइंडिग के लिए आने वाली हर किताब पढ़ जाते थे, वह चाहे किसी भी विषय की हों. आज़मगढ़ में जब वह छठी सातवीं कक्षा के छात्र
थे तो उन्होंने लेखकीय ज़िन्दगी का एक काम शुरू कर दिया था, वह
एक वाल मैग़जीन निकालने लगे थे, जिसमें ज़्यादातर ख़ुद उनकी
लिखी हुई तहरीरें होती थीं, कुछ उनके ख़ानदान और दोस्तों की
लिखी हुयी भी होती थीं. उस वक़्त वह शायरी भी शुरू कर चुके थे, लेकिन शायरी से वाल मैगज़ीन कितनी भरती? तो लेख और
कहानियाँ भी लिखनी शुरू कर दी थीं.
आठवीं
तक पढ़ाई आज़मगढ़ में करने के बाद उनके पिता का स्थानान्तरण गोरखपुर में हो गया,
तो वह भी गोरखपुर चले गए. उन्होंने हाई स्कूल, इण्टरमीडिएट और बी. ए. की पढ़ाई गोरखपुर से ही की. गोरखपुर की पढ़ाई के बारे
में उनके भाई और मशहूर दास्तान-गो महमूद फ़ारूक़ी के पिता महबूबुर्रहमान फ़ारूक़ी ने
लिखा है, वह पढ़ने के इस क़द्र दीवाने थे कि स्कूल जाते आते
वक़्त भी वह किताबें पढ़ते रहते थे और उनके भाई या कोई दोस्त उनके आगे-आगे चलता था
कि पढ़ने में मगन फ़ारूक़ी साहब किसी चीज़ से टकरा न जाएं.
गोरखपुर
से उनका एक पुराना रिश्ता और भी था उनके दादा यहीं के एक स्कूल में अध्यापक थे.
प्रेमचन्द भी उसी स्कूल में अध्यापक थे जिसमें फ़ारूक़ी साहब के दादा शिक्षक थे. फ़ारूक़ी
साहब के पिता भी उसी स्कूल में पढ़े थे और वह प्रेमचन्द के भी शिष्य रहे थे. फ़ारूक़ी
साहब कहते हैं कि बी. ए. की पढ़ाई के दौरान गर्मियों की छुट्टियों की रातों में
उन्होंने शेक्सपियर को बहुत गम्भीरता से पढ़ा, और
शेक्सपियर का वह जादू ज़िन्दगी भर क़ायम रहा, बाद में मीर और
ग़ालिब के साथ भी ऐसा ही रहा. बहरहाल गोरखपुर से बी. ए. करने के बाद फ़ारूक़ी साहब
अँग्रेज़ी में एम. ए. करने के लिए इलाहाबाद विश्वविद्यालय चले गए.
इलाहाबाद
विश्वविद्यालय में प्रोफ़ेसर देव विभागाध्यक्ष थे, वह
उस वक़्त हिन्दुस्तान में अंग्रेज़ी के सबसे बड़े विद्वानों में से एक थे और अपने
आगे किसी को कुछ समझते नहीं थे, लेकिन फ़ारूक़ी साहब की
विद्वता को देखते हुए वह उनसे आज़ादी से बात कर लेते थे. लेकिन एक आध बार कक्षा में
ही उनसे बहस हो गयी. उसके बाद वह फ़ारूक़ी साहब से बहुत नाराज़ हो गये, और उन्होंने फिर कभी माफ़ नहीं किया. जब वह फाइनल में थे तभी हरिवंश राय
बच्चन भी वहाँ लेक्चरर हो कर आ गये और कुछ महीने उन्होंने भी फ़ारूक़ी साहब को पढ़ाया.
फ़ाइनल में प्रोफे़सर देव ने उन्हें साक्षात्कार में बहुत ख़राब नम्बर दिए लेकिन
इसके बावजूद उन्होंने टाप किया. इसके बाद वह इलाहाबाद विश्वविद्यालय में ही पढ़ाना
चाहते थे. उस वक़्त टाप करने वाले सभी लोग वहाँ लेक्चरर हो जाया करते थे, लेकिन देव साहब के रहते ये मुमकिन न हो सका. फ़ाइनल में 6, 7 नम्बर वालों का तो चयन हो गया लेकिन टापर को नहीं लिया गया. इलाहाबाद
विश्वविद्यालय में एम. ए. में उनकी एक सहपाठी जमीला ख़ातून हाशमी थीं, बाद में वही फ़ारूक़ी साहब की पत्नी बनीं. काफ़ी दिनों के इन्तज़ार के बाद जब
उन्हें इलाहाबाद में पढ़ाने का अवसर न मिल सका तो वह बलिया के एक कालेज में पढ़ाने
चले गये, एक साल बाद शिबली कालेज, आज़मगढ़
में उनका चयन हो गया और वह वहाँ दो साल पढ़ाते रहे. इसी दौरान वह इक्कीस साल के हुए
और पहले ही प्रयास में उनका सिविल सर्विसेज़ में चयन हो गया.
लिखित में तो उन्होंने पूरे हिन्दुस्तान में टाप किया लेकिन साक्षात्कार में उन्हें बहुत ही कम नम्बर मिले, इसलिए आई. ए. एस. या आई. एफ. एस. न मिल सका, पुलिस या इन्कम टैक्स मिल सकता था लेकिन उन्होंने पोस्टल सर्विसेज़ चुना क्योंकि उन्हें लगा पोस्टल सर्विसेज़ में उन्हें लिखने पढ़ने का ज़्यादा वक़्त मिल सकेगा. इसी नौकरी से 1994 में वह पोस्टल सर्विसेज़ बोर्ड के मेम्बर की हैसियत से रिटायर हुए.
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अब आते हैं उनके साहित्यिक अवदान पर, जैसा कि ऊपर ज़िक्र हो चुका है वह बहुत कम उम्र में शाइरी करने लगे थे, वह सिलसिला कम ज़्यादा तो होता रहा लेकिन बिलकुल कभी न रुका, कहानियाँ लिखना उन्होंने बी. ए. के बाद लगभग बन्द कर दिया. अब उन्होंने आलोचना को अपनी अभिव्यक्ति का मुख्य केन्द्र बनाया. फ़ारूक़ी साहब ने जब आलोचना शुरू की उस वक़्त अँग्रेज़ी साहित्य पर उनकी गहरी नज़र थी. आइ. ए. रिचर्ड्स,.और टी. एस. ईलियट के आधुनिकता के सिद्धांत उनके ज़्यादा क़रीब थे. चूकि पढ़ते बहुत थे इसलिए उर्दू और फ़ारसी की परम्परा की भी बहुत अच्छी समझ थी और उसका प्रभाव भी था. उनकी आलोचना के मुख्य बिन्दु इस तरह हैं.
अपनी
आलोचना में उन्होंने किसी भी विचार के प्रति प्रतिबद्धता को ख़ारिज कर दिया और कहा
लेखक के दिल में जो आए वह लिखे, लेखक की
स्वतंत्रता का सम्मान हर हाल में होना चाहिए, उसे किसी
राजनैतिक पार्टी के प्रति वफ़दारी की कोई ज़रूरत नहीं. उन्होंने कहा साहित्य में नए
प्रयोगों के लिए जगह होनी आवश्यक है, यह भी कि कथ्य ही सब
कुछ नहीं है उसके रूप पर भी बहस होनी चाहिए, उसे यह भी समझना
चाहिए कि कोई रचना रूप से किस तरह बनती या बिगड़ती है. लेखक को उपमा, रूपक और प्रतीक वग़ैरा का प्रयोग करना चाहिए, इससे
साहित्य में गहनता आती है. इसके अलावा उन्होंने कहा कि लेखक को यह नहीं सोचना
चाहिए कि उसे कितने लोग समझ रहे हैं? संचार के चक्कर में पड़
कर जहाँ उसमें सतहीपन आता है, वहीं उसमें बड़े स्तर पर एक
रूपता सी आ जाती है. यही कुछ बुनियाद सवाल थे जिनको केन्द्र में रखकर उन्होंने अपनी
आलोचना की पहचान बनायी.
उन्होंने
सैद्धान्तिक आलोचना पर बहुत ज़ोर दिया और उनकी रौशनी में अपने समकालीन और क्लासिकल
लेखकों का विश्लेषण भी किया. यह नहीं किया कि एक लेखक के लिए दूसरे उसूल बनाए और
दूसरे लेखक के लिए दूसरे उसूल. उनके अक्सर लेख बहुत लम्बे-लम्बे थे जिसमें बहुत
तार्किकता और तमाम संदर्भ मौजूद थे. एक बात उनके यहाँ और नज़र आती है कि उनके यहाँ
अँग्रेज़ों के ज़रिए क़ायम सांस्कृतिक साम्राज्यवाद के खिलाफ एक चमक ‘ओरियन्टलिज़्म’
छपने से पहले ही से मौजूद थी.
लेकिन
ओरियन्टलिज़्म का प्रभाव भी उन पर पड़ा. इसके बाद की उनकी आलोचना में उर्दू ,
फ़ारसी, अरबी और संस्कृत आलोचना का ज़्यादा
प्रभाव दिखता है. एक ख़ास बात उनकी आलोचना में दिखती है, वह
यह है कि अक्सर आलोचक अपने तर्क तो रखते हैं लेकिन विपरीत विचारधारा के तर्कों को
गोल कर जाते हैं. फ़ारूक़ी साहब हमेशा अपने पक्ष के साथ-साथ विपक्षी तर्कों को सामने
रख देते हैं और फिर तर्कों के आधार पर अपने नतीजे निकालते हैं.
ऐसा
नहीं है कि उर्दू में आधुनिकता की शुरूआत शम्सुर्रहमान फ़ारूक़ी ने ही की हो. फ़िक्शन
में कुर्तलऐन हैदर और इन्तज़ार हुसैन इस तरह की कहानियाँ और उपन्यास उनकी आलोचना से
पहले से लिख रहे थे. शाइरों में नासिर काज़मी, सलीम
अहमद, ख़लीलुर्रहमान आज़मी, अहमद
मुश्ताक़ और इब्ने इन्शा वग़ैरा अपनी शाइरी में पहले से ही आधुनिकता बरत रहे थे.
आलोचना में भी आले अहमद सुरूर और हसन अस्करी इसकी शुरूआत कर चुके थे. लेकिन
शम्सुर्रहमान फ़ारूक़ी ने उन सबमें एक सामंजस्य बनाने का काम किया और सबसे बड़ी बात
तथ्यों और तर्कों के साथ अपनी बात को साफ़-साफ़ साबित किया कि आधुनिकता इस समय के
साहित्य की ज़रूरत है. अपनी बात को साबित करने के लिए वह बार-बार मीर ओ ग़ालिब से
लेकर यूनानी लेखकों और कभी-कभी संस्कृत रचनाओं का भी सहारा लेते थे.
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1966 में उन्होंने ‘शबख़ून’ पत्रिका निकालनी शुरू की, बहुत जल्द ये पत्रिका तमाम प्रयोगवादी और आधुनिक रचनाशीलता का केन्द्र बन गयी. ऐसा नहीं है कि उन्होंने प्रगतिशील लेखकों को बिलकुल न छापा हो. उन्होंने कई प्रगतिशील लेखकों को भी छापा लेकिन उनका पैमाना उसकी रचनात्मकता थी, उनकी विचारधारा नहीं. जल्द ही वह समय भी आ गया कि ‘शबख़ून’ में छपना उसके लेखक होने का प्रमाण बनने लगा. 1969 में जब ग़ालिब की सौवीं बरसी मनायी गयी तो उन्होंने शबख़ून में ग़ालिब पर एक सिलसिला शुरू किया जिसमें वह ग़ालिब के एक शेर की ख़ुद व्याख्या करके छापते थे. एक-एक शेर की व्याख्या कई बार सात आठ पेज तक चली जाती और तब पहली बार मालूम हुआ कि एक शेर की व्याख्या ऐसे भी की जा सकती है. इन व्याख्याओं में वे क्लासिकल काव्यशास्त्र को ख़ास तौर से ग़ज़ल के काव्यशास्त्र को फिर से स्थापित करते हैं. बाद में इन व्याख्याओं पर आधारित किताब ‘तफ़हीमे-ग़ालिब’ छपी. जो अब तक ग़ालिब पर सबसे अच्छी किताबों में गिनी जाती है. यह किताब उन्होंने लगभग बीस साल में पूरी की.
1973
में उनकी किताब ‘शेर गै़र शेर और नस्र (गद्य)’’ छपी तो हसन अस्करी ने फ़ारूक़ी साहब
के बारे में लिखा कि लोग अब तुम्हारा नाम हाली के साथ लेने लगे हैं. (हसन अस्करी
को फ़रूक़ी साहब उर्दू का सबसे बड़ा आलोचक मानते थे, जबकि उर्दू
समाज में आम तौर पर हाली को उर्दू का सबसे बड़ा आलोचक माना जाता था.) 1986 में उन्हें ‘तनक़ीदी अफ़कार’ किताब पर साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला. यह
किताब उर्दू साहित्य के कई महत्वपूर्ण विषयों पर फिर से सोचने और अपनी राय बदलने
पर मजबूर करती है.
इसके
बाद उनकी बहुत महत्वपूर्ण किताब ‘शेरे-शोर अंगेज़’ लिखी,
जो चार खण्डों में और लगभग ढाई हज़ार पृष्ठों की थी, ये चारों खण्ड 1991, 1992, 1993 और 1994 में छपे, यह किताब उन्होंने लगभग बीस सालों में
पूरी की थी. इसमें मीर तक़ी मीर की शायरी का चयन और व्याख्या थी. लेकिन इन चारों
खण्डों में उन्होंने भूमिका के तौर पर कई आलेख लिखे थे और ये सारे आलेख लगभग 600 पेज के है और बुनियादी तौर पर क्लासिकल ग़ज़ल के काव्यशास्त्र को पुनः
स्थापित करते हैं. यह किताब किसी करिश्मे से कम न थी. अब तक उर्दू में आम तौर पर
ग़ालिब सबसे बड़े शायर माने जाते थे, इस किताब में फ़ारूक़ी साहब
ने मीर तक़ी मीर को ग़ालिब के बराबर का शाइर क़रार दिया. यह किताब इतने तार्किक रूप से लिखी गयी थी कि
लोग मीर तक़ी मीर को ग़ालिब के बराबर मानने पर मजबूर हो गये.
इस
किताब के काफ़ी अरसे बाद उन्होंने कहा कि मैं शेरे-शोर अंगेज़ में भी पूरी तरह मीर
को नहीं समझ सका था, दरअस्ल मीर तो ग़ालिब
से भी बड़े शाइर हैं. बहरहाल यह सिलसिला तो चलता रहेगा कि मीर बड़े शाइर हैं या
ग़ालिब लेकिन इस किताब पर उन्हें सरस्वती सम्मान मिला. और अब लोगों ने क़ुबूल कर
लिया कि फ़ारूक़ी साहब न सिर्फ़ इस ज़माने के बल्कि उर्दू आलोचना की पूरी तारीख़ में सबसे बड़े आलोचक हैं.
इसके
बाद उन्होंने दास्तानों पर लिखने का काम शुरू किया, इसके
लिए उन्होंने दास्तान अमीर हम्ज़ा का चयन किया. जो छियालिस खण्डों और लगभग पैंतालिस
हज़ार पेजों की है, सबसे पहले उन छियालिस खण्डों को तलाश करना
जो उन्नीसवीं सदी के आखि़र में नवल किशोर प्रेस से छपी थीं. और फिर उन्हें पढ़ना और
समझना, यह काम फ़रहाद के पहाड़ तोड़कर दूध की नहर निकालने से कम
न था फिर उस पर पाँच खण्डों में एक किताब ‘साहिरी, शाही,
साहिब क़िरानी, दास्तान अमीर हमज़ा का मुताला’
लिखने के लिए मजनूँ सी दीवानगी चाहिए थी जिसे भी उन्होंने लगभग दस सालों में पूरा
किया. लेकिन उन्होंने यह काम यहीं पर न छोड़ा.
उन्होंने
अपने भतीजे महमूद फ़ारूक़ी को तैयार किया कि वह लगभग पचहत्तर साल पहले बंद हो चुकी
दास्तागोई की इस परम्परा को फिर से शुरू करें. महमूद फ़ारूक़ी को पता नहीं उस वक़्त
तक दास्तानों के बारे में कितना मालूम था. वह उन दिनों आक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी से
फ़ुल ब्राइट स्कालर के तौर पर इतिहास में एम. फिल. करके लौटे थे. लेकिन उन्हें अपने
ताऊ पर पूरा विश्वास था, उन्होंने भी फ़ारूक़ी
साहब के जुनून का एक हिस्सा लेकर दास्तानगोई शुरू कर दी, इसका
पहला शो 2005 में हुआ, फिर उसके बाद का
क़िस्सा सबको मालूम है कि दुनिया का वह कौन सा स्टेज नहीं है, जहाँ उन्होंने अपनी दास्तानगोई का जादू न जगाया हो. अब तो यह परम्परा फिर
बड़े स्तर पर फैल चुकी है और कई दर्जन दास्तानगो इस क्षेत्र में उतर चुके हैं.
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1997 में ग़ालिब की जब 200 वीं जयन्ती मनायी जा रही थी, तो उन्होंने शबख़ून में एक हिस्सा ग़ालिब पर निकालने का निर्णय लिया. लेकिन उन्हें जो आलेख प्राप्त हुए वह किसी से संतुष्ट नहीं थे. बहुत सोचने के बाद उन्होंने ख़ुद कुछ लिखने का निर्णय लिया लेकिन ग़ालिब पर अब तक वह बहुत कुछ लिख चुके थे और अब कुछ नया कहने को न था. तो उन्होंने ग़ालिब पर एक कहानी लिखना तय किया और ‘ग़ालिब अफ़साना’ लिख दिया. यह कहानी बहुत पसन्द की गयी. इस तरह उनके अन्दर का सोया हुआ कहानीकार एक बार फिर जाग उठा, वह एक के बाद एक कई कहानियाँ लिखते चले गये और जल्द ही उनकी पाँच कहानियों का संग्रह ‘सवार और दूसरे अफ़साने’ छप गया. इसमें कुछ कहानियाँ ऐसी हैं जो सौ पेज से ज़्यादा की हैं. यह कहानी संग्रह पूरी उर्दू कहानी की तारीख़ में एक अलग पहचान रखता है. इन कहानियों की इतनी तारीफ़ हुई कि उनके अंदर फ़िक्शन लिखने का हौसला बहुत बढ़ गया. इसके बाद उनका वह कारनामा आया जिसको हम सब ‘कई चाँद था सरे आसमाँ’ के नाम से जानते हैं. मुझे लगता है कि हिन्दी में लगभग हर गंभीर पाठक इस किताब को पढ़ चुका है या कम से कम इसके बारे में जानता ज़रूर है. मुझे लगता है इसके बारे में ज़्यादा बात करने की ज़रूरत नहीं है. इसके बाद उनका एक और छोटा सा उपन्यास ‘क़ब्ज़े ज़माँ’ छपा था जिसका हिन्दी अनुवाद मैंने लगभग दो साल पहले किया था, लेकिन बदक़िस्मती से या राजकमल प्रकाशन की लापरवाही से फ़ारूक़ी साहब इसे हिन्दी में छपा हुआ न देख सके.
इस
ज़माने में उन्होंने कई और विषयों पर भी लिखा, मसलन
उन्होंने ‘तज़मीनुल्लुग़ात’ और ‘लुग़ाते रोज़ मर्रा व मुहावरा’ नाम के दो शब्द कोष
तैयार किये. एक किताब उर्दू भाषा और साहित्य के विकास के बारे में ‘उर्दू का
इब्तेदाई ज़माना’ लिखी. यह किताब उर्दू भाषा और साहित्य के आरम्भ, ‘उर्दू’ शब्द के सही अर्थ और हिन्दी-उर्दू के विवाद पर भी है. फ़ारूक़ी साहब
ने अनुवाद भी बहुत किए हैं, फ़िक्शन, शाइरी
और आलेखों का भी. ज़्यादातर अँग्रेज़ी से उर्दू में, कुछ
फ़ारसी और फ्राँसीसी से भी. कुछ किताबें उन्होंने उर्दू से अँग्रज़ी में भी अनुवाद
की हैं और कुछ किताबें सीधे अँग्रेज़ी में भी लिखी हैं. उनकी किस किस बात का ज़िक्र
किया जाए?
शम्सुर्रहमानी
की लगभग साठ साल की लेखकीय ज़िन्दगी के इतने पहलू हैं कि बात बढ़ती चली जाएगी और मुझे
मालूम है कि उनके कामों पर कितनी भी बात कर लें, लेकिन
बात तब भी मुकम्मल न होगी. तो उनके कामों को यहीं छोड़ते हैं थोड़ा इस बात पर ध्यान
देते हैं कि वह इन्सान कैसे थे?
कोई
लेखक इन्सान कैसा था? यह बात इन्सानियत के
लिए तो ठीक है, लेकिन मेरा ख़्याल है उसके लेखकीय अवदान पर
फ़र्क नहीं पड़ता है. मिसाल के तौर पर अभी कुछ समय पहले नागार्जुन वाला विवाद सामने
आया, पता नहीं इसमें कितना सच है? अगर
सच है तो भी मेरे लिए नागार्जुन की कवि छवि जो पहले थी, वही
रहेगी. उनके सम्पर्क वाले लोगों पर उनके व्यक्तित्व की छवि पर पड़ सकती है और पड़नी
भी चाहिए. हम जानते हैं कि ग़ालिब भी कोई बहुत अच्छे इन्सान न थे. यह उनका
व्यक्तिगत मामला है, या उनके सम्पर्क वाले लोगों का मामला है.
हम तो ग़ालिब के लेखन के बारे में जानते हैं और क़द्र करते हैं. फिर भी मैं
शम्सुर्रहमान फ़ारूक़ी बतौर इन्सान पर कुछ बातें करूँगा. क्योंकि हम पूरब की
संस्कृति के लोग सिर्फ़ सिद्धांतों के सहारे नहीं जीते, अब
मैं उनके इन्सान के बारे में जो बात भी करूँगा वह अपने अनुभव की बुनियाद पर करूँगा.
हो सकता है मेरा अनुभव कुछ लोगों से अलग हो, ज़ाहिर है उनको
भी अपनी राय पर क़ायम रहने का पूरा अधिकार है.
मैं
जानता हूँ कि उनसे एक वर्ग नाराज़ भी था, लेकिन
ये ज़्यादातर वह लोग थे जिनको उन्होंने शबख़ून में नहीं छापा क्योंकि वह उनके
पैमाने पर पूरा नहीं उतरता था. कुछ लोग ऐसे भी नाराज़ थे जिन पर उन्होंने नहीं लिखा
था या लिखा भी था तो उनकी उस तरह तारीफ़ नहीं की थी जैसी वह उम्मीद करते थे.
क्योंकि ऐसे नाराज़ लोगों के दिल में कहीं न कहीं ये रहता था कि जब तक फ़ारूक़ी साहब
उनकी तारीफ़ न करें तब तक वह प्रमाणित लेखक नहीं बन सकते. कुछ लोग इसलिए भी नाराज़
रहते थे कि वह उनसे उस तरह दोस्ती नहीं निभाते थे जिस तरह वह उम्मीद करते थे.
फ़ारूक़ी साहब हमेशा अपने कामों में व्यस्त रहना पसन्द करते थे, और वह फ़ालतू की दोस्ती में अपना क़ीमती समय बरबाद नहीं करते थे.
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(Photo Courtesy Mayank Austen Soofi) |
सेमीनार वग़ैरा में बहुत कम जाते थे, वह समझते थे कि मेरा वक़्त बहुत क़ीमती है, इन सब जगहों पर जाकर अपना समय बरबाद करना मुनासिब नहीं है. बहुत से लोग इसलिए भी नाराज़ रहते थे कि वह उनके सेमीनार में नहीं आए. ऐसा भी नहीं है कि वह सेमीनार वग़ैरा में बिलकुल न जाते हों. जहाँ उन्हें लगता था जाना चाहिए वह जाते भी थे. मुझे लगता है अगर वह सब जगह सेमीनारों में जाते तो शायद उतना काम न कर पाते जितना उन्होंने किया है. मेरे सामने कई ऐसी मिसालें मौजूद हैं जिन्होंने सेमीनारों में अपनी ज़िन्दगी बिता दीं, लेकिन आज उनकी किताबें ऐसी नहीं हैं जैसी हो सकती थीं. फ़ारूक़ी साहब की ज़िन्दगी से एक सबक़ यह भी मिलता है कि सेमीनार पत्र कितने भी महत्वपूर्ण हों लेकिन अगर एक विषय चुनकर उस पर दस बीस साल लगाकर किताब न लिखी जाए तो उसका काम बहुत हल्का हो जाता है.
मैंने
सन 2000 ई में पहली कहानी ‘कुछ सामान’ लिखी
थी, और वह शबख़ून में छपने के लिए भेजी थी, जो उन्होंने न सिर्फ़ छापी बल्कि इलाहाबाद में अपने कई दोस्तों को छपने से
पहले ही पढ़ने के लिए दी कि देखो यह कहानी जे. एन. यू. के एक बिलकुल नए छात्र ने
लिखी है. यहीं से मेरा उनका परिचय शुरू हुआ था. हालाँकि मैं उन्हें कई सालों से
जानता था और उनके कुछ व्याख्यान भी सुन चुका था, मिला भी था
लेकिन वह मुझे नहीं जानते थे. मेरी कहानी छपने के बाद कई बार जब वह दिल्ली आते थे,
तो मैं उनके घर मिलने जाता था. जब भी उनसे मिलने जाता था तो वह मुझे
डाँटते थे, ऐसा नहीं है कि वह मुझे अपना पक्ष न रखने देते
हों, लेकिन उनकी डाँट जारी रही. डाँट के दो मुख्य कारण होते
थे, एक तो मैं बहुत कम लिखता था, दूसरे
मेरी उर्दू भाषा से वह बहुत संतुष्ट न थे. सच्चाई यह है कि मैं उनसे डरने भी लगा
था, और जब बहुत ज़रूरी होता तभी उन्हें फ़ोन करता या मिलने
जाता. लेकिन अब जो सोचता हूँ कि वह मुझे किस लिए डाँटते थे? कहीं
न कहीं उन्होंने मुझमें एक स्पार्क देख लिया था जिसे वह फलते फूलते देखना चाह रहे
थे. और अपनी भाषा के भविष्य के बारे में सोचते थे तो कहीं न कहीं उनकी नज़र मुझ पर
जाती थी.
शबख़ून
चालीस साल तक निकालने के बाद उन्होंने 2006
में इस ऐतिहासिक पत्रिका को यह सोच कर बन्द कर दिया कि अब शायद ज़िन्दगी ज़्यादा
नहीं बची है, इसलिए कुछ ज़रूरी काम कर लिए जाएं. शबख़़ून में
बहुत ज़्यादा समय निकल जाता है. शबख़ून के बन्द होने के बाद मेरा उनसे सम्पर्क बहुत
कम हो गया था. यह मेरी ही कोताही थी उनकी तरफ़ से कभी कोई लापरवाही नहीं हुई. शबख़ून
बन्द होने के बाद मेरा कहानी लिखना भी बहुत कम हो गया था. वह मुझसे मायूस भी थे
लेकिन 2015 में मेरा कहानी संग्रह ‘बाज़ार में तालिब’ दिल्ली
से छपा तो मैं भोपाल से दिल्ली गया. इत्तेफ़ाक़ से उसी वक़्त जश्ने रेख़्ता चल रहा था.
मैं वहाँ गया तो फ़ारूक़ी साहब से अचानक मुलाक़ात हो गयी, मैंने
डरते-डरते उनको अपना कहानी संग्रह दिया, तो वह बहुत ख़ुश हुए
कि उन्हें लगा शायद मुझमें कहानी लिखने की चिंगारी अभी भी थोड़ी बची है. अभी दिल्ली
से वापस भोपाल गये थोड़ा वक़्त ही गुज़रा था कि उन्होंने एक दिन ख़ुद मुझे फ़ोन किया
और बताया कि उन्होंने मेरे कहानी संग्रह की समीक्षा लिख दी है और जल्दी ही वह छप
जाएगी. जब समीक्षा छपी तो मेरी कहानियों पर लिखी गयी किसी की भी यह पहली समीक्षा
थी. वह दोनों डाँटे इस समीक्षा में भी थीं लेकिन उन्होंने यह भी लिखा कि इस समय
उर्दू कहानी के बारे में जो सवाल उठाए जा रहे हैं, यह कहानी
संग्रह उन सवालों का जवाब है.
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(Photo Courtesy Mayank Austen Soofi) |
इसी
साल यानी 2020 में उन्होंने एक नावेला
लिखा है ‘फ़ानी बाक़ी’ उसकी उर्दू कापी उन्होंने उदयन वाजपेयी को भेजी, वह उनके पास खुल न सकी तो उन्होंने मुझसे कहा कि तुम फ़ारूक़ी साहब से बात
कर लो. मैंने काफ़ी अरसे बाद एक बार फिर उनसे टेलीफ़ोन पर बात की और नावेला की पी.
डी. एफ. भेजने की बात कही साथ ही मैंने उसका हिन्दी में अनुवाद करने की इच्छा
ज़ाहिर की, उसकी उन्होंने इजाज़त दे दी, मैंने
उन्हें यह भी बताया कि मैंने मीर पर एक नाटक लिखा है और एक उपन्यास ‘ख़ुदकुशी नामा’
भी लिख रहा हूँ जिसका पहला ड्राफ़्ट पूरा हो गया है, उन्होंने
कहा जैसे ही दोनों चीज़े पूरी हों मुझे भेज दो मैं तुम्हारी दोनों चीज़े पढ़ने की
ख़्वाहिश रखता हूँ. इसके बाद 10 जून को उन्होंने ई-मेल के
ज़रिए नावेला की पी डी एफ भेज दिया, ई-मेल में उन्होंने फिर
याद दिलाया कि तुम्हारा नाटक और उपन्यास पढ़ने की ख़्वाहिश है, पूरा होते ही मुझे भेजो.
जून
के महीने में अभी लाक डाउन पूरी तरह से ख़त्म भी नहीं हुआ था,
नावेला आने के बाद उदयन वाजपेयी को मैंने तीन सिटिंग में पूरा
नावेला पढ़ कर सुनाया. नावेला इतना शानदार है कि शायद ऐसा फ़िक्शन उर्दू हिन्दी में
अब तक नहीं लिख जा सका है. उदयन वाजपेयी को इसे हिन्दी में छापने की बड़ी जल्दी थी
मेरे कुछ पहले से कमिटमेन्ट थे इसलिए उन्होंने मेरी सहमति से किसी और से इसका
अनुवाद करा लिया. अगस्त में मेरे पहले उपन्यास ‘ख़ुदकुशी नामा’ के दो अध्याय इमरोज़
पत्रिका में छपे, अभी पत्रिका को आए हुए कुछ ही दिन हुए थे
कि एक दिन शम्सुर्रहमान फ़ारूक़ी का मेरे पास फ़ोन आया और उन्होंने बताया कि दोनों
अध्याय पढ़ लिए हैं, बहुत अच्छा जा रहा है मेरी तुमसे जो
शिकायतें थीं, वह इसमें कुछ कम हुयी हैं, तुम जल्दी से इसे पूरा कर लो. मेरे उपन्यास पर आने वाली यह पहली
प्रतिक्रिया थी, मेरी कुछ कहानियों के भी वह पहले पाठक थे.
मेरे कहानी संग्रह की पहली समीक्षा भी उन्होंने ही लिखी थी.
अब
मैं यह सोच रहा हूँ कि ये किस जन्म के मेरे कर्म हैं,
जो एक बिलकुल नए और मामूली लेखक पर उर्दू का सबसे बड़ा आलोचक अपना
प्यार उड़ेले जा रहा था. वह मुझ पर इतना प्यार क्यों लुटाते रहे? मैंने तो उनके लिए कभी कुछ नहीं किया है. क्या इसके बाद भी कुछ कहने को रह
जाता है कि उन्होंने नए लिखने वालों की किस तरह हौसला अफ़ज़ाई की है? क्या उनके अच्छे इन्सान होने के लिए ये काफ़ी नहीं है? अब जो ये पंक्तियाँ लिख रहा हूँ मेरी आँखें नम हैं, व्यक्तिगत
ज़िन्दगी में पिता की मौत के बाद आज साहित्यिक ज़िन्दगी में अपने आपको दूसरी बार
यतीम महसूस कर रहा हूँ, दूर तक वीरानी फैली हुई है, हर तरफ़ सन्नाटा पसरा है.
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(शम्सुर्रहमान फ़ारूक़ी के साथ रिज़वानुल हक़) |
बहुत सुंदर आलेख, विवेचन और संस्मरण । सभी का आभार ।
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया लिखा है रिज़वान भाई ने
जवाब देंहटाएंआत्मीय सहजता में पगा यह आलेख फ़ारूक़ी साहब के पोर्ट्रेट की तरह है। क्या विराट मेधा , और क्या अध्ययन और लेखन की विपुलता ! हमारे समय में जबकि लेखक इस तरह के स्कॉलर अक्सर नहीं होते और अपनी अल्पप्राण 'उपलब्धियों' पर अतिमग्न रहते हैं, फ़ारूक़ी साहब को इस तरह जानना लगभग रोमांचक है। रिज़वान साहब और आपको बहुत धन्यवाद।
जवाब देंहटाएंबड़ा पठनीय अंतरंग संस्मरण।
जवाब देंहटाएंफ़ारूकी साहब का महत्व और भारतीय साहित्य को उनका योगदान समझने के लिए ज़रूरी दस्तावेज़।
रिज़वान साहब को ढेरों शुक्रिया।
बहुत सुन्दर और ज्ञानवर्धक .
जवाब देंहटाएंशम्सुर्रहमान फारूकी पर रिजवानुल हक का संस्मरण काफी दिलचस्प है। पढ़ने से लगा कि उर्दू अदब में खासकर आलोचना विधा में इन्हें शायद वही शोहरत और मकाम हाशिल है जो हिन्दी में नामवर सिंह का रहा है। एक साक्षात्कार में इन्होंने संस्कृत भाषा को पूर्वजों की आदिभाषा कहा था और यह भी कि उर्दू पर फारसी-अरबी का जितना प्रभाव है उतना हीं संस्कृत का भी। स्वयं हिन्दी,हिन्दवी और हिन्दू उर्दू जुबान के लफ्ज़ हैं। भाषा कभी सांप्रदायिक नहीं होती।
जवाब देंहटाएंयह है समालोचन का जादू । इसलिए सुबह उठते ही अरुण जी की पोस्ट का इंतज़ार रहता है। बहुत है खूबसूरत संस्मरण। ऐसा लग रहा है रिजवान साहब ने उनके पूरे जीवन का चित्र बना दिया हो। शुक्रिया रिजवान साहब, शुक्रिया अरुण जी, शुक्रिया समालोचन।
जवाब देंहटाएंआत्मीयता से फ़ारूक़ी साहब को,उनके लेखन को और सम्पादन कर्म को याद किया है रिज़वान जी ने।
जवाब देंहटाएंशुक्रिया रिज़वान जी, अरुण देव जी।
रिज़वान भाई ने बहुत ख़ुलूस से फ़ारूक़ी साहब को पर लिखा है. यादें भले चंद हों, पर बातें बहुत-सी आई हैं. मुबारकबाद.
जवाब देंहटाएंबहुत बधाई हो। अच्छा श्रद्धांजलि आलेख है। संवाद और सरलता एक साथ दिखाई दे रहे हैं। धन्यवाद।
जवाब देंहटाएंफ़ारूखी साहब के व्यक्तित्व और कृतित्व को समेटे इस सार्थक आलेख के लिए रिज़वानुल जी को साधुवाद।
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया और दिल से लिखा गया संस्मरण। हिन्दी में फारूकी साहब पर विस्तार से लिखा जाना चाहिए। यहाँ कौन है इतना गहन अध्ययेता, विश्लेषक और नई दृष्टि वाला?
जवाब देंहटाएंफारूखी जी का समूचा व्यक्तित्व एक बारगी आँखों के आगे खड़ा हो गया। वो किताब पढ़ते हुए स्कूल की सड़क पर चला जा रहा बच्चा ! वह जिल्द साज़ की दुकान पर आती हर किताब को पढ़ता बच्चा! वह बीस बीस बरस तक ग़ालिब और मीर पर काम करता आलोचक, जो उसके बाद कह उठता है कि उसने मीर को अभी पूरा नहीं समझा!... ऐसे अद्भुत उपन्यास, ऐसा गद्य लिखने वाला इतना बड़ा लेखक और एक युवा लेखक के लेखन को लेकर इतना उत्साहित, इतना उदारमना... वाह रिज़वान जी, खूब याद किया आपने उन्हें☘️
जवाब देंहटाएंबहुत खूब
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