राजकमल चौधरी
ने मात्र 38 वर्ष की उम्र में इस संसार से विदा ले ली थी. जीवन को जैसे जल्दी जल्दी
वह जी लेना चाहते हों. उनका लेखन और जीवन आज भी रहस्य और विवादों के घेरे में है. वरिष्ठ लेखक शिवमंगल
सिद्धांतकर के साथ उनका आत्मीय संग साथ रहा है. यह दिलचस्प संस्मरण कथाकार ज्ञान चंद बागड़ी द्वारा
शिवमंगल जी की बातचीत पर आधारित है. यह केवल संस्मरण मात्र नहीं है एक तरह से राजकमल
चौधरी के साहित्य का शिवमंगल जी आकलन भी करते चलते हैं.
ऐसे थे राजकमल चौधरी
शिवमंगल सिद्धांतकर
राजकमल चौधरी
ने मात्र 38 वर्ष की उम्र में इस संसार से विदा ले ली थी. जीवन को जैसे जल्दी जल्दी
वह जी लेना चाहते हों. उनका लेखन और जीवन आज भी रहस्य और विवादों के घेरे में है. वरिष्ठ लेखक शिवमंगल
सिद्धांतकर के साथ उनका आत्मीय संग साथ रहा है. यह दिलचस्प संस्मरण कथाकार ज्ञान चंद बागड़ी द्वारा
शिवमंगल जी की बातचीत पर आधारित है. यह केवल संस्मरण मात्र नहीं है एक तरह से राजकमल
चौधरी के साहित्य का शिवमंगल जी आकलन भी करते चलते हैं.
ऐसे थे राजकमल चौधरी
शिवमंगल सिद्धांतकर
राजकमल चौधरी ऐसे लेखक थे जो जहाँ
जाते थे संस्मरणों की बरसात करते होते थे. राजकमल चौधरी ने शुरुआत में मैथिली को
अपना चेहरा दिया लेकिन शीघ्र ही हिंदी के विद्रोही साहित्यकार चेहरे के रूप में जाने जाने लगे. कुछ समय कलकत्ता में रहते हुए वहां के
साहित्य, जीवन और संस्कृति से भी अपने आप को ओतप्रोत कर लिया
था. उन्नीस सौ साठ के दशक में जब वे पटना आए थे तो ठहरने के लिए ठिकाने के रूप में
उन्हें पंडित शिव चंद्र शर्मा का सहयोग मिला. वे अखिल भारतीय हिंदी शोध मंडल और
दृष्टिकोण के कार्यालय लोदी रोड स्थित 'चीना कोठी' में रहने लगे. इस चीना कोठी का एक हिस्सा शिव चंद्र शर्मा ने सपरिवार रहने
के लिए किराए पर ले रखा था जिसमें रहना भी होता था और शोधमंडल और दृष्टिकोण के
कामकाज भी होते थे. मेरे बड़े भाई दीनानाथ राय से शिव चंद्र शर्मा की दोस्ती थी और
उन्होंने अपना स्थान उनके घर में एक पारिवारिक सदस्य की तरह बना लिया था. मेरे
बड़े भाई खुद तो वहाँ नहीं रहते थे लेकिन हमारे परिवार का कोई भी सदस्य पटना जाता
था तो उसके ठहरने के लिए शिव चंद्र शर्मा का आवास उपलब्ध था. बिहार विधान परिषद
में मनोनीत होने के बाद शिव चंद्र शर्मा सपरिवार जब एमएलए फ्लैट चले गए तो मैं
वहाँ अकेला रहता था. इस मकान के आंगन और ओसारे में हिंदी टाइप की सेटिंग के लिए
छोटी सी व्यवस्था शर्मा जी ने कर रखी थी जिसमें काम करने के लिए कभी-कभी किसी
कंपोजिटर को बुला लिया जाता था.
(राजकमल चौधरी )
चीना कोठी में ठहरने की इजाजत शर्मा जी की ओर से
जब राजकमल चौधरी को मिली तो वहां रहने वाले हम दो हो गए थे. राजकमल चौधरी के वहां
ठहरने से कंपोजिंग के काम में थोड़ी तेजी आ गई और बतलाना जरूरी है कि राजकमल चौधरी
की 'कंकावती' गद्य कविता पुस्तक की
टाइप सेटिंग राजकुमार चौधरी ने वहीं से कराना शुरू कर दिया. बीड़ी पीते हुए वे
कंकावती की कविताएं लिखते जाते थे और कंपोजिटर को थमाते रहते थे. कुछ ही दिनों में
कंकावती इन्होंने लिख डाली और कंपोजिटर ने कंपोज कर दिया. फिर राजकमल चौधरी ने
किसी प्रेस में ले जाकर वहां से शायद दस प्रतियाँ बनवाई जिन्हें पटना और पटना से
बाहर कुछ लोगों को भेज दिया. मुझे भी एक प्रति उन्होंने दी थी जिसकी समीक्षा मैंने
लिखी और उसे ‘अधिकरण-1’ में शामिल किया
जो 1965 में प्रकाशित हुआ था. अधिकरण में लिखने के लिए जब
मैंने राजकमल चौधरी से आग्रह किया तो उन्होंने 'एक अनार एक
बीमार' लघु उपन्यास छपने के लिए दिया जिस पर टिप्पणी करते
हुए मैंने उसे अन्यथावादी रचना घोषित की थी. यह शायद राजकमल को अच्छा नहीं लगा
क्योंकि वे अपने को 'हंगरी जनरेशन' के
नजदीक पाते थे और उसी तरह की ही रचनाएं लिख रहे थे. विमल वसाक और मलयराज चौधरी की
चर्चा करते रहते थे. उन दिनों मलयराज चौधरी पटना में ही रहते थे जिनके यहां वे
अक्सर जाया करते थे.
गद्य हो या पद्य अपने खूबसूरत
अक्षरों से खुद लिखते थे और एक बार के लिखे को दोबारा शायद पढ़ते भी नहीं थे. उनकी
लेखन शैली में इतनी रवानगी होती थी कि उसे पढ़ने के बाद अधिकतर पाठक उनके फैन हो
जाया करते थे. बातचीत भी ये धीरे-धीरे करते थे और स्त्रियों को अपना प्रशंसक बनाने
में उन्हें देर नहीं लगती थी. यह जानते हुए भी कि राजकमल चौधरी भयानक औरतखौर है, औरतें उनके पास खिंची चली आती थी. उनकी फैन औरतों में
किशोरवय की लड़कियों से लेकर अधेड़ उम्र की औरतें भी
हुआ करती थी. चीना कोठी में जब वे मेरे साथ रहते थे तब वे सुबह नौ-दस बजे तक तैयार
होकर न जाने कहां चले जाते थे. सुबह में वे बीड़ी का बंडल लिए हुए, लुंगी पहने चाय की दुकान पर चले जाते थे और कई-कई कप चाय पीकर, बीड़ी के आधे बंडल को साफ करके जब लौटते थे तो सीधे बाथरूम में चले जाते
थे. कभी-कभी मिट्टी के कुल्हड़ में मेरे लिए भी चाय
लाते थे. मैं पी तो लेता था लेकिन हमेशा उन्हें मना करता था कि मेरे लिए चाय लाने
की आवश्यकता नहीं है अगर मुझे पीना होगा तो मैं खुद चला
जाऊंगा. अच्छा पैंट- शर्ट पहनना और जूते की पॉलिश करना उनके लिए जरूरी होता था.
इसके बाद स्मार्ट बनकर निकल जाते थे.
कुछ दिनों बाद मैंने देखा कि बगल वाले हिस्से
में रहने वाले बंगाली परिवार की एक किशोर लड़की पर उनकी नजर थी. आते-जाते यदि वह
टकराती तो भद्र बंगाली लोगों की तरह उससे व्यवहार करते थे. एक दिन इत्तिफ़ाक से
मैं चीना कोठी की तरफ आ रहा था और वे निकल रहे थे तो मैंने पाया कि वे विचित्र
प्रेमिल आँखें और चेहरा बनाते हुए निकल रहे थे और इतना
खोए हुए थे कि मुझसे टकराते हुए बचे थे. उस दिन उनकी चोरी पकड़ी गई थी. दूसरे दिन
सुबह न तो उन्होंने कुछ कहा और न ही मैंने कुछ पूछा. तीसरे दिन चाय पीते हुए मैंने
देखा कि उस लड़की को रिक्शे पर लेकर उड़ रहे हैं. चौथे दिन सुबह-सुबह वह मेरे लिए
खुद कुल्हड़ में चाय लाए और बोले कि मेरी चोरी तो आपने पकड़ ली. मैंने कहा कि चोरी
तो चोर की पकड़ी जाती है, आप चोर थोड़े ही हैं. उसके बाद वे
मंद- मंद मुसकुराते रहे लेकिन हमने बात आगे नहीं बढ़ाई. उसके बाद वे अक्सर उस
लड़की को लेकर जाते थे लेकिन इस बंगाली परिवार में वह प्रवेश नहीं पा सके थे. इसकी
उन्होंने कोशिश भी नहीं की, हालांकि वे खतरों से खेलने वाले
खिलाड़ी थे.
राजकमल
चौधरी
(13-12-1929:19-06-1967)
उपन्यास:
मछली
मरी हुई, नदी बहती थी, ताश के पत्तों
का शहर, शहर था शहर नहीं था, अग्निस्नान, बीस रानियों के बाइस्कोप, देहगाथा (सुनो
ब्रजनारी), एक अनार एक बीमार, आदिकथा,
आन्दोलन, पाथर फूल.
कविता
संग्रह:
कंकावती, मुक्ति-प्रसंग, स्वरगन्धा, ऑडिट
रिपोर्ट, विचित्र.
कहानी
संग्रह:
मछली
जाल, सामुद्रिक एवं अन्य कहानियाँ, प्रतिनिधि कहानियाँ : राजकमल चौधरी, पत्थर के नीचे
दबे हुए हाथ, रा.क.चौ. की चुनी हुई कहानियाँ, बन्द कमरे में कब्रगाह, राजकमल चौधरी : संकलित
कहानियाँ, खरीद बिक्री, साँझक गाछ.
अन्य:
शवयात्रा
के बाद देहशुद्धि, बर्फ और सफेद कब्र पर एक फूल तथा चौरंगी बांगला से अनूदित
कहानियाँ, निबन्ध आदि मैथिली में भी प्रकाशित. आदि
उस समय लड़कियां या औरतें पुरुषों के
लट्टू होने को आज की
तरह अपराध मूलक नहीं मानती थी, बल्कि कुछ अपवादों को छोड़कर
बहुतेरी तो गर्व का अनुभव करती थी. वे दिन भर दोस्तों के यहाँ होते थे और बदनामी
के बावजूद उनके दोस्तों की घर की औरतें उनसे नफरत नहीं करती थी. बुजुर्ग औरतों के
पैर छूना, किशोरवय की लड़कियों से शालीन मजाक करना, परिवार के हम उम्र पुरुषों से भी हंसी- मजाक और कथा-कहानी का अलख जगाते
रहते थे. इस तरह जिस परिवार में जाते थे उसे अपना ही घर बना लेते थे.
उनके दोस्त बतलाते थे कि औरतों को अपना शिकार बनाने का उनका यह
इकलौता तरीका था. उनके दोस्त ही बतलाते हैं कि यौनाचार
की उनकी भूख इतनी ज्यादा थी कि पारिवारिक उम्दा गोश्त हासिल नहीं कर पाने की हालत
में वे गली-गली में ठर्रे की शराब और अठन्नी- चवन्नी वाली औरतों से भी परहेज नहीं
करते थे. यही वजह है कि अनेक प्रकार के घातक यौन रोगों के वे शिकार हो गए थे और
अंततः यही सब कुछ उनकी असमय मृत्यु का कारण रहा.
राजकमल ने चीना कोठी के पास ही लोदी रोड
पर 'भारत मेल' एक कांग्रेसी नेता के पत्र का संपादन शुरू कर दिया था. वहां वे अकेले
संपादक से लेकर प्रूफ रीडर तक का काम करते थे. उनके सहायक के रूप में एक कंपोजिटर
और दूसरा प्रिंटिंग मशीनमैन था जो ज्यादा समय कंपोजीशन का काम करता था. कभी-कभार
जब मैं यूं ही चला जाया करता था तो पाता यह था कि वह
दूसरे- दूसरे अखबारों से सामान्य खबरें तैयार करके कंपोजिटर को थमाते जाते थे और
कांग्रेस पार्टी के सर्कुलर के आधार पर भी कभी समाचार तो कभी फीचर लेख तैयार कर
देते थे. यह सब करते समय लगातार बीड़ी पीते रहते थे और बातचीत भी करते रहते थे
लेकिन उनके लिखने का काम रुकता नहीं था. यह एक विलक्षण बात थी. कभी-कभी 'भारत
मेल' में कविताएं भी छापते रहते थे. मेरी भी एक कविता उन्होंने एक बार छापी थी और जो कोई उन्हें
चलते-फिरते दे देता था उसे छाप देते थे. बाहरी दबाव उन पर कोई नहीं होता था. कहते
थे कि अच्छी बात है कि कोई कांग्रेसी नेता यहां नहीं आता है और ना ही कोई छानबीन
करता है कि मैं यहां क्या करता हूं. निर्धारित तिथि पर निर्धारित प्रतियां मशीनमैन अखबार के मालिक तक पहुंचा देता था और हम सब की तनख्वाह और दूसरे खुदरा
खर्च ले आता था. अक्सर सर्जन शील लेखक अखबारों में काम करने से कतराते हैं लेकिन
राजकमल चौधरी को केवल तय वेतन मिल जाना चाहिए, फिर वे विज्ञापन बनाने से लेकर हेडलाइंस तक बिना किसी नानुकुर के भारत मेल
के सभी काम कर दिया करते थे. ऑफिस के बाहर कोई सामग्री
लेने अथवा अखबार के लिए विज्ञापन इत्यादि हासिल करना उनके जिम्मे नहीं था, इसलिए रोज दफ्तर में चार-पांच घंटे नियमित रूप से बैठकर वहीं काम पूरा कर
देते थे. साथ में कोई काम नहीं लाते थे, जिस दिन नहीं आना होता था उस दिन का काम दूसरे दिन पूरा कर देते थे. भारत
मेल में काम करना उनकी मजबूरी थी और अपनी आजादी के लिए जरूरी भी.
'कंकावती' पुस्तक
के विषय में कुछ बातों का उल्लेख कर देना मैं जरूरी समझता हूं. इस पुस्तक की
कविताएं पद्य के क्रम में नहीं बल्कि गद्य के क्रम में लिखी गई थी और ऐसी भी
कविताएं उसमें थी जो पहले कभी लिखी गई थी. राजकमल चौधरी का मानना था कि एक कविता
को एक बार ही क्यों, कई बार क्यों नहीं लिखना चाहिए ?
अपनी इस मान्यता को ही 'एक कविता को एक बार ही
क्यों कई बार क्यों नहीं लिखें, उन्होंने कंकावती में
व्यवहार के तौर पर उतारा था. इस कविता पुस्तक की समीक्षा कहें या परिवेश परिदर्शन
इसमें मैंने 'टाइम और स्पेस' के
संबंधों का सिद्धांत संदर्भित किया था. चाँद से यदि पृथ्वी को देखा जाए तो वह वैसी
नहीं दिखेगी जैसी हम देखते हैं और समय के अंतराल पर यदि देखना हो तो उसका क्या रूप
बनेगा. कोई कविता शताब्दियों पहले लिखी गई हो, वह आज यदि लिखी जाए तो उसका क्या रूप होगा
इत्यादि इत्यादि .
राजकमल की कविताएं न तो अज्ञेय के प्रयोगवाद के खांचे में और न ही
प्रयोगवाद के प्रथम दावेदार नलिन विलोचन शर्मा के प्रपद्यवादी सांचे में आती थी
क्योंकि राज कमल चौधरी का मानना था कि उनकी कविताएं किसी दूसरे के प्रयोगवादी सांचे को नहीं स्वीकारती थी. यह अलग बात है कि राजकमल
चौधरी की कविताएं मैथिली की परंपरागत रास्ते से होती हुई अन्वेषणकारी आधुनिकता की
खोज करती होती थी जो हिंदी में लिखित ‘कंकावती’ और ‘मुक्ति प्रसंग’ में आकर एक नया
सांचा बनाती थी. मेरा तो यहां तक मानना है कि राजकमल चौधरी और धूमिल ने कविता की
एक सीमा तक ऐसी नई मिसालें कायम कीं जिनको आलोक धन्वा जैसों ने 'धरती और अंतरिक्ष ' दिया. दूसरे शब्दों में
नया आधार और नई अभिसरंचना प्रस्तुत की. पता नहीं मेरी इस स्थापना को कुछ लोग
भद्रतापूर्वक स्वीकारेंगे अथवा उद्दंडता पूर्वक
अस्वीकार करने का दुस्साहस करेंगे. यह अलग बात है कि
मेरी यह स्थापना वास्तविकता पर आधारित है. कोई माने
अथवा नहीं माने. कंकावती परिवेश परिदर्शन में तत्कालीन कविता के लिए कुछ सूत्रों
को मैंने भी प्रतिपादित किया था जो संस्कृत से निहश्रित
होने की बजाय कवियों के गद्य से उत्पादित माना जा सकता है. मैंने
कंकावती परिवेश परिदर्शन में कहा था कि उत्कृष्ट गद्यकार ही उत्कृष्ट से
उत्कृष्टतर और उत्कृष्टतम कविताओं का सृजन कर सकता है. शायद लोग समझ रहे होंगे कि यह स्थापना 'गद्य: कवीनां निकषम वदंति ' से शैलीगत तौर पर
वैज्ञानिक रूप में प्रारब्धित नहीं है, प्रोलोंगेटेड नहीं है.
मैथिली से लेकर हिंदी तक जितने
संग्रह राजकमल चौधरी के प्रकाशित हुए हैं एकमात्र उनकी लंबी कविता ' मुक्ति प्रसंग ' को मैं
पहली बार सिरो रेखांकित कर रहा हूं. यह
लंबी कविता वैज्ञानिक अराजकता और प्रगतिशीलता के कुछ नुस्खों को अपनाने के बावजूद
एक नया मानक बनाती है. ना इससे ज्यादा ना इस से कम, जो है,
वह है.
1967 में मैं दिल्ली आ गया था, जिस समय
मौत से जूझते हुए राजकमल ने यह कविता लिखी थी. शायद राजकमल चौधरी को यह पता चल गया
होगा कि यह लंबी कविता अपने छोटे से आकार के बावजूद उनकी गद्य और पद्य सभी रचनाओं
से श्रेष्ठतर है और मेरा अनुमान है कि अस्पताल में रहते हुए राजमल चौधरी ने जब
सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन ‘अज्ञेय’ को बुलाया होगा तो शायद वह इस कविता पर
अज्ञेय की संमति चाहता होंगे. मैं नहीं जानता कि अज्ञेय ने राजकमल की इस कविता पर
कहीं कोई संमति दी है अथवा नहीं. उनकी यह कविता
उन्होंने अज्ञेय को ही समर्पित की थी.
राजकमल के उपन्यासों, कहानियों और समीक्षात्मक निबंधों का एक
समग्र राजकमल रचनावली के नाम से राजकमल प्रकाशन द्वारा प्रकाशित हुआ है.
उस पर मैं कोई टिप्पणी नहीं करना चाहता. लोग बताते हैं कि राजकमल चौधरी ने मैथिली में कुछ अच्छी कहानियां लिखी हैं
जिन्हें मैंने नहीं पढ़ा. 'एक अनार एक बीमार' क्योंकि मैंने अधिकरण में प्रकाशित किया था इसलिए उसके सामाजिक सरोकार और
कलात्मक राजनीतिक अर्थशास्त्र से अपरिचित नहीं हूँ. विदेशी तकनीकी और आलोचनात्मक शब्द का सहारा लिया जाए तो इस उपन्यास को 'प्रकृतिवाद' में बांधा जा सकता है और उसे ही ध्यान में रखकर संभवतः शिव प्रसाद सिंह ने अधिकरण में फ्रेंच
प्रकृतिवाद के दर्शन किये होंगे. अधिकरण पढ़ने के बाद
डॉ. शिव प्रसाद सिंह ने जो पत्र लिखा था उसके आधार पर
मैं यहां पहुंच रहा हूं आगे की बात नहीं करता. मैंने तो 'एक अनार एक बीमार' को अन्यथावादी रचना अधिकरण में ही
घोषित कर दिया था.
यह बतलाना जरूरी समझता हूं कि जिस तरह से बांग्ला में हंगरी
जनरेशन, तेलुगु में दिगंबर पीढ़ी और दिल्ली में अकविता जैसे
समूह सामने आए जिनमें रूढ़ियों को तोड़ते हुए वीभत्स और ग्राम्य अश्लील चित्रण
किया गया उनका भविष्य पूंजीवादी विकृतियों के अंधकार में जा रहा था जिसमें 1967
के नक्सलबाड़ी के आंदोलन, कृष्णा और गोदावरी
के आंदोलन, तेलंगाना के पुनर्जीवित सशक्त आंदोलन इत्यादि ने
क्रांतिकारी बदलाव का काम किया. अन्यथावाद इनके आसपास ही था लेकिन न तो इनसे
प्रभावित था और न ही अप्रभावित.
जिसके बारे में मेरे दोस्तों ने
लिखा है कि मेरी रचनाएं इसके आसपास होने के बावजूद सामाजिक संदर्भों को लेकर चलती
हैं. राजकमल चौधरी को मैंने अन्यथावाद के घेरे में चयनित जरूर किया था लेकिन उनकी
आजादी पर और किसी की भी आजादी में मेरी आलोचना बाधक नहीं बनी. राजकमल चौधरी के
संदर्भ में यह सारा कुछ बोल रहा हूं . सौदाहरण यदि कहूं तो यात्रा लंबी हो जाएगी, इसलिए इस प्रश्न को मुक्ति में बदल दे रहा हूं जो कतई
आध्यात्मिक नहीं है.
'मछली मरी हुई' को जिस तरह से मौलिक लेखन के रूप में प्रसारित किया गया है उस पर प्रश्न
उठाते हुए राजकमल चौधरी ने कहा था कि आप तो जान ही चुके होंगे इसे मैंने कहाँ से
उठाया है. सिर्फ लोकेल और पात्र बदले हैं.
शैली मेरी है लेकिन बाकी सब कहां से लिया है इसे तो आप जानते ही
होंगे. लेकिन इस स्वीकारोक्ति के बावजूद 'मछली मरी हुई' को हिंदी के लिए एक योगदान मैं मानता
हूं और यदि लेखक विश्व साहित्य से कुछ नई चीज हासिल कर अपनी भाषा और साहित्य को
समृद्ध करता है तो मकड़ी जाल बुनने वालों की तुलना में अधिक
महत्वपूर्ण है. मैं संदेह प्रकट करता हूं कि राजकमल चौधरी के नाम पर बहुत कुछ जो
प्रकाशित हुआ है वह उनका लिखा हुआ नहीं है और न ही उनके व्यक्तित्व में रत्ती भर
भी इजाफा करता है. मैं राजकमल चौधरी के व्यक्तिगत जीवन के बारे में जानता तो हूं लेकिन विस्तार से लिखने की बजाय इतना भर कह
देना चाहता हूं कि बी.एन. कॉलेज पटना में पढ़ते हुए शोभना नाम की एक साथ पढ़ने
वाली युवती से उन्हें इतनी जबरदस्त मुहब्बत थी कि जब वह भागलपुर चली गई तो राजकमल
चौधरी ने भी बी.एन. कॉलेज छोड़कर उनका पीछा करते हुए भागलपुर से कॉलेज में पहुंचकर
बी. काम. करना स्वीकार कर लिया. लेकिन उनके संबंध आगे नहीं बढे. आजीविका के तौर पर
राजकमल चौधरी ने पटना सचिवालय में एक लिपिक का काम ले लिया था जिससे खाना पीना चल सके और वह पटना में
रहने लगे. अपने घर में रहना उनके लिए संभव नहीं था क्योंकि अपने पिता की तिरछी नजर
के शिकार वे तब से ज्यादा रहने लगे थे जब उनके पिता ने राजकमल की
उम्र वाली एक लड़की से तीसरी शादी कर ली थी जिसे राजकमल पचा नहीं पाए और घर से दूर
रहना ही उचित समझने लगे.
मसूरी की सावित्री से शादी एक साल
से अधिक नहीं चली क्योंकि धन
संपन्न उस महिला की भतीजी संतोष से राजकमल का झुकाव पत्नीवत हो गया था.
फिर राजकमल को मसूरी से भी अलविदा करना पड़ा. राजकमल चौधरी विदेशी
विचारकों में मार्क्स से उतने प्रभावित नहीं थे जितने नीत्से और फ्रायड से थे.
उनके समस्त लेखन में इसकी छाप किसी ना किसी रूप में
देख सकते हैं. छिन्नमस्ता, उग्रतारा और काली का भी उन पर
प्रभाव था. बांग्ला और मिथिला की संस्कृति और रहन-सहन और
भाषा में भी क्रियोल जैसा कुछ पाते हैं. बांग्ला और मैथिली की सांस्कृतिक धरोहर से
राजकमल चौधरी बहुत प्रभावित थे. वे विद्यापति को भी
बहुत बड़ा कवि मानते थे. विद्यापति को बांग्ला भाषी, मैथिली
भाषी और यहाँ तक की हिंदी विद्वान भी हिंदी साहित्य में महत्वपूर्ण स्थान देते हैं. बांग्ला और मैथिली विद्वान
विद्यापति को अपना-अपना मानते हैं.
उनकी पत्नी शशि निहायत कुशल महिला थी और
उनके साथ होने पर लगता ही नहीं था कि यह राजकमल चौधरी वही है जो किसी भी बदनामी की
परवाह नहीं करता.
चीना कोठी में रहते हुए वे अक्सर कहते थे
कि अगले सप्ताह गांव जाऊंगा और शशि को लेकर आऊंगा. भिखना पहाड़ी में एक मेरे चाहने
वाले मकान मालिक हैं जिन्होंने थोड़े से किराए में अपने मकान का एक हिस्सा देने का
वचन किया है, बशर्ते कि मैं
परिवार लाऊँ. कुछ दिनों बाद वे अपने गांव गए और शशि जी के लिए अच्छे वस्त्र खरीद
कर ले गए . वे अपनी पत्नी को बहुत अधिक प्यार करते थे . तमाम बुरी हरकतों के बावजूद यह सफेद सच था. जिसका अनुभव शशि जी के आने के
बाद मैंने भी किया था. जब शशि जी को लाने गाँव गए थे तो कुछ दिन वहीं ठहर गए थे.
उसी दरमियान पटना से ' दृष्टिकोण' का एक अंक आया जिसमें नोबेल प्राइज विजेता यूनानी कवि सैफ़रिस पर मैंने एक लेख लिखा था. अंक उनके गांव भेज दिया था. इसे पढ़ने के बाद उन्होंने चिट्ठी लिखी कि - "दृष्टिकोण मिला. जॉर्ज
सैफ़रिस् (सिफलिस) पर आपका लंबा लेख पढ़ा ..... मैं तो चाहता हूं कि आप जल्द से
जल्द पटना छोड़कर दिल्ली चले जाइए और दिल्ली से अमेरिका पहुंच जाइए. इस देश में आप
जैसों के लिए जगह नहीं है."
इस पत्र को शलभ श्रीराम सिंह जैसे
कुछ लेखकों ने पढ़ा तो मुझ पर पटना छोड़ने का दबाव बनाने लगे. शलभ श्रीराम सिंह तो
कुछ लोगों पर आरोप लगाते हुए रोने लगता था और बार-बार कहता था कि शिवमंगल तुम पटना
छोड़ो. राजकमल ठीक कहता है. शलभ श्रीराम सिंह मेरे एक-दो ऐसे मित्रों में से थे जो
मुझे तुम कहा करते थे अन्यथा बुजुर्ग और अन्य लोग मुझे आप ही संबोधित करते थे.
एक दिन एमएलए फ्लैट में शिव चंद्र शर्मा
के यहां चार-पाँच युवा
लेखक बैठे हुए थे. इसी बीच जब राजकमल चौधरी आए तो उन्होंने कहा कि आज मैं एक लेटर
बम लाया हूं. सब लोगों ने कहा कि क्या है? जल्दी बताओ. रेणु
जी का हस्तलिखित पत्र उन्होंने जेब से निकाला और कहा कि अधिकरण पत्रिका पर रेणु जी
ने बहुत वीभत्स हमला किया है. यह कहते हुए राजकमल ने
पत्र मुझे दिया. फिर मैंने राजकमल से कहा कि आप ही पढ़ कर सबको सुना दे.
फणीश्वरनाथ रेणु ने लिखा था कि "अधिकरण वालों को एक चौराहे पर
इकट्ठा कर उनके मुंह में पेशाब करना चाहिए."
यह सुनते ही सभी लोग भड़क गए थे और
एक आदमी ने तो यहां तक कह दिया कि क्यों नहीं इस काम की शुरुआत रेणु जी से ही की जाए.
फिर अधिकरण को ध्यान में रखते हुए प्रकृतिवाद, अश्लीलता,
यथार्थ लेखन, नग्न यथार्थ, और वीभत्स वर्णन इत्यादि पर लगभग एक घंटे तक बहस चली. एक आदमी ने तो यह भी
कहा कि शिवमंगल जी रेणु जी को पत्र लिखें कि हम लोग जल्दी ही यह काम उनके मुंह से
ही शुरू करने की तैयारी कर रहे हैं. जगह बता दीजिए हम लोग किस चौराहे पर आयें
इत्यादि इत्यादि. कहना जरूरी है कि उन दिनों इस तरह की
चर्चा-परिचर्चा बहुत थी और वरिष्ठ लेखक भी रुढियाँ तोड़कर रचना करने की होड़ में
मानो उतर गए थे. रेणु की 'दीर्घतपा (1964)' जैसी पुस्तकें इसका उदाहरण है.
शिव चंद्र शर्मा जब एमएलए फ्लैट चले गए तो
अक्सर शाम को राजकमल चौधरी, प्रमेंद्र
और अन्य तमाम युवा लेखक और कवि लगभग रोज ही पहुंचते थे
और घंटों शिव चंद्र शर्मा से सांस्कृतिक और साहित्यिक विषयों पर बातें किया करते
थे. कुछ लोग तो लौटते ही नहीं थे. हॉल में बिछी दरी के ऊपर लेट कर रात गुजार देते
थे. इन सारी चीजों के बारे में एक दिन राजकमल चौधरी ने
कहा कि अमुक लेखक कह रहे थे कि शिव चंद्र जी नाबालिगों के मसीहा बने हुए हैं . इस
बात पर पूरी रात बहस चलती रही थी और जिस लेखक ने यह टिप्पणी की थी उसकी जमकर बखिया
उखेड़ी गई थी. इस तरह की चीजें अक्सर आ जाती थी और
एक-दो रोज तक राजकमल जरूर कोई फुलझड़ी छोड़ देते थे, जिससे
दूसरे लोगों को एजेंडा मिल जाता था. एक बार तो ऐसा हुआ कि एक बड़े और प्रगतिशील लेखक के बारे में राजकमल
ने एक भद्दी बात कह दी थी जिस पर सभी लोगों को एतराज था लेकिन सभी लोग राजकमल को
इतना प्यार भरा महत्व देते थे कि उसका बहिष्कार संभव नहीं था.
एक दिन की बात है कि मैं और राजकमल दोनों
एमएलए फ्लैट से निकले और सड़क पर रिक्शे का इंतजार कर रहे थे कि बड़े नाटकीय ढंग
से राजकमल ने कहा कि शिवमंगल जी जानते हैं महानगर कोलकाता लोकेल और वहां से उपजे
जीवन और पात्रों को लेकर मैंने यह पाँच हजार पृष्ठों का उपन्यास लिख मारा है. देखता हूं उसे छापने की हिम्मत कौन
प्रकाशक करता है. पहली बार यह बात मैं आपको ही बतला
रहा हूं . मैंने एक ही शब्द कहा 'अच्छा’. मेरे एक शब्द का
मानी राजकमल समझ गए और दोनों रिक्शे पर जा बैठे. चूंकि
राजकमल का तीर खाली गया था तो फिर आधे रास्ते तक खामोश
रहे फिर कहा कि आपका एक शब्द अविश्वास के लिए काफी है. मेरा झूठ आप ने पकड़ लिया.
फिर हम दोनों सामान्य हो गए और चीना कोठी पहुंच गए.
दरअसल राजकमल को झूठ बोलने में महारत
हासिल थी. एक दिन हम सभी लोग शिव चंद्र जी के यहाँ बैठे थे तो राजकमल चौधरी ने
विस्फोट किया कि मैं आप लोगों को निजी जिंदगी की एक बात बताता हूं. मैं जब कोलकाता
में एक कमरा लेकर फ्रीलांसर के रूप में रहता था और कभी-कभी श्रेयांश प्रसाद जैन और
रमा जैन के पत्रों का जवाब लिखा करता था तो एक दिन शाम के वक्त मर्लिन मुनरो मेरे
पास पहुंच गई और कहा कि सिर्फ आपसे ही मिलने के लिए ही मैं हिंदुस्तान आई हूं. आज की रात आपके पास रहूंगी और अपने
पेशे की समृद्धि के लिए जानना चाहती हूं कि भांति-भांति की औरतों पर आप का जादू कैसे चलता होता है ? मैं सुबह
ही अपने देश वापस चली जाऊंगी. केवल आज की रात मुझे इस
रहस्य को जान लेना है. इसको सुनने के बाद लगभग सभी लोग
प्रभावित लग रहे थे लेकिन धुर मार्क्सवादी पत्रकार प्रर्मेंद्र अपने को नहीं रोक
पाए और दांत पीसते हुए कहा कि आपकी लेखन शैली की हम लोग कदर करते हैं, इसलिए बहुत सी बातें बर्दाश्त कर लेते हैं. लेकिन
आज का झूठ तो बर्दाश्त से बाहर है. आज की दुनिया में मर्लिन मुनरो अकेली आयें और
किसी को पता ना चले. सारी दुनिया उनकी बाइट लेने पहुंच जाएगी. इसलिए झूठ ऐसा बोलिए
कि हम बर्दाश्त कर सके. इसके बाद हम सभी हंसने लगे. कहने का मतलब है कि राजकमल झूठ
बहुत बोलते थे.
राजकमल की जब मृत्यु हुई उस समय मैं
दिल्ली में था और अक्सर शाम को इंडियन कॉफी हाउस में होता था. एक दिन लोगों ने कहा
कि राजकमल की मृत्यु हो गई है. राजकमल की मृत्यु की खबर पाकर हम सभी लोग रीगल
बिल्डिंग के पीछे एक कमरे में इकट्ठे हो गए और शोक संवाद शुरू हुआ. मुझे जब बोलने
को कहा गया तो और बातों के साथ मैंने यह भी कह दिया कि राजकमल बहुत बड़े झूठे थे
और अपने बारे में झूठे गल्प लोगों को परोसने में उस्ताद थे . मेरे
इस कथन से राजकमल के कई फैन नाराज हो गए जिनमें रमेश गौड़ और बहुत से लोग थे. राजकमल चौधरी के मरने पर नागार्जुन ने कविता लिखी थी-
'अच्छा हुआ दुष्ट की तुम चले गए.' इस खरी-खोटी
बात से भी राजकमल के भावुक फैन नाराज थे. मैं जानता था
कि राजकमल चौधरी विद्रोही साहित्य लिखते हैं लेकिन बुजुर्ग लोगों के पैर भी छूते
थे. मेरी उपस्थिति में जब भी राजकमल नागार्जुन से मिले उन्होंने विनम्रता से उनके
पैर छुए.
(परिवार के साथ )
मैं पहले बता चुका हूं कि राजकमल गाँव गए हुए थे और अपनी पत्नी को लेकर
आने वाले थे लेकिन वे अकेले पटना आए और भिकना पहाड़ी में जिसमें ठहरने का मन बना
रखा था किराए के मकान में रहने लगे. उनके चाहने वाले मकान मालिक को उन्होंने भरोसा
दे दिया कि मेरी पत्नी आने वाली है. उन्होंने बैठक में एक फंदा टांग दिया और जो
कोई उनसे मिलने आता था उसे कहते थे कि फंदा डाल दिया है किसी दिन उस पर लटक भी
जाऊंगा. इसी को विषय वस्तु बनाकर एक कहानी भी लिख डाली थी. एक दिन मेरे कान में
बोले कि आपने तो पकड़ लिया होगा कि यह कहानी मैंने कहाँ से चुराई है . और तो कोई
पकड़ नहीं पाएगा, इसलिए मैंने आपको बता दिया. आप तो किसी से
कहेंगे नहीं. सचमुच मैंने यह बात किसी से नहीं बताई . लेकिन
वह लटकने वाला रहस्य बना ही रहा . सभी को लगता था कि
किसी दिन शराब पीकर ये सचमुच नहीं लटक जाए. उनकी पत्नी
शशि जी पटना आई और भिकना पहाड़ी में रहते हुए एक बेटे को जन्म दिया. उसका नाम माधव
है और वह आजकल अपने पैत्रिक गाँव महिषी में ही रहता है तथा मैथिली मैं कविताएँ भी
लिखता है. उस फंदे पर एक पालना टंग गया . इसके बाद उस
फंदे का रहस्य लोगों को समझ में आ गया क्योंकि उन्हें तो वहां पालना टांगना था.
अपनी पत्नी शशि जी के भिकना पहाड़ी वाले किराए के मकान में आने के बाद राजकमल का
दिन-रात लिखना जरूरी हो गया क्योंकि लिखना, अनुवाद करना,
संपादन करना कॉपी एडिटिंग और यहां तक की प्रूफ रीडिंग के द्वारा
लगभग पाँच सौ रुपये के पारिश्रमिक का इंतजाम वे कर लेना चाहते थे. और इनका हिसाब
ऐसा था एक हाथ से दिया हुआ काम लो और दूसरे हाथ से पैसे दो,नहीं
तो गाली खाने के लिए तैयार हो जाओ . किसी की हिम्मत
नहीं थी कि राजकमल चौधरी का पारिश्रमिक देने में कोई देरी करें. पारिश्रमिक नहीं
देने का तो सवाल ही नहीं था . अब उनका शाम के वक्त लगभग रोज शिव चंद्र शर्मा के
यहां पहुंचने का सिलसिला बाधित हो गया और रेणु के यहां भी वे कम ही जा पाते थे.
हर रोज शाम के वक्त भिकना पहाड़ी वाले राजकमल के आवास पर पटना के कई
युवा लेखक पहुंचते थे और अपनी रचनाएं सुनाना और बहसें करना रोज का एजेंडा बन गया
था. कभी-कभी मैं भी वहां पहुंच जाता था. नए लेखकों में आलोक धन्वा और कई युवा कवि
और लेखक होते थे जिनके चेहरे तो याद हैं लेकिन नाम भूला सा लग रहा है, इसलिए नामोल्लेख छोड़ ही दे रहा हूं .
भिखना
पहाड़ी से मलयराज चौधरी का आवास नजदीक पड़ता था इसलिए हाथ खाली होने पर राजकमल
वहां से कुछ पैसे उधार ले आते थे और जैसा कि वह बताते थे मलयराज चौधरी कभी ना नहीं कहते थे. झूठ या सच
ऐसा वह हम लोगों को बताया करते थे. इतना तो सच था कि प्रेस और प्रकाशन संस्थानों
से वे साधिकार पैसे लेते थे और उनका दिया हुआ काम पूरा करके उनके मुंह पर फेंकते
थे. गिड़गिड़ाते हुए निजी अभाव बताकर अपने कार्यस्थल पर पैसा लेना उनके स्वभाव के विपरीत था. उनके पहुंचते ही जरूरी बातचीत के बाद संस्थान
के मालिक या मैनेजर जो भी उपस्थित होता था वह पैसों की पेशकश खुद करता था. उनके
लिए स्थान पर पहुंचने का मतलब होता था कि उन्हें पैसे की जरूरत आन पड़ी है.
ज्यादातर यह भी होता था कि लोग काम देने
के साथ ही अग्रिम पारिश्रमिक भी दे जाते थे और तय तारीख पर काम वापिस ले जाते थे.
उनके घर पर उनके या उनकी पत्नी की ओर से तनाव किसी ने कभी नहीं देखा. उनकी पत्नी
शशि जी के पटना जाने के बाद यौन बीमारियों से ग्रस्त होकर पटना कॉलेज अस्पताल में
भर्ती होने का कारण बहुतों की समझ में नहीं आ रहा था और तरह-तरह के अनुमान
दोस्त लोग लगा रहे थे. यह सच हो भी सकता है और नहीं भी क्योंकि
राजकमल का परस्त्रीगामी नैसर्गिक या प्राकृतिक बन चुका था.
पटना अस्पताल में मैं
उनसे आखिरी बार मिला था और अस्पताल से निकलते वक्त उनके एक दोस्त ने यौनाचार का
आरोप लगाया तो नहीं चाहते हुए भी मेरा हाथ उठ गया था. उस आदमी ने राजकमल को सेक्स
का भूखा भेड़िया कह दिया था. लेकिन मेरा ऐसा मानना है
कि इतना बड़ा लेखक केवल यौन संबंध बनाने के लिए इतनी जगह नहीं जाता होगा. बल्कि यह
एक लेखक की रचना प्रक्रिया का हिस्सा होगा. वास्तविकता यह थी कि मेरे जैसे कुछ लोग
राजकमल की झूठी- सच्ची कहानियों के बावजूद राजकमल के प्रति नफरत का भाव नहीं रखते
थे. उनके मरने के बाद मैंने उनके झूठ की तरफ इशारा किया, नागार्जुन
ने कविता लिखी- ‘अच्छा हुआ तुम मर गए दुष्ट’, लेकिन न
तो मैं राजकमल से नफरत करता था और न ही नागार्जुन उनके प्रति नफरत का भाव रखते थे.
लोगों की समझ के फेर का कोई इलाज नहीं होता और किसी के कथन का भाव शब्दों से हूबहू
पैदा हो जरूरी नहीं है.
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शिवमंगल सिद्धांतकर
राजकमल चौधरी ऐसे लेखक थे जो जहाँ जाते थे संस्मरणों की बरसात करते होते थे. राजकमल चौधरी ने शुरुआत में मैथिली को अपना चेहरा दिया लेकिन शीघ्र ही हिंदी के विद्रोही साहित्यकार चेहरे के रूप में जाने जाने लगे. कुछ समय कलकत्ता में रहते हुए वहां के साहित्य, जीवन और संस्कृति से भी अपने आप को ओतप्रोत कर लिया था. उन्नीस सौ साठ के दशक में जब वे पटना आए थे तो ठहरने के लिए ठिकाने के रूप में उन्हें पंडित शिव चंद्र शर्मा का सहयोग मिला. वे अखिल भारतीय हिंदी शोध मंडल और दृष्टिकोण के कार्यालय लोदी रोड स्थित 'चीना कोठी' में रहने लगे. इस चीना कोठी का एक हिस्सा शिव चंद्र शर्मा ने सपरिवार रहने के लिए किराए पर ले रखा था जिसमें रहना भी होता था और शोधमंडल और दृष्टिकोण के कामकाज भी होते थे. मेरे बड़े भाई दीनानाथ राय से शिव चंद्र शर्मा की दोस्ती थी और उन्होंने अपना स्थान उनके घर में एक पारिवारिक सदस्य की तरह बना लिया था. मेरे बड़े भाई खुद तो वहाँ नहीं रहते थे लेकिन हमारे परिवार का कोई भी सदस्य पटना जाता था तो उसके ठहरने के लिए शिव चंद्र शर्मा का आवास उपलब्ध था. बिहार विधान परिषद में मनोनीत होने के बाद शिव चंद्र शर्मा सपरिवार जब एमएलए फ्लैट चले गए तो मैं वहाँ अकेला रहता था. इस मकान के आंगन और ओसारे में हिंदी टाइप की सेटिंग के लिए छोटी सी व्यवस्था शर्मा जी ने कर रखी थी जिसमें काम करने के लिए कभी-कभी किसी कंपोजिटर को बुला लिया जाता था.
(राजकमल चौधरी ) |
चीना कोठी में ठहरने की इजाजत शर्मा जी की ओर से जब राजकमल चौधरी को मिली तो वहां रहने वाले हम दो हो गए थे. राजकमल चौधरी के वहां ठहरने से कंपोजिंग के काम में थोड़ी तेजी आ गई और बतलाना जरूरी है कि राजकमल चौधरी की 'कंकावती' गद्य कविता पुस्तक की टाइप सेटिंग राजकुमार चौधरी ने वहीं से कराना शुरू कर दिया. बीड़ी पीते हुए वे कंकावती की कविताएं लिखते जाते थे और कंपोजिटर को थमाते रहते थे. कुछ ही दिनों में कंकावती इन्होंने लिख डाली और कंपोजिटर ने कंपोज कर दिया. फिर राजकमल चौधरी ने किसी प्रेस में ले जाकर वहां से शायद दस प्रतियाँ बनवाई जिन्हें पटना और पटना से बाहर कुछ लोगों को भेज दिया. मुझे भी एक प्रति उन्होंने दी थी जिसकी समीक्षा मैंने लिखी और उसे ‘अधिकरण-1’ में शामिल किया जो 1965 में प्रकाशित हुआ था. अधिकरण में लिखने के लिए जब मैंने राजकमल चौधरी से आग्रह किया तो उन्होंने 'एक अनार एक बीमार' लघु उपन्यास छपने के लिए दिया जिस पर टिप्पणी करते हुए मैंने उसे अन्यथावादी रचना घोषित की थी. यह शायद राजकमल को अच्छा नहीं लगा क्योंकि वे अपने को 'हंगरी जनरेशन' के नजदीक पाते थे और उसी तरह की ही रचनाएं लिख रहे थे. विमल वसाक और मलयराज चौधरी की चर्चा करते रहते थे. उन दिनों मलयराज चौधरी पटना में ही रहते थे जिनके यहां वे अक्सर जाया करते थे.
गद्य हो या पद्य अपने खूबसूरत अक्षरों से खुद लिखते थे और एक बार के लिखे को दोबारा शायद पढ़ते भी नहीं थे. उनकी लेखन शैली में इतनी रवानगी होती थी कि उसे पढ़ने के बाद अधिकतर पाठक उनके फैन हो जाया करते थे. बातचीत भी ये धीरे-धीरे करते थे और स्त्रियों को अपना प्रशंसक बनाने में उन्हें देर नहीं लगती थी. यह जानते हुए भी कि राजकमल चौधरी भयानक औरतखौर है, औरतें उनके पास खिंची चली आती थी. उनकी फैन औरतों में किशोरवय की लड़कियों से लेकर अधेड़ उम्र की औरतें भी हुआ करती थी. चीना कोठी में जब वे मेरे साथ रहते थे तब वे सुबह नौ-दस बजे तक तैयार होकर न जाने कहां चले जाते थे. सुबह में वे बीड़ी का बंडल लिए हुए, लुंगी पहने चाय की दुकान पर चले जाते थे और कई-कई कप चाय पीकर, बीड़ी के आधे बंडल को साफ करके जब लौटते थे तो सीधे बाथरूम में चले जाते थे. कभी-कभी मिट्टी के कुल्हड़ में मेरे लिए भी चाय लाते थे. मैं पी तो लेता था लेकिन हमेशा उन्हें मना करता था कि मेरे लिए चाय लाने की आवश्यकता नहीं है अगर मुझे पीना होगा तो मैं खुद चला जाऊंगा. अच्छा पैंट- शर्ट पहनना और जूते की पॉलिश करना उनके लिए जरूरी होता था. इसके बाद स्मार्ट बनकर निकल जाते थे.
कुछ दिनों बाद मैंने देखा कि बगल वाले हिस्से में रहने वाले बंगाली परिवार की एक किशोर लड़की पर उनकी नजर थी. आते-जाते यदि वह टकराती तो भद्र बंगाली लोगों की तरह उससे व्यवहार करते थे. एक दिन इत्तिफ़ाक से मैं चीना कोठी की तरफ आ रहा था और वे निकल रहे थे तो मैंने पाया कि वे विचित्र प्रेमिल आँखें और चेहरा बनाते हुए निकल रहे थे और इतना खोए हुए थे कि मुझसे टकराते हुए बचे थे. उस दिन उनकी चोरी पकड़ी गई थी. दूसरे दिन सुबह न तो उन्होंने कुछ कहा और न ही मैंने कुछ पूछा. तीसरे दिन चाय पीते हुए मैंने देखा कि उस लड़की को रिक्शे पर लेकर उड़ रहे हैं. चौथे दिन सुबह-सुबह वह मेरे लिए खुद कुल्हड़ में चाय लाए और बोले कि मेरी चोरी तो आपने पकड़ ली. मैंने कहा कि चोरी तो चोर की पकड़ी जाती है, आप चोर थोड़े ही हैं. उसके बाद वे मंद- मंद मुसकुराते रहे लेकिन हमने बात आगे नहीं बढ़ाई. उसके बाद वे अक्सर उस लड़की को लेकर जाते थे लेकिन इस बंगाली परिवार में वह प्रवेश नहीं पा सके थे. इसकी उन्होंने कोशिश भी नहीं की, हालांकि वे खतरों से खेलने वाले खिलाड़ी थे.
राजकमल
चौधरी
|
उस समय लड़कियां या औरतें पुरुषों के लट्टू होने को आज की तरह अपराध मूलक नहीं मानती थी, बल्कि कुछ अपवादों को छोड़कर बहुतेरी तो गर्व का अनुभव करती थी. वे दिन भर दोस्तों के यहाँ होते थे और बदनामी के बावजूद उनके दोस्तों की घर की औरतें उनसे नफरत नहीं करती थी. बुजुर्ग औरतों के पैर छूना, किशोरवय की लड़कियों से शालीन मजाक करना, परिवार के हम उम्र पुरुषों से भी हंसी- मजाक और कथा-कहानी का अलख जगाते रहते थे. इस तरह जिस परिवार में जाते थे उसे अपना ही घर बना लेते थे. उनके दोस्त बतलाते थे कि औरतों को अपना शिकार बनाने का उनका यह इकलौता तरीका था. उनके दोस्त ही बतलाते हैं कि यौनाचार की उनकी भूख इतनी ज्यादा थी कि पारिवारिक उम्दा गोश्त हासिल नहीं कर पाने की हालत में वे गली-गली में ठर्रे की शराब और अठन्नी- चवन्नी वाली औरतों से भी परहेज नहीं करते थे. यही वजह है कि अनेक प्रकार के घातक यौन रोगों के वे शिकार हो गए थे और अंततः यही सब कुछ उनकी असमय मृत्यु का कारण रहा.
राजकमल ने चीना कोठी के पास ही लोदी रोड पर 'भारत मेल' एक कांग्रेसी नेता के पत्र का संपादन शुरू कर दिया था. वहां वे अकेले संपादक से लेकर प्रूफ रीडर तक का काम करते थे. उनके सहायक के रूप में एक कंपोजिटर और दूसरा प्रिंटिंग मशीनमैन था जो ज्यादा समय कंपोजीशन का काम करता था. कभी-कभार जब मैं यूं ही चला जाया करता था तो पाता यह था कि वह दूसरे- दूसरे अखबारों से सामान्य खबरें तैयार करके कंपोजिटर को थमाते जाते थे और कांग्रेस पार्टी के सर्कुलर के आधार पर भी कभी समाचार तो कभी फीचर लेख तैयार कर देते थे. यह सब करते समय लगातार बीड़ी पीते रहते थे और बातचीत भी करते रहते थे लेकिन उनके लिखने का काम रुकता नहीं था. यह एक विलक्षण बात थी. कभी-कभी 'भारत मेल' में कविताएं भी छापते रहते थे. मेरी भी एक कविता उन्होंने एक बार छापी थी और जो कोई उन्हें चलते-फिरते दे देता था उसे छाप देते थे. बाहरी दबाव उन पर कोई नहीं होता था. कहते थे कि अच्छी बात है कि कोई कांग्रेसी नेता यहां नहीं आता है और ना ही कोई छानबीन करता है कि मैं यहां क्या करता हूं. निर्धारित तिथि पर निर्धारित प्रतियां मशीनमैन अखबार के मालिक तक पहुंचा देता था और हम सब की तनख्वाह और दूसरे खुदरा खर्च ले आता था. अक्सर सर्जन शील लेखक अखबारों में काम करने से कतराते हैं लेकिन राजकमल चौधरी को केवल तय वेतन मिल जाना चाहिए, फिर वे विज्ञापन बनाने से लेकर हेडलाइंस तक बिना किसी नानुकुर के भारत मेल के सभी काम कर दिया करते थे. ऑफिस के बाहर कोई सामग्री लेने अथवा अखबार के लिए विज्ञापन इत्यादि हासिल करना उनके जिम्मे नहीं था, इसलिए रोज दफ्तर में चार-पांच घंटे नियमित रूप से बैठकर वहीं काम पूरा कर देते थे. साथ में कोई काम नहीं लाते थे, जिस दिन नहीं आना होता था उस दिन का काम दूसरे दिन पूरा कर देते थे. भारत मेल में काम करना उनकी मजबूरी थी और अपनी आजादी के लिए जरूरी भी.
'कंकावती' पुस्तक के विषय में कुछ बातों का उल्लेख कर देना मैं जरूरी समझता हूं. इस पुस्तक की कविताएं पद्य के क्रम में नहीं बल्कि गद्य के क्रम में लिखी गई थी और ऐसी भी कविताएं उसमें थी जो पहले कभी लिखी गई थी. राजकमल चौधरी का मानना था कि एक कविता को एक बार ही क्यों, कई बार क्यों नहीं लिखना चाहिए ? अपनी इस मान्यता को ही 'एक कविता को एक बार ही क्यों कई बार क्यों नहीं लिखें, उन्होंने कंकावती में व्यवहार के तौर पर उतारा था. इस कविता पुस्तक की समीक्षा कहें या परिवेश परिदर्शन इसमें मैंने 'टाइम और स्पेस' के संबंधों का सिद्धांत संदर्भित किया था. चाँद से यदि पृथ्वी को देखा जाए तो वह वैसी नहीं दिखेगी जैसी हम देखते हैं और समय के अंतराल पर यदि देखना हो तो उसका क्या रूप बनेगा. कोई कविता शताब्दियों पहले लिखी गई हो, वह आज यदि लिखी जाए तो उसका क्या रूप होगा इत्यादि इत्यादि .
राजकमल की कविताएं न तो अज्ञेय के प्रयोगवाद के खांचे में और न ही प्रयोगवाद के प्रथम दावेदार नलिन विलोचन शर्मा के प्रपद्यवादी सांचे में आती थी क्योंकि राज कमल चौधरी का मानना था कि उनकी कविताएं किसी दूसरे के प्रयोगवादी सांचे को नहीं स्वीकारती थी. यह अलग बात है कि राजकमल चौधरी की कविताएं मैथिली की परंपरागत रास्ते से होती हुई अन्वेषणकारी आधुनिकता की खोज करती होती थी जो हिंदी में लिखित ‘कंकावती’ और ‘मुक्ति प्रसंग’ में आकर एक नया सांचा बनाती थी. मेरा तो यहां तक मानना है कि राजकमल चौधरी और धूमिल ने कविता की एक सीमा तक ऐसी नई मिसालें कायम कीं जिनको आलोक धन्वा जैसों ने 'धरती और अंतरिक्ष ' दिया. दूसरे शब्दों में नया आधार और नई अभिसरंचना प्रस्तुत की. पता नहीं मेरी इस स्थापना को कुछ लोग भद्रतापूर्वक स्वीकारेंगे अथवा उद्दंडता पूर्वक अस्वीकार करने का दुस्साहस करेंगे. यह अलग बात है कि मेरी यह स्थापना वास्तविकता पर आधारित है. कोई माने अथवा नहीं माने. कंकावती परिवेश परिदर्शन में तत्कालीन कविता के लिए कुछ सूत्रों को मैंने भी प्रतिपादित किया था जो संस्कृत से निहश्रित होने की बजाय कवियों के गद्य से उत्पादित माना जा सकता है. मैंने कंकावती परिवेश परिदर्शन में कहा था कि उत्कृष्ट गद्यकार ही उत्कृष्ट से उत्कृष्टतर और उत्कृष्टतम कविताओं का सृजन कर सकता है. शायद लोग समझ रहे होंगे कि यह स्थापना 'गद्य: कवीनां निकषम वदंति ' से शैलीगत तौर पर वैज्ञानिक रूप में प्रारब्धित नहीं है, प्रोलोंगेटेड नहीं है.
मैथिली से लेकर हिंदी तक जितने संग्रह राजकमल चौधरी के प्रकाशित हुए हैं एकमात्र उनकी लंबी कविता ' मुक्ति प्रसंग ' को मैं पहली बार सिरो रेखांकित कर रहा हूं. यह लंबी कविता वैज्ञानिक अराजकता और प्रगतिशीलता के कुछ नुस्खों को अपनाने के बावजूद एक नया मानक बनाती है. ना इससे ज्यादा ना इस से कम, जो है, वह है.
1967 में मैं दिल्ली आ गया था, जिस समय मौत से जूझते हुए राजकमल ने यह कविता लिखी थी. शायद राजकमल चौधरी को यह पता चल गया होगा कि यह लंबी कविता अपने छोटे से आकार के बावजूद उनकी गद्य और पद्य सभी रचनाओं से श्रेष्ठतर है और मेरा अनुमान है कि अस्पताल में रहते हुए राजमल चौधरी ने जब सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन ‘अज्ञेय’ को बुलाया होगा तो शायद वह इस कविता पर अज्ञेय की संमति चाहता होंगे. मैं नहीं जानता कि अज्ञेय ने राजकमल की इस कविता पर कहीं कोई संमति दी है अथवा नहीं. उनकी यह कविता उन्होंने अज्ञेय को ही समर्पित की थी.
राजकमल के उपन्यासों, कहानियों और समीक्षात्मक निबंधों का एक समग्र राजकमल रचनावली के नाम से राजकमल प्रकाशन द्वारा प्रकाशित हुआ है. उस पर मैं कोई टिप्पणी नहीं करना चाहता. लोग बताते हैं कि राजकमल चौधरी ने मैथिली में कुछ अच्छी कहानियां लिखी हैं जिन्हें मैंने नहीं पढ़ा. 'एक अनार एक बीमार' क्योंकि मैंने अधिकरण में प्रकाशित किया था इसलिए उसके सामाजिक सरोकार और कलात्मक राजनीतिक अर्थशास्त्र से अपरिचित नहीं हूँ. विदेशी तकनीकी और आलोचनात्मक शब्द का सहारा लिया जाए तो इस उपन्यास को 'प्रकृतिवाद' में बांधा जा सकता है और उसे ही ध्यान में रखकर संभवतः शिव प्रसाद सिंह ने अधिकरण में फ्रेंच प्रकृतिवाद के दर्शन किये होंगे. अधिकरण पढ़ने के बाद डॉ. शिव प्रसाद सिंह ने जो पत्र लिखा था उसके आधार पर मैं यहां पहुंच रहा हूं आगे की बात नहीं करता. मैंने तो 'एक अनार एक बीमार' को अन्यथावादी रचना अधिकरण में ही घोषित कर दिया था.
यह बतलाना जरूरी समझता हूं कि जिस तरह से बांग्ला में हंगरी जनरेशन, तेलुगु में दिगंबर पीढ़ी और दिल्ली में अकविता जैसे समूह सामने आए जिनमें रूढ़ियों को तोड़ते हुए वीभत्स और ग्राम्य अश्लील चित्रण किया गया उनका भविष्य पूंजीवादी विकृतियों के अंधकार में जा रहा था जिसमें 1967 के नक्सलबाड़ी के आंदोलन, कृष्णा और गोदावरी के आंदोलन, तेलंगाना के पुनर्जीवित सशक्त आंदोलन इत्यादि ने क्रांतिकारी बदलाव का काम किया. अन्यथावाद इनके आसपास ही था लेकिन न तो इनसे प्रभावित था और न ही अप्रभावित.
जिसके बारे में मेरे दोस्तों ने लिखा है कि मेरी रचनाएं इसके आसपास होने के बावजूद सामाजिक संदर्भों को लेकर चलती हैं. राजकमल चौधरी को मैंने अन्यथावाद के घेरे में चयनित जरूर किया था लेकिन उनकी आजादी पर और किसी की भी आजादी में मेरी आलोचना बाधक नहीं बनी. राजकमल चौधरी के संदर्भ में यह सारा कुछ बोल रहा हूं . सौदाहरण यदि कहूं तो यात्रा लंबी हो जाएगी, इसलिए इस प्रश्न को मुक्ति में बदल दे रहा हूं जो कतई आध्यात्मिक नहीं है.
'मछली मरी हुई' को जिस तरह से मौलिक लेखन के रूप में प्रसारित किया गया है उस पर प्रश्न उठाते हुए राजकमल चौधरी ने कहा था कि आप तो जान ही चुके होंगे इसे मैंने कहाँ से उठाया है. सिर्फ लोकेल और पात्र बदले हैं. शैली मेरी है लेकिन बाकी सब कहां से लिया है इसे तो आप जानते ही होंगे. लेकिन इस स्वीकारोक्ति के बावजूद 'मछली मरी हुई' को हिंदी के लिए एक योगदान मैं मानता हूं और यदि लेखक विश्व साहित्य से कुछ नई चीज हासिल कर अपनी भाषा और साहित्य को समृद्ध करता है तो मकड़ी जाल बुनने वालों की तुलना में अधिक महत्वपूर्ण है. मैं संदेह प्रकट करता हूं कि राजकमल चौधरी के नाम पर बहुत कुछ जो प्रकाशित हुआ है वह उनका लिखा हुआ नहीं है और न ही उनके व्यक्तित्व में रत्ती भर भी इजाफा करता है. मैं राजकमल चौधरी के व्यक्तिगत जीवन के बारे में जानता तो हूं लेकिन विस्तार से लिखने की बजाय इतना भर कह देना चाहता हूं कि बी.एन. कॉलेज पटना में पढ़ते हुए शोभना नाम की एक साथ पढ़ने वाली युवती से उन्हें इतनी जबरदस्त मुहब्बत थी कि जब वह भागलपुर चली गई तो राजकमल चौधरी ने भी बी.एन. कॉलेज छोड़कर उनका पीछा करते हुए भागलपुर से कॉलेज में पहुंचकर बी. काम. करना स्वीकार कर लिया. लेकिन उनके संबंध आगे नहीं बढे. आजीविका के तौर पर राजकमल चौधरी ने पटना सचिवालय में एक लिपिक का काम ले लिया था जिससे खाना पीना चल सके और वह पटना में रहने लगे. अपने घर में रहना उनके लिए संभव नहीं था क्योंकि अपने पिता की तिरछी नजर के शिकार वे तब से ज्यादा रहने लगे थे जब उनके पिता ने राजकमल की उम्र वाली एक लड़की से तीसरी शादी कर ली थी जिसे राजकमल पचा नहीं पाए और घर से दूर रहना ही उचित समझने लगे.
मसूरी की सावित्री से शादी एक साल से अधिक नहीं चली क्योंकि धन संपन्न उस महिला की भतीजी संतोष से राजकमल का झुकाव पत्नीवत हो गया था. फिर राजकमल को मसूरी से भी अलविदा करना पड़ा. राजकमल चौधरी विदेशी विचारकों में मार्क्स से उतने प्रभावित नहीं थे जितने नीत्से और फ्रायड से थे. उनके समस्त लेखन में इसकी छाप किसी ना किसी रूप में देख सकते हैं. छिन्नमस्ता, उग्रतारा और काली का भी उन पर प्रभाव था. बांग्ला और मिथिला की संस्कृति और रहन-सहन और भाषा में भी क्रियोल जैसा कुछ पाते हैं. बांग्ला और मैथिली की सांस्कृतिक धरोहर से राजकमल चौधरी बहुत प्रभावित थे. वे विद्यापति को भी बहुत बड़ा कवि मानते थे. विद्यापति को बांग्ला भाषी, मैथिली भाषी और यहाँ तक की हिंदी विद्वान भी हिंदी साहित्य में महत्वपूर्ण स्थान देते हैं. बांग्ला और मैथिली विद्वान विद्यापति को अपना-अपना मानते हैं.
उनकी पत्नी शशि निहायत कुशल महिला थी और उनके साथ होने पर लगता ही नहीं था कि यह राजकमल चौधरी वही है जो किसी भी बदनामी की परवाह नहीं करता.
चीना कोठी में रहते हुए वे अक्सर कहते थे कि अगले सप्ताह गांव जाऊंगा और शशि को लेकर आऊंगा. भिखना पहाड़ी में एक मेरे चाहने वाले मकान मालिक हैं जिन्होंने थोड़े से किराए में अपने मकान का एक हिस्सा देने का वचन किया है, बशर्ते कि मैं परिवार लाऊँ. कुछ दिनों बाद वे अपने गांव गए और शशि जी के लिए अच्छे वस्त्र खरीद कर ले गए . वे अपनी पत्नी को बहुत अधिक प्यार करते थे . तमाम बुरी हरकतों के बावजूद यह सफेद सच था. जिसका अनुभव शशि जी के आने के बाद मैंने भी किया था. जब शशि जी को लाने गाँव गए थे तो कुछ दिन वहीं ठहर गए थे. उसी दरमियान पटना से ' दृष्टिकोण' का एक अंक आया जिसमें नोबेल प्राइज विजेता यूनानी कवि सैफ़रिस पर मैंने एक लेख लिखा था. अंक उनके गांव भेज दिया था. इसे पढ़ने के बाद उन्होंने चिट्ठी लिखी कि - "दृष्टिकोण मिला. जॉर्ज सैफ़रिस् (सिफलिस) पर आपका लंबा लेख पढ़ा ..... मैं तो चाहता हूं कि आप जल्द से जल्द पटना छोड़कर दिल्ली चले जाइए और दिल्ली से अमेरिका पहुंच जाइए. इस देश में आप जैसों के लिए जगह नहीं है."
इस पत्र को शलभ श्रीराम सिंह जैसे कुछ लेखकों ने पढ़ा तो मुझ पर पटना छोड़ने का दबाव बनाने लगे. शलभ श्रीराम सिंह तो कुछ लोगों पर आरोप लगाते हुए रोने लगता था और बार-बार कहता था कि शिवमंगल तुम पटना छोड़ो. राजकमल ठीक कहता है. शलभ श्रीराम सिंह मेरे एक-दो ऐसे मित्रों में से थे जो मुझे तुम कहा करते थे अन्यथा बुजुर्ग और अन्य लोग मुझे आप ही संबोधित करते थे.
एक दिन एमएलए फ्लैट में शिव चंद्र शर्मा के यहां चार-पाँच युवा लेखक बैठे हुए थे. इसी बीच जब राजकमल चौधरी आए तो उन्होंने कहा कि आज मैं एक लेटर बम लाया हूं. सब लोगों ने कहा कि क्या है? जल्दी बताओ. रेणु जी का हस्तलिखित पत्र उन्होंने जेब से निकाला और कहा कि अधिकरण पत्रिका पर रेणु जी ने बहुत वीभत्स हमला किया है. यह कहते हुए राजकमल ने पत्र मुझे दिया. फिर मैंने राजकमल से कहा कि आप ही पढ़ कर सबको सुना दे. फणीश्वरनाथ रेणु ने लिखा था कि "अधिकरण वालों को एक चौराहे पर इकट्ठा कर उनके मुंह में पेशाब करना चाहिए."
यह सुनते ही सभी लोग भड़क गए थे और एक आदमी ने तो यहां तक कह दिया कि क्यों नहीं इस काम की शुरुआत रेणु जी से ही की जाए. फिर अधिकरण को ध्यान में रखते हुए प्रकृतिवाद, अश्लीलता, यथार्थ लेखन, नग्न यथार्थ, और वीभत्स वर्णन इत्यादि पर लगभग एक घंटे तक बहस चली. एक आदमी ने तो यह भी कहा कि शिवमंगल जी रेणु जी को पत्र लिखें कि हम लोग जल्दी ही यह काम उनके मुंह से ही शुरू करने की तैयारी कर रहे हैं. जगह बता दीजिए हम लोग किस चौराहे पर आयें इत्यादि इत्यादि. कहना जरूरी है कि उन दिनों इस तरह की चर्चा-परिचर्चा बहुत थी और वरिष्ठ लेखक भी रुढियाँ तोड़कर रचना करने की होड़ में मानो उतर गए थे. रेणु की 'दीर्घतपा (1964)' जैसी पुस्तकें इसका उदाहरण है.
शिव चंद्र शर्मा जब एमएलए फ्लैट चले गए तो अक्सर शाम को राजकमल चौधरी, प्रमेंद्र और अन्य तमाम युवा लेखक और कवि लगभग रोज ही पहुंचते थे और घंटों शिव चंद्र शर्मा से सांस्कृतिक और साहित्यिक विषयों पर बातें किया करते थे. कुछ लोग तो लौटते ही नहीं थे. हॉल में बिछी दरी के ऊपर लेट कर रात गुजार देते थे. इन सारी चीजों के बारे में एक दिन राजकमल चौधरी ने कहा कि अमुक लेखक कह रहे थे कि शिव चंद्र जी नाबालिगों के मसीहा बने हुए हैं . इस बात पर पूरी रात बहस चलती रही थी और जिस लेखक ने यह टिप्पणी की थी उसकी जमकर बखिया उखेड़ी गई थी. इस तरह की चीजें अक्सर आ जाती थी और एक-दो रोज तक राजकमल जरूर कोई फुलझड़ी छोड़ देते थे, जिससे दूसरे लोगों को एजेंडा मिल जाता था. एक बार तो ऐसा हुआ कि एक बड़े और प्रगतिशील लेखक के बारे में राजकमल ने एक भद्दी बात कह दी थी जिस पर सभी लोगों को एतराज था लेकिन सभी लोग राजकमल को इतना प्यार भरा महत्व देते थे कि उसका बहिष्कार संभव नहीं था.
एक दिन की बात है कि मैं और राजकमल दोनों एमएलए फ्लैट से निकले और सड़क पर रिक्शे का इंतजार कर रहे थे कि बड़े नाटकीय ढंग से राजकमल ने कहा कि शिवमंगल जी जानते हैं महानगर कोलकाता लोकेल और वहां से उपजे जीवन और पात्रों को लेकर मैंने यह पाँच हजार पृष्ठों का उपन्यास लिख मारा है. देखता हूं उसे छापने की हिम्मत कौन प्रकाशक करता है. पहली बार यह बात मैं आपको ही बतला रहा हूं . मैंने एक ही शब्द कहा 'अच्छा’. मेरे एक शब्द का मानी राजकमल समझ गए और दोनों रिक्शे पर जा बैठे. चूंकि राजकमल का तीर खाली गया था तो फिर आधे रास्ते तक खामोश रहे फिर कहा कि आपका एक शब्द अविश्वास के लिए काफी है. मेरा झूठ आप ने पकड़ लिया. फिर हम दोनों सामान्य हो गए और चीना कोठी पहुंच गए.
दरअसल राजकमल को झूठ बोलने में महारत
हासिल थी. एक दिन हम सभी लोग शिव चंद्र जी के यहाँ बैठे थे तो राजकमल चौधरी ने
विस्फोट किया कि मैं आप लोगों को निजी जिंदगी की एक बात बताता हूं. मैं जब कोलकाता
में एक कमरा लेकर फ्रीलांसर के रूप में रहता था और कभी-कभी श्रेयांश प्रसाद जैन और
रमा जैन के पत्रों का जवाब लिखा करता था तो एक दिन शाम के वक्त मर्लिन मुनरो मेरे
पास पहुंच गई और कहा कि सिर्फ आपसे ही मिलने के लिए ही मैं हिंदुस्तान आई हूं. आज की रात आपके पास रहूंगी और अपने
पेशे की समृद्धि के लिए जानना चाहती हूं कि भांति-भांति की औरतों पर आप का जादू कैसे चलता होता है ? मैं सुबह
ही अपने देश वापस चली जाऊंगी. केवल आज की रात मुझे इस
रहस्य को जान लेना है. इसको सुनने के बाद लगभग सभी लोग
प्रभावित लग रहे थे लेकिन धुर मार्क्सवादी पत्रकार प्रर्मेंद्र अपने को नहीं रोक
पाए और दांत पीसते हुए कहा कि आपकी लेखन शैली की हम लोग कदर करते हैं, इसलिए बहुत सी बातें बर्दाश्त कर लेते हैं. लेकिन
आज का झूठ तो बर्दाश्त से बाहर है. आज की दुनिया में मर्लिन मुनरो अकेली आयें और
किसी को पता ना चले. सारी दुनिया उनकी बाइट लेने पहुंच जाएगी. इसलिए झूठ ऐसा बोलिए
कि हम बर्दाश्त कर सके. इसके बाद हम सभी हंसने लगे. कहने का मतलब है कि राजकमल झूठ
बहुत बोलते थे.
राजकमल की जब मृत्यु हुई उस समय मैं दिल्ली में था और अक्सर शाम को इंडियन कॉफी हाउस में होता था. एक दिन लोगों ने कहा कि राजकमल की मृत्यु हो गई है. राजकमल की मृत्यु की खबर पाकर हम सभी लोग रीगल बिल्डिंग के पीछे एक कमरे में इकट्ठे हो गए और शोक संवाद शुरू हुआ. मुझे जब बोलने को कहा गया तो और बातों के साथ मैंने यह भी कह दिया कि राजकमल बहुत बड़े झूठे थे और अपने बारे में झूठे गल्प लोगों को परोसने में उस्ताद थे . मेरे इस कथन से राजकमल के कई फैन नाराज हो गए जिनमें रमेश गौड़ और बहुत से लोग थे. राजकमल चौधरी के मरने पर नागार्जुन ने कविता लिखी थी- 'अच्छा हुआ दुष्ट की तुम चले गए.' इस खरी-खोटी बात से भी राजकमल के भावुक फैन नाराज थे. मैं जानता था कि राजकमल चौधरी विद्रोही साहित्य लिखते हैं लेकिन बुजुर्ग लोगों के पैर भी छूते थे. मेरी उपस्थिति में जब भी राजकमल नागार्जुन से मिले उन्होंने विनम्रता से उनके पैर छुए.
(परिवार के साथ ) |
मैं पहले बता चुका हूं कि राजकमल गाँव गए हुए थे और अपनी पत्नी को लेकर आने वाले थे लेकिन वे अकेले पटना आए और भिकना पहाड़ी में जिसमें ठहरने का मन बना रखा था किराए के मकान में रहने लगे. उनके चाहने वाले मकान मालिक को उन्होंने भरोसा दे दिया कि मेरी पत्नी आने वाली है. उन्होंने बैठक में एक फंदा टांग दिया और जो कोई उनसे मिलने आता था उसे कहते थे कि फंदा डाल दिया है किसी दिन उस पर लटक भी जाऊंगा. इसी को विषय वस्तु बनाकर एक कहानी भी लिख डाली थी. एक दिन मेरे कान में बोले कि आपने तो पकड़ लिया होगा कि यह कहानी मैंने कहाँ से चुराई है . और तो कोई पकड़ नहीं पाएगा, इसलिए मैंने आपको बता दिया. आप तो किसी से कहेंगे नहीं. सचमुच मैंने यह बात किसी से नहीं बताई . लेकिन वह लटकने वाला रहस्य बना ही रहा . सभी को लगता था कि किसी दिन शराब पीकर ये सचमुच नहीं लटक जाए. उनकी पत्नी शशि जी पटना आई और भिकना पहाड़ी में रहते हुए एक बेटे को जन्म दिया. उसका नाम माधव है और वह आजकल अपने पैत्रिक गाँव महिषी में ही रहता है तथा मैथिली मैं कविताएँ भी लिखता है. उस फंदे पर एक पालना टंग गया . इसके बाद उस फंदे का रहस्य लोगों को समझ में आ गया क्योंकि उन्हें तो वहां पालना टांगना था.
अपनी पत्नी शशि जी के भिकना पहाड़ी वाले किराए के मकान में आने के बाद राजकमल का दिन-रात लिखना जरूरी हो गया क्योंकि लिखना, अनुवाद करना, संपादन करना कॉपी एडिटिंग और यहां तक की प्रूफ रीडिंग के द्वारा लगभग पाँच सौ रुपये के पारिश्रमिक का इंतजाम वे कर लेना चाहते थे. और इनका हिसाब ऐसा था एक हाथ से दिया हुआ काम लो और दूसरे हाथ से पैसे दो,नहीं तो गाली खाने के लिए तैयार हो जाओ . किसी की हिम्मत नहीं थी कि राजकमल चौधरी का पारिश्रमिक देने में कोई देरी करें. पारिश्रमिक नहीं देने का तो सवाल ही नहीं था . अब उनका शाम के वक्त लगभग रोज शिव चंद्र शर्मा के यहां पहुंचने का सिलसिला बाधित हो गया और रेणु के यहां भी वे कम ही जा पाते थे. हर रोज शाम के वक्त भिकना पहाड़ी वाले राजकमल के आवास पर पटना के कई युवा लेखक पहुंचते थे और अपनी रचनाएं सुनाना और बहसें करना रोज का एजेंडा बन गया था. कभी-कभी मैं भी वहां पहुंच जाता था. नए लेखकों में आलोक धन्वा और कई युवा कवि और लेखक होते थे जिनके चेहरे तो याद हैं लेकिन नाम भूला सा लग रहा है, इसलिए नामोल्लेख छोड़ ही दे रहा हूं .
भिखना पहाड़ी से मलयराज चौधरी का आवास नजदीक पड़ता था इसलिए हाथ खाली होने पर राजकमल वहां से कुछ पैसे उधार ले आते थे और जैसा कि वह बताते थे मलयराज चौधरी कभी ना नहीं कहते थे. झूठ या सच ऐसा वह हम लोगों को बताया करते थे. इतना तो सच था कि प्रेस और प्रकाशन संस्थानों से वे साधिकार पैसे लेते थे और उनका दिया हुआ काम पूरा करके उनके मुंह पर फेंकते थे. गिड़गिड़ाते हुए निजी अभाव बताकर अपने कार्यस्थल पर पैसा लेना उनके स्वभाव के विपरीत था. उनके पहुंचते ही जरूरी बातचीत के बाद संस्थान के मालिक या मैनेजर जो भी उपस्थित होता था वह पैसों की पेशकश खुद करता था. उनके लिए स्थान पर पहुंचने का मतलब होता था कि उन्हें पैसे की जरूरत आन पड़ी है. ज्यादातर यह भी होता था कि लोग काम देने के साथ ही अग्रिम पारिश्रमिक भी दे जाते थे और तय तारीख पर काम वापिस ले जाते थे. उनके घर पर उनके या उनकी पत्नी की ओर से तनाव किसी ने कभी नहीं देखा. उनकी पत्नी शशि जी के पटना जाने के बाद यौन बीमारियों से ग्रस्त होकर पटना कॉलेज अस्पताल में भर्ती होने का कारण बहुतों की समझ में नहीं आ रहा था और तरह-तरह के अनुमान दोस्त लोग लगा रहे थे. यह सच हो भी सकता है और नहीं भी क्योंकि राजकमल का परस्त्रीगामी नैसर्गिक या प्राकृतिक बन चुका था.
पटना अस्पताल में मैं
उनसे आखिरी बार मिला था और अस्पताल से निकलते वक्त उनके एक दोस्त ने यौनाचार का
आरोप लगाया तो नहीं चाहते हुए भी मेरा हाथ उठ गया था. उस आदमी ने राजकमल को सेक्स
का भूखा भेड़िया कह दिया था. लेकिन मेरा ऐसा मानना है
कि इतना बड़ा लेखक केवल यौन संबंध बनाने के लिए इतनी जगह नहीं जाता होगा. बल्कि यह
एक लेखक की रचना प्रक्रिया का हिस्सा होगा. वास्तविकता यह थी कि मेरे जैसे कुछ लोग
राजकमल की झूठी- सच्ची कहानियों के बावजूद राजकमल के प्रति नफरत का भाव नहीं रखते
थे. उनके मरने के बाद मैंने उनके झूठ की तरफ इशारा किया, नागार्जुन
ने कविता लिखी- ‘अच्छा हुआ तुम मर गए दुष्ट’, लेकिन न
तो मैं राजकमल से नफरत करता था और न ही नागार्जुन उनके प्रति नफरत का भाव रखते थे.
लोगों की समझ के फेर का कोई इलाज नहीं होता और किसी के कथन का भाव शब्दों से हूबहू
पैदा हो जरूरी नहीं है.
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शिवमंगल सिद्धांतकर
शिवमंगल सिद्धांतकर के साथ ज्ञान चंद बागड़ी
कविता संग्रह : आग के अक्षर, वसंत के बादल, धूल और धुआं, काल नदी, दंड की अग्नि और मार्च करती हुई मेरी
कविताएं समेत 15 काव्य संग्रह.
आलोचना : 'अलोचना से आलोचना और अनुसंधान से
अनुसंधान', निराला और मुक्तछंद, निराला और अज्ञेय: नई शैली संस्कृति, आलोचना की तीसरी आंख आदि
वैचारिक : 'विचार और व्यवहार का आरंभिक पाठ', परमाणु करार का सच, New
Era Of Imperialism and New Proletarian Revolution, New Proletarian Thought, Few
First Lessons in Practice इत्यादि
संपादन : गोरख पांडेय लिखित स्वर्ग से विदाई, पाश के आसपास, आंनद पटवर्धन लिखित गुरिल्ला सिनेमा, लू शुन की विरासत, नाजिम हिकमत की कविता तुम्हारे हाथ, भगत सिंह के दस्तावेज, जेल कविताएं आदि तथा पत्रिकाओं में
दृष्टिकोण, अधिकरण, हिरावल, देशज समकालीन और New Proletarian Quarterly आदि उल्लेखनीय हैं.
___
ज्ञान चंद बागड़ी
वाणी प्रकाशन से 'आखिरी गाँव' उपन्यास प्रकाशित
मोबाइल : ९३५११५९५४०
शिवमंगल सिद्धांतकर के साथ ज्ञान चंद बागड़ी |
कविता संग्रह : आग के अक्षर, वसंत के बादल, धूल और धुआं, काल नदी, दंड की अग्नि और मार्च करती हुई मेरी
कविताएं समेत 15 काव्य संग्रह.
आलोचना : 'अलोचना से आलोचना और अनुसंधान से
अनुसंधान', निराला और मुक्तछंद, निराला और अज्ञेय: नई शैली संस्कृति, आलोचना की तीसरी आंख आदि
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संपादन : गोरख पांडेय लिखित स्वर्ग से विदाई, पाश के आसपास, आंनद पटवर्धन लिखित गुरिल्ला सिनेमा, लू शुन की विरासत, नाजिम हिकमत की कविता तुम्हारे हाथ, भगत सिंह के दस्तावेज, जेल कविताएं आदि तथा पत्रिकाओं में
दृष्टिकोण, अधिकरण, हिरावल, देशज समकालीन और New Proletarian Quarterly आदि उल्लेखनीय हैं.
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ज्ञान चंद बागड़ी
वाणी प्रकाशन से 'आखिरी गाँव' उपन्यास प्रकाशित
मोबाइल : ९३५११५९५४०
पढ़ लिया गया पूरा और समझ में नहीं आ रहा कि क्या प्रतिक्रिया दी जाय। वैसे, राजकमल चौधरी अवश्य स्त्रीप्रेमी रहे होंगे पर जिस तरह से सिद्धांतकर जी ने औरतखोर और औरत के लिए गोश्त सरीख़े शब्दों का प्रयोग किया है वे कहीं से भी औरतों के प्रति सम्मानजनक नहीं साबित हो रहे हैं।
जवाब देंहटाएंयौनेच्छा तीव्र होने को यह हिंदी समाज कब तक कलंकित करता रहेगा?
राजकमल अपने व्यवहार में शालीन थे, असहमति/सहमति का सम्मान करते थे, अपने काम का उचित मूल्य जानते थे (सो पारिश्रमिक को लेकर भी जागृत थे) और अव्वल दर्जे के कहानीकार, उपन्यासकार और कवि थे। उनकी रचनाओं के अतिरिक्त मेरे लिए राजकमल चौधरी का परिचय इतना ही है और इतना ही सुंदर है।
आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 3.12.2020 को चर्चा मंच पर दिया जाएगा। आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ाएगी|
जवाब देंहटाएंधन्यवाद
दिलबागसिंह विर्क
संस्मरण कुल मिलाकर मुकम्मिल है। राजकमल चौधरी से संवाद में सिद्धान्तकार जी ने संकेत दिया है कि राजकमल ने कुछ कृतियाँ विदेशी कृतियों से प्रभावित होकर लिखीं, जिनके लिए राजकमल सिद्धांतकार जी से कहते हैं, आपतो समझ गये होंगे। क्या सिद्धान्तकार जी बतायेंगे कि राजकमल की वे कौन- सी किताबें हैं और ये किन विदेशी कृतियों से प्रभावित हैं। उनके रचनाकार को कुछ और नजदीक से जानने की अपेक्षा भी संस्मरण से थी।
जवाब देंहटाएंकिसी रचनाकार को उसके बाद भी, यादों में संजोना.... उनकी महानता को इंगित करता है। उनके बारे में इतनी जानकारी सही में रोचक लगी।
जवाब देंहटाएंसाधुवाद। ।।।।
अपनी जिंदगी में जिन इच्छाओं को घोर अनैतिक मान हम उनका दमन करते हैं,वे मरती नहीं, हमारे अवचेतन में जिंदा दफ्न रहती हैं। वे हीं कभी-कभार सपनों में प्रकट होती हैं। राजकमल चौधरी ने उन इच्छाओं का दमन नहीं किया। प्रकृति ने तो सिर्फ़ नर और मादा बनाया लेकिन समाज ने उसे अलग-अलग रिश्तों का जामा पहना दिया। मनुष्य प्रकृति के अन्य जीवों से इस मायने में हीं भिन्न है कि उसके पास विवेक होता है। लेकिन समाज द्वारा थोपे गये सारे मूल्य मानवीय हीं नहीं होते, सारी नैतिकताँए जायज़ हीं नहीं होतीं। राजकमल चौधरी नकली मुखौटे लगाकर जीने वाले इंसान नहीं थे।धूमिल के शब्दों में चौबीस कैरेट सोना थे।
जवाब देंहटाएंकुछ अनछुए पहलुओं को उजागर करते हुए लिखा गया यह संस्मरण पठनीय है।
जवाब देंहटाएंव्यापक अनछुए पहलुओं को उजागर करता संस्मरण साहित्यकार के प्रति उत्सुकता बढ़ा जाता है - - साधुवाद।
जवाब देंहटाएंलेखक ने खुद लिखा है कि हो सकता है कि किसी महिला के पास राजकमल का जाना उनकी रचना प्रक्रिया का हिस्सा हो सकता है और अगर ऐसा है तो राजकमल के बारे में इतना बड़ा यह आलेख बेकार गया। 'उनके औरतखोर' होने की चर्चा के अलावा इसमें और है ही क्या? क्या कोई व्यक्ति जो राजकमल का संगी रहा है वह उसके कुछ अन्य बातों के बारे में नहीं जनता होगा? क्या उसके पास कहने को इससे अलावा और कुछ नहीं है? राजकमल घर में नहीं हैं तो किसी औरत के पास ही गए होंगे यह अनुमान लगाना आज के युग में तो कहीं से भी उचित नहीं है। क्या किसी महिला ने आज तक यह आरोप लगाया है कि राजकमल ने उसके साथ बलात्कार किया? अगर नहीं, तो इसकी चर्चा का क्या मतलब है और वह भी तब जब वह व्यक्ति खुद का बचाव करने के लिए यहाँ मौजूद नहीं है?
जवाब देंहटाएंएक टिप्पणी भेजें
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