नीलोत्पल : दृश्य में सिर्फ़ करुणा नहीं थी

(painting courtesy : Labani Jangi)

कोरोना काल में अपने-अपने घरों को लौटते हुए करोड़ों लोगों का जन-समूह यातनाओं के रास्ते पर चलते हुए  दिखा. यह विवशता, पलायन और यन्त्रणा का एक ऐसा शोक गीत है जो अब भी कानों में  गूंजता रहता है.  इस लेकर कहानियां लिखीं गईं, पेंटिंग बनाये गये, कविताएँ लिखीं गयीं और अब भी लिखीं जा रहीं हैं. 

सुपरिचित कवि नीलोत्पल की ये चौदह कविताएँ इस दुःख को और उसके पीछे के कारकों को पहचानती हैं. सुगढ़ और सबल ये कविताएँ इस पलायन की स्मृति को हमेशा जिंदा रखेंगी. 


कविताएँ 
दृश्य में सिर्फ़ करुणा नहीं थी                                 
नीलोत्पल 



1.

दृश्य में सिर्फ़ करुणा नहीं होती
मजबूरी भी होती है

बेबसी का यह आलम
इतना लंबा और कठिन है कि
इसे नापने या समझने के लिए
यातना और दुख के पहाड़ की
एक दुर्गम यात्रा करनी पड़ेगी

यह कोई शुरुआत नहीं है
यह मृत्यु की प्रतीक्षा भी नहीं है
त्याग दिए जाने या छोड़ देने के बाद
यह ऐसा अवसाद और उदासी है
कि हम एक बड़े निचाट में उनके लौटने की
एक असंभव राह देखते हैं
जबकि रात के अंधेरे से गुज़रते हुए
वे इतने संगतकार हो गए हैं
कि उनके पदचाप भी सुनाई नहीं देते

वे एक है, हज़ार है
या असंख्य
मुझे सिर्फ़ एक ही आवाज़ सुनाई देती है
उन्हें घर लौटना है

सारी आवाज़ें चुप हैं
समूची पृथ्वी पर सिर्फ़ यही गूंजता है
उन्हें घर लौटना है


2.

हम देख कर अनुमान नहीं लगा सकते कि
उन्हें किस बात की जल्दी हैं
ऐसा लगता है जैसे भीषण गर्मी में
जीवन की इस निस्तब्धता को
उनकी असंख्य परछाइयां ढंक देना चाहती हैं

इस दृश्य में चीत्कार नहीं, क्रंदन नहीं
सत्ता का डंक है

पलायन का यह महादृश्य
आज़ादी की उन स्मृतियों की ओर ले जाता है
जहां हमने अपने ही देश में
सीमा के बीचो बीच चलते
उन हज़ारों लाखों नंगे पांव को
अपनी निस्सहायता में डूबते देखा

सत्ता को पता है
गरीबों के लिए न्याय सबसे अंत में होता है
लेकिन जरा ठहरिए !
उसमें भी एक पॉज बटन है
सरकारों के कान नहीं होते
इसलिए उन्हें मरते छोड़ देने की यह एक खुली ट्रेनिंग है.


3.

बुलढाणा, समलखा, जालना, बड़वानी
गढ़मुक्तेश्वर, पलामू, बाबूगढ़, हावड़ा,
गोंडा, सोनीपत, फिरोजाबाद, गढ़ गोविंद,
लौनी, सरसाना, बालाघाट, कुंडे मोहगांव, चंदौली, अंबाला....

यह सब केवल जगह के नाम नहीं
सघन कठोर दुख का पिघला चेहरा है

इस सदी की चिंता में डूबा हुआ इनका हर क़दम

अपनी शोकाकुल आंखों से
इस व्यथा को देखते
पेड़ों ने अपनी ख़ामोशी को
और गाढ़ा और चित्तेदार किया हो जैसे


4.

यह अविराम चलते जत्थे
सड़कों, खेतों, ट्रेन की पटरियों के सहारे
किसी अनंत की खोज में चलते चले जा रहे हैं

क्या बच्चे, क्या महिला, क्या जवान, क्या बूढ़े
सभी एक ही तरह की आग
और एक ही तरह की भूख को लिए
चलते चले जा रहे

यहां मृत्यु का कोई अर्थ नहीं
हर किसी के पास इसका पासवर्ड है



5.

औरंगाबाद एक ख़ास जगह है
यहां 'पश्चिम का ताजमहल' है
औरंगजेब की पत्नी राबिया दुरानी का मक़बरा है
बाबा शाह की मजार है
जहां सादगी का बिछौना है

यहां अतीत के बहुत से दरवाज़े हैं
लेकिन यह खुलते नहीं
चाहे वह जालना, पैठन या मक्का रोशन का दरवाज़ा हो
हम उन्हें नहीं खोल सकते

इन दिनों औरंगाबाद बहुत उदास है
उसके प्लेटफार्म सूने है
उसमें अतिथियों के लिए कोई दरवाज़ा नहीं खोला गया

वह नहीं कह सकता
उस पर घर लौट रहे
ट्रेन से कुचले सोलह मजदूरों की हत्या का
मुक़दमा चलाया जाए

हालांकि उसने यह भी नहीं कहा
हत्या उसने नहीं
सत्ता की अंधी ट्रेन ने की है...


6.

बारह साल की जमालो मक़दम
तेलंगाना के कन्नईगुढ़ा में
मिर्च के खेतों में काम करती थी

यही उसने जाना
यह दुनिया स्कूल की किताबों से
कहीं बड़ी, कहीं ज़्यादा असली है

यही दुख के पेड़ है
और मजबूरी के विशाल पहाड़

वह अभी उम्र का गणित सीख रही थी कि
कोरोना जैसी महामारी ने सब गड़बड़ कर दी

वह नहीं जानती थी
सत्ता इस बीमारी से ज़्यादा बीमार है

फ़िर भी उसने अपने घर के लिए
सौ किलोमीटर तक क़दमों को पैदल नापते हुए गिनती सीखी

कच्ची उम्र और कच्चे ज्ञान की तरह
वह यह भूल गई
उसे बारह के बाद अभी सीखना बाक़ी है

बचे हुए रास्ते को वह नहीं नाप पाई

पिता अंदोराम घर के बाहर
उसके लौटने की प्रतीक्षा में है

जमालो मक़दम के अंतिम शब्द
भूख और प्यास ही थे

जिस वजह से वह लौटी
उसके अंतिम रिपोर्ट निगेटिव निकली

उसकी उम्र जितने ही किलोमीटर बचे थे
घर पहुंचने से पहले...


7.

याकूब मोहम्मद अमृत को जानता था
अमृत याकूब मोहम्मद को

जैसे परिंदा पेड़ों को जानता है
पेड़ परिंदे को

जैसे आग चूल्हे को पहचानती है
चूल्हा आग को

दोनों निश्चिंत थे
दोनों सिर्फ़ प्रेम को जानते थे

दोनों के पास किसी तरह का चमत्कार नहीं था
लेकिन दोनों अपनी दोस्ती को बख़ूबी पहचानते थे

मौत के पास एक ही का पता था
बेरोजगारी और बीमारी में
सिर्फ़ दोस्त ही सगा निकला

अमृत याकूब मोहम्मद की गोद में
वह भरोसा छोड़ गया.


8.

उसके दोनों पैरों में प्लास्टिक पन्नियों की चप्पल थी
और वहां चले जा रहा था

दूसरे के एक पैर में जूता और एक पैर में चप्पल थी
वह भी रास्ता नाप रहा था

एक किसी के पैर में न चप्पल थी न जूता
उसने अपनी चमड़ी को ही जूते चप्पल की शक्ल दी
और कड़ी धूप में चलता रहा

एक वह भी था जिसने रास्ते में मिली पानी की दो ख़ाली बोतलों को
किसी रस्सी के सहारे अपने पैरों में नाथ लिया
और निकल पड़ा मिलों लंबे सफर के लिए

एक ऐसा मजबूर भी था
जिसके एक ही पैर में चप्पल थी
जिसे बदल बदल कर दोनों पैरों में पहनता रहा

यह कड़ी धूप में
अपनी सजाएं लिखने का वक़्त था

सभी के पैरों में छाले थे
सभी जीवन का छंद लिख रहे थे


9.

कुछ चिट्ठियों में लिखने वालों के
ह्रदय धड़कते हैं

मोहम्मद इक़बाल ख़ान अपने विकलांग बेटे के लिए साइकल चुराने के एवज में
कानून तुम्हारे लिए जो भी सज़ा तजवीज करता हम सब उसे मान लेने के लिए
बाध्य होते.

चूंकि तुम्हारी छोड़ी गई चिट्ठी ने इस बात का खुलासा किया कि तुम भरतपुर
से बरेली तक मिलों दूर अपने घर जाना चाहते थे इसलिए तुमने सहनावाली गांव
से आधी रात साइकिल चुराईं

मोहम्मद इक़बाल ख़ान चिट्ठी में तुम्हारी स्वीकारोक्ति सजा कम कर सकती है
लेकिन तुम्हें बचा नहीं सकती

तुम्हारा दूसरा और बड़ा गुनाह यह है कि तुम लॉकडाउन के बावजूद सरकार का
यह नियम तोड़ दिए

इसके लिए भी कोई तो सजा होगी जैसे मानवता के दुश्मन, देशद्रोही या फ़िर
कोरोना जिहादी

तुम अपनी बेगुनाही कभी साबित नहीं कर पाओगे. यह सिस्टम और यह सत्ता जो
तुम्हें आधी रात सड़कों पर निकलने के लिए मजबूर कर देती है कभी नहीं
मानेगी कि तुम बेकसूर हो

वह छोड़ी गई चिट्ठी
तुम्हारे जुल्म का इक़बालनामा है

एक कवि तुम्हें यह सजा देना चाहता है कि
तुम इस दुनिया का अंतिम शब्द क्षमा लिखना.


10.

प्यारी बेटी ज्योति कुमारी पासवान
जिन कविताओं को हम लिख रहे थे
उन्हें एक दिन मिट जाना था

एक दिन हमारे मोजे, दस्ताने
और गर्म कोट को भी गायब हो जाना था
हम भूल जाने वाले थे अपने पसंदीदा खेल को

हम भूलने के लिए अभिशप्त हैं.

सूचनाओं की अधिकता में
कहानियां रोज़ बदल जाती हैं
नाम और चेहरे हमारी कमजोर याददाश्त में
दो दिन से अधिक टिक नहीं पाते

एक दिन हम यह भी भूल जाएंगे
कि तुम्हारी छोटी उम्र ने
जीवन के कठिन परीक्षा पास कर ली है

इस बात के गवाह बारह सौ किलोमीटर का वह लंबा रास्ता
और तुम्हारे दो थके पैर हैं

तुम्हारा गणित दुनिया की किसी किताब में नहीं समा सकता

तुमने सीख लिया
ज़मीन में गाड़ दिए जाने के बाद
मुर्दे किस तरह ख़ामोश रह कर
जीना सीख लेते हैं.


(painting courtesy : Gurpreet)

11.

तस्वीरों में मृत्यु अमर हो जाती हैं
फिर ना उनमें भूख देखी जा सकती है ना प्यास
ना पांव के छाले और ना वह प्रतीक्षा

जो घर कभी नहीं लौट पाएंगे
उनके लिए मृत्यु भी एक प्रतीक्षा है

यह दुख की अभिव्यक्ति है
मगर इसमें दुख नहीं
एक लाश है
जिसे दुख में कहना मुमकिन नहीं

मां का आंचल खींचते
बचे इस बच्चे के पास
बचा हुआ सिर्फ़ दुख है

जो वह अंत तक नहीं कह‌ पाएगा...


12.

भानु गुप्ता तुम्हें कोई हक़ नहीं था
सरकार को बदनाम करने का

तुम चुपचाप नहीं मर सकते थे

क्या तुम्हें सच छुपाना नहीं आता

तुम्हारा सुसाइड नोट अमर नहीं है
तुमने जहां इसे ख़त्म किया है
तुम 'फूल स्टाप' लगाना भूल गए

तुम्हारी आत्महत्या निजी विचार नहीं है
खैर के वृक्षों की तरह
तुमने फ़िर से इस शहर को ढंक लिया है

शायद तुम नहीं जानते
शहर के पुराने नाम लक्ष्मीपुर की तरह
तुम्हारा सुसाइड नोट भी बदल दिया जाएगा.


13.

जो हुआ उसे बहुत ताक़त से छिपाया गया
जिसे तुम नहीं जान पाए
उसकी पर्देदारी बहुत गहरी कर दी गई

बहुत से हत्याओं के क़ातिल
कभी नहीं मिले

हत्याओं में भी आत्महत्याएं खोजी गई

मरे को समझना आसान था
ज़िदों के पास सवाल थे

आत्महत्या कभी अकेले नहीं की गई
उसमें भूख, बेबसी और सरकार शामिल थी


14.

हर चीज़ में गहरा सन्नाटा पसरा है

जिन लोगों ने सड़क के पार कर ली है
वे अब भी घर नहीं पहुंचे हैं

उनके पदचाप रास्ते में भटक गए हैं
उन्हें कभी घर के बारे में बताया नहीं गया

उन्होंने ख़ुद से ही घर को जाना
जैसे कभी उन्होंने जाना
कि ज़मीन के नीचे पानी कितना गहरा है
या जैसे दिशाओं के बारे में
कभी चुके नहीं कि चारों दिशाओं में
वही दिशा घर को जाती है
जिसका मुंह हमेशा पीठ की ओर होता है

वे विडंबना के नहीं
सत्ता के भटकाए थे

उनके निरंतर गिरते पदचाप
धरती की खानाबदोश आवाज़ है

रास्ते गवाह है कि
उनकी अनुपस्थिति एक ऐसा पलायन है
जो कभी ख़त्म नहीं होगा

यह उसी सन्नाटे का उपजाया गीत है.

________________________





नीलोत्पल

23 जून 1975, रतलाम, मध्यप्रदेश.


‘अनाज पकने का समय‘ और "पृथ्वी को हमने जड़ें दीं" कविता संग्रह प्रकाशित. 
 2009 के विनय दुबे स्मृति सम्मान तथा 2014 के वागीश्वरी सम्मान से सम्मानित. 
सम्पर्क:

173/1, अलखधाम नगर, उज्जैन (पिन: 456 010)

मध्यप्रदेश /मो.   0-98267-32121

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  1. मर्मस्पर्शी कविताएँ । यहाँ दूर से देखा गया यथार्थ नहीं है बल्कि कवि ख़ुद इस यातना-यात्रा में शामिल है । पीड़ा को आत्मसात करके ये कविताएँ लिखी गईं हैं । यहॉं ख़बरें हैं लेकिन उनको कविता में ढालने की कला भी है । सत्ता की अंधी रेलगाड़ी है जो इस देश के अभागे नागरिकों को कुचलती है । कविता में दुःख दस्तावेज़ में बदल जाता है जो हमें आगाह और सचेत करता है । पहले पाठ में कविताएँ अपनी छाप छोड़ती हैं । नीलोत्पल को बधाई इन मार्मिक कविताओं के लिए और समालोचन का आभार इन्हें पढ़वाने के लिए !

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  2. दिल को झकझोर देने वाली कविताएं, वाह लाजवाब! जैसे कवि स्वयं मजदूरों के शरीर में प्रविष्ट हुआ हो।

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  3. बेहद मार्मिक सत्य को उजागिर करती सच्ची कविताएं। जीवन अपने निशान छोड़ ही देता है मानस पर ये कविताएं उसी का दर्पण। कवि को बधाई

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  4. बहुत ही मार्मिक कविताएं । नीलोत्पल और समालोचन का आभार।

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  5. दयाशंकर शरण4 नव॰ 2020, 5:42:00 pm

    इन कविताओं में उस वक़्त की पीड़ा घनीभूत होकर कई रूपाकारों में ढलती पाठक के मर्म को उद्वेलित करती है। मानवता की इतनी बड़ी त्रासदी को अपनी संवेदना की भाषा से कविता में समेटना एक कठिन साधना है।

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  6. आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 5.11.2020 को चर्चा मंच पर दिया जाएगा। आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ाएगी|
    धन्यवाद
    दिलबागसिंह विर्क

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  7. राजेश सक्सेना4 नव॰ 2020, 9:26:00 pm

    बहुत सघन, संवेदनापरक, अनुभूतियों के उद्वेलन से उपजी कविताएँ, जिनमें कवि भाषा, शिल्प और काव्य कला से इतर, त्रासद परिदृश्यों की भयावहता के विरेचन, उत्पीड़न और व्यथित होकर, यथार्थ को रच रहा है !

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  8. ओह .. इतनी मार्मिक और करुण कविताएँ! जैसे सूचना से भरे पन्नों ने दृश्य का रूप ले लिया. निशब्द किया Neelotpal भाई.
    उसकी उम्र जितने ही किलोमीटर बचे थे
    घर पहुंचने से पहले...
    अमृत और याक़ूब मोहम्मद ने स्तब्ध कर दिया कि इतनी पास ही है ज़िंदगी और मौत.
    मन शांत है पढ़ कर ...... नीलो भाई

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  9. अच्छी कविताएँ हैं। अन्ततः करुणा केन्द्रित है। लेकिन जैसे एक नियति का बखान करती। वह संरचना और उसके सूत्रधार यहां अदृश्य हैं जो इस नृशंस और उत्पीड़क परिघटना के लिए जिम्मेदार हैं।

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  10. एक से एक!हृदय झंझोरती रचनाएं,
    जैसे स्वयं भोगा सत्य है, जो दर्द बन पन्नों पर उके दिया।
    अनुपम सृजन।

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  11. अत्यंत मार्मिक कविताएं. पलायन के उस दौर में समाचार माध्यमों से रोज ही इन ह्रदयविदारक घटनाओं की सूचनाएं हर सम्वेदनशील आँखों में आंसू भर्ती रहीं. मन में हर बार यही प्रश्न कि आखिर दौर चाहे कोई भी हो सत्ता, दैवी आपदाओं की क्रूरता के निशान गरीब कमजोर के ही बदन पर क्यों होते हैं?
    नीलोत्पल जी को इन उत्कृष्ट रचनाओं के लिए बधाई, समालोचन को धन्यवाद.

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