‘चमकते प्रकाश में घुल-मिल गईं उषाएं’ऋग्वेद (मण्डल:१,सूक्ति:९२.२, अनुवाद-गोविन्द
चंद्र पाण्डेय)
सूर्य और जल भारतीय संस्कृति के
केंद्र में हैं. ऋग्वेद में सूर्योदय पर अद्भुत कविताएँ मिलती हैं. हिंदी में छायावाद
के लगभग सभी कवियों ने अरुणोदय को लेकर लिखा है. अरुण छायावाद का बीज शब्द है,
जैसे नयी सभ्यता का उदय हो रहा हो.
इधर अरसे बाद सूर्योदय पर सुबह की संभावना के साथ ये कविताएँ आप
पढ़ेंगे. विनय कुमार यक्षिणी के बाद फिर नई ऊर्जा के साथ लौटें हैं.
सूर्य यहाँ जैसे परिवार का कोई सदस्य है- बड़ा भाई, जिससे थोड़ी बहुत बे-तकल्लुफ़ी
की जा सकती है. विनय कुमार ने बड़ी ही सहजता से सूर्य की विराटता को सहेजा है.
सूर्य और जल के पर्व छठ पर इन कविताओं को पढ़ने से बेहतर और क्या हो
सकता है ?
विनय कुमार
सूर्योदय सूक्त
1
जिनके नेपथ्य से नायक की तरह उगते
हैं आप
वे पर्वत हमारे ही स्थापत्य हैं
श्रीमान मार्तंड
और जिनसे मिलकर आपकी किरणें रूमानी
हो जाती हैं
वे बादल हमारे ही पानियों के फूल
और इनका अधिकांश उन्हीं सागरों का
रचा
जिनके हृदय से आप महाभाव की तरह उठते
हैं
आप तो उद्दंड दूल्हे की तरह रोज़
एकदम से आ जाते
मगर यह हमारी धूल-धूसरित हवा
और उसके अदीख होने में रहस्य रचते
कुहरे की कुटिलता है
कि आपकी द्वार-छेंकाई होती रहती है
ऊषा, प्रत्यूषा और प्रभात
आपकी भाषा के शब्द नहीं भास्कर महोदय
न इनके कंठ से फूटते छंदों का
लालित्य आपका धर्म
कि एकरस अमरता का अनहद गूँज भले सकता
है
गाया नहीं जा सकता
यह तो हमारी मिट्टी की माँ है
जो अपनी गतियों को यूँ गाती है
कि आप ईश्वर के विज्ञान से
मनुष्य की कविता में बदल जाते हैं !
2
मेरी नींद एक विवर है
और यह कक्ष एक कन्दरा
मैं चिन्ताहारी चादर ओढ़कर सोता हूँ
और मेरी पलकें किसी दुर्ग के
वज्र-कपाट की तरह बंद होती हैं
किंतु आपके आने की सूचना
सारे अवरोधों को ऐसे पार करती है
जैसे आपकी किरणें दूरी और हवा
सबसे पहले मेरे मन में आते हैं आप
एक उजले समाचार की तरह
और कोशा-कोशा कसी मेरी पृथ्वी में
कानो कान फैल जाते हैं
मेरे रक्त के मंथर प्रवाह में
गति बन प्रवेश करते हैं आप
और मांसपेशियों में विद्युत बन
मेरी अस्थियाँ अपने दाता के सम्मान
में
किसी सैनिक की तरह सजग हो जाती हैं
कितना कोमल
और कितना निःशब्द चमत्कार है यह
मुझे अपने काले कक्ष से उगाकर
खुले में लाते हैं आप
कि मेरी काया आपके मौन उदय का साक्षी
बन सके
भास्कर महोदय, ऐसा अमोघ आमंत्रण
तो मन्मथ और मृत्यु के वश में भी
नहीं !
3
यह मेरे होने की धूल
प्रतिपल नहीं होते जाने के धुएँ
और गीले विलाप से भरी
एक विकल प्रतीक्षा है महोदय
यह एक यवनिका है
जिसमें रोष और उलाहने के रंग हैं
एक उदासी भी
जो रोना ही नहीं बोलना भी भूल गयी है
ऐसी प्रतीक्षा
जो अतिथि का मार्ग ही अवरुद्ध कर दे
कितनी विकट यातना होगी
कभी सोचा है आपने
पर क्या करूँ
मेरे छोटे फुफ्फुस इस मिहिका को
फूँक कर उड़ा भी नहीं सकते
और न उड़ सकता मैं ही पंखहीन
वायु की तरह मैं भी विवश हूँ विभाकर
अपने मंडल के पार नहीं जा सकता
आप ही आइए
इस नैहार यवनिका के पार
मलिन वस्त्र ओढ़े
काया के कपाट से लगी आत्मा तक
किसके रोके रुका है
आपकी ऊष्मा और उजास का मार्ग !
4
हे उदित होते सूर्य
मुझे पूरा विश्वास है
कि आप इस स्त्री को
वैसे ही नहीं जानते होंगे
जैसे अपनी महिमा के सूक्तकारों को
लेकिन इतना तो अवश्य जानते होंगे
जितना उन सम्राटों को
जो आपका नाम
वंश और विरुद की तरह पहना करते थे
अब इस जानने को जानना कहें या नहीं
यह चींटियों को नहलाती आपकी साधारणता
जाने
या अपने किरीट पर
हीरे-जवाहरात से बनी किरणें जड़े वे
सम्राट
जो अपनी सेना के बल पर सम्मानित होते
आए हैं
विषयांतर के लिए क्षमा कीजिएगा
लेकिन क्या करूँ
यह स्त्री भी उसी संसार में रहती है
जिसे इन झूठे मार्तंड टाँक घूमने
वालों के घोड़ों ने रौंदा है
देख रहे हैं न आप
अपने स्वर्ण से रजत होते प्रकाश में
खड़ी
इस कृशकाय एकवस्त्रा को
जिसके हाथों का पीला जलपात्र आधा
झुका है
झुके हैं जिसके नयन श्रद्धा से
उसके मानस में कोई मंत्र कोई ऋचा
नहीं
बस एक तरल आभार है जो आँखों से बहकर
पात्र से धीमे-धीमे गिरते जल में मिल
रहा है !
5
आपसे पहले मेरे पहले बैल जागते हैं
फिर गायों से दूर बँधे भूखे बछड़े
उनके गले की घंटियाँ इतनी करुण बजती
हैं
कि नीड़ों से सांत्वना के स्वर आने
लगते हैं
उमड़ते दूध से भरे थन वाली गायों का
क्या जागना और क्या सोना
आज भी तो वही
गगन अब भी नीला चंद्रमा अब भी गीला
ड्योढ़ी में लेटी वृद्धा के गले की
खाँसी
और हुक्के की गुड़गुड़ाहट
ठिठकी हुई रात को दुत्कार रही है
किंतु युवती माता की ऊनींदी खीझ
और शिशु के क्रंदन जुगलबंदी ने उसका
आँचल थाम रखा है
दालान पर प्रभाती शुरू हो चुकी है
जाग अब भई भोर बंदे जाग अब भई भोर
खाटें चरमरा रही हैं
बलिष्ठ शरीर अँगड़ाइयाँ ले रहे हैं
जोड़ों की पटपटाहट से
मांसपेशियों की नींद टूट रही है
आपसे पहले हाथ जागते हैं
हल, कुदाल और फावड़े
जागते हैं
पैरों और खुरों की चोट से
गालियाँ, पगडंडियाँ और आलें जागती हैं
आज भी तो वही
आप सोए हैं अभी तक
प्रत्यूषा और ऊषा झिंझोड़ रही हैं
उनके आनन और अधर की लालिमा छिटक रही
है
और इधर धरती पर खेत में चमकते फाल ने
पहली सीता खींच दी है
सुनते हैं आप
पृथ्वी जाग गयी है !
6
यह महानगर है
महान महादेश के महान राष्ट्र का महान
महानगर
इसके अपने पर्वत हैं अपने वन
अपनी नदियाँ और अपने सागर
जो अलग-अलग गागरों में बंद
आकाश तक अपना, चंद्रमा और तारे भी
इसे पीड़ा बस इतनी
कि अपने आकाश में आपको नहीं रच सकता
और अपने आकाश के बाहर आपसे नहीं बच
सकता
इसीलिए इसने अपने संसार में
आपके उदय को प्रतिबंधित कर दिया है
इसके लिए आप एक दृश्य हैं, चित्रोपम
जिसे कृत्रिम प्रकाश में बैठकर
काँच के भीतर से देखा जा सकता है
आप इसकी सृष्टि के कारक नहीं
इसके राष्ट्र के अभिभावक भी नहीं
इसके लिए आप ग़रीब की गाय हैं
जिसे दूहा जा सकता है
आपकी धूप एक पड़ोसी देस है
जहाँ घूमने-फिरने के लिए जाया जा
सकता है
अपने चाकचिक्य पर मोहित
यह महानगर आत्ममुग्ध है
और अंकों की पीठ पर बैठे शून्यों पर
इतना लुब्ध
कि इसे यह सोचने का अवकाश ही नहीं
कि उदयाचल बनाने भर से उदय नहीं होता
और न ही अस्ताचल न बनाने से अस्त
रुकता है
कभी किसी एकांत में मिले इसकी आत्मा
तो समझा दीजिएगा
कि अंत:पपुर के वातानुकूलित उद्यानों
में
पालतू फूल तो खिल सकते हैं, पालनेवाले
अन्न नहीं !
7
उनके शरीर में अभी भी रात है, सोए हैं
मुझे एक पंछी ने जगा दिया सो जाग
पड़ी
नहाना ज़रूरी था सो नहा भी लिया
चौका पोंछकर चाय बनायी है
गुड़ और तुलसी की
पकते-पकते लाल हो गए दूध में
किसे पिलाऊँ
सास-ससुर रहे नहीं, बच्चे छोटे हैं
बिना किसी को पिलाए पी नहीं आज तक
पत्थर के देवताओं पर
यह निगोड़ी ललमुहीं चढ़ती नहीं
और आप ऊषा के हाथ की चाय पीकर मगन
हैं
लेकिन ऊषा के महल से बाहर तो आएंगे न
उसी पल की प्रतीक्षा में खड़ी हूँ
देर मत करिएगा ..
दुबारा गर्म की गयी चाय स्वाद खो
देती है
और हाँ यह बहाना भी नहीं चलेगा कि पी
चुका
अब तो यहाँ इस देहात में भी
दो कप का रिवाज हो गया है
लीजिए, अब आँगन से छत पर आ
गयी
अब भी नहीं दिख रहे आप
अभी तो गर्म है मगर कब तक रहेगी
प्रतीक्षा में माथा गरम होता जी
चाय तो ठंडी ही होती जाती
सुनिए, अब तक नहीं आए आप
तो पी रही हूँ मैं
सारी की सारी पी जाऊँगी
बड़े मन से बनायी है
जानती हूँ, ऐसी फिर नहीं बनेगी
जगेंगे वो तो बनाऊँगी फिर
जैसी बने पी लीजिएगा
मगर इस तरह अर्पित नहीं कर पाऊँगी
मिट्टी के सकोरे में रख दूँगी यहीं
इसी रेलिंग पर!
8
मैं ऋतु चक्र नहीं समझता
पृथ्वी की गतियाँ भी नहीं जानता मैं
मेघ और कुहासा का होना न होना भी
नहीं बूझता
बाँग देने का समय मेरा है मार्तण्ड
जी
मेरे कंठ में एक कुक्कुट बसता है
जिसके पास एक उदर भी है
भरम मत पलिए
कि उसका स्वर आपके लिए उगता है
वह तो बस उन्हें पुकारता है
जिनके साथ रोज़ दाना चुगता है !
9
आप पिघले लोहे के समुद्र से ज्वार की
तरह उठते हैं
ठंडे और शांत नीले में लाल आग
ऐसे प्रतापी पिता की तरह आते हैं कई
बार
कि घड़ी भर में ही आँगन दहक उठता है
और आपके ठीक उलट चाँद
ऐसे आता जैसे कोई बच्चा
देर से आया हो कक्षा में सहमा हुआ
पूरा अँधेरा और जी भर इत्मीनान के
बाद ही
इस लायक होता है बेचारा
कि प्रेमियों और शायरों के काम आ सके
मगर पृथ्वी नीलम की गेंद सी उगती है
बादलों की कढ़ाई वाला झीना आसमानी
शॉल ओढ़े
कहता है चाँद
पृथ्वी को देखना है तो मेरी आँखों से
देखो
उसके सीने से लगे पानियों में घुल
जाने का मन करता है
समझ रहे हैं न आप आदरणीय भास्कर भाई
साहब
बहन और भाई का फ़र्क़ यह होता है!
10
मेरे मनोहर मातुल
रात और दिन के बीच
नीली पुलिया पर खड़े
कितने सुंदर लग रहे आप
जैसे एक मधुर फल
जैसे एक कंदुक
आते-जाते बच्चों पर प्यार लुटाना कोई
आपसे सीखे !
11
दादियों से सुना था -
कैसी भी हो कन्या
मुख पर पानी होना चाहिए
त्वचा के रंग से अधिक
झलकते पानी से प्यार करते बड़े हुए
हम
धूप की गोराई से कोई शिकायत तो नहीं
मगर हमें उसकी वह गर्माहट ज़्यादा
पसंद है
जिसका रंग ज़रा साँवला दिखता हैं
अब देखिए न
पृथ्वी कौन-सी गोरी है
आपकी उज्ज्वलता के सामने
कहाँ ठहरता है इसका रंग
मगर चाँद पर खड़े होकर देख लें
अचरज के मारे धूप उगलना बंद कर दें
आप
मार्तण्ड जी, आपको क्या पता कि
आते-जाते वक्त जब समुद्र से सटे होते
हैं
तो आप कुछ और ही लगते हैं!
12
लड़ लिया आपसे जी भर
क्या-क्या नहीं सुना दिया
धूप में आपकी
कैसी-कैसी बातें बिखेर दीं
बहा लिए सारे जमा आँसू त्वचा की राह
मन और तन दोनों निचुड़ गए
लेकिन मातुल यह भी सत्य है
कि इस झगड़े के बीच
मैंने आपकी विराटता को
अपनी लघुता में समेट
आत्मा के गुल्लक में बंद कर लिया है
!
__________________________
डॉ. विनय कुमार
पटना में मनोचिकित्सक
कविता संग्रह : क़र्ज़
ए तहज़ीब एक दुनिया है,
आम्रपाली और अन्य कविताएँ, मॉल में कबूतर और यक्षिणी.
मनोचिकित्सा से सम्बंधित दो गद्य पुस्तकें :
मनोचिकित्सक के नोट्स तथा
मनोचिकित्सा संवाद से प्रकाशित
इसके अतिरिक्त अंग्रेज़ी में मनोचिकित्सा की
पाँच किताबों का सम्पादन.
वर्ष २०१५ में एक मनोचिकित्सक के नोट्स के
लिए अयोध्या प्रसाद खत्री स्मृति सम्मान
वर्ष 2007 में मनोचिकित्सा सेवा के लिए में
इंडियन मेडिकल एसोसिएशन का डा. रामचन्द्र एन. मूर्ति सम्मान
इंडियन साइकिएट्रिक सोसाइटी के राष्ट्रीय
एक्जक्यूटिव काउंसिल में १५ वर्षों से.
पूर्व महासचिव इंडियन साइकिएट्रिक सोसाइटी.
dr.vinaykr@gmail.com
अद्भुत। शुक्रिया अरुण जी।
जवाब देंहटाएंसभी पढ़ी, अद्भुत कविताएं। विनय कुमार जी को बधाई। समालोचन का बेहद शुक्रिया।
जवाब देंहटाएंकमाल की कविताएं
जवाब देंहटाएंवाह, बहुत ही सुन्दर। लाजवाब👌
जवाब देंहटाएंहृदयस्पर्शी कविताओं के लिए विनय जी आपको बधाई.
जवाब देंहटाएंऔर सदैव की भांति अरुण जी को धन्यवाद कि वह समालोचन के माध्यम से पाठकों के समक्ष उत्कृष्ट रचनाएं प्रस्तुत करते रहते हैं....
प्रकृति और मनुष्य के बीच प्रारंभ से हीं एक गहरा रागात्मक संबंध रहा है जो कविता में अद्भुत-रस की श्रृष्टि कर पाठक को अभिभूत कर देता है। समालोचन पर छठ पूजा के अवसर पर इन कविताओं की प्रस्तुति का एक अलग महत्व है, सभी को बधाई !
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी कविताएं । इसमें सूर्य के अनेक बिम्बों से हमारा परिचय होता है ।
जवाब देंहटाएंदेर मत करिएगा ..
जवाब देंहटाएंदुबारा गर्म की गयी चाय स्वाद खो देती है
और हाँ यह बहाना भी नहीं चलेगा कि पी चुका
अब तो यहाँ इस देहात में भी
दो कप का रिवाज हो गया है
कितना सजीव और आत्मीय अनुराग अधिकार भरा आग्रह...आपने कातर कर दिया विनय जी। समालोचन अनिवार्य पाठ बन गया है दिन का,बधाई।
यादवेन्द्र
अति उत्तम कविताएं। अद्भुत दृश्यों को उभारने के साथ यथार्थ का उद्घाटन बड़ी खूबसूरती से किया है। सूरज पढ़े तो जान जाएगा कि सृष्टि के लिए वह जरूरी है मगर पूरे ब्रह्मांड ने लिखी हैं उसकी किरणें । सृष्टि के कण कण का योग भी शामिल उसकी रंगत में। मेहनतकश वर्ग, स्त्रियां,...सब कवि के सरोकार के दायरे में।
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर कविताएँ। चाय पीते हुए ही पढ़ी। कविता की पांती है- ‘अब तो यहाँ देहात में भी दो कप का रिवाज हो गया है’। सूर्य महिमा से अधिक इन कविताओं में सूर्य का प्राकृतिक और परसेप्टिव चित्रण है।
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर। विनय कुमार जी की कविता में कल्पना , कौतुक और करुणा सभी का सुनिवेश होता है। वे एक बड़े फलक पर कविता को ले जाते हैं और उस विस्तार और व्यापकता को निभाते हैं।बहुत बधाई इन कविताओं के लिए।
जवाब देंहटाएंपुराने जमाने में यह कविता 'होरेशियन ओड' कहलाती - सूर्य को सम्बोधित एक अनौपचारिक और अंतरंग परंतु चिन्तनशील कविता। दूसरा छंद सूर्य और जीवन के आदिम,रहस्यमय सम्बंध को जागरण के रूपक में सफाई से अनुस्यूत करता है। यहीं से कविताओं की शृंखला मानो आरम्भ होती है। पहला छंद देवत्व की सापेक्षता को उद्घाटित करता है - पृथिवी हैं तो सूर्य का देवत्व है। तीसरा छंद उपासक की सीमाओं का स्वीकार है और इस दृष्टि से पहले छंद को 'बैलेंस' करता है।
जवाब देंहटाएंचौथे छंद से कवि विनय कुमार अपने परिचित धरातल पर आ जाते हैं । वे इंद्रियों के - दर्शन , श्रवण, स्वाद, गंध और स्पर्श के - कवि हैं । पांचवे छंद में सूर्योदय की सूचना के साथ-साथ गांव की गतिशीलता का सुंदर चित्र उपस्थित होता है और छठें में उसके विपरीत प्रकृति-विमुख, गर्वित नगर का चित्र है। छठें छंद में और अन्यत्र जगह-जगह नगर-सभ्यता की आत्मनाशी प्रकृति को लेकर कवि कि चिन्ता का संकेत है।
सातवाँ और ग्यारहवाँ दोनों छंद मोहक हैं ।सातवें छंद की अंतरंगता में मानिनी का राग है। यह छंद अतिनाटकीयता से बहुत थोड़े अंतर से जीत गया है। ग्यारहवें छंद में सफाई कम है पर चित्र फिर भी मनोग्राही है।
और क्या कहूँ । विनय कुमार जी और आपकी जय-जय!
अद्भुत कविताएं
जवाब देंहटाएंसूर्य को अनोखे बिम्बों में बांधा, उसे उलाहना दिया, आलोचना की फिर उसकी ही शरण में गये। अद्भुत कविताएँ हैं, बहुत पढ़ी जानी चाहिए।
जवाब देंहटाएं"कितना निःशब्द चमत्कार है यह
मुझे अपने काले कक्ष से उगाकर
खुले में लाते हैं आप
कि मेरी काया आपके मौन उदय का साक्षी बन सके
भास्कर महोदय, ऐसा अमोघ आमंत्रण
तो मन्मथ और मृत्यु के वश में भी नहीं !"
एक टिप्पणी भेजें
आप अपनी प्रतिक्रिया devarun72@gmail.com पर सीधे भी भेज सकते हैं.