लेखन बुनियादी तौर पर अशुद्धता का वाहक है : मोहसिन हामिद (अनुवाद : यादवेन्द्र )

 

नस्ली या सांस्कृतिक शुद्धता का आग्रह मनुष्य को गहरे संकट में डाल सकता है/डालता आया है. विकास की लम्बी और बेतरतीब प्रक्रिया में सभ्यता का निर्माण ही मेल और मिलावट से हुआ है. दुर्भाग्य से शुद्धता का आग्रह साम्प्रदायिकता के कंधों पर सवार होकर विश्व में तेजी से पसर रहा है. लेखक और विचारक मोहसिन हामिद का यह व्याख्यान इसी विषय पर है. इसका अनुवाद यादवेन्द्र ने किया है.

प्रस्तुत है.     

 

फरवरी २०१८ में पाकिस्तानी मूल के अंग्रेजी उपन्यासकार मोहसिन हामिद ने PEN इंटरनेशनल के कार्यक्रम में एक बेहद सारगर्भित और प्रासंगिक भाषण दिया था जिसके संपादित पाठ द गार्डियन समेत कई  पत्रिकाओं ने छापे. दुनिया में अंध राष्ट्रवाद और जातीय शुद्धता के नाम पर जिस तरह का अतिवादी और तर्क हीन और लंठई भरा विमर्श चल रहा है उसके हवाले से यह भाषण बेहद महत्वपूर्ण सवाल उठाता है जो न सिर्फ पाकिस्तान के संदर्भ में बल्कि मोहसिन हामिद जिस आईने के सामने हमें खड़ा कर सवाल पूछते हैं वे सवाल भारतीय संदर्भ में भी उतनी ही चुभते हुए, तथ्यपूर्ण, प्रासंगिक और अनिवार्य हैं.

आज जबकि अनेक वैश्विक वैज्ञानिक अध्ययनों में जिनमें भारतीय वैज्ञानिकों की भी सार्थक भागीदारी रही है, यह बात बार-बार साबित हो चुकी है कि इस महाद्वीप के आज के लोग   अफ़्रीका, ईरान, कजाखिस्तान और अन्य इलाकों से आकर आपस में घुलमिल गए मिश्रित लोग हैं और जातीय शुद्धता की बात करने वाले लोगों को बरगला रहे हैं. 

१९७१ में पाकिस्तान में जन्मे  मोहसिन हामिद लाहौर में जन्मे, अपने जीवन का आधा भाग उन्होंने वहां बिताया और शेष भाग लंदन, न्यूयॉर्क और कैलिफोर्निया में.

मॉथ स्मोक, द रिलक्टेंट फंडामेंटलिस्ट, हाऊ टु गेट फिल्दी रिच इन राइजिंग एशिया और एग्जिट वेस्ट उनके उपन्यास हैं और डिस्कंटेंट एंड इट्स सिविलाइजेशंस निबंधों का संकलन है.

दुनिया की ४० भाषाओं में उनकी किताबों के अनुवाद हुए हैं. उनकी किताबें कई बार बेस्ट सेलर्स की फेहरिस्त में शामिल हुई हैं और कुछ पर फिल्में भी बनी हैं. 

उस भाषण का लब्बो लुबाब मैं अपने शब्दों में साथियों के साथ साझा करने का लोभ संवरण नहीं कर पा करता हूँ (साफ़ कर दूँ कि यह भाषण का अविकल अनुवाद नहीं है)

यादवेन्द्र 

 

लेखन बुनियादी तौर पर अशुद्धता का वाहक है                                   
मोहसिन हामिद



मोहसिन हामिद 


हते हुए पानी के सोते की शुद्धता इसे पीने लायक बनाती है जबकि गोश्त में किसी तरह की मिलावट हो जाए तो खाने वाले को यह बीमार कर सकता है. जाहिर है शुद्धता की अहमियत है इसलिए अशुद्धता या मिलावट (मोहसिन हामिद अपने पूरे भाषण में हर जगह impure शब्द का प्रयोग करते हैं पर मुझे इसके लिए अशुद्धता से ज्यादा उपयुक्त मिलावटी शब्द लगता है) से परहेज करना चाहिए, उसका विरोध करना चाहिए और पूरी ताकत लगाकर अपनी बीच से उसे बाहर निकाल कर फेंक देना चाहिए. पर‌ मुझे लगता है कि समय आ गया है जब पूरी न भी सही तो आंशिक रूप से जरूर, हमें मिलावट से होने वाले लाभों की सराहना और शुद्धता के आग्रह से होने वाले नुकसान की आलोचना करनी चाहिए.

इस बात को एक इंसान के स्तर पर देखें तो हम सब एटम से मिलकर बने हैं लेकिन हमारी निर्मिति  में उतना ही बड़ा है हाथ समय का भी है. जैसे आपका आधा समय पाकिस्तान में बीते और आधा उस देश के बाहर तो अपने दृष्टिकोण, अपने सोच विचार बर्ताव में आप आधा पाकिस्तानी होंगे यानी आधे पाक (शुद्ध) होंगे- सच्चाई यह है कि यह  एक असंभव संभावना है. आप इस तरह रह नहीं सकते, आप आधा शुद्ध  रहेंगे तो जाहिर है आपका आधा शुद्ध नहीं रहेगा , मिलावटी रहेगा. और जैसी हमने ऊपर बात की अशुद्धता एक विकार है तो आप विकृत हैं, खराब हैं. खराब होना खतरनाक होना है, समाज के संदर्भ में बात करें तो यह स्थिति तो उसके लिए सिरे से हानिकारक है.

पाकिस्तानी समाज की बात करें तो यह मुद्दा जितना व्यक्तिगत है उतना ही राजनीतिक और यह किसी एक को नहीं बल्कि सबको अपने लपेटे में लिए हुए है.

यदि शुद्धता को किसी इंसान के जिंदा रहने के अधिकार का पैमाना बना दिया जाए तो  शुद्धता के विभिन्न वर्गानुक्रम  बनाने के लिए लोगों के बीच हिंसक मुकाबला होने लगेगा, और कड़वी सच्चाई यह है कि इस मुकाबले में जीत किसी को हासिल नहीं होगी. खुर्दबीन लेकर ढूँढने पर भी कोई इतना परिशुद्ध मिलेगा ही नहीं जो इस आधार पर अपने आप को सुरक्षित मान सके. इसलिए यदि मैं कहूँ कि शुद्धता की और पवित्रता की इस भूमि पर कोई भी पूरी तरह से शुद्ध नहीं है तो इसे अतिशयोक्ति नहीं माना जाना चाहिए.

इसीलिए एक नहीं सभी संदेह के घेरे में हैं और सभी जोखिम की जद में भी हैं. इसीलिए सवालिया शुद्धता का आरोप लगा कर एक समुदाय दूसरे समुदाय या एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति का कत्ल करता रहता है, अगले दिन कोई न कोई बहाना बनाकर ऐसे कातिल खुद कत्ल हो जाते हैं और यह श्रृंखला चलती रहती है. शुद्धता की यह राजनीति विखंडन विभंजन की राजनीति भी है.

मेरी यह‌ बात करने पर किसी को अचरज नहीं करना चाहिए क्योंकि पाकिस्तान का निर्माण  विखंडन से ही हुआ था- अंग्रेजों ने अपने उपनिवेश को मुस्लिम बहुल पाकिस्तान और हिंदू बहुल भारत के बीच बाँट दिया था. बाद में पाकिस्तान भी खंडित हो गया और बांग्लादेश टूट कर अलग देश बन गया. खंडन की इस प्रक्रिया में हर बार यह उम्मीद की गई थी कि अलग हुई भौगोलिक इकाइयाँ आंतरिक रुप से बेहतर समरसता धारण किए हुए होंगी लेकिन ये उम्मीदें  वास्तविकता के धरातल पर खरी नहीं उतरीं. आमतौर पर यह देखा गया है कि इससे शुद्धता को लेकर दुराग्रह बढ़ता ही जाता है.

ऐसा नहीं है कि पाकिस्तान इस प्रवृत्ति का कोई अपवाद है. पूरी दुनिया में शुद्धता के दुराग्रह को लेकर खंडन विखंडन की राजनीति सुरसा की तरह मुंह बाए चली जा रही है. पड़ोसी भारत हिंदू शुद्धता को लेकर अपनी सामाजिक विविधता को बुरी तरह से हिंसक तरीके से उखाड़ फेंकने पर लगा आमादा है. दूसरी तरफ म्यांमार में  बौद्ध शुद्धता को लेकर कत्लेआम मचा हुआ है और लाखों की संख्या में रोहिंग्या देश से बाहर खदेड़ दिए गए हैं. अमेरिका में गोरे शुद्धतावादी मुसलमानों और हिस्पानी आबादी को डराने धमकाने और अश्वेतों को हिंसक आक्रमणों से नष्ट करने में लगे हुए हैं, इतना ही नहीं इसका विरोध करने वाले बुद्धिजीवियों को अपमानित करने में भी वे पल भर की देर नहीं करते.

लंदन की बात करें तो यह भी पूरी तरह से अंग्रेज महानगर अब नहीं रहा. यहाँ की युवा आबादी में गैर अंग्रेज ने सिर्फ संख्या में बड़ी तेजी से बढ़े हैं बल्कि उनके विचार और संस्कृति भी अपनी जगह बनाते जा रहे हैं. अनेक अंग्रेजी अखबारों में विरोधियों को देशद्रोही लिखा जा रहा है. उत्तरी आयरलैंड में फिर से हिंसा के लौट आने का अंदेशा है. आज की तारीख में इतना शुद्ध इतना अंग्रेज कोई नहीं है कि वह देश पर पूरी तरह से नियंत्रण रख सके- जज, पत्रकार, सांसद, नागरिक सब के सब संदेह के घेरे में हैं.

इस शुद्ध समय में लगता है कि जीवन में ज्यादा अशुद्धता का समावेश होना चाहिए, उसकी दरकार है. आज की तारीख में यह अशुद्धता और मिलावट  ही हमें बचा सकती है. और इस तरह के आशावाद के अपने तर्क हैं- यह मनुष्य जाति अशुद्धता और मिलावट से ही बनी है, निर्मित हुई है और यदि हमें भविष्य के लिए अपने को सुरक्षित बचा कर रखना है तो यही अशुद्धता हमारी रक्षा करने में सहायक होगी, हालाँकि  बड़ा सवाल यह है कि क्या हम ऐसा होने देने के लिए तैयार हैं?

इसे जीव विज्ञान के उदाहरण से समझ सकते हैं. जब मर्द और औरत शारीरिक रूप से एक-दूसरे के साथ समागम करते हैं तो बच्चे का जन्म होता है- दो अलग-अलग लोगों का अंतरंग होना बच्चे के जन्म के लिए अनिवार्य है. हर बच्चा दो भिन्न स्रोतों से प्राप्त जेनेटिक मैटेरियल के सम्मिश्रण से बनता है इसलिए हमें यह स्वीकार करना ही होगा किसी बच्चे के जन्म के लिए सम्मिश्रण और शुद्धता का परित्याग करना एक अनिवार्य शर्त है. इसकी अपनी वजह भी है.

यदि हम सीधे-सीधे किसी इंसान को काट दें और दो टुकड़ों में विभाजित कर दें या उसके अंगों को जोड़ कर एक नया इंसान बना लें तो सारे इंसान एक सरीखे हो जाएंगे, बिल्कुल एक दूसरे की कार्बन कॉपी. ऐसा करने में हमारी शुद्धता तो बरकरार रह सकती है लेकिन हम पर्यावरण की आसन्न चुनौतियों का मुकाबला करने में सक्षम नहीं होंगे. हमारी अनिवार्य और बुनियादी माननीय अशुद्धता हमें ऐसी शक्ति और क्षमता देती है जो पहले कभी नहीं मिली थी और इससे मनुष्य की क्षमता का  असीमित विस्तार हो जाता है- न सिर्फ हमारी शारीरिक बनावट और शक्ति में वृद्धि होती है बल्कि बीमारियों से लड़ने की बेहतर प्रतिरोधी क्षमता विकसित होती है और भोजन को पचा पाने की अतिरिक्त दक्षता भी.


शारीरिक स्तर पर तो इस अशुद्धता और मिलावट का योगदान है ही हमारी सोच समझ, विचार, संस्कृति और राजनीति में भी वैसा ही महत्व है. जब भिन्न-भिन्न पृष्ठभूमि के और भिन्न-भिन्न विचारों के लोग आपस में मिलते हैं, एक मंच साझा करते हैं तो तरक्की  और नई  उपलब्धियाँ  सामने आती  हैं. संवैधानिक लोकतंत्र अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस, ग्रीस, अरब और अन्य समाजों के समागम से ही अस्तित्व में आया है. पहला हवाई जहाज भले ही बनाया अमेरिका में गया हो लेकिन उसके पीछे की भौतिकी और गणित का आधार यूरोप, अफ्रीका, भारत, चीन और अन्य देशों ने तैयार किया. जैज़, खानपान, सिलीकॉन वैली, हरित क्रांति, दवाओं का क्रांतिकारी विकास- इनमें से कोई भी शुद्धता की विजय के रूप में नहीं याद किए जा सकते. यह स्वीकार करने में हमें कोई दुविधा नहीं होनी चाहिए कि ये उपलब्धियाँ  मनुष्यता के आपसी सम्मिश्रण और समागम का परिणाम हैं.

चाहे जलवायु परिवर्तन हो या बड़े पैमाने पर विस्थापन या समाजों के अंदर बढ़ती विषमता- मनुष्यता के सामने मुंह बाए खड़ी इनमें से कोई भी समस्या सुलझाने का कोई जादुई फार्मूला हमारे पास नहीं है और न ही कोई विगत का कोई अनुभव. इन सब के समाधान के लिए हमें एकदम नए और कल्पनाशील उपाय ढूँढ़ने होंगे. हमारे पास उन्हें सुलझाने का कोई खाका नहीं है और जो कोई समाधान भविष्य में संभावित हो सकता है उसके प्रति भी हम बेहद शंकालु रहते हैं. मुझे लगता है कि इनका रास्ता जातीय शुद्धता का दुराग्रह छोड़कर सम्मिश्रण से ही निकलेगा, यानी घोषित तौर पर अशुद्धता और सम्मिश्रण  से. और हमें यह बात मान लेनी चाहिए कि इसके केंद्र में शुद्धता के आग्रही इस समय में दलित और हाशिए पर डाल दिए गए लोग और उनके विचार ही होंगे. मुझे लगता है कि  इनके रास्ते जातीय शुद्धता दुराग्रह छोड़कर सम्मिश्रण से ही निकलेंगे, घोषित तौर पर अशुद्धता से.

हममें से कोई भी १०० फ़ीसदी शुद्ध नहीं है, हम सब अशुद्ध प्राणी हैं. लेकिन हम में से बहुत बड़ी तादाद ऐसे लोगों की है जो अपनी जातीय मिलावट को स्वीकार नहीं करते और अपने साथ हाँ में हाँ मिलाने के लिए और लोगों को उकसाते रहते हैं. दुर्भाग्य से साहित्य ऐसी हुड़दंगी फौज के हाथ में एक बड़ा हथियार बन कर सामने आता है, चाहे लेखन हो या पठन हो. जब हम अकेले खाली बैठते हैं, हाथ में कोई किताब उठा लेते हैं- उस समय हम एक इकाई होते हैं, बस. लेकिन किताब तो किसी और की लिखी है, उसके लेखक के विचार हमारे अंदर धीरे-धीरे पैठते जाते हैं और हमें अपने कब्जे में ले लेते हैं. जाहिर है हम वह नहीं रह जाते जो किताब पढ़ने से पहले थे - हमारी शुद्धता नष्ट हो जाती है और उसमें मिलावट दखल देने लगती है.

जब एक पाठक उस किताब को पढ़ता है तो उसके दिमाग में पहले से बैठी हुई इकहरी धारणाओं और विचारों की सरहद धुंधली पड़ने लगती है, इस तरह एक इंसान के अंदर दूसरे इंसान के विचार प्रवेश कर जाते हैं. और उस पाठक के वैचारिक पक्ष को वह नहीं रहने देता जो उस किताब को पढ़ने से पहले था. यह प्रक्रिया हमें फिर से याद दिलाती है कि हम शुद्धता की चाहे बात कितनी भी करें, बुनियादी तौर पर इंसान अशुद्ध और मिलावटी विचारों के समुच्चय और निर्मिति होते है.

लिखना और पढ़ना सेक्स की तरह अकेला किया जाने वाला काम नहीं है, इसमें कम से कम दो किरदारों का शामिल होना अनिवार्य है. और जहाँ तक साहित्य का सवाल है यह तो सिरे से अशुद्धता और सम्मिश्रण का ही व्यवहार  है. शब्दों में भले ही हम शुद्धता की वकालत करते रहें उसके औचित्य सिद्ध करते रहें लेकिन सच्चाई यह है कि एक बार जब वे शब्द लिख लिए गए और पढ़ने के लिए सार्वजनिक स्पेस में आ जाते हैं तो इस प्रक्रिया में उन्हें अपने शुद्धता त्यागनी ही पड़ती है, पढ़ने की प्रक्रिया बुनियादी तौर पर सम्मिश्रण की प्रक्रिया है. (पठन को अपने भाषण में मोहसिन हामिद  "ऑर्जी" कहते हैं- भोग विलास का सामूहिक उत्सव मनाना.)


यही कारण है कि लेखन बुनियादी तौर पर अशुद्धता का वाहक और संगी साथी होता है और यह मनुष्य जाति के भविष्य में फलने फूलने की ताकतों के साथ मिल कर काम करता है. कोई अचरज नहीं कि पूरी दुनिया में लेखकों को शुद्धता के साथ खिलवाड़ करने और उसका अनुशासन तोड़ने वाले एजेंटों के तौर पर देखा और माना जाता है इसीलिए शुद्धता की आग्रही हुकूमतें पूरी दुनि या में साहित्य और लेखकों को दबाने में और उनका उन्मूलन करने में हमेशा से जी जान से लगी रही हैं.

सामने दिखाई देने वाले दुश्मनों को पहचानने और उनके खिलाफ बहादुरी से लड़ने वाले लेखकों को हम अक्सर देखते हैं और उनसे प्रेरणा भी ग्रहण करते हैं. पर इससे कम बड़े हीरो वे लेखक नहीं होते जो हमारे अंदर बैठी हुई दुष्टता, कुटिलता और अशुद्धता का पर्दाफाश करते हैं पर विडंबना यह है कि  ऐसे लेखक को हम वैसा मान और महत्व नहीं देते. पर ध्यान रखिए कि जब हम उनके बचाव में खड़े नहीं होते, हमलावरों को रोकते नहीं तो उनके साथ अपने अंदर के सबसे अच्छे विचारों और गुणों के पनपने की संभावना थी खतरे में डाल देते हैं, इसीलिए आने वाले समय को परिभाषित करते हुए हमें और शुद्धता और सम्मिश्रण के महत्व को रेखांकित करना चाहिए.

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विश्व से  कथा - साहित्य का संचयन 'स्याही की गमक' संभावना से प्रकाशित.  
 yapandey@gmail.com

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  1. राष्ट्रों के भौगोलिक विभाजन और विखंडन की माँगें विशुद्धता के आग्रह की माँगें हैं। इस आधार पर विभाजन हुए, वे भी अपने उद्देश्य में सफल न हुए। बढ़िया भाषण का अनुवाद है। कभी तिब्बती, पारसी और यहूदी समुदायों के ऊपर भी चर्चा हो। वे अपनी पृथक नागरिक पहचान की रक्षा के लिए अपने समुदाय से बाहर विवाह और संतानोत्पत्ति को स्वीकार नहीं करते, और दुनिया उनकी इस इच्छा का सम्मान करती है।

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  2. बहुत उपयोगी डिस्कोर्स। अनुवाद भी उम्दा है। "लिखना और पढ़ना सेक्स की तरह अकेला किया जाने वाला काम नहीं है, इसमें कम से कम दो किरदारों का शामिल होना अनिवार्य है. " इस वाक्य का मूल क्या है?

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    1. मूल यहां देखें
      https://www.theguardian.com/books/2018/jan/27/mohsin-hamid--exit-west-pen-pakistan

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  3. दयाशंकर शरण1 अक्तू॰ 2020, 4:38:00 pm

    नस्ली शुद्धता का संकट /मोहसिन हामिद
    शुद्धतावाद के संभावित खतरों और उसके फासीवादी रूझानों को लेकर जिस तरह से आज पूरी दुनिया में एक खौफ़ व्याप्त है , उस दृष्टि से यह आलेख बेहद जरूरी और प्रासंगिक है। हिटलर भी जर्मन जाति को संसार की श्रेष्ठ नस्ल कहता था। विडंबना यह है कि अंधराष्ट्रवाद/सांस्कृतिक राष्ट्रवाद,संप्रदायवाद,नाजीवाद एवं दुनियाभर के सारे दंगे-फसाद और शुद्धतावाद संस्कृति जैसे पवित्र शब्द के नाम पर होते हैं। प्रेमचंद ने ठीक हीं कहा था कि उसे अपने असली रूप में निकलते शायद लज्जा आती है ,इसलिए वह संस्कृति की खाल ओढ़कर आती है ।

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