कैरोलिना मारिया दे जीसस: कचरे में जीवन: (अनुवाद सुरेश सलिल)

illustration: Juliana Barbosa



कचरा बीनने वाली अश्वेत कैरोलिना मारिया दे जीसस की डायरी १९६० में प्रकाशित हुई थी और आज विश्व साहित्य में उसकी अपनी ख़ास जगह है. हो सकता है अब ब्राजील में कोई कूड़ा बीनने वाली न हो लेकिन भारत जैसे देशों में यह आम दृश्य है.  सुबह-शाम रोज़ आप इन्हें देखते हैं. इन्हें देखकर कुत्ते भी भौंकने लगते हैं.
इस डायरी  ने इस समुदाय के प्रति विश्व को संवेदित किया था. इसके कुछ हिस्सों का अनुवाद सुरेश सलिल ने किया है और एक अर्थगर्भित टिप्पणी आलोचक राजाराम भादू ने लिखी है.

प्रस्तुत है. 


कैरोलिना मारिया दे जीसस

एक कचरा बीनने वाली की डायरी
अनुवाद : सुरेश सलिल


भूमंडलीकृत दुनिया के शहरों में फैली झुग्गी बस्तियां तल छट के जीवन की त्रासद वास्तविकताएं हैं. औद्योगिक क्रांति के बाद से अब तक समृद्धों के संसार की खुशहाली में जहां चार चांद लगते रहे हैं, विपन्नों के जीवन में शायद ही कोई गुणात्मक अंतर आया है. हमें इनकी जीवन- स्थितियों, जैसे- अशिक्षा, गरीबी, मृत्यु-दर, बीमारियों और कुपोषण को लेकर कुछ आंकड़े तो  काफी समय से मिलते रहे हैं. लेकिन तलछट के इस नारकीय जीवन को एक इन- साइडर की आंख से देख सकने का पहला अवसर हमें १९६० में कैरोलिना मारिया दे जीसस ने अपनी डायरी के जरिए दिया.

कैरोलिना मारिया दे जीसस (१४ मार्च ,१९१४- १३ फरवरी, १९७७) ने अपना अधिकांश जीवन ब्राजील के शहर साओ पाओलो के उत्तरी भाग की एक झुग्गी बस्ती में बिताया. यहीं उसकी लिखी डायरी पर एक पत्रकार का ध्यान गया, जो १९६० में पहले क्वार्टो दे डेस्पेजो (भावार्थ- घूरे पर घर ) शीर्षक से  पुर्तगाली  भाषा  और बाद में चाइल्ड आफ दि डार्क : दि डायरी ऑफ़ कैरोलिना मारिया दे जीसस शीर्षक से अंग्रेजी में छपी और जल्दी ही बेस्ट-सेलर किताब हो गयी.

कैरोलिना  छोटे कस्बे में रहने वाली एक परित्यक्त मां की संतान थी जिसने बचपन से ही बहुत कष्ट और उपेक्षा सही. जब वह सात साल की हुई तो एक भली पड़ोसन की मदद से उसकी माँ ने उसे स्कूल भेजा. वह केवल दो वर्ष ही पढ सकी मगर पढ़ना-लिखना सीख लेने से उसने आगे भी अपने आप सीखना जारी रखा. १९३७ में अपनी माँ की मृत्यु के बाद वह साओ पाओलो आ गयी. यहां की झुग्गी बस्ती में वह कचरा बीनकर जैसे-तैसे गुजारा करने लगी. इसी के साथ उसने रद्दी में मिले कागज के टुकड़ों पर अपने दैनिक अनुभवों को दर्ज करना शुरू किया. उसे लिखते देख बस्ती में रहने वाले उसके पड़ोसी उससे व उसके बच्चों से चिढ़ने लगे. उसने बिना शादी किये तीन बच्चों को जन्म दिया. उसके मन में ऐसा स्वतंत्र जीवन जीने और अपने काले होने को लेकर कोई हीन-भाव नहीं था. चूंकि परित्यक्त मां की संतान होने के कारण उन्हें कैथोलिक चर्च ने अपवर्जित कर दिया था लेकिन कैरोलिना अपने को एक कैथोलिक मानती रही पर चर्च को संदेह से देखने लगी. उसके विवरणों में उन सामाजिक और राजनीतिक तथ्यों पर तल्ख टिप्पणियां हैं जो उनके जीवन को नकारात्मक रूप से प्रभावित करते हैं. उसने सूक्ष्मता से दर्ज किया है कि गरीबी और हताशा किस तरह लोगों के जीवन से गरिमा और मूल्यवत्ता का हरण कर लेती हैं.

कैरोलिना को एक पत्रकार ओडालियो दान्तेस ने अप्रैल १९५८ में खोजा था. वह उस क्षेत्र में एक खेल के मैदान के उद्घाटन को कवर करने गया था. जैसे ही फीता कटने लगा, बस्ती से लोगों का एक हुजूम वहाँ आ गया और खेल के मैदान बनने का विरोध करने लगा. उनमें एक स्त्री गुस्से से चिल्ला रही थी - भाग जाओ वरना मैं तुम्हारी करतूत अपनी किताब में दर्ज कर लूंगी. अंततः बस्ती के लोगों के विरोध के चलते खेल के मैदान के उद्घाटन की कार्यवाही असफल हो गयी.

करतूत को किताब में दर्ज करने की धमकी देने वाली स्त्री कैरोलिना थी. पत्रकार दान्तेस ने कैरोलिना से पूछा कि किताब का क्या मामला है? कैरोलिना पहले तो शरमायी, फिर उसने अपनी डायरी के बारे में उसे बताया. इसके कुछ अंशों के अखबार में छपते ही एक सनसनी फैल गयी. १९६० में क्वार्टो दे डेस्पेरो छपी और ३०,००० प्रतियों का पहला संस्करण हाथों- हाथ बिक गया. दूसरा संस्करण एक लाख प्रतियों का छपा. इसकी लगातार बिक्री को देखते १९६२ में चाइल्ड आफ दि डार्क : दि डायरी आफ कैरोलिना मारिया दे जीसस शीर्षक से इसका अंग्रेजी अनुवाद आया और जल्दी ही बेस्ट सैलरों में शुमार हो गया.

इस डायरी का संपादन ओलिडो दान्तेस ने किया था, तो कुछ लोगों ने इसके झूंठे होने का संदेह जताया था. लेकिन कैरोलिना ने पाण्डुलिपि को बहुत संभाल कर रखा हुआ था. १९९९ में इसकी मूल पाण्डुलिपि का यथावत प्रकाशन हुआ, तब न केवल यह पाया गया कि यह सच्ची थी बल्कि ज्यादा जीवंत और काव्यात्मक थी. दूसरी ओर, चूंकि कैरोलिना ने अपने पड़ोसियों और बस्ती के लोगों के वास्तविक नाम इस्तेमाल किये थे, वे उससे झगड़ने आने लगे कि उसने उनका ज्यादा बुरा चित्रण किया है. उनकी शिकायत थी कि कैरोलिना ने झुग्गी बस्ती के जीवन की शर्मनाक तस्वीर पेश की है. इसके चलते अपनी ही बस्ती में कैरोलिना और उसके बच्चों को आये दिन लांछन और झगडे भुगतने पड़े. डायरी से मिले पैसों से जब उसने दूसरी जगह घर खरीद लिया और बस्ती से जाने लगी तो लोगों ने उसे घेर लिया और बुरा- बुरा कहने लगे. यह तो बहुत बाद में हुआ कि झुग्गियों में रहने वाले लोगों ने उसे अपने बीच चेतना के अग्र दूत के रूप में सम्मान देना शुरू किया.

बाद के दिनों में राजनेता कैरोलिना से मिलकर झुग्गी बस्तियों के हालात सुधारने को लेकर मशविरा करने लगे. गरीबी उन्मूलन, शिक्षा और स्वास्थ्य को लेकर कुछ कार्यक्रम साओ पाओलो की उन बस्तियों में शुरू भी हुए.

कैरोलिना के तीन बच्चे थे- वेरा यूनिस, जोस कार्लोस और जोआओ जोस. एक साक्षात्कार में उसकी बेटी वेरा ने बताया कि लेखक बनना मां का सपना था और इसके जरिए वह हमारी जिंदगी बदलना चाहती थी. बस्ती की दुष्कर और हिंसक परिस्थितियों के बीच भी कैरोलिना ने अपने बच्चों को पढ़ाया. वेरा ने अपने बचपन को याद करते हुए कहा कि भूख उस बस्ती में प्लेग की तरह फैली थी. बस्ती के लोग उसकी माँ के पढने-लिखने पर हंसते थे और इसे उसका पागलपन बताते थे. वेरा ने बताया कि संताना के जिस बड़े मकान में वे बाद में गये, वह उन्हें जेल जैसा महसूस होता था. इसलिए बाद में एक गाँव में चले गए और कैरोलिना वहाँ बड़े मन से खेती करने लगी.

इस डायरी की सबसे अहम चीज कैरोलिना मारिया का अपना नजरिया है जो झुग्गी के और लोगों से भिन्न है. तलछट का जीवन जीते हुए भी मारिया अपने सपनों और आकांक्षाओं को नहीं छोड़ती. वह जिंदगी को अलग तरह देखती और बरतती है. झुग्गी की तमाम विवशताओं से घिरे रहने के बावजूद वह अपनी चेतना में मुक्त रहती है. वह अपने बच्चों को उस जीवन की बुराइयों से भरसक बचाना चाहती है. अपने प्रेम- संबंधों के मामले में भी कैरोलिना स्वच्छंद रही. उसके बच्चे पुर्तगीज, इतालवी और अमेरिकी मित्रों की संतान थे. शादी किये बिना रहने का फैसला भी उसका खुद का था.

१९६४ के बाद ही ब्राजील की स्थिति बदल गयी और अभिव्यक्ति की वैसी स्वतंत्रता नहीं रह गयी. इसका असर कैरोलिना के लेखन पर भी पड़ा. उसकी बाद की प्रकाशित चार किताबों को वैसा प्रतिसाद नहीं मिला, जैसी ख्याति दुनिया भर में उसकी डायरी को मिली थी. अलबत्ता उसकी जीवनी के प्रति जरूर लोगों की दिलचस्पी लगातार बनी रही है.
राजाराम भादू
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डायरी के कुछ अंश



१७ जुलाई, १९५५
एक अद्भुत दिन. आसमान नीला था; बादल का एक भी टुकड़ा नहीं, धूप गुनगुनी थी. साढ़े छह बजे मैं बिस्तर से उठी और पानी लेने चल पड़ी. मेरे पास सिर्फ एक पावरोटी थी ओर तीन कुजिरो नकद. पावरोटी का एक एक टुकड़ा मैंने हर बच्चे को दिया और बीते दिन "सि्परिट्स ‌सेन्टर" से मिली फलियां आग पर चढा दीं, उसके बाद मैं कपड़े धोने चली गयी. नदी पर से जब‌ लौटी, तो फलियां पक चुकी थीं. बच्चों ने रोटी की फरमाइश की, मैंने जोआओ को तीन कुजिरो दिये कि वह जाकर थोडी पाव रोटी खरीद लाये. आज नायर मैथियास ने मेरे बच्चों के साथ टंटा खड़ा कर दिया. उधर सिलि्वया और उसके खाविन्द के बीच खुले आसमान के नीचे तमाशा चल रहा है. उसका खाविन्द उसे पीटे जा रहा है और मैं नफरत से भर उठी हूं, क्योंकि बच्चे वह सब देख रहे हैं, गन्दी गालियां सुन रहे हैं. ओह, काश मैं यहां से किसी बेहतर पड़ोस मे जाकर रह पाती.

लहसुन की एक गांठ मांगने मैं दोना फ्लोरेला के यहां गयी. फिर मैं दोना अनलिया के यहां गयी, और वही जवाब मिला जिसकी मुझे उम्मीद थी, "लहसुन नहीं है."

मैं कपड़े उठाने गयी तो दोना अपारेसिदा ने पूछा,"क्या तुम पेट से हो?"
"नहीं तो बहना," मैंने धीरे से जवाब दिया.

मन- ही- मन मैं उसे कोस उठी. अगर मैं पेट से हूं तो यह तुम्हारा सर दर्द नहीं है. मैं इन झुग्गीवालियों से पार नहीं पा सकती, ये सब- कुछ जान लेना चाहती है. इनकी जीभें चूजों के पंजों जैसी हैं- हर कुछ को खुरच डालने पर आमादा,अफवाह फैल‌ रही है कि मैं पेट से हूं; जबकि खुद मुझे इसका पता नहीं .

रात को मैं रद्दी कागजों की तलाश में बाहर निकली हुई थी. जब साओ पाओलो फुटबॉल लीग स्टेडियम के पास से होकर जा रही थी, तो बहुत से लोग उसमें से बाहर निकल रहे थे- सभी गोरे, सिर्फ एक काला. और उस काले ने मुझे अपमानित करना शुरू कर दिया, " आंटी, क्या तुम रद्दी बीनने निकली हो? पैर संभालकर रखो, आंटी डियर."

मेरी तबीयत ठीक नहीं थी. जी करता था कि वहीं लेट जांऊ, लेकिन मैं चलती रही. रास्ते में कई दोस्त मिले और उनसे बात करने के लिए रुकना पड़ा. जब मैं तिरोदेंतेस एवेन्यू की तरफ बढ रही थी, तो कुछ जनानियां मिल गयीं. उनमें से एक ने पूछा, "तुम्हारी टांगे ठीक हो गयी?"

भगवान का शुक्र हैं कि आपरेशन के बाद मेरी हालत में खासा सुधार हुआ. अब मैं पंखो वाली ड्रेस पहनकर कार्निवाल में डांस तक कर सकती हूं, डा. जोसे तोरेस नेतो ने आपरेशन किया था मेरा. अच्छा डाक्टर है वह...हमारे बीच राजनीति को लेकर भी कुछ बातें हुई, जब एक जनानी ने पूछा कि कार्लोस लासेर्दा के बारे में मेरी क्या राय हैं, तो मैने बिना लाग- लपेट के कहा,    

"बुद्धिमान तो है, लेकिन ज्यादा पढ़ा लिखा नहीं, वह दरअसल‌ झुग्गीझोपड़ियों का नेता है, उसे षड्यंत्र रचना, गड़बड़ी फैलाना रुचता है."

एक ने कहा, कैसी अफसोस की बात है कि जिस गोली ने मेजर को निशाना बनाया उसने कार्लोस लासेर्दा को नहीं बनाया.
लेकिन उसका दिन भी अब... नजदीक आ रहा है. अगली ने टिप्पणी की.

बहुत से लोग आ जमा हुए थे और सबका ध्यान मेरी ही ओर था. मैं चूंकि फटे-पुराने कपडों में रद्दी बीनने निकली थी, लिहाजा झेंप और झिझक महसूस हो रही थी. मुझे रद्दी बीनने की जल्दी थी, इसलिए मैं किसी से बात करने के मूड में नहीं थी. मुझे पैसों की जरूरत थी. घर में पाव रोटी खरीदने तक को पैसा नहीं था. कोई साढे ग्यारह तक मैं काम में व्यस्त रही, घर लौटी तो आधी रात का वक्त हो चुका था. थोडा- सा खाना गरमाया, उसमें से थोडा- सा वेरा इयुनिस को दिया, खुद खाया और लेट गयी. सुबह जब आंख खुली, तो झुग्गी की झिरियों से सूरज की किरणें भीतर आ रही थी.



१८ जुलाई, १८५५
सात बजे उठी. प्रसन्न और संतुष्ट. जल्दी ही थकान आ घेरेगी. कबाडी के यहां गयी और उससे साठ कुजिरो वसूल पाये. अमाल्दो की तरफ से होकर गुजरी, पावरोटी और दूध खरीदा, देनदारी चुकायी और तब भी वेरा के लिए चाकलेट खरीदने को पर्याप्त पैसे पास में बच रहे थे और फिर उसी नरक में वापसी. दरवाजा खोला और बच्चों को बाहर खदेडा. दोना रोसा ने जैसे ही मेरे लड़के जोसे कार्लोस को देखा, उसके साथ लड़ने लगी. वह मेरे लड़के को अपनी झुग्गी के आसपास भी फटकने नहीं देना चाहती थी. उसे मारने के लिए एक डंडा लिए हुए वह बाहर की तरफ दौडी. अडतालीस साला एक औरत एक बच्चे से झगडती हुई. मेरे जाने के बाद अक्सर वह मेरी खिड़कियों के नजदीक आती है और कूडे की टोकरी बच्चों पर उलट जाती है. लौटने पर पाती हूं कि तकिया पर कूड़ा फैला हुआ है और बच्चे बदबू से लहालोट हैं. वह मुझसे नफरत करती है. कहती है कि खूबसूरत और इज्जतदार लोग मुझी को पसंद करते हैं और यह कि मैं उससे ज्यादा कमाती हूं.

दोना सिसीलिया नमूदार हुई. वह मेरे बच्चों को सजा देने आयी थी. मैं ने उसके मुंह पर एक ऐसी बात जड दी कि उसे उल्टे पांवों वापस जाने को मजबूर होना पड़ा. मैं ने कहा- ऐसी औरतें हैं जो कहती हैं कि उन्हें बच्चों की परवरिश करना आता है. लेकिन कुछ औरतें बच्चों को अपराधियों की फेहरिस्त में दर्ज कराने के लिए जेल भेजती हैं. वह चली गई. उसके बाद आयी वह कुत्ती एंजेल मेरी. मैं ने कहा, अभी तक मैं बैंक के करारे नोटों से निबट रही थी, अब चिल्लड की भी सामने आने की हिम्मत हो गयी. मैं किसी के दरवाजे नहीं जाती और तुम लोग जब मेरे दरवाजे आती हो तो मुझे सिर्फ ऊब ही होती है. मैं न तो किसी के बच्चों को तंग करती हूं, न तुम्हारे बच्चों का उलाहना लेकर तुम्हारी झुग्गी पर जाकर चीखती- चिल्लाती हूं, और यह मत समझो कि तुम्हारे बच्चे दूध-धोये हैं. मैं बस उन्हें बर्दाश्त करती हूं.

दोना सिल्विया मेरे बच्चों की शिकायत लेकर आयी, कि वे बदतमीज हैं. मैं बच्चों में कमियां नहीं ढूंढती. न अपने बच्चों में, न औरों के बच्चों में. मुझे पता है कि कोई भी बच्चा पेट से सलीका सीखकर नहीं आता. मैं जब किसी बच्चे से बात करती हूं तो मेरी जुबान पर अच्छे और प्यारे लफ्ज होते हैं. जो बात मुझमें खीझ और गुस्सा पैदा करती है वह यह है कि ये मांएं मेरे दरवाजे पर भीतरी सुकून के मेरे दुर्लभ क्षणों को तार- तार करने आती हैं, लेकिन वे जब मुझे अस्त- व्यस्त कर जाती हैं, तो मैं लिखने बैठ जाती हूं. जिन्दगी में कुल दो साल स्कूल जाने का मौका मुझे मिला, लेकिन उतने से ही अपना स्वभाव और आचरण संवारने की काफी कूवत मैं ने पा ली. एक ही चीज इस झुग्गी बस्ती में नहीं है, वह है दोस्ताना जज्बा.


१० मई, १९५८
मैं पुलिस स्टेशन गयी. वहाँ लेफ्टिनेंट से बातें हुईं. कितना अच्छा आदमी है. अगर पता होता कि वह इतना अच्छा आदमी निकलेगा, तो पहली बार बुलाये जाने पर ही चली जाती. उसकी दिलचस्पी मेरे लडकों की पढ़ाई- लिखाई में थी. कहा, झुग्गी- झोपड़ियों का माहौल इतना दूषित है कि वहाँ के लोगों के मुल्क और हुकूमत के लिए फायदेमंद साबित होने की बजाय गलत रास्तों पर जाने के मौके ज्यादा हैं. मैं ने सोचा, अगर इसे यह पता है तो एक रिपोर्ट तैयार कर राजनीतिज्ञों के पास क्यों नहीं भेजता? जानिओ क्वाद्रोस, कुबित्शेक (जुस्सेलिनो कुबित्शेक- १९५६ से १९६१ तक ब्राजील के प्रेसीडेंट) और डाक्टर अधेमार दे बार्रोस के पास? यह बात वह मुझसे कह रहा है ; एक गरीब कचरा बीनने वाली से. मैं तो अपनी खुद की समस्याएं तक नहीं सुलझा सकती.

ब्राजील को एक ऐसे आदमी के नेतृत्व की जरूरत है जो भूख को जानता हो. भूख भी एक शिक्षक है.
जो आदमी भूखा रह चुका है, भविष्य और बच्चों के बारे में सोचना सीख जाता है.



१२ मई, १९५८
आज मदर्स डे है. आसमान नीला और स्वच्छ; जैसे प्रकृति भी मांओं को आदरांजलि अर्पित करना चाहती है, जो इसलिए दुखी हैं कि वे अपने बच्चों की हसरतें पूरी नहीं कर सकतीं.

सूरज का ऊपर और ऊपर चढ़ना जारी है. बारिश के आसार आज नहीं हैं. आज का दिन हमारा दिन है.

दोना तेरेसिना मिलने आयी. उसने १५ कुजिरो दिये और कहा कि ये वेरा के सरकस जाने के लिए हैं. लेकिन मुझे तो इस रकम का इस्तेमाल कल पाव रोटी खरीदने में करना है क्योंकि मेरे पास सिर्फ चार कुजिरो हैं.

कल बूचडखाने से सूअर की आधी मुंडी मुझे मिल गयी थी. हमने गोश्त खा लिया और हड्डियां बचा लीं. आज वहीं हड्डियां मैं ने उबलने रख दीं और शोरबे में थोडे-से आलू डाल दिये. मेरे बच्चे भूख से कभी छुटकारा नहीं पा पाते. वे जब भूख से व्याकुल होते हैं तो जो कुछ सामने होता है चुपचाप खा लेते हैं.

रात आयी, तारे नज़र नहीं आ रहे. झुग्गी में मच्छरों की भरमार है. मैं अखबार का एक पन्ना जलाती हूं और उसे पूरी दीवार पर घुमाती हूं. झुग्गी-झोपड़ियों में रहने वाले लोग मच्छरों से इसी तरह अपना बचाव करते हैं.



१३ मई, १९५८
भोर से ही बारिश हो रही है. आज का दिन मेरे लिए बहुत सुखद है, आज का दिन हम गुलामों को आजादी के तौर पर मनाते हैं. जेलों में नीग्रो लोगों को बलि का बकरा बनाया जाता था. लेकिन अब गोरे लोग ज्यादा भले-मानुस हो गये हैं और हमारे साथ बेइज्जती से पेश नहीं आते. ईश्वर गोरों को सद्बुद्धि दे, ताकि नीग्रो चैन से गुजर- बसर कर सकें.

बारिश का होना जारी है और घर में नमक व फलियों के सिवा कुछ भी नहीं. बारिश तेज है, तब भी बच्चों को मैं ने स्कूल भेज दिया. बारिश के थमने तक मैं ने लिखते रहने का फैसला किया है. उसके बाद ही मानुएल भाई के पास रद्दी बेचने जा पाऊंगी. उसी पैसे से चावल और सासेज खरीदूंगी. कुछ देर को बारिश थम गयी है. अब मैं निकल रही हूं.

अपने बच्चों के लिए मुझे बहुत अफसोस होता है. जब मैं खाने- पीने का सामान लेकर घर लौटती हूं, तो वे खुशी से चीख उठते हैं- मम्मा जिंदाबाद !

उनका अट्टहास मुझे खुशी से भर देता है. लेकिन मेरी मुस्कराने की आदत छूट चुकी है. दस मिनट बाद वे फिर खाने की मांग करने लगते हैं. जोआओ को मैं ने सूअर की थोडी- सी चरबी के लिए दोना इदा के यहाँ भेजा. उसके यहाँ बिल्कुल भी नहीं थी. जो पर्ची मैं ने उसे भेजी, उस पर लिखा : दोना इदा, अनुरोध है कि थोडी- सी सूअर की चरबी देकर मेरी मदद करो, ताकि मैं बच्चों के लिए सूप तैयार कर सकूं. आज बारिश हो रही है और मैं रद्दी की तलाश में नहीं जा सकती. धन्यवाद, कैरोलिना.

बारिश हुई और उसकी वजह से ठंड बढ गयी. जाड़े का मौसम आ गया. जाड़े में लोग खाते ज्यादा हैं. वेरा ने खाना मांगा, लेकिन मेरे पास कुछ था ही नहीं. वही पुराना राग. दो कुजिरो मेरे पास थे कुल, और वह चाहती थी कि विरादो (काली फलियों, कसावा के आटे, सूअर के गोश्त और अंडे से बना एक व्यंजन) बनाने के लिए थोडा आटा खरीद लूं. दोना एलिसा के पास मैं सूअर का थोडा- सा गोश्त मांगने गयी. उसने गोश्त के साथ- साथ थोड़े- से चावल भी मुझे दिये. आखिरकार रात नौ बजे हम लोगों को खाना नसीब हो पाया.

और इस तरह १३ मई, १९५८ को, असली गुलामी यानी भूख से मैं ने संघर्ष किया.


१५ मई, १९५८
जिन रातों में उनके यहां पार्टी होती है, कोई सो नहीं पाता. पड़ोस के पक्के मकान वालों ने झुग्गी वालों से छुटकारा पाने के लिए एक पिटीसन दायर किया है, लेकिन वे कामयाब नहीं हो पायेंगे. पक्के मकान वाले पडौसियों का कहना है कि राजनेता झुग्गी वालों का बचाव करते हैं. सच बात यह है कि हमारा बचाव आम जनता और सेंट विंसेंट चर्च के नियम- कानून करते हैं. राजनेता तो सिर्फ चुनाव- प्रचार के दौरान यहाँ अपनी शक्लें दिखाने आते हैं. सिन्योर ( पुर्तगाल और ब्राजील के लोगों के नाम के पहले यह आदरसूचक शब्द जोड़ा जाता है. इसे मिस्टर अथवा श्री का समानार्थी समझा जा सकता है.- अनुवादक) कांदिदो साम्पायो १९५३ में जब शहर- कौंसिलर थे तो अपनी रविवार की छुट्टियां यहाँ झुग्गी में बिताया करते थे. बहुत अच्छे थे वह. हमारे हाथों की बनी काफी हमारे प्यालों में पीते. मजेदार चुटकुले सुना- सुनाकर वे हमें हंसाते, हमारे बच्चों के साथ खेलते. कुल मिलाकर उन्होंने अपना बहुत अच्छा प्रभाव यहाँ छोड़ा और जब विधानसभा का चुनाव उन्होंने लड़ा, तो जीते भी, लेकिन झुग्गी वालों के लिए विधानसभा ने एक भी काम नहीं किया. अब वह यहाँ कभी झांकने भी नहीं आते.

साओ पाओलो का वर्गीकरण मैं कुछ इस तरह करती हूं : राजभवन- बैठक, मेयर का दफ्तर- भोजन कक्ष, समूचा शहर- बगीचा और झुग्गी बस्ती- पिछवाडा, जहाँ कूडा- कचरा फेंका जाता है.

रात गुनगुनी है और आसमान में तारों का छिड़काव, मेरे मन में एक सनक भरी हसरत सिर उठा रही है कि अपनी एक शानदार ड्रेस के लिए आसमान का एक टुकड़ा काट लूं.



१६ मई, १९५८
सुबह जगते ही परेशानियों ने आ घेरा. मैं घर में रुकना चाहती थी, लेकिन घर में खाने को कुछ न था. चूंकि घर में पाव रोटी बहुत थोडी है, लिहाजा मैं ने अपने खाने का इरादा छोड दिया. हैरत होती है कि क्या अकेली मैं ही इस तरह की जिंदगी जीती हूं, भविष्य के लिए भला क्या उम्मीद की जा सकती है? अचरज से भरकर मैं सोचती हूं कि क्या दूसरे मुल्कों के गरीब भी ब्राजील के गरीबों की तरह ही तकलीफें उठाते हैं? मन खीझ से इतना भरा हुआ था कि बिना किसी वजह के, अपने बेटे जोसे कार्लोस से ही मैं लड बैठी.

हमारी झुग्गी बस्ती में एक ट्रक आया. ड्राइवर और उसके हेल्पर ने कुछेक डिब्बे इधर- उधर फेंके, वह डिब्बाबंद गुलमा ( एक प्रकार का खाद्य- अनु.) थी. मैं ने सोचा, पत्थर दिल व्यापारी यही करते हैं. वे कीमतों के बढने का इंतजार करते हुए चीजों को दबाये रखते हैं, ताकि और ज्यादा मुनाफा कमा सकें. और चीजें जब सड जाती हैं तो कीडे-मकौडों और परेशान- हाल झुग्गी वालों के आगे फेंक जाते हैं.

लेकिन उन डिब्बों के लिए किसी में कोई आपाधापी नहीं हुई. मैं खुद भी बुझी- बुझी- सी रही. बच्चों को गुलमा के डिब्बे खोलते और खुशी से कुलकते देखती रही. वे कहते-अम्म! म्म! अहा! मजेदार!

दोना एलिसा ने एक डिब्बा मेरी ओर बढाया, कि चखकर देखूं कैसा है, लेकिन डिब्बा सडन से उफन रहा था.


१९ मई, १९५८
सुबह पांच बजे उठी. गोरैयों ने अपना प्रात:कालीन सुरीला संगीत बस शुरू ही किया था. हमारी तुलना में चिड़ियों को ज्यादा खुश होना भी चाहिए. शायद उनके यहां खुशी और समानता का ही साम्राज्य है. चिड़ियों की दुनिया झुग्गीवासियों की दुनिया से बेहतर होती होगी, जो आराम करने के लिए लेटते तो हैं, लेकिन सोते नहीं, क्योंकि वे बिस्तर पर भूखे पेट जाते हैं.

प्रेसीडेंट सिन्योर जुस्सोलिनी के पक्ष में जो चीज जाती है वह है उनकी आवाज. वे किसी परिन्दे की तरह गाते हैं और उनकी आवाज कानों को भली लगती है. लेकिन विडम्बना देखिये कि परिन्दा इस वक्त कतेते पैलेस नाम के सुनहले पिंजड़े में रह रहा है. सतर्क रहो नन्हे परिन्दे, कि यह पिंजडा तुमसे छूट न जाय्, क्योंकि बिल्लियां जब भूखी होती हैं तो उनका ध्यान पिंजड़े में बंद परिन्दों की तरफ ही जाता है. झुग्गियों में रहने वाले लोग वही बिल्लियां हैं और वे भूखी हैं.

बाहर से आती नानबाई की आवाज कानों में पडते ही विचारों का सिलसिला टूट गया, लीजिए! ताजा पाव रोटी! ठीक नाश्ते के वक्त आपके दरवाजे पर ताजा पावरोटी!

कैसे बोदे दिमाग का है यह नानबाई भी! इतना भी नहीं जानता, कि झुग्गी बस्तियों में इक्का- दुक्का लोगों को ही नाश्ता नसीब हो पाता है. झुग्गियों में रहने वाले लोग तभी खाते हैं जब उनके पास कुछ खाने को होता है. झुग्गियों में रहने वाले सभी परिवार बाल- बच्चेदार हैं. दोना मारिया पुवेर्ता नाम की एक स्पहानी औरत यहां रहती है. उसने थोडी- सी जमीन खरीदी और रोजमर्रा खर्चे में कटौती करने लगी, ताकि उस जमीन पर एक घर बना सके. जब घर बनकर तैयार हुआ, तो उसके बच्चे निमोनिया की चपेट में आकर सूखकर कांटा हो चुके थे. और एक- दो नहीं, पूरे आठ बच्चे!

ऐसे भी लोग रहे हैं, जो कहते थे, इस तरह की जगह सिर्फ सूअर ही रह सकते हैं, यह साओ पाओलो का सूअरबाडा है.

धीरे- धीरे जिंदगी में मेरी दिलचस्पी कम होती जा रही है. यह मेरे भीतर विद्रोह की शुरूआत है, और मुझमें हो रहा यह आकस्मिक बदलाव जायज है.

मैं ने फर्श धोया, क्योंकि आज मेरे यहाँ एक ऐसा शख्स आने वाला है, जिसके, आगे चलकर, विधायक बनने की संभावना है. वह. चाहता है कि मैं उसके लिए कुछेक स्पीच तैयार कर दूं. उसका कहना है कि वह झुग्गी बस्तियों को नजदीक से जानना चाहता है और अगर उसे चुन लिया गया तो वह इन बस्तियों को हटाकर ही दम लेगा.

आसमान नील के- से रंग का था और मैं ने महसूस किया कि मैं अपने ब्राजील को दिल से प्यार करती हूं. मेरी दृष्टि पेद्रो विंसेंते स्ट्रीट के शुरूआती सिरे के दरख्तों पर टिकी हुई थी. पत्तियाँ खुद- ब- खुद हिलती हुई. मुझे लगा कि वे मेरे देश के प्रति मेरी प्रेमिल चेष्टा को लक्ष्य कर तालियां बजा रही हैं. मैं रद्दी की तलाश में निकली. वेरा मुस्कुरा रही थी और मुझे सहसा ब्राज़ीली कवि कासेमिरो दे अब्रियु का खयाल हो आया, जिसका कथन है : हंसो, बच्चो, जिंदगी खूबसूरत है. उसके समय में जिंदगी खूबसूरत थी, लेकिन आज के समय में इस तरह कहा जाना चाहिए, रोओ, बच्चो, जिंदगी तल्ख है.


२१ मई १९५८
रात का अनुभव भयंकर रहा. सपने में देखा कि मैं एक खूबसूरत घर में रह रही हूं जिसमें गुसलखाना, रसोई, स्टोर, यहां तक कि नौकरानी के रहने वास्ते एक कमरा भी है. मैं अपनी बेटी, वेरा ड्युनिस, के जन्मदिन का उत्सव मनाने की तैयारियों में लगी थी. बाजार जाकर कुछेक छोटे- मोटे खाने के बर्तन खरीद लायी, जिनकी जरूरत लंबे अर्से से बनी हुई थी और जिन्हें मैं अब खरीद सकती थी. उसके बाद खाने के लिए डाइनिंग टेबल पर बैठी. उस पर लिली के फूलों जैसा झक सफेद टेबल क्लाथ बिछा हुआ था. मैं ने एक टिक्का, मक्खन लगी ब्रेड, तले हुए आलू और थोडी- सी सलाद खायी, और जब मैं ने एक और टिक्के के लिए हाथ बढाया, कि तभी आंख खुल गयी. कैसी तल्ख हकीकत. मैं शहर में नहीं रहती, झुग्गी में रहती हूं, तिस्ते नदी के किनारे के कीचड़- कादे में, और अंटी में महज नौ कुजिरो की पूंजी. घर में चीनी तक नहीं है. जो थोड़ी- सी चीनी थी भी; कल मेरे जाने के बाद बच्चों ने खा डाली.

नेता दरअसल किसी ऐसे आदमी को होना चाहिए, जिसमें क्षमता हो- सामर्थ्य हो, जिसके मन में लोगों के प्रति दया और दोस्ती का जज्बा हो, जो लोग हमारे मुल्क पर हुकूमत करते हैं, ये वे लोग हैं जिनके पास पैसा है, जो भूख से, गरीबी से और उससे होने वाले कष्टों से अनभिज्ञ हैं. अगर बहुसंख्यक लोग विद्रोह कर दें, तो ये गिने- चुने लोग क्या कर लेंगे ? मैं गरीबों और विपन्नों के साथ हूं, जो समूचे समाज की एक बांह है - कुपोषण की शिकार एक बांह. हमें इस मुल्क को मुनाफाखोर नेताओं के चंगुल से आजाद कराना होगा.

कल मैं ने कचरे में मिली एक मेकरोनी ( मैदे से बना, नली के आकार का एक पकवान ) डरते- डरते खायी, कि इसे खाकर टें न बोल जाऊं. सन् १९५३ में मैं रद्दी माल बेचने के इरादे से जिन्हो गयी थी. साथ में एक अच्छा- छोटा नीग्रो लड़का भी था. वह भी रद्दी माल बेचने के इरादे से जिन्हो आया था. वह उम्र में काफी छोटा था, कहता रद्दी पेपर इकट्ठा करने का काम बड़े-बूढों को करना चाहिए. एक रोज कचरा बीनते हुए मैं बोम- जार्दिम ऐवन्यू पर रुकी. वहाँ किसी ने कचरे में गोश्त के टुकड़े फेंके हुए थे. उसने इन्हें उठा लिया और मुझसे कहा, कैरोलिना, थोडा तुम भी लो. अभी ये खाने के काबिल हैं. और कुछेक टुकड़े उसने मेरी ओर बढाये. उसकी भावनाएँ आहत न हों, इसलिए मैं ने ले तो लिये, लेकिन उसे समझाने की कोशिश की, कि गोश्त के वे टुकड़े या चूहों की कुतरी हुई सूखी ब्रेड वह खाये नहीं. लेकिन उसने मेरी सलाह मानने से इंकार कर दिया, क्योंकि पिछले दो दिन से उसने कुछ भी नहीं खाया था. उसने आग जलायी और गोश्त के टुकड़ों को भूना. वह इतना ज्यादा भूखा था, कि उनके पकने का इंतजार नहीं कर पाया. बस हल्का- सा सेंका और खा गया. वह दृश्य दोबारा न याद करना पडे, इसलिए मैं ने उसके बारे में सोचना छोड दिया. मैं मान लेती हूं कि मैं वहाँ नहीं थी.

हमारे जैसे धनी देश की यह हकीकत नहीं हो सकती. मैं उस समाज कल्याण के प्रति नफरत से भरी हुई थी, जिसका गठन अव्यवस्थित लोगों के पुनर्वास के लिए किया गया था, लेकिन जिसने हाशिये पर रहने वालों की तरफ रत्ती भर गौर नहीं किया. जिन्हो में अपना कबाड बेचकर मैं साओ पाओलो के कूडेदान, झुग्गी बस्ती, में लौट आयी. अगले दिन पता चला कि वह छोटा नीग्रो लडका चल बसा. उसके पैरों की उंगलियां अलग- अलग फैल गयीं थीं और उनके बीच कोई आठ- आठ इंच का फासला हो गया था. उसका जिस्म इस कदर फूल गया था जैसे हाड- मांस का न होकर रबर का हो, उसके पैरों की उंगलियां ऐसी नजर आ रही थीं जैसे पंखें. उसके पास पहचान के और पते- ठिकाने के कोई दस्तावेज नहीं थे. किसी भी दूसरे जो ( चार्ल्स डिकेन्स के उपन्यास ओलिवर ट्विस्ट का एक चरित्र) की भांति उसे दफना दिया गया. किसी ने भी उसका नाम जानने की कोशिश नहीं की. हाशिये पर के लोगों के नाम नहीं होते.

हर चार साल भूख की समस्या हल किये बिना राजनेता बदल जाते हैं. भूख जिसका हेडक्वार्टर झुग्गी बस्ती में है और शाखाएं कामगारों के बासे में.

मैं जब पानी लेने गयी तो देखा एक गरीब औरत पम्प के पास ढेर हुई पडी है, क्योंकि पिछली रात उसे बिना कुछ खाये- पिये सोना पडा. वह भूख की शिकार हुई. राजनीति के डाक्टर यह जानते हैं.

अब मैं दोना जुलिया के घर टहल बजाने जा रही हूं. मैं रद्दी कागज बीनते हुए गयी. सामुएल भाई ने उसकी तौल की और बारह कुजिरो की रकम हाथ में आयी. रद्दी बीनते हुए मैं तिरोदेतेस एवेन्यू तक गयी, फिर ब्रदर अन्तोनियो सांतना दे गाल्वांओ स्ट्रीट के सत्रह नंबर में आयी ; दोना जुलिता के यहाँ काम करने. उसने मुझसे कहा, मर्दों के फेर में पडकर बेवकूफ मत बनना. वरना एक और बच्चे का बोझ सिर पर आ पडेगा, क्योंकि बाद में ये मर्द लोग बच्चे की परवरिश के लिए एक दमडी देने को भी राजी नहीं होते. मैं मुस्कुरायी और सोचने लगी, कि मर्दों के मामले में कई कडवे अनुभवों से होकर गुजरना पड़ा है. अब मेरी समझ परिपक्व हो चुकी है और जिंदगी की उस अवस्था में पहुँच गयी हूं, जहाँ कोई दृढ निर्णय ले सकती हूं.

कचरे में मुझे एक शकरकंद और एक गाजर मिली. मैं जब अपनी झुग्गी पर वापस लौटी तो मेरे लडके सूखी हुई ब्रेड का टुकड़ा कुतर रहे थे. मैं ने सोचा, यह ब्रेड खाने के लिए उन्हें बिजली के दांतों की दरकार होगी.

सूअर की चरबी तनिक भी नहीं है. डिब्बाबंदी करने वाली पीक्सी फैक्टरी से जो टमाटर मिले थे, उनमें से कुछेक टमाटरों के साथ मैं ने गोश्त आग पर चढा दिया. पानी के साथ गाजर- शकरकंद भी डाल दी. जब पानी खौलने लगा तो बच्चों द्वारा कचरे में से ढूंढी गयी मेकरोनी भी उसमें डाल दी. झुग्गीवासी उन थोडे- से लोगों में हैं जो इस बात के कायल हैं कि जिंदगी जीने के लिए उन्हें गिद्धों का रास्ता अख्तियार करना होगा. झुग्गी वालों के लिए समाज कल्याण विभाग से कोई मदद मिलती मुझे नहीं दिखायी देती. कल मुझे ब्रेड नहीं खरीदनी. शकरकंद पकाऊंगी.


१६ जून, १९५८
जोसे कार्लोस की तबियत अब पहले से बेहतर है. मैं ने उसे लहसुन का एनीमा और थोडा- सा जडी- बूटियों का काढा दिया. वैसे तो मैं इन घरेलू दवाओं का मजाक बनाती हूं, लेकिन आखिरकार मुझे उसे वही देनी पडीं, क्योंकि दरअसल अपनी सामर्थ्य के भीतर जो सबसे अच्छे उपाय संभव हैं, उन्ही से समस्याओं को सुलझाना होता है. जिंदगी जीने के न्यूनतम साधनों की लागत बढती जाने के कारण हमें आदिम उपायों की ओर लौटना ही है. कठौते में नहाना- धोना, लकड़ियाँ पर खाना पकाना वगैरह.

मैं ने कुछेक नाटक लिखे और सरकस कंपनियों के डायरेक्टरों को दिखाये. वे बोले, कितनी लज्जा की बात है कि तुम नीग्रो हो. वे यह भूल से कह रहे थे कि मैं अपनी काली चमडी और घुंघराले बालों को बहुत पसंद करती हूं. नीग्रो लोगों के बाल गोरे लोगों के बालों से ज्यादा शिष्ट हैं. उन्हें जिस तरह संवार दो उसी तरह बने रहते हैं. वे गुस्ताख नहीं होते हैं. अगर पुनर्जन्म की अवधारणा सच है तो मैं नीग्रो के रूप में ही दोबारा जन्म लेना चाहूंगी.

एक दिन एक गोरे आदमी ने मुझसे कहा, अगर काले लोग धरती पर गोरों के बाद आये होते, तो गोरों का शिकायत करना वाजिब होता. लेकिन गोरे या काले, दोनों में से कोई भी अपनी उत्पत्ति के बारे में नहीं जानता.

गोरा आदमी कहता है कि वह श्रेष्ठ है, लेकिन वह अपनी कौन- सी श्रेष्ठता प्रदर्शित करता है? अगर नीग्रो पिंगा ( गन्ने के रस से बनी एक तेज शराब ) पीता है, तो गोरा भी पीता है. जो बीमारी किसी नीग्रो पर हमला करती है, वही गोरे पर भी हमला करती है. अगर गोरे आदमी को भूख लगती है, तो नीग्रो को भी उसी तरह लगती है. प्रकृति ने अपने कोई कृपापात्र नामजद नहीं किये.


२० सितम्बर, १९५८
मैं स्टोर गयी. चौवालीस कुजिरो मेरे पास थे. एक किलो चीनी खरीदी, एक किलो फलियां और दो अंडे, दो कुजिरो बच रहे. एक और औरत जो वहाँ खरीदारी कर रही थी, उसने तैंतालीस कुजिरो खर्च किये. सिन्योर एदुआर्दो ने कहा, जहां तक पैसे खर्चने की बात है तुम दोनों एक जैसी हो.
मैं ने कहा, वह गोरी है. वह और भी खर्च कर सकती है.
रंग का कोई महत्व नहीं है. जवाब में उस औरत ने कहा.

तब हमने पूर्वाग्रहों को लेकर बात शुरू की. उसने मुझे बताया, कि संयुक्त राज्य अमेरिका में वहाँ के लोग नहीं चाहते कि नीग्रो लोग उनके स्कूलों में पढें. इस मुद्दे पर मैं बाद तक सोचती रही. उत्तरी अमेरिका के लोगों को सबसे अधिक सभ्य माना जाता है, और उनके दिमाग में अब तक यह बात नहीं आयी कि नीग्रो लोगों के साथ भेदभाव करना सूरज से भेदभाव बरतने की कोशिश करने जैसा है. प्रकृति द्वारा पैदा की गयी चीजों से आदमी नहीं लड सकता. ईश्वर ने सभी नस्लें एक ही समय में साथ- साथ बनायीं. अगर उसने नीग्रो लोगों को गोरों से पहले बनाया, तो गोरों को चाहिए था कि इस बारे में कुछ करते.


८ दिसंबर, १९५८
सुबह पादरी प्रवचन देने आया. कल वह चर्च की कार में आया था और झुग्गी वालों से कहता था कि उन्हें बच्चे पैदा करने ही चाहिए.

मैं ने सोचा कि गरीब लोगों को आखिर क्यों बच्चे पैदा करने चाहिए ? क्या इसलिए कि गरीबों के बच्चों से ही कामगारों की कतारें खड़ी की जानी हैं. मेरी विनम्र राय यह है कि बच्चे दरअसल अमीरों को पैदा करने चाहिए, जो अपने बच्चों को रहने के लिए पक्के मकान मुहैया करा सकते हैं... और वे अपनी इच्छित चीजें खा-पी सकते हैं.

चर्च की कार जब झुग्गी बस्ती में आती है तो धर्म को लेकर सभी तरह के तर्क-वितर्क शुरू हो जाते हैं. औरतों ने बताया, पादरी कहता था कि उन्हें बच्चे पैदा करने चाहिए और जब उन्हें ब्रेड की जरूरत हो तो चर्च में जाकर ले सकती हैं.

पादरी महाशय की दृष्टि में गरीबों के बच्चे सिर्फ रोटी पर पलते हैं. वे कपड़े नहीं पहनते, जूतों की जरूरत उन्हें नहीं होती.
(अंग्रेज़ी से अनुवाद- सुरेश सलिल)
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सुरेश सलिल
(१९ जून १९४२)
कवि, आलोचक, अनुवादक

खुले में खड़े होकर (1990) (कविता संग्रह),
मेरा ठिकाना क्या पूछो हो (2004) (ग़ज़ल संग्रह), 
साठोत्तरी कविता: छह कवि (पाँच कवियों की सवक्तव्य कविताएँ)(1969) आदि

अनुवाद :
मकदूनिया की कविताएँ (1992),
अपनी जुबान में: विश्व की विभिन्न भाषाओं की कहानियाँ(1996),
मध्यवर्ग का शोकगीत: जर्मन कवि हांस माग्नुस एंत्सेंसबर्गर की कविताएँ (1999),
दुनिया का सबसे गहरा महासागर: चेक कवि मिरोस्लाव होलुब की कविताएँ (2000),
रोशनी की खिड़कियाँ : इकतीस भाषाओं के एक सौ बारह कवि (2003),
देखेंगे उजले दिन: नाज़िम हिकमत की कविताएँ (2003),
जापान : साहित्य की झलक (सहयोगी संकलन) आदि 

संपादित : 
गणेशशंकर विद्यार्थी रचनावली: चार खंड,
वली की सौ ग़ज़लें(2004),
नागार्जुन: प्रतिनिधि कविताएँ (1999) आदि

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  1. सन्तोष अर्श9 सित॰ 2020, 12:52:00 pm

    अनुवाद तो ख़ूब ही है। यह अंश ऐसे समय समालोचन पर प्रकाशित है जब दिल्ली की झुग्गी बस्ती को हटाने का एक बेरहम निर्णय भी आया हुआ है। सबाल्टर्न यथार्थ कई बार ऐसे यथार्थवाद में तब्दील हो जाता है जो अघाये, आरामतलब समाज को अविश्वसनीय लगने लगता है। हर्बर्ट मारक्यूज़ की याद आ रही है।
    अनुवाद की किताब कहाँ से प्रकाशित है, यह विवरण भी दिया जाना चाहिए। सुरेश सलिल जी अनुभवी साहित्यिक हैं। राजाराम भादू जी की टिप्पणी संगत और अर्थपूर्ण है। यह पुस्तक ज़रूर पढ़ूँगा। प्रस्तुति के लिए धन्यवाद।

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  2. रंजना मिश्रा9 सित॰ 2020, 1:54:00 pm

    पढ़कर स्तब्ध हूँ। कई पंक्तियाँ जैसे अपने ही आस पास के दृश्य हैं। समालोचन का आभार इसे पढ़वाने के लिए। अनुवाद पढ़कर मूल पढ़ने की इच्छा हो आई।

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  3. कुबेर कुमावत9 सित॰ 2020, 2:03:00 pm

    महत्वपूर्ण प्रस्तुति।इस तरह की डायरियाँ साहित्य को नया आयाम देती है।जीवन की घनता है इस डायरी में।

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  4. आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 10.9.2020 को चर्चा मंच पर दिया जाएगा। आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ाएगी|
    धन्यवाद
    दिलबागसिंह विर्क

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  5. झुग्गी बस्ती की जीवनचर्या के बारे में अभिजनों और निम्नमध्यवर्ग के पास जानकारी बहुत कम है।भूख,हिंसा,यौन हिंसा,अपराध,पुलिस प्रताड़ना,नशा,बीमारी आदि के बीच कई कैरेलिना सरीखे मनुष्य वहां कीड़े-मकोड़े की ज़िंदगी जीने के लिए अभिशप्त हैं। अभी हाल में मीडिया पर धारावी के विजुअल्स इस डायरी से गुजरते हुए सामने आने लगे।
    कैरेलिना की डायरी में यथार्थ का वह रूप दर्ज है जिसे यथार्थवादी कहे जाने वाले लोग भी शायद बहुत कम जानते हैं।
    इससे परिचित कराने के लिए धन्यवाद । इस श्रेष्ठ और पठनीय अनुवाद के लिए सुरेश सलिल जी को साधुवाद।

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