आलोचना
भी रचना है, वह जिस कृति से सम्बोधित होती है उससे पार जाती है और बड़े सामाजिक–सांस्कृतिक
संदर्भों में उसे देखती-परखती है. इस प्रक्रिया में उस रचना से अलग उसका भी एक व्यक्तित्व
बनता जाता है. आलोचना श्रमसाध्य कार्य है- अपार अध्ययन, सूक्ष्म दृष्टि, राजनीतिक-सामाजिक
जागरूकता और सहृदयता इसके लिए आवश्यक तत्व हैं.
मैनेजर
पाण्डेय की आलोचना इसी तरह की है. उनकी आलोचनात्मक-यात्रा पर यह सारगर्भित आलेख
प्रोफेसर कमलानंद झा ने लिखा है. आपके लिए प्रस्तुत है.
मैनेजर पाण्डेय : आलोचना की विवेकपूर्ण यात्रा
कमलानंद झा
(कमलानंद झा) |
मैनेजेर पाण्डेय की आलोचना से गुजरते हुए कहा जा सकता है कि संकट के बावजूद वे शब्द और कर्म में गहरी आस्था रखते हुए पूरी प्रखरता और स्पष्टता से साहित्य के साथ-साथ देश की बात करते हैं. भारतीय साहित्य में प्रतिरोध की परम्परा पर पैनी नज़र रखते हुए वे भक्ति आन्दोलन और सूरदास के काव्य से लेकर हिन्दी कविता का अतीत और वर्तमान तक की सचेत टोह लेते हुए आधुनिक हिन्दी काव्य-परम्परा का संक्षिप्त प्रवृत्तिगत इतिहास लिखने का प्रयास करते हैं. आलोचना में सहमति-असहमति की सार्थकता को समझते हुए और पाठकों से निरंतर संवाद-परिसंवाद करते हुए उन्होंने साहित्य और इतिहास दृष्टि तथा साहित्य के समाजशास्त्र की भूमिका को हिन्दी पाठ्यचर्या से जोड़ने का गुरुतर दायित्व निभाया है. उन्होंने अपनी आलोचना में इस बात को लगातार रेखांकित किया है कि उपन्यास और लोकतंत्र के आपसी द्वंदात्मक रिश्ते को समझने के लिए आलोचना की सामाजिकता आवश्यक है. उपन्यास की आतंरिक संरचना में लोकतंत्र की उपस्थिति ही उसे आम जन की मुक्ति की पुकार से जोड़ती है. शब्द की प्रतिबद्ध साधना (शब्द और साधना) उनके चिंतन, मनन, लेखन और साक्षात्कार को अनभै साँचा बनाता है और वे इसी प्रतिबद्धता की बदौलत मुँह में जुबान रखते हुए सभी तरह के सत्ता प्रतिष्ठान की तीखी आलोचना कर पाने का साहस जुटा पाते हैं.
मैनेजर पाण्डेय उन आलोचकों में हैं
जिन्होंने उच्च शिक्षा में हिन्दी पाठ्यक्रम को विस्तार प्रदान किया है.
साहित्य का समाजशास्त्र और साहित्य की इतिहास-दृष्टि पर उनका
व्यवस्थित चिंतन और लेखन आज की तारीख़ में हिन्दी पाठ्यक्रम के अभिन्न हिस्सा हैं.
वे हिन्दी के पहले आलोचक हैं जिन्होंने इन दोनों विषयों को सर्वाधिक
गंभीरता से लिया है. साहित्य की समाजशास्त्रीय भूमिका के महत्व को बालकृष्ण भट्ट, महावीर प्रसाद द्विवेदी और आचार्य रामचंद्र शुक्ल से लेकर नामवर सिंह तक
ने स्वीकार किया है और अपने लेखन में इसकी सार्थकता की ओर संकेत भी किया है.
लेकिन इसे अकादमिक आधार मैनेजर पाण्डेय ने अपनी पुस्तक साहित्य के
समाजशास्त्र की भूमिका में प्रदान किया.
पुस्तक की भूमिका में उन्होंने लिखा है कि
“साहित्य के समाजशास्त्र का मुख्य उद्देश्य है-समाज से साहित्य के सम्बन्ध की खोज और उसकी व्याख्या, ऊपरी तौर पर समाज से साहित्य का सम्बन्ध जितना सरल और सहज दिखाई देता है, उतना वह होता नहीं है. गहरे स्तर पर छानबीन करने के दौरान उसकी जटिलता सामने आती है.”
पुस्तक इस जटिलता को यथासाध्य सरल बनाकर
प्रस्तुत करने का प्रयास करती है. विमलेन्दु
तीर्थंकर को दिए अपने एक साक्षात्कार में उन्होंने आलोचना से साहित्य और समाज के
आपसी रिश्ते को स्पष्ट करते हुए कहा कि
“आलोचना जब नितांत रचनाजीवी होती है तो वह अनिवार्यतः परोपजीवी होती है और जिन लोगों ने आलोचना कर्म को गंभीरता से लिया है वे चाहे हिन्दुस्तान के महत्वपूर्ण आलोचक हों या दुनिया के दूसरे भागों या भाषाओं में काम करने वाले आलोचक; उन सब ने आलोचना को समाज की विकास-यात्रा की सहयात्री के रूप में देखा है, केवल साहित्य की दुनिया में छोटी-बड़ी छानबीन की प्रक्रिया के रूप में नहीं.”
(मेरे साक्षात्कार, किताब घर, 1998, पृष्ठ 85)
उनके कहने का आशय यह है कि रचना आलोचना को
यह सुविधा देती है कि हमारी ओर से होकर तुम समाज की और जाओ,
वह यह नहीं कहती कि हमारे यहाँ आओ और यहीं बैठकर मेरा गीत गाओ.
पर जिन लोगों ने आलोचना को केवल रचनाओं की व्याख्या तक सीमित कर रखा
है और रचना को समाज की आँख के रूप में नहीं देखते, वे लोग
आलोचना को सामाजिक दायित्व के रूप में नहीं देखते, न विकसित
करते हैं.
साहित्य और इतिहास दृष्टि उनकी ऐसी दूसरी पुस्तक है जो देश भर की उच्च शिक्षा में हिंदी पाठ्यक्रम के जरूरी हिस्सा के रूप में प्रतिष्ठित है. इस विषय पर व्यवस्थित ढंग से लिखने वाले मैनेजर पाण्डेय पहले आलोचक हैं. नलिन विलोचन शर्मा की पुस्तक साहित्य का इतिहास दर्शन में मौलिकता की गुंजाइश कम है. मैनेजर पाण्डेय ने नामवर सिंह के कहने पर सर्वप्रथम इस विषय पर आलोचना में कई महत्वपूर्ण लेख लिखा और बाद में साहित्य और इतिहास दृष्टि नाम से पुस्तक. इस पुस्तक में उन्होंने साहित्य और इतिहास-बोध के आंतरिक रिश्ते की सैद्धांतिकी पर ही बात नहीं की है बल्कि रामचन्द्र शुक्ल, हजारी प्रसाद द्विवेदी और रामविलास शर्मा की इतिहास दृष्टि पर विस्तार से बात करते हुए साहित्येतिहास के व्यावहारिक पहलुओं पर भी गहनता पूर्वक विचार किया है. पाण्डेयजी की आलोचना-दृष्टि की खासियत यह है कि वे सैद्धांतिक और व्यावहारिक आलोचना को एक साथ लेकर चलते हैं. जिससे उनकी आलोचना हवाई न होकर स्वीकार्य, जमीनी और वास्तविक बनती है. साहित्येतिहास की अहमियत को लेकर इनका मानना है कि साहित्य का अस्तित्व समाज से अलग नहीं होता, साहित्य कर्म की पूरी प्रक्रिया सामाजिक व्यवहार का ही एक विशिष्ट रूप है, इसलिए वह समाज के इतिहास से अनेक रूपों में जुड़ी होती है और व्यापक सामाजिक इतिहास का अंग भी होती है. साहित्य के इतिहास दर्शन को जानना इसलिए भी जरूरी होता है
“क्योंकि साहित्य के इतिहास लेखन में विकास और परिवर्तन की व्याख्या होती है, परंपरा और नवीनता के द्वंद्वात्मक संबंधों का विश्लेषण होता है, परम्परा तथा रूढि के बीच अलगाव होता है और भावी रचना दिशा का संकेत भी.”
(साहित्य और इतिहास दृष्टि,
भूमिका से)
इतिहास-दृष्टि के अभाव में आलोचक किसी कृति के
मूल्य और महत्व को समझ ही नहीं सकता, अच्छी और
खराब रचना के फर्क को समझना उसके लिए कठिन होगा. मैनजेर
पाण्डेय ने अपने कई साक्षात्कारों में साहित्य और इतिहास दृष्टि के पारस्परिक
सम्बन्ध और इस सम्बन्ध के निहितार्थ को सपष्ट किया है. उन्होंने
इन दोनों अनुशासनों का महत्व प्रतिपादित करते हुए ज्योतिष जोशी को बताया कि,
“ज्ञान के दो ऐसे अनुशासन हैं –जो आलोचना को विकसित और समृद्ध करने में मदद दे रहे हैं -पहला इतिहास है और दूसरा समाजशास्त्र. हिन्दी से बाहर जिन भाषाओं और देशों में आलोचना का विकास हुआ, वहाँ क्रमशः आलोचना, इतिहास एवं समाजशास्त्र से जुड़कर अधिक सामजिक और प्रासंगिक हुई हैं. इसलिए हिन्दी आलोचना को भी अगर सामाजिक दृष्टि से अधिक सार्थक बनाना है, तो उसे सामाजिक सन्दर्भों से, साहित्य को जोड़ने वाले अनुशासनों की ओर जाना होगा. ये ऐसे अनुशासन हैं जो आलोचना के विकास में सहायक बन सकते हैं.”
(मेरे
साक्षात्कार, पृष्ठ 71)
हिंदी साहित्य में इन दोनों पुस्तकों की
अहमियत अपने विषय के कारण मार्गदर्शिका की है. बावजूद
कुछ आलोचकों ने इन्हें मैनेजर पाण्डेय की कमजोर रचना माना है. ऐसा कहने वाले आलोचक कदाचित इस बात की ओर ध्यान नहीं देते कि ये दोनों
पुस्तकें अपने-अपने विषय पर हिन्दी में लिखी गई पहली पुस्तक है. पहली पुस्तक होने के नाते इसमें उतनी ही कमियाँ हैं जितनी हो सकती हैं.
इन पुस्तकों को प्रकाशित हुए तीन दशक से अधिक हो गए हैं लेकिन आज भी
इन दोनों विषयों पर इससे अच्छी पुस्तक कदाचित हिन्दी में उपलब्ध नहीं है. जबकि विषय की आवश्यकता से इनकार नहीं किया जा सकता है. बढ़ते समय के साथ इन दोनों विषयों का महत्व लगातार बढ़ता जा रहा है, तथापि इन पर हिन्दी में अच्छी पुस्तकें नहीं हैं. जब
तक इससे बेहतर पुस्तक हिन्दी में प्रकाशित नहीं होती है, उक्त
दोनों पुस्तकें अपने विषय की सर्वश्रेष्ठ पुस्तक के रूप में मौजूद रहेगी.
मैनेजर पाण्डेय संपन्न इतिहास दृष्टि के आलोचक हैं. इसी इतिहास-बोध के सहारे वे भक्तिकाल से लेकर आज के रचनाकारों का वस्तुनिष्ठ मूल्यांकन कर पाते हैं. इन्होंने मानव समाज के इतिहास को मनुष्य की सोद्देश्य जीवन यात्रा का इतिहास कहा है. डॉ पाण्डेय अतीत-राग और वर्तमान-मोह दोनों को इतिहास विरोधी चेतना मानते हैं. उनके अनुसार,
“अतीत की चिंता वर्तमान और भविष्य की चिंता से जुडी होती है. इसलिए इतिहास की प्रक्रिया में अतीत, वर्तमान और भविष्य परस्पर सम्बद्ध होते हैं, इनके विकासशील संबंध का बोध ही इतिहास बोध है.”(साहित्य और इतिहास दृष्टि, पीपुल्स लिटरेसी, पृष्ठ 38)
इस इतिहास बोध का लक्ष्य है : परिवर्तन की
व्याख्या करना उसे समझना और उसे प्रभावित करना. साहित्य
का इतिहास बोध भी इसका अपवाद नहीं है. उन्हीं के शब्दों में,
“इतिहास-बोध मानव की सोद्देश्य क्रियाशीलता का बोध है और इससे क्रियाशीलता को शक्ति, गति और दिशा मिलती है. साहित्य का इतिहास-बोध भी मानव की प्रयोजनयुक्त सर्जनात्मक क्रियाशीलता का बोध है और इससे नवीन सृजन को नयी दिशा मिलती है."
(उपरियुक्त, पृष्ठ 56)
“साहित्य का इतिहास एक अंतर्विरोधपूर्ण असंगत विषय है क्योंकि इसमें दो परस्पर विरोधी धारणाओं, साहित्य की धारणा और इतिहास की धारणा का अनमेल मिश्रण है. साहित्येतिहास अगर अनुपयोगी नहीं तो कम से कम साहित्यानुशीलन की एक बदनाम पद्धति तो है ही.”
(उपरियुक्त,
32)
मैनेजर पाण्डेय मानते हैं कि इस तरह का
इतिहास विरोधी चिंतन वर्तमान की चेतना को मिटाकर मनुष्य को चिंतनहीन प्राणी में
रूपांतरित कर देता है. क्योंकि जो व्यक्ति
अतीत को अस्वीकार करता है और भविष्य की चिंता नहीं करता उसका वर्तमान अनुभूतियों
के असम्बद्ध क्षणों का एक सिलसिला भर रह जाता है. इस सन्दर्भ
में ज्याँ ब्रांट कोर्टिस को याद करना जरूरी लगता है, जब वे
कहते हैं कि
“इतिहास से मुक्त होने का अर्थ है मानवता से पलायन करना और चूंकि हम मानवता से पलायन नहीं कर सकते इसलिए इतिहास से अलग नहीं हो सकते.”
जब व्यक्ति इतिहास से मुक्त नहीं हो सकता तो
उस व्यक्ति का साहित्य इतिहास से मुक्त कैसे हो सकता है?
मैनेजर पाण्डेय कई संरचनावादियों के सिद्धांत को जहाँ मनुष्यता विरोधी मानते हैं वहीँ कई स्थानों पर रूपवाद को रचनाशीलता के लिए बाधक. उन्होंने अपनी व्यापक आलोचना-दृष्टि से रूपवाद द्वारा फैलाए गए धुंध को कम करने की कोशिश की है. उनकी राय में,
“साहित्य संसार की समाजनिरपेक्षता
सिद्ध करने के लिए ही रचना को और सामाजिक प्रेरणा और प्रभाव से और दूसरी ओर
परम्परा और परिवेश से पूर्णतः स्वतंत्र घोषित किया गया. "
मैनेजर पाण्डेय एक सुलझे हुए दृष्टिसंपन्न
आलोचक हैं. उनके लिए आलोचना, साहित्य के साथ-साथ समाज को देखने-समझने और उसे व्याख्यायित करने का
सार्थक नजरिया है. साहित्य कर्म को वे बैठे-ठाले का कार्य न
मानकर अत्यंत श्रमसाध्य सर्जनात्मक कर्तव्य मानते हैं. साहित्य-कर्म
का कोई भी शर्ट-कट रास्ता उन्हें नाकाबिले बर्दाश्त है. अपने
एक साक्षात्कार में ऐसे साहित्यकार पर तंज कसते हुए उन्होंने कहा,
“जो लोग जोड़-तोड़ की कला से बहुत जल्दी अभूतपूर्व साहित्यकार बन जाते हैं वे कुछ समय के बाद भूतपूर्व भी हो जाते हैं. यह जनता के विवेक के कारण होता है.”
(वही, पृष्ठ 69)
पाठकों से कविता की बढ़ती दूरी मैनेजेर
पाण्डेय की एक बड़ी चिंता है. उन्हें इस
बात की गहरी पीड़ा है कि ‘कवि लगातार पुरष्कृत हो रहे हैं और कविता तिरष्कृत हो रही
है.’ कविता से छंद के विलगाव ने कविता को दूर तक प्रभावित
किया है. मैनेजेर पाण्डेय तो यहाँ तक कहते हैं कि,
“जब से कविता छंद के अनुशासन से मुक्त हुई है तब से खराब कविता लिखना जितना आसान है, अच्छी कविता लिखना उतना ही कठिन हो गया है. कविता में गंभीर विषय ऐसे शिल्प में भी लिखे जा सकते हैं जो पाठकों के लिए सुगम हों. पर यह सब नहीं हो रहा है, इसलिए कविता के पाठक कम हो गए हैं.”
(संवाद-परिसंवाद, पृष्ठ 149)
कविता से उदासीन समाज मैनेजेर पाण्डेय को इसलिए व्यथित करता है कि कविता किसी भी समाज को संवेद्य बनाती है. कविताविहीन समाज की कल्पना भी दुष्कर है. ध्यान देने से पता चलता है कि प्रो. पाण्डेय के काव्य चिंतन में कविता संबंधी कार्ल मार्क्स का एक ऐतिहासिक महत्व का सूत्रवाक्य लगातार ध्वनित होता है, और वह सूत्र वाक्य है- ‘कविता मानवता की मातृभाषा है’. मार्क्स ने अपने इस सूत्रवाक्य को व्याख्यायित नहीं किया. मैनेजर पाण्डेय इस सूत्रवाक्य को सपष्ट करते हुए कहते हैं कि कविता मातृभाषा की तरह सहज होती है. मनुष्य अत्यंत घनीभूत सुख या दुःख के क्षणों में मातृभाषा की तरह ही कविता से जुड़ता है. मतलब यह कि जब मनुष्य सुख या दुःख के अत्यंत घनीभूत क्षणों में होता है तो उसकी अभिव्यक्ति मातृभाषा में होती है, उसी तरह कविता मानवीय भावनाओं की अभिव्यक्ति का सबसे आत्मीय माध्यम है.” (मेरे साक्षात्कार, पृष्ठ 9)
मैनेजेर पाण्डेय का कविता के प्रति
गहरा लगाव मानवीय संवेदना के प्रति उनके सघन सरोकार को दर्शाता है. कविता के स्वरुप और सार्थकता संबंधी सवालों का जवाब देते हुए वे कहते हैं,
“कविता का कोई शाश्वत रूप नहीं होता. कविता
सामाजिक मनुष्य, इतिहास से जुड़े हुए मनुष्य और इतिहास
प्रक्रिया में संघर्षरत मनुष्य की जीवन दशाओं और आकांक्षाओं की अभिव्यक्ति के कारण
ही सार्थक होती है. (वही, पृष्ठ 10)
कविता में कल्पना के महत्व को वे अत्यंत शिद्दत से महसूस करते हैं, किन्तु जीवनानुभव रहित कल्पना को वे कविता के लिए नुकसानदेह मानते हैं,
“काव्य संसार की रचना में सर्वाधिक महत्वपूर्ण भूमिका सर्जनात्मक कल्पना की होती है, लेकिन जब सर्जनात्मक कल्पना जीवनानुभव के आधार पर सक्रिय होती है तभी बेहतर कविता बनती है. जब कविता में जीवनानुभव का आधार कमजोर होता है और कल्पना की सक्रियता अधिक होती है तब कविता में वायवीयता आती है या काल्पनिकता बढ़ती है.”
(वही पृष्ठ 11)
गीत विधा पर हिन्दी में बहुत कम लिखा गया है,
उसमें भी जनगीतों पर तो नहीं के बराबर. मैनेजर
पाण्डेय समाज के लिए जनगीत की जरूरत और उसके लिखे जाने के कारणों की पड़ताल करते
हैं. उनका मानना है कि जन-आन्दोलन के गर्भ से ही जनगीत पैदा
होते हैं. बिना आन्दोलन के श्रेष्ठ जनगीत नहीं लिखे जा सकते.
यह आन्दोलन से ही अपना खुराक लेता है. रूपा
गुप्ता को दिए अपने एक साक्षात्कार में मैनेजर पाण्डेय कहते हैं,
“जन-आन्दोलनों से गीत पैदा भी होते हैं और उनको गति और शक्ति देने में सार्थक भूमिका भी निभाते हैं. इस दृष्टि से विचार कीजिये तो हिन्दी का जनवादी गीत जन-आन्दोलनों की देन हैं.”
(मेरे
साक्षात्कार- मैनेजेर पाण्डेय, किताबघर, पृष्ठ 67)
कुछ माह पूर्व पूरे देश में नागरिकता क़ानून के विरोध में आन्दोलन चल रहे थे. सड़कें इस आन्दोलन से आबाद हो गई थी. शाहीनबाग (दिल्ली) में महीनों तक मनुष्यता विरोधी इस क़ानून के खिलाफ औरतें धरना पर बैठी रहीं. इस आन्दोलन ने मैनेजर पाण्डेय की जनवादी गीत संबंधी अवधारणा को सही ठराया है. आन्दोलन से कई श्रेष्ठ गीत और कविताओं की आमद हुई है. सबसे बड़ी बात यह है कि इस आन्दोलन ने कई नए युवा कवियों से हमारा साक्षात्कार करवाया है. इन कविताओं में आइडिया ऑफ़ इंडिया की साफ़ झलक आपको दिख जायेगी. देशप्रेम का नया संस्करण हैं ये कविताएँ. दुश्मनों के किले को ध्वस्त कर देने वाली घिसी-पिटी आकांक्षा के विपरीत समानता, बंधुत्व और लोकतंत्र की घुलावट से राष्ट्रप्रेम की नींव को मजबूत करने की लालसा इन कविताओं को विशिष्ट बनातीं हैं. उदाहरण के लिए इस आन्दोलन में वरुण ग्रोवर की कविता ‘हम काग़ज़ नहीं दिखाएँगे’ शुमार पर है. ‘तानाशाह आकर जाएँगे, हम काग़ज़ नहीं दिखाएँगे’ की आगाज़ से कविता शुरू होती है. शब्दों की भीषण कृपणता के साथ कवि देश के प्रति अपना लगाव, साम्प्रादियिक सद्भाव और वर्णव्यवस्था की निरर्थकता बताते चलता है-
ये देश ही अपना हासिल है,
जहाँ रामप्रसाद भी विस्मिल है
मिट्टी को कैसे बाँटोगे,
सबका ही खून तो शामिल है...
हम जनगणमन भी गायेंगे,
हम कागज़...
तुम जात पात से बाँटोगे, हम भात मांगते जाएँगे.
पुनीत शर्मा की कविता ‘तुम कौन हो बे’ की
नागरिकता क़ानून के विरोध में चल रहे आन्दोलन की गति को तेज करने में अपनी
महत्वपूर्ण भूमिका रही. इस तरह की
कविताएँ कवि के हाथ से निकलकर
आन्दोलनकर्मियों का हथियार बन गयीं. जहाँ-तहाँ आन्दोलनकर्मी
बतौर समूह गान इन कविताओं का उपयोग कर रहे हैं, पोस्टर बना
रहे हैं तो कभी इन कविता की पंक्तियों से नारे गढ़ रहे हैं. कविता के आरम्भ में ही पुनीत
हिन्दुस्तान से अपना रिश्ता तय कर लेते हैं-
तुम कौन है बे
क्यूँ बतलाऊं तुमको कितना गहरा है
तुम कौन हे बे
इस लम्बी कविता में देश-दशा और देशप्रेम की भावना में ताज़गी और नयापन है.
साहित्य की अन्य विधाओं के साथ आलोचना की
दशा और दिशा पर मैनेजेर पाण्डेय लगातार अपनी सचेत दृष्टि बनाए रखते हैं.
सिद्धांतविहीन आलोचना को वे प्रलाप मानते हैं. एक अच्छी आलोचना लिखने के लिए आलोचक को आलोचना की सैद्धांतिकी से गहरा
परिचय आवश्यक है. आलोचना की सामाजिकता उनकी आलोचना-दृष्टि के
केंद्र में है. वे आलोचना को सामाजिक संघर्षों से जोड़ने के
कायल हैं. समाज की चिंता न करनेवाली आलोचना को वे दायित्वहीन
आलोचना मानते हैं,
“दुनिया के अनेक बड़े आलोचक इस बात को मानकर चलते रहे हैं कि समाज में जो संघर्ष की प्रक्रिया है वह सिर्फ दिमाग में नहीं चलती, वह समाज की ठोस जमीन पर भी चलती है. तभी स्वाधीनता की ओर कदम भी आगे बढ़ते हैं. तो दिमाग और जमीन पर चलने वाले संघर्षों को जोड़कर देखना मेरे लिए आलोचना का एक महत्वपूर्ण दायित्व है. मेरे लिए यह संतोष की बात है कि मेरे निबंधों को जन-आन्दोलन से जुड़े हुए लोग अपने काम का पाते हैं.”
(मैं भी मुँह में जुबान रखता हूँ, पृष्ठ-94-95)
‘राग दरबारी’ आलोचना को कमजोर ही नहीं नष्ट
कर देता है. किसी भी तरह के
सत्ता-प्रतिष्ठान के साथ जुगलबंदी
आलोचना-कर्म का मिज़ाज नहीं. सच को सच की तरह कहना ही
आलोचना का कर्म और धर्म दोनों है. मैनेजेर पाण्डेय इस कर्म
को आलोचना का एक जरूरी दायित्व मानते हुए
अपने एक साक्षात्कार में कहते हैं,
“आज के समय में निर्भीक होकर सच कहना आलोचना का पहला दायित्व है. रचना और समाज दोनों के लिए सच कहने का साहस रखनेवाली आलोचना ही जरूरी और सार्थक होगी. आज के दौर में आलोचना और आलोचनात्मक चेतना का अस्तित्व खतरे में है, इसलिए आज आलोचना के लिए जरूरी है कट्टरतावाद और भूमंडलीकरण के नाम पर फैलाए जा रहे झूठ और भ्रमों से स्वंय लड़े और दूसरों को भी लड़ने की प्रेरणा दे. संघर्ष ही आलोचना का स्वाभाविक धर्म है. हम ऐसे समय में रह रहे हैं जहाँ मनुष्यता ही संकट में है. ऐसी स्थिति में केवल कला की बारीकियों और जटिलताओं पर अबूझ भाषा में बात करना बौद्धिक अय्याशी होगी.”
(मैं भी मुँह में जुबान रखता हूँ, पृष्ठ-66)
किसी भी विचार, विचारधारा, रचना या रचनाकार के प्रति पूर्वग्रह आलोचक की विश्वसनीयता को संदिग्ध बनाता है. आलोचना का दायित्व पूर्वग्रह से मुक्त होकर तथ्यों की पड़ताल करना है. पूर्वग्रह से मुक्ति का तात्पर्य विचारधारा या प्रतिबद्धता से मुक्ति नहीं होती. मैनेजेर पाण्डेय घोषित मार्क्सवादी आलोचक हैं और इस विचारधारा के प्रति उनकी प्रतिबद्धता जगजाहिर है. वे वामपंथी सांस्कृतिक संगठन जन संस्कृति मंच से गहरे जुड़े ही नहीं रहे बल्कि लम्बे समय तक इसके राष्ट्रीय अध्यक्ष भी रहे. बावजूद इसके मैनेजेर पाण्डेय मार्क्सवाद से संबंधित साहित्य की कमियों को बेलाग ढंग से उद्घाटित करते रहे हैं. श्रेष्ठ रचनाकार, भले ही वह गैर मार्क्सवादी हो उसकी मुक्त कंठ से प्रशंसा करते हैं, इससे न उनकी प्रतिबद्धता बाधित होती है न ही विचारधारा. रामचन्द्र शुक्ल को वे हिन्दी का सर्वश्रेष्ठ आलोचक मानते हैं, फणीश्वरनाथ रेणु उनके प्रिय कथाकार हैं और नागार्जुन के साथ राजकमल उनके प्रिय कवि रहे हैं.
साहित्य और समाज की समझ दुरुस्त करने में मार्क्सवाद के महत्व को बिना किसी द्विविधा के स्वीकार करते हुए वे मानते हैं कि श्रेष्ठ रचनाकार होने के लिए या प्रगतिशील ख्याल का मनुष्य होने के लिए मार्क्सवादी होना आवश्यक नहीं है. अगर कोई रचनाकार अपने समाज और जीवन से गहरे स्तर पर जुड़ा हुआ है तो उसकी रचनाशीलता में प्रगतिशीलता होगी. उन्होंने विमलेन्दु तीर्थकंर के सवालों से जूझते हुए दो टूक कहा,
“जैसे गैर मार्क्सवादी होते हुए भी कुछ लोग अच्छे आलोचक हैं, वैसे ही ठीक विपरीत कुछ लोग मार्क्सवादी होते हुए भी न केवल ख़राब आलोचक हैं, बल्कि आलोचक ही नहीं हैं, फिर भी आलोचक कहे जाते हैं.”
(मेरे साक्षात्कार, पृष्ठ 86)
वामपंथी पार्टियों की आलोचना करने में भी वे नहीं हिचकते, अपने इसी साक्षात्कार में वे वामपंथी पार्टियों की कार्यशैली की आलोचना करते हुए बताते हैं,
“वामपंथी पार्टियों की आदत यह रही है कि उनके नेतृत्व में जो आन्दोलन नहीं चलते, उस आन्दोलन को वे महत्व नहीं देते. चाहे वह कितने भी सार्थक और महत्वपूर्ण क्यों न हो.... असल में किसी समाज और संस्कृति में आलोचनात्मक चेतना का विकास जरूरी है तो इसका मुख्य स्रोत अब केवल किताबें नहीं, पार्टियों के दस्तावेज नहीं हैं, जन आन्दोलन उसके मूल स्रोत हैं. उनसे जुड़कर ही बुद्धिजीवी समाज अपनी सार्थकता खोज सकते हैं.”
(वही, पृष्ठ 85)
आत्मालोचन
मार्क्सवादी आलोचना पद्धति की विशेषता है. मार्क्सवाद अंतिम सत्य में
विश्वास नहीं करता. बुनियादी तौर पर वह
समाज को समझने का एक सिद्धांत है, दूसरे
स्तर पर वह समाज को बदलने का सिद्धांत है और तीसरे स्तर पर वह केवल समाज ही नहीं
बल्कि संपूर्ण संसार को बदलने का दृष्टिकोण है.
यही वजह है की मार्क्सवादी आलोचक मैनेजर पाण्डेय की आत्मालोचना में यहां से वहां तक साहित्य विवेक की अनुगूंज
सुनाई देती है. उन्होंने मुक्तचित्त से
स्वीकार किया है कि मार्क्सवाद जीवन जगत को देखने की एक विशेष दृष्टि है और जिन
रचनाकारों के यहाँ मार्क्सवाद सजग और सचेत दृष्टि के रूप में सक्रिय है उनकी
प्रगतिशीलता अधिक सुनिश्चित और सुविकसित हो सकती है.
(मेरे साक्षात्कार, 92)
आज मार्क्सवाद पर संकट के बादल मंडरा रहे हैं, लोग कहने लगे हैं कि मार्क्सवाद का अंत हो गया है. इस तरह के सवालों के जवाब में प्रोफेसर पाण्डेय सार्त्र को उद्धृत करते हुए कहते हैं कि सार्त्र ने कहा था दुनिया में समाजवाद की जरूरत और मार्क्सवाद का महत्व कम से कम तब तक तो रहेगा ही जब तक पूंजीवादी शोषण और लूट की व्यवस्था कायम रहेगी (संवाद-परिसंवाद, 31)
मार्क्सवाद के प्रति अपनी प्रतिबद्धता को दोहराते हुए वे कहते हैं ‘मैं अपनी मार्क्सवादी प्रतिबद्धता के साथ अपनी जमीन पर खड़ा हूँ.’ (बतकही, वाणी प्रकाशन, 2019, पृष्ठ 122)
अपनी जमीन पर खड़ी मैनेजर पांडेय की आलोचना दृष्टि पूंजीवाद के धूर्त चाल को
अंदर तक वेध जाती है और इसीलिए वे
सौंदर्यीकरण के नाम पर आम गरीब लोगों की
जिंदगी के सवाल को ढकेल ले जाने के षड्यंत्र को
उद्घाटित कर जाते हैं. अल्पना त्रिपाठी को वे बताते हैं,
"पूंजीवाद के वर्तमान विकास की प्रक्रिया में पूंजीपतियों के लिए जो सुंदरता या सौन्दर्यीकरण का प्रश्न है वही मजदूरों और अन्य गरीब तबकों के लिए जिंदगी का सवाल है. हमें विचार करना चाहिए कि सौंदर्यीकरण और जिंदगी के बीच जो द्वंद है उसमें हम कहां और किसके साथ हैं?"
(संवाद- परिसंवाद 111)
मैनेजर पांडेय पाठकों को तय करने के लिए कहते हैं कि आप सौंदर्यीकरण के साथ हैं या जीवन के साथ. प्रोफेसर पांडेय के अनुसार "पूंजीवाद मुख्यतः और मूलतः झूठ और लूट की व्यवस्था है-जब तक यह बोध कवियों को नहीं होता तब तक उसका सार्थक और समर्थ विरोध भी संभव नहीं होगा. मार्क्स के हवाले वे कहते हैं कि पूंजीवादी सभ्यता की दो बुनियादी विशेषताएं हैं- एक है अथाह पाखंड और दूसरी है जन्मजात बर्बरता. भारत में पूंजीवादी सभ्यता की यह दोनों विशेषताएं आजकल जगह-जगह दिखाई दे रही हैं.
(संवाद परिसंवाद, 176)
स्त्री की दशा और दुर्दशा मैनेजर पांडे की आलोचना और साक्षात्कार के केंद्र में है. आधी आबादी की उपेक्षा कर आलोचना कर्म को गरिमा नहीं मिल सकती. ध्यान से देखने पर इसे जान लेना कठिन नहीं कि सत्ता की पूरी संकल्पना में स्त्री की पराधीनता गहरे धसी हुई है. मैनेजर पांडेय स्त्री मुक्ति को तीन चरणों में समझने की बात कहते हैं- शुरुआत का पहला कदम होगा स्त्री द्वारा अपनी पराधीनता के यथार्थ का बोध, दूसरा कदम होगा पराधीनता की मानसिकता से मुक्ति की चिंता और आकांक्षा और तीसरा कदम होगा पराधीनता से मुक्ति की कोशिश.
(संवाद परिसंवाद 212 )
मैनेजर पाण्डेय स्त्रीवादी आंदोलन की सबसे बड़ी सीमा यह मानते हैं कि यह शहर केंद्रित आंदोलन है जब तक स्त्री आंदोलन गांव की ओर रुख नहीं करेगा स्त्रीमुक्ति के वास्तविक सवालों के उत्तर नहीं मिल सकते. बकौल मैनेजर पांडेय
“भारत में जो स्त्रीवादी आंदोलन है वह अस्सी प्रतिशत से अधिक पढ़ी-लिखी मध्यवर्गीय स्त्रियों का आंदोलन है. इसलिए गांव की दलित मजदूरनी की समस्या, उनकी पीड़ा और यातना से स्त्रीवादियों की कोई आत्मीयता नहीं है, इसलिए वे स्वतः उनसे अलग हैं.”
स्त्री विमर्श के संदर्भ में मैनेजर पांडेय अपने साक्षात्कार में जो नई स्थापना देते हैं वह है गांधी के पूरे व्यक्तित्व में स्त्रीत्व की गरिमा. उनकी धारणा है कि गांधी के व्यक्तित्व और उनके आंदोलन में पुरुषार्थ की अपेक्षा स्त्रीयर्थ का धैर्य और सदाशयता मौजूद है. उन्हीं के शब्दों में,
" मैं स्वयं सत्याग्रह को स्त्री शक्ति का सिद्धांत मानता हूँ. गांधी जी सत्याग्रह की प्रेरणा के एक स्रोत के रूप में भी मीराबाई को मानते थे उन्होंने स्वाधीनता आंदोलन में स्त्री शक्ति को जगाने का जितना अधिक प्रयत्न किया उतना किसी और व्यक्ति ने नहीं. इसलिए भारत में स्वाधीनता आंदोलन में जितनी बड़ी संख्या में स्त्रियों ने हिस्सा लिया उतनी संसार में किसी आंदोलन में हिस्सा नहीं लिया है. गांधी के दोनों सिद्धांत सत्य और अहिंसा मातृसत्ता से प्रेरणा लेकर विकसित होने वाले सिद्धांत हैं."
(संवाद परिसंवाद,213)
मैनेजर पांडेय का स्त्री अध्ययन बहुमुखी है, जो इनकी आलोचना दृष्टि को विस्तार प्रदान करती है. अंग्रेजी में भक्ति काल की कवयित्री मीरा के स्त्रीवादी पाठ से गुजरते हुए परितामुक्ता की 'होल्डिंग कॉमन लाइफ' कुमकुम संगारी की 'मीराबाई और भक्ति की आध्यात्मिक अर्थ नीति' तथा मधुकिश्वर की पत्रिका ‘मानुषी’ के विशेषांक की पड़ताल करते हैं. इन्हें अंग्रेजी के इन कामों में जहां दृष्टि की नवीनता दिखती है वही पाठ के साथ आत्मीय संबंध का अभाव भी खटकता है. लेखिकाओं की बौद्धिकता मीरा की चेतना और उद्दाम आवेग को वे कहीं न कहीं बाधित करता हुआ महसूस करते हैं. मीरा की स्त्रीचेतना की विशेषताओं को रेखांकित करते हुए वह स्त्रीकाल पत्रिका को बताते हैं,
"वह अपने सुख-दुख की हिस्सेदारी केवल स्त्रियों से करती हैं अपने पदों में वह कभी माँ को संबोधित करती है तो कभी सखी को. वह कभी अपनी भावना को व्यक्त करने के लिए भाई या पिता को संबोधित नहीं करती इसलिए उनमें सहज रूप से एक व्यापक स्त्री चेतना मौजूद है, जो अत्यंत दुर्लभ और जरूरी भी है. मीरा बाई के संघर्ष, जीवन संघर्ष और रचनात्मक संघर्ष की एक बड़ी उपलब्धि यह है कि उनके बाद राजस्थान में दर्जनों राजघराने की स्त्रियां कविता करने लगी जिसके बारे में अभी खोज हुई है."
समकालीन राजनीति में बहुसंख्यक ध्रुवीकरण से एक बार पुनः गांधी की वापसी हुई है. आये दिन कभी सामूहिक रूप से गांधी की हत्या की खबर आती है तो कभी गांधी के हत्यारे गोडसे को शहीद घोषित करने की. मुस्लिम विरोधी दक्षिणपंथी विचारधारा के लिए गांधी एक नासूर की तरह हैं. हिंदुत्व के प्रसार में गांधी उनकी बड़ी रुकावट है. आम जनमानस में गांधी की गहरी पैठ उनकी दुविधा का कारण है. इसलिए उनकी राजनीति में गांधी के प्रति घृणा और दिखावटी प्रेम दोनों की आवाजाही बनी रहती है. गांधी के हत्यारे गोडसे के प्रति इनकी भक्ति में लगातार इजाफा हो रही है. मैनेजर पांडे के विचार से किसी पार्टी या सत्ता की औकात नहीं है कि वह गांधी के कद को छोटा कर पाए. इस तरह के सवालों से टकराते हुए खुद सवाल करते हैं
"क्या सरकारों की हिंसक कार्रवाइयों के कारण अहिंसा की आकांक्षा गलत साबित हो जाएगी? मेरे लिए गांधी आचरण की उन्नत सभ्यता के प्रमाण थे. उनमें सच को कहने और स्वीकार करने का अपूर्व साहस था और इन सब के पीछे उनकी दुविधा रहित नैतिक ईमानदारी थी."
(संवाद-परिसंवाद 205)
मैनेजर पाण्डेय की आलोचना दृष्टि गांधी की निर्मिति में भक्ति काल की भूमिका को अत्यंत महत्वपूर्ण मानती है. सामान्यतया साहित्य पर गांधी के प्रभाव की चर्चा होती रही है किंतु मैनेजर पाण्डेय गांधी पर भक्ति साहित्य के प्रभाव की पड़ताल करते हैं. गांधी से संबंधित एक सवाल के जवाब में वे कहते हैं "मुझे लगता है कि गांधी की सामाजिक राजनीतिक और नैतिक चेतना के निर्माण में भक्ति आंदोलन के कवियों की महत्वपूर्ण भूमिका रही है सत्याग्रह, रामराज्य, चरखा और पराई पीर को आत्मसात करने की प्रवृत्ति गांधी के राजनीतिक और नैतिक दृष्टिकोणों की बुनियादी विशेषताएं हैं. अगर आप इन सब के मूल स्रोतों की खोज करें तो भारतीय भक्ति काव्य से गांधी का संबंध सहज रूप से सामने आएगा. गांधी को सत्याग्रह की प्रेरणा मीराबाई से मिली. वे मीराबाई को प्रथम सत्याग्रही मानते हैं. रामराज्य की कल्पना उन्हें तुलसीदास से प्राप्त हुई. गांधी का चरखा कबीर का चरखा है जो उपयोगी तो है ही पवित्र भी है. पराई पीर को आत्मसात करने की प्रवृत्ति उनमें नरसी मेहता के काव्य से मिली थी. गांधी अपने वेशभूषा से लेकर आचरण तक में एक ठेठ भारतीय किसान का प्रतिनिधित्व करते हैं जो गरीब तो है पर समझदार भी है और दृढ़ निश्चयी भी. गांधी का भारतीय दर्शन से गहरा लगाव था, उन्होंने गीता की सहज लेकिन मार्मिक व्याख्या भी की है.
समकालीन उपन्यास लेखन से आलोचक मैनेजर पांडेय संतुष्ट नहीं दिखते. उपन्यास और लोकतंत्र जैसी महत्वपूर्ण पुस्तक के लेखक डॉ पाण्डेय हिंदी उपन्यास में अतीत राग के उभार को अच्छा संकेत नहीं मानते. इसे वे 'भारत की दूसरी खोज' कहते हैं. मायानंद मिश्र (प्रथमं शैलपुत्री च), भगवान सिंह (अपने-अपने राम), नरेंद्र कोहली (दीक्षा,अवसर) आदि उपन्यासों के संदर्भ में उनका मानना है कि ऐतिहासिक उपन्यासों में अतीत की ओर जाने की प्रवृत्ति इस कदर बढ़ी है कि वह केवल 19 वीं सदी या भारतीय इतिहास की एक महान घटना 1857 तक भी जाने की स्थिति में नहीं है. उनके अनुसार उपन्यास एक लोकतांत्रिक विधा है. वह वर्तमान से भविष्य की ओर उन्मुख होने वाली रचना दृष्टि की अभिव्यक्ति की विधा है. जबकि उसको अतीत की ओर लौटाया जा रहा है. यह जो अतीतीकरण की प्रवृत्ति हिंदी साहित्य में दिखाई देती है वह व्यापक रूप से ऐसी प्रक्रिया की ओर संकेत है जिसे मैं ‘भारत की दूसरी खोज’ की कोशिश कहता हूं (मेंरे साक्षात्कार 83) पहली खोज में भारत के एक बहु सांस्कृतिक स्वरुप की खोज हो रही थी. भारतीयों के संघर्ष और स्वाधीनता की अदम्य आकांक्षा की खोज हो रही थी. राजा राममोहन राय से लेकर नेहरू तक के इस तरह के प्रयत्न को प्रोफेसर पांडेय भारत की पहली खोज कहते हैं. उक्त दोनों तरह की खोज की तुलना करते हुए मैनेजर पांडेय नरेंद्र कुमार से की जा रही बातचीत में बताते हैं
"पहली खोज स्वाधीनता आंदोलन के दौरान नेहरू की डिस्कवरी ऑफ इंडिया के रूप में हुई उसमें अतीत से वर्तमान और वर्तमान से भविष्य की ओर समाज की यात्रा की चिंता दिखाई देती है जबकि भारत की इस दूसरी खोज में भारत को सुदूर अतीत के ढांचे में भविष्य को ढालने की कोशिश दिखाई देती है. पहली खोज अतीत से वर्तमान की विवेक यात्रा करती थी, दूसरी खोज में वर्तमान से अतीत की भावुकपूर्ण यात्रा है, इसमें उपन्यास का स्वरूप भी बिगड़ा, लक्ष्य भी भ्रष्ट हुआ.”
मैनेजर पाण्डेय की आलोचना मुक्तिधर्मी आलोचना है. उनकी आलोचना में मुक्ति की अवधारणा अत्यंत व्यापकता के साथ विभिन्न रूपों में आती है. एक तो वे आलोचना को एक मुक्त विधा मानते हैं. उनके लिए आलोचना सिर्फ़ रचना तक केन्द्रित नहीं होनी चाहिए. रचना अनुगामानी आलोचना के पार भी वे आलोचना का अस्तित्व मानते हैं. सामाजिक चिंतन और सरोकार से भी दो-दो हाथ करना वे एक अच्छे आलोचक का दायित्व मानते हैं. दूसरे स्तर पर उनका आलोचना विवेक पराधीनता के सभी स्रोतों से टकराते हुए मुक्ति की राह तलाशता है. भारतीय समाज के परिप्रेक्ष्य में प्रो. पाण्डेय स्त्री, दलित और आदिवासी को सर्वाधिक वंचित और पराधीन समूह के रूप चिह्नित करते हैं और उनकी मुक्ति को समाज के विकास के लिए आवश्यक मानते हैं. यही कारण है कि उनकी आलोचना के केंद्र में ये वंचित समूह अपनी सारी सीमाओं और संभावनाओं के साथ मौजूद हैं. उनके लेखों के शीर्षक ही बता देते हैं कि वे आलोचना-कर्म में इस मुक्ति-चेतना को कितना महत्वपूर्ण मानते हैं- जीवन की लय में मुक्ति का राग, श्रृंखला की कड़ियाँ : मुक्ति की राहें, मीरा की कविता और मुक्ति की चेतना, हिन्दी आलोचना और मुक्ति का सवाल आदि. मैनेजेर पाण्डेय की आलोचना सभी तरह के शोषण और दमन के विरुद्ध समाज में मुक्ति-चेतना के निर्माण, प्रसार और विस्तार को अपना अहम दायित्व मानती है.
मैनेजर पाण्डेय युवा रचनाकारों की खबर रखने
वाले वरिष्ठ आलोचक हैं.
वे ऐसे वरिष्ठ और गरिष्ठ आलोचक नहीं हैं जो नए रचनाकारों को
उपेक्षा की दृष्टि से देखें. रणेंद्र, निर्मला
पुतुल, और अनुज लुगुन तक की कविताओं पर उनकी पैनी निगाह रहती
है. सबसे बड़ी बात यह है कि नयी से नयी रचनाओं पर वे
संवेदनशीलता से विचार करते हैं. पंकज चतुर्वेदी से लेकर
बजरंग बिहारी तिवारी तक की आलोचना पर मुक्तकंठ से विचार करते हैं. कनिष्ठ रचनाकारों पर विचार करते हुए वरिष्ठता-बोध उनपर हावी नहीं होता.
समकालीन प्रतिमान में उन्होंने विस्तार से बजरंग बिहारी की आलोचना
पर विचार किया है. नयी रचनाओं में जहाँ उन्हें कमियाँ दिखती
हैं, तो टूक कहते हैं. कई नये कवियों में
उन्हें कुछ हड़बड़ी दिखती है, वहीं कइयों में विषय की विविधता
और कथन-भंगी की ताजगी उन्हें आकर्षित करती है.
कुल मिलाकर मैनेजेर पाण्डेय की आलोचना, आलोचना की विवेकपूर्ण यात्रा का दूसरा नाम है. इस आलोचना में तमाम तरह की मनुष्यता विरोधी मान्यताओं, विचारों, स्थापनाओं से टकराने का माद्दा है. जन विरोधी सत्ता-प्रतिष्ठान से मुठभेड़ करने का ज़ज्बा है और प्राचीनता के नाम पर ‘आदर्श’ का चोला धारण किये पुरातनपंथी विचारधारा को चुनौती देने की प्रचंड तार्किक-क्षमता है. रोचकता और जीवंतता इनके आलोचना-लेखन का सौन्दर्य है. इनके कई सूत्र वाक्य ऐसे हैं जो सुनने में जितने आनंददायक और चुटीले प्रतीते होते हैं, वे उतने ही मारक और गंभीर भी होते हैं. आचार्य रामचद्र शुक्ल के बाद आलोचना को सूत्र-वाक्य में गढ़ने वाले आलोचक मैनेजेर पाण्डेय ही हैं. आलोचना की अवधारणा को सूक्ति में अभिव्यक्त करना साधारण बात नहीं होती. अपने चिंतन को निचोड़ कर ही इसे गढ़ा जा सकता है. यह सूक्ति कथन पाण्डेयजी को भारतीय सूक्ति परंपरा से भी जोड़ता है. उदाहरण के लिए –
“सुविधा की राजनीति दुविधा की भाषा में
व्यक्त होती है.”
“केवल राख ही जानती है जलने का अनुभव.”
“जो लोग जोड़-तोड़ की कला से बहुत जल्दी
अभूतपूर्व साहित्यकार बन जाते हैं, वे कुछ ही
समय बाद भूतपूर्व भी हो जाते हैं.”
“कविता खबर भी होती है लेकिन ऐसी खबर जो
हमेशा खबर बनी रहती है.”
“जहाँ जीवन की अश्लीलता को शालीनता की चादर
से ढककर जीने को ही सभ्यता माना जाता है वहाँ बड़े लोगों के बारे में सच कहने-सुनने
की आदत कैसे होगी?”
“आलोचना जब नितांत रचनाजीवी होती है तो वह
अनिवार्यतः परोपजीवी हो जाती है.”
“आलोचना पुरोहिती नहीं कि यजमान की जय-जयकार
करके उसका कल्याण चाहा जाये.”
“आलोचना अपने समय की विवेक चेतना का प्रतिनिधित्व
करती है.”
“अपने समय, समाज
और इतिहास की प्रक्रिया से परिभाषित मनुष्य ही उपन्यास रचना का लक्ष्य है.”
“उपन्यास मध्ययुगीनता के विरुद्ध आधुनिकता
की अभिव्यक्ति करने वाला साहित्य रूप है.”
“कविता केवल दिलचस्प होने के कारण सार्थक नहीं होती, लेकिन वह उबाऊ होने पर व्यर्थ जरूर हो जाती है.”
आदि-आदि.
मैनेजर पाण्डेय की आलोचना-भाषा जितनी ही सहज है उतनी ही चुस्त और गठी हुई भी. जटिल और दुर्बोध अवधारणाओं को भी इनकी समझाने वाली भाषा सरलता से स्पष्ट कर देती है. आलोचना भी रचनात्मक-लेखन हो सकती है, इस बात की तसदीक मैनेजर पाण्डेय की आलोचना-भाषा से की जा सकती है.
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हमारे समय के एक दृष्टिसम्पन्न विद्वान- आलोचक प्रोफेसर मैनेजर पांडेय के माध्यम से हिंदी समाज का बुद्धि वैभव जिस प्रकार व्यक्त होता रहा है, उसे रेखांकित और विश्लेषित करने के लिए लेखक को साधुवाद।
जवाब देंहटाएंपांडेय जी की आलोचना को समझने-समझाने के क्रम में यह आलेख पाठकों को उनकी मूल पुस्तकों की ओर उन्मुख करता है।
बधाई! इस विस्तृत और सारवान समीक्षा के लिए।
जवाब देंहटाएंबहुत ही सारगर्भित लेख है। आपने एक ही लेख में मैनेजर पांडेय जी के रचनाकर्म और विचारधारा को विवेकपूर्ण तरीके से विश्लेषित कर दिया है और आपकी भाषा शैली भी बहुत प्रभावशाली है।
जवाब देंहटाएंसाधुवाद ! सुन्दर आलेख के लिए .
जवाब देंहटाएंमैनेजर पाण्डेय-आलोचना की विवेकपूर्ण यात्रा/कमलानंद झाँ--
जवाब देंहटाएंश्री मैनेजर पाण्डेय पर यह विस्तृत आलेख उनके संपूर्ण कृतित्व पर एक गंभीर चिंतन का प्रतिफल है-- बहुत कुछ 'आलोचना की आलोचना' । उनकी आलोचना यात्रा मूल रूप से साहित्य के समाजशास्त्र और साहित्य की इतिहास दृष्टि से खाद-पानी लेकर एक नयी संस्कृति के निर्माण के लिए संघर्षरत दीखती है । यह संस्कृति हमारी अपनी परंपरा में प्रतिरोध की संस्कृति भी रही है -साहित्य में भी और समाज में भी । हमारे यहाँ जनगीत और कविताएँ जन आन्दोलनों से भी जन्म लेती रही हैं ।वह समाज की आँख से रचना को देखते और परखते हैं । उनके लिए यही 'आलोचना की सामाजिकता' है । इस आलेख में सबकुछ इतना स्पष्ट है कि अलग से कुछ भी कहना उसका दोहराव हीं होगा । इस आयोजन के लिए श्री अरूण देव और श्री कमलानंद झाँ को साधुवाद एवं श्री मैनेजर पाण्डेय को जन्मदिन की हार्दिक शुभकामनाएँ एवं बधाई !
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जवाब देंहटाएंप्रोफेसर मैनेजर पाण्डेय ने हिन्दी में आलोचना के शास्त्र में नये आयाम जोडकर उसे और समृद्ध व प्रासंगिक बनाया है। झा साहब ने उनकी मुक्ति- केन्द्रित दृष्टि को सही लक्षित किया है।
जवाब देंहटाएंगंभीर और जिम्मेदार आलोचक पर आपके द्वारा लिखित आलेख "मैनेजर पांडे :आलोचना की विवेक पूर्ण यात्रा" कई मायने में महत्वपूर्ण है। अन्तरानुशासनिक समझ को समृद्ध करने में प्रो.मैनेजर पांडे का बड़ा योगदान है। 'साहित्य के समाजशास्त्र की भूमिका' नामक किताब जितना साहित्य को लेकर गंभीर है उससे ज्यादा साहित्य को सामाजिक होने पर विचार करती है।
जवाब देंहटाएंदेश के भीतर घटने वाली छोटी-बड़ी घटनाओं से शायद ही प्रो. पांडे कभी अनभिज्ञ रहे हो। मानव विरोधी कानून के बाद किसानों के हक में कहकर लाए गए किसान विरोधी कानून को लेकर चारों ओर भारी विरोध हो रहा है तब ऐसे में कलकत्ता की एक राष्ट्रीय संगोष्ठी में प्रोफेसर पांडे द्वारा किसानों के लिए कही गयी बात भले नौ साल पुरानी है, लेकिन घाव एकदम तरोताज़ा। उन्होंने कहा था "औपनिवेशिक भारत में किसानों का शोषण, दमन कम नहीं था, कई बार उनकी हत्याएं भी हुई है लेकिन किसानों को आत्महत्या की नैबत कभी नहीं आईं। यह तो स्वाधीन भारत की उपलब्धि रही है कि स्वदेशी सरकारों द्वरा किसानों की हत्याओं की बात तो छोड़ ही दीजिए सिर्फ पिछले बीस सालों में पांच लाख किसानों की आत्महत्या करनी पड़ी है और सभी सरकारें खामौश हैं। इन सभी सरकारों पर जनसंहार का मुक़द्दमा चलाया जाना चाहिए"। वर्तमान सरकार किसान विरोधी होकर भी बड़ी आबादी के चहेते हैं।
अपने आलेख के कई बिंदुओं पर गंभीरतापूर्वक विचार किया है।
आलोचक मैनेजर पाण्डेय पर एक मुकम्मल निबंध।
जवाब देंहटाएंआलोचना विधा के दो रूप हैं-
रचनाजीवी आलोचना
और
जनसंदर्भी आलोचना।
प्रो. मैनेजर पाण्डेय की आलोचना में दोनों का संतुलन है।
वे न रचना को ओझल होने देते हैं और न समाज को।
कमलानंद जी ने पाण्डेय जी के लेखन के सभी पहलुओं को बखूबी समेटा है।
लेखक को बधाई और समालोचन को धन्यवाद।
मैनेजर पाण्डेय की आलोचना दृष्टि और उनके आलोचना के रेंज पर बात करता हुआ बेहतरीन आलेख। असल में मैनेजर पाण्डेय अपनी पीढ़ी के विरले आलोचक हैं, जिन्होंने अस्मितामूलक विमर्श पर गहराई से विचार किया है। कमलानंद झा ने आलोचक मैनेजर पाण्डेय के मुक्ति की चेतना पर गहराई से बात की है, जो कि मैनेजर पाण्डेय की आलोचना दृष्टि का मुख्य स्वर है। इसी आलेख का एक अंश- " मैनेजर पाण्डेय की आलोचना मुक्तिधर्मी आलोचना है। उनकी आलोचना में मुक्ति की अवधारणा अत्यंत व्यापकता के साथ विभिन्न रूपों में आती है।"
जवाब देंहटाएंलम्बे आलेखों के संदर्भ में उबाऊपन का खतरा बना रहता है। इस आलेख की सबसे बड़ी खासियत यह है कि यह आलेख रुचिपूर्ण तरीके से आपको आलोचक के आलोक तक ले जाता है और आलोचक मैनेजर पाण्डेय के मूल्यों, उनके प्रतिबद्धता, दृष्टि और उनके सरोकारों पर गहराई से बात करता है।
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